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रामविलास पासवान की जीवनी का प्रकाशन अगले महीने

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कुछ लोगों के जीवन पर बायोपिक बनता है तो कुछ लोगों की जीवनी लिखी जाती है। आज पेंगुइन हिंदी के प्रेस रिलीज़ से पता चला कि राजनीति के मौसम वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध भारत के वरिष्ठ नेता केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की जीवनी का प्रकाशन हो रहा है। जीवनी लिखी है जनसत्ता के पुराने पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव ने।

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ऩकेंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान की जीवनी प्रकाशित करने जा रहा है जिसे वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव ने लिखा है. यह राम विलास पासवान की पहली विस्तृत जीवनी है. इस किताब  को नवंबर 2019 में प्रकाशित किया जाएगा.

यह पुस्तक वर्तमान भारत के एक कद्दावर राजनेता की एक बांधकर रखनेवाली जीवनी है जिसमें लेखक ने उनके बचपन, अनेक कठिनाइयों को पारकर हुई उनकी शिक्षा-दीक्षा और उनके निजी जीवन से जुड़े अन्य तथ्यों के साथ आधी सदी से ज्यादा के राजनीतिक करियर का लेखाजोखा प्रस्तुत किया है जिस दरम्यान पासवान ने इस देश के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वहन किया. शोधपरक और गहरे साक्षात्कारों पर आधारित इस पुस्तक में श्रीवास्तव एक ऐसे राजनेता के जीवन की प्रवाहमय किस्सागोई पेश करते हैं जो जिसने अपनी पूरी जिंदगी दलित-पीड़ित जनता और समाजिक न्याय की राजनीत को समर्पित कर दी.

पेंगुइन रैंडम हाउस की एडिटर-इन-चीफ़, लैंग्वेजेज, वैशाली माथुर कहती हैं,आज के दौर में ज़मीन से उठकर शिखर तक पहुंचने वाले राजनेता कम ही हैं जिन्होंने इतनी लंबी एक बेदाग पारी खेली है.एक साधारण से परिवार से आनेवाले राम विलास पासवान जिन्होंने अपने जीवन में देश की अहम राजनीतिक घटनाओँ में हिस्सा लिया और उसके नज़दीक से गवाह बने, उनकी जीवनी पाठकों अवश्य ही प्रेरित करेगी और राजनीति के अंत:पुर का परिचय करवाएगी. यह किताब राजनीति शास्त्र ही नहीं बल्कि आधुनिक भारत के इतिहास का भी एक अहम दस्तावेज है.

पुस्तक के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, राम विलास पासवान देश के वरिष्ठ नेताओं में से एक हैं जिन्होंने दलित-पीड़ित जनता और हाशिए पर रहे लोगों के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया. वे जिस भी विभाग में रहे उनकी नीतियों के केंद्र में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के हित व उनका विकास उनकी प्राथमिकता रही है. ये साधारण बात नहीं है कि हाजीपुर ने उन्हें कई-कई बार लोकसभा में चुनकर भेजा. उनकी जीवनी देश की आज़ादी के बाद के इतिहास का एक जीवंत दस्तावेज भी है. वे आगे कहते हैं,मुझे इस बात का आश्चर्य है कि एक इतने लोकप्रिय, वरिष्ठ और समाजिक न्याय की राजनीति के लिए समर्पित नेता की जीवनी अभी तक नहीं लिखी गई. उनके बारे में न के बराबर लिखा गया. यह पुस्तक उसी दिशा में एक प्रयास है.

 

 

 

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नरेश कौशिक की कहानी  ‘मोलकी’

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नरेश कौशिक पेशे से पत्रकार हैं, कहानियाँ भी लिखती हैं। हरियाणा की पृष्ठभूमि की यह कहानी वहाँ के समाज के एक कम जाने गए सत्य का उद्घाटन करने वाली है- मॉडरेटर

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        रामकुमार चौधरी के घर बहू आ गयी है। और ये बात पूरे गांव में आग की तरह फैल गयी थी। इसमें नई बात क्या थी? सभी बहू लेकर आते हैं। पर …इसमें नयी बात थी … तभी तो गांव भर में कानाफूसी शुरू हो गयी थी। जिस घर में सात जवान लड़के बिन ब्याहे बैठे हों वहां रातोंरात बिना लगन सगाई , बिना जीमा झूठी  , बिना ढोल नगाडे. के दुल्हन आ जाना नयी बात ही तो थी ।

      शाम ढलते न ढलते सबको खबर लग चुकी थी कि रामकुमार चौधरी ने अपने बडे. बेटे रामफूल के लिए बहू खरीदी है।  अब रीति रिवाज से ब्याह होता तो दहेज दिखाया जाता , गांव की औरतें गीत गाती बहू को मुंह दिखाई का शगुन देनी जाती , नयी बहू परिवार की औरतों के साथ कुल के देवी देवताओं की पूजा करने जाती,  मंदिर वाले नीम के पेड. के नीचे देवरों के साथ संटी खेलती।  लेकिन कैसा शगुन और कैसी मुंह दिखाई ?….कहां की पूजा और कैसी संटी . . ?  उल्टे गांव भर में सिर जुडने की बात हो गयी थी। स्कूल के पास बस अड’डे पर, चाय की दुकान पर, कुंए पर, खेत में सब जगह लोगों को ”हे मेरी मां ! हाय !  अच्छा ! अरे राम ! ” और भी ना जाने क्या क्या कहने का मौका मिल गया था।

        कुएं पर पानी भरने गयी औरतें तो और मजे लेकर लेकर बखान कर रही थीं। कौन है , कैसी है , कितनी उम्र की है , लंबी है या छोटी है , गोरी है या काली है ? किसी को कुछ नहीं पता था। दुख इसी बात का था। रामकुमार के पडोस में रहने वाली औरतों को भी भनक नहीं लगी थी। इसी खीझ में पानी की बाल्टी भरती एक औरत ने कह दिया , ” ऐ के बेरा कुंआरी भी सै के ना। के बेरा कित तै ठा लाए ? ”(पता नहीं, कुंवारी भी है या नहीं। क्या पता, कहां से उठाकर ले आए हैं?) इतने में एक और ने दबी जबान में कहा, ” कुंआरी ना भी हो तो के फर्क पडै. सै । हाडै भी कुण सा एकै का ए चूड़ा पहरैगी । घर में सात -सात कुंगर सै।” (कुंवारी नहीं भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। यहां कौन सा एक की ब्याहता बनकर रहेगी । घर में सात सात जवान लड़के हैं।) लेकिन तुरंत ही उसे समझ आ गया कि बात कहीं दूर तक ना चली जाए । उसने बात संभालने की कोशिश करते हुए कहा, ” ऐ , बेरा ना बिचारी कुण कर्मा की मारी होगी ?” (अरे, पता नहीं बेचारी कौन करमजली होगी।)

     कुछ दिन और बीते तो यह भी निकल कर आया कि दिल्ली में किसी दलाल से कोई बंगालन लड.की खरीदी है । पता चला कि रामकुमार ने 15 हजार रूपये दिए हैं ।

        हां , सही बात थी । रूकमा कर्मो की ही मारी थी । सिलीगुड़ी के अपने छोटे से गांव में उसने कभी दिल्ली का नाम भी नहीं सुना था , हरियाणा तो दूर की बात । चाय बागान में हफ्ते भर खट खट कर वो , दस साल का छोटा भाई और उसकी विधवा मां 50 रूपये कमाते थे ।  उसी में खुश  थे .  वो तो मौसी ने सपने दिखा दिए । ”दिल्ली में आठ हजार रूपया पगार मिलती है हर महीने । रूकमा रानी बनकर रहेगी । इतनी कमाई में तो तीनों राज करेंगे ।”

     उन्हीं सपनों की डोर पकड़े पकड़े रूकमा ऐसे दलदल में जा फंसी जहां से इस जन्म में तो उसका निकलना मुश्किल था।  रूकमा को क्या पता था जिस सफर पर वो निकली है उसकी कोई मंजिल इस जनम में तो उसे मिलेगी नहीं । दिल्ली रेलवे स्टेशन से रात के अंधेरे में ट्रेन से उतरकर उसके पैर इस घर की दहलीज के भीतर आकर ही रूके ।सब कुछ इतना तेजी से हुआ कि रूकमा को महीनों लग गए हालात को समझने में ।

      घर में घुसते ही एक अधेड. उम्र की औरत ने उसके गले में पडे. दुप्पटे को आगे घूंघट की तरह खींच दिया ।

    अगले दिन उसे परिवार की कुछ और बुजुर्ग औरतों ने इशारों इशारों में बताया, ” घर के बड़े बेटे की ब्याहता है वो . . . पूरे 15 हजार दिए हैं उसके । इसके साथ ही उसे तमाम तरह की नसीहतें दी गयीं । घूंघट मत उतारना ….. नजरें नीची करके रखना …. घर से बाहर मत निकलना और भी ना जाने क्या क्या ।

      रूकमा जार जार रोती रही । बार बार अपनी बोली में कहती रही , ” आमी ऐखाने थाकबो ना । आमी माएर काछे जाबो ।”(मुझे यहां नहीं रहना। मुझे अपनी मां के पास जाना है)

          उसी रात 15 साल की रूकमा को एक कमरे में धकेल कर बाहर से दरवाजा बंद कर दिया गया। 32 साल का फूल सिंह और 15 साल की रूकमा । वो अकाल के मारे भूखे की तरह टूट पडा. ।

     दूर कहीं खेतों से हुर्र हुर्र की आवाज सुनकर रूकमा डर गयी। नीचे आंगन में सोई दादी सास बोली , ” फेर कोए सांड खेत में बडग्या दिक्ख सै । काच्ची फसल बर्बाद हो ज्यागी किसे बेचारे की।” (फिर कोई आवारा सांड खेत में घुस आया है। किसी बेचारे की कच्ची फसल बर्बाद हो जाएगी।)

   तूफान को तो आखिर शांत होना ही होता है । तूफान शांत हो गया और रात सुबह से ​मिलने के लिए आगे बढ़ती रही । मूंज  की चारपाई पर बिछी चादर को फूल सिंह ओढ. कर सो गया । चारपाई के सिरहाने बदरंग तकिया पड़ा था । रूकमा के सपनों की लाशें तकिये पर आंसू बन बन गिरती रही ।

    शादी के घर की बात ही अलग होती है । दीवारों पर रंगाई पुताई देखकर ही गांव के लोग पूछने लगते हैं , ” अरे भई , घर में शादी वादी है क्या? ”  दीवारों की रंगाई पुताई के बाद घर में दर्जी, नाई, कुम्हारी , धोबी , जमादारिन का सबसे पहले आना जाना शुरू होता है । दर्जी घर के बडे. बूढों , बच्चों, लड.कों और जनानियों के कपडे. सिलने के लिए महीने भर पहले ही से ही आंगन में अपनी मशीन जमा लेता है । दूल्हे के कपडे. तो शहर से सिलकर आएंगे ।

     घर पर तोरण बंध जाता है । पंडित जी दूल्हे का ब्याह लिखाने आते हैं । दूल्हे का जनेउ होता है ।

     उधर घर के आंगन से शाम होते न होते औरतों के बन्ने बन्नी के गीतों की शोखी सुनायी देनी शुरू हो जाती है । बन्ने की भाभी गाती है , ” बन्ना खेले गलियों में उड.ाए पतंग . .  ।”

       दूल्हे की दादी परांत भर भर कर बताशे और लड्डूू बांटती नहीं अघाती हैं । दूल्हे की मां भी दुल्हन के लिए बनवाए गहने, कपडे. लत्ते दिखाते दिखाते रात के दो बजा देती है । घर लोगों से भरा रहता है । कोई दूर के रिश्ते की बुआ है तो कोई मामी, कोई भाभी की बहन आयी है तो उससे अलग हंसी ठठा चल रहा है ।

      दूल्हे को सुहागनें उबटन लगा रही हैं तो किसी कोने से मेंहदी की महक उठ रही है । बुआ तेल चढ.ाते हुए मजाक करती है , ” तेरी बहू से बढि.या साड.ी लूंगी। ” इतने में दूल्हे की कोई मनचली भाभी उसे चिकोटी काटती है तो कोई काजल लगाते हुए काजल का टीका उसके गाल पर ही टिका देती है ।”   पास में ही छोटी लड.कियां हाथों पर उबटन मल रही हैं , कुछ मेहंदी लगा रही हैं । शादी केवल दूल्हे की है लेकिन कोई इस खास मौके पर पीछे नहीं छूटना चाहता ।

       आंगन के पिछले हिस्से में कढ.ाई चढ.ी है। हलवाई और उसके कारीगर एक से एक पकवान बनाने में लगे हैं । सीताफल की खट्टी मीठी मसालेदार सब्जी, आलू की रसेदार सब्जी, शुद्ध खोये की बरफी , गर्मागरम रसगुल्ले और मेहमानों के लिए भाजी की महक पूरे मौहल्ले में फैल रही है । जलेबी खासतौर पर बनवायी जाती है । कहते हैं ” सारी मिठाई एक तरफ, जलेबी की रंगत एक तरफ ।”

   घर की बड.ी बूढ.ी औरतें सुहाग का सामान तैयार करती हैं । कोई कलावे बांधती हैं तो कोई दुल्हन की गोद में रखने के लिए नारियल को लाल कपड.े से सिल रही हैं । तभी छोटी बुआ की आवाज सुनायी देती है , ” अम्मां , आज तो दूल्हा बान बैठेगा , आज तो बूरा चावल बनेेंगे ना। ”

      अम्मां हल्की नाराजगी में कहती हैं, ” बेबे , इब तम्म ब्याही थ्याही होगी हो । रीत रिवाज याद राखणे सीख लो । बुड्ढे हाड्ढा का के बेरा , कद बुलावा आजा।”( बहन, अब तुम शादीशुदा हो । रीति रवाज याद रखना सीखो । हमारी तो बूढ़ी हड्डियां हैं, पता नहीं कब ऊपर से बुलावा आ जाए।) बुआ हंसते हुए उनकी बात का जवाब देती हैं, ” तू भी के बात करै सै । इब तो पोता पोती खिलाए बिना कित्त ना जा तू । असली माल खा राख्या है थारी पीढ.ी नै तै ।”

   औरतों से घिरी अम्मां नारियल पर शगुन का लाल कपड.ा सुई धागे से सिलते सिलते गाने लगती है, ” बन्ने ओ तेरे महला मैं चौंसठ पैड़ी , बन्ने ओ मैं तो चढ.ती उतरती हारी ।”

    बगल में बैठी चाची उन्हें छेड.ते हुए गाती हैं, ” बन्ने ओ तेरी अम्मां लड.नी बताई , बन्ने ओ मैं तो उसतै भी चढ.ती आयी।” औरतें खिलखिला कर हंस पड.ती हैं ।

    कुल मिलाकर घर के रौशनदान , खिड.कियों , झरोखें , हर कहीं से शगुन की महक आ रही है ।

   पर चौधरी के घर में शादी का ये समा तो बंधा ही नहीं । ना दीवारों पर रंगाई पुताई , न तोरण, न शामियाना, न मिठाइयों की महक, न रिश्तेदारों से भरा घर … ना हंसी ठिठोली . . ना मेहंदी । सब कुछ खाली खाली सा था।

      ऐसा लगता है मानो कल ही बात हो । चौधरी की घरवाली 15 साल की उम्र में बहू बन कै इस घर में आयी थी। हर सवा साल पर घरवाली की गोद हरी होती गयी। जब तक चौधरी की घरवाली पति के नैन नक्श ठीक से पहचान पाती तब तक वह दस साल में ही चौधरी को सात लड.कों का बाप बना चुकी थी। हर साल चौधरी के आंगन में जच्चा के गीत गूंजते :

” जच्चा की चटोरी जीभ , जलेबी मांग सै,

इसके ससुरे नै गहण धर द्यो हे, सासू का ला दो ब्याज….’’

हर साल घर में गूंद के लड्डुओं की महक उठती . . … हर साल गीत गाए जाते और औरतों को मीठा बाजरा बांटा जाता . . ….हर साल कुआं पूजन होता । बेटों की गिनती के साथ ही चौधरी की मूंछें भी कुछ और उंची होती जाती ।

   चौधरी के घर का नाम ही सात बेटों का घर पड. गया था। बेटों का कद बढ. रहा था और चौधरी का रसूख । यार दोस्त ठिठौली करते , ” भाई , कौन सा मंत्र फूंक रखा है । छोरों की लाइन लगी

है । ”

      जिस घर में खुशियों के मुकाबले मंगल गीत कम पड. जाते थे उसी घर में अब सात जवान लड.के बिन ब्याहे और बिन रोजगार के दिनभर टांग से टांग भिड.ाते घूमते । बड.े बूढ.ों ने सही कहा था, जवान जहान लड.कों के शरीर का बल खेत खलिहान में नहीं निकलेगा तो घर बर्बाद हो जाएगा।

     घर की रूखी पपड़ीदार दीवारों पर अब बर्बादी अपनी परछाईं लंबी करती जा रही थी। बेटों का बाप होके भी चौधरी जान पहचान वालों से लड.कों के लिए कोई रिश्ता बताने को कहते । पर बिना रोजगार कोई अपनी लड.की देने को तैयार नहीं था।

       चौधरी शाम को खाना खाने बैठते तो चौधराइन का खटराग शुरू हो जाता, ” इतना बड.ा कुनबा है , नाते रिश्तेदार हैं । किसी से कहते क्यों नहीं हो । कोई लड.की बताए। ”

      दाई जब जनानखाने से बाहर निकल कर लड.का होने की खुशखबरी देती थी तो चौधरी  मंूछों पर बल देने लग जाते थे । लेकिन अब उन्हें घरवाली पर गुस्सा आने लगा था, ” तूने सात सात की लाइन लगा दी । अब कहां से लाउ इनकी सेज सजाने के लिए लड.कियां ।”

    लेकिन अखाडे. के पहलवान बीरे ने एक दिन चौधरी की समस्या हल कर दी। 30 35 हजार की बात थी लेकिन आखिर में सौदा 15 हजार में पट गया।

    पहले भी ऐसी कई बहुएं पड़ोस के गांवों में आ चुकी थी। कोई सुगना थी, कोई सियामी , कोई झुमकी लेकिन अब सब का एक ही नाम था ………” मोलकी” । रूकमा भी रूकमा नहीं रही थी ” मोलकी ” हो गयी थी।

    घर में चार कमरे पीछे की ओर थे । फिर उसके बाद बड.े बड.े खंभों वाला गलियारा ……. फिर बड.ा सा दालान जिसके बीचों बीच हैंडपंप था। ड्योड.ी के पास दो कमरे थे जो बैठक की तरह इस्तेमाल होते थे । एक ओर बड.ी सी रसोई ।   एक कमरा चौबारे में था।

       रूकमा रामफूल की बहू बन गयी थी। लेकिन वो ऐसी दुल्हन थी जिसे दुल्हन बनने का सपना देखने का मौका ही नहीं मिला । .. बिना मेहंदी वाले हाथों के वो सीधे पिया की सेज पर बैठा दी गयी थी। रूकमा दिनभर रोती रहती . . . भाषा बोली ही  समझने  वाला कोई न था तो उसके आंसू कौन समझता।

    रूकमा से ना किसी ने उसका नाम पूछा और न पता । वो घर के लोगों के लिए ”मोलकी ” थी . .. . . . खरीद कर लायी हुई ।

    बहू की जात कोई भी हो लेकिन सास की जात एक ही होती है । फूलसिंह की मां गिन्नी देवी ने पहले ही दिन फरमान सुना दिया, ” के बेरा कुण जात की है ? रसोई में हाथ नहीं लाण दूंगी मैं इसने । बुहारी झाड.ी का उपर का काम करे जागी । ”

  रूकमा अब चौधरी के घर की बहू थी जो सुबह चार बजे उठकर , लंबा सा घूंघट किए, रात के दस बजे तक घर के सारे ऐसे काम निपटाती जिनमें छुआछूत का कोई पचड.ा नहीं था।

   हर रोज की तरह उस रात भी काम निपटाकर रूकमा चौबारे में पहुंची । बिस्तर पर बैठी पति का इंतजार कर रही थी। उस पति का जिसकी  अभी तक उसने शक्ल भी ठीक से नहीं देखी थी।

     आज रात भी बिस्तर पर रूकमा चुपचाप लेटी थी लेकिन उसे अपने शरीर पर दौड.ते हाथों की तपिश कुछ अजनबी सी लगी। उसने अजनबी हाथों को झटकने की कोशिश की । एक हाथ हटाती तो दूसरा हाथ उसकी पीठ पर रेंगने लगता । कुछ ही देर बाद कई अजनबी हाथ उसके शरीर पर रेंग रहे थे । कई अजनबी हाथ .. …उसके शरीर पर कई परछाइयां तैर रही थीं … … .चारों ओर से गर्म सांसें किसी लू की तरह रूकमा को तपा रही थीं . .. . ..परछाइयां एक एक कर गायब हो गयीं ।

   अब हर रात रूकमा ऐसे ही परछाइयों से जूझती थी। रूकमा किस से कहती ? क्या कहती ? कौन उसकी सुनता ?

   ज्यादा समय नहीं लगा । नयी जबान के सिरे पकडने में रूकमा अपनी जबान भूलने लगी।

    उम्र तो थी ही कच्ची । इतनी परछाइयों में उर्वरा धरती पर ना जाने किसका बीज पड़ा लेकिन फसल जरूर लहलहाने लगी। चौधरी के घर में जच्चा के गीत गाए गए ।

           जच्चा तै म्हारी याणी , भोली जी ,

     जच्चा तै म्हारी कुछ ना जाण जी ’’——-/  गुड का मीठा बाजरा बांटा गया।

     घर में ना जाने कितनी चीजें खरीदी हुई होती हैं लेकिन जो चीज जितनी महंगी उसकी उतनी ही ज्यादा कद्र होती है । रामफूल के घर में केवल एक ”मोलकी ” ही ऐसी थी जिसका खरीदे जाने के बाद भी कोई मोल नहीं था। मोल था तो केवल उसकी कोख का । एक के बाद एक तीन लड.कों और एक लड.की के बाद जब चौथा लड.का हुआ तो तब जाकर कहीं सास ने कहा, ” तन्नै म्हारा कलेजा सीला कर दिया ।”

      सास अपनी ही रौ में कहे जा रही थी , ” एक छोरी तो चलो कोए बात ना । तीज त्यौहार मणावण खातर घर में एक छोरी तो होणिए चाहिए। चार भाइयां मै एक भाण सै तो चारूआं की लाडली भी रहेगी।”  चार भाइयों की लाडली बहन की बात सुनकर पता नहीं क्यों मोलकी की आंखों में आंसू लुढ.क आए। वो भी सात भाइयों की इकलौती बिन ब्याही घरवाली थी।

        श्राद्ध खत्म हो चुके थे और नवरात्र शुरू हो गए थे । आखिरी श्राद्ध वाले दिन   सांझी मैया बनायी गयी /  इस बार भी ‘मोलकी” बेटी के साथ गांव के जोहड. से काली चिकनी मिट्टी लेकर आयी थी। मिट्टी के सितारे बनाए । धूप में सुखाए ।  सितारे के बीच में गेरू से लाल टीका लगाया। फिर उसने पीली मिट्टी से  सांझी मैया का सुंदर सा चेहरा बनाया । हाथ पैर बनाए । उसके लिए गहने बनाए ।

      दीवार पर गाय का गोबर लेपती हुई मौलकी गा रही थी

, ” सांझी संझा हे , कनागत परली पार, देखण चालो हे संझा के लणिहार ।”

मोलकी को दुर्गा पूजा याद हो आयी। उसके गावं में कैसी रौनक होती थी। गोबर के उपर उसने सूखे सितारों से सांझी मैया का शरीर बनाया और फिर मुंह , हाथ पैर चिपकाए और लाल रंग के नए कपड़े से मैया का चेहरा ढंक दिया।

      सांझी मैया में मोलकी को दुर्गा मैया का चेहरा नजर आया। अब यही उसकी दुर्गा मैया थी।

       अब सुबह शाम खूब धूम रहेगी । दोनों बखत सांझी मैया को सबसे पहले भोग लगाया जाएगा। शाम को औरतें बैठकर सांझी मैया के गीत गा रही थी :

, ” म्हारी सांझी ए , के ओढैगी , के पहरेगी,

    मिसरू पहरूंगी स्यालु औढूंगी ,

     मोतियां की मांग भराउंगी । ”

      सांझी मैया मोतियों से अपनी मांग भरवाना चाहती है । लेकिन मोलकी सोच नहीं पायी मोतियों से मांग कैसे भरी जाती है । वो तो बिना हार सिंगार की दुल्हन बनकर इस घर में आयी थी।

      और फिर वो दिन भी आ पहुंचा जिस दिन मोलकी साल में सबसे ज्यादा उदास होती है ।

      नवमी का दिन था। आज सांझी मैया के भाई उसे लेने आएंगे । भोग में भी कुछ खास बनेगा , मेहमान जो आ रहे हैं । मोलकी ने छह छह सितारे लेकर सांझी मैया के बगल में उसके दोनों भाई बना दिए ।

       अगले दिन दशहरा था । सांझी मैया के शरीर पर लगे सितारों को तसले में भरकर बच्चे जोहड. में विसर्जित कर आए। अब सांझी मैया की विदायी की तैयारी हो रही है । कहते हैं दशहरे वाले दिन नवमी को सांझी मैया अपने मायके जाती है । भाई इसीलिए उसे लेने आए हैं ।

     शाम हो चुकी है । मोलकी ने सांझी मैया की कौडि.यों से बनी आंखों में काजल लगाया ।  एक बड़े से मिट्टी के मटके में छेद करके डोली बनायी गयी । सांझी मैया का मुंह और भाइयों को उसमें बैठाया गया।

     रात घिर आयी है । सांझी मैया और मेहमानों को भोग लगा दिया गया है । विदायी की घड़ी आ गयी है ।  बच्चे , औरतें मटके को सिर पर रखकर गीत गाती हुई तालाब की ओर जा रही हैं । पूरे गांव में चहल पहल है । हर गली से औरतों , बच्चों के झुंड अपनी अपनी सांझियों को सिर पर बैठाकर उन्हें विदा करने जा रहे हैं । सांझी मैया की डोली में घी का दीया जलाया गया है । मटके के छेदों से रौशनी निकल रही है और रास्ते पर रौशनी के छोटे छोटे द्वीप बन गए हैं ।

       मोलकी ने बेटी के सिर से सांझी मैया को उतारा और तालाब की लहरों में विसर्जित कर दिया .  ….तालाब में चारों ओर सांझी मैया की डोलियां तैर रही हैं । मैया अपने मायके जा रही है  . . ..।

      मोलकी किनारे पर खड़ी है .  . ..सूनी आंखों मे सवाल लिए . .. दूदूदूदूदूदूर तालाब के किनारे की ओर देखते हुए । सांझी मैया मायके जा रही है . . …  , मोलकी की नवमी कब आएगी ?. …. .उसका भाई कब आएगा   ….वो कब मायके जाएगी? ना जाने कितनी मोलकी ऐसे ही किनारे पर खड़ी थीं जहां से उन्हें अपना कोई छोर नजर नहीं आ रहा था।

लेखक परिचय :

नाम : सुश्री नरेश कौशिक

जन्मस्थान : गांव दतौड. , तहसील सांपला , जिला रोहतक , हरियाणा ।

संप्रति : पिछले 20 साल से अधिक समय से संवाद समिति प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया के हिंदी विभाग ” भाषा ” में बतौर समाचार संपादक कार्यरत ।

विशेष : प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘ हंस’  में ” गांठें ” शीर्षक से पहली कहानी प्रकाशित । ‘मोलकी’ कहानी पर ही दिल्ली अकादमी द्वारा नाटक का मंचन।

मौलिकता प्रमाणपत्र : संपादक जी यह मेरी पूर्णत: मौलिक रचना है । रचना जुलाई 2016 में दिल्ली अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘‘इंद्रप्रस्थ भारती’’ पत्रिका में प्रकाशित ।

 नरेश कौशिक

    ईमेल पता : nareshkaushik.pti@gmail.com

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शुभ्रास्था की कुछ कविताएँ

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दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा शुभ्रास्था के कई परिचयों के मध्य, केंद्र में, वे मूलतः एक लेखिका, कवियत्री हैं। उनकी कुछ कविताएँ-
==================
मैं तुमसे कैसे बात करूँ?
मुझे तुम्हारी भाषा नहीं आती
तुममें व्याकरण और दोष दोनों कम हैं
और मैंने तरकारी में नून कम रखने की की है कोशिश
लगभग हर साँझ
अलसुबह उदास होकर लौटती है
हमारे दरवाज़े से एक गौरैय्या
क्योंकि होते हुए भी लुप्त हो गयी है वो –
तुम्हारे यहाँ –
और मैं हर रोज़ उसके लिए दाने छींटना भूल जाती हूँ
मैं कैसे बात करूँ तुमसे?
तुम्हें विराम चिन्हों की समझ नहीं है।
मुझे डर है कि
मेरा पूरा जीवन हमारे बीच पसरे
अर्द्ध विराम, अल्प विराम और उप विराम को
कोष्ठकों और योजकों के सहारे प्रश्नवाचक से
पृथक् करने में बीत जाएगा।
_____________
अस्त होती मेरी आश्वस्ति को
अपनी विराट जटाओं में थाम लो
हर रोज़ उलझती इन जटिल गुत्थियों को
भस्म में लहालोट अपनी काया में मिला लो
तरल कर दो गृहस्थी के जमे ग्लेशियर
और जमा दो सदियों से बहती भागीरथी को!
हे शिव! सब सरल कर दो ना!
_________
जिस दुनिया से आती हूँ मैं
वहाँ सार्वजनिक दुःखागार में भी
नंगे बदन, भूखे पेट साँझ दीये का तेल जुटता है
हर मौसम सुख के सामूहिक ठहाके लगते हैं
तुम्हीं बताओ ना तुम्हारे इस घर में
मैं परिपूर्णता के दुःख का उत्सव कैसे मनाऊँ?
मैं संतुलन का कर्तव्य निबाहती रही हूँ –
हमेशा
पर विलास के आँसुओं और विपन्नता के कहकहों में
मैं हर रोज़
दूब सी उपजती हूँ
और हर दूसरे पल सूखती हूँ।
———————-
तुमने कहा ‘जाता हूँ’
मुझे लगा जैसे सूरज ज़मीन पर पिघल गया!
मेरे लोक बिम्ब में
कहीं जाने का उद्गार है ‘आता हूँ’।
क्या चाहते हो?
तुम्हें ‘जाओ’ कहकर अनुमति दूँ?
या हतप्रभ बिजली कड़कते हुए निहारूँ?
मेरे लोक में ‘आता हूँ’ की आश्वस्ति
तुम्हारे नहीं होने के अवसाद से
मुझे आज़ाद करती है
————————
रेत पर थोड़े न बनी हैं ये दरारें!
पेशानी पर उभर आयीं
मुस्कुराहटों के कोने से बच निकलीं
आँखों के किनारों पर तैर आयीं
बिल्ली के पाँव संग बंधी
ये नज़रें चुराती और नज़रों को बचाती रेखायें
गंगा के बढ़ आए जल में
श्योक की आवारा धारा में
ब्रह्मपुत्र की उफनाती लहरों में
कोसी के क्लांत केशों में
हाथों की लकीरें और पैरों की दरारें बन
आने वाले मौसमों के भविष्य की रेखाएँ गढ़ रही हैं
उसके पैरों के फूल गए सफ़ेद छाले
राजस्थान की रेत में दौड़ते भागते
पक गए उसके पाँव के माँस
लेह की ठंडी रेत में सूखते
केरल की तट तक पहुँचते
जिस्म पर गहरा गए निशान
हाथों की फट गयी लकीरें
पाँवों की दरदराई बिवाइयाँ
उसके तलवे पर भारत का मानचित्र बनाती हैं
—————————-
भारत के नक़्शे पर तनी नीली नसों में
दौड़ता है गाढ़ा रक्त
खीर भवानी के प्रांगण में पाँव धोते
विंध्यांचल के आँचल में हाथ मुँह पोंछते
और कामाख्या की कमर में लिपट कर रोते
उसने रामेश्वरम के मंदिर तक कई रंगों में
माँ को शंकर और शिव को शक्ति होते देखा
उन रंगों से भारत का मानचित्र बनते देखा
जिनसे रंगती है इतिहास वाली तूलिका
वे रंग वक़्त की लहर से बेपरवाह
अपने बदन के नीले निशानों से
करते रहे हैं नदियों को श्याम
अपनी नन्ही मासूम जाँघों के बीच से रिसते लाल से
भरते हैं टेसू और उड़हुल में रंग
अपने मन में बस गए काले अवसाद से
करते हैं खदानों और खनिज भंडारों को अभेद्य
और अपने पक गए घावों के फूटने से
बिछाते हैं खेतों में हरा मखमला बिछौना
जिन रंगों में पत्थर तोड़ती औरतों के आँसू हैं
और हैं खेत सींचते किसानों के पसीने
रिक्शे चलाते पाँवों से रिसते मवाद
उनमें दुधमुँही देवियों की योनि से बहते ख़ून हैं
उन्हीं रंगों से वक़्त दर्ज़ करता है इतिहास
क़िले भुजबल से फ़तह किए जाते होंगे
लेकिन केवल प्रेम से लिखा जा सकता है इतिहास
जिसमें केवल दर्ज़ नहीं होती घटनाएँ
बल्कि जीए और गाए जाते हैं इति हुए ह्रास
भारत के मानचित्र पर तनी श्याम धमनियों में
दौड़ता है गाढ़ा रक्त
और उस लहू पर नहीं पड़ता
किसी लहर का असर
उस ख़ून में या तो उबल कर गहराता है रंग
या समय के साथ तरल होती है उसकी चमक
———————
तुम्हारे दिए पते पर भेजी सारी चिट्ठियाँ
लौट आती थीं –
हर बार, बार बार।
और हर बार उनके लौटने से वापस लौटती थीं
रुआंसे अक्षरों में लिपटी वो आहें जो
ई-कार और आ-कार के बीच में
छोटी इ बन कर सिकुड़ चुकी थीं।
तुम हो, और अब कभी नहीं होगे
ये अब व्याकरण दोष नहीं
वर्णमाला के व्यंजन हैं
और हमें बाँधने वाली बिखरी मात्राएँ
निरर्थक स्वर!

