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गुजराती लेखिका कुंदनिका कपाड़िया की कहानी ‘जाने देंगे तुम्हें’

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गुजराती की वरिष्ठ लेखिका कुंदनिका कपाड़िया की कहानी का अनुवाद किया है प्रतिमा दवे ने- मॉडरेटर

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 खिड़की से उन्होंने आकाश की तरफ नज़र फेरी। पलंग उन्होंने इस तरह रखवाया था कि जिससे आँगन में लगे नीम के पेड़ को अच्छी तरह से देखा जा सके। कई बार नीम की डालियाँ हवा में खूब ज़ोर से हिल उठतीं, तो ऐसा लगता जैसे खिड़की पर दस्तक दे रही हों। डालियों के बीच की फाँकों से भूरा, सफ़ेद आकाश और उसमें सरकते दूधिया बादलों के टुकड़े दिखते। डालियों पर कभी-कभी एक सफ़ेद पक्षी आ बैठता। लंबी पूंछ वाला, शायद दूधराज होगा। आमतौर  पर वह घनी झाड़ियों में रहता है। सामान्यतः दिखता नहीं। पर, यहाँ तो वह ऐसे आ बैठता, जैसे खुद को दिखाने आया हो।

      घर में खूब चहल पहल है। आज दोपहर की फ्लाइट से दीपांकर और मारिया  आने वाले  दीपांकर उनका सबसे छोटा बेटा। सात वर्ष पहले अमरीका गया था। वहीं अमरीकी लड़की से विवाह कर लिया। बार-बार आने का लिखता था, पर आया नहीं। अब माँ बीमार है, मरणोन्मुख है, तो पत्नी को लेकर आ रहा है। अमरीकी लड़की, क्या पता कैसी हो!

      वे मन ही मन थोड़ा हंसीं। टैगोर का गीत, मेघानी ने अनुवाद किया था-‘वह कैसी है  कैसी नहीं, माँ मुझे ज़रा भी याद नहीं’। अपने समय में उन्होंने टैगोर को खूब पढ़ा था। टैगोर, यीट्स और इब्सन। अपने हमउम्र मित्रों के साथ रविवार को दूर नहीं, पास ही किसी जंगल में जाते, खाते- पीते, वृक्षों के नीचे आड़े पड़ते, गीत गाते और ऊंची आवाज़ में काव्य वाचन करते- ‘जेते आमी दियो न तोमाय’, विलियम ब्लेक का- ‘टू सी द वर्ल्ड इन अ ग्रेन ऑफ सैंड’। यीट्स का पहले का काव्य तो उन्हें कंठस्थ ही था -‘आई विल अराईज़ अँड गो नाऊ— जहां दिन रात सरोवर का जल थपकी देता है, वहाँ जाऊंगा’। जॉन मेंसफील्ड की कविता- ‘मुझे एक राह दो, सिर पर हो आकाश, ठंड हो तो राह में अलाव तापूँ, फिर प्रभात, फिर-फिर प्रवास’।

      उन्होंने सौंदर्यपूर्ण जीवन जिया था। जीवन उन्हें हमेशा जीने योग्य लगा। अब इस पीढ़ी- बड़ा बेटा और उसकी पत्नी माया, मंझला बेटा और उसकी पत्नी छाया ने क्या कभी टैगोर, कालिदास या शेक्सपियर को पढ़ा होगा? नीत्शे और बर्गसन के तो शायद नाम भी न सुने होंगे। अपने कमरे की अल्मारी में उन्होंने अपनी पसंद की किताबें रखी थीं- क्रिएटिव इवोल्यूशन, फ़ोर्थ वे, एकोत्तरशती, रवीन्द्रनाथ, जॉन डन और ब्लेक के संग्रह जमा किए थे। जाने कितनी किताबें थीं। पर, इन बहुओं ने कभी अल्मारी को हाथ भी नहीं लगाया। पूछा भी नहीं कि ये कौन सी किताबें हैं। वे तो एलिस्टर मैकलीन्स, जेम्स हेडली चेज़, इयान फ्लेमिंग, गुलशन नन्दा की पुस्तकें ही पढ़तीं। बार- बार कहतीं, बहुत बोर हो गए। बोर शब्द उनकी बातों से झरता ही रहता। उन्होंने अपने जीवन में बोरियत का कभी एहसास भी नहीं किया। वे और उनके पति पूर्णमासी पर कई बार लोनावला चले जाते। वहाँ एकांत में सौंदर्य प्रेमी यात्रियों के लिए ‘स्वप्न’ नाम का एक गेस्ट हाउस था। नीची छत का छोटा सा मकान। ऊपर एक  छोटी सी कोठरी थी, जिसमें चारों तरफ, ऊपर से नीचे तक काँच की खिड़कियाँ थीं। पूर्व दिशा में एक लंबी पर्वतमाला थी। उसके पीछे से चंद्रमा ज़रा देर से ऊपर आता। वे वहाँ शांत, स्थिर, एकाग्र होकर बैठ जाते। सूक्ष्म से सूक्ष्म स्पंदन ग्रहण करते और राह तकते चिरपरिचित, चिर- आह्लादकारी प्रकाश दर्शन की। धीरे -धीरे पहाड़ियों के पीछे से एक रतनार आभा दिखाई देती, फिर एक चमकीली सफ़ेद लकीर। उनके और उनके पति के हाथ अचानक मिल जाते। आनंद की अनुभूतियों में साथी होने का विश्वास जाग जाता। फिर चाँद झट से ऊपर आ जाता। उस समय जैसे पृथ्वी की गति थम जाती। मुमकिन होता तो दो तीन दिन वहीं रुक जाते। पूनम के चाँद के बजाय एकम -दूज के चाँद को उगते देखना अधिक रोमांचक होता। इस छोटे से पहाड़ी स्थान में 9 बजे से ही नीरवता छा जाती। सब कुछ शांत हो कोने में दुबक सा जाता। आकाश सांस रोककर देखता। हवा में कहीं धुआँ, घरों की बत्तियों की तीखी किरणें, चारों तरफ सन्नाटा और कोमल-मुलायम अंधकार भरी नीरवता । फिर ज़रा देर में चाँद उगता, विस्मय से पहाड़ियों को देखता, सोई हुई पृथ्वी को निहारता और फिर तो जैसे प्रकाश की झड़ी ही लग जाती। उन्हें इसका सघन स्पर्श महसूस होता और तन-मन भीग जाता।

       सौंदर्य की ऐसी सेंकड़ों अनुभूतियों से उनका जीवन भरा पड़ा था। किसी साँझ की बेला  में नीम के नीचे रिल्के की कविता पढ़तीं –वी द वेस्टेर्स ऑफ सोरोज़–। दुख से  छुटकारे की राह देखने में ही हम शोक को व्यर्थ कर देते हैं। उनके पति चुपचाप सुनते। जीवन के इस आवागमन के पीछे छिपे मर्म की अलप-झलप झांकी दिखती। दुख को समझदारी के साथ स्वीकारने  व वेदनाओं में छिपे मर्म को समझने की कोशिश करते।

      ये लोग जीवन को किस तरह देखते हैं, कई बार उनके मन में यह सवाल भी उठता। परंतु, माया व छाया के पास इत्मीनान से बैठने की, बात करने की कभी फुर्सत ही नहीं रहती थी। वे तो सारा दिन किसी न किसी चीज़ में व्यस्त रहतीं। कभी कुकिंग क्लास में जातीं और फ्रेंच पुडिंग, इटालियन पिज्जा बनाना सीखतीं। इंटीरियर डेकोरेशन की कक्षा में जातीं, ईकेबाना की मीटिंग करतीं, कैंडल लाइट डिनर लेतीं,  बालों की नई नई स्टाइल सीखतीं और बनातीं। कपड़ों के नए नए मैचिंग करतीं और सुंदर भी दिखतीं। पर, बाहर से जब वे घर आतीं तो हमेशा कहतीं- बोर हो गए, थक गए, वो प्रेमनाथ कितना बोर था। बोरियत की क्यारी में ही उनका दिन उगता और साँझ ढलती।

      स्थापित व्यवस्था एवं परम्पराओं  के विद्रोह की बातें भी करतीं। कई बार कुछ हिप्पी भी उनके मेहमान बनकर घर में आए। इस सबके बावजूद भी उनके जीवन में बड़ा खालीपन था। जीवन का आनंद तत्व उनकी मुट्ठी से फिसल चुका था। वे जी रही थीं, पर उन्हें लगता था – इस सबका अर्थ क्या है?

      और अब एक नई लड़की घर में आ रही है। मात्र 23-24 वर्ष की। दीपांकर ने विवाह के समय के फोटो भेजे थे। पर, फोटो से, और वे भी विवाह के फोटो से व्यक्ति का परिचय कहाँ मिलता है? उन्हें कौतुहल हो रहा था – दीपांकर  की पसंद की लड़की जाने कैसी होगी?

      वह मेरा आदर करेगी या नहीं? मुझे चाहेगी या नहीं? वैसे यह सब इतना महत्वपूर्ण नहीं था। अब उन्हें और कितने दिन जीना था? पर, एक चाव था, अंजान दूर देश की कन्या बहू बनकर आ रही है, उसे जानने की इच्छा थी। यूं तो माया और छाया भी उसके बारे में उत्कंठित थीं- भय और आशंका से भरी। एक दिन दोनों को खुसर-पुसर करते सुना भी था। एडजस्टमेंट करना पड़ेगा, ऐसा ही कुछ कह रहीं थीं। यह तो अच्छा है कि घर खूब बड़ा है। सभी इसमें समा सकते हैं। बेटियाँ भी अपने पति और बच्चों के साथ आई हुई हैं। माँ के अंतिम समय में उनसे मिल लें। परंतु, उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती॰ “भाभी टीनू  के लिए दूध गरम हो गया?  महाराज से कहना, याद से बिना मिर्च की सब्जी निकाले। अविनाश के पेट में अल्सर है।” उनके व्यवहार में एक तरह की अधीरता रहती। अब कितनी छुट्टियाँ बची हैं, इसका हिसाब वे मन ही मन लगातीं। छुट्टियाँ कहीं बढ़ानी तो नहीं पड़ेंगी? घर तो बस ऐसे ही छोड़कर आना पड़ा। माँ के पास घूमती-घामती आ जातीं। “दवा ली न माँ? नींद ठीक से आई? रात कैसी गुज़री?” मच्छरदानी  के कोने ठीक करतीं, सिमटी चादर ठीक से बिछातीं, माँ के पलंग के पास टेबल पर  ताज़े फूल रखतीं। बच्चे अगर शोर मचाते, तो उन्हें बाहर निकाल देतीं। यानी माँ की पूरी फिक्र रखतीं। रोज़ उनके लिए तरह-तरह की हल्की फुल्की खाने की चीज़ें बनातीं। उन्हें लगता जैसे उनकी परिचर्या पूरी हो गई। परंतु, माँ को पता था खालीपन कहाँ है।  पर, अब मृत्यु के सामने आकर सारी अपेक्षाएँ समेट ली थीं- जीवन भर मैंने सौंदर्य की कामना की है। जीवन को चाहा है। मरते समय इसे खंडित नहीं होने दूँगी। उन्हें याद आए उनके अतिप्रिय लेखक हेनरी फ़्रेडरिक एमियल सौंदर्य शास्त्र के प्रोफेसर  जिन्होंने तीस वर्ष एकांत में रहकर सोलह हज़ार पन्नों का जर्नल लिखा था। एमियल, बर्गसन और टैगोर के बारे में वे और उनके पति ऐसे बातें करते, मानो वे उनके घनिष्ठ मित्र हों। इनके लिखे साहित्य, जीवन दर्शन का उन्होंने आकंठ पान किया था। अब मृत्यु बेला सामने थी, जीवन की सर्वोच्च अनुभूति के परम आस्वाद का पल! इस पल में अंतिम कामना थी कि पूनम और दूज के चाँद की आभा उनके अंगों को सिक्त करे, बस।

      कुछ आहट हुई। माया थी। उन्होंने उसकी तरफ नज़र घुमाई। माया पास आई- “कुछ चाहिए माँ?” उन्होंने सर हिलाया। हल्के से हंसीं । पर, माया ने माँ के हास्य को देखा ही नहीं। वह तो किन्हीं और ही विचारों में गुम थी। वह होशियार, कार्यदक्ष और स्वार्थी थी। खुद को जो चाहिए, वह हर कीमत पर ले लेती थी। दूसरों की उसे कभी परवाह नहीं थी। पति और बच्चे उसके जीवन की सीमाएं थीं।  मित्र, पार्टी, सिनेमा सब थे, पर उसने कभी किसी के लिए शायद ही कुछ किया हो।

      मँझली छाया थोड़ी अलग थी। आनंदी, उदार और ग्राम्य हास्य से भरी। स्थूल, बहिर्मुख व संवेदनाहीन। इस बड़े मकान में दोनों के रसोईघर अलग-अलग थे। धन बहुत था, इसलिए दोनों के बीच संघर्ष का प्रसंग नहीं आया था। उनका खुद का कमरा अलग ऊपर था। दोनों घरों से बारी-बारी थाली आती थी। कई बार वे स्वयं नीचे आकर सबके साथ टेबल पर खाना खाती थीं। परंतु ऐसा तभी हो पाता था, जब बाहर का कोई मेहमान न हो। कई बार  रात को नीचे नृत्य संगीत होता, गिटार- ऑर्गन बजते। माया अच्छा गाती थी। उनकी बेटी उमा भी अच्छा गाती थी। कभी-कभी सुर उन तक पहुँचते, उन्हें अच्छे भी लगते। पर, माया और उमा ने कभी उनसे नहीं पूछा- माँ तुम्हें कोई गीत या भजन सुनना है? अच्छे से यदि कविता भी पढ़ी जाए तो अच्छी लगती है।– ‘जेते दियो न तोमाय’- तुम्हें जाने नहीं देंगे। चार वर्ष की बालिका की पिता के लिए स्नेह और गर्व भरी वाणी –‘जाने नहीं दूँगी तुम्हें’। परंतु, जाना तो पड़ता है। प्रलय समुद्र के हू- हू करते वेग में सब कुछ बह जाता है।

      अब उनके जाने की घड़ी आ गई है। पर, किसी ने नहीं कहा –जाने नहीं देंगे तुम्हें। शायद उनके जाने की राह ही देख रहे हों। ठीक है, मन में अब कोई तृष्णा, कोई  भय नहीं, या शायद कहीं है?

      खिड़की के पास झूलती नीम की डालियाँ इस चैत्र वैशाख में सफ़ेद मंजरियों से लद जाएंगी।  ऑलबेयर कामू ने अपनी डायरी में जिस बादाम की श्वेत मंजरी की चर्चा की थी, शायद उससे भी सुंदर। पूरी रात महका करेंगी। मन में सुख की लहर उठी। ‘जेनेरेशन गैप’  है तो जाने  दो। ईश्वर ने उनकी अंतिम रातें तो महका ही दी हैं।

      अचानक मारिया याद आ गई। उसे यहाँ अच्छा लगेगा? यहाँ की उमस व गर्मी, यहाँ की गंदगी, लोगों की आदतें आदि वह कैसे सहन करेगी? उसे इस देश की वास्तविक स्थिति का पता चलेगा? खैर, जो होगा देखा जाएगा। कुछ ही घंटों में इस कौतुहल का अंत हो जाएगा।दिल में एक धीमा सा सुर उठा। अंतिम पलों की आभा पर इन बेटे-बेटियों, बहुओं के बीच संघर्ष की छाया न पड़े तो ही अच्छा। हाथ पाँव अब चलते नहीं। केवल तरल पदार्थ  ही ले सकती हैं। आवाज़ धीमी पड़ गई है। सुनाई भी कम देता है। केवल दृष्टि सतेज है और सतेज है मन, हृदय और स्मृतियाँ।

      फ्लाइट थोड़ी लेट थी। दोपहर के बदले शाम 6 बजे विमान आया। कस्टम से निकलते, घर पहुँचते- पहुँचते साढ़े सात बज गए। दीपांकर और मारिया ने जब उनके कमर में प्रवेश किया तो उस समय प्रकाश व अंधकार की संधि बेला थी। दीपांकर उमगकर दौड़कर लिपट गया।– “कैसी हो माँ?” उसकी आवाज़ से स्नेह झर रहा था। उन्हें गहरा संतोष हुआ। थोड़ी देर तक वह माँ से सटकर बैठा रहा। फिर जैसे कुछ याद आया हो-“मारिया, यह मेरी माँ है,” उसने कहा। इसमें कुछ गर्व की छटा थी, या शायद उन्हें भ्रम हुआ। मारिया आगे आई। उसने हाथ लंबा कर, उनका हाथ थोड़ा हिलाया। बोली कुछ नहीं, केवल हंसी। दोनों उनके पास आ बैठे। दीपांकर ने जल्दी-जल्दी बहुत सी बातें कह डाली। उनके स्वास्थ्य की, पत्र मिलने के बाद हुई चिंता की,  “अब कैसी तबीयत है माँ? अब मैं आ गया हूँ, तो सब ठीक हो जाएगा।” स्नेह भरी चिंता की बातें। “माँ, तुम्हें याद है एक बार मैं बहुत भटककर, कपड़े फाड़कर घर आया था, तो बापू ने  मुझे गुस्से में बहुत मारा था। तब तुमने कैसे मुझे गरमागरम हलवा खिलाया था?” लेटे-लेटे वे सुनती रहीं। बहुत-बहुत अच्छा लगा। “ माँ अब आराम से सो जाओ। कल सुबह मिलेंगे। चाय साथ में पिएंगे”, दीपांकर ने कहा। मारिया ने भी सर हिलाया। उसकी आँखें सुंदर थीं, पनीली, गहरी संवेदना भरी। मानो कह रही हों- तुम्हारे मना में क्या है, मैं समझती हूँ। फिर वे दोनों नीचे चले गए।

      दीपांकर ने सुबह मिलने का कहा है- पर, जब वे अकेली हुईं तो उन्हें लगा- क्यों न आज की रात उनकी अंतिम रात हो जाए। अचानक से बहुत कमजोरी लगने लगी। आज क्या तिथि है, शायद दूज? धीरे से सहज ही सुंदर लाल चंद्रमा उगेगा। बस अब और कुछ नहीं चाहिए। आज रात ही अंत आ जाए तो उत्तम है।

       नीचे से आवाज़ें सुनाई देना बंद हो गईं। अभी कुछ ज़्यादा समय तो नहीं हुआ था। शायद 9 बजे होंगे। सभी शायद दूसरी तरफ के आँगन में बैठे होंगे। दीपांकर अमरीका की बातें कर रहा होगा। बेटियों, माया- छाया को यह देखने का इंतज़ार होगा कि वह उनके लिए क्या लाया था। माया मन ही मन तिकड़म लगा रही होगी कि सबसे अच्छी चीज़ खुद के  लिए कैसे ले।

      हवा की तेज़ लहर आई। नीम की डालियाँ झूल पड़ीं। दो सफ़ेद छोटी कलियाँ उनके पलंग पर आ गिरीं।

       अचानक उन्हें लगा, दरवाजा खुला और कोई भीतर आया। आखिरी खुराक तो काम वाली बाई दे गई थी, फिर कौन होगा?

      धीमी पदचाप से कोई उनके पास आया। उन्होंने पहचाना , मारिया थी। उन्हें थोड़ा अजीब लगा। मारिया भला क्यों आई होगी?

      मारिया उनके पास आ बैठी। हाथ में हाथ लिया। थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोली। मात्र सामने देखकर हँसती रही।–“ मुझे यहाँ बैठना अच्छा लगेगा, बैठूँ?”, उसने पूछा।

      उन्होंने सर हिलाकर हाँ कहा फिर भी उत्सुकता कम न हुई। बहुत देर तक मारिया चुप बैठी रही। नीम के पीछे का आकाश देखती रही। फिर धीमे से बोली-“ आपने पलंग बिलकुल सही कोण पर रखा है। यहाँ से वृक्ष सुंदर दिखता है। अब इसमें फूल आएंगे न? थोड़े- थोड़े दिख भी रहे हैं।” वह अंग्रेज़ी में धीरे- धीरे अटक-अटककर बोल रही थी।  उच्चारण अमरीकी था। पर उन्हें सब समझ में आ रहा था।

      मारिया ने फिर कहा,”हमारे विवाह पर आपने मुझे  टैगोर की कविताओं की पुस्तक भेजी थी। मुझे बहुत अच्छी लगी । कितनी ही बार मैंने उन्हें पढ़ा है। कुछ तो कंठस्थ भी हो गई हैं।” वे हंसीं। उसने माँ के हाथ पर अपना हाथ फेरा और पूछा-“ आपको वे कविताएं याद हैं?” उन्होने आनंद से सिर हिलाया। मारिया सहज ही और करीब सरक आई। “ आप बहुत कमजोर लग रही है,” वे कुछ नहीं बोलीं। मारिया ने उनकी आँखों में आँखें डालकर बहुत गहरे देखा। माथे के बाल सहेजे। फिर कान के पास मुंह सटाकर बहुत मृदुता से बोली,” आपको डर तो नहीं लग रहा न?”

      “कैसा डर?”

     “अज्ञात का”, मारिया धीमे स्वर में बोली,”सब परिचितों को छोड़कर शून्य में विलीन होने का?”

      हृदय में आनंद की एक बड़ी लहर उठी। यह लड़की मुझे समझती है। मेरे भीतर जो घट रहा है, उसे जानने की इच्छा है। मेरे भय की चिंता है। शायद इसी भय को दूर करना चाह रही है।उन्हें जवाब देना था, पर इस उमड़े ज्वार से वे थक गईं। जीवन के  अंतिम क्षणों में एक नया संबंध उदित हुआ है। ज़रा देर से ही सही, पर अत्यंत सुंदर। उन्होंने प्यार और संतोष से मारिया की तरफ देखा। अचानक उन्हें लगा, लोग कहते हैं- पति के जीवित रहते पत्नी की मृत्यु हो जाये तो पत्नी को सौभाग्यवान कहते हैं। ओह, लोगों को क्या पता सौभाग्य यानी क्या? सौभाग्य यह है। अंतिम क्षणों के आकाश में एक नया संबंध, नया प्रेम उदित हुआ है। यही असली सौभाग्य है। आनंद से मृत्यु वरण करना सबसे बड़ा सौभाग्य है। नीम के पीछे से चंद्रमा की श्वेत किनारी दिखी। मारिया ने कमरे की बत्ती बुझा दी। लगा, जैसे सफ़ेद फूलों से डालियाँ भर गईं । उन्होंने मारिया का हाथ पकड़कर चंद्रमा की तरफ इशारा कर कहा – “देखो वह अलविदा कह रहा है।”

      मारिया ने उनके माथे पर हल्के से हाथ फिराया- “आपकी यात्रा शांति पूर्ण हो।” उनके मुंह पर रतनारी आभा खिल उठी॰

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लेखिका: कुंदनिका कापड़िया – गुजराती की प्रसिद्ध कथाकार

अनुवादक: प्रतिमा दवे

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प्रियंका ओम की कहानी ‘जट्टा और चिरैया’

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युवा लेखिका प्रियंका ओम की कहानी पढ़िए-मॉडरेटर

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वह औचक ही सामने आ गया था. मुझपर नज़र पड़ते ही शर्मिंदगी से उसकी आँखें झुक गई थी. मानो उसका कृत्य क्षण भर पहले का हो. इतने वर्ष बीत गये, वक़्त नये नये पैहरन तैयार करता रहा और पुरानी उतरनें बनती रही. उन्ही उतरनों में से एक आज मेरे समक्ष ऐसे आ गया जैसे काले रंग का वह कुर्ता जिसे पहनने के बाद किसी अप्रिय घटना का घटित होना तय होता और वह दिन हमेशा ही गुरुवार होता.

ताई जी कहती – गुरुवार को काला ना पहना कर और शनिवार को पीला, अपशगुन होता है. दुनिया के शुरू होने से पहले से ही शनिदेव और बृहस्पति देव में निरंतर शीत युद्ध चल रहा है.

आज भी मैंने पीला पहना है और दिन शनिवार है. मैंने उसे अनिक्षा से देखा, अब वह बूढ़ा हो चला है. उसके सफ़ेद हो चुके बालों में बचे काले बाल आसानी से गिने जा सकते थे. उसकी बिल्लौरी आंखें निस्तेज़ हो गई हैं, माँस हड्डियाँ छोड़ चुकी हैं. अब वह पहले की तरह आकर्षक नहीं रहा.

‘पहचाना इसे?’ मेरे मनोभावों से नितांत अनभिज्ञ दादा ने उसके समझ प्रश्न फेंक दिया जैसे सामने बैठे प्रतीक्षारत प्रत्याशी के समक्ष ताश के पत्ते फेंके जाते हैं.किंतु प्रत्याशी? नहीं नहीं. यह मेरा पिता, छी.. पिता नहीं, मेरी माँ का प्रेमी है. रगों में बहने वाला ठाकुरों का ख़ून मन वितृष्णा से भर गया.

नहीं, मैं प्रियम्बदा ठाकुर हूँ. मेरे नाम के साथ मेरे मृत पिता और बाबा की प्रतिष्ठा जुड़ी है. ग़ुरूर में मैं तन कर खड़ी हो गई.

चिरैया… उसने स्नेहिल नज़रों से देखते हुए कहा.

‘चिरैया’ समय की गुफा से आती हुई आवाज़ किसी बवंडर की तरह मुझे अपने साथ गोल गोल घुमाते हुए अंतिम छोर पर ले जाकर पटक गई.

जट्टा की कहानी मेरे जन्म से पहले की कहानी है, लेकिन उसकी कहानी का मुझसे जुड़ाव तब शुरू होता है जब मैं माँ के गर्भ में थी और वह मेरी माँ को छुप छुप कर ताकता था.

माँरॉ (रोटी)सिर्फ़ एक बार बोला गया यह शब्द ब्राह्मण वंश के ठाकुरों के महलनुमा घर में ऐसे गूँज रही थी जैसे व्याकुल प्रेमी द्वारा पहाड़ों में पुकारे गये प्रेयस के नाम गूँजते हैं.यह जट्टा की आवाज़ थी.

जट्टा गठिले शरीर वाला नवयुवक है और उसकी आवाज़ भी उसके शरीर जैसे ही गठिली है. ये नाम उसके व्यक्तित्व और आवाज़, दोनों के साथ ख़ूब मेल खाता है. हालाँकि ये नाम उसे कब और किसने दिया और इसका अर्थ क्या है, ये ना तो कोई जानता है ना जानना चाहता है.

‘आ गये जट्टा?’ हमेशा की तरह पूछने के लहजे में ठकुराइन ने कहा.

उसके ‘जी मालकिन जी’ कहने से पहले ही थाली उसके सामने रख दी गई थी. एक इंच ऊँची घेरे वाली बड़ी सी कांसे की थाली. आधी थाली में थाली के भीतरी आकार के मकई की एक मोटी रोटी के दो टुकड़े को एक के ऊपर एक रख दिया गया था और बची हुई आधी थाली को गरम गरम अरहर की दाल से भर दिया गया था. जब तक जट्टा ने अपने साथ लाए काँसे के लोटे से अँजुरी में पानी लेकर थाली का आचमन किया, तब तक तो दाल रोटी वाले क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित कर चुका था और दो टुकड़े रोटी का नीचे वाला आधा टुकड़ा दाल में भीग कर फूलने लगा था. जट्टा ने नीचे का आधा भाग ऊपर किया और बचे हुए दाल में मसल मसल कर खाने लगा. बीच बीच में बाड़ी से तोड़ कर अपने साथ लाया हरा मिर्च को दाँतों से ऐसे काटता जैसे मिर्ची से कोई पुरानी दुश्मनी हो और वह आज ही पकड़ में आया हो.

कभी कभी स्वाद बदलने के लिये वह अचार माँग लेता, तब दुल्हिन जी उससे पूछ कर आम या कटहल का देती. वह ज़्यादातर कटहल का माँगता, कटहल की सब्ज़ी का बहुत रसिया था और कुआ तो दरिद्र की तरह हपा हप खाता था वह.

अभी उसने आधा रोटी ही खाया था कि मैंने सामने पालथी लगा लिया. जट्टा ने एक छोटा सा कौर बनाया और मेरे मुँह ने डाल दिया.’हे भगवान, कलयुग है कलयुग. ठाकुरों की बेटी नौकर के हाथ से.. पता नहींं कौन जात है.’ बड़ी ठकुराईन बड़बड़ा रही थी.’जट्टा के आने से पहले भर पेट खिला काहे नहींं देती हो ई चिरैया को?’

‘केतना भी खिला दो ठकुराईन, ई चिरैय्या जब तक हम्मर हाथ से नहींं खायेगी, पेट नहींं भरेगा इसका भी और हमरा भी.’

‘बस बस, बहुते बोलने लगा है. मालिक सर पे बिठायें हैं.’

‘माफ़ी दे दो मालकिन. हमहूँ तोहरे बच्चा हूँ. अप्पन माँ बाप तो याद भी नहींं.’

‘हाँ बच्चा त तू हमरा ही है. दस बारह साल का रहा तुम जब मालिक साहब ले आये.’

जिस घर में बाहरी पुरुष का क्षणिक प्रवेश भी निषिद्ध था, उस घर में स्वयं बड़े ठाकुर जट्टा का हाथ पकड़ ड्योढ़ी पार भीतर ले आये थे.

कचहरी के पास चूसे हुए मालदह आम की गुठली जैसी सूरत वाला यह लड़का भीख माँग रहा था. चेहरे के भीतर धंसी आँखों से ख़ाली पेट का सूनापन चू रहा था, जैसे भीगें हुए कपड़ों से पानी चूता है या बरसात में किसी ग़रीब का छत.

‘काम क्यूँ नहीं करता’ बड़े ठाकुर ने झिड़क दिया था. कचहरी में हुए बहस से कुछ खीजे हुए थे.

‘मिले तो…’ इतना ही कह पाया था कई दिनों का भूखा मरियल जट्टा.

‘नाम क्या है?’ उसकी निरीह काया को देख ठाकुर साहब का मन पसीज रहा था.

‘सब जाट कहता है..’ ठाकुर साहब के सम्मान में झुका हुआ सर बस थोड़ा सा ऊपर उठा था.

‘जाट कोई नाम थोड़े है? हम तुमको जट्टा कहेंगे. चल गाड़ी में बैठ जा.’

गाड़ी बड़े ढाबे पर रोक दी गई.

भर पेट खाना मिला तो ठाकुरों का होकर रह गया जट्टा.

उसे अब ख़ुद भी याद नहींं कि वो कौन था, कहाँ का था और किसका थ. बस याद है, तो बड़े ठाकुर साहब और उनकी हवेली.

कोई पूछता – कौन है तू, तो कहता – हवेली वाले ठाकुर साहब का जट्टा.

शुरुआत में उसका काम सिर्फ़ बैठक से जूठे चाय का कप और नाश्ते की प्लेट उठाना था और इस काम में उसका मन भी बहुत लगता था. जब भी कोई मेहमान आते, उसका होली दशहरा सब हो जाता. दुल्हिन जी कहती – जूठे प्लेट का बचा हुआ अपनी थाली में उलट ले.