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एक शाम बराक मुझे डेट पर लेकर गए

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हाल में ही अमेरिका की पूर्व प्रथम महिला मिशेल ओबामा की आत्मकथा ‘बिकमिंग’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ है पेंगुइन हिंदी पॉकेट बुक्स से। अनुवाद किया है कुमारी रोहिणी ने। प्रस्तुत है पुस्तक का एक रोचक अंश- मॉडरेटर

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मई में शनिवार की एक शाम बराक मुझे डेट पर लेकर गए. राष्ट्रपति बनने के चार महीने तक वे अपने दिन उन जरियों को बनाने में लगे रहे जिनसे प्रचार अभियान के दौरान मतदाताओं से किये गए वादे पूरे किये जा सकें, अब वह मेरे साथ किये गए वादे को पूरा कर रहे थे. हम लोग न्यूयॉर्क जा रहे थे, डिनर करने के लिए और एक शो देखने के लिए.

शिकागो में रहने के सालों के दौरान डेट की रात हमारे लिए हर सप्ताह का एक पवित्र हिस्सा होता था, हम लोगों ने अपने जीवन में एक आदत डाल ली थी और हर हाल में उसकी रक्षा करते थे. उस हल्के अँधेरे कमरे में मेज के आमने सामने बैठकर मुझे अपने पति से बात करना अच्छा लगता था. मुझे हमेशा लगता रहा है, और मैं उम्मीद करती हूँ कि हमेशा लगता रहेगा. बराक बहुत अच्छी तरह बातें सुनते, धीरज के साथ और सोच विचार करते हुए. वह जिस तरह हँसते हुए अपने सर को पीछे करते वह मुझे बहुत अच्छा लगता. उनकी  आँखों में जो हल्कापन है वह मुझे पसंद है, उसके अन्दर जो करुणा है वह. साथ बैठकर एक ड्रिंक लगाना या बिना जल्दबाजी के खाना शुरू से ही हमें बहुत अच्छा लगता रहा है, उस पहली गर्मी के दिनों से ही जब हमारे बीच सब कुछ बहुत उत्तेजना भरा था.

अपने न्यूयॉर्क के डेट के लिए मैं तैयार हो गई,मैंने काले रंग का कॉकटेल ड्रेस पहना और लिपस्टिक लगाई, अपने बालों को खूब अच्छी तरह से सजाया. मैं इस बात को सोच कर बहुत उत्तेजित थी कि मैं अपने पति के साथ अकेली जानेवाली थी. पिछले कुछ महीनों में, हम लोगों ने डिनर का आयोजन किया था और केनेडी में साथ साथ प्रदर्शन देखने भी गए थे, लेकिन उसमें हम आधिकारिक हैसियत से गए थे और वहां बहुत से अन्य लोग भी थे. यह सच में रात में छुट्टी लेने जैसा था.

बराक ने गहरे रंग का सूट पहन रखा था और साथ में टाई नहीं थी. मैंने देर दोपहर अपनी बेटियों को किस किया और अपनी माँ को भी और हाथ में हाथ डाले हुए दक्षिण तरफ के लॉन को पार किया और मरीन 1 में चढ़ गए, जो राष्ट्रपति का हेलीकाप्टर है, उसमें सवार होकर हम एंड्रयूज एयरफ़ोर्स के बेस तक गए. उसके बाद हम एयर फ़ोर्स के एक छोटे से जहाज में सवार हुए, उसके बाद जेकेएफ हवाई अड्डे गए, और उसके बाद हम लोगों को हेलीकाप्टर से मैनहटन ले जाया गया. हमारे शेड्यूल बनाने वाले दल और सेक्रेट सर्विस ने बहुत ध्यान से हमारे उस सफ़र की योजना पहले ही बना ली थी, जिसका मतलब था कि बहुत अधिक कार्यकुशलता और सुरक्षा.

बराक ने(सैम कस की मदद से) वाशिंगटन स्क्वायर पार्क के पास एक रेस्तरां का चुनाव किया था, वह जानता था कि स्थानीय रूप से उगाए गए भोजन के ऊपर मेरा जोर रहता था, इसलिए उसने एक छोटे से रेस्तरां ब्लू हिल का चुनाव किया था. जब हम अपने सफ़र के अंतिम चरण में हेलीपैड से निचले मैनहटन की तरफ कार से जा रहे थे तो मैंने देखा कि पुलिस वालों के कार की लालबत्ती का सड़क को घेरा बनाने के लिए इस्तेमाल किया था, मुझे ग्लानि भी हो रही थी कि हमारे शहर में होने भर से शनिवार की शाम की ट्रैफिक का प्रवाह थम गया था. न्यूयॉर्क के बारे में सोचकर ही मुझे हर बार एक तरह से अच्छा नहीं लगता था, वह इतना बड़ा और व्यस्त था कि किसी के भी अहम् को बौना बना सकता था. मुझे याद था कि जब बरसों पहले मैं सरनी, जो प्रिंसटन में मेरी मेंटर थी, के साथ पहली बार इस शहर में आई थी तो किस तरह आँखें फाड़ फाड़ कर देख रही थी. बराक के बारे में मैं जानती थी कि वह कुछ गहराई से महसूस कर रहा था. शहर की बेहद ऊर्जा और विविधता सालों पहले जब वह कोलंबिया में पढता था तो उसकी बौद्धिकता और कल्पना को पंख देने के लिए सबसे उपयुक्त जगह थी.

रेस्तरां में हम लोगों को जो टेबल दिया गया वह एक कोने में था और हमारे आसपास जो लोग बैठे थे वे यह कोशिश कर रहे थे कि कुछ बेढंगा न करें. लेकिन हमारे आगमन को छिपाया नहीं गया था. हमारे आने के बाद कोई भी वहां आ सकता था. बस उसको सेक्रेट सर्विस द्वारा लगाये गए मैग्नेटोमीटर से होकर गुजरना होता था, यह एक ऐसी प्रकिया थी जो जल्दी जल्दी में तो हो जाती थी लेकिन मुझे एक बार फिर तकलीफ हुई.

हम लोगों ने मार्तिनी के लिए आर्डर दिया. हम हलकी फुलकी बातें कर रहे थे. चार महीने तक हमारे जीवन में जो उठापटक चल रही थी लेकिन उसके बावजूद हम बिंदास अंदाज में आये थे- हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि किस तरह एक पहचान दूसरी पहचान के साथ काम करती थी और शादी के अन्दर इसका क्या मतलब होता था. इन दिनों, बराक के जटिल जीवन का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं था जो मेरे जीवन को प्रभावित न कर रहा हो, जिसका मतलब यह था कि बहुत से साझा काम थे जिसके ऊपर हम बात कर सकते थे- उदाहरण के लिए लड़कियों की गर्मी की छुट्टियों के दौरान उसकी टीम द्वारा विदेश यात्रा का आयोजन करना, या वेस्ट विंग में सुबह के समय जो मीटिंग होती थी उसमें मेरे चीफ ऑफ़ स्टाफ की बात सुनी जा रही थी या नहीं- लेकिन मैं आमतौर पर इन बातों को टाल ही देती थी, केवल उस रात ही नहीं बल्कि हर रात. अगर वेस्ट विंग में होने वाली किसी बात से मुझे परेशानी होती थी तो मैं अपने कर्मचारियों के ऊपर इस बात को छोड़ देती थी कि वे बराक तक इस बात को पहुंचा दें, मैं अपने निजी समय से वाइट हाउस के कामकाज को अलग ही रखती थी.

कई बार बराक काम के बारे में बात करना चाहते थे, लेकिन वह अक्सर इस बात को टाल ही देते थे. उसका अधिकतर काम इतना थकाने वाला होता था, चुनौतियाँ बड़ी थीं और अक्सर बहुत मुश्किल भी. जेनरल मोटर्स कुछ दिन में ही दिवालिया घोषित करने वाला था. उत्तर कोरिया ने हाल में ही परमाणु बम का परीक्षण किया था, और बराक जल्दी मिस्र जाकर एक बड़ा भाषण देने वाले थे जिसका मतलब यह था कि दुनिया भर में फैले मुसलमानों की तरफ हाथ बढ़ाना. उसके आसपास की धरती ऐसा लगता था कि हिलने से थम नहीं पा रही थी. जब भी हमारे पुराने दोस्त वाइट हाउस हम लोगों से मिलने आते तो हम उन लोगों से जिस बेचैनी से उनकी नौकरी, बच्चों, बच्चों के शौक आदि के बारे में पूछते कि वे हैरान रह जाते. हम दोनों की ही इस बात में कम रूचि रहती थी कि हम अपनी नई दुनिया की जटिलताओं के बारे में बात करें बल्कि हमारी दिलचस्पी इस बात में होती थी कि घर के बारे में कुछ नया हाल समाचार सुनने को मिले. ऐसा लगता था कि हम दोनों सामान्य जीवन को देखने के लिए तडपते थे.

उस शाम न्यूयॉर्क में हम लोगों ने खाया, पिया, मोमबत्ती की रौशनी में बातें की, उस पल को महसूस किया, हालाँकि हमें यह भ्रम था कि हम उस दुनिया से बाहर आ गए थे. वाइट हाउस बहुत सुन्दर और आरामदेह स्थान है, वह एक तरह का महल है जो घर की तरह है, और अगर हम सेक्रेट सर्विस के नजरिये से देखें जिनके ऊपर हमारी सुरक्षा का जिम्मा है, सबसे आदर्श यही होता कि हम उसकी धरती से बाहर निकलें ही नहीं. यहाँ तक कि उसके अन्दर भी वे इस बात से अधिक खुश होते थे कि हम सीढ़ियों की जगह एलेवेटर का प्रयोग करें, ताकि लड़खड़ा कर गिरने का खतरा कम किया जा सके. अगर ब्लेयर हाउस में बराक और मेरी मीटिंग होती, जो पेंसिलवानिया एवेन्यू के बंद पड़े हिस्से के सामने था, तो कई बार वे हम लोगों से यह आग्रह करते थे कि हम ताज़ी हवा में चलकर जाने के बजाय कार का प्रयोग करें. हमारा इतना ध्यान रखा जाता था हम उसका सम्मान करते थे लेकिन ऐसा लगता था जैसे हम बंदी हों. कई बार मुझे संघर्ष करना पड़ता था, अपनी जरूरतों को दूसरों की सुविधाओं के मुताबिक़ करना पड़ता था. अगर हमारे परिवार का कोई सदस्य ट्रूमैन बालकनी में जाना चाहता था- बहुत प्यारा घुमावदार टैरेस था, जिससे साउथ लॉन दिखाई देता था, और वाइट हाउस में हमारा एकमात्र कुछ हद तक निजी स्थान था- लेकिन वहां जाने से पहले हमें पहले सेक्रेट सर्विस को सूचित करना पड़ता था ताकि वे ई स्ट्रीट वाले हिस्से को बंद कर दें जो कि बालकनी से दिखाई देता था, वाइट हाउस के बाहर जो पर्यटक दिन रात जुटे रहते थे उनको वहां से हटाने के लिए. कई बार मेरा मन होता था कि बालकनी में जाकर बैठूं, लेकिन फिर मुझे यह देखते हुए कि इसकी वजह से कितनी परेशानी होगी, कितने लोगों की छुट्टियाँ खराब हो जायेंगी, यह सब महज इस कारण से कि मेरा मन हुआ कि बाहर बैठकर एक कप चाय पी जाए. यह सब सोचकर मैं बाहर बैठने का इरादा त्याग देती थी.

हमारी गतिविधियों के ऊपर इस कदर नियंत्रण रहता था कि बराक और मैं दिन भर में कितने कदम चलते थे वह भी नाप तौल कर होता था. ज्सिके कारण, हम दोनों ही घर के ऊपर बने एक छोटे से जिम के ऊपर निर्भर हो गए. बराक ट्रेडमिल पर करीब एक घंटा रोज चलते थे, अपनी शरीरिक बेचैनी को कम करने की कोशिश करते थे. मैं भी हर सुबह व्यायाम करती थी, अक्सर कोर्नेल के साथ, जो शिकागो में हमारा ट्रेनर था और अब वह हमारी तरफ से कुछ समय वाशिंगटन में रहता था, सप्ताह में कुछ दिन आता था ताकि हम लोगों को व्यायाम करवा सके.

देश के कामकाज को एक तरफ करने के बाद बराक और मेरे पास बात करने के लिए विषयों की कमी नहीं रहती थी. उस रात डिनर पर हम लोगों ने मालिया के बांसुरी सीखने के बारे में बात की; साशा किस तरह से अपने कम्बल को लेकर डूबी रहती थी वह उसको अपने सर के नीचे रखकर सोती थी. जब मैंने उसको एक मेकअप आर्टिस्ट के बारे में एक मजेदार कहानी सुनाई कि किस तरह एक मेकअप आर्टिस्ट ने हाल में मेरी माँ को एक फोटो शूट से पहले नकली पलकें लगाने की कोशिश की लेकिन लगा नहीं पाया, यह सुनकर बराक उसी तरह से अपना सर पीछे किया और हंसने लगे जिस तरह मुझे लगता था कि वह हँसेंगे. और हमारे घर में एक नया मनोरंजक बच्चा आ गया था जिसके बारे में बातें होती थीं- सात महीने का बहुत ही बदमाश पुर्तगाली कुत्ता, जिसका नाम हम लोगों ने बो रखा था, जो हमें सीनेटर टेड कैनेडी ने उपहार में दिया था, इससे लड़कियों से प्रचार अभियान के दौरान हम लोगों ने जो वादा किया था वह भी पूरा हो गया. लड़कियां लॉन में उसके साथ हाइड एंड सीक का खेल खेलती थीं, पेड़ के पीछे छिपकर उसका नाम पुकारती थीं और वह वह घास पर उछलता हुए उनकी आवाज के पीछे भागता था. हम सब बो को प्यार करते थे.

जब हम लोगों ने आखिरकार खाना ख़त्म किया और जाने के लिए खड़े हुए तो आसपास जो लोग खाना खा रहे थे वे भी खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे, जो मुझे उनकी विनम्रता तो लगी ही लेकिन बेवजह भी लगी. यह भी हो सकता है कि उनमें से कुछ लोग इस बात से खुश हो रहे हों कि हम वहां से जा रहे थे.

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पुरुष थमाते है स्त्री के दोनों हाथों में अठारह तरह के दुःख

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दुर्गा के बहाने कुछ कविताएँ लिखी हैं कवयित्री विपिन चौधरी ने. एक अलग भावबोध, समकालीन दृष्टि के साथ. कुछ पढ़ी जाने वाली कविताएँ- जानकी पुल.

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1

एक युग में

ब्रह्मा, विष्णु, शिव थमाते है तुम्हारे अठारह हाथों में अस्त्र शस्त्र

राक्षस वध  की अपूर्व सफलता के लिये सौंपते हैं

शेर की नायाब सवारी

कलयुग  में

पुरुष थमाते है

स्त्री के  दोनों  हाथों में अठारह तरह के दुःख

स्त्री, क्या तुम  दुःख को तेज़ हथियार बना

किसी लिजलिजे सीने में नश्तर की तरह उतार सकती हो

इस वक़्त तुम्हें इसकी ही जरुरत है

2

अपने काम को अंजाम देने के लिये

दुर्गा अपना एक-एक  सिंगार उतार

साक्षात् चंडी बनती है

ठीक वैसे ही

एक समय के बाद सोलह सिंगार में लिपटी स्त्री को

किसी दूसरे  वक़्त रणचंडी  बनने की जरुरत भी पड़ सकती  है

3

बेतरह रोने वाली

लड़की रुदालियाँ  हो जाया करती हैं

प्रेम करने वाली प्रेमिकायें

हंसती, गाती, ठुमकती स्त्री, बिमला, कमला ऊषा

हो सकती हैं

और किसी सटीक फैसले पर पहुंची स्त्री

बन जाती है

‘दुर्गा’

 4

जब मैं अपने प्रेम को पाने के लिए

नौ दिशाओं में भटक रही थी

तब  तुमने ( दुर्गा माँ )

लगतार  नौ दिन

नौ मन्त्रों की कृपा कर डाली

आज भी जब -तब  उन पवित्र मंत्रो को

अपनी आत्मा के भीतर उतार

एक नयी दुनिया आबाद करती हूँ

पर क्या हर प्रेम करने वालों को

 इस आसान हल के बारे में मालूम है ?

  5

कलयुग में दुर्गा

हंसती, गाती नाचती स्त्रियाँ उन्हें रास नहीं आ रही थी उन्हें घुन्नी स्त्रियाँ पसंद थी

साल में एक दिन वे  दुर्गा को सजा कर उन्हें

नदी में विसर्जित कर आते  थे

और घर आ कर  अपनी  स्त्रियों  को ठुड्डे मार कहते थे

तुरंत स्वादिष्ट खाना बनाओ

यही थे वे जो खाने में नमक कम होने पर थाली दीवार पर दे मार देते  थे

बिना कसूर लात-घूस्से बरसाते आये थे

वे महिसासुर हैं

ये तो तय  है

पर  स्त्रियों

तुम्हारे “दुर्गा “होने में इतनी देरी क्यों हो रही है

6

कुम्हार टोली और गफ्फूर भक्त

कुम्हार टोली के उत्सव के दिन

शुरू हो जाते है

तब फिर सूरज को इस मोहल्ले पर

जायदा श्रम नहीं करना पड़ता

न हवा यहाँ ज्यादा चहल- कदमी करती है

यहाँ दिन कहीं और चला

जाता  है

और रात कहीं और

स्थिर रहते हैं तो

दुर्गा माँ को आकार देने वाले  दिन

बाकी दिनों की छाया तले

अपना गफ्फूर मियाँ

ताश खेलता

बीडी पीता और अपनी दोनों बीवियों पर हुकुम जमाता दिखता  है

पर इन दिनों अपने दादा की लगन और पिता का हुनर

ले कर बड़ा हुआ गफ्फूर भक्त

दुर्गा माँ की मूर्ति में पूरा सम्माहित हो जाता है

सातवें दिन दुर्गा माँ की तीसरी आँख में काजल लगाता हुआ गफ्फूर मिया

कोई ‘दूसरा’ ही आदमी होता है

इन पवित्र दिनों न जाने कितने ही मूर्तियाँ कुम्हार टोली के हाथों जीवन पाती है

बाकी लोग दुर्गा माँ को नाचते गाते प्रवाहित कर आते हैं

और सब भूल जाते हैं

लेकिन गफ्फूर भक्त

कई दिन अपनी उकेरी माँ को याद करता है

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महात्मा गांधी के बारह दूत

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रामचंद्र गुहा के इस लेख का अनुवाद ‘हंस’ के नए अंक में प्रकाशित हुआ है। अनुवाद मैंने किया है- प्रभात रंजन

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कई साल पहले जब मैं नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय में काम कर रहा था तो मुझे किसी अज्ञात तमिल व्यक्ति का पोस्टकार्ड मिला जो उसने महान भारतीय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, ‘राजाजी’ को लिखा था। यह 1950 के दशक के उत्तरार्ध में लिखा गया था, जिसमें नेहरू, पटेल और राजाजी को क्रमशः महात्मा गांधी के हृदय, हाथ और मस्तक लिखा गया था। यह कितनी उपयुक्त बात है। आज़ादी के बाद, मानवीय नेहरू ने जनतांत्रिक भारत को पोषित करने के क्रम में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को नज़दीक लाकर गांधी के बहुलतावाद को आगे बढ़ाया। व्यवहारिक पटेल ने आज़ादी से पहले कांग्रेस को संघर्षशील संगठन के रूप में व्यवस्थित किया था, अब उन्होंने देश के प्रशासनिक ढाँचे को पुनर्गठित करते हुए देशी रजवाड़ों का एकीकरण किया। द्रष्टा राजाजी सरकार में अपने सहकर्मियों के साथ कुछ समय काम करने के बाद उनसे अलग हो गए और उन्होंने स्वतंत्र पार्टी का गठन किया तथा प्रभावी और अहंकार में चूर कांग्रेस पार्टी का मुक़ाबला करने लगे।
आज की राजनीति ऐसी हो गई है कि इसने बड़े त्रासद ढंग से जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया है, जबकि सच यह है कि दोनों सहकर्मी थे और दोनों ने साथ साथ मिलकर काम किया। दोनों में असहमतियाँ थीं, निजी और राजनीतिक; लेकिन दोनों मतभेदों को परे करके देश को एकीकृत करने और इसको जनतांत्रिक रूप देने के लिए एक साथ काम करते रहे। गांधी की हत्या के तत्काल बाद के दौर के कुछ राजनेताओं के पत्र हैं जो उतने ही दिल को छू लेने वाले हैं जैसे इन दोनों नेताओं के पत्र हैं। जैसे नेहरू ने पटेल से कहा कि ‘बापू की मृत्यु के बाद सब कुछ बदल गया है, और हमें एक अलग तरह की और मुश्किल दुनिया का सामना करना पड़ेगा। पुराने विवादों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि हम सभी लोगों से समय की माँग यह है कि जितना संभव हो सके उतनी नज़दीकी और सहयोग भाव से हम काम करें…’ जवाब में पटेल ने कहा, ‘आपने जो भावना प्रकट की मैं तहे दिल से उस से सहमति जताता हूँ… हाल की घटनाओं से में बहुत दुखी हुआ था और मैंने बापू को लिखा था… उनसे गुज़ारिश की थी कि मुझे मुक्त कर दें, लेकिन उनकी मृत्यु के कारण सब कुछ बदल गया और जो संकट हम लोगों के ऊपर आया है उसने हमें जाग्रत बनाया है और हमारे अंदर इस बात की समझ फिर से पैदा की है कि हम लोगों ने साथ साथ कितना कुछ हासिल किया है और दुःख में डूबे देश के हित में यह ज़रूरी है कि इस तरह के संयुक्त प्रयास आगे भी किए जाएँ।‘
अगर नेहरु और पटेल ने 1948 के आरम्भिक दिनों में ही अपने मतभेदों को न भुलाया होता तो गणतंत्र बना ही नहीं होता। विभाजन के ज़ख़्म थे, बर्बर सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे और लाखों शरणार्थियों का पुनर्वास करना था, साम्यवादी असंतोष उबल रहा था, हिंदू कट्टरवादियों के हौसले बढ़ रहे थे, बारिश नहीं हो रही थी और विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम हो गया था, देश की अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ख़राब थी। कुछ विदेशी प्रेक्षकों का ऐसा मानना था कि यह एक देश के रूप में बचा रह जाएगा; लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि यह कभी सक्रिय जनतंत्र बन पाएगा। फिर भी यह बना। यह चमत्कार बहुत से स्त्री-पुरुषों के मिले जुले प्रयासों से संभव हुआ, जिन्होंने साथ साथ सहकार की भावना से काम किया, लेकिन शायद तीन देशभक्त सबसे ऊपर थे: नेहरु और पटेल, तथा क़ानून मंत्री और भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार डॉक्टर बी॰आर॰ अम्बेडकर।
अम्बेडकर जीवन भर कांग्रेस पार्टी और विशेषकर गांधी के आलोचक रहे। उनको आज़ाद भारत की सरकार में शामिल होने के लिए महात्मा गांधी की नज़दीकी सहयोगी राजकुमारी अमृत कौर ने मनाया था। दूसरी तरफ़, नेहरु और पटेल गांधी के शिष्यों में ख़ास थे, या जैसा कि मैं इस लेख के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कहना चाहता हूँ दूत थे। जब हम ग़ुलाम देश थे तब से ही उन्होंने महात्मा गांधी के निर्देशों के अनुसार काम किया, और उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने बहुत से पृथक और विभाजित हिस्सों को एक करते हुए एक जनतांत्रिक देश बनाकर उनके उदाहरण को आगे बढ़ाने का काम किया।
आज़ादी के बाद, पटेल और नेहरु अपनी अपनी मृत्यु तक सरकार का हिस्सा बने रहे, जो क्रमशः दिसम्बर 1950 और मई 1964 में हुई। महात्मा गांधी के बेहद क़रीबी लोगों में दो अन्य लोगों ने भी सरकारी स्तर पर काम किया। वे थे राजेंद्र प्रसाद और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद। प्रसाद ने भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में असाधारण काम किया, विचार विमर्शों को उन्होंने निश्चित दिशा में और कई बार सख़्ती के साथ निर्देशित किया। उसके बाद वे भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति बने, जिस पद की ज़िम्मेदारियों को उन्होंने गरिमा और सादगी से निभाया, बल्कि शायद बहुत अधिक मितभाषिता के साथ। आज़ाद, जो गांधी के सबसे क़रीबी मुस्लिम सहयोगी थे, विभाजन से टूट गए थे, सामासिक और बहुलतावादी भारत के उनके विचारों के लिए यह बहुत बड़ा झटका था। इसके बावजूद, शिक्षा और संस्कृति के हमारे पहले मंत्री के रूप में उन्होंने हमारे सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के विस्तार के ऊपर ध्यान दिया जबकि साहित्य, संगीत, नाटक, नृत्य और कला के क्षेत्र में नई राष्ट्रीय अकादमियों का निर्माण किया।
जब 1950 और 1960 के दशक में भारतीय जनतंत्र अपने पैर जमा रहा था तो सरकार में कुछ विशुद्ध गांधीवादी थे, तो कुछ विशुद्ध गांधीवादी विपक्ष में भी थे। विपक्ष के विशुद्ध गांधीवादियों में सबसे प्रमुख थे जे॰बी॰ कृपलानी, जो गांधी को पटेल, राजाजी और नेहरु के भी पहले से जानते थे। गांधी के दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के तत्काल बाद दोनों की मुलाक़ात शांतिनिकेतन में हुई थी, और चंपारण सत्याग्रह के दौरान उन्होंने गांधी के साथ साथ काम किया। नेहरु और पटेल की तरह कृपलानी ने भी ब्रिटिश जेल में कई साल बिताए; लेकिन उनके विपरीत, आज़ादी के बाद उन्होंने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का दामन छोड़ दिया और विपक्ष में अंतरात्मा की आवाज़ बन गए। वह तीन अलग अलग राज्यों से सांसद निर्वाचित हुए, वह भी अपनी निजी विश्वसनीयता के कारण। कृपलानी लोकसभा में नेहरु सरकार के कटु आलोचक बन गए, विशेषकर चीन के साथ सीमा संकट के काल में, जब उन्होंने प्रभावशाली तरीक़े से रक्षा मंत्री वी॰के॰ कृष्ण मेनन की असफलताओं का ख़ुलासा किया।
जून 1975 में जब इमरजेंसी की घोषणा हुई तो कृपलानी 87 साल के थे, बीमार थे। फिर भी, उन्होंने 2 अक्टूबर गांधी जयंती के दिन राजघाट पर प्रतिरोध सभा का आयोजन किया। उसके ठीक बाद उनको अस्पताल ले जाया गया। उनको देखने गये एक मित्र ने देखा कि उनके शरीर में तरह तरह की नलियाँ लगी हुई थीं। जब उन्होंने कृपलानी से यह पूछा कि वे कैसे थे, तो उस उम्र में भी उत्साह से भरपूर जनतंत्र के उस सिपाही ने जवाब दिया: ‘मेरे पास कोई संविधान नहीं है। जो कुछ भी बचा है सब संशोधन हैं।‘
एक महान गांधीवादी ने काम सरकार के साथ शुरू किया और बाद में विपक्ष में चले गए। वह सी. राजगोपालाचारी थे, जिनकी चर्चा ऊपर हो चुकी है, जिनको गांधी ने एक बार ‘मेरी अंतरात्मा का रखवाला’ कहा था। राजाजी भारत के पहले गवर्नर जनरल बने, फिर गृह मंत्री, फिर मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री। हालाँकि, इस बात को लेकर उनकी चिंता लगातार बढ़ती जा रही थी कि इतने बड़े देश में एक दल का प्रभाव जनतंत्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं था। इसलिए 1956 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी; तीन साल बाद, अस्सी साल की उम्र में उन्होंने एक नए राजनीतिक दल का गठन किया किया जिसका नाम था स्वतंत्र। इसने उदारवादी मूल्यों एवं मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था का प्रचार किया, जबकि सच्ची गांधीवादी परम्परा के मुताबिक़ स्पष्ट रूप से जाति और सामुदायिक पूर्वग्रहों से मुक्त था।
अब मैं आता हूँ गांधी की सबसे असाधारण महिला अनुयायी कमलादेवी चट्टोपाध्याय की तरफ़। आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री नेहरु ने उनको मंत्रिमंडल में मंत्री बनने का आमंत्रण दिया। लेकिन उन्होंने दलीय राजनीति से पूरी तरह दूर रहने का फ़ैसला किया, और सीधे तौर पर आम आदमी और आम औरत की सेवा करने का फ़ैसला किया। कमलादेवी ने पहले शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए काम किया; और उसके बाद भारत के हस्तकरघा क्षेत्र के पुनरोद्धार का काम किया। दोनों ही क्षेत्रों में बिना अपने ऊपर ध्यान आकर्षित किए उल्लेखनीय काम किया, साथ ही समर्पित कार्यकर्ताओं और सहकर्मियों को पोषित करने का काम भी वह करती रहीं।
समाज सेवा के क्षेत्र में एक और प्रमुख महिला कार्यकर्ता थीं मृदुला साराभाई, जो गांधी के आरम्भिक सरपरस्त अंबालाल की पुत्री और भविष्य में भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के वास्तुकार विक्रम साराभाई की बहन थीं। विभाजन के बाद मृदुला बहन ने अपहृत स्त्रियों को उनके परिवार से मिलवाने की दिशा में बहुत बड़ा काम किया। उसके बाद, उन्होंने स्वयं को कश्मीरी लोगों के अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया, जो 1950 के दशक में आज की ही तरह बहुत सी बुनियादी सुविधाओं से महरूम थे जो भारत के अन्य राज्यों के नागरिकों को प्राप्त थीं। सिद्धांत और साहस की प्रतिमूर्ति मृदुला बहन जनतंत्र और अहिंसा के प्रति समर्पित रहीं, उनको या दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त था कि वह ब्रिटिश राज के दौरान भी जेल गई और आज़ाद भारत में भी।
और ज़ाहिर है, जैसा कि अति प्रसिद्ध भारतीय जनतंत्रवादी जयप्रकाश नारायण ने किया। जेपी का गांधी के साथ आरम्भिक जुड़ाव उनकी पत्नी प्रभा देवी के कारण हुआ, जो साबरमती आश्रम में रहती थीं। गांधी के जीवन काल में जेपी एक जोशीले समाजवादी थे जिनको ऐसा लगता था कि महात्मा एक बुज़दिल प्रतिक्रियावादी थे। गांधी की मृत्यु के बाद वे उनकी राह के क़रीब आए। आपातकाल का उनके द्वारा किया गया विरोध हमारे इतिहास और क़िस्से कहानियों का हिस्सा है, हमारे जनतांत्रिक जीवन में उनके अन्य योगदान भी उतने ही उल्लेखनीय हैं लेकिन उनके बारे में लोग कम जानते हैं। मुझे विशेष रूप से नागालैंड और कश्मीर में रहने वाले भारतीय नागरिकों और भारतीय राज्य के बीच सम्माननीय समझौते के लिए दशक भर किया गया उनका काम याद आता है। 1966 में कश्मीर के बारे में लिखते हुए जेपी की टिप्पणी थी: ‘अगर हम ज़बरदस्ती शासन करते रहे और इन लोगों का दामन करते रहे या उनको दबाते रहे या उनके राज्य को अधीन बनाकर या किसी अन्य तरीक़े से उसके नस्लीय या धार्मिक चरित्र में बदलाव की कोशिश करते रहे तो मुझे लगता है कि राजनीतिक रूप से यह बहुत आपत्तिजनक काम होगा।‘
महात्मा गांधी के दो अन्य दूत आज़ाद भारत में समाज सेवा के काम में बहुत सक्रिय रहे। वे थे जे॰सी॰ कुमारप्पा और मीरा बहन(मैडेलीन स्लेड)। दोनों 1920 के दशक में गांधी आश्रम में आए और उसके बाद से वे उनके बेहद क़रीबी बने रहे। दोनों अग्रणी पर्यावरणवादी थे। कुमारप्पा प्रशिक्षित अर्थशास्त्री थे और ग्रामीण जीवन के चिरस्थायी पुनर्नवीकरण में उनकी गहरी रुचि थी। 1947 से 1960 में अपनी मृत्यु तक वे जल संरक्षण, ओर्गेनिक खेती, और सामुदायिक वन प्रबंधन को बढ़ावा देने का काम करते रहे, और उसकी हिमायत में लगे रहे जिसको वे ‘स्थायित्व की अर्थव्यवस्था’ कहते थे। उन्होंने भारतीय सामाजिक कार्यकर्ताओं की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया, साथ ही जाने माने पाश्चात्य अर्थशास्त्री ई॰एफ़॰ शुमाकर को भी प्रभावित किया, जिनकी किताब ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ उन विचारों के ऊपर आधारित थी जो उन्होंने गांधी और कुमारप्पा से ग्रहण की थी।
कुमारप्पा ने आज़ादी के बाद के साल अधिकतर तमिलनाडु के गाँवों में बिताए। इस बीच मीरा बहन गढ़वाल हिमालय में काम करती रहीं, वह भी ग्रामीण दीर्घकालिक विकास को लेकर काम करती रहीं। वह बड़े बाँधों और एकल वनीकरण की तब से आलोचक थीं जब उनकी शुरुआत हुई भी नहीं थी, और आधुनिक मनुष्य के लालच और अभिमान की भी। जैसा कि उन्होंने अप्रैल 1949 में लिखा: आज की त्रासदी यह है कि शिक्षित और पैसे वाला तबक़ा अस्तित्व से जुड़ी महत्वपूर्ण बुनियादी चीज़ों से पूरी तरह अनभिज्ञ है- हमारी धरती माँ, तथा पशु और वनस्पतियों की आबादी जिसको वह पालती-पोसती है। मनुष्य को जब भी मौक़ा मिला उसने प्रकृति के सुनियोजित संसार को निर्ममता से लूटा और अस्त-व्यस्त कर दिया। अपने विज्ञान और मशीनों के बूते हो सकता है कि कुछ समय के लिए उसको भारी लाभ हो, लेकिन आख़िरकार यह तबाह हो जाएगा। हमें प्रकृति के संतुलन का अध्ययन करने की आवश्यकता है, और अगर हम शारीरिक रूप से स्वस्थ और नैतिक रूप से शालीन प्रजाति के रूप में बने रहना चाहते हैं तो अपने जीवन को उसके क़ायदों के अंतर्गत विकसित करने की ज़रूरत है।‘
मैंने बहुत संक्षेप में गांधी के ग्यारह असाधारण शिष्यों के बारे में लिखा है जिन्होंने अपने गुरु की मृत्यु के बाद उनके कामों को आगे बढ़ाया। मेरे इस शीर्षक के मुताबिक़ बारहवें दूत उस देश में काम करते रहे जो अविभाजित भारत से अलग हो गया, यानी पाकिस्तान में। वे थे खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान, सीमांत गांधी। बादशाह खान ने पठानों के न्याय और आज़ादी के लिए दशकों संघर्ष किया, पाकिस्तान राज्य और सेना का मुक़ाबला किया, जबकि उनके पास हथियार महज़ सत्य, प्यार और अहिंसा का था। उन्होंने अनेक साल जेल में गुज़ारे, और कई साल उन्होंने निर्वासन भी भोगा। गांधी की जन्मशताब्दी के साल 1969 में जब वे भारत आए तो उन्होंने हम लोगों को इसके लिए झाड़ लगाई कि हम लोगों ने सांप्रदायिक हिंसा का दमघोंटू माहौल बनने दिया जो राष्ट्रपिता की स्मृति को अपवित्र करने जैसा है। कुल मिलाकर, बादशाह खान गांधी के बाद शायद सबसे बहादुर गांधीवादी रहे।
गांधी और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास सब जानते हैं; लेकिन आज़ाद भारत के जीवन को समृद्ध बनाने में गांधीवादियों ने जो योगदान किया उसको हम लगभग भूल चुके हैं। उनके जाने के बाद उनके इतने सारे अनुयायियों ने इतने सारे प्रशंसनीय काम किए, जो गांधी के नेतृत्व और समूह निर्माण की उनकी लगन का बहुत बड़ा प्रमाण है। चाहे भारत हो या और कोई जगह, शक्तिशाली और प्रसिद्ध लोग, चाहे वे राजनीति, खेलकूद या व्यवसाय के क्षेत्र के शक्तिशाली तथा प्रसिद्ध लोग हों, उनकी यह प्रवृत्ति होती है कि वे सारी सत्ता और महानता को अपने इर्द गिर्द ही बनाए रखना चाहते हैं। गांधी इसके बहुत बड़े अपवाद थे। उनके अंदर यह दुर्लभ गुण था कि वे किसी व्यक्ति की प्रतिभा को पहचान लेते थे, उस आदमी को अपने क़रीब ले आते थे, उस आदमी के व्यक्तित्व और उसकी क्षमताओं को पोषित-विकसित करते थे, उसके बाद उस आदमी को अपने चुने हुए ढंग से जीवन जीने के लिए मुक्त कर देते थे।
गांधी के बाद के इन गांधिवादियों ने सरकार के अंदर काम किया, उसको मानवीय बनाने की कोशिश की। उन लोगों ने सरकार के विपक्ष में रहकर काम किया, सत्तारूढ़ दल को ज़िम्मेदार ठहराने के लिए काम करते रहे। उन लोगों ने समाज के लिए काम किया, आर्थिक स्वावलम्बन, सामाजिक समता, धार्मिक बहुलता, और पर्यावरण की दीर्घजीविता के लिए काम करते रहे। अपने उस्ताद की तरह ही गांधी के इन दूतों ने इस बात को समझ लिया था कि देश कोई लिखा जा चुका लेख नहीं था बल्कि सतत चलने वाली प्रक्रिया थी। वे इस बात को जानते थे कि संविधान के आदर्शों और ज़मीन पर दैनन्दिन के जीवन के बीच बड़ी गहरी खाई थी। उन लोगों ने जिस तरह से संभव हो सके इस खाई को भरने के लिए ख़ुद को समर्पित कर दिया। हन उनसे अभी भी सीख सकते हैं।

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संपूर्ण क्रांति के बजाय हम विपरीत क्रांति के काले बादल देखते हैं

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आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती है। उनकी किताब ‘मेरी जेल डायरी’ पढ़ रहा था। चंडीगढ़ जेल में जेपी ने यह डायरी मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी थी जिसका हिंदी अनुवाद डॉक्टर लक्ष्मीनारायण लाल ने किया था और तब राजपाल एंड संज ने इसको प्रकाशित किया था। डायरी में 7 अगस्त की इस टीप पर ध्यान गया, जो संपूर्ण क्रांति को लेकर है। आप भी पढ़िए और लोकनायक को याद कीजिए- मॉडरेटर

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7 अगस्त

संपूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा है। क्या अब यह इतिहास की विडंबना रहेगी। सभी जी हुज़ूर, बुज़दिल और चाटुकार अवश्य ही हम पर हंस रहे होंगे। उन्होंने सितारों को पाने की आकांक्षा की थी लेकिन नरक में गिरे। इस तरह वे हमारा उपहास कर रहे होंगे। विश्व में उन्हीं लोगों ने सब कुछ पाया है जिन्होंने सितारों को पाने की आकांक्षा की है चाहे इसमें अपने जीवन का उत्सर्ग करना पड़ा हो।

संपूर्ण क्रांति के बजाय हम विपरीत क्रांति के काले बादल देखते हैं। चारों ओर जिन उल्लू और गीदड़ों के चिल्लाने और गुर्राने की आवाज़ हम सुनते हैं उनके लिए यह दावत का दिन है। चाहे रात कितनी भी गहरी क्यों न हो सुबह अवश्य होगी।

किंतु क्या सुबह अपने आप ही होगी और हमें हाथ में हाथ धरे चुपचाप ही बैठे रहना होगा? यदि सामाजिक क्रांति को प्राकृतिक क्रांति के बाद आना है तो सामाजिक परिवर्तन के लिए मानवीय प्रयास के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। तो हमें क्या करना है? जी हाँ- जिन्होंने यह नारा उठाया और गीत गाया उन्हें अपने आपको क़ुर्बान करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए और बलिदान की वेदी का जिसने पहला चुंबन किया वह अवश्य ही उनका नेता होना चाहिए। भ्रम छँट गए हैं और निर्णय ले लिया गया है।

काल रात देवी भगवती की पूजा करते समय मैंने इस अंधकार से निकलने का कोई मार्ग पूछा था और आज प्रातः यह उत्तर मुझे मिला। अपना मन शांत और निश्चिंत पाता हूँ।

प्रभा के जाने के बाद मुझे जीवन में कोई रुचि नहीं रही। यदि सामाजिक कार्य के लिए विशेष अभिरुचि विकसित न हुई होती तो मैं सन्यास लेकर हिमालय चला गया होता। मेरा मन भीतर भीतर रो रहा था लेकिन बाहर से मैं जीवन के सभी कार्यों में लगा हुआ था। मेरा स्वास्थ्य गिर रहा था। उदासी की इस घड़ी में कुछ अनायास बात हुई जिसके कारण मेरे भीतर प्रकाश हुआ। मेरा स्वास्थ्य भी ठीक होने लगा और मैंने नई शक्ति और उत्साह का अनुभव किया।

1973 का अंतिम महाने था। मैं पवनार में था। मुझे भीतर से प्रेरणा हुई कि मैं युवा वर्ग का आह्वान करूँ। मैंने उनके नाम एक अपील की और ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ शीर्षक के अधीन उसे समाचार पत्र में छपने के लिए भेजा। मेरे अनुमान से बढ़कर इस अपील पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हुई।

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ईशान त्रिवेदी की नई कहानी ‘उड़न’

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ईशान त्रिवेदी की कहानियाँ एडिक्टिव होती हैं- एक पढ़िए तो दूसरी पढ़ने की तमन्ना जाग उठती है। यह उनकी नई कहानी है उनके आत्मकथ्य के साथ-

‘जो हाथ आया वो पढ़ लिया’ वाले अंदाज़ में बचपन से खासी जवानी तक काफी कुछ पढ़ लिया था। गुंटर ग्रास से लेके पैकेट्स पे छपी मैन्युफैक्चरिंग डेट और इंग्रेडिएंट्स तक। फिर घर की चूल्हा चक्की ने एकदम पढ़ने नहीं दिया। खूब लिखा लेकिन सब सत्यानासी। औरों का तो नहीं जानता लेकिन टीवी और फिल्मों के लेखन ने मेरा तो कचूमर निकाल ही दिया। ५ फिल्में बनायीं। क्यों बनायीं किसलिए और किसके लिए बनायीं – आज भी समझ नहीं पाता। फिलहाल तो एक ठंडी सांस भर के और ‘खैर’ कह के काम चला लेता हूँ। और हाँ – ६ साल अभिनय भी किया था। सतही एक्टर्स की ‘दूकान’ ज्यादा नहीं चलती सो नहीं चली। बीच में कुछ कॉर्पोरेट्स में ऊंचे पदों पे भी काम किया। स्ट्रेस इतना कि दिन में कई बार बाथरूम जाके उल्टियां करता था। अब लिखना शुरू किया है। ये सोच कर कि वैसा सत्यानासी नहीं लिखना। कहीं तो ठहरूं।’

उस ज़माने में छोटे कस्बों में फ्रिज नहीं होते थे। बारिशों में सब्ज़ियाँ टिकती नहीं थीं। शुक्रवार के बाद सीधा बुधवार का हाट लगता था और वो भी मरगिल्ला सा। जब सब्ज़ी का टोकरा खाली हो जाता तो दादी और टुइंयाँ दादी घोघर के पार जंगल में जातीं और कुछ अडंग-बडंग चुन के लातीं। किसी के पत्ते तो किसी के डंठल तो किसी के फूल। जब ये छुँक के परोसा जाता तो स्वाद दिव्य होता। दोनों बुढ़ियों का सरकंडे की डोलचियाँ लेके जंगल में गुम हो जाना, मुझे बिलकुल वैसा लगता था जैसा प्रोग्रेस पब्लिकेशन की चित्रकथाओं में किसी रूसी राजकुमारी का जंगल से मशरुम चुनना। मेरी तमाम ज़िद के बावजूद दादी मुझे कभी अपने साथ नहीं ले जाती थीं। छोटा बच्चा, जंगल – यही सब रहा होगा उनके दिमाग में। वो जितना मना करतीं मेरे मन में उनके ये एडवेंचर्स और भी तिलिस्मी होते जाते। आखिर एक दिन उन्होंने हामी भर ही दी। बारिश तो पिछले चार दिन से नहीं हुई थी लेकिन तेज़ हवाओं ने दंद फंद मचा रखा था। पॉपलर के पेड़ दोहरे हो जाते और हवा कमीज में घुस के गुब्बारा हो जाती। डोलची पैराशूट की तरह जब खींचती तो लगता – छोड़ दो ज़मीन और आसमान हो जाओ। घोघर वैसे तो पिद्दी सी नदी थी लेकिन आज वो भी उफान पे थी। ये उस वख्त की बात है जब पहाड़ी नदियाँ तराई छू के भी चमकीली साफ़ बहती थीं। घोघर पार वो दुनिया थी जहां मैं पहले कभी नहीं गया था। पहले ऊंची ऊंची घास आई। कभी कभी कुछ सरसराता सा था उसमें। ‘घोडा-पछाड़ है’ – दादी ने डराने की कोशिश की, पर सांपों का डर मेरे मन में कभी से नहीं रहा। सांप, छिपकली, मुर्दे, भूत – ये सब मुझे कभी नहीं डरा पाये। घास के तुरंत बाद सीली हुई छाल वाले बड़े बड़े दरख़्तों का सिलसिला शुरू हुआ। मशरुम सीली खोइयों में पनप रहे थे। साफ़, चक्कत्तेदार और कभी कभी सुर्ख लाल। कंधे झुकाये पलाश का एक झुरमुट सिमलउआ पे छाता बना टिपटिपा रहा था। दादी और टुइंयाँ दादी को सब पता था। कहाँ जाना है और कहाँ क्या मिलेगा। हलके से छुँकी अमचूर वाली सिमलउए की सब्ज़ी – मेरे मुंह में इस स्वाद की यादें चटखारे भर रही थीं। सरकंडे की डोलचियाँ  बेथुआ, कुंठ और ढोल कनाली से भर गयी थीं। छोटे छोटे गुलाबी फूलों का एक गुच्छा टूइंया दादी की डोलची से झांकता हुआ मुझे देख रहा था। मैंने उसे मुंह चिढ़ाया तो तेज़ हवा के बहाने डोलची में बेथुआ के पीछे दुबक गया। झुरमुट से होके एक रास्ता जाता था जिसके दोनों तरफ दीमकों के ढूह थे। बारिशों में वो ढूह चिकनी मिट्टी से बनी सुराहियों से लग रहे थे। दूर दूर तक फैले। जैसे किसी जादुई क़िले तक पहुँचने का रास्ता हो। पता नहीं ये आँखों का छलावा था कि मुझे लगा उनके मुंह से भाप उठ रही थी। पता नहीं क्यों मुझे गिरदा याद आ गए। शायद दीमकों के ढूह की वजह से। जैसे घोघर उत्तर में वैसे ही ढेला पश्चिम में। मेरा क़स्बा दो छुट-नदियों के बीच बसा है। ढेला के उस पार है नगलिया। जैसे घोघर जंगलों को छू कर बहती है वैसे ही ढेला का पाट बासमती के खेतों से चोर सिपाही खेलता है। कभी दिखेगा तो कभी गायब हो जाएगा। वहाँ भी दीमकों के ढूह हैं। गिरदा की उंगली पकड़ कर मैं न जाने कितनी बार वहाँ घूमा था। गिरदा एक नक्सलाइट थे और जब वो मुझसे किसी होने वाली ‘क्रान्ति’ की बात करते तो लगता जैसे खुद से बात कर रहे हों। कभी कभी वो मुझे एक फ्रेंच लड़की के बारे में बताते जो उनके साथ दूर दिल्ली के किसी जे एन यू नाम के कॉलेज में पढ़ती थी। फिर कहते कि दुनिया की सारी क्रांतियाँ फ्रांस में ही शुरू हुई थीं। उनके पास एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो भी था जिसमें एक पेड़ के नीचे खड़े गिरदा और वो लड़की हंस रहे थे। शायद उस समय भी इतनी ही तेज़ हवा चल रही होगी क्योंकि उस लड़की के बाल उड़ रहे थे और बालों का एक गुच्छा उसकी एक चमकीली आँख के ऊपर से होता हुआ होठों पे ठहर गया था। वो लड़की मेरा पहला प्यार था। अपने घर की कच्ची छतों पे सुर्री मूँज वाली खाट पे लेट के मैंने न जाने कितनी बार उस लड़की से बात की होगी। लेकिन ये सब मैंने कभी गिरदा को नहीं बताया। गीली सुरहियों वाला रास्ता फिर से ऊंची घास के एक मैदान में बदल गया। दोनों दादियों के पीछे पीछे मैं भी घुस गया। अंदर जूता जूता पानी था और एक उड़न तश्तरी। चमकीला काला खोल जैसे कुएं वाले कछुओं की ढाल होती है। होगी कोई मेरे घर से एक चौथाई। या शायद उस से भी छोटी। दादी ने मुड़ के मेरी तरफ देखा। मेरा दिल बस पल भर पहले धक्क सा हुआ था और अब नसें कस रही थीं। दादी क्या कह रही थीं मुझे नहीं पता। आज भी याद करता हूँ तो बस कुछ शब्द भर याद आते हैं। एल्फा एक्स सेंचुरी। दिन में तीन बार पूजा करने वाली, ठण्ड के दिनों में भी अल्सुबह ठन्डे पानी से नहा के एक सूत की एक साडी में खाना बनाने वाली, सारा जीवन जिसने राम के चरणों में बिता दिया, वो दादी जिसने ज़िन्दगी में कभी पुरबई हिंदी छोड़ के कुछ बोला नहीं, वो इंग्लिश बोल रही थी। और ये उनकी आवाज़ को क्या हो गया था। वो ऐसी क्यों सुनाई दे रही थी जैसे मेरे कानों के पास तितलियों का झुण्ड पंख फड़फड़ा रहा हो। शायद वो इंग्लिश नहीं थी लेकिन मुझे उनका कहना इंग्लिश में समझ आ रहा था। एल्फा एक्स सेंचुरी, टोलिमान, द्रुवैस। फिर उस उड़न तश्तरी के खोल का एक हिस्सा सरकने लगा। दोनों दादियां अंदर दाखिल हुईं और उनके पीछे पीछे मैं। फ़्लैश गौर्डन के कॉमिक्स में मैंने जिन उड़न तश्तरियों को देखा था उनसे ये बहुत अलग थी। अंदर एक हल्की भूरी नीली सी रौशनी थी और उसके सिवाय कुछ नहीं था। ये रौशनी क्षितिजहीन थी। इसी भूरी नीली धुंध में बैटरी से चलने वाली व्हीलचेयर पे एक चश्मे वाला आदमी बैठा था। दादी ने मुझे उस से मिलवाया। स्टीफन हाकिंग। वो लोग क्या क्या बातें करते रहे मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। बस इतना समझ में आया कि दादी और टूइंयां दादी द्रुवैस प्लेनेट से हैं और उनका परिवार याने की मैं भी एलियंस हैं। ये सब धीरे धीरे कैसे खुला, ये एक बहुत लम्बी कहानी है। मेरे जीवन जितनी लम्बी। हम यहाँ क्यों हैं, किसलिए, क्या हमारे अस्तित्व का कोई मक़सद है – इन सवालों से मैं पूरा जीवन जूझा हूँ। वापिस अपने लोगों के बीच न जा पाने के लिए हम क्यों अभिशप्त हैं? क्यों मुझे पराया बन कर जीना पड़ा? ऐसा कि कभी कोई समझा ही नहीं। बिलकुल उस बन्दर की तरह जो फोटो वाले उस पेड़ में पत्तों के पीछे छिपा दिखता भी नहीं जिसके नीचे खड़े गिरदा और वो फ्रेंच लड़की हंस रहे थे। ना तो कोई क्रांति आयी और न ही दादी का वो वायदा कभी पूरा हुआ कि देखना एक दिन हम वापिस द्रुवैस जाएंगे। कुछ साल बाद गिरदा को इमरजेंसी के दौरान थर्ड डिग्री टार्चर से हवालात में मार दिया गया। वो फ्रेंच लड़की लिओन में एक स्पोर्ट्स शॉप चलाती है। २०१० में जब मैं लोकेशंस देखने के लिए फ्रांस गया था तो उसकी दुकान से मैंने ऑलम्पिक ल्योनेस की एक जर्सी खरीदी थी। उसके बाल तब भी आँखों से होकर होठों पे ठहरे थे। टूइंया दादी विधवा थीं और जब उनका इकलौता बेटा मर गया तो वो भी कुछेक साल और जी। मेरी दादी ९० की होके मरीं। मैं तब दिल्ली में था। लोग कहते हैं जिस दिन वो मरीं, घोघर के पीछे से कुछ चुंधियाता सा आसमान में उठा और गायब हो गया।

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बाबा की सियार, लुखड़ी की कहानी और डा॰ रामविलास शर्मा

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लिटरेट वर्ल्ड की ओर अपने संस्मरण स्तंभ की खातिर डा॰ रामविलास शर्मा की यादों को उनके तीसरे पुत्र विजय मोहन शर्मा एवं पुत्रवधू संतोष से बातचीत द्वारा शब्दबद्ध करने का प्रयास किया गया था। डा॰ शर्मा विजय के पास रहकर ही 20 वर्षों तक लगातार अपनी साहित्य साधना करते रहे थे। डा॰ शर्मा के तीन पुत्र एवं तीन पुत्रियों में सबसे बड़े पुत्र गुजर चुके हैं। दूसरे पुत्र आगरा में हैं जबकि तीन बहनों में एक दिल्ली, दूसरी बड़ौदा और तीसरी राजस्थान में रह रही हैं।

यह संस्मरण पुत्र विजय मोहन शर्मा और पुत्रवधु संतोष से संगीता की मार्च 2003 में हुई बातचीत पर आधारित है।

सी–358, विकासपुरी, नई दिल्ली। यह बिल्कुल मुख्य सड़क पर स्थित है जहां से होकर सारे दिन कितनी ही बसें गुजरती रहती हैं। छोटा सा ही उनका बरामदा है जहाँ से उन बसों का आना–जाना देखा जा सकता है। डा॰ रामविलास शर्मा को घुटने में दर्द की वजह से जबसे पार्क में टहलने जाना मना हुआ था तब से अपनी हर सुबह वे बरामदे के उन्हीं सीमित घेरे में टहला करते थे। पर क्या उनके विचारों का भी कोई दायरा था उस बरामदे की तरह। उनकी नजरें वहां से गुजरती बसों और सड़क पर चल रहे इक्के–दुक्के लोगों से वास्ता तो बनाती ही होंगी और वे भी उनके विचारों में जरूर आते होंगे। वहीं बरामदे में खड़े कुछ पाये जरूर कुछ पलों के लिए ही सही उनके ध्यान के बीच यानी बसों, लोगों और भी मन में चल रही अनेक गुत्थियों जैसे नामवर सिंह को इस बार कैसे करारा जवाब दिया जाए या निराला होते तो…या अभी अपने रिकार्डर में जिस विषय पर बोलना है उसमें और क्या जरूरी चीजें जुड़ सकती है… में जरूर खड़े हो जाते होंगे। और रुक जाता होगा वह निरंतर चल रहा विचारों का क्रम। तब वे उसे जोड़ते होंगे या टूटा ही छोड़ देते होंगे। मुझे क्या पता? डा॰ शर्मा ने अपने अंतिम 20 वर्षों को लगातार यहीं रहकर जिया था। उन्हें टहलना भी होता था तो वे अपने इसी बरामदे में टहलने के लिए बकायदा तैयार होते थे। यानी बुश्सर्ट, पैंट और जूता–मौजा पहनकर वे टहलते थे और पुनः उन्हीं लुंगी–बनियान में उनकी अगली सुबह, शाम और दिन हुआ करते थे। वे ज्यादातर कहीं जाने से कतराते थे कि उनका समय बरबाद होगा और लिखने–पढ़ने में हर्ज होगा।

हिन्दी एकेडमी ने डा॰ शर्मा पर 45 मिनट की फिल्म बनाई है जो एडिट होकर 30 मिनट की तैयार हुई है। फिल्म का क्रम ठीक उसी तरह से रखा गया है जैसे–जैसे डा॰शर्मा ने बचपन से होकर आलोचना के क्षेत्र में अपना नाम शीर्ष पर पहुँचाया। यानी गांव से शूटिंग शुरू हुई फिर झांसी, लखनऊ, आगरा तब दिल्ली। डा॰ शर्मा को अपने गांव से कुछ ज्यादा ही लगाव रहा। वे कहा करते थे कि कोई ऐसा दिन नहीं था जब वे सपने में गांव नहीं देखते थे। विजय मोहन शर्मा बताते हैं कि ‘मुझे लगता है कि पिताजी का बहुत थोड़ा समय ही गांव में बीता होगा।’

तब गांव में पढ़ने–लिखने की कोई व्यवस्था नहीं थी। डा॰ शर्मा कुल छह भाई थे जिनमें इनका नम्बर दूसरा था।इन्हें बचपन में ही अपने पिता के पास पढ़ने के लिए झांसी भेज दिया गया। डा॰ शर्मा के व्यक्तित्व पर उनके दादा का बहुत प्रभाव था। उनके दादा उन्हें किस्से–कहानियां, लोकोक्तियां खूब सुनाया करते थे और डा॰ शर्मा को प्रोत्साहित भी करते थे। उन्हीं दिनों डा॰ शर्मा ने हनुमान जी पर कुछ तुकबन्दी की थी, जिसे संभाल कर उनके दादा ने मंदिर में रख दी थी। डा॰ शर्मा ने खुद लिखा है कि उन्हें दादा की कही गई कहानियां बहुत पसंद आती थीं। उन कहानियों को वे दृश्यों के साथ महसूस किया करते थे। बैसवाड़ा तो वैसे भी अपनी लोकसंस्कृति के लिए मशहूर है। कहानी सुनने का शौक डा॰ शर्मा को बाद तक रहा। जब बाबा से कहानी सुनने की उनकी उम्र नहीं रही तब वे बच्चों को सिखाकर बाबा के पास भेजते कि बाबा को कहो कहानी सुनाएंगे – ‘सियार और लुखड़ी का कहानी’। और जब बाबा कहानी कहते तब वे चुपचाप दूर से ही बैठकर उन कहानियों को फिर–फिर सुनते थे। विजय बताते हैं कि ‘पिताजी में साहित्य के संस्कार बहुत हद तक पिताजी के बाबा की वजह से आया होगा।’ झांसी जाने के बाद जब वे छुट्टियों में घर आया करते थे तब उनके बाबा उनसे पूछते थे कि ‘तुम्हें गिरधर की कितनी कुण्डलियां याद हैं।’ डा॰ शर्मा कहते – ‘एक भी नहीं।’ तब उनके बाबा कह पड़ते – ‘भला यह भी कोई पढ़ाई है।’ खैर उनकी पढ़ाई झांसी के सरस्वती पाठशाला से शुरू हो गई। वहां के कुछ शिक्षकों की याद उन्हें लगातार बनी रही। वे शिक्षक उन्हें पहाड़ पर चढ़ना, मिट्टी के खिलौने बनाना, पेंटिग बनाना आदि सिखाते थे। उसके बाद वे मैकडोनाल्ड स्कूल, झांसी में पढ़ने लगे। इसी स्कूल के चटर्जी साहब मास्टर जी से उनका आखिर तक सम्पर्क बना रहा। वो स्वयं बांग्ला में लिखते थे और इन्हें अपनी भाषा में लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उस समय डा॰ शर्मा जब अंग्रेजी में कोई लेख लिखते तब मास्टर चटर्जी उन्हें पूरी क्लास के बीच में पढ़कर सुनाते थे। डा॰ शर्मा कहा करते थे कि इससे उन्हें तब बड़ा प्रोत्साहन मिलता था।

उनका साहित्यक खेल कुछ इस तरह शुरू हुआ। उन्होंने हायर सेकेन्डरी में गणित विषय ले रखा था और उस विषय में उनका मन लगता नहीं था। उनके एक मित्र थे गणित क्लास में, दोनों एक–दूसरे की कॉपी में कविता लिखा करते थे। गांव में डा॰शर्मा के पिता कई बार ‘रामलीला’ आयोजित करते थे, उन्हें पूरी ‘रामचरितमानस’ कंठस्थ थी। उनके पिता इनसे कहते ‘रामायण’ पढ़ो। ये पढ़ते और वे सुनते। जब डा॰ शर्मा से कोई गलती होती थी तब वे उन्हें टोकते थे ऐसे नहीं, ये ऐसे होगा। ‘रामलीला’ में इनका पूरा परिवार भाग लेता था। कोई दशरथ, कोई परशुराम तो कोई लक्ष्मण की भूमिका अदा करता था। इन सबसे अलग डा॰ शर्मा प्राम्टर का काम करते थे। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की लड़ाइयों को वे जनजातियों की आपसी लड़ाई के रूप में देखते थे। लेकिन जिस पर वे विश्वास करते थे टूटकर करते थे।

विजय मोहन कहते हैं ‘जब पिताजी इंटरमीडिएट (झांसी) में थे तभी से कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी। उनकी एक डायरी है मेरे पास वह सन् 1929–30 की है।उनके हाथ की लिखी करीब 16 कविताएं हैं उसमें। उस डायरी में डा॰ शर्मा ने स्वयं मूल्यांकन करते हुए कुछ को Good तो कहीं very good और किसी को बेकार बताया है। उन्होंने हिन्दी में कविताएं और अंग्रेजी में comments लिखे हुए हैं। बाद में उन्होंने वहां से कुछ कविताएं उठाकर उसे संकलन में डाला है। उनकी अप्रकाशित कविताओं में ‘प्रत्यागमन’ भी एक है। वह कविता कुछ इस तरह है–

प्रत्यागमन

(अप्रकाशित कविता)

‘कान्तिहीन अति म्लान धूल धूसरित थके से!