बड़े लोग भी ख़ूब मनचोर होते हैं. प्लेट में तरह तरह की मिठाई और नमकीन सज़ा कर परोसी जाती है तो सिर्फ़ एक टुकड़ा ही तोड़ कर मुँह में रखते हैं बस और ग़रीब एक टुकड़े के लिए भी तरसते हैं.

तरसा हुआ तो जट्टा भी था लेकिन जल्दी ही उसका मन अघा गया. जब नया नया आया था तो छज्जु हलवाई के आने से पहले ही उसको सुगंध लग जाता.

‘दुल्हिन जी… लिस्ट बना लीजिए. छज्जु आ रहा है.’

‘तुमको कैसे छज्जु के आने का पता लग जाता है?’ दुल्हिन जी को बड़ा अचरज होता.

‘छज्जु की देह से एक लग्गा पहिले से दूध और घी का महक आता है औ पिछले जनम में हम ज़रूर कुक्कुड़ रहे थे’ कहते हुए मासूमियत से दाँत निपोर देता.

‘क़ुक्कुड़ त तुम इस जनम में भी हो, ठाकुरों की देखा देखी छगनलाल को छज्जु छज्जु करता है. अप्पन औक़ात में रहो जट्टा.’ ठकुराइन को उसका हँसना बोलना तनिक नहीं भाता था.

ठकुराइन को जट्टा कभी नहीं सोहाया. कहती – क़ँजी आँखों वाला अपसगुण होता है. जेतना धरती के बाहर ओतना धरती के भीतर. जेकरा अप्पन मतारी-बाप नहीं पूछा, उसको मालिक घर के भीतर काहे ले आये.’ कहते हुए उनकी आवाज़ किसी अनिष्ट की आशंका से काँप जाती और यह सब सुन जट्टा सहम जाता.

कभी कभी किसी फ़ुर्सत में ठकुराइन की बातों को याद करते हुए शीशा का टुकड़ा को अपनी आँखों के नज़दीक लाकर ख़ूब ध्यान से देखता. उसे दूध के उजले कटोरे में चाँद का प्रतिबिम्ब हरा दिखाई देता. सबका तो करिया है, ख़ाली हमरे हरियर, ठकुराइन ठीके कहती है, ज़रूर कौनों दोष है.

दुल्हिन जी का उससे अलग सा स्नेह था. जब भी भँसा में कुछ नया बनाती तो उसे भी देती.. ठकुराइन के परेम जैसा थोड़ा सा.

‘स्वाद कैसा था’ कभी मौक़ा पाकर पूछती.

तब वह विस्तार से उस लज्जत का ऐसा वर्णन करता मानो कोई श्रेष्ठतम लेखक किसी स्त्री के रूप सौंदर्य का विस्तार लिखता हो.

दुल्हिन जी उसकी मासूमियत पर बहुत मुग्ध होती. वह माँ कितनी ही अभागी होगी जिसने इस अस्फटिक से कंचन मन वाले बच्चे को खोया है. वह कुरेदती – जट्टा कुछ याद है तुमको?

‘नहीं, दुल्हिन जी, अब त भूख और गाड़ी भी बिसर गया. याद है त बस ठाकुर साहेब औ ई हवेली’ कहते हुए उसकी आवाज़ दीवाली के दीये की लौ की तरह तैलिय हो जाती.

बैठक में काम कम होने के कारण वह धीरे धीरे गौशाला में मेदनी काका की मदद करने लगा. क़ुट्टी काटना, नाद में भूसा मिलाना और गायों को नहलाना और फिर गोबर समेट कर गोईठा थापने में वह जल्दी ही निपुण हो गया.

बीच बीच में मेदनी काका हवेली के उन क़िस्सों को साझा करते जो उससे कभी किसी ने ना सुनाई हो. काका कहते – ठाकुरों की एक रानी होती है और एक पटरानी होती है. खेतों में मचान होता है. फ़सल की रखवाली के लिये मचान पर एक लठैत सोता है. दूर एक घर होता है, दीया बाती करती हुई एक अभागन होती है, अभागन का भाग्य दीया बोता कर बनता है, फिर दिन भर वह खेत होती है, बिना फ़सल वाली खेत.

और कहते – ये सब क़िस्सा कहानी मेरे साथ चिता पर बैठ सती होगा.

वह अचरज से उन्हें मुँह बाये ऐसे देखता मानो कानो से नहीं मुँह से सुन रहा हो. मेदनी काका की बातें उसे रहस्यमय लगती जिन्हें सुलझाने की कोशिश में वह पूछता ‘काका औरत खेत कैसे हो जाती है?’

‘तू बकलोले रहेगा.’ कहकर मेदनी काका उसे फटकार देते.

काका कभी कभी ठकुराइन के क्रोधी और दुल्हिन जी के मृदुल स्वभाव का चित्रण किया करते थे. वो कहते – ठकुराइन ने दुनिया देखी है. दुल्हिन अभी कच्ची मिट्टी का घरौंदा है, उसको पकने में समय लगेगा.

‘काका अब दूध दुहना सिखा दो’ वह चिरौरी करता.

‘बकलोल बंदूक़ चलाना सीख ले. दूध दुहना सीखकर का करेगा, जब गंदरवा मुनिया बंदूक़ तान देगा.’

‘गंदरवा मुनिया कौन चिड़िया का नाम है? जट्टा नये नये बतबनाई में भी पारंगत हो रहा था.’

‘डाकू है डाकू, लूट पाट मचाता है. गोलियाँ दागता है. बड़ा निर्मम है. आस पास का दस गाँव में क़हर बरपा है, ई गाँव का नम्बर भी जल्दिये आयेगा’ कहकर काका ज़ोर ज़ोर से खाँसने लगे.

‘ई गोली ससुर जान लेबो करता है, जान बचैबो करता है’ कहते हुए काका ने एकसाथ दो गोली फाँक ली.

काका के बीमार होते ही घर का प्रवेश द्वार जट्टा के लिये खुल गया. एक बार क्या वह घर के भीतर आया, फिर तो घर का ही होके रह गया.

सब्ज़ी काटने से लेकर जमाई छाली को मह कर घी निकालने में प्रवीण हो गया. दुल्हिन जी की अन्य सहायिकाएँ उसे मौगा कहती, तिस पर मात्र वह खीसें निपोर देता.

जब रोज़ सुबह वह बाल्टी भर दूध दूह कर लाता तो दुल्हिन जी उसे गिलास भर चाय पकड़ा देती जिसे वह वहीं आँगन में बैठ सुड़क सुड़क कर घंटे भर में पीता. फिर घर की तमाम स्त्रियों के स्नान और रसोई के काम काज के लिये चापाकल से पानी भरता. जिस दिन बहु जी को बाल धोना रहता, उस दिन घर की सभी बाल्टी को वह पानी से लबालब भर देता. बहु जी के बाल कमर तक लम्बे हैं..घने हैं. बालों को आँवला शिकाकाई से धोने से एक रात पहले वह मलसी भर सरसों का तेल लगवाती है इसलिये धोने में पानी भी ख़ूब लगता है.

दूसरी सेविका कहती – ई मरद वाला काम है. लौहकल चला कर तू लोहे जैसा मज़बूत बनेगा.

‘और जो औरत खेत में काम करती है ऊ मर्दानी हो जाती है का?’ जट्टा हाज़िर जवाबी हो रहा था.

सच ही वर्षों से लोहे का चापाकल चलाते चलाते उसके हाथ लोहे की तरह मज़बूत हो गये थे और शरीर रोज़ घंटों कसरत करने वालों जैसी क़टिली. खेतों में काम करने वाली मजदूरिन लड़कियाँ जब दिहारि लेने आती, तब उसे देख देखकर ख़ूब लजाती. कुछ अधेड़ उम्र की स्त्रियाँ उसे खुलकर छेड़ती ‘जट्टा कौन सुहाता है, सरस्वती भौजी कि लक्ष्मी भौजी’

‘हम इस कलयुग का हनुमान हूँ. ऊ भगवान राम के भक्त थे, हम ठाकुर साहब के भक्त हैं. उनकी मैय्या सीता थी, हमरी मैय्या ठकुराइन हैं.’ उसके इस कथन को सुनकर ठाकुर साहब का छाती ख़ुशी से फूल जाता. वह कहते – बस बस…इसको और तंग मत करो कोई.

उसकी काया ऐसी कि साबुन लगाकर नहाने के बाद सूर्य की किरणे उसकी देह से टकरा कर वापस लौट जाती और कुमारियों का आँचल बिन पूरबैया भी सर से ससर जाता. उनकी आत्मा से निछुड कर नेह आँखों से रुई के गीले फ़ाहे की तरह चू जाता लेकिन जट्टा का जीवन अपनी ही रौ में था.

छोटे ठाकुर के बियाह में ख़ूब देन लेन हुआ. आस पास का सौ गाँव में चर्चा हुआ.

मेदनी काका ने कहा – ठाकुर साहब को गंधरवा मुनिया का चिट्ठी आया है.

‘का लिखा है उसमें?’ जट्टा ने कौतुक से पूछा.

‘बुरबक…पढ़े नहीं, सुन गुण सुने हैं. उ मरदे ताल ठोक कर लूटने आता है. छोटका ठाकुर का बियाह का चर्चा दस गाँव में है. एतना लेन देन कि सबका आँख फट गया.’

ठाकुर साहब बग़ल में भरल बंदूक़ रख कर सोने लगे. पूरा घर भय के साये में सो रहा था. अंततः वह क्रूरतम रात भी आया जब गंधरवा मुनिया लूटने तो आया धन लेकिन लूट गया छोटकी का भाग्य. छोटे ठाकुर के ख़ून की ग़र्मी उनकी देह को ठंडा करने का कारण बनी.

हफ़्ता हुआ ब्याह कर अाई थी, पैरों का आलता बदरंग भी नहीं हुआ था. माँग में नारंगी सिंदूर गोधूली सा शोभता…कोमल हाथों में मेहंदी महकती, किंतु आह! भाग्य की मारी, अभागन का क्या दोष जो कुलटा पुकारी गई.

अंधेरी काल कोठरी में क़ैद हुई, उलटी हुआ तो छोटे ठाकुर की पुनः वापसी का उत्सव शुरू हुआ, किंतु नौ महीने बाद चिरैया जन वह और अभागी हुई. यह उसके कुभाग्य का अंत नहीं था. चिरैय्या को उसकी गोद से छीन कर उसे भाग्य पर रोने के लिये छोड़ दिया गया था.

उस दिन वह अजाने ही जट्टा को अवलोकित हुई थी. चिरैय्या उसकी गोद में थी. प्रेम लुटाती उस ममतामयी को किबाड़ लगाने की सुध नहीं रही. दुल्हिन जी ने जट्टा के समक्ष हाथ जोड़ दिये. राज़दार होने की क़सम दे दी गई. ऐसा करुण दृश्य, कलेजा में कील सा चुभा. जैसे बिंधता है तीर कोई…हिरण के शरीर में प्राणघाती.

जट्टा का मन भर आया था. कोमलाँगी के दृष्टिगोचर होने मात्र से ही वह व्याकुल हो उठता. उसके मन की समतल दीवारों पर एक रेखा खिंच गई थी.

उसमें किसी असंभव की आकांक्षा जागी थी. कभी वह पलाश के वनखंड सा दहकता कभी जलावन की सूखी लकड़ियों सा अकड़ता, उसमें चंद्रमा की ललक थी.

उसकी रातों में उजाड़ था, वह प्रतीक्षा का विग्रह बना अपना प्रेम दोगाना अकेले ही गाता.

दालान पर जब दोपहर करवट लेकर साँझ को पुकारती, उस वक़्त उसका हृदय मरण पर सुदूर का रुदनगीत हो जाता और रात के नीम अंधेरे में उसकी जवानी खेत हो जाती. उसे प्रेम का सूद चुकाना था. द्वैत चाहनाओं की बाती अनुल्लंघ्य नियमों की ढिबरि में रात भर जलती. उसकी रातें रीति ही रहती.

हृदय का ऐसा शिशुहठ, अनुरागी की ज़िद दुल्हिन जी की अनुभवी आँखों से छुपी न रह सकी. अनुग्रह की याचना कर बैठी – उसे इस नर्क से निकाल दो.

एक पल के लिये वह शर्त हो गया था, वह भोगी नहीं भक्त था, किंतु प्रेम से बड़ी कोई उपासना नहीं. अमावस की काली रात में स्वर्णिम सुबह की चाह लिये उसका हाथ पकड़ निकल पड़ा. दुल्हिन जी ने पोटली में रुपये पैसे गहने बाँध दिये थे. अश्रुपुरित नेत्रों से इतना ही कहा था ‘जट्टा तुमको बेटा ही समझे, तुम इसको सम्भालना. हम चिरैय्या को संभाल लेंगे. जाओ.. कहीं दूर चले जाओ, पीछे मुड़ कर नहीं देखना.’ पैरों पर गिर पड़े थे दोनों, दुल्हिन जी ने दोनों को सीने से लगा कर विदा कर दिया था.

भाइयों की लाड़ली प्रियम्बदा राजकुमारी की तरह पलने लगी. उसे कभी पता भी नहीं चला..माँ और ताई जी में क्या फ़र्क़ है. दादा का चिरैय्या से अतिरिक्त स्नेह था. वह दादा को दादा से अधिक गुरु समझती थी. एक ऐसा गुरु जो उसके मन पर पड़ी काइयों को कोमलता से हटाता है, जो उसे अंधेरी कोठरी से निकाल कर रोशनी दिखाता है.

समय ने करवट ली थी. ठाकुर साहब-ठकुराइन के बाद दुल्हिन जी के राज काज में पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा. दुल्हिन जी और चिरैय्या की सुध लेने जट्टा वर्षों बाद लौट आया था.

प्रियम्बदा डॉक्टर बन गई थी. लोगों के दुःख दर्द दूर करती थी. दादा के साथ बुलाने पर अाई थी. शायद सबकुछ पूर्व नियोजित था. दादा प्रतिमानों और प्रतीकों द्वारा उससे कुछ कहना चाहते थे. वह भी पूछना चाहती थी – क्या मेरी माँ भी इससे प्रेम करती थी? अंतस में शूल की तरह उठा यह सवाल भीतर गोदने लगा था.

‘प्रेम सौंदर्य का उपासक नहीं, अपितु निष्पक्ष होता है.’

दादा प्रेम को निष्कलंक मानते थे.

दादा ने जट्टा को गले लगाते हुए कहा – यह कलयुग का भक्त प्रेमी नहीं, उपासक है. इसने मात्र पूजा की है.

जट्टा की आँखों में अनुरक्ति की धारा बह निकली थी. प्रियम्बदा अनायास ही उसके पैरों पर झुक गई.

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हारना नागार्जुन की फितरत में नहीं था

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तारानंद वियोगी ने राजकमल चौधरी की बहुत अच्छी जीवनी लिखी थी, आजकल नागार्जुन की जीवनी लिख रहे हैं। अभी दो दिन पहले नागार्जुन की पुण्यतिथि के अवसर पर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ पटना में उन्होंने नागार्जुन पर बहुत अच्छा लेख लिखा था। जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- मॉडरेटर

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एक सितारे की तरह थीं सितारा देवी

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आज सितारा देवी का जन्मदिन है। इस मौक़े पर राजेंद्र शर्मा का यह लेख पढ़िए-मॉडरेटर

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जिसके नृत्‍य से भावाभिभूत होकर महज सोलह साल में गुरुदेव रवीन्‍द्र नाथ टैगोर ने उन्‍हें नृत्‍य सम्राज्ञी की उपाधि दे दी हो उसे भला भारत सरकार का पद्मविभूषण सम्‍मान क्‍योंकर स्‍वीकार्य होता। यही कारण था जब उनहें पद्मविभूषण से नवाजने की बात आई तो उन्‍होंने स्‍वाभिमान के साथ इंकार कर दिया । गुरुदेव रवीन्‍द्रनाथ टैगोर का कहा उनके जीवन में फलीभूत हुआ।वे वाकई बाद में चल कर नृत्‍यसम्राज्ञी बनीं और एक युग की तरह संगीत में झिलमिलाती रहीं और वे अपने फन की उस्‍ताद मानी जाती रही हैं।

पर जितना उनके फन की कला की कद्र हुई उतना ही ईश्‍वर ने उन्‍हें दुख भी दिया। किसी व्यक्ति के जीवन में इस से ज्यादा अभागापन क्या हो सकता थ कि उसके पैदा होते ही मां-बाप उसे त्याग दें, ऐसा अभागापन पाया था, ‘नृत्य सम्राज्ञी’ सितारा देवी ने। आठ नवम्बर 1920 को कलकत्ता में धनतेरस के दिन मूल रूप से वाराणसी निवासी कथक नृत्यकार और संस्कृंत के विद्वान सुखदेव महाराज के यहां सितारा देवी का जन्म हुआ । पैदा होने क बाद मां-बाप ने देखा कि नवजात बच्ची का मुंह टेढ़ा  है । नवजात बच्ची  के मुह के टेढ़ेपन से भयभीत मां-बाप ने उसे एक दाई को सौंप दिया। जिसने उस बच्चीे को पाला । चूंकि बच्ची  धनतेरस के दिन पैदा हुई थी लिहाजा दाई इस बच्चीे को धन्नो  कहकर पुकारती । ममत्व से भरी दाई ने रात दिन मालिश कर उस बच्ची  के मुंह के टेढ़ेपन को काफी हद तक दूर किया ।

आठ वर्ष  बाद जब मां-बाप को जानकारी मिली कि उनकी बेटी के मुंह का टेढ़ापन काफी हद तक खत्म  हो गया है,तब वह उसे अपने घर ले आये और अपने घर आने पर वह बच्ची जिसे नाम से धन्नो पुकारा जाता था , धन्नो  से धनलक्षमी हो गयी । उस समय की परम्परा के अनुसार धनलक्षमी का विवाहआठ वर्ष की उम्र में हो गया। उनके ससुराल वाले चाहते थे कि वह घरबार संभालें लेकिन धनलक्षमी के भाग्य में तो इतिहास रचना लिखा था । उसने स्पष्ट कहा कि वह स्कूल में पढना चाहती है । स्कूल जाने के लिए जिद पकड लेने पर उनका विवाह टूट गया और वह वापिस अपने पिता के घर आ गयी ।

कुछ कर गुजरने की क्षमता

पिता सुखदेव महाराज तब तक अपने पुत्री में कुछ कर गुजरने की क्षमता जान चुके थे ।  धनलक्षमी का स्कूल में दाखिल कराया गया और वह स्कूल जाने लगी । धनलक्षमी के पिता कथक नृत्यकार थे, स्वाभाविक है कि नृत्य पुत्री की रंगो में था । स्कूल में उन्होंने एक मौके पर नृत्य का उत्कृष्ट प्रदर्शन करके सत्यवान और सावित्री की पौराणिक कहानी पर आधारित एक नृत्य नाटिका में अपनी बेहतरीन भूमिका निभाई।

इस कार्यक्रम की रिर्पोटिग एक अखबार ने करते हुए धनलक्षमी के नृत्य प्रदर्शन के बारे में लिखा था- एक बालिका धन्नो ने अपने नृत्य प्रदर्शन से दर्शकों को चमत्कृत किया। इस खबर को उनके पिता ने भी पढ़ा और बेटी के बारे में उनकी राय बदल गई। इसके बाद धन्नो का नाम सितारा देवी रख दिया गया और उनकी बड़ी बहन तारा को उन्हें नृत्य सिखाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई।

सितारा देवी ने शंभु महाराज और पंडित बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज से भी नृत्य की शिक्षा ग्रहण की। 10 वर्ष की उम्र होने तक वह एकल नृत्य का प्रदर्शन करने लगीं। अधिकतर वह अपने पिता के एक मित्र के सिनेमाहाल में फिल्म के बीच में पंद्रह मिनट के मध्यान्तर के दौरान अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया करती थीं।

गौरतलब यह है कि उस समय किसी स्त्री द्वारा स्टेज पर नृत्य करने को बुरा माना जाता था । सितारा देवी के मंच पर नृत्य करने का खामियाजा उनके परिवार को बिरादरी के बहिष्कार के रूप में मिला। समाज से बहिष्कृत होने के बाद भी सितारा देवी के पिता बिना विचलित हुए सितारा देवी को प्रोत्साहित करते रहे ।

संयोग है कि उन्‍हीं दिनों फ़िल्म निर्माता निरंजन शर्मा को अपनी फ़िल्म के लिए एक कम उम्र की नृत्यांगना लड़की चाहिए थी। किसी परिचित की सलाह पर वे बनारस आए और सितारा देवी का नृत्य देखकर उन्हें फ़िल्म में भूमिका दे दी। सितारा देवी के पिता इस प्रस्ताव पर राजी नहीं थे, क्योंकि तब वे छोटी थीं और सीख ही रही थीं। परंतु निरंजन शर्मा ने आग्रह किया और इस तरह ग्यारह वर्ष की आयु में वे अपनी माँ और बुआ के साथ मुम्बई आ गईं।

फिल्म निर्माता और नृत्य निर्देशक निरंजन शर्मा ने उषाहरण के लिए उन्हें तीन माह के अनुबंध पर चुना और वह १२ वर्ष की उम्र में ही सागर स्टूडियोज के लिए नृत्यांगना के रूप में काम करने लगीं। शुरुआती फिल्मों में उन्होंने मुख्यत छोटी भूमिकाएं निभाईं और नृत्य प्रस्तुत किए। उनकी फिल्मों में शहर का जादू (1934), जजमेंट ऑफ अल्लाह (1935), नगीना, बागबान, वतन (1938), मेरी आंखें (1939) होली, पागल, स्वामी (1941), रोटी (1942), चांद (1944), लेख (1949), हलचल (1950) और मदर इंडिया (1957) प्रमुख हैं। सवाक फिल्मों के युग में इन फिल्मों में काम करके उस दौर में उन्हें सुपर स्टार का दर्जा हासिल था लेकिन नृत्य की खातिर आगे चलकर उन्होंने फिल्मों से किनारा कर लिया।

पहला सार्वजनिक कार्यक्रम

मुंबई में उन्होंने जहांगीर हाल में अपना पहला सार्वजनिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जब वे मात्र १६ वर्ष की थीं, तब उनके नृत्य को देखकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्हें ‘नृत्य सम्राज्ञी’ कहकर सम्बोधित किया था। उसके बाद कथक को लोकप्रिय बनाने की दिशा में वह आगे बढ़ती चली गईं और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश-विदेश में अपने कार्यक्रमों से लोगों को मंत्रमुग्ध़ करने लगीं और देखते ही देखते अपने नाम की पहचान बनाने में न केवल कामयाब रहीं अपितु कथक के विकास और उसे लोकप्रिय बनाने की दिशा में उनके साठ साल लंबे नृत्य व्यवसाय का आरंभ किया।

अपने सुदीर्घ नृत्य कार्यकाल के दौरान सितारा देवी ने देश-विदेश में कई कार्यक्रमों और महोत्सवों में चकित कर देने वाले लयात्मक ऊर्जस्वित नृत्य प्रदर्शनों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया है। वह लंदन में प्रतिष्ठित रायल अल्बर्ट और विक्टोरिया हाल तथा न्यूयार्क में कार्नेगी हाल में अपने नृत्य का जादू बिखेर चुकी हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि सितारा देवी न सिर्फ कथक बल्कि भारतनाट्यम सहित कई भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों और लोकनृत्यों में पारंगत हैं। उन्होंने रूसी बैले और पश्चिम के कुछ और नृत्य भी सीखें हैं। सितारा देवी के कथक में बनारस और लखनऊ घराने की तत्वों का सम्मिश्रण दिखाई देता है। ‘धन्नो’ से ‘कथक क्‍वीन ‘ का खिताब हासिल करने वालीं विख्यात नृत्यांगना सितारा देवी ने मधुबाला, रेखा, माधुरी दीक्षित और काजोल जैसी बॉलीवुड की टॉप हीरोइनों को अपने इशारे पर नचाया है ।

दुखद वैवाहिक जीवन

सितारा देवी का वैवाहिक जीवन भी सुखमय नही रहा ।पाँचवें दशक में के आसिफ़ और सितारा को एक-दूसरे से बेइंतिहा प्यार हो गया. वर्ष 1950 में दोनों ने शादी कर ली. के आसिफ़ के ज़िंदगी से असीम प्यार और सितारा की ज़िंदादिली के चलते उनके रिश्ते में बहार आई, पर दोनों की स्वभावगत बेचैनी और मूड में लगातार आने वाले बदलावों ने उस रिश्ते में दरार पैदा करने का काम भी किया.उनके वैवाहिक जीवन की यह दरार तब और चौड़ी हो गई, जब आसिफ़ को अदाकारा निगार सुल्ताना से प्यार हो गया. हालांकि सितारा देवी इस घटना से बहुत दुखी हुईं और टूट-सी गईं पर उन्होंने अपने मन में किसी तरह की दुर्भावना को नहीं पनपने दिया. गौरतलब है कि निगार से सितारा देवी की मित्रता थी । के आसिफ की बेवफाई का असर उन्होंनें मित्रता पर पडने नही दिया और निगार से उनके संबध खराब नही हुए परन्तु पति की वेवफाई से उपजे दर्द और क्रोध को उन्होंनें अपने अंदर समेटा और उस तड़प को नृत्य के माध्यम से ज़ाहिर किया ।

के आसिफ़ से अलगाव के बाद सितारा देवी को एक बार फिर प्यार हुआ. उनके नए प्रेमी का नाम था प्रताप बारोट, जो दक्षिण अफ्रीका में रह रहे एक इंजीनियर और व्यवसायी थे. वे दोनों बहुत जल्द ही एक-दूसरे के प्यार में गिऱफ्तार हुए, उनकी शादी भी हुई. हालांकि यह संबंध बहुत लंबा नहीं चल सका. बेटे रंजीत बारोट (संगीतकार) के जन्म के कुछ समय बाद उनमें अलगाव हो गया. रिश्तों के बार-बार टूटने से सितारा देवी व्यथित हो गई थीं, पर मानो उनके नृत्य ने दर्द में और निखरना सीख लिया था. ज़िंदगी की तमाम विसंगतियों बीच भी सितारा देवी ने कभी ग़म की चादर ओढ़ना गवारा नहीं समझा.

महफिलें और सितारों का जमावड़ा

सितारा देवी को अपने घर में गाने, नृत्य और शेरो-शायरी की महफ़िलों की मेज़बानी पसंद थी. शाम को उनके घर पर फ़िल्मी कलाकारों, निर्देशकों और संगीतकारों का जमघट लगता था. वे देर रात या कहें भोर तक वहीं जमे रहते. ऐसा लगता कि कोई कला महोत्सव चल रहा है,इन शामों में सितारा देवी सौंदर्य की मूर्ति की तरह लगती थीं, पर वे उतनी ही सरल मेज़बान भी होती थीं. डांस करने के बाद वे पैरों में घुंघरू पहने ही मेहमानों के लिए खाना बनाने किचन में चली जाती थीं.

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अब कोई दूसरी सितारा देवी नहीं हो सकती. उन जैसा बनने के लिए आपको अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने से कहीं ज़्यादा की ज़रूरत होगी. आपको अपना पूरा जीवन एक सपने को समर्पित करना होगा. आख़िर उन्हें दिग्गज उर्दू लेखक मंटो ने तूफ़ान यूं ही तो नहीं कहा था. अपनी ज़िंदगी अपने तईं जीने की क़ामयाब कोशिश की. उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि दुनिया उनसे किस उम्र में किस तरह रहने की उम्मीद करती है. उन्होंने बनी-बनाई मान्यताओं को अपनाने से हमेशा इनकार किया. शायद यही वजह रही कि 94 की उम्र में भी उन्हें कभी मेकअप के बिना नहीं देखा गया. वे जब सार्वजनिक जगहों पर दिखीं, अपनी चिरपरिचित कजरारी आंखों, लिपस्टिक लगे होंठों, करीने से थपथपाए फ़ाउंडेशन के साथ नज़र आईं. उनके बाल जेट-ब्लैक कलर से रंगे होते थे. कत्थक नृत्यांगना सास्वती सेन याद करती हैं, कैसे सितारा देवी ने तीन घंटे की एक कत्थक प्रस्तुति के दौरान तीन बार कॉस्ट्यूम बदला था.  सितारा देवी कहा करती थी कि ‘‘यह डांसर की ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपने परफ़ॉर्मेंस के दौरान दर्शकों को पूरे समय तक बांधे रखे. यह काम अपने हावभाव और मुद्राओं के साथ-साथ पहनावे में बदलाव लाकर भी किया जा सकता है.’’

सितारा के माथे पर शोभा देती बड़ी-सी बिंदी और उनके खुले हुए बाल ऐसा महसूस कराते, मानो वे एक वीरांगना हों. जब उन्हें ज़रूरत से अधिक सजने-संवरने से जुड़े ताने सुनने पड़े तो उन्होंने उनका सामना साहस के साथ किया. आखिर यह साहस उन्हें विरासत में मिला था.

सितारा देवी  को जीवन में बहुतेरे सम्‍मान मिले।  संगीत नाटक अकादमी सम्मान 1969 में मिला। इसके बाद इन्हें पद्मश्री 1975 में मिला। 1994 में कालिदास सम्मान से सम्मानित किया गया। बाद में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण दिये जाने की घोषणा की गयी जिसे सितारा देवी ने यह कहकर लेने से इंकार कर दिया कि  क्या सरकार मेरे योगदान को नहीं जानती है? ये मेरे लिये सम्मान नहीं अपमान है। मैं भारत रत्न से कम नहीं लूंगी। कुछ लोग इसे उनका अहंकार मान सकते हैं, पर यह तो उनका स्वभाव ही था कि वे जीवन से हमेशा सर्वश्रेष्ठ की मांग करती थीं, क्योंकि वे ख़ुद जीवन को हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देती थीं. सितारा देवी ने 25 नवंबर 2014 को मुंबई के जसलोक अस्‍पताल में इस संसार से विदा ली पर वे वाकई कलाकारों संगीतकारों के की गैलेक्‍सी में एक सितासे की तरह थीं जिसने संगीत के प्रशस्‍त  मंच पर में अपनी कलाकारिता का भव्‍य प्रदर्शन कर ओझल हो गयीं। कहा जाता है कामयाब लोग मर कर भी अमर हो जाते हैं। नास्‍तियेषां यश:काये जरामरणंभयम्। उनकी यशोकाया आज भी संगीत की अनुगूंजों में जीवित है और सदियों तक जीवित रहेगी।

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राजेंद्र शर्मा

वाणिज्य कर अधिकारी

वाणिज्य कर भवन

जैड 320 सैक्टर 12

नोएडा 201301

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रमाकांत जी की ऊर्जा हमारे मध्य सदैव रहेगी

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कल अचानक प्रसिद्ध ध्रुपद गायक रमाकान्त गुंदेचा का निधन हो गया। उनकी गायकी कि याद करते हुए प्रवीण झा ने बहुत सारगर्भित लेख लिखा है- मॉडरेटर

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आम लोगों के लिए हिंदुस्तानी संगीत सुनने की शुरुआत अक्सर जबरदस्ती ही होती है। यह ‘कल्ट’ बनाने वाला मामला होता है कि एक को पसंद है, तो दूसरे को भी खींच लाया। जब अमरीका में ‘स्पिक-मकै’ की शुरुआत विद्यार्थियों के मध्य हुई तो बड़ी मुश्किल से चार लोग पकड़ कर लाए गए थे। मेरे आने तक तो फिर भी तीस-चालीस लोग पहुँच ही जाते थे। समझ किसी को ख़ास थी नहीं; लेकिन लगता कि जब पढ़-लिख कर कुछ बड़ा शोध करने अमरीका पहुँच गए तो भला संगीत ऐसा क्या रॉकेट साइंस होगा? चार राग सुन लो, सब स्पष्ट हो जाएगा। कुछ को यह ‘कॉम्प्लेक्स’ भी होता कि फलाँ समझता है, सुनते हुए हाथ से अपनी जींस पर थाप देता है, गुनगुनाता है, और हमें कुछ हवा ही नहीं लगती। तो छुप कर कमरे में बंद होकर हेडफ़ोन लगाए सुनते कि शायद आज समझ आ जाए। इसी जद्दो-जहद में एक गुणी मित्र ने पहली बार उन्हें सुनवाया।

पहले पाँच मिनट कुछ अजीब सी ध्वनियाँ सुनाई देती रही, जिनका कुछ अर्थ ही नहीं। जब दस मिनट निकल गए तो धैर्य जाता रहा कि मुझसे न हो पाएगा। फिर मित्र ने कहा कि पखावज की थाप का इंतजार करो। अब एक लक्ष्य मिल गया, तो इंतजार करने लगा। धीरे-धीरे मालूम पड़ा कि ध्वनि बदल रही है। एक नहीं, दो लोग गा रहे हैं। और यह सब बड़ी सफाई से हो रहा है, जैसे हॉकी के बॉल पास हो रहे हों। एक स्वर की ऊँचाई तक ले जाता है, दूसरा उसे बड़ी सावधानी से बचते-बचाते आगे ले जाता है, और मौका देख कर फिर से पहले को पकड़ाता है। यह तो कमाल का खेल है! और जैसे ही पखावज की ध्वनि सुनाई दी, लगा कि रणभेरी बज गयी है।

मित्र ने उत्साहित होकर कहा, “धमार!”

अब उस वक्त अर्थ मालूम न था, लेकिन मेरे दिमाग में भी मिलता-जुलता ही शब्द था। यह वाकई धमाल था। वे अब गाने लगे थे,

“झीनी झीssनी झीनी झीssनी बीनी चदरिया,

काहै के ताना, काहै के भरनी।

कउन तार से बीनी चदरिया,

इंग्ला पिंग्ला ताना भरनी,

सुखमन तार से बीनी चदरिया

आठ कंवल दल चरखा डोले

पाँच तत्व गुन तीनी चदरिया।”

इसके बाद अगले कई दिन बस दिमाग में यही चलता रहा। प्रयोगशाला में प्रयोग करते, कॉफी पीते, टहलते, यहाँ तक कि स्क्वाश का खेल खेलते भी ‘झीनी चदरिया’।

यह कबीर का भजन है। और जो गायन-वादन कर रहे थे- वे थे तीन भाई। उमाकांत, रमाकांत और अखिलेश गुंडेचा। और इन तीनों भाइयों का परिवार हमारे-आपके जैसा परिवार है। ये किसी संगीत घराने या खानदानी ध्रुपद-बानी से नहीं थे। यूँ कहिए कि ये संगीत के जनतंत्र की पहली पौध में से थे। संगीत का जनतंत्र!

पहले संगीत एक खानदानी संपत्ति थी। लेकिन जब राजा-महाराजा गए, तो घराने बिखरने लगे। तानसेन-बैजू बावरा का ध्रुपद तो लुप्त-प्राय होने लगा। खयाल गायकी ही मंचों की शोभा बनती। ऐसे समय में डागर परिवार ने भोपाल में ध्रुपद संस्थान के माध्यम से नयी शुरुआत की। उन्होंने अपना संगीत सबके लिए खोल दिया। उसी मध्य जिया फरीदुद्दीन और मोहिउद्दीन डागर साहब की कक्षा में सरकारी छात्रवृत्ति के साथ चुने गए गुंडेचा बंधु। और इस तरह न सिर्फ परिवार बल्कि धर्म के बंधन को तोड़ कर संगीत का जनतंत्र स्थापित हुआ। लेकिन, जैसे राजनैतिक जनतंत्र खिचड़ी बन कर रह जाती है, संगीत में भी सबके पास ज्ञान नहीं पहुँच पाता। ध्रुपद संस्थान में कई लोग आए-गए, बाद में गुंडेचा बंधुओं ने भी कई छात्रों को सिखाया, लेकिन ध्रुपद तो कठिन साधना है। पुलुस्कर जी ने एक बार कहा था, “जब तानसेन स्वयं दूसरा तानसेन न पैदा कर सके, तो मैं कहाँ से दूसरा पुलुस्कर पैदा करूँ?” लेकिन डागर परिवार ने कम से कम एक अपने जैसी जोड़ी दुनिया को दे दी।

जब मैंने उमाकांत जी और रमाकांत जी को पहली बार देखा, तो वे अपने ट्रेडमार्क तसर सिल्क के कुर्ते और नेहरू जैकेट में थे। उमाकांत जी दो ही साल बड़े थे, लेकिन एक-एक बाल सफेद। और छोटे गुंडेचा यानी रमाकांत जी के काले घने बाल। दोनों की चाल-ढाल से भी लगता कि एक पीढ़ी का फर्क है। रमाकांत जी मंच पर भी नए जमाने के ‘टेक्नो-फ्रीक’ व्यक्ति नजर आते। आइ-पैड पर तानपुरा का ऐप्प सेट करते। उमाकांत जी को ख़ास समझ नहीं आता, ऐसा लगता था। यह रमाकांत जी का विभाग था।

इन दोनों के हाव-भाव से यह लगता कि ये बड़ी बारीकी से श्रोताओं पर ग़ौर कर रहे हैं। ध्रुपद गायकी को अगर खयाल गायकी के बराबर जनप्रिय बनाना है, तो यह बहुत जरूरी है कि श्रोताओं को जोड़ लिया जाए। और यहीं कहीं कबीर फिट होते हैं। यह प्रयोग आज तक किसी ने ध्रुपद के साथ कम ही किया था; हालांकि दरभंगा घराने में निर्गुण, विद्यापति, भजन गाए जाते रहे लेकिन फिर भी ध्रुपद गायक संस्कृत-निष्ठ पद ही अधिक गाते। कबीर, मीरा के पदों को गाना दुर्लभ था। स्वयं तानसेन ने समकालीन तुलसीदास के पद नहीं गाए। और गुंडेचा बंधुओं ने छायावादी कवियों को भी पक्के ध्रुपद शैली में गाया। यह समय की नब्ज पकड़ना सबके बस की बात नहीं। और कहीं न कहीं लगता है कि इस प्रयोगधर्मिता में उस आइ-पैड हाथ में लिए रणनीति बनाते रमाकांत जी की भूमिका होगी। उमाकांत जी की सात्त्विकता और रमाकांत जी के नित नए प्रयोगों से ही यह जमीन तैयार हुई होगी।

एक और बात सुनी थी। किसी बड़े जलसे में रमाकांत जी बैकस्टेज अक्सर पूछते, “कौन-कौन से राग गाए गए? अच्छा! बिहाग  हो गया, तो हम चारुकेशी गाएँगे।”

कई जलसों में एक ही राग सभी गाते चले जाते हैं, और श्रोता पक जाते हैं। रमाकांत जी इस बात को बखूबी समझते थे कि अब वह जमाना गया कि पहले से सोचा-समझा राग जाकर गा दें। अब तो पिच की हालत देख कर बैटिंग करने उतरना होता है।

और सबसे बड़ी बात। उन्हें यह भी समझ आ गया था कि अधिकतर श्रोताओं को संगीत की रत्ती भर समझ नहीं। कुछ अभिजात्य परिवार से यूँ ही सज-धज कर आगे की कुर्सियों पर बैठे हैं, कुछ शौक से आए हैं, कुछ यूँ ही पकड़ कर लाए गए हैं, और कुछ बस आ गए। अब इस भीड़ के सामने क्लिष्टतम संगीत गाना है, तो भला क्या जुगत लगायी जाए? वे पालथी मार कर बैठ जाते, सबकी आँखों से आँखे मिलाते, जाँघ पर थाप देते, हाथों पर थाप देते, हस्त-मुद्राओं से, अपनी भौं और मस्तक की भंगिमाओं से संपर्क बनाए रखते। मजाल है कि कोई सो जाए। धीरे-धीरे लोगों को समझ आने लगता कि यह गमक नाभि से निकल कर आ रही है, यह गले से, यह हृदय से। वे गाते हुए इशारों से यह समझाते चलते कि देखो स्वर को कहाँ से उठाया और कहाँ निकाल कर रख दिया।

जब रमाकांत जी के असमय देहांत की खबर मिली, मेरे मन में उनके संगीत जाने से अधिक उनके मानस के जाने का दु:ख हुआ। संगीत तो डब्बों में बंद मिल जाएगा, लेकिन वह वैज्ञानिक कहाँ मिलेगा? आज जब संगीत नयी पीढ़ी से छूटता जा रहा है, तो ऐसे व्यक्ति की जरूरत महसूस होती है जो सुलभता से समझाए। उनकी तरह किताब लिख कर, पढ़ा कर, विद्यार्थियों के मध्य जाकर  प्रसार करे। सोशल मीडिया में भी उनकी सक्रियता गज़ब की थी। गुंडेचा बंधु का संगीत यथासंभव ऑनलाइन लाइव होता। यू-ट्यूब पर सैकड़ों रिकॉर्डिंग मिल जाएगी। जहाँ लोग दिल्ली-बंबई-कलकत्ता में संगीत की जमीन ढूँढ रहे हैं, वे देश के केंद्र भोपाल से शंखनाद करते। उनके संस्थान में दक्षिण भारत से, और भिन्न-भिन्न देशों से लोग आते। कभी कहा जाता कि ध्रुपद की खरज महिलाओं के बस की नहीं, वहीं गुंडेचा जी ने कई महिलाओं को ध्रुपद सिखा दिया। और-तो-और पाकिस्तान को पहली महिला ध्रुपद गायिका गुंडेचा बंधु ने ही दी, और वह भी एक नेत्रहीन महिला! सभी भ्रांतियाँ, सभी पूर्वाग्रह, सभी रूढ़ मापदंड तोड़ कर एक नयी स्थापना, एक नव मार्गी संगीत का सृजन किया।

अब उन ध्वनियों में एक ध्वनि ही मौजूद रहेगी। लेकिन उमाकांत जी को ही कभी कहते सुना था कि हम तीनों भाइयों का भिन्न स्वरूप नहीं है, हम एक ही ध्वनि, एक ही संगीत हैं। रमाकांत जी की ऊर्जा हमारे मध्य सदैव रहेगी। जो चादर उन्होंने बड़े जतन से ओढ़ी थी, ज्यों की त्यों धर कर चले गए। रमाकांत जी की ध्वनि स्पष्ट मन में गूँज रही है—

“दास कबीर जतन कर ओढ़े, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया। झीनी चदरिया।”

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हृषीकेश सुलभ के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘अग्निलीक’का अंश

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हृषीकेश सुलभ हिंदी के उन चुनिंदा लेखकों में हैं जो लोक और शास्त्र दोनों में सिद्ध हैं। उनका पहला उपन्यास ‘अग्निलीक’ प्रकाशित होने वाल है। यह उपन्यास घाघरा नदी के आसपास के गाँवों के इतिहास-वर्तमान की कथा के बहाने बिहार की बदलती जातीय-राजनीतिक संरचना की कथा कहता है। उनकी कहानियों की तरह ही इस उपन्यास की स्त्रियाँ बदलाव की धुरी की तरह। बहुत दिनों बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जो लगभग महाकाव्यात्मक संभावनाओं वाला है। फ़िलहाल आप अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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सरपंच अकरम अंसारी झूमते-झामते अपने घर पहुँचे। रेशमा के अंतःपुर से निकले तो पैदल ही थे, पर निकलते ही देवली बाज़ार में किसी युवक की मोटर सायकिल के पीछे लद कर अपने दरवाज़े तक पहुँचे। उनके फूफीज़ाद भाई, दोस्त और ड्राइवर मुन्ने मियाँ बेचैनी से उनका इंतज़ार कर रहे थे। दाँत पीसते हुए मुन्ने बोले, ‘’सारे जवार में हड़कम्प मचा है और तुम मौज मनाने में लगे हो।‘’‘‘

     ‘‘’’आजकल हमारी मौज से तुम्हारी छाती बहुत फटने लगी है मुन्ने।‘’ सरपंच ने जवाब दिया।

     ‘‘’’जब गरदन में फँसरी लगेगी तब पता चलेगा तुमको!’’ मुन्ने कुढ़ते हुए बोले।

     ‘‘’’बहुत लबर-लबर बतियाने लगे हो आजकल।‘’ सरपंच अकरम अंसारी ने पहले तो मुन्ने मियाँ को डपट दिया। फिर हालात को समझ मुलायम हुए और बोले, ‘’हम कौन क्राइम किए हैं कि हमारे गरदन में फँसरी लगेगी? मडर का मामला है, इसमें सरपंच का कौन काम? पुलिस जाने और मुखिया जाने।‘’‘‘

     ‘‘ ‘’तुम ग़ायब रहोगे तो पुलिस को शक-शुबहा नहीं होगा?’’ मुन्ने मियाँ ने फिर उनकी कमान कसी।

     ‘‘ ‘’कानून कम पादो। समझे…..? पुलिस को काहे शक-शुबहा होगा?’’ सरपंच के क्रोध का पारा आसमान छू रहा था।

     ‘‘’’तुम्हारे पंचायत में मडर हो जाए और तुम घर-दुआर-गाँव छोड़ कर……’’‘‘

     ‘‘ ‘’अरे तो हम कौन दिल्ली-बम्बई गए थे।……बुला काहे नहीं लिये?’’ चीख़े अकरम अंसारी।

     ‘‘ ‘’तुमको पहिले ही कह चुके हैं कि हम उस मुँहज़ोर औरत के दुआर पर नहीं जाएँगे तुमको खोजने।‘’ मुन्ने आज अकरम अंसारी की बात सुनने को तैयार नहीं थे।

     ‘‘ ‘’हो गया…. हो गया। तकरीर मत झाड़ो। बंद करो अब। समझ रहे हैं तुम्हरा गुस्सा। तुमको असल चिढ़ मेरे वहाँ रहने से है।…. बकलोल नहीं हैं हम। सब बूझते-समझते हैं मुन्ने मियाँ। ऐसी ख़राब औरत भी ना है कि तुम उससे घिनाओ।‘’ अकरम अंसारी का मिज़ाज ऊपर-नीचे हो रहा था। वह अभी न तो मुन्ने की तक़रीर सुनना चाहते थे और न उनसे उलझना चाहते थे।

     ‘‘’’जहन्नुम है हरामज़ादी। औरत तो है ही नहीं। ……मरदमार है।‘’ मुन्ने बिफर उठे।

     ‘‘’’अब चलो भी। ………शमशेरवा साला रात में अकेले निकला काहे था!……..समझ में नहीं आ रहा कि ऐसी ग़लती किया काहे! ……..सुने हैं कि रेत दिया है सब।‘’ अकरम ने कहा।

     ‘‘’’ख़ाली रेता ही नहीं है, ……..दोनों हाथ का लुलुहा काट दिया है। …..एक गोड़ के जाँघ पर और दूसरे गोड़ के फिल्ली पर काटा है। फिल्ली लटक गई है। कसाई का करेजा भी काँप जाए ऐसे मारा है सालों ने।‘’‘मुन्ने मियाँ के चेहरे पर अवसाद और क्रोध की गहरी छायाएँ आ-जा रही थीं।

     ‘‘’’मुखिया थे?’’ पूछा सरपंच अकरम अंसारी ने।

     ‘‘’’मुखिया भी लापता हैं।‘’‘‘

     ‘‘’’पटना धर लिया होगा।‘’‘‘

     ‘‘‘’लोग कह रहे हैं कि परसों से ही नहीं हैं गाँव में। समधियाना गए हैं।‘’‘‘

     सरपंच अकरम अंसारी की बोलेरो गाड़ी जब मौक़ा-ए-वारदात पर पहुँची, पुलिस बजरंगी डोम का मनावन करने में लगी थी। साम-दाम-दंड-भेद सब अपना कर दारोगा थक चुका था, पर बजरंगी था कि बिना दारू के लाश उठाकर ठेला पर लादने को तैयार नहीं था और पुलिस एक पाई खरचने को तैयार नहीं थी। सरपंच के आते ही माहौल में थोड़ी हलचल हुई। दारोगा बोला, ‘’का महराज? आप लोग तो गजबे हैं! मुखिया-सरपंच दोनों फरार। वकुआ हुए बारह घन्टे बीत गए और आप लोगों का कोई पता-ठिकाना नहीं है। ……इस गाँव का डोम साला इतना मुँहजोर है कि पुलिस-परसासन की बात सुनने के लिए तैयार नहीं। पकड़ के ठेल दें तो आपही लोग करेजा कूटने लगिएगा कि सिडीयुल कास्ट पर पुलिस अत्याचार कर रही है।‘’‘‘

     ‘‘’’का रे बजरंगी? का बात है?’’ सरपंच ने बजरंगी से पूछा।

     ‘‘’’कुछो नहीं मलिकार। बिना पाउच मारे लहास उठेगा भला!’’‘‘

     ‘‘’’अरे! सरकारी काम दारू पी कर करेगा?’’ सरपंच ने आँखें तरेरते हुए कहा।

     ‘‘’’हजूर! हम कवनो सरकारी साहेब तो हैं नहीं कि आँख नचाए…., जीभ हिलाए, …….काम खतम। लहास उठाने के लिए कठकरेज बनना पड़ता है। ……बिना दारू के करेजा में बूता आयेगा भला!’’‘बजरंगी अपने रंग में था। जान रहा था कि ज़रा भी नरम हुआ कि चढ़ बैठेंगे सरपंच साहेब।

     ‘‘जाओ, अच्छेलाल के पास। हमारा नाम लेना। हवा-बयार माफ़िक जाओ और पाउच मार के लौटो।…. साले, चिखना के फेर में मत पड़ना।‘’ सरपंच ने रपेटते हुए कहा।

     हलवाही से छूटे बैल की तरह कलाली की ओर भागा बजरंगी।

     सरपंच अकरम अंसारी के पहुँचने के बाद देवली के लोग भी धीरे-धीरे  सिमट कर लाश के पास आ गए थे। इस बीच कोई जाकर सूरत पाँड़े के घर से प्लास्टिक वाली कुर्सियाँ उठा लाया था। थानेदार और सरपंच भुतहे पाकड़ वृक्ष के नीचे बैठे थे। लाश दो मरियल सिपाहियों, मनरौली और देवली के चौकीदारों के हवाले थी।

     ‘‘’’मुखियाजी नहीं दिख रहे हैं! …….ख़बर नहीं है क्या?’’ सरपंच अकरम अंसारी ने पूछा।

      ‘‘’’अब आप न बताइएगा कि मुखियाजी काहे नहीं हैं। उल्टे हमसे पूछ रहे हैं कि….’’‘‘ दारोगा खीझा हुआ था। ‘’सुन तो रहे हैं कि समधियाना गए हैं …..पटना।‘’‘‘

     ‘‘’’इत्तिला कीजिए….. कि जल्दी पहुँचें। …..इतना भारी कांड हुआ है। समधियाना में बैठे रहने से थोड़े काम चलेगा।‘’ सरपंच अकरम अंसारी दारोगा को भड़काने की कोशिश कर रहे थे।

     ‘‘इस पंचायत के सरपंच आप, …….इस पंचायत के आदमी का मडर, ……आ मुखिया को हम खोजते फिरें? ……वाह! गजबे बतियाते हैं आप भी। अरे भाई आप लोग पुलिस-परसासन को खोजिएगा….. कि हम खोजेंगे आपको?’’ दारोगा की खीझ बढ़ रही थी और आवाज़ ऊँची हो रही थी। ‘’आए हैं तब से मोबाइल टीप रहे हैं। माबाइलो बंद कर दिए हैं मुखियाजी।‘’‘‘

     बजरंगी जिस गति से अच्छेलाल साह की कलाली पर गया था, उसी गति से वापस लौटा। इस बीच सरपंच ने ठेला वापस करवा कर अपने गाँव मनरौली से ट्रॉली सहित ट्रैक्टर मँगवाया। ट्रैक्टर की ट्रॉली में पटरा लगा कर लाश चढ़ाने के लिए ढाल बनाई गई। पाउच-पान के बाद बजरंगी का कर्त्तव्यबोध उफ़ान पर था। उसने अकेले घसीट कर लाश को ट्रैक्टर की ट्रॉली में लाद दिया। दारोगा ने शमशेर साँई की लाश को सिपाहियों और चौकीदारों के साथ विदा किया।

     देवली से सीवान का रास्ता हसनपुरा थाना होकर ही गुज़रता था। लाश को हसनपुरा थाना होते हुए काग़ज़ी कार्रवाई के बाद सीवान ज़िला अस्पताल पोस्टमार्टम के लिए जाना था। दारोगा ख़ुद सरपंच अकरम अंसारी के साथ बोलेरो पर बैठकर निकला। देवली पार करते ही बोलेरो ने ट्रैक्टर को पीछे छोड़ दिया। दारोगा ने सरपंच से पूछा, ‘’का सरपंच साहेब, ……अकेले-अकेले महकिएगा का?’’‘‘

     ‘‘’’आप देवली में काहे नहीं बोले? नहवा देते।‘’‘सरपंच अकरम अंसारी ने कहा, ‘’अब राहे-घाटे आपको थोड़े नहवाएँगे!’’‘‘

     ‘‘ ‘’मानिकपुर बाज़ार पर रोकते हैं गाड़ी। ……करमासी में भी मिल जाएगा।‘’ मुन्ने उत्साहित हो रहे थे।

     ‘‘’’पीछे से आ रहा है सब लाश लेकर, ……देखेगा सब तो का कहेगा?’’ सरपंच हिचकिचाए।

     ‘‘’’कवन मादरचोद कहेगा? …….मार के खलड़ी उधेड़ देंगे। …….करमासी ठीक रहेगा। मानिकपुर के लिए रास्ता बदलना पड़ेगा और वहाँ तरह-तरह के लोगों का जुटान रहता है। ……करमासी में रुक के फटा-फट मिजाज बना लेते हैं।‘’ बेचैन हो रहे दारोगा ने कहा।

     बोलेरो को करमासी बाज़ार से आगे निकाल कर रोक दिया मुन्ने मियाँ ने। उतर कर कलाली तक गए। कलाली वाला दारोगा और सरपंच की सेवा में चखना के साथ दारू लिये भागता हुआ आया। बोलेरो में बैठे-बैठे दारोगा और सरपंच ने गला तर किया। ….मिज़ाज बनाया और ट्रैक्टर के आने से पहले निकल गए।

     इसके पहले कि अकरम अंसारी के साथ दारोगा और लाश लिये हुए ट्रैक्टर हसनपुरा थाना पहुँचता वहाँ लोगों का हुजूम जमा हो चुका था। आसपास के गाँवों – अरजल, मानिकपुर, मेरहीं, कोल्हुआँ, कुम्हरौता, मधवापुर, महुअल, हँड़सर आदि से लोगों का ताँता लगा हुआ था। ट्रैक्टर अभी पीछे था। भीड़ देख कर दारोगा का सिर चकरा गया। अकरम अंसारी का नशा भी हिरन हो गया। भीड़ के बीच से किसी ने ‘शमशेर साँई ज़िन्दाबाद’‘का नारा उछाला और जवाब में जब भीड़ ने ‘’ज़िन्दाबाद-ज़िन्दाबाद’‘ की हुंकार भरी, दारोगा की देह में झुरझुरी भर गई। इस हुंकार की सरपंच अकरम अंसारी पर अलग प्रतिक्रिया हुई। वह बोलेरो से कूद कर, उसकी छत पर चढ़ने लगे। पहली कोशिश में पाँव फिसला, पर तब तक ड्राइविंग सीट से उतर कर मुन्ने मियाँ उनके पास आ चुके थे। मुन्ने मियाँ ने फिसलते अकरम अंसारी को उनके पिछुआड़े हाथ लगा कर सम्भाल लिया और ठेल-ठाल कर ऊपर चढ़ा दिया।

     सरपंच अकरम अंसारी ने हवा में हाथ लहराया। अकरम अंसारी को देख भीड़ में जोश की लहर दौड़ गई। अब अकरम अंसारी नारे लगा रहे थे और भीड़ साथ दे रही थी। शमशेर साँई ज़िन्दाबाद के अलावा हत्यारों को तत्काल गिरफ़्तार करने, सीबीआई से जाँच करवाने, कलक्टर को बुलाने और मुआवज़े की माँग के लिए नारे लग रहे थे।

     लाश पहुँची। पुलिस के लिए भीड़ को सम्भालना कठिन हो रहा था। थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े ने दाँत पीसते हुए दारोगा से पूछा, ‘’भोंसड़ी के, बारात लेकर आने के लिए पाँच घन्टे से देवली में डेरा डाले हुए थे का? ……..हरामी साले, का कर रहे थे देवली में?’’‘‘

     दारोगा ने मौन रह कर थानाध्यक्ष के आशीर्वाद को ग्रहण किया। पर ? थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े बदहवासी में दारोगा पर बरस रहा था। ‘’हिंया हमारी फट रही है तब से और तुम तीरथ कर रहे थे? ……..देवली में गंगाजल पी रहे थे? महकते हुए आ रहे हो! …….साले दंगा हुआ तो अपने भी जाओगे और हमको भी रसातल में ले जाओगे। …….कटुआ सब के मामले में नौकरी जाते देर नहीं लगती है। अब उजबक की तरह मुँह मत ताको। कागज-पत्तर दुरुस्त करो और लाश ले कर भागो सीवान। …..ई साले अकरमवा को तो हम बाद में नाथेंगे।‘’‘‘

     दारोगा के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े की ख्याति से पूरा ज़िला पुलिस परिचित थी। वह अपने कल-बल-छल से केवल अपराधियों को ही नहीं, अपने मातहतों तक का ख़ून पीने में माहिर था। दारोगा ने जवाब देने से बेहतर समझा कन्नी काट जाना। वह पुलिसिया दस्तावेज़ की तैयारी में लग गया।

     भीड़ की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी और नारों का शोर आसमान छू रहा था।

     हसनपुरा थाना की क्षमता सीमित थी। सिपाहियों की संख्या इतनी नहीं थी कि अगर भीड़ आक्रामक हो जाए तो उस पर क़ाबू किया जा सके। थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े को लग रहा था कि अभी भी मामला हाथ में है। थोड़ा कस-बल दिखाया जाए, ……..थोड़ी हिकमत लगाई जाए तो इस बला को टाला जा सकता है, सो वह जुगत सोचने लगा। इस बीच भीड़ ट्रैक्टर के आगे छाती ताने खड़ी थी कि चाहे जो हो जाए लाश को चिराईघर नहीं जाने  दिया जाएगा। सरपंच अकरम अंसारी बोलेरो की छत पर सवार नारे लगवा रहे थे। तमाम कोशिशों के बावजूद वे दारोगा की सुनने को तैयार नहीं थे।

     थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े ने एक सिपाही से सरपंच अकरम अंसारी के लिए संदेश भिजवाया। सिपाही ने बोलेरो की छत पर चढ़कर अकरम अंसारी के कान में मुँह सटा कर संदेश दिया। अकरम अंसारी ने भीड़ से कहा, ‘’कलक्टर साहब का फोन आया है। ……..हमसे बतियाना चाह रहे हैं। सुन कर आते हैं हम।‘’‘‘

     सरपंच अकरम अंसारी बोलेरो से नीचे उतरे और थाने के सहन में गँसी भीड़ के बीच राह बनाते हुए बरामदे की ओर बढ़ने लगे। इस बीच मुन्ने मियाँ ने अकरम अंसारी की जगह ले ली थी। अब मुन्ने मियाँ नारे लगवा रहे थे।

     अकरम अंसारी थाने का बरामदा पार कर भीतर पहुँचे। दाँत पीसते हुए मुस्कुराने और मुस्कुराते हुए गालियाँ उचारने में माहिर थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े ने कहा, ‘’आइए सरपंच साहेब! ……कवन कसूरे नाराज़ हैं भाई? …..आइए…….आइए।‘’‘‘

     गरभू पाँड़े ने अपनी कुर्सी छोड़ कर उनका स्वागत किया। अकरम अंसारी कुछ सोचें-बोलें इसके पहले गरभू पाँड़े ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया। दोनों बाँहें ऐंठ कर पीठ पर चढ़ा दी। पूछा, ‘’डाँड़ में कवन हथियार खोंसे हो?’’‘‘

     ‘‘’’पिस्तौल…..।‘’ अकरम घिघियाए।

     थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े ने उनका दायाँ हाथ छोड़ते हुए कहा, ‘’निकालो।‘’‘‘

     अकरम अंसारी ने पिस्तौल निकाल कर थानाध्यक्ष की मेज़ पर रख दिया। तीन सिपाही अकरम अंसारी के आगे दीवार की तरह तने थे। पीछे अकरम अंसारी की पीठ से छाती सटाए थानाध्यक्ष डटा हुआ था। थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े के इशारे पर एक सिपाही आगे बढ़ा और काग़ज़ से पिस्तौल की नली पकड़ते हुए उठाकर मेज़ के ड्राअर में बंद कर दिया। थानाध्यक्ष बोला, ‘’दारोगा ने रिपोट किया है कि वकुआ वाली जगह पर तुम्हारा असलाहा बरामद हुआ है। ……जाओ, लाश को सीवान तक पहुँचवाना और सीवान से लाकर कफ़न-दफ़न करवाना अब तुम्हारी जिम्मेवारी है। सब ठीक-ठाक हो जाए तो कल आकर ले जाना अपना फुटफुटिया।‘’‘‘

     सरपंच अकरम अंसारी जब तक कुछ समझें-बूझें पुलिसिया चक्रव्युह में घिर चुके थे और उनके गले में थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े ने फंदा डाल दिया था।

     सरपंच अकरम अंसारी अपने लुटे-पिटे चेहरे और काँपते पाँवों के साथ बाहर निकले। इस बार एक सिपाही ने उन्हें ठेल कर बोलेरो की छत के ऊपर चढ़ाया। उन्होंने भीड़ को बताया कि कलक्टर साहब ने वादा किया है कि चौबीस घन्टे के भीतर हत्यारों को गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। मुआवज़े और सीबीआई जाँच के लिए ऊपर के अधिकारियों को, …….होम मिनिस्ट्री को लिखा जा रहा है। पटना से ख़ुद डीजीपी साहब दौरे पर आ रहे हैं।

     लाश सीवान ज़िला अस्पताल के लिए रवाना हुई।

     धीरे-धीरे भीड़ थाना परिसर से निकल कर हसनपुरा बाज़ार में पसर गई। धूप नहीं थी। आसमान में बादल थे। काले और जल के बोझ से भारी, ….झुके हुए बादल। साँझ होते-होते बादलों के टूट कर बरसने के आसार थे।

     सरपंच अकरम अंसारी के साथ बोलेरो की अगली सीट पर बैठा दारोगा बुदबुदा रहा था। वह थानाध्यक्ष गरभू पाँड़े की महतारी-बहिन की ऐसी-तैसी कर रहा था। बोलेरो की तेज़ रफ़्तार से पीछे छूटती सड़क के किनारे खड़े शीशम के पेड़ों की क़तार को अकरम अंसारी मौन निहार रहे थे। मुन्ने मियाँ समझ नहीं पा रहे थे कि माज़रा क्या है! आख़िर हुआ क्या कि सरपंच उफनते दूध के झाग की तरह पझा गए!