कौन कहां जा रहे? क्लांत इस भांति ठगे से!!

गोधूली का समय! निशा में कहां रहोगे!

पास न कोई ग्राम–धाम दुख अमित सहोगे!!

अरे अभी तो वयस तुम्हारा है नवीन सा!

किंतु केश अधिकांश श्वेत मुख हुआ दीन सा!!

नेत्र हुए द्युतिहीन अस्थियां मुझको दिखतीं!

अरे! वेदनायें वस्त्रों से फूटी पड़ती!!’

‘बस करिये इन अर्थहीन बकवादों से क्या?

मूक वेदनाओं से! केशों से! मुख से क्या??

सज्जनता का पुरस्कार पाकर लौटा हूं!!

सहते–सहते दुःख यातनाएं जेलों की!

मरणासन्न हुआ सह जेलों की!!’…

अरे ‘विधाता’ निठुर कहो क्यों इतना बनते!

देवतुल्य इन जीवों से क्यों इतना तनते!!

झांसी से लखनऊ आने पर रामविलास शर्मा का कविता से संबंध बढ़ता ही गया। डा॰ शर्मा के अनुसार ‘निराला’ के सम्पर्क में आने से उनका जीवन ही कवितामय हो गया था। ‘निराला’ उनके प्रिय कवि थे। ‘निराला’ पर जो आक्षेप हुए थे तथा जिनसे वह जूझ रहे थे, झांसी रहते समय रामविलास उनसे अधिक परिचित नहीं थे। सन् 1934 में यह संघर्ष ही उन्हें आलोचना के क्षेत्र में घसीट लाया और उनका पहला आलोचनात्मक लेख ‘निराला’ की काव्य प्रतिभा के समर्थन में प्रकाशित हुआ। डा॰ शर्मा के अनुसार, संभव है, यह संघर्ष न होता – मेरे प्रिय कवि पर द्वेषपूर्ण आरोपों की वर्षा न की गई होती – तो मैं आलोचना के क्षेत्र में आता ही नहीं। एक बार डा॰ शर्मा ने अपने भाई को लिखा था ‘कविता लिखने में जितनी शारीरिक यातना होती है, मानसिक आनंद उतना ही अधिक। किन्तु अब–कुछ ऐसा हो गया है कि मैं कविता लिखे बिना रह ही नहीं सकता हूं।’ जब वे बारहवीं में थे तभी महाराणा प्रताप पर ‘सूर्यास्त’ नाम से नाटक लिखा था जिसमें यह दिखाने की कोशिश की कि महाराणा प्रताप जंगलों कैसे मारे–मारे फिर रहे थे।

एक दफे झांसी स्कूल में पढ़ने के दौरान इनके स्कूल में गांधी जी और कस्तूरबा आई थीं।तब स्कूल के सारे बच्चे पंक्ति में होकर उनके सामने से गुजरे थे। पंक्ति में रामविलास शर्मा भी थे। तब अंग्रेजी कपड़ों का बहिष्कार हो रहा था। इनके पास एक टोपी थी, उसे इन्होंने फेंक दिया। ये घटना तब की है जब वे आठवीं कक्षा में थे।

डा॰ शर्मा कभी हॉकी बड़े शौक से खेला करते थे। मशहूर हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद के भाई रूपसिंह इनके क्लास फेलो थे। धीरे–धीरे इनकी दिलचस्पी क्रिकेट में बढ़ने लगी और इन्टरमीडिएट के बाद हॉकी खेलना लगभग छूट ही गया जबकि क्रिकेट की इनकी दीवानगी बाद तक बनी रही।

डा॰ शर्मा जब बी॰ए॰ के विद्यार्थी थे तब विवेकानंद की तीन किताबों का अनुवाद किया था। वही इनकी पहली प्रकाशित रचना थी। एम॰ए॰ करने के दौरान इनका परिचय साहित्यकारों से बढ़ने लगा। ‘निराला’ से भी मुलाकात का यही दौर था। संयोग कुछ ऐसा बना कि डा॰ शर्मा और ‘निराला’ साथ रहने लगे एक ही मकान में। ये तकरीबन 1933–34 से 1938 तक की बात होगी। वे लोग लखनऊ के मकबूल गंज में 112 न॰ मकान में ऊपर–नीचे रहते थे। एक और मकान जिसको नारियल वाली गली कहते थे, में ये लोग साथ–साथ रहे हैं। और काफी दिनों तक रहे हैं। उन दिनों वे दोनों साहित्य की बातें खूब किया करते थे। डा॰ शर्मा तब अंग्रेजी विषय से पी॰एच॰डी॰ कर रहे थे तो निराला इनसे पूछते थे कि अंग्रेजी में कौन–कौन अच्छे कवि हैं और उन्होंने अच्छा क्या लिखा है। जबकि डा॰ शर्मा उनसे बंगाली कवि और कविता की बातें किया करते थे। धीरे–धीरे डा॰ शर्मा ने बांग्ला लिखना–पढ़ना सीख लिया। उन दिनों हिन्दी साहित्य के ऊपर बंगाली लिट्रेचर का बड़ा प्रभाव था, रवीन्द्रनाथ टैगोर की वजह से। साहित्यिक लोगों से इनका परिचय बढ़ता ही गया और इसी क्रम में वे अमृतलाल नागर, नरोत्तम नागर और केदारनाथ अग्रवाल के करीब आते गए। ये सब मिलकर लखनऊ में एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालने लगे।

विजय बचपन के एक दृश्य को दोहराते हैं – ‘तब मैं बहुत छोटा था। लेकिन वे दृश्य आज भी याद हैं। लखनऊ वाले मकान के आंगन में पानी का एक छोटा हौदी बना हुआ था और छोटी–छोटी बाल्टियां उनके पास रखी होती थीं। पास ही लाल कुआं चौराहे के निकट एक अखाड़ा था।‘निराला’ को भी शौक था कुश्ती–पहलवानी का। ये सब लोग वहां अपना जोर आजमाने जाते और आकर उसी हौदी से बाल्टियां भर–भर कर स्नान करते थे।’ इन सबों को फिजिकल कल्चर का शौक था। दूध गर्म करना, बादाम घिसना वे सब करते थे। इसके अलावा वे सब दोपहर में जबरदस्त साहित्यिक गोष्ठियां किया करते थे। इन लोगों को म्यूजिक का भी शौक था।‘निराला’ स्वयं बढ़िया गाते थे और उनका लड़का म्यूजिक टीचर था। डा॰ शर्मा सभी भाई मिलकर लखनऊ के म्यूजिक के मॉरिश कॉलेज में म्यूजिक सीखने जाया करते थे। डा॰ शर्मा वायलिन, उनसे छोटे भाई सितार और उनसे भी छोटे भाई तबला सीखते थे। कुल मिलाकर बेसिक फिलॉसफी healthy mind in a healthy body की थी।

डा॰शर्मा लखनऊ में टेम्पररी लेक्चरर के पद पर रहे। उसके बाद वे सन् 1943 से राजपूत कॉलेज आगरा में लेक्चरर हो गए और वहां 1976 तक यानी अपने रिटायरमेंट तक बने रहे। बाद में वे वहां के वाइस प्रिंसिपल भी बनाए गए। इन सब के साथ उनका लेखन कार्य अनवरत चलता रहा।साहित्य से जुड़े रहने के लिए इन्होंने कितने ही पदों को छोड़ा।

केवल परिवार के सदस्यों के लिए निकाली जाने वाली पत्रिका

हमेशा अपने काम में जुटे रहने वाले डा॰ शर्मा को जैसे ही पता चला कि उनकी पत्नी बीमार हैं तब उन्होंने अपना काम पूरी तरह से छोड़ ही दिया था। 1981 में विजय शर्मा अपने माँ–पिताजी को दिल्ली ले आये। तब से डा॰ शर्मा 2000 तक इन्हीं के पास रहे। उनकी यहां दिचर्या कुछ इस तरह होती थी। वे छह बजे के पहले या मौसम के हिसाब से उठ जाते और घूमने निकल जाते। अगर किसी दिन वे घूमने नहीं जाते तो इसका मतलब होता था कि या तो उनकी तबीयत ठीक नहीं है या कुछ और गड़बड़ है। घूमकर आते ही रेडियो पर समाचार सुनते थे, फिर उनका काम शुरू हो जाता था। तकरीबन वे लगातार एक बजे तक काम करते थे। बीच में या तो नास्ता का ब्रेक होता था या रेडियो पर कोई उनका बहुत ही पसंदीदा कार्यक्रम का समय होता था तो वे उसे जरूर सुनते थे। ‘विविध भारती’ पर 15 मिनट का क्लासिकल म्यूजिक का एक प्रोग्राम आता था। डा॰ शर्मा उसे जरूर सुनते थे। उनकी बहू संतोष कहती हैं –‘मैं स्कूल में पढ़ाती हूं।खाना वे 2 बजे खाते थे। वे मुझसे कहते थे कि खाते समय अपनी रोटियां मैं खुद बना लूंगा।इस तरह वे दिन में रोटी खुद हाथ से थापते–सेंकते थे। परिवार की छोटी से छोटी दिक्कत को भी वे नजरअंदाज नहीं करते थे। डा॰ शर्मा अपनी बेटियों से कहते थे ‘संतोष काम कर रही है उसका हाथ बटाओ।’ संतोष कहती हैं ‘कितनी छोटी–छोटी बातों का ख्याल रखते थे वे। झाडू लगा लिया, अब पोछा मत लगाना। मुझे सिर ढ़क कर रखने में बहुत परेशानी होती थी। उन्हें यह महसूस हो गया और हमारे ब्रदर इन लाव से कहलवाया कि संतोष से कहो कि वे सिर न ढकें। इतनी छोटी–छोटी चीजों का वे ध्यान रखते थे कि…’ रूलाई निकल जाती है संतोष की। संतोष के निःशब्द रूलाई को रिकार्डर रिकार्ड करता जाता है पर आंसुओं के साथ बह रहे कितने ही खामोश शब्द व भावनाएं उसकी पकड़ में नहीं आते। ‘… ‘सचेतक’ में मैंने लिखा है… आप वहीं से ले लीजिए।’

डा॰शर्मा ने लिखा है – ‘पहले व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिए, दूसरी बात ये कि बातचीत का रास्ता खुला होना चाहिए। तब ऐसी कोई मुश्किल नहीं है जिसका हल नहीं निकाला जा सके। जो परिवार के लिए सही है, मैं समझता हूँ वही समाज के लिए सही है और वही देश के लिए भी सही है।’

जब डा॰ शर्मा स्कूल में थे तब उन्हें बड़ा शौक था हस्तलिखित पत्रिका निकालने का। डा॰ शर्मा के भाई पिछले 25 सालों से ‘सचेतक’ पत्रिका निकाल रहे हैं। पूरी पारिवारिक पत्रिका है यह। इसमें परिवार के सदस्यों की जो मर्जी आए लिख सकता है। धीरे–धीरे इससे अमृतलाल नागर और भी कई लोग जुड़ते गए। ‘घर की बात’ की भूमिका में डा॰ शर्मा ने लिखा है– ‘कम्यूनिकेशन का रास्ता खुला होना चाहिए। और ये किताब लोगों को इसलिए पढ़ना चाहिए क्योंकि इसमें हर घर की कहानी है।’

विजय कहते हैं – ‘घर में उन्होंने डेमोक्रेटिक माहौल बना रखा था। हमलोगों को पैर छूने नहीं देते थे।माताजी के पैर छूता था क्योंकि वे इसे पसंद करती थीं।पिताजी हमेशा हाथ मिलाते थे।’ घर के बच्चों के प्रति भी उनका व्यवहार बड़ा दोस्ताना होता था। वे कहते थे– ‘हम चाहते हैं बच्चा हमें अपने विश्वास में लेकर अपनी पूरी बात कह सके।’

वे कहा करते थे कि साहित्य को अपनी जीविका का साधन नहीं बनाना चाहिए। हिन्दी में अगर कोई सिर्फ साहित्य की बदौलत जीना चाहे तो ये बहुत मुश्किल है।‘निराला’ का आखिरी दिनों में क्या हाल हुआ था। अमृतलाल नागर भी अक्सर शिकायतें किया करते थे। ये बातें उनके मन में गहरे बैठ गई थी। आगरा में अखबार वालों ने डा॰ शर्मा का साक्षात्कार लिया था तब इन्होंने कहा – ‘निराला जी’ भूखों मरे और उनकी जीवनी लिखने वालों को पांच हजार का पुरस्कार मिला। यही उस साक्षात्कार का शीर्षक बना। उनका कहना था कि जो सिर्फ हिंदी लेखन को अपने जीवन का आधार बनाएगा उसे बहुत जगह समझौता करना पड़ेगा जिंदगी में और ऐसे समझौते उन्हें बर्दास्त नहीं हो सकते थे। इस तरह लेखक के स्वाभिमान के लिए वे किसी भी तरह का समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे।

रामविलास शर्मा जब कोई पुरस्कार ग्रहण करते थे तो उनकी कुछ शर्तें होती थीं। जैसे वे किसी पब्लिक फंकशन में नहीं जाएंगे और किसी नेता से पुरस्कार नहीं लेंगे। वे कहते थे ‘अगर आप मुझे सम्मानित करना चाहते हैं तो मेरे घर आइए।’ और हिन्दी अकादमी के शलाका पुरस्कार देने हेतु उनकी एक्जक्यूटिव कमेटी उनके घर गई। बिरला फांउडेशन के बिरला जी उनके घर गए और उन्हें सम्मानित किया। सम्मानित होने के बाद ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने उनके बारे में कहना छोड़ दिया। पुरस्कार मिलने के अगले ही दिन उन्होंने कहा कि ‘निर्धन जनता का अपमान है यह पुरस्कार।’ पुरस्कार की राशि लेने से वे मना कर देते थे और सम्मान स्वीकार कर लेते थे। इस स्वभाव की वजह से कई बार लोग उन्हें अक्खड़ स्वभाव वाला व्यक्ति समझते थे। घूस लेने–देने के तो जैसे दुश्मन ही थे वे। एक दफे कोई साहब आए थे तो उन्होंने उसे गर्दन से पकड़ कर बाहर निकाल दिया था। गुस्सा तो उन्हें बहुत कम ही आता था पर आता था तो जबरदस्त होता था।

जब विजय इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे थे तब उन्हें पता था की घर में थोड़ी तंगी चल रही है, क्योंकि उनके बाकी भाई–बहन भी पढ़ाई कर रहे थे। उनके कॉलेज में ऐसे लोग जिनके पिता की तनख्वाह 500 रूपये से कम हो उन्हें स्कालरशिप देने का प्रावधान था। तब डा॰ शर्मा की तनख्वाह 550 रूपये थी। विजय उन्हें चिट्ठी में लिखते हैं ‘आप अगर ये लिख के भेज दें कि आपकी तनख्वाह 500 रूपये है तो मुझे यह स्कालरशिप मिल जाएगी। तब उन्हें शर्मा का जवाब कुछ इस तरह मिला था – ‘तुम पैसे की चिंता मत करो।तनख्वाह जरूर मेरी 500 रूपये है लेकिन मैं फलाने जगह से इतना, वहां से उतना, कुल 900 रूपये कमा लेता हूँ। जितने पैसे की जरूरत हो लिख दिया करो।’

कुछ लोग डा॰ शर्मा के भावुक व्यवहार को समझ कर उनसे गलत फायदा भी उठाते थे। एक सज्जन उन्हें बहुत मार्मिक चिट्ठियां लिखा करते थे। रामविलास उन्हें पैसे भेज देते थे। फिर कुछ समय बाद उसकी नौकरी लगवाई, उसे उन्होंने छोड़ दिया। जो काम डा॰ शर्मा ने कभी अपने बच्चों के लिए नहीं किया था वे उस व्यक्ति के लिए करते रहे।जब तीसरी बार की लगवाई गई नौकरी भी उस व्यक्ति ने इन्हें बिना बताए छोड़ दी, तब डा॰शर्मा बहुत क्षुब्ध हुए थे और चिट्ठी में लिखा ‘आइंदा मुझे नौकरी के लिए चिट्ठी मत लिखना।’

रामविलास शर्मा अपने भाई को चिट्ठियों में लिखा करते थे कि ‘मैं कभी इंग्लैंड जाकर पी॰एच॰डी॰ करता।’ इस बात की जानकारी उनके लड़के विजय को थी। विजय अकसर काम के सिलसिले में विदेश जाया करते थे।तब डा॰शर्मा उन्हें किताबों की लंबी लिस्ट पकड़ा देते थे। विजय जब लंदन गए तो डा॰ शर्मा की ख्वाहिशों का ख्याल रखते हुए ब्रिटिश म्यूजियम, आर्ट गैलरी वगैरह घूमकर फोटोग्राफ के साथ उन दृश्यों, भावनाओं सहित लम्बी–लम्बी चिट्ठियां लिखा करते थे, जिसके जवाब में डा॰ शर्मा तुरंत विजय को अन्तरदेशीय पत्र लिखते थे। वे लिखते थे– ‘तुमने ये देखा तो ये भी देखा होगा।’ ऐसा लगता था जैसे उन्होंने हर चीज अपनी नजरों से खुद देखा हुआ हो। विजय कहते हैं – ‘तब मुझे लगता था भारत में बैठ कर भी पिताजी इंग्लैंड को बेहतर जानते और समझते हैं। शायद विजुवलाइज करने की वजह से।’ और देखने की क्षमता तो उनमें थी ही तभी तो उनकी गिनती महानतम आलोचकों में होती है। आलोचना शब्द की उत्पत्ति ही लुच् धातु से हुई है जिसका अर्थ है देखना। उनके घर में कई बार पारिवारिक गोष्ठियां भी हुआ करती थीं। अपनी अंतिम परिवारिक गोष्ठी की वीडियो रिकार्डिंग भी करवायी थी डा॰ शर्मा ने। उस दिन वे लगातार पुरानी यादों को दोहराते रहे और इतना हंसे थे कि गला बंद होने को आ गया था।

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‘मैंने मांडू नहीं देखा’को पढ़ने के बाद

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कवि यतीश कुमार ने हाल में काव्यात्मक समीक्षा की शैली विकसित की है। वे कई किताबों की समीक्षा इस शैली में लिख चुके हैं। इस बार उन्होंने स्वदेश दीपक की किताब ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ पर लिखी है। यह किताब हिंदी में अपने ढंग की अकेली किताब है और इसके ऊपर लिख पाना कोई आसान काम नहीं है। चेतन-अवचेतन के द्वंद्व को यतीश जी ने बहुत अच्छी तरह पकड़ा है- मॉडरेटर

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‘मैंने मांडू नहीं देखा’ को पढ़ने के बाद
______________________________
(स्वदेश दीपक के लिए)
 
गर्वोक्ति एक आसन्न दुर्भाग्य है…
 
मैं अभी उस आग से मिल आया
जो न पकाती है
न कुंदन करती है
बस भस्म कर देती है
 
प्रशंसा खतों में ज़्यादा अच्छी लगती है
प्रत्यक्ष स्तुति परेशानी का सबब
कई बार खून खौलने लगता है
 
दूध वाली खौली चाय पीता रहा हूँ
पर एक दिन मैंने गलती से
ब्लैक कॉफी पी ली
अब मुझे दोनों ही पसंद है
 
 
मैंने मांडू नहीं देखा
तुम्हारे साथ नहीं देखा ….
ये दो पंक्तियाँ
मौत और मुक्ति के बीच
खींची क्षीण रेखाएं हैं
 
स्मृतियों का भी एक
वर्जित क्षेत्र होता है
जहाँ जाने से
वो खुद घबरा जाती हैं
 
सात वर्ष लंबी
स्मृति विहीन यात्रा….
और अनजाने आज
उस वर्जित स्थान पर
चहलकदमी करने लगा हूँ।
 
मेरा चेहरा
कहने और न कहने के बीच
चाँद का टाइम टेबल बदलना
निहारता रहा
जद्दोजहद के बियावान में फंसा
अनिर्णीत उलझता रहा
अनिर्णय अब स्थायी अवस्था थी मेरी
 
गहरी नींद से उठता हूँ
गरम हथेली अपनी भारी पलकों पर रखता हूँ
अवचेतन फ्लैशबैक की तरह
स्लो मोशन में आता है।
 
जो दरवाजा अंदर की ओर खुलता हो
उसे बाहर की ओर खोलने का
अथक प्रयास करता रहा
पता नहीं था
अंदर की ओर खोलता
तो छूते ही खुल जाता
 
सच कितना हल्का
और झूठ कितना भारी !
 
कि अचानक नींद टूट गई
और मेरी नदी खो गई
पूल के घिसटने के निशान
अब दृश्य में है
 
ढूंढने की कोशिश की
तो पता चला
दिमाग पर ताला पड़ गया है
 
मेरे लिए अब न सर्दी है न गर्मी
ऋतुएं रूठ कर लौट चुकी है
 
देखा धू-धू कर
सब जल रहा है
जिस्म और रूह
दोनो धधक रहे हैं
 
मन फिर भी शांत है
कोई दुविधा नहीं
पर ध्वनिहीन चीखें
ख्वाबों के रेशों पर
शोर की किरचियाँ चला रही हैं
शोर बाहर
और बैठता कोलाहल अंदर
सब कुछ बेआवाज़
तहस-नहस हो रहा है
 
समय ने सिखाया
उजाले से डरना
और अंधेरे से दोस्ती करनी
बात करता हूँ
तो अंधेरे की भाषा बन
चुप्पी बोलती है
 
अंधेरा भाषा को निगल लेता है
और अंधेरे में
शरीर अपनी भाषा गढ़ने लगता है
अगर शरीर की भाषा न समझो
तो अंधेरा शरीर को भी निगलने लगता है
 
स्थिति ऐसी कि
अजगर के भीतर
सांस लेने जैसी
 
नहीं जानता था
अंधेरे से गुजर जाने वाले शब्द
पवित्र हो जाते हैं
वे दु:ख धोने के काबिल हो जाते हैं
 
मैं तुम्हें नहीं
अंधेरे की गुफाओं को देख रहा हूँ
 
तुम आती नहीं हो
प्रवेश करती हो
 
तुम्हारे हाथ लंबे हैं
और परछाई छोटी
मैंने आँखों में झाँकने की कोशिश की
आँखों से समंदर छलाँगकर बाहर निकल आया
और जीवित ज्वालामुखी ने अपनी जगह बना ली
 
यथार्थ में लौटने के लिए
जरूरी है पौरुष के दर्प में
धनुष हुए आदमी का
तीर छूटना
और यह जानना भी
कि जरूरी नहीं है
हर वासना दुष्ट ही हो
 
2.
रूह का लिबास मटमैला है
बहुत अहमन्य हो गया हूँ
तमाम खूबसूरत चीजें शहर से बेदखल हैं
अंधेरे का लिबास सफेद है, क्यों?
उसे उधेड़ते वक़्त
हाथ हमेशा काले दिखें !
 
काला वक़्त ,काली रात, काले हाथ
और सफेद आवरण का अनावरण
 
अब वह जब भी प्रेम करेगा
आत्मा में पंजे गाड़ देगा
 
एक चिथड़ा सुख
एक अहानिकारक मुस्कान
किलकारी भरते शब्द
मीठी मनुहारें
 
अब सब स्मृतियों की खाड़ी में
गोते लगाते ड्रीम कैचर जैसे हैं
 
परेशानी का सबब ये है
कि मैं तस्वीर में भी हिलता हूँ
जिंदगी पट्टे पर है
और करार
अंतिम कगार पर
 
ओलती में फँसा बादल हूँ
बार-बार ओले गिरने लगते हैं
 
फिर मौसम बदलता है
भ्रमित करता है
कि सब अच्छा है
 
जिंदगी ऐसी बन गई है
जैसे अर्जुन ने फिर से
वृहन्नला का रूप ले लिया हो
 
अर्जुन और वृहन्नला
दोनो के बीच पेंडुलम की जिंदगी
 
पेंडुलम सी बनी वक्र मुस्कुराहट को
सीधा रखने की कला भूल गया हूँ
 
समस्याओं का कशकोल लिए फिरता हूँ
जिस मोड़ से गुजरना था
उस मोड़ पर मुड़ने से पहले ही
मैं मुड़ गया
और धम्म से नींद में ही गिर गया
 
3.
गिरती दीवार की छाँव में
पैदा लेते बदन
जिंदगी भर धूल झाड़ते रहते हैं
मैं न दीवार बन सका न धूल
पपड़ी बना अधर पर अटका रह गया
अब भग्नाशा मेरी सहोदर है
 
खबरों के इतने भर मायने रह गए हैं
कि अब सिर्फ दिन और तारीख देखने के लिए
अखबार खोलता हूँ
पर एक दिन खबरों में पढ़ा
घने जंगल के बीच
सूखी औरतें
सूखी लकड़ियाँ चुन रही हैं
किसी की चिता के लिए
शिशिर में गिरते पत्तों की कराह
और लकड़ियाँ चुनते- चुनते
वह स्त्री सोचती है
क्या बीतती होगी धरती पर
जब लाशों की तरह
उसके वृक्ष-पुत्रों को काटकर
उसकी गोद में ही सुला दिया जाता है
 
मैं देखता रहा
एक-एक कर
मेरे इंद्रियों की मृत्यु हो रही थी
इंद्रियों का सोना
मनुष्य को भीतर से खंडित करता है
मुझे बताया गया था
खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती
 
 
मुझे लगा मेरे अंदर
एक और पुल
जो अभी -अभी बना था
टूट गया
 
घर के बर्तन खनखनाने लगें
और माँ की एक बात याद आ गई
एक चुप और सौ सुख
मैं सात सावन चुप रहा
 
दरवेश और रोगी की एक ही दशा है
दोनों रह-रहकर
अल्लाह और भगवान को याद करते रहते हैं
मैं दोनो बना लेकिन याद में ईश्वर नहीं दिखे
 
मैने अपने फ्रेम से तस्वीर निकाल ली
अब बिना तस्वीर का खाली फ्रेम हूँ मैं
लिबास नया है पर उदासी वही पुरानी
 
मैं वो पहाड़ हूँ
जिसमें बारूदी सुरंगे
रह-रह कर फटती हैं।
उजाड़ बढ़ता है
इंच दर इंच …
 
मैं वह ध्वज हूँ
जिससे धज अभी -अभी
उतार ली गई है
बाँस का वह टुकड़ा बन गया हूँ
जिसे ध्वजा फहराने का इंतजार है
अब मैं फूल की तरह
चुपचाप सूख रहा हूँ
 
सर्पीली टुस्सियों को पकड़ने
अंधे कुएँ में गिरा
अब रस्सियों के सहारे
पहाड़ चढ़ रहा हूँ
बहुत ताकतवर है
उम्मीद की रस्सी
प्राण निकलने तक बांधे रखती है
 
कोई मेरा वसंत चुराने आया
मैंने वसंत को झोले में रख लिया
जिसकी निगहबानी करने
आकाश का नीला टुकड़ा
मेरे कमरे में रहता है
 
खिड़की से झांकता हूँ
तो चाँद के चलने की आवाजें आती हैं
अब मेरा मन करता है
चाँद के साथ बेआवाज चलूँ
 
मैंने आकाश तक जाने वाला झूला बनाया
इस झूले पर एक नेम प्लेट लगाया “मुक्ति”
 
चंदन से मृत्यु और मुक्ति लिख
पानी में घोल पी गया
 
4.
मैं रूठने और नाराज़ होने के
बीच की स्थिति बन बैठा हूँ
 
इस यात्रा में कई बार
रोशनदान ,खिड़की और फिर
दरवाजा बनता रहा
 
प्रेम खिड़की से अंदर आता है
और दरवाजे से बाहर जाता है
प्रेम और युद्ध के तरीके एक जैसे
जो हारे वह युद्धबंदी
मैंने न प्रेम किया न युद्ध
फिर भी बंदी बन गया …
 
यात्रा में यह भी जाना कि
बुद्ध के रस्ते में
कर्ण-कवच मिलता है
और, फिर शब्दों के तीर नहीं लगते
मैं पैदल चलता गया
मैं तुम तक पहुँचना चाहता था
पर मुझे बताया गया कि
जो पैदल चलते हैं
वे अंततः कहीं नहीं पहुँचते
 
अब मैं कान बनना चाहता हूँ
ताकि शब्दों को अर्थों में बदल सकूं
चाहता हूँ
शक्ति और सब्र
दोनो एक साथ रहें
मेरे पैरहन बन कर
मैं उसे ओढ़ कर
दोबारा विश्व जीतने चल दूंगा
 
और यूँ
मैं खुद अपना अनुवाद होने से बच गया..●●
_________________________
 
यतीश कुमार
07/10/2019.