( राजकमल प्रकाशन से सद्य: प्रकाशि‍त। )

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कथाकार-नाटककार-नाट्यसमीक्षक हृषीकेश सुलभ का जन्‍म 15 फ़रवरी, 1955 को बि‍हार के छपरा जनपद (अब सीवान जनपद) के लहेजी नामक गाँव में हुआ। आरम्‍भि‍क शि‍क्षा गाँव में हुई। आपकी कहानि‍याँ अग्रेज़ी सहि‍त वि‍भि‍न्‍न भारतीय भाषाओं में  अनूदि‍त-प्रकाशि‍त हो चुकी हैं। रंगमंच से गहरे जुड़ाव के कारण कथा-लेखन के साथ-साथ आप नाट्य-लेखन की ओर उन्‍मुख हुए। आपने भि‍खारी ठाकुर की प्रसि‍द्ध नाट्यशैली बि‍देसि‍या की नाट्य-युक्‍ति‍यों का आधुनि‍क हि‍न्‍दी रंगमंच के लि‍ए पहली बार अपने नाटकों में सृजनात्‍मक प्रयोग कि‍या। वि‍गत कई वर्षों से आप कथादेश मासि‍क में रंगमंच पर नि‍यमि‍त लेखन कर रहे हैं। आपकी प्रकाशि‍त कृति‍याँ हैं : कथा-संकलन तूती की आवाज़, जि‍समें तीन आरम्‍भि‍क कथा-संकलन पथरकट, वधस्‍थल से छलाँग और बँधा है काल शामि‍ल हैं। इसके अलावा कथा-संकलन वसंत के हत्‍यारे, हलंत और प्रति‍नि‍धि‍ कहानि‍याँ प्रकाशि‍त हैं। अमली, बटोही और धरती आबा तीन मौलि‍क नाटकों के साथ-साथ शूद्रक के वि‍श्‍वप्रसि‍द्ध संस्‍कृत नाटक मृच्‍छकटि‍कम् की पुनर्रचना माटीगाड़ी, फणीश्‍वरनाथ रेणु के उपन्‍यास मैला आँचल का नाट्यरूपान्‍तरण तथा रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की कहानी दालि‍या पर आधारि‍त नाटक प्रकाशि‍त हैं। रंगमंच का जनतंत्र और रंग अरंग शीर्षक से नाट्य-चि‍न्‍तन की दो पुस्‍तकें प्रकाशि‍त हैं।

अग्‍नि‍लीक अपका पहला और अभी-अभी प्रकाशि‍त उपन्‍यास है।

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हम क्या से क्या नहीं कर गुजरते हैं अपने प्रॉमिस लैंड की तलाश में!

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पूनम दुबे के यात्रा-संस्मरणों का अपना ही मज़ा है। हर बार उनके लिखे में एक न एक कहानी होती है। इस बार बेल्जियम है और एक कहानी-मॉडरेटर

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बेल्जियम के एक छोटे से शहर घेंट के बस डिपो पर बैठे हम इंतजार कर रहे थे अपनी बस के आने का. करीब बीस मिनट से भी ज्यादा समय बीत गया लेकिन अब तक एक भी बस नहीं आई थी. मेरा मन अब भी ब्रूज़ की दिलकश फेरी लैंड सी गलियों में उलझा था. अगर पहले से टिकट न बुक होती तो शायद एक दिन और रुक जाती वहीं ब्रूज़ में. खैर ट्रेन की टिकट को तो कैंसल भी किया जा सकता था. ज्यादा महँगी भी नहीं थी लेकिन यहाँ रात जिसके यहाँ हम रुकने वाले थे उसे मना करना सही नहीं लगा. इसलिए ब्रूज़ से एक बार फिर आने का वादा करके और अपने चॉकलेट में लिपटी आखिरी वाफ़ल की प्लेट लेकर दौड़ते हुए हमने अपनी ट्रेन पकड़ी थी. बेल्जियम छोटा देश जरूर है लेकिन खूबसूरती से मालामाल है. कुछ डेढ़ घंटे की ट्रेन यात्रा करते ही हम एक शहर से दूसरे शहर में आ गए थे. इससे ज्यादा समय तो मुझे मुंबई में अपने घर से ऑफिस पहुँचने में लगता था मन ही मन सोचा.

खैर आधा घंटे से ज्यादा समय बीत गया एक बार फिर घड़ी पर नज़र गई. कहीं आज कोई स्ट्राइक तो नहीं या फिर कोई हॉलिडे हो. क्या माजरा है. “पता नहीं था यूरोप में भी बस लेट होती है, ऐसा तो पहले नहीं हुआ” यही बातें मन में बुदबुदा रही थी कि न जाने कब हमसे कुछ दूरी पर दो नौजवान आकर बैठ गए. वह भी शायद बस का ही इंतजार कर रहे थे मैंने अंदाजा लगाया. हाथ में उनके बियर की बोतल थी. अपने देश में चाहे कितनी ही अंग्रेजी टीप लूँ लेकिन विदेश में मुंह से हिंदी ही फूटती है. उसके कई वजह है. सबसे पहली वजह यह कि विदेशियों को हमारी भाषा समझ नहीं आती. मतलब की भीड़ में भी प्राइवसी जैसा फील आता है. किसी भी चीज की चर्चा कर सकते हो खुलकर. समझ रहें हैं न, एकाध गाली-वाली भी मुंह से निकल गई तो कोई बुरा नहीं मानेगा क्योंकि समझ तो आनी नहीं है बात.

ख़ैर मैं बड़बड़ा रही थी, “यार यह लोग कितने बेवकूफ है इन्होंने कोई नोटिस बोर्ड वगैरह भी नहीं लगाया है. बस आएगी कि, नहीं आएगी! कब आएगी कुछ नहीं पता किसी से पूछना चाहिए न?”

“अच्छा एक काम करते हैं इन दोनों से पूछते हैं कि माजरा क्या है?”

 “धीरे से बोलो सुन लेंगे वह!”

 “सुन लेंगे.. झुंझलाहट मेरे शब्दों में से निकलकर पूरे बस स्टॉप के आस पास फैल गई.”

 “बस यही शब्द मेरे मुंह से फूटे ही थे कि उनमें से एक लड़का पास आकर बोला, “बस तो आज नहीं आएगी! आप  लोग बस का वेट कर रहे है?”

कद में छोटा, साँवला रंग, टी शर्ट और जीन्स पहनी थी उसने. मैंने सरसरी नजर डाली उस पर.

मेरे कान खड़े हो गए! ओह इसे हिंदी आती है. तो इसने सब सुन लिया. मैं मन ही मन सकुचा गई.

हम दोनों झट से पूछ बैठे, “आप हिंदुस्तान से हैं?”

वह मुसकुराया बोला, “जी नहीं मैं पाकिस्तान से हूँ. आप लोग कहाँ जाना चाहते है किस बस का इंतजार कर रहे है?”

हम जवाब देने ही वाले थे कि दूसरा बंदा हाथ में बियर की बोतल लिए अचानक ही सामने आ गया कहा, आप लोग इंडिया से है! मुझे इंडियन बहुत पसंद है. यह बंदा कद में काफ़ी लंबा था रंग में थोड़ा गोरा आँखें हल्के भूरे रंग की नाक थोड़ी लम्बी और शार्प लगी मुझे उसकी। कुछ हाई (नशे में) था इसका अंदाजा हमें हो गया उसके बोलने के अंदाज से. वैसे भी शनिवार की शाम थी. लोग एन्जॉय कर रहे थे.

“जी हम हिंदुस्तानी है! हम दोनों मुसकुरा दिए!”

“माशाअल्लाह! मैं अफ़ग़ान से हूँ.”

“इसलिए इसकी हिंदी इतनी साफ़ नहीं है.” मन ही मैंने सोचा.

चेहरे और रंग-रूप से यह कहना मुश्किल नहीं था कि वह यहाँ के मूल निवासी नहीं थे. “आपकी हिंदी तो अच्छी है!”

“हम पाकिस्तान में भी था दो साल इसलिए उर्दू सीख ली वहां। आप लोग हिंदी बोलते हैं इसे?”

“आप लोग भी घूमने आये हैं.” यह हमारा अगला सवाल था!

“नहीं नहीं! हम इधर एक फैक्ट्री में काम करता है आज छुट्टी है तो सोचा एन्जॉय करें, उसने अब अपने पाकिस्तानी दोस्त की तरफ़ देखा.” यह बहुत कम बोलता है यह कहकर वह अपनी आँखें बड़ी-बड़ी कर हंसने लगा. जैसे उसे ताना मार रहा हो.

“पाकिस्तानी लड़के ने सिर्फ एक हल्की मुस्कान दी.”

“अभी हम इधर सात साल से है. हमको हमारी बेटी की याद आती है. बिलकुल इधर के लोगों जैसी उसकी भी नीली आँखें है भूरे बाल, बिलकुल डॉल के जैसा!”

“वह पाकिस्तान में है क्या?”

“नहीं दोस्त! वो इधर की है. अभी पैरिस में है. तीन साल से अलग हो गए हम. हमारा डिवोर्स हो गया. गलती मेरी ही है. उसकी आवाज़ में अफ़सोस था. मैंने उसपर जोर दिया कि शादी के बाद तुमको हमारे मम्मी जैसे हिज़ाब पहनना चाहिए. उलटे वो बोली तुमको चर्च जाना चाहिए अभी तुम अफगान में नहीं रहता. इधर के जैसे रहो. हम कोई गोरा थोड़े ही है जो अपना मज़हब बदलेगा. उसके लिए मैंने फ्रेंच सीखा, खाना भी बनाता था लेकिन वह मेरी बात ही नहीं सुनती थी दोस्त.

कई जगह वह अंग्रेजी में बोले जा रहा था. नशे में लोग अकसर भावुक होकर ज्यादा बातें करते हैं.वह बिना रुके बोले जा रहा था.

“हम उसको बोला अब तो बेटी हो गई कम से कम उसको को सिखाओ हमारे मज़हब के बारे में लेकिन उसके रिश्तेदार सब मेरे ख़िलाफ़. एकदम ख़िलाफ़! हमसे वो आठ साल उम्र में बड़ा है फिर भी हम शादी बनाया उससे, तुम को तो मालूम है मजबूरी थी अपनी. अकेली रहती थी वह! उसको हमसे प्यार था. नया-नया आया था इधर हम! वरना एक से एक खूबसूरत लड़की होती है अफगान में! इतना कहते ही न जाने क्या सोचने लगा कुछ मिनटों के लिए.

“आपको उससे प्यार नहीं था क्या?” मैं फिर बोल पड़ी!

“अब कुछ कह नहीं सकता! हम अगर उससे शादी नहीं करता तो शायद हमको इधर के लोग वापस भेज देते. इतना मुश्किल से आया था इधर. हमें असाइलम में नहीं जाने था. इधर जो इल्लीगल होता है न उसको ये लोग वापस भेज देते है लेकिन अफ़गानी था इसलिए यह नहीं भेज सकते मुझे, नहीं तो”..

फिर न जाने क्या सोचने लगा. एक घूँट बियर की ली कुछ पल हमारे चेहरे को देखा. फिर निकाली गांजे की कश. (जहाँ तक मेरा अंदाजा था). उसे जलाया और एक लम्बी कश ली. आँखें उसकी लाल-लाल.

हम मुंह खोले उसके बोलने का इंतजार कर रहे थे. मैं भूल ही गई कि कुछ देर पहले मैं झल्लाई हुई थी और बस का इंतजार कर रही थी. आखिरकार कितनी बार जिंदगी में ऐसा मौका आता है कि इस तरह एक अनजान देश में इतनी दिलचस्प कहानी सुनने को मिले.

तुम को एक बात बोलूं दोस्त हम मौत से बचते-बचते आया इधर. दो दिन तो हम लोगों को ट्रक में रखा स्मगल करके. दस लोग थे उसके बाद तुर्की से बोट लेकर पहले ग्रीस पहुंचा। कुछ महीने उधर काम लिया लेकिन उधर भी गरीबी उससे ज्यादा आराम तो हमको पाकिस्तान में था. फिर हम कैसे-कैसे मुश्किल से पैरिस आया. हमने अपना पासपोर्ट फेंक दिया था मेरे साथ के अफगानी ने असाइलम ले लिया।

उधर ही मिला मैं ऐलिस से! हमको शादी करना था. उसको हमसे प्यार हो गया और हम भी उसको प्यार करता था. मेरी माँ नाराज़ हुई लेकिन हम माँ को समझाया। सब कुछ ठीक था लेकिन बच्ची हुआ तो  मेरा दिमाग घूम गया. और मैं उसको बोला तुमको मुस्लिम जैसे रहना चाहिए, लेकिन वह बहुत नाराज हुई. फिर एक दिन बेटी को लेकर चली गई. अगर अफ़ग़ान में होता न तो मेरी बेटी मेरे पास होती. अब मेरे पास डॉक्यूमेंट है. बेटी के जाने के बाद फ्रांस में रहने का मन नहीं किया तो इसलिए इधर ज्यादा पैसे मिलते है तो इधर की ही एक चिकेन की फैक्ट्री में काम कर लिया. हमारे दोस्त लोगों ने बोला जर्मनी आने का कोशिश कर, इंशाअल्लाह एक बार बस…

इसी बीच पाकिस्तानी बोला, “अब बस कर दोस्त! इसने खूब वीड मार ली है. हमें देखकर उसने अपनी दाईं आँख दबाई इशारा करके बोला, ज्यादा ही इमोशनल हो जाता है यह पीने के बाद! तुझे इतना याद आती है अपनी बच्ची की तो इतनी लड़कियों से बात क्यों करता है.” पाकिस्तानी लड़का ऐंठ कर बोला.

“अरे तो क्या कुंवारा बैठेगा क्या तेरे जैसा.” यह बोलकर खी-खी करके हंसने लगा. सोचता हूँ कभी कभी पाकिस्तान चला जाऊं लेकिन अब हमको उधर का जिंदगी नहीं अच्छा लगता। नहीं जमता उधर रहने में. इसलिए हम कब से इंतजार में है जर्मनी जाने के. एक बार हम बस उधर चला जाए.. हमारे पेपर में थोड़ा सा प्रॉब्लम है.

‘पेपर वाली बात मुझे’ तब समझ आई जब कुछ दिनों बाद हम बस की यात्रा करते हुए बेल्जियम से जर्मनी पहुंचे. उस रात करीब तीन बजे अचानक बस रुक गई. जर्मनी के बॉर्डर पर सभी यात्रियों के पासपोर्ट और ट्रैवल डॉक्यूमेंट की जांच होने लगी. ठीक-ठाक कागज़ात न होने बस में से क़रीब तीन लोगों को नीचे उतार दिया गया.

“जर्मनी ही क्यों?”

“क्यों कि दोस्त उधर ज्यादा कमाई है. उधर का डेली का पैसा इधर से ज्यादा है.”

मैंने मन ही मन सोचा हर कोई कहीं न कहीं पहुँचाना चाहता है. हर किसी को अपने प्रॉमिस लैंड की तलाश है.

हमारे लिए तो उसकी बाते किसी रोमांचक फ़िल्म सी थी. उसकी बातों ने मेरे मन में अमेरिकन नॉवलिस्ट की लिखी किताब “नॉट विथाउट माय डॉटर” की यादें मन में ताजा कर दी. कई साल पहले पढ़ी थी किताब मैंने।

करीब पचास मिनट हो गए थे. बोलने वाला बस वही अफगानी था और हम दोनों सुनने वाले. पाकिस्तानी उसे बीच-बीच में शांत कराता लेकिन नशे में वह भी था.

बाते चल ही रही थीं. बाकी तो कुछ ख़ासा याद नहीं क्योंकि वह सब बगराउण्ड नॉइस बन गया. लेकिन उसकी यह कहानी मेरे ज़ेहन में हमेशा के लिए कैद हो गई. पता नहीं कितना सच था कितना झूठ लेकिन बातें बेहद दिलचस्प थी.

“आप लोग किधर रुका है. आज इधर बस नहीं आएगा।“

“आप कहाँ जाने वाले हैं? हमने पुछा.

हम लोग तो बस इधर ही घूमेगा आज छुट्टी है न.”

“अच्छा.”

“चलो हमारे साथ बियर पीयेंगे, वीड मारेंगे बाते करेंगे।“

हम दोनों ने एक दूसरे को देखा. मन तो हम दोनों का था कि चले थोड़ी और गपशप मारे लेकिन फिर रिस्की भी लगा. पूरे सामान के साथ इस तरह किसी के साथ चले जाना कहीं पासपोर्ट न हथिया ले. ट्रैवेलिंग के समय के ऐसे किस्से बहुत सुने थे हमने जब यात्रियों के पासपोर्ट को छू मंतर कर दिया जाता है.

“जी नहीं, माफ़ कीजिये हमें जाना होगा. हमारी होस्ट हमारा इंतजार कर रही है. यह कहकर हमने उन्हें मना कर दिया और अलविदा कहते हुए पदयात्रा के लिए निकल पड़े. करीब एक घंटे चलकर हमने अपने होस्ट के घर पहुंचे। हैना नाम था उसका, वह म्यूजिशियन थी. उसका एक म्युज़िक बैंड भी था. जर्मनी से कई साल पहले आकर यहीं बस गई थी भीड़-भाड़ से दूर शांति की तलाश में!

उस अफ़गानी से मिली मुलाकात मुझे हमेशा याद रहेगी। कई दिनों तक मन में यह बात कौंधती रही कि हम क्या से क्या नहीं कर गुजरते हैं अपने प्रॉमिस लैंड की तलाश में !

खूब कहा है लियो टोलस्टोय ने वार एंड पीस में “चलने की ताकत रखने के लिए प्रॉमिस लैंड की दूरदर्शिता का होना जरूरी है”!

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रूसी लेखक सिर्गेइ नोसव की कहानी ‘छह जून’

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रूसी भाषा के लेखक सिर्गेइ नोसव की इस कहानी के बारे में अनुवादिका आ. चारुमति रामदास का कहना है कि यह एक ख़तरनाक कहानी है, सच में बहुत रोमांचक। मूल रूसी से अनूदित इस कहानी का आनंद लीजिए- मॉडरेटर

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मुझसे कहा गया है, कि मैं इस जगह को भूल जाऊँ – कभी भी यहाँ न आऊँ.
मगर, मैं आ गया.
काफ़ी कुछ बदल गया है, बहुत कुछ पहचान नहीं पा रहा हूँ, मगर इससे ज़्यादा भी बदल सकता था और काफ़ी बृहत् – ग्रहीय! – पैमाने पर! – तब दरवाज़े की सिटकनी तोड़कर मुझे बाथरूम में घुसना पड़ता!…
उम्मीद है, कि मुझे दस हज़ारवीं बार ये समझाने की ज़रूरत नहीं है, कि मैं क्यों बरीस निकलायेविच को गोली मारना चाहता था.
बस हो गया. खूब समझा चुका.
जब से मुझे आज़ाद किया गया है, मैं एक भी बार मॉस्को एवेन्यू पर नहीं गया था.
मेट्रो-स्टेशन “टेक्नोलॉजिकल इन्स्टीट्यूट” – यहाँ मैं बाहर निकला, और पैर मुझे ख़ुद-बख़ुद आगे ले चले. सब कुछ बगल में ही है. फ़न्तान्का तक (ये नदी है) धीमी चाल से छह मिनट. अबूखव्स्की ब्रिज. मैं और तमारा कोने वाली बिल्डिंग में नहीं, बल्कि बगल में रहते थे – मॉस्को एवेन्यू पर उसका नम्बर अठारह है. वाह : रेस्टॉरेन्ट “बिर्लोगा”! (‘बिर्लोगा’ शब्द का अर्थ है – माँद – अनु.). पहले यहाँ माँद-वाँद नहीं होती थी. पहले यहाँ सुपर मार्केट था, उसमें तमारा सेल्स-गर्ल थी. मैं “बिर्लोगा” में मेन्यू पर नज़र डालने के लिए घुसा. ख़ास कर भालू का माँस परोसा जाता है. ठीक है.
अगर ये “माँद” है, तो “माँद” के ऊपर वाली बिल्डिंग के कमरे को, जहाँ मैं तमारा के पास रहता था, “घोसला” कहना सही होगा.
अगर सब कुछ किसी और तरह से हुआ होता तो माँद के ऊपर वाले हमारे घोसले में आज म्यूज़ियम होता. छह जून वाला म्यूज़ियम. वैसे, मैंने म्यूज़ियम्स के बारे में सोचा नहीं था.
आँगन में आता हूँ, वहाँ लिफ्ट की सहायता से, जो मज़दूर को तीसरी मंज़िल तक की ऊँचाई तक ले गई है, चिनार के वृक्ष की क्रमश: छिलाई हो रही है. मज़दूर आरा-मशीन से एक-एक करके मोटी टहनियाँ काट रहा है, उनकी छिलाई कर रहा है. मैं इस वृक्ष का सम्मान करता था. वह ऊँचा था. वह अन्य वृक्षों की अपेक्षा जल्दी बढ़ता था, क्योंकि आँगन में उसे धूप नहीं मिलती थी. सन् ’96 और ’97 में इस चिनार के नीचे ज़ंग लगे झूलों में बैठकर सिगरेट पिया करता था ( बच्चों के प्ले-ग्राउण्ड में आज ठूँठ बिखरे पड़े हैं). यहाँ मेरी मुलाकात एमिल्यानिच से हुई. एक बार वह रेत के गढ़े के किनारे पर बैठा और, दवा की शीशी का ढक्कन खोलकर नागफ़नी का टिंचर गटक गया. मुझे एकान्त चाहिए था इसलिए मैं उठकर जाने लगा, मगर उसने मुझसे मेरे राजनीतिक विचारों के बारे में पूछा – हम बातें करने लगे. हमारे विचार समान थे. बरीस निकलायेविच के बारे में, जैसा अक्सर होता है ( उस समय सभी उसके बारे में बातें करते थे) और उस बारे में कि उसे मारना चाहिए. मैंने कहा, कि मैं न सिर्फ सपना देखता हूँ, बल्कि तैयार भी हूँ. उसने भी कहा. उसने कहा कि कि वह एक अफ्रीकन देश में, जिसका नाम ज़ाहिर करने का उसके पास फ़िलहाल अधिकार नहीं है, स्काऊट्स की टुकड़ी का नेतृत्व कर चुका है, मगर जल्दी ही ज़ाहिर कर सकेगा, और तब हम सबको मालूम हो जाएगा. पहले तो मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ. मगर उसके पास ब्यौरा था. काफ़ी ब्यौरा था. विश्वास न करना असंभव था. मैंने कहा कि मेरे पास मकारव है (मैंने दो साल पहले ही एफीमव स्ट्रीट के पीछे ख़ाली मैदान में ख़रीदा था). कईयों के पास हथियार थे – हम, हथियारों के मालिक, उसे करीब-करीब छुपाते नहीं थे. ( ये सच है, कि तमारा को मालूम नहीं था, मैंने मकारव को सिंक के नीचे पाईप के पीछे छुपा दिया था). एमिल्यानिच ने कहा, कि मुझे मॉस्को जाना पड़ेगा, प्रमुख घटनाएँ वहीं होती हैं – वहाँ ज़्यादा संभावनाएँ हैं. मैंने कहा कि मेरी खिड़कियाँ मॉस्को एवेन्यू पर खुलती हैं. और मॉस्को एवेन्यू से अक्सर सरकारी डेलिगेशन्स गुज़रते हैं. ग़ौर तलब है, कि पिछले साल मैंने खिड़की से प्रेसिडेन्ट की कारों का काफ़िला देखा था, उस समय बरीस निकलायेविच पीटर्सबुर्ग में आया था – चुनाव नज़दीक आ रहे थे. हम इंतज़ार करेंगे, और राह देखेंगे, वह फ़िर आएगा. मगर, एमिल्यानिच ने कहा, आख़िर तुम खिड़की से तो गोली नहीं चलाओगे, उनकी गाड़ियाँ बुलेट-प्रूफ़ होती हैं. मुझे मालूम था. मैंने, बेशक, कहा, कि नहीं चलाऊँगा. किसी और तरह से करना होगा, एमिल्यानिच ने कहा.
इस तरह मेरी उससे मुलाकात हुई.
मगर, अब तो चिनार भी नहीं रहेगा.
एमिल्यानिच गलत सोच रहा था, जब उसने ये फ़ैसला कर लिया (उसने शुरू में ऐसा सोचा था), कि मैं अपनी तमारा के साथ सिर्फ इसलिए रहता हूँ, क्योंकि यहाँ से मॉस्को एवेन्यू दिखाई देता है. इन्वेस्टिगेटर का, भी यही ख़याल था. बकवास! पहली बात, मैं ख़ुद भी समझता था, कि खिड़की से गोली चलाने में कोई तुक नहीं है, और अगर घर से निकलकर नुक्कड़ तक जाऊँ, जहाँ अक्सर सरकारी गाड़ियों का काफ़िला फन्तान्का की ओर मुड़ने से पहले रफ़्तार कम करता है, बख़्तरबन्द कार पर गोली चलाने में कोई तुक नहीं है. मैं कोई पूरा पागल, सिरफ़िरा नहीं हूँ. हाँलाकि, ये मानना पड़ेगा, कि मैं कभी-कभी अपनी कल्पना को खुली छोड़ देता था. कभी-कभी, स्वीकार करना पड़ेगा, कि मैं कल्पना करता था, कि कैसे रफ़्तार कम हुई कार के पास भागकर, गोली चला रहा हूँ, काँच की ओर निशाना साधते हुए, और मेरी गोली ठीक निशाने पर लगती है, और बस, पूरा शीशा चकनाचूर…और पूरा शीशा चकनाचूर…और पूरा शीशा चकनाचूर…
मगर, ये थी पहली बात.
और अब दूसरी.
मैं तमारा से प्यार करता था. और ये, कि खिड़कियाँ मॉस्को एवेन्यू पर खुलती हैं – ये इत्तेफ़ाक था.
वैसे, मैंने उन्हें एमिल्यानिच का नाम नहीं बताया, सब कुछ अपने ऊपर ले लिया.
मुझसे कहा गया है, कि तमारा को याद न करूँ.
नहीं करूँगा.
मेरी उससे मुलाकात हुई…मगर, वैसे, आपको इससे क्या फ़र्क पड़ता है.
उससे पहले मैं व्सेवलोझ्स्का में रहता था, ये पीटर्सबुर्ग के पास है. जब तमारा के यहाँ मॉस्को-एवेन्यू पर आ गया, तो व्सेवलोझ्स्का वाला फ्लैट बेच दिया, और उन पैसों को फ़ाइनान्शियल-पिरामिड (पोंज़ी स्कीम – अनु.) में लगा दिया. काफ़ी सारे फ़ाइनान्शियल-पिरामिड्स थे.
मैं तमारा से ख़ूबसूरती के लिए प्यार नहीं करता था, जो उसमें, ईमानदारी से कहूँ तो, दिखाई ही नहीं देती थी, और इसलिए भी नहीं, कि समागम के दौरान वह ज़ोर से मदद के लिए पुकारती थी, अपने पुराने प्रेमियों के नाम पुकारते हुए. मैं ख़ुद भी नहीं जानता कि मैं तमारा से क्यों प्यार करता था. वो भी मुझे प्रत्युत्तर देती थी. उसकी स्मरण शक्ति बेहद अच्छी थी. मैं अक्सर तमारा के साथ ‘स्क्रेबल्स’ खेलता था, इस खेल का एक और नाम है “एरूडाइट” अक्षरों को खेल वाले बोर्ड पर रखकर उनसे शब्द बनाना होता था. तमारा मुझसे अच्छा खेलती थी. नहीं, मैं कभी भी हारता नहीं था. मैंने उससे कई बार कहा, कि उसे किसी साधारण डिपार्टमेन्टल स्टोअर्स के ‘मछली-विभाग’ में नहीं, बल्कि नेव्स्की पर स्थित किसी किताबों की दुकान में काम करना चाहिए, जहाँ शब्दकोश और आधुनिकतम साहित्य मिलता है. ये आजकल लोग नहीं पढ़ते हैं. मगर उस समय काफ़ी पढ़ते थे.
पैर ख़ुद-ब-ख़ुद, मैंने कहा ना, यहाँ ले आए. देर-सबेर मुझे यहाँ आना ही था, चाहे मुझे इस बारे में याद करने से कितना ही क्यों न मना किया जाए, मैं यहाँ आ ही जाता.
बस उन दो सालों में, जब मैं तमारा के साथ रहता था चिनार बढ़ गया, चिनार के पेड़ जल्दी बढ़ते हैं, वे भी, जो पूरी तरह बड़े प्रतीत होते हैं. उनकी चोटी बढ़ती है, अगर मैंने सही तरह से न समझाया हो तो. अब समझ में आया? और जब देखते हो, कि कैसे तुम्हारी आँखों के सामने कोई चीज़ धीरे-धीरे बदलती है – एक या डेढ़ साल के दौरान, तब ये अंदाज़ लगाते हो, कि – इनके साथ-साथ. तुम ख़ुद भी बदल रहे हो. वो बदल रहा था, और मैं भी बदल रहा था, और चारों ओर की हर चीज़ बदल रही थी, और अच्छी दिशा में बिल्कुल नहीं, – हर चीज़, जो सिर्फ बढ़ रही थी, जैसे चिनार के पेड़ बढ़ते हैं – ख़ासकर वे, जिन्हें पर्याप्त धूप नहीं मिलती…संक्षेप में, मैं ख़ुद भी नहीं जानता था, कि चिनार मेरे दिल के करीब है, और ये बात, कि वो मेरे करीब है, मैं सिर्फ अभी समझा हूँ, जब देखा कि उसे काट रहे हैं. इतने सालों के बाद इस पते पर क्या सिर्फ यही देखने के लिए आना था, कि चिनार को कैसे काट रहे हैं! मेरे भीतर यादें जाग उठीं. वे ही, जिनके बारे में मुझे परेशान होना मना था.
उसकी तनख़्वाह काफ़ी कम थी, मेरी भी (मैं ऑर्डर पर टी.वी. सुधारता था – पुराने, सोवियत काल के, लैम्प वाले, उस समय वे बदले नहीं थे, मगर छह जून उन्नीस सौ सत्यानवें को सुधारना बंद हो गया था – ऑर्डर मिलने बन्द हो गए थे). मतलब, हम एक साथ रहते थे.
एक बार मैंने उससे पूछा (“एरूडाइट” खेलते हुए), कि क्या वह बरीस निकलायेविच पर हमला करने के काम में भाग लेगी. तमारा ने पूछा : मॉस्को में? नहीं, जब वह सेंट-पीटर्सबुर्ग आएगा. ओ, ये कब होने वाला है! – तमारा ने कहा. फिर उसने मुझसे पूछा, कि मैं इस सबके बारे में क्या सोचता हूँ. मेरी कल्पना इस तरह की थी. मॉस्को-एवेन्यू पर काली गाड़ियाँ जा रही हैं. फ़न्तान्का पर मुड़ने से पहले, वे परम्परानुसार (आवश्यकतानुसार नहीं) ब्रेक लगाती हैं. उसकी गाड़ी के सामने तमारा भागते हुए आएगी, घुटनों के बल गिरेगी, आसमान की तरफ़ हाथ उठाएगी. प्रेसिडेन्ट की गाड़ी रुकेगी, परेशान बरीस निकलायेविच ये पूछने के लिए बाहर आएगा, कि क्या हुआ है और वह कौन है. और तभी मैं – पिस्तौल लिए. गोली चलाता हूँ, गोली चलाता हूँ, गोली चलाता हूँ, गोली चलाता हूँ…
तमारा ने जवाब दिया, कि शुक्र है, मेरे पास पिस्तौल नहीं है, और यहाँ वह गलत थी : ख़ुशकिस्मती हो या बदकिस्मती, मगर मकारव बाथरूम में पड़ी थी, सिंक के नीचे पाइप के पीछे, वहीं पर बारह कारतूस भी थे – पॉलिथिन की बैग में, मगर तमारा उस बारे में कुछ भी नहीं जानती थी. मगर उसे इस बात का यकीन था, कम से कम मुझे तब ऐसा लगा था, कि अगर वह काफ़िले के सामने कूद जाए, तो कोई भी नहीं रुकेगा. और अगर प्रेसिडेन्ट की कार रुक भी जाए, तो भी बरीस निकलायेविच बाहर नहीं निकलेगा. मैं भी यही सोचता था : बरीस निकलायेविच बाहर नहीं निकलेगा.
मैं सिर्फ तमारा को आज़माना चाहता था, कि वह मेरे साथ है या नहीं.
फिर उसने मेरे चेहरे पर लैम्प की रोशनी डालते हुए पूछा : क्या मैं तमारा से प्यार करता था? न जाने क्यों बाद में इस सवाल में न सिर्फ ग्रुप के प्रमुख को, बल्कि मुझसे पूछताछ कर रहे पूरे ग्रुप को दिलचस्पी हो गई. हाँ, प्यार करता था. वर्ना इस शोरगुल वाले, गंधाते मॉस्को एवेन्यू पर दो साल नहीं खींचता, चाहे सिर्फ एक ही – बरीस निकलायेविच को मारने के, जुनून से जीता.
असल में मेरे दो जुनून थे – तमारा से प्यार और बरीस निकलायेविच से नफ़रत.
दो बेहिसाब जुनून – तमारा से प्यार और बरीस निकलायेविच से नफ़रत.
और अगर मैं प्यार न करता, क्या वह मुझसे कहती “ईगल”, “मेरे जनरल”, “छुपा-रुस्तम”?…
उस समय कई लोग बरीस निकलायेविच को मारना चाहते थे. और कईयों ने मार भी डाला – ख़यालों में. ख़यालों में तो सभी उसे मार रहे थे. सन् सत्तानवे. पिछले साल चुनाव हुए थे. माफ़ कीजिए, बिना इतिहास में जाए – नहीं चाहता. या किसी को मालूम नहीं है कि वोटों की गिनती किस तरह हुई थी?
मॉस्को-एवेन्यू, 18 के आँगन में, तब मैं काफ़ी लोगों से बातें करता था, और सब एक सुर से इसी बात पर ज़ोर देते थे, कि सन् उन्नीस सौ छियानवे में उन्होंने बरीस निकलायेविच को वोट नहीं दिया था. मगर ये – हमारे आँगन में. और अगर पूरे देश को लिया जाए तो? सिर्फ मैं चुनाव में नहीं गया था. क्यों जाना है, जब इसके बिना ही काम चल जाता है?
उसका ऑपरेशन किया गया, अमेरिकन डॉक्टर ने हार्ट की बाइपास सर्जरी की थी.
ओह, मुझसे कहा गया है, कि मैं ये भूल जाऊँ.
मैं भूल गया.
मैं चुप रहता हूँ.
मैं शांत हूँ.
तो…
तो, मैं तमारा के साथ रहता था.
अख़बारों में पिछले कुछ समय से ऑपरेशन टेबल पर उसकी मृत्यु की संभावनाओं की चर्चा हो रही थी.
और मुझे ख़ुद भी याद है, कि कैसे एक अख़बार में, याद नहीं कौन से, मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को चेतावनी दी गई थी कि जीवन की योजना को उसकी मृत्यु की उम्मीद से न जोडें.
मगर मैं अपने निर्णय के उद्देश्य से दूर नहीं हटना चाहता.
और जहाँ तक तमारा का सवाल है…
मॉस्को एवेन्यू से दो कदम पर है – सेन्नाया चौक. उस समय तक कबाड़ी बाज़ार का कुछ हिस्सा वहाँ से हटाया जा चुका था, मगर दुकानदार की ओर जाती हुई कड़ी को महसूस कर सकते थे. ये उस बात पर निर्भर करता था, कि किस दुकानदार की ज़रूरत है. यहाँ तात्पर्य है, अगर कोई अब तक नहीं समझ पाया हो तो – उस चीज़ के दुकानदार से, जिससे गोली चलाई जाती है.
उस तरह का दुकानदार मुझे उस समय मिल भी गया ख़ाली मैदान में, जहाँ एफ़ीमवा स्ट्रीट सेन्नाया चौक से मिलती है.
संक्षेप में, ये तो नहीं कह सकता कि एमिल्यानिच हर बात में मेरा समर्थन करता था, मगर हम साथ-साथ थे. सिर्फ वह पीता बहुत था, और बेहद ख़राब किस्म की शराब. वह उन्हें वितेब्स्क स्टेशन के पास वाले स्टाल से ख़रीदता था.
एक बार उसने कहा कि उसके पीछे एक पूरी ऑर्गेनाइज़ेशन है. और उसे इस ऑर्गेनाइज़ेशन में शामिल कर लिया गया है.
हमारी ऑर्गेनाइज़ेशन में वह मुझसे एक सीढ़ी ऊपर था, जिसके परिणाम स्वरूप औरों को भी जानता था – हमारी ऑर्गेनाइज़ेशन के. मगर मैं सिर्फ एमिल्यानिच को जानता था. वह पड़ोस वाली बिल्डिंग में रहता था, बिल्डिंग नं. 16 में. उसकी खिड़कियाँ चौराहे पर खुलती थीं, और यदि बरीस निकलायेविच प्रकट होता तो वह खिड़की से ज़्यादा अचूक निशाना लगा सकता था. हाँलाकि, बात ये थी, कि हमने कार पर गोली चलाने का प्लान नहीं बनाया था. अगर कार बख़्तरबन्द है, तो उस पर गोली क्यों चलाई जाए? इसमें कोई तुक नहीं है. ये आत्मघाती और पूरी योजना को नष्ट करने वाला होता. उस समय मैं ऐसा सोचता था, और एमिल्यानिच भी. मगर मैं इस बारे में, शायद, बता चुका हूँ.
और वो, जिसके बारे में मैंने अभी तक बताया नहीं है : हमारा एक अलग प्लान था.
सन् 1997 का जून प्रारंभ हुआ.
पाँच जून को, बरीस निकलायेविच के पीटर्सबुर्ग पहुँचने के एक दिन पूर्व, एमिल्यानिच ने मुझसे कहा, कि बरीस निकलायेविच कल आ रहा है. मुझे पता था. हर कोई, जिसे राजनीति में थोड़ी भी दिलचस्पी थी, जानता था.
प्रेसिडेन्ट पीटर्सबुर्ग में पूश्किन के जन्म की 198वीं जयन्ती मनाना चाहते थे.
अलेक्सान्द्र सिर्गेयेविच पूश्किन – हमारे राष्ट्र-कवि.
मैं हमला करने के लिए तत्पर था.
एमिल्यानिच ने मुझसे कहा, कि ऑर्गेनाइज़ेशन के नेतृत्व ने प्लान तैयार कर लिया है. कल शाम, याने छह जून को, प्रेसिडेन्ट मरीन्स्की थियेटर जाएँगे, जिसे पहले कीरव – ऑपेरा और बैले थियेटर कहते थे. मुझे पहले ही स्टेज के पीछे ले जाया जायेगा. बरीस निकलायेविच पहली पंक्ति में होगा. और आगे, जैसा स्तलीपिन को मारा गया था.
वो, जिससे गोली चलाते हैं, मैंने ख़रीद लिया था, मगर, अपने पैसों से, न कि ऑर्गेनाइज़ेशन के पैसों से, जिससे एमिल्यानिच, मेरी अपेक्षा, ज़्यादा गहरे जुड़ा हुआ था.
मैं करियर में तरक्की के बारे में थोड़ी न सोच रहा था!
और तमारा का क्या? उसका तो बरीस निकलायेविच के नाम से ही जी मिचलाता था. तमारा ने मुझसे कहा था कि उसके बारे में बात न करूँ. सच बताऊँ : वह डरती थी कि बरीस निकलायेविच के प्रति मेरी नफ़रत, हम दोनों के बीच के प्यार को कम कर देगी. और, कहीं तो वह ठीक थी. सही है, कि डरती थी. तमारा के प्रति प्यार के मुकाबले, मैं बरीस निकलायेविच के प्रति अपनी नफ़रत को ज़्यादा शिद्दत से याद करता हूँ. और मैं सचमुच में प्यार करता था…कितना प्यार करता था मैं तमारा से!…
वैसे, मेरी याददाश्त भी अच्छी ही है.
गोशा, आर्थर, ग्रिग्रोरियान, उलीदव, कोई एक “वान्यूशा”. कुरापात्किन, सात और…
नाम, कुलनाम, उपनाम. मैंने कुछ भी नहीं छुपाया.
एमिल्यानिच का नाम मैंने नहीं लिया और खोजकर्ताओं को ऑर्गेनाइज़ेशन के बारे में भी कुछ नहीं बताया.
एमिल्यानिच तमारा का प्रेमी नहीं था.
और उन्हें – सबको. आख़िर इतना ज़ोर से चिल्लाने की ज़रूरत क्या थी? पहले तो खोजकर्ताओं ने उसे मेरा साथी समझा. उन्हें संबंधों के नेटवर्क में रुचि थी.
ख़ुद ही सुलझाने दो, अगर चाहते हैं तो.
मेरा मामला नहीं है. मगर उनका काम है.
सामने वाले छोटे-से पार्क में मैं बगल वाली बिल्डिंग में रहने वाले आदमी से मिला, इस आदमी को मुझे एमिल्यानिच ने दिखाया था, उसने कहा था कि पड़ोसी है.
एमिल्यानिच का पड़ोसी लेखक था. दाढ़ी वाला, शेर्लोक होम्स जैसी कैप में, वह अक्सर बेंच पर बैठता था.
मुझे लगता है, कि वह पागल था. मेरे इस सवाल पर कि क्या वह बरीस निकलायेविच को मार सकता है, उसने जवाब दिया कि वह और बरीस निकलायेविच अलग-अलग दुनिया के हैं.
मैंने उससे पूछा : आप किसके साथ हो, संस्कृति के जादूगरों? वह सवाल ही नहीं समझ पाया. नहीं,
नहीं, मुझे याद आया. मुझे याद आया, कि कैसे गर्बाचोव के पेरेस्त्रोयका के अस्त पर लेखकों का एक बड़ा समूह बरीस निकलायेविच के पास क्रेमलिन गया, प्रेसिडेंट को अपना समर्थन प्रकट करने. और उनके बीच एक भी ऐसा नहीं था, जो बरीस निकलायेविच पर कम से कम काँच की ऐश-ट्रे ही फेंकता!… और वे थे कुल चालीस आदमी – ये हुई कोई संख्या! और शायद, उनके पास कोई हथियार है अथवा नहीं, इसकी जाँच नहीं की गई!…कोई भी ले जा सकता था!…और अब, इस समय, मैं पूछता हूँ : वलेरी गिओर्गिएविच, आप पिस्तौल क्यों नहीं ले गए और बरीस निकलायेविच पर गोली क्यों नहीं चलाई? कोई जवाब नहीं सुनाई देता. और मैं पूछता हूँ : व्लदीमिर कन्स्तान्तीनविच, आप पिस्तौल क्यों नहीं ले गए और बरीस निकलायेविच पर गोली क्यों नहीं चलाई? और जवाब नहीं सुनाई देता. मैं औरों से भी पूछता हूँ – वे चालीस थे! – मगर जवाब नहीं सुनाई देता! जवाब नहीं सुनाई देता! किसी के भी मुँह से जवाब नहीं सुनाई देता!
और ये, जो कैप पहने पार्क में था, वह मुझसे कहता है, कि उसे बुलाया नहीं गया था.
और अगर बुलाया जाता, तो क्या तुम बरीस निकलायेविच पर गोली चलाते?
तू है कौन, जो तुझे बुलाया जाता? तूने ऐसा क्या लिखा है, तुझे बुलाया जाता और तू बरीस निकलायेविच पर गोली चलाता?
आख़िर, जो तू लिखता है, उसकी ज़रूरत किसे है, अगर हर चीज़ अपने क्रम से होती है और इस क्रम को ऊपरी फ़ैसले से तय किया जाता है?
कभी-कभी मेरा भी दिल चाहता कि लेखक बन जाऊँ. आख़िर बरीस निकलायेविच को शायद समर्थन की ज़रूरत पड़े, और शायद वह क्रेमलिन में नये लोगों को, और मैं उनमें से एक रहूँगा, पतलून में (बेल्ट के पीछे), पिस्तौल के साथ (ओ, ख़तरनाक शब्द!) – कहीं पतलून में बेल्ट के पीछे छिपी पिस्तौल के साथ, और क्या “प्रिय रूसियों…” सुनते ही पल भर में अपनी पिस्तौल नहीं निकालूँगा ?…क्या ऐसा नहीं करूँगा?
ओ, इसी की ख़ातिर मैं लिखता!… जो जी में आये, लिखता, सिर्फ इसलिए कि मुझे आमंत्रितों की सूची में स्थान मिले!
जहाँ तक पिस्तौल का सवाल है, मैंने उसे टॉयलेट में छुपा दिया, सिंक के नीचे वाले पाइप के पीछे.
तमारा को मालूम नहीं था.
हाँलाकि मैंने कई बार कहा, कि वह पेट में गोली खाने के लायक है, और वह, जैसे मुझसे सहमत थी.
एमिल्यानिच का नाम मैंने नहीं लिया और ऑर्गेनाइज़ेशन का भी नहीं, जो उसके पीछे थी.
खोज दूसरी दिशा में जा रही थी.
गोशा, आर्थर, ग्रिगोरियान, उलीदव, कोई “वन्यूशा”, कुरापात्किन, और अन्य सात…
कैप वाले लेखक को भी मैंने जोड़ लिया.
छह जून की सुबह थी. मैं अभी घर में ही था. ख़यालों में मैं शाम के कारनामे की तैयारी कर रहा था. मगर सफ़लता के बारे में नहीं सोच रहा था.
नौ बजे फोन-कॉल करना तय हुआ था. नौ, सवा नौ, मगर वह फोन नहीं करता. एमिल्यानिच फोन क्यों नहीं कर रहा है?
साढ़े नौ बजे मैंने ख़ुद ही फ़ोन किया.
उसने बड़ी देर तक रिसीवर नहीं उठाया. आख़िरकार उठाया, सम्पर्क किया. मैंने परिचित आवाज़ सुनी और समझ गया कि वह भयानक नशे में है. मेरा दिमाग़ अपने कानों पर विश्वास नहीं करना चाहता था. ऐसा कैसे हो सकता है? बरीस निकलायेविच तो बस पहुँचने ही वाला है! तुमने हिम्मत कैसे की, तुम कर कैसे सके?…शांत हो जाओ, सब बदल गया है. ऐसे कैसे बदल गया है? क्यों बदल गया है? ‘शो’ ही नहीं होने वाला है, एमिल्यानिच ने कहा. “सुनहरा मुर्गा” मर गया है. मतलब ऑपेरा. (या बैले?)
मैं इस विश्वासघात पर चिल्लाया.
“शांत हो जाओ,” एमिल्यानिच ने मुझसे कहा, “अपने आप पर काबू रखो. फिर मौका आयेगा. मगर आज नहीं.”
पूरी सुबह मैं बेचैन रहा.
हमारे नीचे वाले डिपार्टमेंटल-स्टोअर में सफ़ाई का दिन था. सुबह से कॉक्रोच मार रहे थे, और सेल्स गर्ल्स को छुट्टी दे दी गई. तमारा आई, उससे कॉक्रोच-मार दवा की बू आ रही थी.
मॉस्को एवेन्यू पर, मैंने अभी तक नहीं बताया, काफ़ी ज़्यादा ट्रैफ़िक होता है. शोर होता रहता है. दो सालों में, जो मैंने तमारा के साथ गुज़ारे थे, मुझे इस शोर की आदत हो गई थी.
मैं कमरे में था. मुझे याद है (हाँलाकि बाद में मेरे याद करने पर पाबंदी लगा दी गई), कि मैं फूलों में पानी डाल रहा था. कैक्टस के. तमारा उस समय नहा रही थी. और तभी हमारे यहाँ बाहर से शोर आना बंद हो गया. मतलब – खिड़कियों के पीछे से. मगर बाथरूम में शोर हो रहा था – शॉवर का. मगर खिड़कियों के बाहर – ख़ामोशी : गाड़ियों का आना-जाना रुक गया.
इसका मतलब सिर्फ एक ही हो सकता था : बरीस निकलायेविच के लिए रास्ता ख़ाली कर दिया गया. वह आ गया है और जल्दी ही हमारे चौराहे तक पहुँच जाएगा. मुझे तो मालूम था कि वह आने वाला है. और, पहले वाले प्लान के मुताबिक, मुझे आज की शाम उसे ऑपेरा में (या, याद नहीं, बैले में?) ख़त्म कर देना था…
मगर अब तो बैले (या ऑपेरा?) नहीं होगा.
“सुनहरा मुर्गा”, एमिल्यानिच ने कहा था.
मतलब, मैं खिड़की के पास हूँ. मॉस्को एवेन्यू की ख़ामोशी में. पुलिस वाले उस तरफ़ खड़े हैं. और कोई ट्रैफ़िक नहीं है. इंतज़ार कर रहे हैं. लो, पुलिस की मर्सिडीज़ आई (या, मर्सिडीज़ से बड़ी?) आई – प्रेसिडेन्ट की गाड़ी को गुज़ारने की तैयारी का जायज़ा लेने. वे हमेशा इसी तरह तैयारियों का जायज़ा लेने के लिए गाड़ी भेजा करते थे.
मगर फिर भी, पिस्तौल लेकर बाहर निकलना चाहिए. मेरी अंतरात्मा मुझसे यही कह रही थी. मगर अंतरात्मा की दूसरी आवाज़ ये कह रही थी : पिस्तौल न ले, सिर्फ बाहर निकल और देख, और पिस्तौल का, तू ख़ुद भी जानता है, कोई फ़ायदा नहीं होगा.
फिर भी मैंने पिस्तौल लेने का फ़ैसला किया. मगर तमारा शॉवर के नीचे नहा रही थी.
तमारा, जब शॉवर के नीचे होती थी, तो बोल्ट लगाकर अपने आप को मुझसे छुपा लेती थी. अप्रैल में कभी उसने ऐसा करना शुरू किया. उसका ख़याल था, कि अगर फ़व्वारा आवाज़ करता, तो मुझे उत्तेजित कर देता था – वह भी बेहद. मगर ऐसा नहीं था. हर हाल में, ऐसा था नहीं, जैसा उसे लगता था.
अप्रैल में हमारे साथ ऐसी एक घटना हुई थी जिसे समझाना लगभग असंभव है.
तबसे वह अपने आप को छुपाने लगी थी.
मगर मैं तो कुछ और कह रहा हूँ, यह फ़ालतू बाथरूम कहाँ से बीच में टपक पड़ा?
हाँ, अपनी गुप्त जगह को याद करके, मैं बाथरूम की ओर भागा और दरवाज़ा खटखटाया. मैं ज़ोर से चिल्लाया: खोलो!
“फ़िर से?” तमारा ने धमकी भरी आवाज़ में पूछा ( आवाज़ में जानबूझकर धमकी भरी थी). ये मुझसे : “रुको! शांत हो जाओ!”
“खोलो, तमारा! एक भी सेकण्ड बरबाद नहीं कर सकता!”
“रुको! नहीं खोलूँगी!”
मगर वह तो नहीं जानती थी, कि मेरी पिस्तौल वहाँ पाइप के पीछे छ्पाई गई है.
और अगर जानती होती तो?
और वैसे भी, उसे क्या मालूम था? उसके दिमाग़ में क्या चलता था? वह किस बारे में सोचती थी? उसे तो मेरे बारे में कुछ भी नहीं मालूम था! नहीं जानती थी, कि मैं बरीस निकलायेविच को मारना चाहता हूँ. और ये, कि बाथरूम में मेरी गुप्त जगह है!
और अगर मैं सचमुच में पानी के शोर से इतना उत्तेजित हो जाता, तो क्या मैं दरवाज़ा नहीं तोड़ देता? हाँ, मैं उसे बाएँ कंधे से तोड़ देता! उस अप्रैल वाली घटना के बाद उसके इस शॉवर के दौरान बाथरूम में उसके पास घुस जाने की काफ़ी संभावनाएँ थीं! मगर मैंने कभी भी सिटकनी नहीं तोड़ी – और, तब, मैं कहाँ से उत्तेजित हुआ था?
बल्कि, वही मुझे जानबूझ कर इस बोल्ट से उकसा रही थी (मैंने बाद में अंदाज़ लगाया).
मगर, मैं कुछ और कह रहा हूँ.
मैं बोल्ट तोड़ देता, अगर मेरे भीतर – दूसरी, न कि पहली आवाज़ न होती. रुको. बाहर जाओ और उत्तेजना प्रकट न करो. तुम्हें पिस्तौल की ज़रूरत नहीं है. प्लान बदल गया है. इसलिए बाहर जाओ और देखो. सिर्फ वहाँ मौजूद रहो. जब तक वह गुज़र नहीं जाता.
मैं वैसे ही घर की चप्पलों में भागा, जिससे कि एक भी सेकण्ड न खोऊँ.
घर से तो मैं भागते हुए निकला था, मगर आँगन में साधारण चाल पर आ गया. आराम से प्रवेश द्वार से बाहर आया. बरीस निकलायेविच अभी तक गुज़रा नहीं था. पैदल चलने वाले फुटपाथ पर आ-जा रहे थे. वे हमेशा की ही तरह चल रहे थे. कुछेक लोग रुक कर मॉस्को एवेन्यू का नज़ारा देखने लगे. दूर, अबवोद्नी कॅनाल के उस पार तुर्की युद्ध में विजय का स्मारक, ‘विक्टरी ग़ेट’ नज़र आ रहा था.
अक्सर, जब कोई राजनेता गुज़रते थे, तो सड़कें करीब दस मिनट पहले बंद कर दी जाती थीं, मतलब अभी काफ़ी समय था.
फ़न्तान्का वाले किनारे की ओर ट्रैफ़िक रोक दिया गया था. वहाँ गाड़ियाँ खड़ी थीं, मगर जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ से मैंने उन्हें नहीं देखा.
खाली एवेन्यू की ओर देखना बड़ा अजीब लगता है. एवेन्यू का खालीपन आत्मा को व्याकुल कर रहा था. एक भी पार्क की हुई गाड़ी नहीं थी. सब कुछ हटा दिया गया है.
एक और पुलिस की गाड़ी गुज़री.
और मॉस्को एवेन्यू से फ़न्तान्का की ओर, मतलब बाईं ओर मुड़ी – वहाँ सब कुछ खाली था.
बरीस निकलायेविच इसी मार्ग से गुज़रेगा, यह किसी के लिए रहस्य की बात नहीं थी. यही एक रास्ता है.
मैंने LIERT की (लेनिनग्राद इन्स्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स ऑफ रेल्वे टेलिकम्युनिकेशन्स) जिसका हाल ही नाम बदलकर PSUPC (पीटर्सबुर्ग स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ़ पाथ्स ऑफ कम्युनिकेशन्स) कर दिया गया है – छत की ओर देखा – कहीं स्नाइपर्स तो नहीं हैं?
शायद नहीं थे.
उस जगह की रचना – ऐसी थी. दाईं ओर – फ़न्तान्का से होकर गुज़रता हुआ पुल, जिसका नाम है – अबूखव्स्की ब्रिज. उस पार बाग, ट्रैफ़िक सिग्नल, पुलिस वाले का बूथ. ख़ास आकर्षण – ऊँचा मील का पत्थर संगमरमर के स्मारक स्तंभ जैसा – कहते हैं, कि अठारहवीं शताब्दी में यहाँ पर फन्तान्का से होते हुए शहर की सीमा रेखा गुज़रती थी.
इन घटनाओं का एक-एक मिनट नहीं, बल्कि एक-एक सेकंड याद है. ये – जा रहे हैं : मॉस्को एवेन्यू से के नज़दीक आ रहे हैं. प्रेसिडेन्ट की कार सबसे आगे नहीं थी, और उसने, जो सबसे आगे थी, मेरे सामने आकर गति कम कर दी – आगे बाईं ओर उसे मुड़ना है. मैं, बेशक, प्रेसिडेन्ट की कार की ओर देख रहा हूँ – सिर्फ मैं ही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी देख रहे हैं, और अन्य आने-जाने वाले भी – मैं देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ, क्या ये सच है, कि वहाँ वो बैठा है, हो सकता है, वह दूसरी गाड़ी में हो, और इसमें – झूठ-मूठ का पुतला …झूठ-मूठ का पुतला सचमुच के बख़्तरबंद काँच के पीछे? और ये, मैं देखता हूँ उसका हाथ, बेशक, उसका, मूक अभिवादन करते हुए हौले से हिलता हुआ – काँच के पीछे, जहाँ पीछे वाली सीट है, – और ये, वो किसका अभिवादन कर रहा है, कहीं मेरा तो नहीं? मेरा ही अभिवादन कर रहा है! जब वह मेरे बिल्कुल पास आ गया.
ब्रेक लगाते हुए. धीमी होते हुए. (आगे मोड़ है.)
मगर फिर कुछ अविश्वसनीय-सा हुआ.
उसके रास्ते को काटती हुई किसी की परछाईं उछली. मैं फ़ौरन समझ ही नहीं पाया, कि ये कौन है – आदमी या औरत. और जब देखा, कि औरत है, तो तुरंत मेरे दिमाग में ख़याल आया, कि कहीं ये मेरी तमारा ही तो नहीं है. उसने मेरे सुझाव को मान तो नहीं लिया?
जैसे ही तमारा का ख़याल आया, दिल की धड़कन रुक गई.
मगर ये तमारा कैसे हो सकती है, जब कि उसे शॉवर के नीचे होना चाहिए? नहीं, बेशक, वो तमारा नहीं थी.
इसके बाद और भी अविश्वसनीय घटना हुई – गाड़ी रुक गई.
और उसके पीछे-पीछे दूसरी गाड़ियाँ भी – और पूरा काफ़िला. और आगे – और भी अविश्वसनीय : वह बाहर आया.
दरवाज़ा खुला और वह बाहर आया!
छह जून उन्नीस सौ सत्तानवें का दिन था.
वह मुझसे दस कदम दूर था, और वह औरत भी – करीब पन्द्रह कदम की दूरी पर थी!
इस बात की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती! मगर ऐसा हुआ था! वह बाहर आया और औरत की ओर बढ़ा!
और उसके सभी चापलूस अपनी-अपनी गाड़ियों से निकलकर एक साथ उस औरत के पास जाने लगे.
गवर्नर! वह भी निकला!
और चुबाइस भी निकला!
ओह, आप नहीं जानते कि चुबाइस कौन है? मुझसे कहा गया है, कि इस नाम को भूल जाऊँ! मगर कैसे भूलूँ, जब याद है? आख़िर कैसे भूलूँ?
और दर्शक, आने-जाने वाले, वे भी उसके नज़दीक जाने लगे, और उनके साथ-साथ मैं भी!…मैं – अनजाने में ही – औरों के साथ – कदम-कदम – और नज़दीक, और नज़दीक – उसकी ओर!…
जैसे ये सब अभी नहीं, बल्कि इससे पहले किसी ज़माने में हुआ था!
पहले ही जैसे – कुछेक घटनाएँ तब हुई तो थीं – जब वह लोगों से बातें करता था! प्लान्ट में, रास्ते पर, कहीं और भी…
उसने निडरता से लोगों से बातें की!
मैं सुन रहा था – हम सब सुन रहे थे – उनकी बातचीत!
करीब चालीस साल की औरत. उसीने प्रेसिडेन्ट के काफ़िले को रोका था. आप यकीन नहीं करेंगे, वह लाइब्रेरियों की हालत के बारे में कह रही थी.
उसने कहा : हमारे यहाँ लाइब्रेरियों के सामने काफ़ी समस्याएँ हैं, मैं ख़ुद रूसी भाषा और साहित्य की शिक्षिका हूँ, और अच्छी तरह जानती हूँ, कि हालात क्या हैं, बरीस निकलाएविच. और, बरीस निकलाएविच, लाइब्रेरियन्स और शिक्षकों की, और साथ ही पोलिक्लिनिक्स के डॉक्टर्स की तनख़्वाह बेहद कम है.
और उसने जवाब दिया : ये सही नहीं है, इसे देखना होगा.
और सहयोगी ने उससे कहा : ज़रूर देखेंगे, बरीस निकलाएविच.
और मैं सोच रहा था : मेरी पिस्तौल कहाँ है?
मेरे पास पिस्तौल नहीं थी!
और अचानक उस औरत ने उसे अपने बारे में बताया : मेरा नाम गलीना अलेक्सान्द्र्व्ना है, मैं माक्लिन स्ट्रीट पर बिल्डिंग नंबर 9/11 में रहती हूँ, जवान बेटे के साथ, एक कमरे में…बिल्डिंग की हालत बेहद ख़स्ता है, हमारा क्वार्टर सामुदायिक है…
और वह उससे बोला : आपको नया क्वार्टर देंगे.
और सहायक ने औरत से कहा : हर समस्या सुलझा लेंगे.
और यह सब बगल में – मेरे सामने! मगर मैं पिस्तौल नहीं ले गया था!
दूसरे लोग भी पूछने लगे, मगर अस्पष्ट-सा, उलझा-सा. उनके प्रति उसने दिलचस्पी नहीं दिखाई.
मैं भी चाहता था : बरीस निकलाएविच, क्या आप, वाकई में, आज बैले (…या ऑपेरा? ) देखने नहीं जाएँगे? (मैंने अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी थी). मगर तभी एक चौड़ी पीठ ने प्रेसिडेन्ट को मुझसे छुपा दिया.
और अगर पूछता भी – तो वे कहते “ हेल विथ यू!”
वैसे, जाँचकर्ता इतना भला था, कि उसने बाद में मुझे अख़बार दिखाया : बरीस निकलाएविच, शायद, उस दिन पूश्किन के स्मारक पर फूल चढ़ा रहा था.
वह धम् से कार में बैठ गया. और सारे सहायक और चमचे अपने अपने वाहनों की ओर भागे. और पूरा काफ़िला धीरे-धीरे आगे बढ़ा और मॉस्को एवेन्यू से फ़न्तान्का की ओर मुड़ गया.
शिक्षिका खड़ी थी और उन्हें जाते हुए देख रही थी. प्रेसिडेन्ट की टीम के संवाददाताओं ने उसे घेर लिया. पुलिस-लेफ्टिनेंट कर्नल ने हमें आने-जाने का रास्ता छोड़ने के लिए कहा.
जल्दी ही मॉस्को एवेन्यू पर फिर से आवागमन शुरू हो गया.
और मैं जागा.
मैं घर की चप्पलें पहने ट्रैफ़िक सिग्नल के नीचे खड़ा था और समझ रहा था कि किस्मत मुझे ऐसा मौका दुबारा नहीं देगी. मैंने बाथरूम का दरवाज़ा क्यों नहीं तोड़ा? मगर, क्या मैं सोच सकता था कि वह बख़्तरबन्द गाड़ी से बाहर आ सकता है?
आ सकता था! आ सकता था! आ सकता था! मुझे इस बात को भाँप लेना चाहिए था!
मैंने स्वयम् को प्रेसिडेन्ट पर गोली चलाते हुए देखा. मैंने देखा गिरते हुए – उसको. मैंने आने-जाने वालों के अचरज भरे चेहरे देखे, जो विश्वास ही नहीं कर सकते थे, कि तानाशाह से मुक्ति मिल गई है.
मैं अपने आप को बचा भी सकता था. मुझे वो काम नहीं दिया गया था. मगर मैं पिस्तौल फेंक कर प्रवेश द्वार में भाग सकता था.
मैंने बस देखा, कि मैं कैसे बिल्डिंग नं. 18 के प्रवेश द्वार के भीतर भागते हुए आँगन पार कर रहा हूँ. वे, जो, अचानक चौंक कर मेरे पीछे भाग रहे हैं, सोच रहे हैं, कि मैं बेवकूफ़ हूँ – क्योंकि सामने अंधी गली है… ये मैं बेवकूफ़ हूँ? बल्कि आप सब बेवकूफ़ हैं! और बाईं ओर वाले गलियारे का क्या? वहाँ खाली दीवार और पाँच मंज़िला इमारत के कोने के बीच एक चौड़ी झिरी है. ये, मैं चिनार की बगल से भागता हूँ, जिसे तब तक नहीं काटा गया था, और बाईं ओर को लपकता हूँ, और मैं आ गया हूँ आयताकार आँगन में, जिसमें भूतपूर्व लॉण्ड्री के दरवाज़े को छोड़कर एक भी प्रवेश द्वार नहीं है…तो? क्या? यहाँ से दो रास्ते हैं – 110, फ़न्तान्का के आँगन को, या 108, फ़न्तान्का के आँगन को, पुराने टॉयलेट के कॉन्क्रीट के खण्डहर की बगल से. बेहतर है – 108 में. फ़न्तान्का में कोई भी मेरा इंतज़ार नहीं कर रहा है!…सीढ़ियों पर लपकते हुए छत पर जा सकता हूँ, और यहाँ छतों से होकर भागने में कितना मज़ा आता है!…छतों पर भागना बेहद आसान है, ठेठ टेक्नोलॉजी इन्स्टीट्यूट की छत तक!…या फिर ईंटों वाली नीची, खाली दीवार पर चढ़कर मिलिट्री हॉस्पिटल वाली बिल्डिंग की ढलवाँ छत पर पहुँचना भी संभव है… हॉस्पिटल के गार्डन से मैं व्वेदेन्स्की कॅनाल के प्रवेशद्वार मार्ग तक पहुँच जाऊँगा…और जाली फ़ाँदकर – ज़ागरद्नी पर, ब्लॉक के दूसरी ओर!
मैं आसानी से भाग सकता था!
और रुक भी सकता था. आत्म समर्पण कर सकता था. मैं कहता : रूस, तू बच गया!”
“ओह, वे मेरा स्मारक भी खड़ा करते! सीधे यहीं, तमारा की बिल्डिंग के सामने वाले गार्डन में! संगमरमर के मील के पत्थर की ठीक बगल में, जिस पर खुदा है, अठारहवीं शताब्दी, शिल्पकार रिनाल्दी!
मगर, मुझे बस, स्मारक नहीं चाहिए! और तमारा की बिल्डिंग पर स्मृति-फ़लक की तो बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है!
आपको मालूम नहीं है कि मैं तमारा से कितना प्यार करता था!
आप कल्पना भी नहीं कर सकते, कि मैं बरीस निकलायेविच से कितनी नफ़रत करता था!
और ये मौका हाथ से निकल गया. मैं शहर में भटकता रहा. मैं सिन्नाया तक गया, फिर गरोखवाया तक. लकड़ी के बने गर्स्त्कीन ब्रिज को पार करके मैं फ़न्तान्का के गंदे पानी में डूब जाना चाहता था. पानी से लकड़ी के टेके बाहर निकल रहे थे (बसन्त वाली बर्फ के सामने), मैंने उनकी ओर देखा और समझ नहीं पाया कि जिऊँगा कैसे.
बेहतर होता कि तभी डूब जाता! ज़्यादा बेहतर होता…
मुझे याद नहीं, कि मैं और कहाँ गया था, मुझे याद नहीं है कि मैं किस बारे में सोच रहा था. मुझे ये भी याद नहीं है कि ज़ागरद्नी वाले ‘बार’ में गया था कि नहीं. परीक्षणों ने सिद्ध किया कि मैं होशो-हवास में था. मगर मुझे लग रहा था कि मैं अपने-आप में नहीं हूँ.
मगर एक बात मैं निश्चित रूप से जानता हूँ, मैं जानता था, कि अपने आप को कभी माफ़ नहीं करूँगा.
इस शहर में जून में रातें श्वेत होती हैं, मगर मुझे महसूस हुआ कि अँधेरा हो रहा है, या फिर, हो सकता है, कि मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था. याद है, कि घर आया था. याद है. तमारा टेलिविजन देख रही थी. मैं नहीं चाहता था, कि तमारा गोली की आवाज़ सुने. मैं पिछले कम्पाऊण्ड में अपने आप को गोली मार लेना चाहता था. बाथरूम में आया, पिस्तौल निकाला, उसमें गोलियाँ भरीं. पतलून के बेल्ट के पीछे उसे छुपा लिया. आईने में ख़ुद को देखा.
डरावना थोबड़ा. मगर गोली मार लूँ, तो और भी भयानक हो जाएगा.
मैंने फ़ैसला किया कि उससे बिदा नहीं लूँगा. बिदा लेने के पल मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था. बाहर जाने के इरादे से मैं दरवाज़े की ओर लपका. और तभी वह किचन से आई, जहाँ टी.वी. देख रही थी, और मुझसे कहा.
उसने मुझसे कहा.
उसने मुझसे कहा : तुम कहाँ थे?…तुमने सब छोड़ दिया?…तुम कुछ भी नहीं जानते?…सिर्फ कल्पना करो, सारे समाचारों में दिखा रहे थे, आज ठीक हमारी खिड़कियों के सामने ऐसी घटना हुई! टीचर ने बरीस निकलायेविच की गाड़ी को रोक दिया! वह एक कमरे वाले क्वार्टर में रहती है अपने जवान बेटे के साथ और उसने उन्हें नया क्वार्टर देने का वादा किया!
मैं जम गया.
आप सब लोग बरीस निकलायेविच को गालियाँ देते हो, तमारा ने कहा, और उसने क्वार्टर देने का वादा किया.
बेवकूफ़! बेवकूफ़! बेवकूफ़!
मैं चीख़ा.
और एक साथ पाँच गोलियाँ उस पर दाग दीं.
मैंने अपने इरादे को नहीं छुपाया और पहली ही पूछताछ में बता कर दिया, कि बरीस निकलायेविच को मारना चाहता था.
मुझे कहीं ले गए. उच्च अधिकारियों ने मुझसे पूछताछ की. मैंने पिस्तौल के बारे में बताया, बाथरूम के पाइप के बारे में बताया. सारे नाम बताए, क्योंकि वे सोच रहे थे, कि मैंने अपनी साथी को मार डाला है. गोशा, आर्थर, ग्रिगोरिन, उलीदव, कोई “वान्यूशा”, कुरापात्किन, कोई सात और भी…और कैप वाला लेखक.
सिर्फ एमिल्यानिच का नाम मैंने नहीं लिया. और उस संगठन का भी, जो उसके पीछे था.
पहले तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, कि मैं अविवाहित हूँ, और बाद में किसी भी बात पर विश्वास नहीं किया.
अजीब बात है. विश्वास कर भी सकते थे. उस समय एक के बाद हो रही कोशिशों का पर्दाफ़ाश हो रहा था. सुरक्षा-सेवा इस बारे में सूचित कर रही थी. मुझ से भी पहले, मुझे याद है, कॉकेशस के एक गिरोह का पर्दाफ़ाश किया गया था, मॉस्को पहुँचने से पहले ही उन्हें सोची स्टेशन पर ट्रेन से उतार लिया गया. एक संभावित हत्यारा मॉस्को की किन्हीं अटारियों में छुपा हुआ था, उसके पास चाकू था, – पूछताछ के दौरान उसने स्वीकारोक्ति दी, उसका क्या हुआ, मुझे नहीं पता. अख़बारों में लिखा था, रेडिओ पर सूचित किया जाता था.
मगर मेरे बारे में – किसी ने भी नहीं, कुछ भी नहीं.
शिक्षिका गलीना अलेक्सान्द्रव्ना के बारे में, जो माक्लिन एवेन्यू पर रहती थी और जिसने बरीस निकलायेविच की गाड़ी रोकी थी, सबने सुना. मगर मेरे बारे में – किसी ने भी नहीं, कुछ भी नहीं.
मुझे अभी भी पता नहीं है कि एमिल्यानविच ने किस अफ्रीकन देश में अन्तरराष्ट्रीय कर्तव्य पूरा किया.
चिकित्सा विज्ञान का डॉक्टर, प्रोफ़ेसर गे. या. मख्नाती मेरा सम्मान करता था, वह मुझसे भलमनसाहत से पेश आता था. ये आसान नहीं था, मैं बहुत सारी बातों के बारे में सोचता था.
मुझे सलाह दी गई कि इन वर्षों को भूल जाऊँ.
मैं व्सेवलोझ्का में रहता हूँ, अपने अपंग बाप के साथ, जिसकी दूसरी बीबी की मृत्यु हो चुकी है. मेरा बाप है. वह अपंग है.
कभी-कभी हम ‘स्क्रैबल’, जिसे हम –“एरुडाइट” कहते हैं – खेलते हैं. मेरा बाप करीब-करीब नहीं चलता, मगर उसकी याददाश्त मुझसे बुरी नहीं है.