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अज़हर फ़राग़ की शायरी

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हाल में ही ‘सरहद के आर-पार की शायरी’ ऋंखला के तहत राजपाल एंड संज प्रकाशन से कुछ किताबों का प्रकाशन हुआ जिसमें एक जिल्द एक जिल्द में एक हिंदुस्तानी और एक पाकिस्तानी शायर की शायरी है। संपादन किया है तुफ़ैल चतुर्वेदी ने। मैंने इसमें पहली बार अज़हर फ़राग़ की ग़ज़लें पढ़ीं। कुछ आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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1
कोई भी शक्ल मेरे दिल में उतर सकती है
इक रिफ़ाक़त में कहाँ उम्र गुज़र सकती है
 
तुझसे कुछ और तआल्लुक भी ज़रूरी है मेरा
ये मोहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है
 
मेरी ख़्वाहिश है कि फूलों से तुझे फ़तह करूँ
वरना ये काम तो तलवार भी कर सकती है
 
हो अगर मौज में हम जैसा कोई अंधा फ़क़ीर
एक सिक्के से भी तक़दीर संभल सकती है
 
सुब्ह दम सुर्ख़ उजाला है खुले पानी में
चाँद की लाश कहीं से भी उभर सकती है
 
2
मुड़ के ताकते नहीं पतवार को लोग
ऐसे जाते हैं नदी पार को लोग
 
साये का शुक्र अदा करना था
सज्दा करते रहे दीवार को लोग
 
मैं तो मंज़िल की तरफ़ देखता हूँ
देखते हैं मेरी रफ़्तार को लोग
 
आईना मेरे मुक़ाबिल लाए
ख़ूब समझे मेरे मेयार को लोग
 
नाम लिखते हैं किसी का लेकिन
दुःख बताते नहीं अशजार1 को लोग
1.वृक्षों

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रूह संग खिल कर मैत्रेय की, सखि री मैं तो बादल हुई

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यात्राएँ सिर्फ़ भौतिक नहीं होती हैं रूह की भी होती हैं। रचना भोला यामिनी को पढ़ते हुए यह अहसास होता है। पढ़िए लेह यात्रा पर उनका संस्मरण- मॉडरेटर

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हे मैत्रेय !…

सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ

तरफ़ तरफ़ है मिरी ख़ाक-ए-जुस्तुजू रौशन

                                             -सुल्तान अख़्तर

यात्राएँ कभी समाप्त नहीं होतीं वे निरंतर हमारे भीतर चलती रहती हैं। कल्पनाओं और यथार्थ के धुंधलके के बीच नए-नए दृश्यों की विरदावली रचते हुए चित्त को परमानंद के उस बिंदु तक ले जाती हैं जहाँ आप उन स्मृतियों के साथ एकात्म होते हुए स्वयं एक मधुर स्मृति बन जाते हैं। मानो यात्रा की मंजूषा से निकली उन स्मृतियों व आपके बीच कोई अंतर ही शेष न रहा हो। जब बाहर की यात्रा संपन्न हो जाए तो उसे अपने भीतर अविराम जारी रखा जाए। किसी स्थान से लौटने के बाद भी उसे किसी पावन धरोहर सा अपने भीतर यूँ संजो लें कि वह मन-मानस का अभिन्न अंग बनी आपके संग चलती रहे। मेरे लिए इन यात्राओं का अर्थ केवल इतना है –

मेरी अपनी तलाश में पढ़ी जा रही पुस्तकों के पन्नों सी, मेरे जीवन के इकलौते गीत की अनाम धुन सी, मुझे घर से दूर, किसी निविड़ एकांत में अपने-आप से मिलाती हैं ये। मेरे और प्रकृति के बीच युगों से चले आ रहे आदिम संतुलन को साधती हैं ये…

आप सब पिछले अंक में मेरी लेह यात्रा संस्मरण के कुछ अंश पढ़ चुके हैं। उसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए, लौटती हूँ फिर से उन्हीं रास्तों पर जहाँ ख़ूबसूरत फ़िज़ाओं में बसे उस पुराने गोम्पा की ढलान से उतरते हुए, चुपचाप लहरिया सी बलखाती , उस पहाड़ी सड़क पर गुज़र जाते थे इक्का-दुक्का लामा, कारों में महानगरीय कोलाहल का अंबार लिए देसी-विदेसी पर्यटक और अपनी गरीबी के बोझ को कंधों पर उठाए मुस्कुराते स्थानीय देहाती। सड़क पहाड़ को जोड़ती थी ज़मीन से, वह अपनी छाती पर उठते-गिरते कदमों की धमक सहती, निभा रही थी जाने कितने बरसों से अपना कर्तव्य…

मैं दो घड़ी बैठी उसके संग, दुलराया और बतियाई…

….कि तारकोल से रंगी उस सड़क के सीने भी धकड़ता था इक दिल।

उसके पास भी थे कुछ अफ़साने और नग़्मे, जो कभी किसी ने न सुने!!!

सुनना भी प्रेम है, है न!!

सच, कुछ पाने या लेने की सोच ले कर गई थी, अपना-आप भी गँवा आई। प्रकृति के आंगन से भला क्या ला सकती थी। पर्वतों की चोटियों पर बर्फ़ की सफ़ेदी के बीच चमकती रही। नुब्रा घाटी से भी परे हुंडर रेगिस्तान की रेत संग हवाओं में सरसराती बहती रही। रेतीले मैदानों पर सवारियों का बोझ ढोते दो कूबड़ वाले ऊँटों के पैरों में सफ़ेद डोरियों में बंधे छम-छम करते घुंघरूओं के साथ उनकी आहों के बीच तड़पती रही। श्योक, नुब्रा और सिंधु नदी की गाद में घुलती रही। पहाड़ों की मांदों में बसे सरीसृपों के संग रेंगती रही। गहरी काली सड़कों के नीचे दबी आदिम सभ्यताओं के अवशेषों की गंध सूंघती रही। नदियों पर बने लकड़ी के चरमराते पुलों पर बीते वक्त की आहटें सुनती रही। एक चूल्हे पर स्मृतियों की तीन तार की चाशनी से खदबदाती हांडी में नरम, मुलायम और कानों में पड़ते ही आत्मा के भीतर तक उतर जाने वाले किस्सों का मिष्टान्न पकाती आमा की गुलगुलों जैसी बातों के रस में डूबती रही। सुनसान-वीरान कीच से भरे पहाड़ी रास्तों पर लहराती रंगीन प्रार्थना पताकाओं संग झूलती रही। खारदोंगला दर्रे पर बर्फ़ से सजी पर्वतीय चोटियों के बीच ताज़ी हवा के झोंकों संग तिरती रही। मैंने चखा वहीं और केवल वहीं होने का स्वाद।

..और ली एक भरपूर श्वास।

  नुब्रा घाटी अभी पिछली रात की नींद के खुमार में थी और मैं किसी भुच्च देहातन सी मुँह-सिर लपेटे, जेब में केवल एक प्याला चाय लायक पैसे डाले गलियों की ढलानों व चढ़ाईयों की सैर को निकल पड़ी। बेटा अभी सोया हुआ था और मेरा साथी पहले ही अपने कैमरे के संग नदारद था। किसी भी जगह के दिल में जगह बनानी हो तो यह दूरी पैदल-पैदल ही मापी जा सकती है। गलियों और सूने कोनों में ऊँघते हैं शहरों के पुराने किस्से, चाय की छोटी टपरियों पर कच्चे कांच से बने गिलासों में भरी अदरक-इलायची वाली चाय के धुएँ संग उठती है पुरानी यादों की महक। बंद दुकानों के बाहर द्वार बुहारती औरतों की अधनींदी आँखों से छलकते हैं उनके ख़्वाब, जो कभी उन्हें भी न दिखे। आने वाले दिन के इंतज़ार में अकुलाया सूरज गिनता है पल-पल – कब रोशन करेगा वो भयंकर गहरी उदासी में लिपटी टूटी-फूटी कच्ची पगडंडियों और पक्की गलियों को।

घाटी मानो देर रात अपने ही सन्नाटे को पी कर गहरी धुत्त नींद में सोई थी। क़ुदरत थपकी दे कर जगाने की कोशिश में थी और देह में दौड़ती नसों सी गलियों के इक्का-दुक्का दरवाज़ों पर आमद दिखने लगी थी। सिर पर टोकरी लटकाए, हाथ में दराती थामे एक अधेड़ तिब्बती महिला सामने से आ रही थी। न केवल भुवनमोहिनी मुस्कान से स्वागत किया बल्कि ‘जुले के अभिवादन से मेरा माथा भी खिला दिया। अनजान शहरों की गलियों में अक्सर यूँ ही पिछले जन्मों के साथी मिल जाया करते हैं जो न पहले भी मिले और न कभी जीवन में फिर मिलने वाले हैं पर वे क्षणांश की भेंट ही हमारे जन्मों के वर्तुल को पूरा कर जाते हैं। मैंने भी शहरी औपचारिकता का बासी चोला उतारा और पूरी जीवंतता से प्रत्युत्तर देते हुए आगे बढ़ गई। शहर के एक कोने तक पहुँचते ही पहाड़ों ने शुभ प्रभात कहा और मैं सूरज की चढ़ती-उतरती धूप के साथ रंग बदलते चितेरों को देख ठगी सी खड़ी रह गई।

एक-एक नज़ारा अल्लाह की अनूठी करामात सा दिखता था और कह रहा था मुझसे –

हर ज़र्रा उभर के कह रहा है

आ देख इधर यहाँ ख़ुदा है

                                    -सूफ़ी तब्बसुम

पहाड़ आएगा घर

इस यात्रा में जितने भी दिन इन पहाड़ों का साथ रहा, मैं इनके सम्मोहन में बँधी ही रही और फिर मैंने जाना कि कैसे ला सकते हैं किसी पहाड़ को अपने घर। कैसे जीया जा सकता है इस विराट महाप्राण अनुभव को …

कुछ लोग पहाड़ को देखते ही गटक कर पी जाते हैं मानो किसी ठंडे मीठे शरबत की घूंट हो और फिर एक बार ‘वाउ’ कहने के बाद उधर पलट कर भी नहीं देखते।

कुछ लोग पीते हैं घूंट-घूंट, वे थमते हैं, वे पहाड़ की छाती में धड़कते दिल को महसूस करते हुए उसे तकते हैं पर जैसे अगले पड़ाव पर जाने की जल्दी में सामान बाँधता मुसाफिर अपने उस पड़ाव की खू़बसूरती को भी पूरी तरह से नहीं देख पाता, उसी तरह वे भी जल्दी-जल्दी पहाड़ के गले से लग कर उसे विदा कर देते हैं। नज़रें फिर से लौट आती है संसार की ओर।

कुछ लोग चट्टानों पर उतरते- छिपते धूप के सायों को लगातार देखते हुए बोलते चलते हैं। वे कुदरत की आब को महसूस करते हुए भी उसे शब्दां में ढालने के निरर्थक प्रयत्न में उलझ कर रह जाते हैं। उन्हें समझाने वाला कोई नहीं कि जो भी दैवीय, सहज और सुंदरम है, वह शब्दातीत है। शब्दों से ही सौंदर्य बँध पाता तो शायद बंद बैठकों में सोफों पर अधलेटे यात्री कॉफी टेबल बुक्स के आर्ट पेपर से झाँकते पर्वतों की मनोहारी तस्वीरों को देख कर अभिभूत होने की बजाए धूल-माटी काहे फाँकते, काहे रूपया-धेला ख़र्च कर, घर की तमाम सुख-सुविधाओं को त्याग, सुदूर वीरानों में बसी प्रकृति निरखने आते। जो भी लिखा गया, वह तत्क्षण अपने अर्थों को, उन शब्दों में स्थानांतरित करता रहा, जो न कभी लिखे गए और न ही लिखे जाएँगे। अलौकिक को लौकिकता के आवरण में संजोना नश्वर मनुष्य का मिथ्या अभिमान रहा है!

कुछ लोग पहाड़ तकते हैं और फिर उनकी बोलती बंद हो जाती है। वे धीरे-धीरे  पहाड़ को भीतर उतारते हैं। कुछ पलों के लिए ही सही, अपने संसार के व्यापार से दूर छितरा जाते हैं और उस अभूतपूर्व, अद्भुत दर्शन को पा कर धन्य हो जाते हैं पर सच कहें तो वे भी पहाड़ को अपने साथ घर नहीं ले जा पाते क्योंकि वे उस क्षणिक संतोष से संतुष्ट हो जाते हैं। उनके भीतर उस दृश्य को अपने साथ एकात्म करने की अदम्य लालसा नहीं होती। घर लौटते-लौटते मायाजगत के भ्रम और कुहासे के बीच उनके मानस पटल पर बसे छाया-चित्र बिला जाते हैं।

यदि सच में पहाड़ को अपने साथ घर लाने की इच्छा रखते हों तो दृश्य को भीतर उतार कर हजम कर लें। अपनी बंद आँखों से भीतर ही भीतर तब तक देखें, जब तक वह आपके अवचेतन का अंग न बन जाए। अजपे जप सा सिमट जाए पहाड़ चेतना के पटल पर। बस, ठीक इसी तरह जी लेंगे पूरा पहाड़। घर लौटेंगे तो अंग-संग रहेगा सदा।

रूह संग खिल कर मैत्रेय की, सखि री मैं तो बादल हुई

दिस्कित नुब्रा घाटी का मुख्यालय कहलाता है। यह जगह अपनी अप्रतिम प्राकृतिक सुंदरता के अतिरिक्त मैत्रेय बुद्ध की विशाल और भव्य प्रतिमा के लिए भी जानी जाती है। बत्तीस मीटर ऊँची इस प्रतिमा को तैयार होने में काफी समय लगा था। हमारी कार मैत्रेय प्रतिमा की ओर बढ़ी चली जा रही थी। आड़ी-तिरछी सड़कों पर दौड़ती गाड़ी के शीशे से बार-बार मैत्रेय की झलक दिखती और फिर ओझल हो जाती। मैं बलखाती सड़क के मोह में पड़ कर गाड़ी से उतरी और मैत्रेय की ओर पैदल ही चल दी।

मेरी चाल अब पहले सी तेज़ नहीं रही.

मैं धरती से बतियाते हुए, उस पर कदम रखने लगी हूँ।

मैं अब पहले सी चुस्त, आग उगलती, हवा से बातें करती,

आंधियों सी उमड़ती, वेगवती नदी सी नहीं हरहराती।

मैंने धरती, जल, वायु, आकाश और अग्नि से कर ली है मित्रता,

एक दिन इनके संग ही तो होना है!

मैत्रेय की रंगीन पताकाएँ धूसर पहाड़ों के बीच अपने रेशमी लाल, नीले, हरे, पीले और सफ़ेद रंगों के बीच कठोर जलवायु में भी सदा सरल व तरल रहने का संदेसा देती जान पड़ रही थीं। ऐसा लगता था जैसे अपनी मानस संतान का माथा सहलाने को हौले-हौले हिल रही हों। स्नेह से मुंदती आँखों में भर रही हों मानवता के कल्याण का कोई अभूतपूर्व स्वप्न!

 वैसे मुझे तो बेढब ज़िन्दगी में रबजी की ओर से खु़शियों के नोट्स सरीख़ी लगती हैं ये पताकाएँ। जैसे कोई प्रेमी जाते-जाते प्यार से लिख कर छोड़ गया हो –

‘रखना अपना ख़्याल!’

एक ओर दिख रहा था हुंडर का रेगिस्तान और उस ओर से आती तेज़ हवाओं के आगे झुकी मेरी क्षीण काया ने मस्तक नवा दिया मैत्रेय प्रतिमा के आगे।

मैत्रेय को पालि भाषा में ‘मेत्तेय’ कहा जाता है। बौद्ध मान्यता के अनुसार ये भविष्य के बुद्ध हैं। बौद्ध ग्रंथों में इन्हें ‘अजित’ भी कहा गया है। कहते हैं कि मैत्रेय एक बोधिसत्व हैं जो भविष्य में पृथ्वी पर अवतरित होने के बाद बुद्धत्व प्राप्त करेंगे और विशुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे। बौद्ध परंपरा की इस अवधारणा ने कई अन्य मतावलंबियों की कथाओं में भी स्थान पाया है।

थियोसोफिकल परंपरा में मैत्रेय को केवल भविष्य बुद्ध ही नहीं माना जाता, इसमें अन्य पराभौतिक संकल्पनाएँ भी शामिल हैं। वे मानते हैं कि मैत्रेय बुद्ध का आगमन एक वैश्विक गुरु के रूप में होगा।

पर्यटकों की चहल-पहल शांत होते ही एक कोने में जा बैठी ताकि मैत्रेय संग, भले ही पल भर को एकात्म हो जाऊँ परंतु घर लौटूँ तो मैत्रेय बुद्ध के मुस्कुराते नयन मेरे हृदय में अवस्थित हों।

आँखें मूंदी और मन ने कहा :

धन-मान, पद व प्रतिष्ठा से मिले यथेष्ट सुख व आनंद,

आभार तेरा, ईश्वर

अब केवल अकारण और अहैतुक प्रसन्नता व चिर आनंद की आकांक्षी हूँ

द्वार से अयाचित न लौटाना, हे मैत्रेय!

हवाओं का प्रकोप इतना अधिक था कि मैत्रेय प्रतिमा के संग अधिक समय नहीं बिताया जा सकता था। मैं पहले तल पर थी और पति सबसे ऊपरी तल से तस्वीरें खींच रहे थे। अचानक उनके पास की रेलिंग में बंधा सफेद बौद्ध खादा (स्कार्फ) खुला और नीचे मेरी झोली में आ गिरा। मैंने मुस्कुरा कर उनकी ओर देखा और उसे उठा कर अपने साथ वाली रेलिंग पर बांध दिया। जाने मैत्रेय कौन सा संकेत दे रहे थे परंतु इतना आश्वासन अवश्य था कि उन्होंने हम दोनों के लिए जो भी कहा होगा, वह शुभ ही होगा।

मैत्रेय प्रतिमा के निकट सटी पहाड़ी पर ही एक प्राचीन बौद्ध मठ दिखाई दे रहा था। किसी ने बताया कि वह मठ चौदहवीं सदी में बनाया गया था। दिस्कित के इस प्राचीन बौद्ध मठ के द्वार से लौटने का प्रश्न ही नहीं उठता था। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बेतरह हांफने लगी परंतु टेक नहीं छोड़ी।

अपने आसपास दिखती चट्टानों व पाषाणों पर खुदे बौद्ध मंत्र, मुझे पिछले जन्मों के अभिशापित देवों से लगने लगे। जाने कितनी सदियों तक इन पर परमात्मा का नाम अंकित होगा, तब कहीं जा कर ये निस्तार पाने वाले हैं। ये अभिशप्त पाषाण! मंत्रों का पावन स्पर्श पाते ही दैवीय स्पर्श से अनुप्राणित हो उठते हैं। या फिर इसके ठीक विपरीत, कहीं ये विधाता के मानस पुत्र तो नहीं? हो सकता है कि स्वयं विधाता ने इनके माथे पर अपने हाथों से बांचा हो इनका भाग्य।

यही सब सोचते-सोचते मठ परिसर तक जा पहुँची। गोम्पा की चटक रंगों में रंगी दीवारों के रंगों से होड़ लेती कुछ पताकाओं पर अंकित थे, प्रार्थनाओं के बीज मंत्र। वे प्रेमपत्र थे, उस ईश्वर के नाम, जो बौद्ध अनुयायियों की नस-नस में दौड़ता है बिजली बन कर दिन-रात। यहाँ प्रेम और प्रार्थना पर्याय हैं एक-दूसरे के!

 एक लामा ने मंदस्मित से स्वागत करते हुए चाय पीने का प्रस्ताव रखा और मना करना मुश्किल था। कुछ अपना कौतूहल और कुछ उनके जीवन के विषय में जानने की बलवती इच्छा ने चलते कदमों को रोक लिया। मृदु व सौम्य मुस्कान संजोए, शब्दों के स्थान पर बोलती आँखों से बातें करने वाले तिब्बती लामा ने मन और पाँव दोनों बाँध लिए। तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा संप्रदाय के ये लोमा पीले रंग की टोपी (यैलो हैट्स संप्रदाय) पहनते हैं। लेह में इनका प्रमुख केंद्र थिकसे मठ में है, जिसके बारे में हमने पिछले भाग में चर्चा की थी।

उन्हें देख कर यूँ लगा मानो उन्हें भी जीवन के भिक्षापात्र में सुख, दुख, निंदा, बैर, घृणा, करुणा, स्नेह, त्याग, ईर्ष्या जैसे अनन्य भावों का मधुर, अम्लीय, लवणयुक्त, कटु, तिक्त व काषाय भिक्षान्न मिला परंतु वीतरागी मन ने सब कुछ राँधा कर निर्लिप्त भाव से निगल लिया होगा। पंचभौतिक रसों से भला कौन बचा!!!

हम लामा के साथ बात करते-करते ऐसे मग्न हुए कि हुंडर के रेगिस्तान की ओर जाना भी याद नहीं रहा। तय हुआ कि उसे अगले दिन पर टाल दिया जाए और उसी मठ की छत पर कुछ देर और प्रकृति संग मौन संवाद में रमे रहे हम…

तभी मठ के एक छोर से खिलखिलाती ग्रामीण महिलाओं की टोली निकली। सिर पर बंधी टोकरियों में लदी घास लिए कुछ युवतियाँ तिब्बती बोली में लोकगीत गुनगुना रही थीं।

गहन गंभीर बातों की पोटली कंधों पर लिए खिलखिलातीं

अपने लिए मोक्ष पा कर बुद्धत्व पाने का नहीं रखतीं संकल्प।

उमगती स्त्रियाँ सहज पा लेती हैं, समत्व और संतुलन.

जिसे पाने को जाने कितने जन्मों तक तरसते रहे बुद्ध पुरुष

स्त्रियाँ अपनी करुणा व स्नेह के बल पर प्राणीमात्र का चाहती हैं कल्याण

वे सब बोधिसत्व हुई हैं !!!

                                                       क्रमशः

                                                                                                                          -रचना भोला ‘यामिनी’

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सोनी पाण्डेय की कहानी ‘सलम –बाई’

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युवा लेखिकाओं में सोनी पाण्डेय का नाम जाना पहचाना है और यह उनकी एक चर्चित कहानी है- मॉडरेटर