सेंट पीटर्सबुर्ग में मैं काफ़ी अर्से बाद आया हूँ. मुझसे कहा गया है कि यहाँ न आऊँ.
मुझे अफ़सोस होता है, कि ऐसा हो गया. मैं उसे मारना नहीं चाहता था. मेरा गुनाह बहुत बड़ा है.
मगर मैं किसे और कैसे समझाऊँ, कि असल में मैं तमारा से कितना प्यार करता था!? जिसने कभी किसी से प्यार किया हो, वही समझ सकता है. उसके पास बहुत सारे अच्छे गुण थे. मैं नहीं चाहता था. और वह भी नहीं. उसे नहीं करना चाहिए था. किसलिए? इतने सारे अच्छे गुण होते हुए भी ऐसी बात कहना! इतना भी परले सिरे का बेवकूफ़ नहीं होना चाहिए. कभी नहीं! बेवकूफ़. ऐसी बात कहना! नहीं, बस, बेवकूफ़! बेवकूफ़, बेवकूफ़, तुझसे ही कह रहा हूँ!
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The post रूसी लेखक सिर्गेइ नोसव की कहानी ‘छह जून’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


अनघ शर्मा की कहानी ‘बीच समंदर मिट्टी है’

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अनघ शर्मा युवा लेखकों में सबसे अलग हैं। ना किसी होड़ में, ना किसी दौड़ में। ठहर ठहर कर लिखते हैं और इस गहराई से लिखते हैं कि आप उनकी प्रेम कहानी पढ़ते हुए प्रेम को जीने के भ्रम में पड़ सकते हैं। अब इस कहानी को ही लीजिए देश देशांतर के माहौल में क्या बचा रह जाता है- मॉडरेटर

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बीच समंदर मिट्टी है!!

मुल्क 1: यमन

शहर: सना

ठहाके लगाती रात, हँसती हुई रात तो इस शहर के आसमान से कब की जा चुकी थी। ऐसी रात जो शादी के जागमागते उजालों से चमकती रहती थी वह तो जाने कहाँ गुम हुई, जो उसके बदले अब चुपचाप गुज़र रहा है वो बदहवासियों में लिपटा हुआ अंधेरा भर है। पिछले कुछ महीनों से ये अंधेरे और मटमैला होता जा रहा है और शहर को मौत की भट्टी में झोंक  रहा है| सड़क के मोड़ पर आ कर उसे सामने सरवत की पहाड़ियों से झांकता सूरज नज़र आया। शहर के सर पर धूप और गर्मी के बढ़ने का मतलब था कि दिन निकलने लगा है। नंगे पैरों को किसी नाली से बजबजाता, बहता हुआ पानी भिगोये जा रहा था। पानी की छुअन से उसके देर से जलते तलवों को जैसे राहत मिली हो। कैम्प में पहुंचने के महीनों बाद आज उसके पैरों ने किसी ठंडी चीज़ को महसूस किया था। थोड़ी देर के लिए मूंदी आंखें जब उसने खोलीं तो पैरों को भिगोता हुआ ख़ाली पानी ही नहीं था, ख़ून भी था जिसकी धार कहीं दूर से आती हुई इस पानी में मिल गयी थी। महीनों धूल, गुबार, मौत, धमाके, ख़ून देख के उसे ख़ुद के जिंदा बचे रहने पर तअज्जुब भी हुआ और ख़ुद पर घिन भी आई। उसने आँखें मसल कर उस ख़ून सने पानी की धार दुबारा देखी और उसी में बैठ गयी।

वो जानती थी कि यहाँ से भी उसे ढूंढ कर वापस कैम्प में पटक दिया जायेगा| जहाँ जीने के सारे माशरे बिखरे हुए हैं और उनसे भी ऊपर औरतों के अकेलेपन का फ़ायदा उठाते गंदे, लिजलिजे काम जो रातों रात उनकी मिट्टी को रौंद कर उसे कीचड़ में बदल देते हैं|

जब उसकी आँख खुली तो वह एक नयी जगह थी| मोटी प्लास्टिक और लड़की के टुकड़ों से बनाया गया कोई ढांचा था ये| उसने कई बार सर इधर-उधर घुमा कर देखा तो समझ में आया कि ये हज्जाह कैम्प नहीं है जहाँ से वह रात को भाग निकली थी| हर बार ऐसा ही होता है कोई भी लड़की किसी कैम्प से भागने में कामयाब हो जाती है तो उसे ढूंढ कर पकड़ कर नयी जगह फेंक दिया जाता है, ताकि अगली कोशिश में कुछ दिन लग सकें और तब तक उनका इस्तेमाल होता रहे|

उसने छोटे से कमरे की खिड़की को देखा जिस पर एक मरगिल्ला सा पर्दा पड़ा था| कमरे में एक प्लास्टिक की बाल्टी में पानी ज़रूर था जो कि इस गर्मी में इतना गरम होगा कि उसे पिया नहीं जा सकेगा| उसके अलावा कहीं और कुछ नहीं था| वह उठी कमरे का दरवाज़ा बंद किया, बाल्टी खिसकाई और दरवाज़े से लगा दी| उसने अपने धूल, कीचड़, खून और पखाने से सने कपडे उतारे, धोये| खिड़की से पर्दा खींचा और कपड़े सूखने के लिए डाल दिए और एक कोने में जा कर बैठ गयी|

पिछली दो रातों से उसके कानों में ओमार जुमा के रोने की आवाज़ें गूँज रहीं थी| हर आवाज़ पर उसे लगता कि इस सुलगते जिबह्खाने में ज़िन्दा जिबह होने का अगला नम्बर उसी का है| बार-बार उसकी आँखों के सामने ओमार की छ: साल की दिमाग से कमज़ोर बेटी का चेहरा घूम जाता था| आधा मुल्क ही दिमाग से ख़त्म हो रहा है इन दिनों उसे ऐसा लगने लगा था| लड़की घंटों धूप में कमरे के बाहर पड़ी रहती थी, कभी कराहती तो कभी अपने एंठे हुए हाथों को ज़मीन से रगड़ के खूनमखून कर लेती| लड़की के ऊपर लगा हर ज़ख्म, घाव युशरा को ऐसे लगता था जैसे उसके अंदर ही पल रहा हो और किसी दिन फूट के उसके जिस्म पर उभर जाएगा| कैम्पों में धीरे-धीरे होती खाने की कमी और हैजे ने जीना बहुत मुश्किल कर दिया था| इसी हैजे में अम्मा-बाबा गए थे और इसी हैजे में ओमार की बेटी| उसने ओमार से कभी बात नहीं की थी पर चुप की भी आवाज़ें होती हैं और यही आवाज़ें बार बार उसे इन जगहों से निकल वापस घर के रास्ते पर भटकने के लिए उकसाती रहती थीं| घर है कहाँ अब? अब घर के नाम पर जो है वो यही टिन-लकड़ी से बने डिब्बे हैं|

कमरे के अंदर रात अभी भी गरम ही थी| उसने पास पड़े पर्दे के फटे टुकड़े को उठा कर बिछाया और उसके ऊपर लेट गयी| कल किताब में उसका नाम लिख दिया जाएगा| एक जोड़ी बिस्तर, कुछ रोज़मर्रा की चीज़ें उसके नाम चढ़ा कर उसके कमरे में रख दी जायेंगी| उसने करवट बदल आँखें बंद कर सोने कि कोशिश की पर नंगे गरम फ़र्श पर सोया नहीं गया तो वह उठ कर खिड़की पर जा खड़ी हुई| कैसा मौसम है जिसमें चलते रहने से पैरों में छाले पड़ रहे हैं और रुक जाने पर बदन का हर रेशा गिर के झुलसा जा रहा है| हर आँख पिछले कुछ सालों में इतना कुछ देख चुकी है कि अब थक कर पथरा चुकी है| किसी के हाथ में कुछ नहीं है, सब ख़ाली हाथ हैं| जिनकी मुट्ठियों में शोले थे वो सब तो कब के इस मुल्क से बाहर जा निकले अपनी हथेलियों पर ज़िन्दगी की ज़मीन लिए|| सिर्फ समंदर बचा है यहाँ और इस समन्दर बीच मिट्टी है जिसकी परतों में नमक भरा है| इस खारी मिट्टी को कौन क्या रोपेगा| यही मिट्टी इस मुल्क की ज़मीन में फैली हुई है जिसमें बस एक मौत की फसल ही लहलहा रही है| उसने एक सांस छोड़ी और सोचने लगी कि जहाँ पिछले तीन साल में दस हज़ार से ज़्यादा लोग मर गए हों, जहाँ हर हफ़्ते सौ से ऊपर लोग हमलों में मर रहे हों वहाँ कब तक और कैसे ज़िन्दा बचा जा सकता है| देर तक खड़े रहने से उसके पाँव दर्द करने लगे थे| वो वापस आकर लेट गयी और आँखें बंद करके ऐसी जगह पहुँच गयी जहाँ धूप उसके माथे तक चढ़ आई थी| सड़क पर भीड़ थी,ऐसी भीड़ जो किसी भी पल आवारा हो सकती थी, किसी को भी रौंद कर निकल सकती थी| ऐसी भीड़ के रास्ते में वह बीच सड़क खड़ी हो कर क्या कर रही थी उसे ख़ुद ही नहीं पता था| बाब-अल-यमन के इसी दरवाज़े से एक दिन जो उसका भाई निकल कर गया अब तक नहीं लौटा| निगाह में बस शक्ल रह गयी है जो धीरे-धीरे आँखों के खुलने-मुंदने से एक रोज़ धुंधली पड़ जायेगी| चीखती-चिल्लाती भीड़ उसके सामने से गुज़र गयी| उसने आँख उठा कर देखा हज़ार साल पुराना दरवाज़ा जिसने कितने ही जनाज़े अपने कंधों से नीचे रखे हैं| इस दरवाज़े को बस एक उसी के घर के जनाज़े की खबर नहीं| देख लो नूह तुम्हारे बेटे ने इस पहाड़ की वादी में जो शहर बसाया था उसकी दरारों में आग भरी जा रही है| उसने मुट्ठी में दबाया पत्थर भींच लिया और फिर हाथ लहरा के बाब-अल-यमन के तरफ़ उछाल दिया|

खट से जा कर पत्थर किसी से टकराया एक कराह पर वह चौंकी| उसने देखा एक लड़का अपना कन्धा पकड़े बैठा है|

“सुनिए! ये पत्थर आपने मारा है न?” लड़के ने पूछा|

उसने कुछ कहा नहीं, लड़के की आड़ ली झुक कर पत्थर उठाया और चुपचाप आगे बढ़ गयी|

युशरा ने खिड़की खोली और सूक़-अल-मिल्ह (नमक का बाज़ार) के आसमान की वीरानी को अपने घर में थोड़ी सी जगह दे दी| भाई जाने कहाँ किस धमाके में गुम हुआ किसे पता? अम्मा-बाबा इस साल के हैजे में पार उतरे| अब ये घर अपनी वीरानी के लाव-लश्कर सहित उसके साथ है, जो जब तक है बस तभी तक है| उसने हाथ में पकड़ा पत्थर वहीं पैरों के पास गिरा दिया|

………………………..

जीस्त के वे दोनों टुकड़े जिन्हें धूप छाँव कहा जाता है दिन में बारी बारी एक ऊंचे, क़द्दावर पहाड़ के नीचे से यूँ गुज़रते हैं कि धूप में छाँव का और छाँव में धूप का भरम होने लगता है। ये पहाड़ अक्सर बेतरह ख़ामोश शोर का बना जान पड़ता है जिसकी मिट्टी में सफ़-ब-सफ़ समंदरों को दबाया गया है। ग़ौर से देखने पर इस पहाड़ में उकेरी हुई लहरें दिखेंगी। हम सन्नाटों से गूंजते है, ख़ाली मैदानों की पैरों से रौंदी मिट्टी से उड़ते हैं। हम बाजगश्त हैं जिनकी असली आवाज़ गुम पड़ी है कहीं………हम दौड़ती सदी के थमे हुए पैर हैं| उसने पैर के पास पड़े पत्थर को उठा कर कान से लगा लिया, सरवत की पहाड़ियों का दिल उसके कानों में गूंज गया और उसका दिल वह तो इन दिनों जैसे बिना आवाज़ के चलता है। उगने से पहले और फिर दुबारा मिट्टी में रल जाने के बीच भर कि जगह ही तो प्यार है और इस जगह की हवा फूल से भी भारी और चट्टान से भी हल्की हो कर बहा करती है| एक ऐसा वन साथ-साथ बढ़ता है जो हरे होने कि कोशिश में सूख कर मर जाता है| बिलखने भर कि गुंजाईश जब आँखों में ही किसी कोने से उतर जाए तो मौसम सर्दियों के मौसम हो जाते हैं| ये सर्द मौसम जिनमें घर को जाने वाली उजली गलियां कोहरे बीच भटक जाती हैं और लोग अपने घर की बजाय जाने कैसे कैसे रेगिस्तानों में पहुँच कर आग को खोजते फिरते हैं| फूल सी हवाएं अक्सर रेत के बवंडर भीतर-भीतर दबाए चलती है| मन की ज़मीन में सब हिसाब गड्डमड्ड हो जाता है और सर्द मौसम लम्बा|

“सुनो,क्या घर की याद आ रही है तुमको?” उसने पूछा|

“घर है तो याद आएगी ही| पर तुमको छोड के थोड़ी जाऊंगा|” वह बोला|

वह उसे देखती रही और उसका हाथ अपने हाथ में ले कर बोली|

“तुमको तो तुम्हारे यहाँ की सरकार निकाल ही लेगी एक न एक दिन| हम ही छूट जायेंगे यहाँ| इस मरती हुई जगह|”

“आहा….. तुमको छोड़ के जाने से पहले मैं यहीं इस समन्दर में डूब जाऊँगा|”

“आदमी उतने ही पानी में डूबता है जितना वो अपनी आँख में समा ले… बाक़ी तो आबज़ू, नदिया, दरिया, समंदर बस मछलियों के लिए बनाये गए हैं,हमारे लिए नहीं| ये मुल्क अब बर्बाद हो रहा| यहाँ से जाओगे ही तुम आज नहीं तो कल|” वह बोली|

और फिर एक दिन वह लौट आया उसे वहाँ छोड़ कर| सरवत की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों की तलहटी में जिन पर हर रोज़ बम बरस रहे थे| जहाँ घर आन की आन खंडहर में बदल रहे थे|

…………………………

मुल्क 1: हिन्दुस्तान

शहर: आगरा

सात महीने हो गए उसे वापस लौटे और जब से लौटा है तब से उसे कोई खबर ही नहीं मिल रही उसकी| कौन जाने वह अब तक उसका रास्ता देख रही होगी या कहीं मर-खप गयी होगी|

उसका मन डूबने लगा था और बिज्जी समझ रही थीं कि वह ठीक हो रहा है| वह बिज्जी की चार बातों पर वह हूँ-हाँ कर के जवाब देता और वापस उसी चुप्पी के खोल में समा जाता| खाँसी अब कम उठती है उसे, वह सुबह-शाम महेंद्र के साथ घूमने भी जाने लगा था जिसे देख कर बिज्जी का डर कुछ कम होने लगा था| पर एक दिन उसकी हालत बिगड़ गयी|

वह कितनी देर उल्टियों में पड़ा रहा किसी को पता नहीं, बिज्जी जब उसके कमरे में पानी रखने गईं तो उसे बिस्तर से आधा लटका हुआ पाया| आनन्- फानन उसे अस्पताल में ले जाया गया| महेंद्र सीधे अस्पताल में ही पहुंचा|

“चाची कैसे हुआ ये?”

“पता नहीं| शाम से कह रहा था जी मिचला रहा है और खाँसी भी उठ रही थी रुक रुक|”

“डॉक्टर क्या कहते?”

“कहते कुछ नहीं बस टालमटाल कर रहे तब से|”

“दिल्ली ले चलें चाची? शहादरे में मामा का घर है उनकी जान-पहचान है सरकारी अस्पताल में”

“जैसा ठीक लगे तुम्हें|” बिज्जी ने आँखें पोंछते हुए कहा|

अब वापस लौट कर अकेले ही आना होगा यहाँ बिज्जी के मन में ये बात उसी दिन घर कर गयी थी जब वह उसे दिल्ली ले कर आई थीं|

*******

मुल्क 2: हिन्दुस्तान

शहर : दिल्ली

बिज्जी जिस सोफ़े पर सर टिकाये खिड़की के सहारे बैठी थीं वहाँ से अस्पताल का बगीचा नज़र आता था| उतरती शाम की थकी रोशनी दिल बुझाने वाली थी| अस्पताल के बरामदे मरीज़ों और उनके तीमारदारों से खचाखच भरे हुए थे| इतनी तंगी इतनी गरीबी के बाद भी लोग अपने मरीज़ों को ऐसे अस्पतालों में क्यूँ लाते हैं जहाँ दमड़ी-चमड़ी दोनों पिघल जायें उन्होंने सोचा| हाँलाकि वह ख़ुद ही घर भर का धेला-दमड़ी खँगाल के इकठ्ठा कर उसे यहाँ लायी थीं की उसका ईलाज हो सके| जब से बीमा वालों ने उसके ईलाज का ख़र्च देने से मना किया है तब से उसके दिल के साथ-साथ बिज्जी का भी दिल डूबने लगा है, कि कहाँ से आएगा इतना पैसा| सुबह- शाम वह घंटे भर को ही उसे देख पाती हैं वरना बाक़ी वक़्त वहीं कभी सोफ़े पर या बगीचे की घास पर एक कोने में लेट कर काट देती थीं| मिलने के वक़्त भी वह उसे अक्सर एक बार ही जागा देख पाती थीं| वो कभी दिन में सोया मिलता तो कभी शाम को| अब बिज्जी के मन में ये बात घर कर गयी थी कि वो जान-बूझ कर एक वक़्त सोने का नाटक किये रहता है ताकि वह उससे ज़्यादा बात न कर पायें|

शाम के मिलने का वक़्त हुए जा रहा था| बिज्जी ने अपना दुपट्टा झटक कर सीधा किया और दुहल्लर कर कंधे पर डाल लिया| इधर पिछले कुछ दिनों से बिज्जी की जान पहचान एक नर्स से हो गयी थी| बिज्जी इस मेल-मुलाकात के बहाने चाहती थीं कि वह डॉक्टरों से उनके लड़के की तबियत की अंदरूनी जानकारी निकाल के ला सकें| जाने क्यूँ उन्हें बार-बार लगता है कि डॉक्टर सब बात खुल कर नहीं बता रहे| बिज्जी ने हाथ में पकड़ा रामायण का गुटका आँखों से लगा कर बटुए में रख लिया| पैर के अंगूठे में बंधा काला धागा घुमा कर सही किया, उठ खड़ी हुईं और सामने से आती नर्स का रास्ता लपक कर रोक लिया|

“आज तो बड़ी देर से आईं आप माया बहन जी|”

“आज तो रात की ड्यूटी है मेरी| तुम न गयीं घर अब तक| कैसे जाओगी?”