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यह कहानी स्त्रियों की अकथ प्रेम की पीर सी चुभती रही है।घूँघट की ओट से ताकती नवेली दुल्हनों के आँख में ओस की बूँद सी अटकी नैहर के प्रेम की पीर को देखना हो तो कभी दरवाजे से हाक लगा देखिए….माधोपुर वालीsss !देखो तो तुम्हारे गाँव का है फेरीवाला …..
वह बर्तन- तासन छोड़ कर भागेगी..,गुड़ भेली संग लोटा भर पानी सास से बिना पूछे पीला देगी ,न जात पूछेगी न पात । सास के अग्नि दृष्टि से चाहे जो भसम हो ,ये औरतें जीते जी एक ही राग गाएंगी कि…नइहर गंगा छूटत नाहीssss। जड़ से उखड़ी हुई औरतों को मैंने बार -बार सावन -भादों में नैहर में पनपते और छछनते ,कटते देखा है।यह कहानी उन्ही गलियों में मेरी वापसी है जहाँ पहली बार जाना था कि वर्णमाला के प से पतंग का मतलब र के मेल से प्रेम भी होता है।यह प्रेम हो तो सकता है पर फल -फूल -छछन-बिछन नहीं सकता मेरी गलियों में।एक लड़का कागज पर आई लव यू लिख कंकड़ में लपेट फेंक तो सकता है हमारे अहाते में पर नाम नहीं लिख सकता और हम प्रेम की गुनगुनी धूप में आलू के सूखे चुरूरमुरूर पापड़ से एठेते,सिंकते,तलते ,न जाने कब डिब्बा बन्द हो परदेश को निकाल दिए जाते हैं पता ही नहीं चलता।चिट्ठी हमारे प्रेम लोक का रहस्यमयी आवरण बन बार -बार गुदगुदाता है और अतित के पन्ने खोल जीने का पाठ पढ़ता रहता है कि कभी तो किसी ने हमसे भी प्रेम किया था।
यह कोई 1993 का साल रहा होगा,मैं इण्टर बोर्ड की परीक्षा दे चुकी थी।बी.ए. में दाखिला ले लिया था और बेमन से उन विषयों को पढ़ रही थी जिसे पढ़ने का मन नहीं था।विश्वविद्यालय में पढ़ने के सपने के टूटने के साथ सैकडों सपने मर गये थे उम्मीद के ।बस जीना था और बेमन से जीवन की चादर को सीना था ,लगी थी जैसे -तैसे।अबकी जाड़े  की छुट्टियों में गाँव में अम्मा संग रह रही थी,अम्मा कटिया -पिटिया देखती और मैं टोले भर की लड़कियों संग गीत शायरी पढ़ती-लिखती।तुकबंदी कर लेती थी ,कविता भी लिखने लगी थी।लड़कियों संग फिल्मी धुन पर खूब बियाह के गीत रचे जाते,लड़कियों को लड़के मौका मिलते आई लभ यू कह कर ऐसे निकलते जैसे पाकिस्तान की सीमा पर युद्ध फतह कर आए हों।कभी- कभी लड़कियों के जनरल डायर सरीखे पिता भाईयों से जम कर कुचम्मस के शिकार भी हो जाते पर प्रेम तो प्रेम था।पुरोहित जी के शब्दों में ऐसा भूत जो न लात से उतरता न बात से और न किसी ओझा सोखा से।अब समझ लिजिए की इन विकट परिस्थितियों में प्रेम को पाना और सजोना कितना मुश्किल होता है कि मेरी सखी माया को प्रेम हो गया।बेचारी को बुखार कम पेट दर्द ज्यादा होता,कारण सिर छू कर बुखार उतारने वाले देसी वैद्य पूरे टोले में भरे पड़े थे किन्तु पेट दर्द का सही -सही आकलन थोड़ा मुश्किल काम था।जब दर्द हिंग,फिटकरी,पेट मलने,नारा बैठाने,सेंकने से भी नहीं ठीक होता तो किसी का हांका भूत जरूर सिद्ध हो जाता और मजबूरी में पहले त्वरित लाभ के लिए डॉक्टर फिर ओझा सोखा को दिखाया जाता। एक शाम ऐसा ही दर्द, बड़ी बेदर्दी से मेरी सखी को उठा और वह तड़पर माछर माटा हुई जा रही थीं,
आही रे माई! ssss
माई रे माईssss
ए बुच्ची! लीजिए इ गरम पानी का बोतल और पेट सेंकिए ।मुँह दबा के तनी सोने का कोशिश करिए।इ कुल तो जवानी में लगा ही रहता है और आप हैं कि बुक्का फाड़ के गाँव भर को जना रहीं हैं कि आ गया है।अरे तनी भाई-बाप का भी लेहाज किया जाता है।चार बार आपके भईया पूछ गये कि बुचिया काहें चिल्ला रही है।
हे माधो पुर वाली! अपना मुँह बन्द करो।लड़की दरद से बेजार है और तुम हो गियान बघारने में लगी हो।माया की माता जी को बहू का यह ज्ञान बघारना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।वह तमतमा उठीं,बहूरानी भी कम न थीं, तमक उठीं ज्यों झासी की रानी,
काहें नहीं अम्मा जी…काहें न बोलें? हमको का है,चढ़ाइए कपार पर।आपे के काम आएगा,अरे हम लोग भी झेलते हैं,का मजाल की कोई उफ्फ सुन ले और इ हैं कि कपारे पर गाँव उठा लेती हैं।
सास ने हाथ जोड़ लिया,अच्छा अब चुप हो जाओ और जाओ रसोंई में सांझ हो रही है। जानती थीं जो बहू खुल गयी थो फटे ढ़ोल सी बजने लगेगी और इधर जवान बेटी के पेट में दर्द उठा था।
हं हं जाते हैं …जाते हैं…हमारी बात तो सबको कटहा कुकुर की भाउ़ भाउं है…ड़ण्डा ले खेदियालो।
                                     बहू बड़बड़ाती रसोंई में चली गयी, माया निखहरे खटिया पर पेट पकड़े रो रही थी।माँ ने सिर में चुरुआ भर कडुवा तेल डाल कर थाप लगाई और लाल मिर्चा ओंइछ कर दुवार पर जलाने चली गयी।अन्धेरा घिर आया था..माघ का महिना…जाड़ा अपने चरम पर।सबके आँगन -दुवार से चुल्हा और कउड़ा का धुँआ उठने लगा।माया की बेचैनी बढ़ रही थी,पलट कर देखा…भाभी खाना बनाने में लगी थी..आज अकेले काम करने से इतनी रूष्ट थी कि बीच -बीच में अपने दोनों बच्चों को धमधमा कर पीट देती और भनभनाती रहती।माया तीन भाईयों की अकेली बहन ,..थी तो तीनों से छोटी पर इण्टर पास करते पिता शादी की तलाश में चारों तरफ भटक रहे थे।बड़े भाई की शादी हो चुकी थी और वह दो बच्चों का पिता ,घर का एक मात्र सरकारी नौकरीवाला आदमी ।ठीक ठाक कमा लेता था और छुट्टियों में घर आता  ।पति की बेरूखी से बड़ी बहू का स्वभाव कर्कश हो गया था…कारण वह जितना शहर ले जाने को कहती वह अगली बार उतना लेट कर घर आता।सास समझदार औरत थीं..खूब समझती थीं बहू की ख्वाहिशें ,सो उसके भनभनाहट का कोई प्रतिउत्तर नहीं देतीं और अक्सर जब वह शुरू होती वह बाहर निकल जातीं।
                                          हमारी तरफ जवान बेटियों के पेट में दर्द के कई अर्थ होते थे उन दिनों…ज्यादा बढ़ा तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती थी। माया की माँ खासी चिन्तित चुपचाप जाकर सोहरा माई के मन्दिर में बैठ गयीं…”हे भगवती!  तुम जगत भवानी ,लड़की से कोई ऊँँच-नीच न हुई हो।”रोते हुए पिंडी पर कपार पटक कर आँचल फैला मनौती भी मांग लीं की नारियल ,चुनरी का प्रसाद चढ़ाएंगी जो लड़की इज्ज़त से अपने घर चली गयी। उनको लड़की की बीमारी से ज्यादा इज्ज़त की चिन्ता थी।उधर से चौके की बेवा अनारो फुआ गुजरीं,पूरे गाँव की खबरी,देखते आकर बगल में बैठ गयीं…का हो माधो बो! काहें मुँह थपुआ जइसन छितराए बैठी हो।जानती थीं कि लड़की के ब्याह की चिन्ता है।समझाने लगीं…देखो! अब लड़की है तो अभी तुम्हारी चावल ही,भात सिझने में अभी समय है।चिन्ता काहें करती हो।एतनी सुघ्घर लड़की का कहीं बियाह रूकता है।माया की माता जी के जान में जान आया…अनारो फुआ उड़यी चिरई के पीठ पर हरदी लगा आतीं थीं,लड़कियाँ उन्हें देखते रास्ता बदल लेती ।कारण जो कोई सजी-सवरींं दिख गयी ,तुरन्त ज्ञान की शीशी ऊढ़ेल देतीं।आप रूप भोजन पराय रूप सिंगार ही ठीक लगता है ए बहिनी,नाही त नाक छेदाता देर नहीं लगती।कहते वह बहुत अश्लील इशारा करतीं।मेरा खून उबल जाता।काहें हो फुआ…सिंगार काहें दूसरे के मन का?अपना मन कुछ नहीं होता है क्या?
वह लहर जातीं,जैसी विष से मादी नागिन।
कह लो बेटी कह लो,…देसी कुत्ती मरेठी बोल।तुम्हारी माँ भी बित्ता भर का जबान चलाती रही,तो तुम काहें कम रहोगी।व्यंग्य में ताली पीट कर कहतीं…जइसन खेती वइसन बीया,जइसन माई वइसन धीया।
मन में आता कि ले लाठी कुत्ते की तरह इस अपमान पर दुरदुरा दूँ,पर गाँव था…गाँव के नियम ,और वह सबके घर की लड़कियों की अघोषित संरक्षक ।
                                          खैर फुआ का चरित्र प्रमाण- पत्र पा माया की माँ ने एक बार फिर पिंडी पर जोर से कपार पटका और फुआ को लिया कर घर आईं।देखते माया कि सिट्टी -पिट्टी गुम।वह सबको गुमराह कर सकती थी ,फुआ की दिव्य दृष्टि को नहीं।वह भरपूर अभिनय करती रही।फुआ भी गच्चा खा गयीं।अन्त में दो मोटरसाईकिल से माया ,फुआ माया की माता जी और दो लड़कों संग अन्धेरा घिरते- घिरते माया ब्लॉक के अस्पताल में पहुँची।नाटक इतना प्रचंड था कि बिना अस्पताल के निवारण का रास्ता दिख ही नहीं रहि था।बेचारी माया अन्दर से भयभीत ,जैसे कम्पाउंडर दिखा फुआ हाथ पकड़ ले आईं,यहाँ अस्पताल के बेड पर कब्जा पहले होता था पर्ची बाद में कटती थी।कम्पाउंडर बीस से पच्चीस के बीच का बड़ा ही सुन्दर ,गबरू जवान लड़का था।पास के गाँव का।मृतक आश्रित में माँ की जगह नौकरी लगी थी।अभी मुश्किल से चार महीने हुआ था।फुआ उसे खींचे लिए बेड के पास आकर रूकीं…ए भईया ! बहिनी बड़ी दरद में है,कौनो सुई दवाई दे के ठीक करा।
लड़की पेट के बल लेटी थी।कम्पाउंडर ने नब्ज पकड़ी,लड़की ने धीरे से आह! कहा ,वह मुस्कुराया और कहते निकल गया …अभी ठीक हो जाएगा।वह गया और तुरन्त उलटे पैर लौटा।हाथ में इन्जेक्शन था ,लड़की चीखने लगी तो फुआ ने कस के हाथ पकड़ लिया और सुई लगवाया।इस पकड़ा -पकड़ी में ही इशारों में दोनों में कुछ बातें हो गयीं।रात भर माया अस्पताल में रही…कम्पाउंडर बार -बार आकर देख जाता।फुआ की दिव्य दृष्टि धीरे -धीरे खुल रही थी और माजरा समझने का प्रयास चल रहा था।सुबह लड़की के पेट का एक्सरे हुआ…उसने एकांत पा पूछा।बड़े निरमोही हैं,फट से सुई कोंच दिए।
लडका हँस पड़ा…अरे पगली उ बिटामिन का सुई था।अब एतना डरामा पर कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।एक्सरे में पेट में थोड़े बहुत कीड़े दिखे और दवा देकर डॉक्टर ने घर भेज दिया।
                             प्रेम आदमी को निर्भिक बना देता है,माया की महामाया बढ़ती गयी और वह हर पन्द्रह दिन पर ब्लॉक घूम आतीं।बिटामिन का सुई लगवा चंगी हो घर लौट आतीं।फुआ का पेट फुल रहा था।इधर माया की माता जी कउरू-कमक्षा सब पूज आयीं की बेटी का दर्द दूर हो जाए और दर्द था कि हर पन्द्रह दिन पर उमेठ देता । धीरे – धीरे माया रोगिहाइन घोषित होती गयीं,शादी इस आरोप पर कटते रहे और वह थीं कि कुसुम कली सी खिलती जा रहीं थीं।गर्मी के दिन थे,इस बरस खूब लगन पड़े थे।हर घर में एक न एक ब्याह होना तय था।माया भी की बी.ए. दूसरे साल में आ गयी थी और अभी तक कहीं बात नहीं बनी।हमारे घर भी बड़े पिताजी की लड़की की शादी थी और रिश्तेदारों से घर भरा पड़ा था।गाँवों में कुछ हो न हो,सुख -दुख सबके साझे होते हैं।एक शाम इधर हमारे घर ब्याह के गीत गाए जा रहे थे कि अचानक बगल के आँगन से माया का रूदन सुनायी दिया..सब काम छोड़कर लोग उधर भागे।बाबूजी चाचा को डाट रहे थे..कहा था पछिलिए बार की शहर ले आवो बढ़ियाँ डॉक्टर को दिखा देता हूँ तो तुम हो कि इन साले फर्जी डॉक्टरों के चक्कर में पड़े हो।
चाचा ने धीरे से कहा…भईया! उहो कुल सरकारी हैं।
पिताजी ने उच्च स्वर में कहा,साले जोगाड़ी हैं।
अनारो फुआ ने बचाव किया…एक बार फिर लाद -फाद कर माया ब्लॉक पर पहुँची,कम्पाउंडर मुस्कुराते हुए इन्जेक्शन लगा गया। वह आता और बेबात माया का हाथ पकड़ हाल -चाल ले जाता।अबकी साथ में माया की बड़ी भाभी और मेरी माता जी भी साथ गयीं थीं।मेरी माँ ने कम्पाउंडर के अच्छे व्यवहार को देखकर गाँव-घर सब पूछ डाला।लड़का बताता रहा,बातों से पता चला कि वह अभी कुँवारा है।माता जी की बांछे खिल गयीं।घर में अभी तीन लड़कियाँ कुँवारी थीं।अम्मा ने उसके जाते फुआ से कहा…ए जीजी! अपनी रानी के लिए कैसा रहेगा यह लड़का।माया के मुँह से सुनते चीख निकल गयी…अरे बाप रेssss।
का हुआ बच्ची?अम्मा ने पूछा…वह रोने लगी।किसी ने कम्पाउंडर को खबर दी और वह सुई लिए भागता हुआ आया।माया की भाभी को माजरा समझ आ रहा था।सब चुप लगाए बैठे थे।बगल के बेड पर लेटी एक वृद्धा ने फुआ से पूछा…का हुआ है लड़की को,कुछ ऊपर झापर बुझाता है।फुआ कुछ कहतीं उससे पहले माया की भाभी ने तमक कर जवाब दिया।ऊपर झापर ना हो आजी…बहुत भित्तर का रोग है इ…नाम सुनी हैं,”सलम – बाई”।
अम्मा ने अंभित हो पूछा..इ कौन बाई ह हो दुल्हनिया?
फुआ ने ताली पीट कर कहा….सनम की जब बाई चढ़ती है तो सलम – बाई होती है और पूरे घर को पाद पदा देती है भौजी।मुड़ी झोर कर माया की भाभी को दाद दिया…खूब चिन्ही माधोपुर वाली,इ “सलम – बाईये” है।
सोनी पाण्डेय

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मार्गरेट एटवुड की कविताएँ

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इस साल मैन बुकर प्राइज़ मार्गरेट एटवुड को उनके उपन्यास के लिए दिया गया है। उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं। उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद प्रतिमा दवे ने किया है- मॉडरेटर 

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मेरी तस्वीर
इसे कुछ समय पहले ही खींचा गया था
पहली बार देखो तो तस्वीर में अस्पष्ट व धुंधली रेखाएँ
और धूसर रंग ही दिखते हैं
फिर ज़रा ध्यान से देखो तो
बाएँ हाथ के कोने पर
देवदार की शाख़ उभरती सी नज़र आती है
दाईं तरफ अधरस्ते में ढलान पर जड़ा हुआ सा एक
घर दिखता है।
 
पृष्ठभूमि में है एक झील
उसके पार हैं कुछ छोटी छोटी पहाड़ियाँ
(यह तस्वीर दरअसल मेरे डूबने के दूसरे दिन ली गई थी)
तस्वीर के बीचोंबीच झील की सतह से ज़रा सा ही नीचे मैं हूँ
वैसे निश्चित तौर पर तो कहना कठिन है कि
मैं कितनी छोटी या कितनी बड़ी हूँ
क्योंकि पानी पर प्रकाश का असर छलावा है
 
फिर भी अगर तुम ज़रा देर तक ग़ौर से देखोगे
तो अंततः मुझे ढूंढ ही लोगे.
—–
वह पल
वह पल जब कई सालों की मेहनत मशक्कत और लंबी यात्राओं
से लौटने के बाद
तुम अपने कमरे, घर, ज़मीन, टापू या देश के बींचोबीच खड़े होते हो तो
जानते हो कि अंततः तुम यहाँ तक कैसे पहुंचे और
फिर कहते हो कि यह सब मेरा है।
 
यही वह पल है जब पेड़ अपनी नर्म शाखें हौले से तुमसे अलग करते हैं
चिड़ियाएँ अपनी भाषा वापस ले लेती हैं
चट्टानें दरक कर टूट जाती हैं
और हवा तुमसे परे हो लहर की तरह लौट जाती है
फिर तुम सांस भी नहीं ले पाते।
 
ये सब आपस में फुसफुसाते हैं –नहीं, तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है
तुम तो एक यात्री भर थे जो बार बार पहाड़ पर चढ़
अपना झण्डा गाढ़, दावे से कहते कि
हम तो तुम्हारे कभी थे ही नहीं और
न ही तुमने हमें खोजा
 
सच तो यह है कि हमेशा से इसका उल्टा ही रहा है।
—–
 
आवास
विवाह एक घर या तम्बू भर ही नहीं है
यह तो उससे भी पहले का और बेहद ठंडा है
 
जंगल, रेगिस्तान और
पिघलते पीछियाते ग्लेशियर के किनारों से होते हुए
पिछवाड़े की बिना पुती सीढ़ियों पर पालथी मारे पॉप कॉर्न खाते हुए
इतनी दूर तक बचे रहने पर दुखी और हैरान से
हम आग जलाना सीख रहे हैं।
——
अनुवादक –प्रतिमा दवे

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एक ही देश में कई तरह की दिवाली है

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आज उदय प्रकाश जी का यह लेख ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में आया है। दीवाली के बहाने एक सारगर्भित लेख, जिन लोगों ने न पढ़ा हो उनके लिए- मॉडरेटर

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जो लोग जरा-सा भी देश के पर्वों-त्योहारों की परंपरा, उनकी जड़ों, उनके इतिहास का ज्ञान रखते हैं, वे बिना उलझन कहेंगे कि हमारे लगभग सभी त्योहार खेती और व्यवसाय के साथ सदियों से गहराई के साथ जुड़े हैं। इसे और आसान भाषा में कहें, तो किसी भी बड़े उत्सव की सरहदों का दायरा उतना ही बड़ा होता है, जितने बड़े इलाके में रहने-जीने वाले आम लोगों के जीवन से वह जुड़ा होता है। दिवाली भी एक ऐसा ही लोक-पर्व है, जिसका दायरा राष्ट्रीय या अखिल भारतीय है। होली या दिवाली जैसे त्योहारों का मालिकाना साधारण जनता का होता है, किसी दल, कंपनी या सरकार का नहीं। इसीलिए बैटमैन  और वाचमैन  जैसे बेहद लोकप्रिय अंग्रेजी कॉमिक्स के मशहूर लेखक एलन मूर का यह कथन अब बार-बार दुहराए जाने वाली कहावत बन गया है कि ‘जनता को सरकार से नहीं, सरकार को जनता से डरना चाहिए।’ जनता के जीवन में दिवाली जिस रूप में आती है, वह उसी तरह की दिवाली मनाती है।

इस अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दो राज्यों के लोगों को दी गई दिवाली की बधाई का एक अर्थपूर्ण और प्रतीकात्मक महत्व बनता है। ये दोनों राज्य हैं- महाराष्ट्र और हरियाणा। दोनों ऐसे राज्य हैं, जो कृषि और औद्योगिक आधुनिकता के लिहाज से अपने देश में विकास के दो सबसे अहम मॉडल हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा की अधिकांश जनता किसान है। पहले के पास मुंबई है, देश की आर्थिक राजधानी, तो दूसरे के पास गुरुग्राम है, जो विकास का ग्लोबल मॉडल बन रहा है।

दोनों राज्यों में जिस तरह से चुनावी जीत या हार के अलग-अलग अर्थ हैं, ठीक उसी तरह से दिवाली के भी अलग-अलग अर्थ हैं। महाराष्ट्र में 10-15 प्रतिशत लोग ऐसे होंगे, जिनके लिए दिवाली वैसी नहीं है, जैसी समृद्ध वर्ग के लिए है। समृद्ध वर्ग में भी विभाजन है। एक समृद्ध या मध्य वर्ग वह है, जो धूमधाम से दिवाली मनाता है और एक वर्ग वह भी है, तो फिजूलखर्ची, पटाखे और शोर के विरुद्ध है। मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में ही नहीं, लखनऊ, पटना, रांची जैसे शहरों में भी दिवाली मंद पड़ने लगी है। पर्यावरण के प्रति चिंता बढ़ी है। पटाखों का समय तय हो रहा है। जैसे-जैसे आर्थिक, औद्योगिक विकास बढ़ रहा है, दिवाली नहीं मनाई जा रही है या केवल कार्ड और शुभकामनाओं तक सिमट आई है। न तो दिवाली की रोशनी पहले जैसी है और न होली के रंग पहले जैसे बिखर रहे हैं।

यह दिवाली तब आई है, जब भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र में नोबेल मिला है। उनके द्वारा दिए गए आर्थिक फॉर्मूले का इस्तेमाल करने वाली पार्टी विपक्ष में है, लेकिन ताजा चुनावी परिणाम देखिए, तो आज विपक्ष की ताकत को बहुत घटाकर भी नहीं देखा सकता। आज कौन इनकार करेगा कि वंचितों की संपन्नता के लिए गंभीर पहल और विकास के वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है। एक ओर, गरीबों की चिंता कर रहे अभिजीत बनर्जी हैं, तो दूसरी ओर हमें यहां ज्यां द्रेज भी याद आ रहे हैं, जिन्होंने मनरेगा जैसा मॉडल दिया। अब उन्हें सड़कों के किनारे गरीबों के साथ फटे-चिथड़ों में रोटी खाते भी देखा जाता है। उनका हुलिया उन्हीं किसानों से मिलता-जुलता हो गया है, जिनकी आज सबसे ज्यादा उपेक्षा हो रही है। ऐसे अर्थशास्त्रियों के ज्ञान की रोशनी हमारे अंधेरों को किनारे लगा सकती है।

दिवाली पर सबसे बड़ी पूजा महालक्ष्मी की होती है। हर कोई लक्ष्मी के आने की बाट जोहता है। लक्ष्मी सिर्फ नकदी या कैशलेस ट्रांजेक्शन से नहीं, बल्कि फसल, अन्न और श्रम से उपजे अन्य उत्पादों से भी आती हैं। सबको समृद्ध होना है। उनकी भी चिंता हो, जिनकी जीवन भर की कमाई बैंकों में डूब गई। यह दावा किया जा रहा है कि हमारे देश के आर्थिक विकास की गति एशिया में सबसे तेज है, जबकि इसी एशिया में हमारी सबसे बड़ी टकराहट उस चीनी ड्रैगन के साथ है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हिस्सेदारी निरंतर बढ़ रही है। हमारे यहां पटाखे, उपहार और यहां तक कि लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां भी चीन से आ रही हैं, क्योंकि चीन सब कुछ बना रहा है। हमें किसने रोका है? क्या हम अपनी दिवाली अपने दम पर मना सकते हैं?

संपन्नता मापने का एक तरीका होता है उपभोग। सोचा गया था कि तमाम तरह के आर्थिक प्रयासों-प्रोत्साहनों से 15 प्रतिशत की आबादी के पास इतनी क्रय-शक्ति आ जाएगी कि सबकी दिवाली जगमग हो जाएगी। जहां महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्य हैं, वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी हैं, जहां सुशासन से मोहभंग के प्रारंभिक संकेत मिलने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र में, जो सांस्कृतिक परंपराओं के मामले में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है, अब भी धर्म के पासे फेंके जा रहे हैं। चुनाव जिस तरह प्रबंधन और रणनीतियों से जीते जा रहे हैं, आने वाले पांच-दस साल तक ऐसे ही चुनाव होते रहेंगे, सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन हम प्रार्थना करेंगे, उम्मीदें बांधेंगे कि दिवाली और होली के उजाले और रंग तमाम संकीर्णताओं को पार करते हुए इस देश को फिर एक बनाएं। त्योहार ही देश बनाते हैं, राजनीति नहीं।

हम न भूलें, दिवाली से ठीक पहले मानसून ने भी कहर बरपाया है। एक ही देश में कई तरह की दिवाली है। दिवाली पर समाज के विरोधाभास भी सामने आ जाते हैं। ग्लोबल होते गुरुग्राम वाले राज्य में मध्यकालीन खाप पंचायतें भी हैं, जिनसे हमें आगे निकलना होगा। केवल दिवाली ही नहीं, देश की छवि भी चमकदार हो। क्या हमारे विकास की रफ्तार बांग्लादेश से भी नीचे जा रही है? मॉब लिंचिंग इत्यादि का बहुत हल्ला है, वैसा शानदार उत्सवी माहौल नहीं बन रहा है, जैसा बनना चाहिए। संपन्नता के लिए निवेश जरूरी है। निवेश से ही क्रय-शक्ति बढ़ती है। विदेशी निवेश में बहुत मामूली बदलाव है, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण से काम चलाया जा रहा है। हमें घाटे और कर्ज की दिवाली से उबरने की कोशिश करनी चाहिए।

किसी भी त्योहार में जोश और जुनून युवाओं से ही आता है। कहते हैं, दुनिया में सबसे ज्यादा काले बाल यहां हैं। इस युवा पीढ़ी को बेकार-बेकाम नहीं छोड़ना चाहिए। माल्थस का सिद्धांत कहता है, आबादी नष्ट कर देगी, लेकिन चीन ने इस सिद्धांत को झुठला दिया। चीन ने कहा, आबादी बोझ नहीं, पूंजी है। हम अभी वैसा नहीं कर पाए हैं। हमें देखना चाहिए कि हमने युवाओं को क्या-क्या दिया है? उनके दिमाग में क्या-क्या भरा है? कितने अंधविश्वास, कितनी मूर्खताएं? आज सच्चा देशभक्त वही है, जो सबको बचाएगा, जो सबकी खुशहाली के लिए व्याकुल होगा, जो नदियों और देश की प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति, संसाधन को बचाएगा। केवल देश और भारत के नाम पर अच्छे-अच्छे नारों से काम नहीं चलेगा, उन नारों की रोशनी में सचमुच आगे बढ़ना होगा।

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ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘सीय स्वयंवर कथा सुहाई’

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ईशान त्रिवेदी फ़िल्म निर्देशक रहे हैं, फ़िल्मों टीवी के लिए पटकथाएँ लिखते रहे हैं, उनका एक उपन्यास प्रकाशित होने वाला है। लेकिन आजकल जानकी पुल के पाठकों के लिए उनकी एक के बाद एक कहानियाँ आ रही हैं। हर कहानी में उनके लेखन का एक नया ही रूप आता है। यह नई कहानी है-मॉडरेटर

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अरमान पांडे को रह रह कर अहसास होने की विचित्र और भीषण बीमारी है। इन एहसासों की कोई ख़ास उम्र नहीं होती लेकिन वो जब तक उसके भीतर खदबदाता है तब तक उसे जूडी का बुखार सा चढ़ा रहता है। जैसे आज सुबह अरमान बाहर निकल रहे था कि माँ ने कहा जब छुट्टी वाले दिन भी बाहर जा ही रहा है तो लगे हाथों घर के दो चार काम निपटाते आना।

कहीं जाना तो था नहीं। बस यूँ ही मल्लीताल के बाजार में तफरा-तफरी। दुर्गा पूजा वाला ऑटम सीजन चल रहा है। चरों तरफ सैलानी ही सैलानी। कंधे से कन्धा छिल रहा है। दाएँ से बचो तो बायाँ भिड़ जाता। अगर किसी को शौक ही था घिसंदड़ी का तो बात अलग वरना हर लोकल भीड़ भड़क्के से बच के ऊपर की सड़क से नीचे उतर रहा था। अरमान ने भी ऊपर की सड़क पकड़ी। अभी सौजू की पकौड़े जलेबी वाली दुकान आयी भी नहीं थी कि अरमान को एक अहसास ने धर दबोचा। लगा कि मोक्ष का रंग चमकीला बैंगनी होता है। अरमान को तो ढंग से ये भी नहीं पता था कि मोक्ष होता क्या है। कई बार ऐसा होता है कि अरमान के दिमाग में बस शब्द भर आते हैं। जैसे मॉडर्न एंटीक स्टोर में वो जब जाता है तो वहां कुछ रखा होता है जो उसे अपनी तरफ खींचता है। अरमान उसे उठा के उलट पुलट के देखता है। वो क्या है? सौ साल पुरानी किसी मशीन का हिस्सा? या कोयले से चलने वाले इंजन की हेडलाइट? या फिर कुछ और ही भलती सी चीज़? एकदम ‘अपरिचित’ भी कभी कभी कितना खींचता है। अरमान ने रुक कर मोक्ष को गूगल किया। मुक्ति, छुटकारा, विमुक्त होना। हाँ, इतना तो पता था। लेकिन चमकीला बैंगनी रंग? अरमान ने मुड़ कर चारों तरफ देखा। ओरिएंटल बैंक के सामने एक छोटी सी बच्ची गैस भरे गुब्बारे बेच रही थी। गुलाबी, नीले और पीले। क्लब जाने वाली चढ़ाई जहाँ शुरू होती है वहां एक बड़ी सी छतरी के नीचे मैगी का स्टाल था। छतरी लाल और सफ़ेद थी। छतरी के नीचे काली साडी पहने एक औरत अपने दो चिल्ल पौं मचाते दो बच्चों को मैगी खिलाने की कोशिश कर रही थी। मोक्ष का चमकीला बैंगनी अगर कहीं था तो वो फिलहाल तो अरमान की नज़रों से ओझल था।

अरमान ने अपने पोर पोर को झटका और थोड़ा और नीचे उतर के सौजू की दूकान तक आ गया। सुबह सुबह माँ ने चीनी वाले परांठे बना दिए थे तो मन में जगह नहीं थी जलेबी पकौड़ों के लिए। आगे बढ़ ही रहा था कि किसी ने आवाज़ लगायी – “पांडे साहब!” इस आवाज़ को नैनीताल में कौन नहीं जानता। बड़े बाज़ार की रामलीला में पचीसियों साल राम से लेके रावण खेलने के बाद अब खुद रामलीला करवाते हैं। जानकार लोग कहते हैं कि शायद इतनी कलात्मक रामलीला दिल्ली में भी नहीं होती। चौपाइओं को कुमाउँनी लोक धुनों में कहा जाता है, ज़ुबान हिंदुस्तानी और मैदानों में रामलीला के नाम पे जिस तरह की फूहड़बाज़ी होती है वो सब यहाँ नहीं होता। ना तो यहाँ बरेली के बाजार में नाचने वालियों का झुमका गिरता है और ना ही जनक के दरबार में पोतड़ों पे चिम्मट बजवाते भांड परशुराम का धनुष उठाते हैं। जलेबी के कुरकुरे टुकड़े जोशी जी की खिचड़ी दाढ़ी पे अटके हुए थे। अरमान का दिल किया कि वो उन्हें झाड़ दे।

“यार कहाँ कहाँ रहते हो तुम?” – जोशी जी के लिए ५ साल का बच्चा भी यार ही था। जोशी जी अरमान के बौज्यू के दोस्त थे। पहले घर भी आते थे लेकिन बौज्यू की मौत के बाद बस एक बार आये थे। बौज्यू के मरने के बाद माँ को सब कुछ इतना सूना सूना लगने लगा कि ‘कैसे भी हो बस अरमान की शादी हो जाए’ – यही एक बात जब घर में घूम फिर के होने लगी तो अरमान ने माँ को समझाया कि हर चौथे दिन रिश्ते मत मंगवाओ। बार बार ‘ना’ करना अच्छा नहीं लगता। इसी रिश्तेबाज़ी के चक्कर में जोशी जी का भी हुआ था आना एक बार घर में। किसी दूर के रिश्ते की भानजी के लिए आये थे। जब मेरे चेहरे पे रुखड़ापन नज़र आया तो बोले – “चिल्ल मार यार! हम तो बोझी के हाथ का बना खाने आये बल। ” फिर माँ को अलग से समझा के गए ये रिश्ते विश्ते छोडो लड़के से पूछो जो कोई है उसके मन में तो। माँ ने जोशी जी के जाते ही अरमान को धर दबोचा। अब अरमान क्या ये बताता कि एक तो थी पड़ोस वाली चिंटी जिसकी जब शादी हुई थी पिछले साल तो बड़ा चहक चहक के लड्डू दबाये थे तीन तीन दिन। तब ना दिखा था अपने बेटे का उतरा हुआ चेहरा?  दूसरी थी वो जिसके साथ अरमान ट्रैकिंग पे गया था। पिंडारी ग्लेशियर। अगर प्यार कहो उसे तो बस उतना चला जितनी दूर का सफर था। हैं और भी दो तीन। छुटकिस्से। कैसे बताये अरमान कि ‘अहसास’ उसके साथ क्या क्या करते हैं। वो उसे कहीं और ले जाते हैं। उस जगह से दूर जहाँ उसे होना चाहिए। अपनी ये बीमारी खुद समझ में नहीं आती अरमान को तो माँ को क्या समझाये?