“एक बार जाने से पहले बाले को देख लूं| शहादरे की बस तो नीचे अस्पातल के सामने से ही मिल जाती है और अड्डे से कुल पाँच मिनट की दूरी पर घर|”

“अच्छा|”

“सुनो आप ड्यूटी पर रहोगी तो रात में एक बार बाले की तरफ़ झाँक कर देख लोगी क्या?” बिज्जी ने नर्स से पूछा|

“ठीक है|”

बाहर की रोशनी ज़मीन से टकरा कर हरी-हरी घास में डूबने लगी थी और शाम अब फीके रंग में ढ़लने लगी थी| एक-एक कर बरामदे की सब बत्तियां जल चुकी थीं| बिज्जी ने झाँक के देखा| वो आँखें मींचे पड़ा था| उन्होंने उसे ऐसे देखा मानो इस बात की टोह लेना चाह रही हों कि वो सच में सो रहा है या उनकी आहट पा सोने का नाटक कर रहा है| बिज्जी ने उसे झिंझोड़ कर उठाने की कोशिश की| उसके कंधे में दर्द की एक लहर उठी और बदन करवट खा बिस्तर पर दूसरी ओर घूम गया| अदबदा कर उन्होंने उसकी आँखें खोल दीं| ऊँगली कि चुभन से वह चिहुंका| बिज्जी ने देखा उसकी आँखें अजब गहरे रंग हो रखी थीं जैसे किसी ने फालसे को मसल कर आँखों में घिस दिया हो| वह देर तक उसके माथे पर हाथ फेरती रहीं| जब वह दुबारा सो गया तो उठ कर कमरे से बाहर चली गयीं|

बिज्जी के बाहर निकलते ही उसने अपनी आँखें खोलीं और उनकी परछाईं को दूर होते देखता रहा| एक बार को उसके मन में आया कि आवाज़ लगा के माँ को रोक ले कुछ देर और पर जाने क्या सोच कर चुप रहा| बिज्जी की परछाईं धीरे-धीरे उसके सामने से गायब हो गयी| खैर यूँ भी जो परछाईं आँख में पूरी समा जाये उसी को उम्र भर खोजने के सफ़र पर निकलना पड़ता है| आँख में छुपा हुआ कोई भी क़तरा दिख कहाँ पाता है| गरम हवा के थपेड़े दुबारा आसमान की ऊँचाई को लपक जाते थे और अपने साथ हाँफती हुई धूल को भी ले उड़ते थे| उसने अपनी आँखें दुबारा मींच लीं जैसे वापस अपने मुल्क की ज़मीन पर इन्हें बंद कर के वह दूर, मीलों दूर के किसी और अंजान ज़मीन के टुकड़े पर पहुँच जाएगा| देह के भार को पहुंचना मुश्किल है पर मन जैसे हल्के मन को कहीं पहुँचते देर लगी है भला| उसकी बंद आँखों में ताज़ी-ताज़ी काले तारकोल से बनी सड़क खिंच गयी जैसे अभी-अभी उसकी आँखों के लिए ही बनी हो| ये सड़क उसकी याद में गली नम्बर तीन के नाम से दर्ज़ थी| इसी सड़क के मुहाने पर मुहल्ले भर की सबसे शानदार कोठी खड़ी थी जिसके मालिक को पूरा मुहल्ला थ्रेडा के नाम से जानता था| कहते हैं कि उसका असली नाम कुछ और था पर किसी क्लास में लगातर तीन बार फ़ेल होने पर थ्रेडा पड़ गया था| इस घर को उसने कभी अंदर से नहीं देखा था| पर आज सपने में उसका मन जाने कैसे इस कोठी की बालकनी से चढ़ कर एक बड़े कमरे में पहुँच गया| कमरा आधे उजाले में था और आधा अँधेरे में| जहाँ उजाला था वहाँ सोने वाले का चेहरा नहीं दिखा पर अँधेरे की तरफ़ अलमारी के शीशे में उसे किसी की चमकती एडियाँ दीख रहीं थीं|

“क्या अब उसकी ऐसी सफ़ेद, साफ़, चिकनी एडियाँ बची होंगीं|” उसने सोचा|

धूल वापस धीरे-धीरे ज़मीन पर उतरने लगी थी| उतरती हुई थकी धूल सबसे पहले उसकी खिड़की के शीशे पर बैठी और ज़रा बाद उसके मन पर| डॉक्टर भी तो यही कहता है कि लगातार धूल में रहने और काम करने से उसके फेफड़ों में धूल अंदर तक जम गयी है और इसीलिए उसे सांस लेने में तकलीफ़ है जो दिन-ब-दिन और बढ़ेगी ही|

उसने ऐसे करवट बदली जैसे बंद आँखों से उन एडियों साथ और भी सब देख लिया हो| अबके ये बंद आँखें ऐसी जगह खड़ी थीं जहाँ सड़क बार-बार के धमकों में टूट-टूट कर गुबार में बदल गयी थी| इस गुबार में दो एडियाँ चमक जाती थीं जो जाने कितने महीनों से फटी हुई थीं और जिनकी दरारों में धूल वैसी ही आसानी से बैठी हुई थी जैसे उसकी खिड़की के शीशों पर थी और उसके मन पर|

……………………………..

बिज्जी ने कमरा खोला, बत्ती जला दी| सौ वाट के मरे- मरे अँधेरे में उन्होंने हाथ-मुँह धोये और चाय का पानी चढ़ा दिया| ये बहुत छोटा कमरा था शायद बरसाती को आधा घेर कर खड़ा किया हुआ| बिज्जी लौटते में रेहड़ी से दो परांठे और आलू की सब्ज़ी ले आयीं थीं अपने लिए| उन्होंने अखबार खोला परांठे रखे और थैली में से ही सब्ज़ी निकाल के खाने लगी| अपने घर होती तो आलू- परवल की सब्ज़ी बनाती उन्होंने बडबडाते हुए कहा| कमरे की छोटी सी खिड़की से लू के गरम थपेड़े उन्हें धकेलते हुए कमरे में दाखिल हो गए| बिज्जी ने अटैची खोली कागज़ के नीचे से रुमाल में बंधे रूपये निकाले और गिनकर वापस रख दिए| इतना रुपया इस मकान का किराया और अस्पताल के तीन महीने का खर्च तो निकाल ही लेगा उसके बाद ज़रूरत पड़ी तो वापस घर चले जायेंगे|

बिज्जी की नींद से बंद हुई जा रही आँखों में उदास पिछले दिनों का पानी तैर रहा था| उन्होंने उसे बाले शाह के उर्स में जा कर माँगा था तो उसका नाम ही बाले रख दिया| जब उन्हें ये ख़बर मिली कि वह जहाँ है वहाँ युद्ध छिड़ गया है तो उनकी सांस एक पल को रुक सी गयी और उसके बाद महीनों रास्ता देखने की ऐसी बेआस बेचैनी जिसमें साँस लेते लेते मरने की सूरत बनी रहती है| उनकी आँखों में बार-बार तीन महीने पहले की एक शाम आ कर रुक जाती है| मई के आसमान में बादल ठहरे हुए थे, उमस का भभका उठ उठ कर बैठ जाता था| बादल इतने घने थे कि अगर खुल जायें तो जाने क्या क्या न बहा ले जायें| उन्होंने दूध की डोलची नीचे रख तखत पर सर टिका आँखें बंद ही की थीं कि महेंद्र की आवाज़ ने जगा दिया|

“चाची, चाची…….”

“क्या हुआ ?”

“बाले……. बाले लौट आया है अभी अभी दिल्ली से कुछ लोग उसे ले कर आये| मैं जा रहा थाने| घंटे दो घंटे में ले कर लौटा उसे|”

वह कुछ कह पाती उससे पहले ही महेंद्र घर के बाहर निकल गया|

वह जब महेंद्र की बाँह थामे घर में घुसा तो सारा घर बारिश से भीगा हुआ था| उसने देखा बिज्जी शटर का हत्था पकड़े खड़ी थीं और बारिश हवा के साथ उनके चेहरे पर पड़ रही थी| उन्होंने उसे बिना कुछ कहे गले से लगा लिया मानो उनकी आवाज़ के छूने भर से वह बिख़र जाएगा| बिज्जी ने उसे देखा देह काठ सी रूखी हो रखी थी और हर हड्डी इतनी साफ़ उभर आई थी कि मानो अभी ही ख़ाल को चीर कर बाहर निकल आएगी|

……………………

मुल्क 1: यमन

शहर: सना

उसकी शहरग में मानो जैसे गाँठ पड़ गयी थी जो बार-बार खोलने पर भी नहीं खुलती थी| उसे ऐसे लगने लगा था जैसे उसे भी अपनी माँ की तरह गोलियों से खून पतला करने की नौबत आने वाली है| दिल हूक से बार- बार भरता और आँखों की ख़ुश्क चुप्पियों पर शिकवा कर के रह जाता| मौसम में गर्द, ग़ुबार, चीखें और भी जाने क्या क्या उतर आया था| पत्ता-पत्ता शाम का भरी दुपहरी सा ज़र्द हुआ पड़ा था| अज़ान की आवाज़ें उठती और गिर कर उस राह पर डूब जातीं जहाँ रात गए मोर्टार की बौछारों ने क़तार में सटे घरों में सिवाय टूटी दीवारों के कुछ और छोड़ा नहीं था| महीनों तक बाच-बचाने के बाद वह घर पिछली रात टूट गया और उसकी लहकती शहरग में एक गाँठ डाल गया| कौन बचा? कौन मरा? किसी को किसी की कोई ख़बर ही नहीं| इस मुल्क का सबसे बड़ा सबसे सुंदर शहर खंडहर में बदलने को समय से होड़ लेता दीख रहा है| जितना नुकसान सभ्यताओं को शताब्दियाँ नहीं पहुँचाती उससे ज़्यादा आदमी के बारुद से बनाये बम-धमाके पहुंचा देते हैं| बारूद की सुलगी सी हवा धीमे-धीमे सांस लेने के सब तरीके ख़त्म कर देती है| उसके दिल में बैठे डर ने उससे पूछा कि अगले किसी हमले में अगर वह मर गयी तो क्या उस तक ये ख़बर पहुँच पाएगी या यहीं इस रेत के नए कबाड़ में खो जाएगी| युद्ध ज़मीनों से नमी सोख लेता है,जड़ों को सुखा देता है| नदियाँ सूख जाती हैं और ऐसे दिखती हैं जैसे मानो वहाँ सदियों से पानी था ही नहीं| पहाड़ों की कठोर देह चूरा-चूरा हो कर हवा में बिख़र जाती है| उसने धुंधली धूप में आँखें मिचमिचाते देखा अमानत-अल-अस्मा का खूबसूरत आसमान पहाड़ की टूटी चट्टानों के गुबार में मैला हो रखा था| अभी जाने किस कोने,किस जगह से किस के रोने की आवाज़ आयेगी| रात दिन लोगों की धडकनों में हौल पड़े जा रहे हैं, कौन जाने कब कहाँ से कोई उड़ता बम गोला आ कर लाल समंदर कि गोद में गिर पड़े या किसी के घर को दरका दे| वह जहाँ खड़ी है वहाँ से सरवत की पहाड़ियाँ ऐसे लगती हैं कि हाथ बढ़ाने से वह उन्हें छू लेगी| उन्हीं पहाड़ियों में से एक पर उसने देखा कि धमाके की चोट से एक चेहरा बन गया है| उसने देखा कि पत्थर पर आँखें, नाक और होंठ उभर आये हैं| जिसकी आँख, नाक और होठों को उसने उन पत्थरों पर देखा था उसकी अब कोई ख़बर ही नहीं थी उसको, वह जाने इस मुल्क में था भी या नहीं| अल-सालेह से अज़ान की आवाज़ हुई, उसने शाम के पहाड़ी चेहरे को ग़ुबार में डूबते हुए देखा| अब के हमलों का रुख़ रिहाईश कि तरफ़ पूरे ज़ोर से मोड़ दिया गया है| रातों-रात हिफाज़त के नाम पर बस्तियां ख़ाली कराई जा रहीं हैं| आदमी कहीं और भेजे जा रहे हैं, औरतें और बच्चे कहीं और| घर के घर पल भर में टूट कर बिख़र रहे हैं| उसे भी पता था कि किसी दिन उसे भी किसी कैम्प में भेज दिया जायेगा जहाँ से वापस आना कब हो किसे पता|

मुल्क 1: हिन्दुस्तान

शहर 2: आगरा

बिज्जी ने उसके माथे पर हाथ रखा, आज तो बुखार नहीं है| धीरे धीरे उन्होंने उसके बालों में हाथ फेरना शुरू कर दिया| रूखे बालों में उंगलियाँ अटक-अटक जा रहीं थीं| सरसों के गरम तेल की कटोरी उन्होंने उसके सर में उड़ेल दी और बालों को सहलाना शुरू कर दिया और उससे धीमी आवाज़ में बात करनी शुरू कर दी जैसे ख़ुद आप ही आप से बात कर रही हों|

“तुम सही हो लो तो अबके तुम्हारे साथ बाले शाह के उर्स चलेंगे| कुछ उतरवा देंगे तुम्हारे हाथों से वहाँ| वहाँ जाने वाले के सारे दुःख धूप में रंग से उतर जाते हैं| तुम्हारे पैदा होने से पहले गए थे वहाँ तुम्हारे लिए मनौती ले कर तभी तो बाले बुलाते हैं तुमको हम| बड़ी नाम-शोहरत कि जगह है वो, गली-गली में बस लोगों के चेहरे ही दीखते हैं और बाले शाह के नाम का एक अनदेखा सायादार परबत उनके पीछे साये सा खड़ा लगता|” बिज्जी ने उसके माथे को दुबारा छू कर कहा|

उसने पलकें खोलीं और तुरंत ही झपका लीं| बाले शाह का परबत उसे सरवत की पहाड़ियों की तलहटियों में ले गया| उसके सामने साफ़- चमकती हुई धूप का एक टुकड़ा खुला हुआ पड़ा था| जबल नुक़म की गहराई में बसा ये शहर पिछले कुछ सालों से उसकी तरह लगातार हांफ रहा था| इसकी छाती में एक धूल का रेला सालों पहले जब से उठा है तब से बैठा ही नहीं| अल-सालेह की तरफ़ से ही उसका आना जान था| उसने करवट बदल के बिज्जी की तरफ़ पीठ फेर ली मानो ऐसा करने से वह अल-सालेह के सामने से गुज़रती सड़क को ठीक से देख पायेगा| हवा में जाने कितने दिन की धूल मिली हुई थी| ये हवा उसके फेंफडों में धीरे से अंदर सरक गयी | उसे खांसी का एक हल्का सा झटका उठा तो बिज्जी के हाथ फ़ौरन ही उसकी छाती सहलाने लगे| उसने धीमी आवाज़ में पूछा|

“साल कौन सा है अम्मा?”

“साल तो अठारह शुरू हुआ अभी| तुम सही हो लो तो अगले बरस बियाह कर दें तुम्हारा और गंगा नहा लूं मैं|” बिज्जी ने उस से कहा|

“कोई है वहाँ अम्मा जो हमें पसंद है|” वो बिज्जी से बोला|

“बाले धूप भरे रास्तों के गुलमोहर छाँव के लिए तो अच्छे होते हैं पर उन पर कोई पंछी घोंसला नहीं डालता| हलकी डाल के पेड़ घर बसाने के लिए अच्छे नहीं होते| हवा कि मार घरों को तोड़ देती है| तना मजबूत और तासीर हल्की हो उसी लकड़ी की नाव पानी में उतरती है| वो यहाँ आ सकती नहीं और तुम अब कहीं वापस जाओगे नहीं| अच्छा-बुरा जो मिले अब उसे यहीं बोना, काटना है बेटा| आँसू पोंछने वाले बहुत होंगे पर जो गरम माथे का पसीना पोंछे उसी की जड़ में जा जुड़ना वरना तो सब से उतना ही जुड़े रहना जितना कि पंखुरी शाख़ से….. | थोडा हिम्मत दिखाओ मजबूत बनो, ऐसा मिलना जुलना तो बना ही रहता है जिंदगी में सबके पर एक ठौर रुकना तो पड़ता है|” बिज्जी ने उसकी आँखें पोंछते हुए कहा|

उसने बिज्जी के हाथों के ऊपर अपने काँपते हाथ ऐसे रख दिए जैसे इन्हें छूने भर से से कोई और ऐसे ही हाथ उसकी छुअन में आ जायेंगे और उसका ये दुःख पल भर ही में ख़त्म हो जायेगा|

“थोडा पानी पिलाओ अम्मा|” वह बोला|

बिज्जी पानी लेने उठीं, उसे देखा और सोचने लगीं कि कैसी बीमारी गले पड़ गई कि छाती ही बैठ गयी लड़के की| और वह आँखें बंद किये हुए सोच रहा था कि कैसा युद्ध गले पड़ गया कि वह शहर ही मिट्टी में बैठ गया| और वह जाने कहाँ होगी अब ये सोचते-सोचते पानी आने से पहले ही वह दुबारा सो गया|

मुल्क 1: हिन्दुस्तान

शहर : दिल्ली

बिज्जी जब अस्पताल पहुंची तब तक महेंद्र उसकी दवाईयाँ ले कर आ चुका था| वो जा कर उसके पास बैठ गयीं|

“डॉक्टर से बात हुई थीं चाची|”

“क्या बोले?”

“कहते हैं कि थोड़ी परेशानी की बात है| फेफड़ों में मिट्टी से इन्फेक्शन बढ़ता ही जा रहा है|”

“सही होने की क्या बात बोले?” बिज्जी ने कनपटी से पसीना पोंछते हुए पूछा|

महेंद्र उनकी बात का कोई जवाब दिए बिना ही बाहर निकल गया|

“हर हरी शाख़ पर पहला घोंसला पतझड़ ही बनाता है और उसमें बैठा दिल का परिंदा बहुत उदास होता है|” बाले ने छत को घूरते हुए सोचा| वह कितनी देर से जागा पड़ा है पर न बिज्जी और न ही महेंद्र भाई ही झांक के गए अब तक| उसने गर्दन घुमा के इधर-उधर देखा कमरे में दो मरीज़ और थे पर दोनों ही सो रहे थे| उसने हाथ बढ़ा कर पानी का ग्लास उठाया एक घूँट

पिया, वापस रख दिया और आँखें बंद कर लीं| कहीं से जैसे लोबान की ख़ुशबू आई और उससे टकरा के पलट गयी और उसे एक दूसरी जगह दूसरे अस्पताल में ले गयी|

वो अस्पताल एक पुराने स्कूल की इमारत में बना हुआ था| मर्द और औरतों के अलग-अलग दस्ते इधर-उधर सर धुन रहे थे| जिन कमरों में बच्चों की हँसी गूंजनी चाहिये थी उन कमरों में खून में लथपथ, पसीने की बदबू में डूबी कराहें उठ उठ कर गिर रहीं थीं| उसने घूम के देखा डॉक्टर का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था| लोगों के चेहरों पर बजबजाती बैचनी उसे उकताने लगी थी| उसे कौन कोई बहुत बड़ी बीमारी है ज़रा खाँसी ही तो है, कल आ जएगा दिखाने उसने सोचा| वह बाहर निकल आया, गर्मी की तेज चुभन के साथ दुपहर की हवा एक आबाये में से अपने साथ एक तीखी, सर चकराने वाली ख़ुशबू ले कर उससे आ टकराई| ऐसी ही ख़ुशबू, ऊद की तीखी, पैनी ख़ुशबू उसके साथ उसी रात से भटक रही है| उसने उस रात ऐसी ही ख़ुशबू वाली की एक झलक देखी भर थी,जब वह पत्थर उठाने के लिए उसके पास आ के रुकी थी| शक्ल तो उसके ज़हन से गुम हुई पर ये ख़ुशबू जैसे तभी से उसके साथ चिपक गयी है| कई-कई बार रात भर उसने जाग कर इस ख़ुशबू का सुराग ढूंढने की कोशिश की थी| वह पलटा और दौड़ते हुए उस अबाये वाली लड़की के पास जा खड़ा हुआ|

“सालेकुम”

लड़की आवाज़ से चौंक कर पलटी| लड़की को देख कर उसके चेहरे पर उजाले की चमक दौड़ गयी|

लड़की ने सर हिला कर तस्लीम पेश की पर कहा कुछ नहीं| उस पर एक सरसरी निगाह डाली और अस्पताल में घुस गयी|

वह पल भर को ऊद की तुर्श महक में बेहोश सा खड़ा रहा और हवास आने पर उसके पीछे-पीछे अंदर घुस गया| अंदर की जिस भीड़ से घबरा के वह बाहर निकल आया था अब उसी भीड़ में उसे ढूंढ रहा था| सैकड़ों एक जैसे अबायों के बीच वह जब उसे ढूंढ नहीं पाया तो थक-हार के बाहर निकला और ख़जूर के एक पेड़ के नीचे बैठ गया| पत्तियों की नोक से टकरा के धूप सीधे उसके माथे पर पड़ रही थी और उसके चेहरे को चितकबरा बना रही थी| उसे खाँसी उठी और ऊद की तेज़ गंध में लिपटे हाथ ने उसकी तरफ़ पानी की बोतल बढ़ा दी| काँपते हुए उसकी आँखें खुल गयीं| कुछ ही तो नहीं था उसके सामने सिवाय बिज्जी के जो उठ कर जग में से उसके ग्लास में पानी भर रहीं थीं| बिज्जी ने उसे पानी पिलाया, हाथ की सूजन को छू कर देखा | डॉक्टर ने सूजन की वजह से कैन्युला की जगह बदल दी थी| देर तक उसका माथा सहलाती रहीं और जब वह सो गया तो खड़ी हो कर उसके सीने के उतार-चढ़ाव को देखती रहीं| जब से उसकी बीमारी का पता चला है वह ऐसे ही उसकी साँस लेने की गति से उसके ठीक होने का अनुमान लगाती रहती हैं| उसे सोता छोड़ वह निकल आईं| महेंद्र वहीं बरामदे में खड़ा था, उन्हें देख बीड़ी फेंक उनकी तरफ़ बढ़ गया|

“क्या कर रहा है?”

“सुला कर आई हूँ|”

“कुछ बात की?”

“एक शब्द नहीं बोला| ज़रा देर को जगा था| पानी पिया और दुबारा सो गया|”

“अच्छा है जितना आराम करे|”

“उल्टे हाथ में सूजन आ गयी है डॉक्टर मिले तो पूछना लेना महेंद्र|” उन्होंने कहा|

“अच्छा चाची एक बात सुनो|” महेंद्र ज़रा देर चुप रह कर बोला|

“हम्म्म्म”

“स्वरुप मामी के पिता जी याद हैं आपको?”

“बी.टी.सी. मास्साब?”

“हाँ, मामी बता रहीं थीं कि उन्हें भी ठीक ऐसी ही बीमारी ने पकड़ लिया था| कहीं फ़ायदा नहीं हुआ तो तो काठगोदाम के किसी वैद्य के पास ले गए उनके भैया| तीन महीने में टकाटक ठीक हो गए थे मास्साब| बाद में तो बिना बेंत के भी चलते रहे कितने साल तक|”

“अरे! सरूपा की भली चलाई| वो मठ्ठे से चाय और दूध से लस्सी बनाने जैसे करतब ही दिखा सकती है| उसके कहे का क्या भरोसा| याद है अपने बेटे को दमे के बाद कैसे हैदराबाद ले गयी थी कि गले में मछली डलवाऊँगी और दमा ठीक| कुछ हुआ? लड़का आज तक परेशान है| ढंग से डॉक्टर को दिखाया होता तो लड़का कब का सही हो जाता|” बिज्जी ने कहा|

“पर एक बार ले चलने में कोई हर्ज़ तो नहीं|”

“जैसा ठीक समझो, पर अभी नहीं कुछ रुक कर|” बिज्जी ने कहा|

“पैसा कितना पड़ा है पास में?” महेंद्र ने पूछा|

“अभी तो है तीन, साढ़े-तीन महीने लायक”

“उसके बाद?”

“उसके बाद तेरे वैद्य जी के पास|” अच्छा अब तू जा शाम को आना| मैं ज़रा रामायण का पाठ कर लूँ| बिज्जी ने बटुए में से रामायण गुटका निकाल माथे से लगाते हुए कहा|

मुल्क 2: यमन

शहर: सना

“सालेकुम”

आवाज़ सुन कर वह पलटा| उसे अस्पताल आते हुए हफ़्ते से ऊपर हुआ पर उस दिन के बाद वह उसे आज देख रहा था| अबकी बार खुश्बू मिले-जुले फूलों जैसी थी|

“वालेकुम सलाम|” उसने जवाब दिया|

“शबाब हिन्द?” (हिन्दुस्तानी हो)

“आइवा” (हाँ)

“माय शोइया|” (पानी लोगे थोडा)

“तुमने उस रात पत्थर क्यूँ मारा था मुझे?” उसने लड़की के हाथ से पानी की बोतल लेते हुए पूछा|

“बस यूँ हीं फेंका था पत्थर| तुमको मारने के लिए नहीं था|”

“तुम किस चीज़ के लिए आ रहे हो हॉस्पिटल, रोज़ यहाँ आ कर बैठे रहते हो?” उसने पूछा|

“खाँसी दिखाने के लिए|” वह बोला|

“क्या सच में?” उसने हँस कर पूछा|

“पहले खाँसी दिखाने आता था पर उस दिन के बाद तुम्हें ढूंढने|

“तुम क्यों आती हो यहाँ?”

“भाई ग़ायब है मेरा| घर से निकला था एक रोज़ अब तक पलटा नहीं| उसी को ढूंढती रहती हूँ आजकल| कभी यहाँ तो कभी कहीं और| उसने कहा|

“यहाँ कहाँ रहते हो तुम?”

“धामर में था पर काम बंद होने के बाद हमें यहाँ कैम्प में भेज दिया| पिछले कई महीनों से यहीं हैं अब सब| जाने कब घर जा पायेंगे|”

“अच्छा|”

“तुम कहाँ रहती हो?”

“यहीं अल-सालेह के पास|”

“बड़ी मस्ज़िद वो तो बहुत दूर हुई यहाँ से|” वो बोला|

दिन डूबते रहे, शामें उगतीं रहीं पर हवा में घुली बारूदी उदासी कम नहीं हुई| लोग धमाकों से कम मर रहे थे कि बीमारियाँ भी आ गई थीं लोगों को निगलने| अम्मा-बाबा पहले ही हैज़े में पार उतरे और अब ये नया साथी भी छूटने कि कगार पर है| उसने उसका चेहरा देखा, खाँस-खाँस के खून उसके पूरे चेहरे पर उभर आया था जैसे| कुछ ही हफ़्ते में शक्ल-ओ-सूरत पटक के सूख गयी थी| दवाईयां काम नहीं आ रहीं थीं उसके| युशरा ने उसके चेहरे को देखा, उसकी सूखी आँखों में बैचैनी का बीज अटका पड़ा था| उसने सोचा कि सूखी मिट्टी में भला बीज अँखुआते है कहीं। बीज में हरियाली बनाये रखने के लिए नमी बहुत ज़रूरी होती है। पहाड़ों के पैरों से लिपटी वादियाँ में धूल उड़ रही है,पानी की बूँद भी नहीं| जिन मौसमों में हवा भी सर झुका के चलती हो, उन मौसमों में मन को छुपा के रखना चाहिए। ये सरनिगूं हवा मन में बवंडर उठा जाती है, और ऐसे मौसम में वह मन में जाने कैसे मंसूबे बाँध रही थी वो भी एक लौट कर जाने वाले के लिए|

दिन डूबने पर असमान की रोशनी कई रंगों में बिख़र के उसके सर के ऊपर फैलने लगी थी| ऐसी शाम युशरा ने महीनों बाद देखी थी जब आसमान में धूल का ग़ुबार नहीं थ|

“जानते हो यहाँ अरब में एक बात बोली जाती है|” उसने बाले से कहा|

“क्या?”

“दूर है दिलगीर है/ नज़दीक तुपंग-ए-तीर है|”

“मतलब|”

“यानी….. जो दूर है वह दिल के करीब है/ नज़दीक होने पर वही तीर की तरह चुभता है|”

“क्या बात है?”बाले ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उससे कहा|

“हम सब को यहाँ से निकाल कर कैम्प में भेज रहे| लोगों के भेजना भी शुरू कर दिया है|” वो बोली|

“किस जगह भेजेंगे?”

“पता नहीं जिसको जहाँ जगह मिल सके|” अब अपने दूर होने का वक़्त आ रहा है|”

“प्यार?” बाले के मुँह से इतना ही निकला|

प्यार……………….. जैसे रंगों में बैंगनी, मिट्टी में रेत, रगों में शहरग, वक़्त में देर और पानी में भँवर जितने ऊंचे होते हैं उतना ऊंचा, नम और चमकदार प्यार कौन निभा पाता है। किसी किसी के ही दिल की ढ़ालू पहाड़ी में ऐसा कोना बन पाता है जहां रौशनी जा कर बैंगनी रंग में टूट जाती है, जिसकी दरारें सोने के रंग वाली रेत को लिए हँसती रहती हैं। जिसके कोने से कहीं एक रग ज़रा सा गिरदाब लिए ऊपर की ओर थोड़ी थोड़ी देर में नमक मिले पानी को पहुंचाती रहती हैं। हमारे दिल तो सपाट धड़कने वाले ज़मीन के टुकड़े हैं ये कब कहाँ हरे हो सकते हैं|”

“अब क्या होगा?”

“अब क्या होगा, किसे पता? यूँ भी बाले मिट्टी जब-जब समंदर बीच अपनी ऐड़ी रगड़ती है तब तब पहाड़ करवट बदलते हैं और फिर उन्हीं पहाड़ों से पानी कभी कभी नीचे उतरते हुए समंदर बीच अगले पहाड़ के लिए मिट्टी ले आता है। क्या मालूम कभी मिलना भी हो पाये|” युशरा बोली|

मुल्क 1: हिन्दुस्तान

शहर: दिल्ली

वह जागा हुआ था या झूठे ही आँखें मींच कर पड़ा था महेंद्र को समझ नहीं आ रहा था| रात से रह रह कर उसकी हालत बिगड़ने लगी थी| बिज्जी बीच बीच में झाँक जातीं और वापस जा कर रामायण पढ़ने लग जातीं कि दवा नहीं तो पूजा-पाठ ही काम आ जाये| डॉक्टर्स ने महेंद्र से पिछले हफ़्ते ही कह दिया था कि महीनों किसी बारूदी हवा और धूल भरी जगह में लगातार काम करने से उसके फेंफडों में जो ब्लॉकेज आ गया है, उसे सही करना मुश्किल है| महेंद्र ने उसके सीने पर हाथ रख कर देखा उसका दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था कि महेंद्र को उसकी धड़कन उसके गले में उभरती नज़र आईं| उसकी खुली बाँह पर सुई का निशान भर भी नहीं था पर बाँह पर हल्की सी लाल छाँव उभर आई थी। इंजेक्शन लगाने वाले ने महेंद्र से कहा।

‘अब आराम पड़ जाएगा थोड़ा। इतनी तबियत बिगड़ने पर लाये हो इन्हें यहाँ। कुछ और पहले लाते तो अब तक कंट्रोल कर सकते थे न हम।’

‘लाते कैसे? ये जहाँ थे वहाँ हाल अच्छा नहीं इन दिनों लड़ाई छिड़ी हुई है और वैसे भी अबतक बहुत बंधन में थे ये। अब आ गए ये ही क्या कम गनीमत है।’

बंधन उसके कानों ने जाने कैसे इस बात को सुन लिया।

‘क्या होता है बंधन कहीं किसी ऐसी जगह फंस जाना जहां युद्ध आपके सरहाने सो रहा हो। इन देह के बंधनों से बड़े मन के बंधन होते हैं। उसमें भी जब आपका मन पैदा ही बढ़ने, भटकने के लिए हुआ है और सारा जीवन किसी एक घर में किसी के साथ काट दें या फिर आप चाहते हैं किसी एक जगह किसी एक छाँव के नीचे जीवन लहर की उठता और गिरता तो रहे पर किसी समंदर की ज़ानिब न बढ़े ऐसे में इस लहरदार पौधे को कोई बारीक़ी से काट काट कर क़लम बना कर जगह जगह रोप दे और फिर कहे कि अब खिल के दिखा। ऐसे बंधन कहाँ ढीले कर पाता है कोई बिना मरे। उसके मन की एक कलम किसी ने काट कर सरवत की पहाड़ियों में रोप दी है| किसे पता उसमें से कोई पौध निकल कर लहलहा रही हो या सूख के झर चुकी हो| उसकी बाँह हल्की सी कांपी और जहाँ लाल छाँव थी चुपचाप दम उस खिड़की से कूद उसे हर बंधन से आज़ाद कर गया। सरहाने खड़े दोनों लोग अभी भी उसकी फ़िक्र में दुनिया जहान की बातें बना रहे थे। दूर सरवत की पहाड़ियों में धूल भरी हवा उठी और युशरा के पैरों के पास आ कर बैठ गयी।

…………………………..