“तू भी भी तो नाटक करता है?” – हाथ में पकड़ा खली दोना फेंकने के लिए जोशी जी कोने में रखे तेल के खाली कनस्तर तक गए और फिर वापिस आके नए खेप में छनती जलेबियों की तरफ देखने लगे। जोशी जी ने कभी शादी नहीं की। कहते हैं अल्मोड़ा में कोई लड़की थी।

“नाटक?” – अरमान को कुछ समझ नहीं आया।

“वो कुछ किया था ना कॉलेज में जब पढता था तू? क्या नाम था नाटक का?” – और फिर सवाल का जवाब सुने बगैर जोशी जी ने अरमान की बांह पकड़ के खींचना शुरू कर दिया।

***

पहली नज़र में रिहर्सल हॉल ऐसा लग रहा था जैसे मॉल रोड के सैलानी रस्ता भूल के आपधापी मचाने यहीं आ गए थे। लेकिन जोशी जी अंदर घुसते ही सब कुछ तुरत फुरत तरतीब से हो गया। वानर सेना और राक्षस सेना एक कोने की तरफ पीछे चली गयी। राम और लक्ष्मन अपने अपने व्हाट्सएप छोड़ के कमरे के बीचों बीच हाज़िर हो गए।  एक कोने में बैठी हारमोनियम पे सुर बांधती सीता चुप हो गयी। जोशी जी ने आते ही सबको उस उदासीनता से देखा जो सिर्फ पहुंचे हुए लोगों को नसीब होती है। अरमान ने पाया की सबकी नज़रें उसी पे हैं।

***

बड़े बाजार की रामलीला में रावण का पार्ट करने वाले ज़हूर आलम कटपीस का धंधा करते हैं। फ्लैट्स के पीछे वाली मस्जिद से सटी उनकी दुकान है। ज़हूर आलम की दो खासियत थीं। एक तो ये कि वो नुक़्ते वहीं लगते थे जहाँ उन्हें लगना चाहिए। और दूसरी ये कि रिहर्सल वाले हर दिन ताज़े छने हुए समोसे लेकर आते थे। रामलीला अरण्य काण्ड तक पहुँच चुकी थी। मारीच स्वर्ण मृग बन कर धोखा दे चूका था और राम लक्ष्मण उसका आखेट करने के लिए जा चुके थे। आज सीता का अपहरण होना था लेकिन रावण को डेंगू हुआ पड़ा था। वो भी ग्रेड थ्री। ज़हूर आलम ने सीता स्वयंवर तक तो जैसे तैसे कलाकार धर्म निभाया लेकिन अब प्लैटलेट्स तेज़ी से नीचे जा रहे थे और उनके नुक़्ते भी छितर बितर हो रहे थे। उन्हें हॉस्पिटल में दाखिल करवा दिया गया था।

***

दस सर वाले मुकुट में कुछ था जो अरमान के सर में गड़ रहा था। एक बार जब अरमान ने मुकुट उतार के रख दिया तो जोशी जी बुड़बुड़ पे उतर आये। पिछले दो घंटे में रिहर्सल करने के दौरान अरमान को इतना समझ में आ गया था कि जोशी जी गुस्सा नहीं करते। उनका हथियार था बुड़बुड़ाना। कुछ समझ में नहीं आता था कि वो क्या कह रहे हैं। और आप लाख जानना चाहें कि उनकी बात आपको समझ में आ जाये लेकिन जो समझ में आता था वो बस इतना कि वो बेहद खीजे हुए हैं। ये बुड़बुड़ाना गुस्से से ज्यादा आतंकित करने वाला था।

जिन्हें ये पता था वो इस बुड़बुडाने पे ‘हैं?’ ‘क्या?’ या ‘कुछ कहा आपने जोश्ज्यू?’ नहीं कहते थे। ऐसा करने पे उनका बुड़बुड़ाना ‘भड़भड़ाने’ में बदल जाता जो ज्यादा खतरनाक होता और पूछने वाले की ज्यादा कवायद होती। अरमान आज की रामलीला के लिए रावण का रिप्लेसमेंट था। अरमान ने प्रतिरोध किया था लेकिन एक हद तक। जोशी जी का विरोध करने का मतलब था खुद को एक ऐसे किस्से में बदल लेना जिसे शहर कभी भूलेगा नहीं। खतरा था कि आप इंसान कम और चौक चौराहा ज्यादा हो जाएंगे।

फिलहाल सीन ये था कि अरमान को समझा दिया गया था कि उसे ४ लाइन्स संवाद के तौर पे और दो चौपाई गा कर बोलनी हैं। अरमान जब कॉलेज में पढता था तो उसने दो नाटक किये था। वो भी सिर्फ इसलिए कि उनमें से एक नाटक की हेरोइन वो लड़की थी जो दूद दूर से अरमान को अच्छी लगती थी। नाटक के दौरान जब थोड़ी नज़दीकी हुई तो पता चला वो लड़की लड़की कम और पजामा ज्यादा थी। जब खुद कॉलेज में पढ़ाने लगा तो सब छूट गया। लाइन्स तो अरमान ने तुरंत पकड़ लीं लेकिन चौपायिओं के सुर उसके हाथ नहीं आये। तय किया गया कि वो सिर्फ ‘लिप सिंक’ करेगा और परदे के पीछे से खुद जोशी जी चौपाइयां गायेंगे। ये प्रॉब्लम तो सॉल्व हो गयी लेकिन अरमान की हंसी का क्या किया जाय। माता सीता को अपने कन्धों पे लादने से पहले जब साधू रावण उन्हें लक्ष्मण रेखा से बाहर आकर भिक्षा देने के लिए ललकारता है और अपने असली रूप में आता है तो उसे दो बार अट्टहास लगाना था।

जोशी जी ने एक बार और कोशिश की – “एक बार फिर से!”

“हा हाहा हो हहह हो” – अरमान की हंसी कैसी भी हंसी के नाम पे कलंक थी। इस हंसी में एक शुरुआत और एक अंत तो था लेकिन बीच में बेचारगी और रुदन भी था। ये गरूर में चूर रावण का अट्टहास नहीं हो सकता था।

पांच बार असफल हो चुके जोशी जी ने इस बार तकनीकी समाधान की ओर रास्ता किया।

“देखो सबसे पहले सांस भरो… ऐसे… हू हू हूSSS… और अभी सांस छोड़नी नहीं है… इसी को और आगे ले जाना है … लेते जाना है … लेते जाना है … मुंह खोल के  …. हा हा हा SSS… ऐसे  … हू हू हूSSS हा हा हा SSS… अब कर के बताओ… “

अरमान ने इस बार जैसा हंसा उस में सिर्फ और सिर्फ खालिस रुदन था।

“पांडे जी लगता है आप जीवन में कभी हँसे नहीं” इतनी सी दो टूक बात कह के जोशी उस तरफ चले गए जहाँ हारमोनियम और तबले वाले बैठे थे।

“इस से नहीं होगा… इतने सारे काम पड़े हैं और ये पांडे का छ्योड़ो हंसने के नाम पे रोता है मेरा यार!”

जोशी जी का बुड़बुड़ाना अब शब्दों में साकार हो रहा था और ये संकेत था एक ऐसे तूफ़ान का जो सब कुछ लील जाता है। कुच्चू को ये पता है। सीता बनने का ये उसका तीसरा साल है।

“सर, आप बाकी काम कीजिये… मैं इन्हें बाहर ले जाके रिहर्सल करवाती हूँ  …”

जोशी जी बुड़बुड़ाते हुए हाथ झटकते हैं जैसे कह रहे हों दफा हो जाओ सब लोग।

बांये से तीसरा वाला सर थोड़ा लचक रहा है। अरमान को डर है कि कहीं वो बाकी के सरों से क़लम ना हो जाए। कुच्चू आके सामने खड़ी हो जाती है।

“हाय आय ऍम कचनार पंत… आय ऍम प्लेइंग सीता… मेरे साथ रिहर्सल करेंगे बाहर चल के? जोशी जी से पूछ लिया मैंने… “

“अह… यहाँ किसी के पास थोड़ा… फेविकोल होगा क्या?”

“फेविकोल?”

“ये वाला सर  … कहीं गिर ना जाये  …”

“नहीं गिरेगा… जब से मैं सीता बनी हूँ… ये ऐसा ही है … तीन साल से…”

***

हॉल से बाहर जाके रिहर्सल एकदम से शुरू नहीं हुई। अंदर रिहर्सल हॉल में जब अरमान ने अपने को रावण के दस सरों से जुदा करने की कोशिश की थी तो जोशी जी ने कहा था एक रोल करने के लिए अच्छे एक्टर्स क्या क्या नहीं करते और तुम्हें एक गत्ते के मुखौटे से प्रॉब्लम हो रही है। मैं चाहता हूँ कि जब तक आज रात रामलीला ख़तम नहीं हो जाती तब तक तुम रावण के इन दस रूपों को जियो। उसके अहंकार को, उसकी ज़िद को, उसके ब्राह्मणत्व को, उसके स्वार्थ को, उसकी ईर्ष्या को। घुट्टी बना के पी जाओ इन रूपों को। कुछ ऐसा करो कि रात में जब सैकड़ों लोगों के सामने तुम आओ तो उन्हें अरमान नहीं रावण दिखना चाहिए। और फिर उन्होंने दुनिया भर की मिसालें दे डाली कि अलाना रोल के लिए फलाना एक्टर ने क्या क्या कुर्बानियां दीं। जब ये मिसालें ख़तम हुईं तो अरमान को लगा उस से ज्यादा स्वार्थी व्यक्ति इस दुनिया में ढूंढें नहीं मिलेगा जो महज़ अपने दो कौड़ी के सर के दर्द की खतिर दुनिया को असली रावण से साकार होने के अवसर को छीनना चाहता था।

कुच्चू नरम थी। उसने भी झेला होगा जोशी जी का झक्कीपना तो बाहर निकलते ही वो अरमान को पीछे नंगी चट्टान वाले कोने में ले गयी।

“हम पांच मिनट इधर रहेंगे। तब तक आप अपने ये दस सर उतार के रख दीजिये।”

अरमान ने मुखौटा उतार के अपनी टांगों के सहारे टिका दिया। कुच्चू ने अपने मोजों में फँसायी सिगरेट निकाली और सुलगा ली।

“आप सिगरेट नहीं पीते मुझे पता है  … इसलिए …” – धुएं का पहला भभका गले के अंदर गया और कुच्चू के चेहरे पे मोक्ष बन के पसर गया। इस मोक्ष का रंग गुलाबी था। ठंड में गालों पर खिलने वाले गुलाबों की तरह। इधर उधर की बातें होती रहीं। कुच्चू काफी बड़बड़िया थी। अरमान ने जब कॉलेज पढ़ाने के लिए ज्वाइन किया था तो वो लास्ट ईयर में थी। उसे ये भी पता था कि कौन कौन सी लड़कियां अरमान सर पे मरा करती थीं। और फिर नंगी चट्टान के नीचे खड़े खड़े ५ मिनट से आधा घंटा हो गया। जोशी जी ज़रूर किसी पचड़े में फंसे होंगे इसलिए अभी तक दोनों की खबर लेने किसी को भिजवाया नहीं था। रिहर्सल में सबके लिए चाय आयी थी। चाय वाले लड़के को अंदर जाते हुए देखा तो कुच्चू दौड़ के दो चाय झपट लायी। अदरक वाली चाय का एक घूँट अंदर गया भी नहीं कि कुच्चू के मोजों से दूसरी सिगरेट निकल आयी। अरमान को पता चला कि कुच्चू की माँ और उसकी माँ बचपन की दोस्त हैं। शादियों के बाद ज्यादा आना जाना नहीं रहा लेकिन बौज्यू के जाने के बाद दोनों के तार फिर से जुड़े। अरमान को याद आया कि हाँ कोई आती तो हैं। कॉलेज से लौट के आता है तो कई बार उन्हें माँ के साथ बैठे देखा है। कुच्चू कुछ कहने कहने को थी लेकिन नहीं कहा। सफ़ेद गाढ़े बादल पहाड़ियों से उतर रहे थे। नंगी चट्टान को धोती धूप थोड़ी सिलेटी होने लगी थी।

***

अरमान की हंसी में कोई फर्क नहीं आया। बल्कि अब वो ऐसे सुरों से भी बाहर जा चुकी थी जिन्हें इंसानी कहा जा सके।

“आप गा नहीं सकते  … हंस नहीं सकते  … जब जोशी जी खुद परदे के पीछे से आपके लिए गा रहे हैं तो हंस भी सकते हैं आपके लिये  … नहीं क्या?” – अपनी टीचरइ फेल होते देख कर कुच्चू को अब और सिखाने का मन नहीं था।

“कोई और नहीं मिल सकता क्या?” – अरमान के लिए ये सबसे बेस्ट ऑप्शन था।

“आप दोगे ये सजेशन अंदर जाके जोशी जी को? – कुच्चू ने जिस तरह से खिसिया के कहा उस से ये ऑप्शन ही ख़तम हो गया।

“कोई लड़की उठायी है आपने कभी? या वो भी नहीं किया कभी?” – जैसे खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचती है वैसे ही कुच्चू के पंजे भी अब रियायत छोड़ रहे थे।

“कोई मिली ही नहीं उठाने के लायक!” – अरमान ने तमक के जवाब दिया तो कुच्चू की आँखों में कुछ उभरा। जैसे उसे जंग खाये बंद ताले की चाबी मिल गयी थी।

“तो समझिये मिल गयी आज  … पूरी ड्रामेबाज़ी चहिये  … “तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥”  …. आपसे तो होगा नहीं गाना  … कोई बात नहीं  … जोशी जी हैं ना! फिर वो दो बार अट्ट हास करता है  … हू हू हूSSS हा हा हा SSS… हू हू हूSSS हा हा हा SSS… चलिए ये भी नहीं होगा  … कोई बात नहीं  … अपने जोशी जी हैं ना! फिर वो… “

अरमान तेज़ी से नीचे झुका,  कुच्चू की कमर को घेरा और कन्धों तक उठा लिया। कुच्चू चीख रही थी। कुच्चू हंस रही थी। पहड़ियों से उतरते बादलों में सूरज की चौंध थी। चीड़ के जंगलों की हरियाली थी। झील का नीलापन था जो सूरज की चौंध और जंगलों की हरियाली के साथ आइस पाइस खेलता हुआ बैंगनी हुआ जा रहा था। अरमान को लगा वो मोक्ष के बहुत नज़दीक है। बस ज़रा सा हाथ बढ़ाना था। थोड़ा सा दूर और चलना था। चीखती और हंसती कुच्चू अब नीचे आ रही थी।  वो गिर रही थी। मोक्ष बस हाथ भर की दूरी तक आके कुदक गया कहीं और। कुच्चू सिर्फ गिरी नहीं धड़ाम से गिरी। कौली मिट्टी और घास बलिश्त भर ऊपर उछली और अरमान की सांसें गले में ही अटक गयीं।

***

चोट तो लगी ही थी लेकिन कुच्चू ‘कोई बात नहीं – कुछ नहीं हुआ’ कह के उसे पचा ले गयी। ना तो अंदर रिहर्सल हॉल में किसी को पता चला और ना ही अरमान को उतना झेंपने दिया कि दोनों के बीच बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ था वो थम जाता। इस बीच जोशी जी को याद आया कि कुछेक आठ नौ साल पहले जो विभीषड का रोल करता था उसे ढूँढा जाये। पहले तो उन्हें उसका नाम याद नहीं आया और जब आया तो उनके फ़ोन में उसका नंबर नहीं था। राम और लक्ष्मण नए थे। लेकिन तबलची के पास नंबर था। फ़ोन लगाया तो पता चला वो तो हल्द्वानी कचहरी में अपना एक केस लड़ने गया है और अभी तक उसका नंबर नहीं आया।

जोशी जी का मानना था कि उन्हें आज तक कचनार से अच्छी सीता नहीं मिली। इसलिए उसके सौ तो नहीं लेकिन दर्जन भर खून तो वो माफ़ कर ही देते थे। कई बार उन्हें शक भी हुआ था कि कचनार सिगरेट पीती है। जब भी ऐसा होता कि उन्हें कचनार के मुंह से सिगरेट का भभका आता उनकी बरसों से दबी हुई खुद की तलब झंझावाती होने लगती। इस बार चाय के साथ नाश्ता भी आ गया था सबके लिए।

***

मोजों में फंसी आखिरी सिगरेट भी उसके होठों से लग चुकी थी।

“घर में पता है तुम सिगरेट पीती हो? – अरमान ने प्रेम टिक्की से आयी बन टिक्की का एक टुकड़ा तोड़ के चुभलाया। उसकी चाय एक पथ्थर के ऊपर रखी थी।

“मैं गांजा भी पीती हूँ  …” – कुच्चू ने ऐसे कहा जैसे कोई बहुत बहादुरी की बात हो – “घर में उगाती भी हूँ…”

“क्या?” – अरमान ने पथ्थर पे रखी अपनी चाय उठा ली।

“गांजा… बेस्ट ग्रेड… आप आओगे तो दिखाऊंगी… ” – अरमान के मुंह पे लगे बन के चूरे को हल्की ऊँगली से झाड़ के कुच्चू हंसने लगी। अरमान को लगा वो उसके खाने के बेहूदेपन पे हंस रही है।

“नहीं नहीं… वो नहीं … मैं तो मम्मी का … उन्हें लगता है ये लड़की इन पौधों के आगे पीछे क्यों मंडराती रहती है… किसी दिन पता चल गया कि ये तो… जान ले लेंगी मेरी…”

“क्या होता है गांजा पीके?” – अरमान ने उसे छेड़ा।

“आय फील हैप्पी… “

“हम्म्म  …” – कुछ भी कर के खुश रहने से उसका क्या विवाद हो सकता था।

थोड़ी देर तक दोनों अपनी अपनी चाय सुड़कते रहे। कुच्चू ने पास पड़े एक बड़े से सूखे पत्ते से हवाई जहाज बनाने की कोशिश की लेकिन वो बार बार लचक के खुल जाता था।

“आप तो उठाते भी कमाल का हैं और गिराते भी कमाल का हैं!”

“सॉरी  …”

“सॉरी मुझे नहीं तुलसीदास को बोलिये  … ओरिजिनल रावण को डेंगू हो गया है और सीता जी की कमर लचकी पड़ी है  … अब क्या सीधे अरण्य काण्ड से उत्तर काण्ड पे चले जायें?” – अरमान जितना सुन नहीं रहा था उतना सोच रहा था। कचनार कितना अच्छा नाम है। चिंटी के घर के पीछे वाली चढ़ाई पे कितने ही पेड़ हैं कचनार के।

***

आदिकालीन विभीषण को कचहरी से नयी डेट मिल गयी तो वो तुरंत टैक्सी पकड़ के नैनीताल के लिए रवाना हो गए। जोशी जी खुद से ऐसी खबर अरमान को नहीं देना चाहते थे इसलिए वो किसी काम का बहाना मार के खिसक लिए और बताने की ज़िम्मेदारी कुच्चू पे छोड़ गये। कुच्चू ने बाहर निकल के नंगी चट्टान के पास बैठे अरमान को बड़ी ही सहजता से बता दिया कि आपसे नहीं होगा।

“रिप्लेसमेंट का रिप्लेसमेंट मिल गया है… अब आपको छुट्टी  …”

“ठीक है फिर… अपनी फ़जीहत करवाने से बच गया मैं… “

“वैसे नुक़्ते आपके भी सही जगह पे लगते हैं  …”

अरमान ने चेहरे पे एक फुसकी सी मुस्कराहट आने दी और उठ खड़ा हुआ।

“मिल के अच्छा लगा तुमसे…”

“सेम हियर…”

कुच्चू ने हाथ बढ़ाया। अरमान ने अपने हाथ में ले लिया।

“घर आके तुम्हारा वाला गांजा पीता हूँ कभी…”

“ओह शिट!” – कुच्चू को अचानक से कुछ याद आया।

“क्या हुआ?”

“बस एक मिनट रुकिए… मैं आती हूँ बस …”

कुच्चू जाने के लिए मुड़ी तो अरमान ने रोक लिया।

“कुच्चू!”

कुच्चू ने पलट के देखा। अरमान कुछ फंसा फंसा सा लग रहा था। पहाड़ियों से उतरे बादल अब धुंध हो चुके थे। कचनार कभी दिखती तो कभी गायब हो जाती। डर लगा कि कहीं खो ना जाये। क्या मोक्ष की तलाश में ऐसे खतरे भी होते होंगे। कि मिला तो मिला नहीं तो बाकी सब किस्सा?

“तुम्हारा रिश्ता आया था मेरे लिए…”

“जानती हूँ … आपने मना कर दिया था…”

अरमान का मन किया कि कहे गलती हो गयी। तुमसे पहले मिल लेता तो कभी मना नहीं करता। माँ ने भी कहा था मिल तो ले एक बार। बिना मिले कैसे ना कर देता है। कुच्चू पलट के अंदर चली गयी। लौट के आयेगी तो मन की बात कह ही देगा अरमान।

दो मिनट में ही कुच्चू वापिस लौटी। अपने बैग में कुछ खदड़ फ़दड़ ढूंढती। फिर एक बड़ा सा लिफाफा निकाल के अरमान को थमा दिया।

“माँ ने बोला था पांडे आंटी को जाके दे आना  … दो दिन से बैग में ही पड़ा है  … मेरी शादी का कार्ड  … २९ नवम्बर  …”

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सिगफ्रीड लेंज़ की कहानी ‘सरकार का समर्थक’

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वरिष्ठ लेखक-अनुवादक जितेंद्र भाटिया की टिप्पणी के साथ उनके द्वारा अनूदित जर्मन लेखक सिगफ्रीड लेंज़ की कहानी पढ़िए-

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आज योरोप के दक्षिण पंथी नेताओं की एक टीम कश्मीर के दौरे पर  है, सरकार के इस ऐलान पर मोहर लगाने के लिए कि वहाँ सब कुछ सामान्य है. मुझे जर्मन कथाकार लेन्ज की एक चालीस वर्ष पुरानी कहानी ‘सरकार का समर्थक’ याद आ रही है जिसका मैंने हिंदी अनुवाद किया था. आप इस कहानी को ज़रूर पढ़ें. शायद आपको लग सकता है कि इसे आज की तारीख में कश्मीर से लौटने के बाद लेन्ज ने लिखा है
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उन लोगों  ने खास निमन्त्रण देकर प्रेस वालों को बुलवाया था कि वे आकर खुद अपनी आंखों से देखें, हुकूमत के प्रति जनता का समर्थन कितना ज़बर्दस्त है। शायद वे हमें यकीन दिलाना चाहते थे कि उस सरकार की ज़्यादतियों के बारे में जो कुछ लिखा जा रहा था, वह सब झूठ था, वहां किसी को भी ‘टॉर्चर’ नहीं किया जा रहा था, घेराबंदी पूरी तरह हट चुकी थी और प्रदेश के किसी भी हिस्से में आतंकी या आज़ादी की लड़ाई जैसा कोई अभियान बाकी नहीं बचा था।

निमन्त्रण के मुताबिक हमें शहर की ऑपेरा बिल्डिंग के सामने इकट्ठा होना था। वहां एक मीठी ज़बान वाले अधिकारी ने हमारी अगवानी की और वह हमें सरकारी बस की ओर ले चला। बस के भीतर हल्का संगीत बज रहा था। बस चली तो उस अधिकारी ने क्लिप पर लगा माइक्रोफोन निकाला और विनम्रता से फिर हम लोगों का स्वागत किया। ‘‘मेरा नाम गारेक है!’’ उसने कुछ संकोच से कहा, ‘‘इस यात्रा पर मैं आपका मार्गदर्शक हूं!’’ कुछ आगे चलकर उसने हाथ के इशारे से वह जगह दिखाई जहां सरकार की एक आदर्श हाउज़िंग कॉलोनी की नींव रक्खी जाने वाली थी। शहर से बाहर निकलकर हमने सूखी नदी पर बने एक पुल को पार किया जहां एक नौजवान सिपाही हाथ में हल्की मशीनगन थामे लापरवाही से खड़ा था। हमें देखकर उसने गर्मजोशी से अपना हाथ हवा में हिलाया। गारेक ने बताया कि इस इलाके में निशानेबाज़ी की ट्रेनिंग दी जाती है।

टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर ऊपर चढ़ते हुए हम एक गर्म और खुश्क मैदान में निकल आए। खिड़की से छनकर आती खड़िया जैसी महीन धूल से हमारी आंखें जलने लगी थी। गर्मी से हमने अपने कोट उतार दिए, लेकिन गारेक ने अपना कोट पहने रक्खा। माइक्रोफोन हाथ में पकड़े वह उन बेजान, बंजर मैदानों में पैदावार बढ़ाने की सरकारी योजनाओं के बारे में बता रहा था। मेरी बगल में बैठे शख्स ने कुछ ऊब में अपना सिर पीछे टिकाकर अपनी आंखें बंद कर ली थी। मैंने उसे कुहनी मारकर उठा देने की सोची क्योंकि गाड़ी के ‘रियर व्यू’ शीशे में से दिखाई देती गारेक की आंखें रह-रहकर हम दोनों पर ठहर जाती थी। तभी गारेक अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और मुसकराहट भरा चेहरा लिए सीटों के पतले गलियारे से होता हुआ सब अतिथियों को पुआल की बनी टोपियां और कोल्ड ड्रिंक की ठंडी बोतलें बांटने लगा।

कुछ आगे हम एक गांव से गुज़रे। यहां सभी खिड़कियाँ लकड़ी की पेटियों से तोड़े गए तख्तों पर कीलें ठोंककर बन्द कर दी गयी थी। टहनियों से बनी मेंड़ें जगह-जगह आंधी से टूट चुकी थी और साबुत-सलामत हिस्सों में जगह-जगह सूराख थे। सपाट छतें वीरान थी और कहीं भी कपड़े नहीं सूख रहे थे। कुंआ पतरे से ढंका हुआ था और ताज्जुब की बात है कि हमारे पीछे कहीं भी न तो कुत्ते ही भौंके और न ही कोई शख्स वहां नज़र आया। बिना रफ़्तार कम किए हमारी बस जन्नाटे के साथ आगे निकल गयी।

गारेक इस बीच फिर से सबको सैंडविच के पैकेट बांटने लगा था। बस के भीतर की गर्मी के ऐवज़ में उसने हमें तसल्ली भी दी कि अब आगे का सफर बहुत लम्बा नहीं है। सड़क आगे नदी के कटाव से बनी घाटी के सिरे पर बसे एक छोटे से गांव के करीब आ पहुँची।

गारेक ने हाथ से इशारा किया कि यहीं हमें उतरना है। अब हम सफेदी पुती एक साफ-सुथरी झोंपड़ी के सामने कच्चे चौक में खड़े थे। उस झोंपड़ी की सफेदी इस कदर चमकदार थी कि बस से उतरते हुए वह हमें अपनी आंखों में वह चुभती हुई सी लगी। एक नज़र झोंपड़ी पर डालकर हम गारेक के लौटने का इंतज़ार करने लगे, जो बस से उतरने के बाद झोंपड़ी के भीतर गायब हो गया था।

गारेक को लौटने में कुछ मिनट लगे। जब वह बाहर आया तो उसके साथ एक और शख्स था, जिसे हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था।

‘‘ये मिस्टर बेला बोंजो हैं!’’ गारेक ने उस आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘ये अपने घर में कुछ काम कर रहे थे, लेकिन फिर भी आप इनसे जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं!’’

हम सब बड़े ध्यान से बोंजो की ओर देखने लगे। हमारी तलाशती हुई निगाहों को झेलते हुए उसका सिर कुछ झुक-सा गया। उसके बूढ़े चेहरे और गर्दन पर गहरी स्याह रेखाएं थी। हमने गौर किया कि उसका ऊपरी होंठ कुछ सूजा हुआ था। उसे घर के किसी काम के बीच अचानक हड़बड़ा दिया गया गया थ और जल्दी-जल्दी अपने बालों में कंघी फिरा चुकने के बाद अब वह हमारे सामने प्रस्तुत था। उसकी गर्दन पर बने उस्तरे के ताज़े निशान बता रहे थे कि उसने जल्दबाज़ी में किसी खुरदुरे ब्लेड से दाढ़ी बनायी है। ताज़ा सूती कमीज़ के नीचे उसने किसी और के नाप वाली बेढंगी पतलून पहन रक्खी थी जो बमुश्किल उसके घुटनों तक आती थी। पैरों में कच्चे बदरंग चमड़े के नये जूते थे, जैसे रंगरूटों को ट्रेनिंग के दौरान मिलते हैं।

हम सबने ‘हैलो!’ कहते हुए बारी-बारी से उससे हाथ मिलाया। वह सिर हिलाता रहा और फिर उसने हमें घर के भीतर आने का न्यौता दिया। भीतर एक बड़े से कमरे में एक बूढ़ी औरत जैसे हमारा इंतज़ार कर रही थी। कमरे की मरियल रोशनी में हमें उसके चेहरे की जगह सिर्फ उसका शाल दिखाई दिया। आगे बढ़कर उसने अपनी मुट्ठियों के आकार का एक अजीब सा फल खाने को दिया जिसका गूदा इस कदर सुर्ख लाल था कि हमें लगा, हम किसी ताज़े ज़ख्म पर अपने दांत गड़ा रहे हैं।

कमरे से निकलकर हम वापस चौक में आए तो बहुत से अधनंगे बच्चे हमारी बस के गिर्द इकट्ठे हो गए थे। वे सब अपनी जगह से हिले-डुले बगैर बहुत गौर से बोंजो की ओर देख रहे थे। एक अजीब संतोश भरी सांस खींचकर बोजो उनकी ओर देखते हुए मुसकराया।

‘‘ तुम्हारे बच्चे हैं?’’ हमारे एक साथी ने रुककर पूछा तो बोंजो ने कहा, ‘‘हां, एक बेटा है। लेकिन उससे मेरा कोई संबंध नहीं। वह सरकार विरोधी था और साथ ही आलसी और निकम्मा भी। पैसों की खातिर उसने बागी क्रांतिकारियों का साथ दिया, जो इन दिनों हर जगह गड़बड़ी फैला रहे हैं। वे समझते हैं कि सरकार के मुकाबले वे बेहतर ढंग से इस देश को चला सकते हैं!’’ उसकी आवाज़ में गहरा आत्मविश्वास और विश्वसनीयता थी। मैंने गौर किया कि उसके सामने के दांत नहीं हैं।

‘‘ लेकिन उनका यह दावा सही भी तो हो सकता है!’’ हममें से एक ने उसके प्रतिवाद में कहा।

इस पर गारेक, जो सब-कुछ सुन रहा था, कुछ विनोद-भाव से मुसकराया। लेकिन बोंजो ने बहुत सधी हुई आवाज़ में कहा, ‘‘सरकार का बोझ, चाहे वह हल्का हो या भारी, आखिरकार जनता को ही उठाना होता है।“

बच्चों ने अर्थपूर्ण ढंग से एक-दूसरे की ओर देखा।

‘‘फकत आज़ादी को लेकर आप क्या चाटिएगा!’’ बोंजो ने मुसकराकर कहा, ‘‘ऐसी आज़ादी किस काम की जिससे पूरा देश गरीबी की चपेट में आ जाए।’’

बच्चों में एक लहर सी दौड़ गयी। बोंज़ो ने अपनी गर्दन झुकायी और दुबारा कुछ अजीब से भाव से मुसकराया। गारेक कुछ फासले पर खड़ा चुपचाप सब सुन रहा था।

गारेक मुड़कर बस की ओर चला गया। बोंजो बहुत सावधानी से उसकी ओर देख रहा था। जैसे ही बस का भारी दरवाज़ा बंद हुआ और हम अकेले रह गए तो मेरे साथी रिपोर्टर ने इसका फायदा उठाकर जल्दी से सवाल किया, ‘‘ अब असली माजरा बताओ! अब हम अकेले हैं!’’

बोंजो ने थूक निगली और कुछ आश्चर्य से बोला, ‘‘माफ कीजिए, मैं समझा नहीं आपका सवाल….’’

‘‘अब हम खुलकर बात कर सकते हैं!’’ रिपोर्टर ने कुछ हड़बड़ाते हुए कहा।

‘‘खुलकर बात कर सकते हैं!’’ बांेजो ने काफी सावधानी के साथ सवाल को दोहराया और फिर उसके चेहरे पर हंसी फैल गयी। उसके सामने के दांतों की खाली जगह अब बखूबी देखी जा सकती थी।

‘‘ मैं आपसे खुलकर ही बता रहा था। मैं और मेरी पत्नी, हम दोनों इस हुकूमत के तरफदार हैं। हमें जो कुछ अब तक मिला है उसमें सरकार का बड़ा हाथ रहा है। मैं ही नहीं, मेरे पड़ोसी और सामने खड़े ये सारे बच्चे और इस गांव का एक-एक आदमी, हम सब इस हुकूमत के वफादार हैं। आप यहां किसी भी घर का दरवाज़ा खटखटा लें, वहां आपके सरकार के समर्थक ही मिलेंगे।’’

इस पर एक दुबला-पतला नौजवान पत्रकार अचानक आगे निकल आया। बोंजो के नज़दीक आकर उसने फुसफुसाहट भरे स्वर में सवाल किया, ‘‘ मुझे जानकारी है कि तुम्हारा बेटा पकड़ लिया गया है और शहर के कैदखाने में उसे यातना दी जा रही है। इस पर तुम्हारा क्या कहना है?’’

बोंजो ने अपनी आंखें बंद कर ली। उसकी पलकों पर अब धूल की मटमैली सफेदी थी। ‘‘जब वह मेरा बेटा ही नहीं है तब उसे ‘टॉर्चर’ कैसे किया जा सकता है? मैं आपसे फिर कहता हूं कि मैं इस हुकूमत का वफादार और उनका दोस्त हूं।’’

उसने एक मुड़ी-तुड़ी हाथ से बनायी बीड़ी सुलगा ली और तेज़ी से उसके कश खींचते हुए बस के दरवाज़े की ओर देखने लगा, जो अब तक खुल चुका था। गारेक बस से उतरकर हमारी ओर आया और हल्केपन से पूछने लगा, सब कैसा चल रहा है। बोंजो के चेहरे से लगा कि गारेक की वापसी से उसकी बेचैनी काफी कम हो गयी है। वह बहुत सहजता से हमारे सभी सवालों का जवाब देता रहा। बीच-बीच में वह अपने दांतों की खाली जगह से बीड़ी का धुंआ छोड़कर निःश्वास लेता।

फावड़ा लिए एक आदमी उधर से गुज़रा तो बोंजो ने हाथ के इशारे से उसे अपने पास बुला लिया। फिर बोंजो ने उससे वे सारे सवाल किए जो हमने उससे पूछे थे। उस आदमी ने कुछ नाराज़गी से अपना सिर हिलाया। जी नहीं, वह जी जान से सरकार का समर्थक था। उसके बयान को बोंजो विजय-भाव से सुनता रहा, गोया कि हुकूमत के साथ अपने सांझे रिश्ते पर वे विश्वसनीयता की मुहर लगा रहे हों।

चलने से पहले हम सब बारी-बारी से बोंजो से हाथ मिलाने लगे। मेरा नम्बर आखिरी था। जब मैंने उसके सख्त, खुरदुरे हाथ को अपनी उंगलियों से दबाया तो अचानक हथेली पर कागज़ की एक गोली का दबाव महसूस हुआ। फुर्ती से उंगलियां मोड़ते हुए मैंने उसे वापस खींचा और जब हम बस की ओर मुड़े तो मैंने चुपचाप उस गोली को जेब में डाल लिया। बीड़ी के सुट्टे लगाता हुआ बोंजा उसी तरह नीचे चौक में खड़ा था। जब बस चलने को हुई तो उसने अपनी पत्नी को भी बाहर बुला लिया और वे दोनों उस फावड़े वाले आदमी और उन बच्चों के साथ खड़े पीछे घूमती बस की ओर अविचलित भाव से देखते रहे।

हम उसी रास्ते से लौटने की जगह उसी रास्ते पर आगे बढ़ते गए। इस पूरी यात्रा के दौरान मेरा हाथ अपने कोट की जेब में घुसा हुआ था और मेरी उंगलियों के बीच थी कागज़ की वह गोली, जो इतनी सख्त थी कि उसे नाखून से दबाना भी मुश्किल था। उसे जेब से बाहर निकालना खतरे से खाली नहीं था क्योंकि गारेक की पैनी आंखें ‘रियर व्यू’ के शीशे से होती हुई बार-बार हम पर आकर ठहर जाती थीं।

कागज़ की उस गोली को अपने हाथ में दबाते हुए मुझे बोंजो का खयाल आया। एक हाथगाड़ी पास से गुज़री तो उसपर बैठे सिपाहियों ने मशीनगनें हवा में हिलाते हुए हमारा स्वागत किया। मौका पाकर मैंने कागज़ की उस गोली को चोर जेब में छिपाकर ऊपर से बटन बंद कर दिया। इसके साथ ही मुझे दुबारा हुकूमत के दोस्त बेंजो का चेहरा याद हो आया। मैंने अपनी आंखों के सामने उसके कच्चे चमड़े के जूतों, उसके चेहरे की मुसकराहट और बोलते समय नज़र आती उसके दांतों के बीच की खाली जगह को देखा। हममें से किसी को भी शक नहीं था कि बोंजो के रूप में सरकार को एक सच्चा समर्थक मिल गया था।

समुद्र किनारे से होते हुए हम वापस शहर लौट आए। ऑपेरा हाउस पर बस से उतरे तो गारेक ने शिष्टता पूर्वक हम सबसे विदा ली। मैं होटल तक अकेला लौटा और कमरे का दरवाज़ा बंद करने के बाद मैंने बाथरूम मे सरकार के उस समर्थक द्वारा खुफिया तौर पर थमायी गयी कागज़ की उस गोली को सावधानी से खोला। लेकिन पूरा कागज़ खाली था, न उस पर कोई शब्द लिखा था और न ही वहां कोई निशान बना था। और तब मैंने देखा कि उसी कागज़ में लिपटा हुआ था कत्थई रंग का एक टूटा हुआ दांत, जिसपर बने तम्बाकू के दाग को देखते हुए अन्दाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि यह दांत किसका हो सकता है!

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पुरूषों में भी स्त्रीत्व जगाने वाला लोकपर्व छठ

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छठ गीतों के माध्यम से प्रसिद्ध लोक गायिका चंदन तिवारी ने इस लेख में छठ की परम्परा को समझने का प्रयास किया है। छठ पर्व पर एक अलग तरह का लेख-मॉडरेटर
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इधर छठ गीतों में अलग किस्म से मन लगा. गाती तो रही ही, उससे अधिक छठ के पारंपरिक और मूल गीतों को कलेक्ट करने, उसके मर्म को समझने में लगी रही. बिहार के सभी भाषा—भाषी क्षेत्रों के गांव—गिरांव से गीतों को जुटाकर उनसे गुजरने की कोशिश की. शब्दों को, भावों को समझने की कोशिश की. ऐसा करते समय यही दिमाग में रहा कि आखिर जिस पर्व में गीत महज गीत न होकर, मंत्र की तरह होते हैं, उन गीतों की बनावट—बुनावट कैसी रही है. प्रकृति,सृष्टि और स्त्रियों के इस लौकिक पर्व में लोक कितना है, प्रकृति या सृष्टि कितनी है और स्त्रियां कितनी? रूनुकी—झुनुकी के बेटी मांगिला, पढ़ल पंडितवा दामाद जैसे गीत गा चुकी हूं, सुन चुकी हूं… तो छठ पर्व के जरिये संतान के रूप में बेटा के साथ ही बेटी पाने की कामना तो पीढ़ियों से रही है, पढ़े लिखे दामाद आदि की लोक कल्पना भी लेकिन और क्या—क्या, किस—किस रूप में? और फिर सबसे ज्यादा यह समझने की कोशिश की, कि आखिर क्या वजह है कि पीढ़ियां बदलती जा रही हैं, बदलती पीढ़ियों के साथ छठ और लोकप्रिय होते जा रहा है, छठ में गीतों का महत्व या मंत्र रूप में शाश्वत, मजबूत रूप में मूल तत्व के रूप में उपस्थिति भी बरकरार है लेकिन गीतों के टोन,ट्युन और तत्व में बदलाव को लोग लंबे समय तक आत्मसात नहीं कर पा रहे?
ऐसा इसलिए कह रही कि आप पिछले पांच—छह दशक से छठ गीतों की दुनिया पर गौर कीजिए. विंध्यवासिनी देवी के समय से यह रिकार्ड होकर सार्वजनिक रूप से सामने आना शुरू हुआ, शारदा सिन्हा ने उसे परवान चढ़ाया. छठ गीतों का एक रूप—स्वरूप बना, जिसे लोग फॉलो करने लगे. जानकारी के अनुसार इनके पहले तक छठ गीत अपने—अपने इलाके में, अपनी—अपनी भाषा में, अपने—अपने तरीके से गाये जाते थे. बिहार के अलग—अलग इलाके के ऐसे ही गीतों को लेकर पहले विंध्यवासिनी देवी और फिर शारदा सिन्हा ने एक मुकम्मल और व्यवस्थित रूप देकर आगे बढ़ाया और फिर वही छठ गीतों का ट्रेंड हो गया, वही पहचान हो गयी. पहचान ऐसी—वैसी नहीं बल्कि असर यह कि आप बिना छठ भी इन गीतों को बजा दें, सुना दें तो मन में छठ का भाव आ जाये. कुल मिलाकर कोई दर्जन भर धुन मशहूर हुए इन गायिकाओं की आवाज में. इन धुनों में कुछ बदलाव भूपेन हजारिका साहब ने भी विंध्यवासिनी देवी के साथ मिलकर किये लेकिन वह धुनों में प्रयोग न होकर, गायन में प्रयोग रहा. कोरस गान में प्रयोग रहा. धुन की आत्मा वही रही. इसलिए भूपेन हजारिका साहब और विंध्यवासिनी देवी के गीत अपने समय में खूब लोकप्रिय भी हुए. लेकिन तब से अब तक मिलाजुलाकर यही दर्जन धुन छठ की पहचान हैं. इन धुनों से हटकर अनेकानेक प्रयोग की कोशिश हुई, और प्रयोग की कोशिशें और बढ़ गई हैं लेकिन इस सेट पैटर्न या धुन से अलग कोई भी गीत लंबे समय तक छठ में चल नहीं पाता. मीडिया के अधिकाधिक टूल—किट हैं तो जिस साल ऐसे प्रायोगिक गीत आते हैं, लोगों के बीच जाते हैं लेकिन वैसे प्रयोगी गीतों की उम्र बस उसी साल तक की होती है. वह सदा—सदा के लिए छठ के गीत नहीं बन पाते, साल—दर साल आम जनमानस उसे नहीं दुहराता, जैसे पीढ़ियों से कांच ही बांस के बहंगिया जैसे गीत को दुहरा रहा है. बिना किसी बदलाव के, उसी उत्साह, उसी उमंग, उसी भाव के साथ.
तो क्यों आखिर ऐसा? छठ के गीतों में बदलाव मंजूर क्यों नहीं? आखिर दूसरे कितने पर्व तो हैं लोक के, जिनके गीतों में अंधाधुंध प्रयोग होते हैं और सफल भी होते हैं लेकिन छठ गीतो में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा, इतनी कोशिशों के बावजूद. दरअसल, छठ के पर्व में उसकी लौकिकता ही उसका मूल है. उसमें शास्त्र की कोई गुंजाइश नहीं. शास्त्रीय परंपरा बाजार के करीब ले जाकर या बाजार के हवाले कर किसी पर्व में बदलाव और अपने अनुसार ढलाव के लिए रास्ते खोल देता है. छठ में शास्त्र का शून्य रहना उसे अपनी शर्तों पर बनाये रखता है. चूंकि पर्व ही लौकिक है, अपनी शर्तोंवाला है तो फिर उसकी मूल और प्रमुख पहचान गीतों में यह गुंजाइश भी नहीं बनती. इसलिए तमाम प्रयोगों के बावजूद छठगीतों की असल अनुभूति बिना साज—बाज के उन महिलाओं द्वारा गाये जानेवाले गीतों में जिस तरह से होती है, वह बिरला है. बिना संगीत के ही जो गायन होता है उसमें समाहित भाव, इनोसेंसी छठ गीतों में तमाम तरह के संगीत के प्रयोग में भी नहीं आ पाता. बहुत सहज तरीके से कहें तो छठ गीत प्रधान पर्व है, संगीत प्रधान नहीं.
बहरहाल, बात फिर वहीं. इन गीतों से गुजरते हुए जब मर्म समझ रही थी और आदित्य, छठी माई, सबिता माई, नदी आदि समझ रही थी तो इस रिश्ते को समझते हुए विवाह में कन्यादान परंपरा की एक गीत की याद आई. गंगा बहे लागल, जमुना बहे लागल, सुरसरी बहे निर्मल धार ए. ताहि पइसी बाबा हो आदित मनावेले, कईसे करब कन्यादान ए…इस कन्यादान गीत में आदित्य भगवान से लोक समाज का गहरा रिश्ता झलकता है. इस कन्यादान गीत में भी बेटी के दान के पहले पिता आदित को ही मना रहे हैं कि इतनी ताकत दे भगवान कि वे अपनी बेटी का दान कर सकें.
इन सभी बातों के साथ कुछ और खास बातें हैं. छठ में स्त्रियां प्रकारांतर से चार दिनों तक व्रत रखती हैं. इतना कठिन व्रत कर वह अपनी भाषा में गीत गाकर, सीधे अपने अराध्य सूर्य देवता या छठी माई से परस्पर संवाद कर या सवाल—जवाब कर मांगती क्या हैं? जवाब में यही तथ्य सामने आया कि इतना कठिन व्रत्त करने के बाद भी व्रती स्त्रियां जो मांगती हैं उसमें अपने पति के लिए कंचन काया, संतान का सुख ही प्रमुख होता है. धन—संपदा—ऐश्वर्य की मांग के पारंपरिक गीत न के बराबर हैं.छठ पर्व में दूर—दूर तक शास्त्रीयता परंपरा या कर्मकांड की कोई छाया नहीं है तो इस पर्व के गीतों में मोक्ष की कामना भी किसी गीत का हिस्सा नहींं है.
अंत में एक और बात. यह तो साफ है कि छठ का पर्व और छठ के गीत, दोनों बताते हैं कि यह  त्योहार स्त्रियों का ही रहा है. स्त्रियां ही बहुतायत में इस त्योहार को करती हैं. इधर हालिया दशकों में पुरूष व्रतियों की संख्या भी बढ़ रही है. पुरूष भी उसी तरह से नियम का पालन करते हैं, उपवास रखते हैं, पूरा पर्व करते हैं. इस तरह देखें तो पर्व—त्योहारों की दुनिया में यह एक खूबसूरत पक्ष है. छठ संभवत: इकलौता पर्व ही सामने आएगा, जो स्त्रियों का पर्व होते हुए भी पुरूषों को निबाहने या करने के लिए आकर्षित कर रहा है और इतना कठिन पर्व होने के बावजूद पुरूष आकर्षित हो रहे हैं. स्त्रियों की परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं. व्रत्त के दौरान ही सही, स्त्री जैसा होने का धर्म खुद से चयनित कर रहे हैं. अपने पति, अपनी संतानों के लिए स्त्रियां छठ के अलावा और भी दूसरे व्रत करती हैं. संतानों के लिए जिउतिया और पतियों के लिए तीज, लेकिन पुरूष अब तक इन दोनों व्रतों का कभी हिस्सा नहीं बना. कभी खुद व्रति नहीं बना. कभी यह दोतरफा नहीं चला कि अगर स्त्री इतना कुछ कर रही है, इतनी कठोरता से व्रत्त संतान के लिए या पति के लिए कर रही है तो पुरूष भी करें. इस नजरिये से छठ एक बिरला पर्व है, जो तेजी से पुरूषों को स्त्रित्व के गुणों से भर रहा है. छठ के बहाने ही सही, पुरूषों को भी स्त्री की तरह इच्छा—आकांक्षा, कठोर तप, अनुशासन, निष्ठा, संयम धारण करने की प्रेरणा दे रहा है. छठ ही वह त्योहार है, जो पारंपरिक लोक पर्व होते हुए भी लोक की जड़वत परंपरा को आहिस्ते—आहिस्ते ही सही लेकिन मजबूती से बदल रहा है. एक नयी बुनियाद को तैयार कर रहा है.

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ममता कालिया की कहानी ‘अपत्‍नी’

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वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया का आज जन्मदिन है। 79 साल की उमर में भी उनकी सक्रियता हमारे लिए प्रेरक है। उनकी एक कहानी पढ़िए और उनको जन्मदिन की बधाई दीजिए- जानकी पुल

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हम लोग अपने जूते समुद्र तट पर ही मैले कर चुके थे। जहाँ ऊंची – ऊंची सूखी रेत थी, उसमें चले थे और अब हरीश के जूतों की पॉलिश व मेरे पंजों पर लगी क्यूटेक्स धुंधली हो गयी थी। मेरी साड़ी क़ी परतें भी इधर-उधर हो गयीं थीं। मैंने हरीश से कहा, उन लोगों के घर फिर कभी चलेंगे।

हम कह चुके थे लेकिन!

मैं ने आज भी वही साड़ी पहनी हुई है। मैं ने बहाना बनाया। वैसे बात सच थी। ऐसा सिर्फ लापरवाही से हुआ था। और भी कई साड़ियां कलफ लगी रखीं थीं पर मैं, पता नहीं कैसे यही साड़ी पहन आई थी।

तुम्हारे कहने से पहले मैं यह समझ गया था। हरि ने कहा। उसे हर बात का पहले से ही भान हो जाता था, इससे बात आगे बढाने का कोई मौका नहीं रहता। फिर हम लोग चुप चुप चलते रहते, इधर उधर के लोगों व समुद्र को देखते हुए। जब हम घर में होते, बहुत बातें करते और बेफिक्री से लेटे लेटे ट्रांजिस्टर सुनते। पर पता नहीं क्यों बाहर आते ही हम नर्वस हो जाते। हरि बार बार अपनी जेब में झांक कर देख लेता कि पैसे अपनी जगह पर हैं कि नहीं, और मैं बार बार याद करती रहती कि मैं ने आलमारी में ठीक से ताला लगाया कि नहीं।

हवा हमसे विपरीत बह रही थी। हरीश ने कहा, तुम्हारी चप्पलें कितनी गन्दी लग रही हैं। तुम इन्हें धोती क्यों नहीं?

कोई बात नहीं, मैं इन्हें साड़ी में छिपा लूंगी। मैं ने कहा ।

हम उन लोगों के घर के सामने आ गये थे। हमने सिर उठा कर देखा, उनके घर में रोशनी थी।

उन्हें हमारा आना याद है।

उन्हें दरवाजा खोलने में पांच मिनट लगे। हमेशा की तरह दरवाजा प्रबोध ने खोला। लीला लेटी हुई थी। उसने उठने की कोई कोशिश न करते हुए कहा, मुझे हवा तीखी लग रही थी। उसने मुझे भी साथ लेटने के लिये आमंत्रित किया। मैं ने कहा, मेरा मन नहीं है। उसने बिस्तर से मेरी ओर फिल्मफेयर फेंका। मैंने लोक लिया।

हरि आंखें घुमा घुमा कर अपने पुराने कमरे को देख रहा था। वहा यहां बहुत दिनों बाद आया था। मैं ने आने ही नहीं दिया था। जब भी उसने यहां आना चाहा था, मैं ने बियर मंगवा दी थी और बियर की शर्त पर मैं उसे किसी भी बात से रोक सकती थी। मुझे लगता था कि हरि इन लोगों से ज्यादा मिला तो बिगड ज़ायेगा। शादी से पहले वह यहीं रहता था। प्रबोध ने शादी के बाद हमसे कहा था कि हम सब साथ रह सकते हैं। एक पलंग पर वे और एक पर हम सो जाया करेंगे, पर मैं घबरा गई थी। एक ही कमरे में ऐसे रहना मुझे मंजूर नहीं था, चाहे उससे हमारे खर्च में काफी फर्क पडता। मैं तो दूसरों की उपस्थिति में पांव भी ऊपर समेट कर नहीं बैठ सकती थी। मैं ने हरि से कहा था, मैं जल्दी नौकरी ढूँढ लूंगी, वह अलग मकान की तलाश करे।

प्रबोध ने बताया, उसने बाथरूम में गीज़र लगवाया है। हरीश ने मेरी तरफ उत्साह से देखा, चलो देखें।

हम लोग प्रबोध के पीछे पीछे बाथरूम में चले गये। उसने खोलकर बताया। फिर उसने वह पैग दिखाया जहां तौलिया सिर्फ खोंस देने से ही लटक जाता था। हरि बच्चों की तरह खुश हो गया।

जब हम लौट कर आये लीला उठ चुकी थी और ब्लाउज क़े बटन लगा रही थी। जल्दी जल्दी में हुक अन्दर नहीं जा रहे थे। मैं ने अपने पीछे आते हरि और प्रबोध को रोक दिया। बटन लगा कर लीला ने कहा, आने दो, साड़ी तो मैं उनके सामने भी पहन सकती हूँ।

वे अन्दर आ गये।

प्रबोध बता रहा था, उसने नए दो सूट सिलवाये हैं और मखमल का क्विल्ट खरीदा है, जो लीला ने अभी निकालने नहीं दिया है। लीला को शीशे के सामने इतने इत्मीनान से साड़ी बांधते देख कर मुझे बुरा लग रहा था।

और हरि था कि प्रबोध की नई माचिस की डिबिया भी देखना चाहता था। वह देखता और खुश हो जाता जैसे प्रबोध ने यह सब उसे भेंट में दे दिया हो।

लीला हमारे सामने कुरसी पर बैठ गई। वह हमेशा पैर चौड़े क़रके बैठती थी, हालांकि उसके एक भी बच्चा नहीं हुआ था। उसके चेहरे की बेफिक्री मुझे नापसंद थी। उसे बेफिक्र होने का कोई हक नहीं था। अभी तो पहली पत्नी से प्रबोध को तलाक भी नहीं मिला था। और फिर प्रबोध को दूसरी शादी की कोई जल्दी भी नहीं थी। मेरी समझ में लड़की को चिन्तित होने के लिये यह पर्याप्त कारण था।

उसे घर में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने कभी अपने यहाँ आने वालों से यह नहीं पूछा कि वे लोग क्या पीना चाहेंगे। वह तो बस सोफे पर पांव चौड़े कर बैठ जाती थी।

हर बार प्रबोध ही रसोई में जाकर नौकर को हिदायत देता था। इसलिये बहुत बार जब हम चाय की आशा करते होते थे, हमारे आगे अचानक लेमन स्क्वैश आ जाता था। नौकर स्क्वैश अच्छा बनाने की गर्ज से कम पानी ज्यादा सिरप डाल लाता था। मैं इसलिये स्क्वैश खत्म करते ही मुंह में जिन्तान की एक गोली डाल लेती थी।

प्रबोध ने मुझसे पूछा, कहीं एप्लाय कर रखा है?

नहीं- मैंने कहा ।

ऐसे तुम्हें कभी नौकरी नहीं मिलनी। तुम भवन वालों का डिप्लोमा ले लो और लीला की तरह काम शुरु करो।

मैं चुप रही। आगे पढने का मेरा कोई इरादा नहीं था। बल्कि मैं ने तो बी ए भी रो रोकर किया है। नौकरी करना मुझे पसन्द नहीं था। वह तो मैं हरि को खुश करने के लिये कह देती थी कि उसके दफ्तर जाते ही मैं रोज

आवश्यकता है कॉलम ध्यान से पढ़ती हूँ और नौकरी करना मुझे थ्रिलिंग लगेगा।

फिर जो काम लीला करती थी उसके बारे में मुझे शुबहा था। उसने कभी अपने मुंह से नहीं बताया कि वह क्या करती थी। हरि के अनुसार, ज्यादा बोलना उसकी आदत नहीं थी। पर मैं ने आज तक किसी वर्किंग गर्ल को इतना चुप नहीं देखा था।

प्रबोध ने मुझे कुरेद दिया था। मैं भी कुरेदने की गर्ज से कहा, सूट क्या शादी के लिये सिलवाये हैं?

प्रबोध बिना झेंपे बोला – शादी में जरीदार अचकन पहनूंगा और सन एण्ड सैण्ड में दावत दूंगा। जिसमें सभी फिल्मी हस्तियां और शहर के व्यवसायी आयेंगे। लीला उस दिन इम्पोर्टेड विग लगायेगी और रूबीज़ पहनेगी।

लीला विग लगा कर, चौडी टांगे करके बैठेगी – यह सोच कर मुझे हंसी आ गई। मैं ने कहा, शादी तुम लोग क्या रिटायरमेन्ट के बाद करोगे क्या?

लीला अब तक सुस्त हो चुकी थी। मुझे खुशी हुई। जब हम लोग आये थे उसे डनलप के बिस्तर में दुबके देख मुझेर् ईष्या हुई थी। इतनी साधारण लडक़ी को प्रबोध ने बांध रखा था, यह देख कर आश्चर्य होता था। उसकी साधारणता की बात मैं अकसर हरि से करती थी। हरि कहता था कि लीला प्रबोध से भी अच्छा आदमी डिजर्व करती थी। फिर हमारी लडाई हो जाया करती थी। मुझे प्रबोध से कुछ लेना देना नहीं था। शायद अपने नितान्त अकेले और ऊबे क्षणों में भी मैं प्रबोध को ढलि न देती पर फिर भी मुझे चिढ होती थी कि उसकी पसन्द इतनी सामान्य है।

प्रबोध ने मेरी ओर ध्यान से देखा, तुम लोग सावधान रहते हो न अब?

मुझे सवाल अखरा। एक बार प्रबोध के डाक्टर से मदद लेने से ही उसे यह हक महसूस हो, मैं यह नहीं चाहती थी। और हरीश था कि उसकी बात का विरोध करता ही नहीं था।

प्रबोध ने कहा, आजकल उस डॉक्टर ने रेट बढा दिये हैं। पिछले हफ्ते हमें डेढ हजार देना पड़ा।

लीला ने सकुचाकर, एक मिनट के लिये घुटने आपस में जोड़ लिये।

कैसी अजीब बात है, महीनों सावधान रहो और एक दिन के आलस से डेढ़ हज़ार रूपये निकल जायें। प्रबोध बोला।

हरि मुस्कुरा दिया, उसने लीला से कहा, आप लेटिये, आपको कमजोरी महसूस हो रही होगी।

नहीं। लीला ने सिर हिलाया।

मेरा मूड खराब हो गया। एक तो प्रबोध का ऐसी बात शुरु करना ही बदतमीजी थी, ऊपर से इस सन्दर्भ में हरि का लीला से सहानुभूति दिखाना तो बिलकुल नागवार था। हमारी बात और थी। हमारी शादी हो चुकी थी। बल्कि जब हमें जरूरत पड़ी थी तो मुझे सबसे पहले लीला का ध्यान आया था। मैं ने हरि से कहा था, चलो लीला से पूछें, उसे ऐसे ठिकाने का जरूर पता होगा।

लीला मेरी तरफ देख रही थी, मैं ने भी उसकी ओर देखते हुए कहा, तुम तो कहती थी, तुमने मंगलसूत्र बनाने का आर्डर दिया है।

हाँ, वह कबका आ गया। दिखाऊं? लीला आलमारी की तरफ बढ ग़ई।

प्रबोध ने कहा, हमने एक नया और आसान तरीका ढूंढा है, लीला जरा इन्हें वह पैकेट दिखाना…।

मुझे अब गुस्सा आ रहा था। प्रबोध कितना अक्खड़ है – यह मुझे पता था। इसीलिये हरि को मैं इन लोगों से बचा कर रखना चाहती थी।

हरि जिज्ञासावश उसी ओर देख रहा है जहाँ लीला आलमारी में पैकेट ढूंढ रही है।

मैं ने कहा, रहने दो मैं ने देखा है।

प्रबोध ने कहा, बस ध्यान देने की बात यह है कि एक भी दिन भूलना नहीं है। नहीं तो सारा कोर्स डिस्टर्ब। मैं तो शाम को जब नौकर चाय लेकर आता है तभी एक गोली ट्रे में रख देता हूँ।

लीला आलमारी से मंगलसूत्र लेकर वापस आ गई थी, बोली – कभी किसी दोस्त के घर इनके साथ जाती हूँ तब पहन लेती हूँ।

मैं ने कहा, रोज तो तुम पहन भी नहीं सकती ना कोई मुश्किल खडी हो सकती है। कुछ ठहर कर मैं ने सहानुभूति से पूछा, अब तो वह प्रबोध को नहीं मिलती ?

लीला ने कहा, नहीं मिलती।

उसने मंगलसूत्र मेज पर रख दिया।

प्रबोध की पहली पत्नी इसी समुद्र से लगी सड़क के दूसरे मोड़ पर अपने चाचा के यहाँ रहती थी। हरि ने मुझे बताया था, शुरु-शुरु में जब वह प्रबोध के साथ समुद्र पर घूमने जाता था, उसकी पहली पत्नी अपने चाचा के घर की बालकनी में खड़ी रहती थी और प्रबोध को देखते ही होंठ दांतों में दबा लेती थी। फिर बालकनी में ही दीवार से लगकर बाँहों में सिर छिपा कर रोने लगती थी। जल्दी ही उन लोगों ने उस तरफ जाना छोड़ दिया था।

प्रबोध ने बात का आखिरी टुकड़ा शायद सुना हो क्योंकि उसने हमारी तरफ देखते हुए कहा, गोली मारो मनहूसों को! इस समय हम दुनिया के सबसे दिलचस्प विषय पर बात कर रहे हैं। क्यों हरि, तुम्हें यह तरीका पसन्द आया?

हरि ने कहा, पर यह तो बहुत भुलक्कड़ है। इसे तो रात को दांत साफ करना तक याद नहीं रहता।

मैं कुछ आश्वस्त हुई। हरि ने बातों को ओवन से निकाल दिया था। मैं ने खुश होकर कहा, पता नहीं मेरी याददाश्त को शादी के बाद क्या हो गया है? अगर ये न हों तो मुझे तो चप्पल पहनना भी भूल जाये।

हरि ने अचकचा कर मेरे पैरों की तरफ देखा। वादे के बावजूद मैं पांव छिपाना भूल गई थी।

उठते हुए मैं ने प्रबोध से कहा, हम लोग बरट्रोली जा रहे हैं, आज स्पेशल सेशन है, तुम चलोगे?

प्रबोध ने लीला की तरफ देखा और कहा, नहीं अभी इसे नाचने में तकलीफ होगी।

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गिरधर राठी की कुछ कविताएँ

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वरिष्ठ लेख़क संपादक गिरधर राठी की संपूर्ण कविताओं का प्रकाशन हुआ है। यह प्रकाशन रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत संभावना प्रकाशन हापुड़ से हुआ है। ‘नाम नहीं’ संग्रह से कुछ कविताएँ पढ़िए-मॉडरेटर

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बुद्धिजीवी
 
काले दाग़ पर उभरता आता
काला दाग़
जिसे धोया जा सकता है
 
ग़मज़दा औरतों के बीच
बैठी हुई उठंग
गमगीन औरत अभ्यस्त
 
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बाइबिल
 
हम जानते हैं
वे क्या कर रहे हैं
और उन्हें कभी माफ़ नहीं किया जाएगा।
हम क्या जानते हैं
हम जो नहीं कर रहे हैं
और हमें कभी माफ़ नहीं किया जाएगा।
 
वे जानते हैं
क्या कर रहे हैं
हम जानते हैं
जानने की कोई सज़ा नहीं।
 
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फ़िलहाल
 
समय नदी नहीं है
जो बह जाती है
उतनी भी नहीं
जो रह जाती है
 
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लोरी
 
कहना चाहता था(कविता में)
‘मैं अब सो जाना चाहता हूँ’
मगर देखा
सोया पड़ा है ज़माने से
लोर्का
कहा नहीं तब
सो ही गया
 
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रिल्के से
 
अकेला करने के बाद
दूर तक साथ चला आता है
फिर अकेला नहीं छोड़ता
 
प्यार
 
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उसके रोने पर
 
वे आँखें कभी रोती नहीं
मगर रो पड़ीं अथाह सागर में जैसे
मछलियाँ मर जाती हैं

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