Anagh Sharma

+968-94534056

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कुश वैष्णव की कहानी ‘जान में जान’

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कुश वैष्णव इतने सारे काम करते हैं कि हमें ध्यान ही नहीं रहता कि वे लेखक भी हैं। पढ़िए उनकी कहानी- मॉडरेटर

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जान में जान आयी थी। मतलब हमारी जान में। मतलब कि हमारी जान ‘प्रेगनेंट’ थी और हम टेंशन में थे। सुबह जब साढ़े सात बजे फ़ोन की घंटी बजी और स्क्रीन पर जान लिखा देखा, तभी हमारी जान निकल गयी थी। हम समझ गये थे कि जो ग़लती जानबूझकर नहीं की उसने जान निकाल दी है। हमने फ़ौरन फ़ोन उठाया।

“हाँ बोलो?”

सामने से जान के रोने की आवाज़ आयी। हमने सवाल पूछने में टाइम खोटी नहीं किया और सीधे जान के होस्टल पहुँचे। जान की सहेली जान्हवी भी वहीं थी। हमको देखकर ग़ुस्से में बोली-

“साले, ठरकी इडियट, दस रुपए भी जेब में लेकर नहीं घूमते?”

हमको समझ में आ चुका था कि जान ने वो दस रुपए वाली बात बता दी। ऐसा नहीं था कि हमको ‘प्रोटेक्शन’ के बारे में मालूम नहीं था। हम तो गए भी थे मेडिकल स्टोर पर, लेकिन वह साला पेटीएम ले नहीं रहा था और पैसे हमारे पास थे नहीं। ज़िंदगी में पहली बार दस रुपए की वेल्यू समझ आ रही थी। काहे दस का नोट नहीं धरा जेब में। डिजिटल इंडिया के चक्कर मे हम अब बाप बनने वाले थे।

हम जान्हवी की गुस्साती नज़रों से बचके बस ‘पे’ बोले ही थे कि वो फिर से बोली-

“पेटीएम नहीं था उसके पास तो कहीं और चले जाते। दूसरी दुकानें नहीं थी क्या बाज़ार में?”

हम जानते थे ये सवाल दागा जाएगा, हमारी जान ने भी दागा था उस रात और आपको भी ये जानने की चुल्ल मची होगी, तो बस समझ लीजिए कि ऐसी ही कुछ चुल्ल उस वक़्त हमको मची थी। हमने अपनी जान को वहीं से फ़ोन करके पिछली डेट पूछी और आगे पीछे गणित लगा के बिना लिए चले आए। वापस आके जान को ‘पॉवर ऑफ़ पाजिटिव थिंकिंग’ समझाया। जान के ‘कुछ होगा तो नहीं’ पूछने पर हमने इतने कोनफ़िडेंस से बोला ‘कुछ नहीं होगा’ जैसे साला हम देश के फ़्यूचर की बात कर रहे हो। लेकिन इधर तो हमारा फ़्यूचर दाँव पर था। नौकरी के नाम पे हम कुछ करते नहीं थें। आने को सिर्फ़ बकैती आती थी और उसका फ़्यूचर सिर्फ़ पॉलिटिक्स में था जिसमें हमको कोई रुचि नहीं थी।

“अब बोल क्यों नहीं रहे हो।” जान की सहेली जान्हवी फिर से बोली।

हम चुप ही रहे। क्या बोलते? बकरे की तरह मिमियाने से अच्छा था चुपचाप खड़े रहो लेकिन जान की सहेली अलग ही मूड में थी। ठीक हमारी छाती के सामने आ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर बोली-

“महाराज आपसे ही पूछ रहे है।”

हमको लगा चुल्ल वाली बात बताना तो ठीक नहीं और वैसे भी इतने सत्यवादी हम हैं  नहीं, तो हम ने कह दिया की रात बहुत हो चुकी थी और बाज़ार पूरा बंद था।” हमको लगा ये कहने से काम चल जाएगा। पर वो बोली-

“चलो! उस दिन पैसे नहीं थे। तो अगले दिन अनवांटेड ले आते। 72 घंटे में ले सकते है इतना तो जानते हो कि नहीं?”

हमने एक नज़र जान्हवी को देखा। हमको लगा नहीं था कि इसको इतनी ‘कनोलेज’ हो सकती है। जब भी जान को लेने आता, ये हमको खा जाने वाली नज़रों से देखती थी। एक बार भी हमको नहीं लगा ये इत्ती समझदार है। आज ये वाली सिचुएशन नहीं होती तो हम इसकी बलैयाँ ले लेते लेकिन अभी लेने के देने पड़ चुके थे। हमने ज़बान खोली-

“सोचा था, लेकिन फिर पॉवर ऑफ़ पोसिटिव थिंकिंग ने मरवा दिया।“

“मरो तुम साले!” जान की सहेली ने हड़काते हुए बोला।

हमने लटके हुए मुँह से जान की तरफ़ देखा। हमको लगा जान भी कोई सवाल पूछेगी लेकिन उसके चेहरे पर पूरा ‘क्वेशचन पेपर’ था। हम इग्ज़ैम की तरह इसको भी ख़ाली छोड़ देना चाहते थे मगर जानते थे यहाँ तो ‘सप्लिमेंट्री कापी’ भरनी पड़ेगी। जान ने एक लम्बी साँस ली और कुर्सी पे बैठ गयी। माथा दीवार पे टिकाया। हमको दीवार पे लगा काग़ज़ नज़र आया। जान ने अपनी पढ़ाई का टाइम टेबल बना रखा था। हम पहली बार सेंटी हो गए। हमको लगा हमने ये क्या कर डाला। हमसे ग़लती तो हुई है मगर अब क्या किया जाए। हमको सम्पट नहीं पढ़ रहा था कि क्या करे। इतने में जान की सहेली की आवाज़ आयी।

“ख़ैर कोई बात नहीं। DNC हो जाएगी। अभी भी वक़्त है। डॉक्टर के पास चलते है।”

हमने जान की सहेली को फिर से वात्सल्य भाव से देखा। हम एक मिनिट में दूसरी बार सेंटी हो गए, हमको लगा पिछले जनम में ये हमारी मय्या रही होगी। हमने “ठीक है चलो’ बोलके जान की तरफ़ हाथ बढ़ाया। हमको लगा जान ‘DDLJ’ की काजोल की तरह हमारा हाथ थाम के गाड़ी में चल पड़ेगी लेकिन जान तो ‘गुप्त’ वाली काजोल निकली। हमको एकदम किलर टाइप नज़रों से देखकर बोली-

“हमको बच्चा चाहिए, तुम बोलो तुम क्या चाहते हो?”

“बच्चा?????” हमने ‘चा’ को थोड़ा देर तक खींचा। बदले में जान ने हमको अपनी ओर खींचा, और स्टूल पे बिठाया।

“क्यों? लव नहीं करते हमसे?” जान ने हमारा हाथ अपने हाथ लेकर पूछा। माँ क़सम इस पोज़ में वो जादू है कि वर्णमाला से ‘न’ अक्षर ही ग़ायब हो जाए। हमने हाँ कहा। और ये हाँ हमने दिल से कहा। प्यार तो हमको जान से था ही बल्कि जान हमको जान से प्यारी थी।

“हर क़दम पर साथ निभाओगे। ये बोला था न तुमने?” जान की आँखे हमारी आँखो में थी।

हमने पूछा “तुम क्या चाहती हो?”

“यार बच्चा तो हम रखना चाहते है मगर हमारी पढ़ाई, परीक्षा और बिना शादी का बच्चा। ये सब बहुत सोच के टेंशन है।”

पढ़ाई और परीक्षा तो ठीक था, मगर हम शादी पर अटक गए। ये वो चीज़ थी जो हम हमेशा टालने के मूड में रहते थे। हमको याद आया कि बचपन में भी स्कूल में हम नैतिक शिक्षा वाला चैप्टर पढ़ना टाल दिए थें, जिसका शीर्षक था ‘संयम में शक्ति’। हमको लगा वो चैप्टर पढ़ लेना चाहिए था। एक ही पल में हमको शिक्षा का महत्व समझ आने लगा था। हमारी आँखे जान के हाथ पे टिकी थी। जान का मुलायम हाथ अब भी हमारे हाथो में था। हम कुछ कहते इस से पहले जान बोली-

“सुनो, तुम शादी न करना चाहो तो कोई बात नहीं। हम अकेले पाल लेंगे बच्चे को। पढ़ाई न हो पाएगी तो न सही। शायद हमारी क़िस्मत में ही नहीं होगी।”

हमारे पाँव के नीचे से दरी खिसक गयी। मार्बल का फ़्लोर था तो कई बार खिसक भी जाती है। हमने पैर से ही दरी को ठीक किया और जान की तरफ़ देखा। पहली बार जान ने क़िस्मत शब्द का वाक्य में प्रयोग किया था वरना आज से पहले जान सिर्फ़ मेहनत और हुनर की बात करती थी।

हमको बड़ा गिल्टी टाइप फ़ील हुआ। हमने उसी वक़्त ठान लिया कि अब चाहे जो भी हो, अपने सामने बैठी इस लड़की की आँख में एक आँसू न आएगा। ये जानते हुए भी कि इसी मर्दानगी के चक्कर में ये कांड हुआ, हमारे अंदर का मर्द जाग गया था। हमने मुग़लिया सल्तनत के सुल्तान की तरह फ़रमान सुना दिया।

“हम शादी करेंगे तुमसे जान, और इस नन्ही सी जान का स्वागत करेंगे।”

हमने ये बोलते ही तय कर लिया था कि अब दुनिया को दिखाने का वक़्त आ गया है कि बाप क्या होता है।

जान की आँखो में आँसू आ गए। जान ने उठ के हमको गले लगाया। हम रुके नहीं, फ़रमान कंटिन्यू किया-

“ भले ही हम अब तक कमिटमेंट से भाग रहे थे लेकिन अब हम कुछ पार्ट टाइम जॉब करेंगे, तुम बस अपनी पढ़ाई का ध्यान रखना, बच्चे को हम संभाल लेंगे। बच्चे की वजह से तुम्हारे करियर पर आँच नहीं आने देंगे।”

हमने देखा जान कि पकड़ हमारी पीठ पर और मज़बूत हो गयी थी। हिंदी पिक्चर की हैप्पी एंडिंग वाला माहौल बन चुका था। जान की सहेली जान्हवी ने तालियाँ बजानी शुरू कर दी। उसकी नज़र में अपने लिए इज़्ज़त देख के हमारी नज़र में उसके लिए इज़्ज़त बढ़ गयी। आज से हमारी नयी ज़िंदगी का स्टार्ट अप होगा। हमने फ़ैसला सुना दिया।

जान और जान की सहेली ने एक दूसरे को देखा। दोनों बहुत ख़ुश हुए। थोड़ी देर पहले वाला सेंटी माहौल अब एकदम से हल्का हो चुका था और इस हल्के हुए माहौल में हमको याद हुआ कि हम सुबह से हल्के नहीं हुए थे। हमने जान से कहा “आते है एक मिनट।”

हम बाथरूम कि तरफ़ जाने लगे। जान ने हमको रोकना चाहा। पर हम नेचर लवर थे। नेचर कॉल को रोक नहीं पाए।

“आके बात करते हैं।”

ये बोलके जैसे ही हमने बाथरूम की तरफ़ फुर्ती से क़दम बढ़ाया वो दोनों हमारे पीछे भागती हुई आयी हमको रोकने के लिए, लेकिन तब तक हम अंदर घुस के कुंडी लगा चुके थे।  और हमारी नज़र भी पड़ चुकी थी, ठीक सामने वाश बेसिन पर रखी उस स्ट्रिप पर, जिसमें आयी एक नेगेटिव लाइन हमको मुँह दिखाकर चिढ़ा रही थी।

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प्रदीपिका सारस्वत की कविताएँ और कश्मीर

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प्रदीपिका सारस्वत कश्मीर में लम्बा समय बिताकर अभी हाल में लौटी हैं। कुछ कविताओं में घाटी के दिल के दर्द को महसूस कीजिए- मॉडरेटर

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कश्मीर पर तीन कविताएँ
 
 
 
ऑप्रेसर
 
 
मैं एक व्यक्ति थी
मेरा एक नाम था, एक चेहरा
उसी की तरह
मैं उससे जब भी मिली
हमने बातें की
धरती पर रंगों को बचाने के बारे में
हमने दोहराया कि लाल रंग महज़ ख़ून से बावस्ता नहीं
और सफ़ेद कितना ख़ुशहाल हो सकता है
हमने नज़रअंदाज़ किया
कँटीली तारों के धुँधले रुपहले
और बंदूक़ों के काले, मटीले रंगों को
और एक दिन जब अपने-अपने घरों से निकलते हुए
हमारे रास्ते रोके गए
तो मैंने चुनी लंबी राह
उस तक पहुँचने को
और उसके हिस्से आई तारों की तेज़ धार
सफ़ेद लिबास पर लहू का सुर्ख़ रंग
अब मैं एक ऑप्रेसर हूँ
मेरा नाम और चेहरा नहीं है
और उसका?
 
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सब्ज़ दलदल में
 
 
पानी के ऊपर का एक शहर
है आग और बारूद की ज़द में
ख़ौफ़ यूँ है कि ख़ाली मकानों से
गुल हैं रौशनियाँ
अब यहाँ कौन आएगा
झील के मैदान हो जाने तक
बस जज़्ब होते जाते हैं
एक सब्ज़ दलदल में
रात को थक हार कर
घर लौट आने के ख़्वाब
 
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एक अजनबी मुल्क में
 
 
एक अजनबी मुल्क में
जब रातें हो रही हों लंबी और सर्द
और काम के घंटों के सहारे
तुम जी रहे हो ठंडे, उदास दिन
जबकि उनसे गुज़रते हों
धूप में सुर्ख़ हुए चेहरे
सिगरेट जलाती उँगलियाँ
चाय-कुलचे परोसते हाथ
और पकते हुए भात की नमकीन ख़ुशबू
और इन तमाम काग़ज़ी तस्वीरों के बीच
न बची हो कोई जगह
तुम्हें बेवक्त आ जाने वाली हिचकी के लिए
तो एक दिन होगा कि ये अजनबी चेहरे, उँगलियाँ, हाथ और ख़ुशबू
तस्वीरों से निकल कर बढ़ने लगेंगे तुम्हारी ओर
तब तुम सोचोगे कि तुम महज़ एक काग़ज़ हो
किसी ठंडे, सख़्त पेपरवेट के नीचे दबे हुए
तुम्हारे अपने प्रेत तुम्हें डराने आएँगे
इन सारी अनजान सूरतों में
उस वक़्त
अगर तुम याद रख सको
तुम्हें बचा ले जाएगा
एक छोटा सा जन्तर
तुम्हें अपने सीने में भरनी होगी पूरी साँस
और आने देनी होगी हिचकी
एक अजनबी मुल्क में
अजनबी और कोई नहीं
सिर्फ़ तुम होते हो

 

 

 

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अगर पेरिस बेहतरीन रेड वाइन है तो रोम बहुत ही पुरानी व्हिस्की

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आशुतोष भारद्वाज हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन करते हैं और उन समकालीन दुर्लभ लेखकों में हैं जो समय के चलन से हटकर लिखते हैं और इसके लिए समादृत भी हैं। इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकारिता के बूते चार बार रामनाथ गोयनका पुरस्कार से नवाज़े जा चुके आशुतोष शिमला एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो रहे। अभी हाल में ही फ़्रांस में निर्मल वर्मा के साहित्य की स्त्रियों के ऊपर व्याख्यान देने गए थे। उनका चयन प्राग की ‘सिटी ऑफ़ लिटरेचर रेजीडेंसी फ़ेलोशिप’ के लिए किया गया है। प्राग का नाम आते ही निर्मल वर्मा का ध्यान आता है। असल में आशुतोष जी के गद्य में एक निर्मलीय धुन और सम्मोहन भी है। रचनात्मक गद्य कम लिखते हैं लेकिन जब लिखते हैं तो बार बार पढ़े जाने योग्य होता है। जैसे रोम और पेरिस पर लिखा उनका यह संस्मरण- मॉडरेटर

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             शेक्सपियर की बिल्लियाँ और रोम की दीवारें

“कहते हैं यहाँ कुंदेरा शराब पीने आया करते हैं।”

“यहाँ…आपने देखा कभी उन्हें?”

“नहीं, लेकिन कई लोग कहते हैं।”

हम पेरिस के होटल लुटेशिया के सामने खड़े हैं। वह ऐतिहासिक इमारत जिसमें द्वितीय युद्ध के दौरान अनेक लेखक, कलाकारों ने शरण ली थी और जब फ्रांस जर्मनी के कब्जे में चला गया यह होटल नाज़ी सेना का पेरिस में मुख्यालय हो गया.

“आपको कुंदेरा पसंद है?”

वह मुस्कुराने लगीं।

“मैं बहुत छोटी थी, जोक पढ़ा था। तुरंत बस पकड़ प्राग चली गयी। लम्बे समय तक वहीं रही।”

अब मैं मुस्कुरा रहा हूँ। कृष्ण बलदेव वैद और ज़ोर्ज पेरेक के बाद यह तीसरा उपन्यासकार है जिसके लिए मोहब्बत हम पिछले दो घंटे में साझा कर चुके हैं. उन्होंने फ़्रेंच में गुज़रा हुआ ज़माना पर पीएचडी की है। जिस संस्थान में इन दिनों शोध कर रहीं हैं वह फ़्रान्स के दिग्गजों की कर्मभूमि रहा है — रोलाँ बार्थ, देरिदा, फ़ूको और अब टॉमस पिकेटी।

थोड़ी देर पहले उन्होंने मुझे ‘कैफ़े दे ला मेयरी’ के बारे में बताया था जहाँ पेरेक कॉफ़ी पीने आया करते थे। हम दोनों वहीं गए, पेरेक की मुद्रा में बैठकर कॉफ़ी पी। पेरेक मुझे पिछली सदी के महानतम फ़्रांसीसी उपन्यासकार लगते हैं, काम्यू और सार्त्र से कहीं ऊपर।

 बात मेरी बस्तर किताब पर मुड़ती है, वह सहसा पूछती हैं: “आप माओवादी हैं?”

“नहीं…एकदम नहीं हूँ।”

“बट यू कैन बी वन…देरिदा माओवादी थे।”

“लेकिन शायद उस अर्थ में नहीं जिस तरह भारत में माओवादियों को देखा जाता है। मुझे नहीं लगता देरिदा ने कभी ऐके-४७ उठाई होगी या गोली चलाने का सोचा होगा।”

यह अक्टूबर चौबीस की दोपहर है। परसों धूप थी, कल बादल और बूँदें, आज तेज़ हवा के बीच हम पेरिस की गलियों में चल रहे हैं। वह उस सैलों की तरफ़ इशारा करती हैं जहाँ सिमोन और सार्त्र आया करते थे।

कल मैं पैरे ला’शेज गया था, पेरिस का सबसे बड़ा क़ब्रिस्तान. मुझे इसके बारे में पहले नहीं मालूम था, लेकिन किसी ने ज़ोर देकर कहा था कि वहाँ ज़रूर जाना। पूरा दिन क़ब्रों के बीच भटकता रहा — सिर्फ़ दो क़ब्र देखीं। पहले बाल्ज़ाक, ‘द अननोन मास्टरपीस’ का लेखक। कलाकार के जीवन पर इससे महान कहानी मैंने नहीं पढ़ी। एक असंभव आकांक्षा के पीछे कुर्बान होता जाता कलाकार. मार्क्स ने कभी अपनी तुलना इस कहानी के नायक के साथ की थी. क़ब्र के सामने बैठ किंडल पर उस कहानी के कई अंश पढ़े। क़ब्र के ऊपर बाल्ज़ाक की मूर्ति लगी हुई थी।

प्रूस्त की क़ब्र खोजने में बहुत देर लगी। बाल्ज़ाक तो एकदम सड़क पर हैं, प्रूस्त थोड़ा भीतर सोए हुए हैं। प्रूस्त की काली क़ब्र पर दो काग़ज़ पत्थर से दबे रखे हुए थे। पहला किसी रॉबर्ट का था, उसने मेट्रो की टिकट पर लिखा था — ‘थैंक्स फ़ोर द बुक्स…वट्स अप?’

दूसरा किसी रेशल ने लिखा था, सुनहरे रंग की हेयर क्लिप से काग़ज़ को दबा दिया था  — ‘चेर मार्सेल चेर…रेशल।‘

काग़ज़ पर कई सारे दिल काढ़ दिए थे।

बाद में याद आया मेरी किसी कहानी की नायिका का नाम रेशल था।

काफी देर से कब्रों के बीच एक बिल्ली घूम रही है. लगभग ऐसी ही भूरी-चितकबरी बिल्ली मैंने शेक्सपियर एंड कम्पनी में देखी थी. पियानो के बगल में, किताबों की शेल्फ के सामने बेंत की कुर्सी पर मुंह फेरे सो रही थी — ऐगी द कैट.

सिल्विया बीच। शेक्सपियर एंड कम्पनी की संस्थापक। हेमिंग्वे, एलियट जैसे लेखकों की दोस्त, बैंकर और डाकिया — सब एक साथ। जब कोई यूलिसिस को छूने तक की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, सिल्विया ने इसे पहली बार १९२२ में प्रकाशित किया था। कहते हैं इंग्लैंड, अमरीका, आयरलैंड और फ़्रान्स को जोड़ने में सिल्विया ने जितना काम किया उतना इनके राजदूत मिल कर भी नहीं कर पाए।

*

बीस अक्तूबर.इतवार.

बुधवार सुबह उठा तो एक चिड़िया काँच की दीवार के बाहर पड़ी हुई थी। रॉबिन चिड़िया। इसके शरीर पर कोई निशान नहीं था। बौराई आँखें। घर में दो बिल्लियाँ हैं, लेकिन उन्होंने इसकी हत्या नहीं की थी। यह भूख, बीमारी या गर्मी की मौत नहीं लग रही थी।

बाद में मालूम हुआ यूरोप के इन शहरों में तेज़ गति से उड़ते आते परिंदे अक्सर पारदर्शी काँच की दीवारों को भाँप नहीं पाते। अपनी देह और हवा की पूरी शक्ति के साथ काँच से टकराकर ढह जाते हैं।

पारदर्शी मृत्यु।

दोनों बिल्लियाँ विकट चंचल. जब घर के अन्दर होंगी, बाहर जाने के लिए दरवाजे पर पंजे मारेंगीं. बाहर होंगीं, तो अन्दर आने के लिए मचलेंगीं. इन्हें ब्रेक्जिट कैट का नाम दिया गया है.

*

छब्बीस अक्तूबर.

कल निर्मल को गए एक साल और हुआ।

बस्तर जाने से पहले जीवन में सिर्फ़ दो इंसानों को जाते देखा था, अपने हाथों से लकड़ियों पर लिटाया था — मेरे बाबा और निर्मल।

कल का दिन उस शहर में बीतना था जहाँ मृत्यु की वह कथा दर्ज हुई थी जिसे निर्मल ने बीसवीं सदी की सबसे महान कहानी कहा था — डेथ इन वेनिस।

*

ऐलिस रोम में थियेटर करती हैं. साधारण थियेटर नहीं, उनकी छोटी सी रेपरतरी लोगों के घर जाती है, उनके हॉल में नाटक खेलते हैं। लेकिन यह उनकी माँ के बारे में है जो इटली में लम्बे समय तक क्रांतिकारियों के साथ जुड़ी रहीं फिर सहसा भारत चली आयीं. इसके बाद उनके भारत के फेरे लगने शुरू हो गए — राजस्थान, कलकत्ता, गोवा। जब ऐलिस के पेट में तीन महीने की संतान थी वह चली गयीं। उनकी इच्छा थी कि उन्हें हिंदू रीति से जलाया जाए, उनकी अस्थियाँ गोवा के कैलांगुटे बीच पर बिखेर दी जाएँ। उनका अंतिम संस्कार रोम में हुआ। क्रीमटॉरीयम के कर्मचारियों ने दो दिन बाद एक छोटा सा कलश बेटी को सौंप दिया। बेटी देखती रही — माँ इत्ते में समा गयी थी।

साल भर हो गया। ऐलिस के बेटा हुआ, दस महीने का हो गया। अब बेटी माँ की अंतिम इच्छा अपने भीतर लिए जी रही है।

कुछ दिन बाद ऐलिस के कहे को याद करते हुए मुझे न जाने क्यों ऐके रामानुजन की वह आत्मकथात्मक कहानी याद आयी जिसमें मैसूर का एक युवक ऐन्थ्रॉपॉलॉजी पढ़ने शिकागो चला जाता है इस उम्मीद में कि पश्चिमी शिक्षा उसे भारतीय रूढ़ियों से मुक्ति दिला देगी। वह ख़ुद को पश्चिमी ग्रंथों में डुबो देता है, दिन रात लाइब्रेरी में बैठा पढ़ता रहता है कि एक दिन उसे भारतीय रूढ़ियों पर एक किताब दिखती है  जिसके हिंदू विधवाओं पर एक अध्याय में उसकी माँ की तस्वीर है। माँ का सर मुंडा हुआ है। इस तरह उसे अपने पिता की हालिया मृत्यु के बारे में पता चलता है।

*

कहते हैं रोम में कहीं भी हाथ भर खुदाई करो किसी पुरानी इमारत के अवशेष निकल आयेंगे. अनेक महारथियों द्वारा बसाया गया शहर, विराट रोमन साम्राज्य का स्वप्न, जिसे बाद में चर्च ने अपना अभेद किला बना लिया. पता नहीं कवि ने कैसे लिख दिया ‘रोमा मिट गए जहाँ से’. रोम बहुत ही धड़कता हुआ शहर है. किसी चौराहे पर कोई वजीर राज-हत्या की साजिश रच रहा है, किसी दीवार पर एक प्राचीन चित्रकार के रंग अभी भी गीले हैं, कहीं पुल पर एक स्त्री रोमन सैनिक को चूम रही है, कोई पादरी धरती की चौसड़ पर अपनी चाल चल रहा है.

रोम नहीं मिटने वाला। अगर पेरिस बेहतरीन रेड वाइन है तो रोम बहुत ही पुरानी व्हिस्की.

सेक्युलर कहा जाता यूरोप मुझे अक्सर ईसाईयत की इमारत दिखाई देता है, जिसका आईना है रोम. चर्च की शक्ति और उद्भव का शहर. छाती को चीरती सीन नदी के बगैर पेरिस पेरिस नहीं होता, चर्च के बगैर रोम न होता.
लेकिन यह चर्च निरापद नहीं है. पहली बार मैं चर्च और कथीड्रल से अभिभूत हो गया था, दूसरे दिन सहसा मुझे लगा कि इटली का रेनिसां सिर्फ एक कलात्मक उद्घोष नहीं था, इसकी गहन धार्मिक-राजनैतिक हसरतें थीं जिन्होंने यूरोप और पूरी दुनिया को बदल देना चाहा था. जब वेटिकन के पादरियों ने तत्कालीन महान कलाकारों को चर्च और कथीड्रल की दीवारों पर पेंटिंग्स और फ्रेस्को बनाने का दायित्व सौंपा, वह पेंटिंग्स जो यूरोप को दुनिया के सिंहासन पर बिठाती थीं, एशिया और अफ्रीका को हीन प्रजातियों का इलाका दिखाती थीं जिन्हें अपने अधीन किया जाना था, तब इस रेनिसां कला ने साम्राज्यवाद के आरंभिक बीज बो दिए थे. धर्म और कला के अद्भुत घालमेल के जरिये यह राजनैतिक सन्देश यूरोप में फैला चर्च ने दैवीय और कलात्मक शक्ति एक साथ हासिल कर ली थी. वेटिकन और उसके रची गयी कला ने यूरोप-केन्द्रित विश्व की परिकल्पना की. चर्च ने ईसाई जगत में यहूदी और इस्लाम विरोधी संवेदना को भुनाया जिसकी परिणति बीसवीं सदी के युद्धों में हुई.

रोमन चर्च की कलात्मक भव्यता अचंभित, इसकी राजनैतिक क्रूरता आतंकित करती है.

द्वितीय युद्ध के दौरान रोमन चर्च ने पहले मुसोलिनी और फिर हिटलर के साथ अनुबंध कर लिया था, यहूदियों पर हो रहे अत्याचार से मुँह मोड़ लिया था. मैंने फ़्रांस में एक म्यूजियम देखा था जो कभी यहूदियों का डिपोर्टेशन कैंप हुआ करता था. इस म्यूजियम में वेटिकन और हिटलर के बीच हो रहे समझौते के दौरान खींची गयी तस्वीर टंगी थी. तस्वीर में वेटिकन के शीर्ष पादरी और हिटलर के अधिकारी समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे.

जब एक रात मैं रोम की सड़कों पर घूम रहा था, मुझे बैंच पर एक कृशकाय इन्सान काली चादर ओढ़े सोता दिखाई दिया. उसके पैरों पर रंगीन मोज़े रखे हुए थे. बहुत देर तक जब वह आकृति बेहरकत नजर आई, नजदीक गया. वह कोई कलाकृति थी. एकदम मनुष्य के आकार की, शीर्षक था – होमलेस जीसस.

आखिर रोम में ही जीसस को बेघर होना था.

 

 

 

 

 

 

 

*

रोम में मेरे एक पियानो-वादक मित्र संगीतकार ब्राह्मज़ पर किताब लिख रहे हैं। एक शाम वह मेरे लिए बाख बजाते हैं, फिर यूरोप के महान संगीतकारों के बारे में बतियाते हैं। बीथोवेन जीनियस था जिसने सभी नियम तोड़ दिए, नयी परिभाषाएँ गढ़ीं। बाख के पास विलक्षण शब्दावली थी, संगीत को तराशने की ऐसी कला किसी के पास नहीं थी। मोजार्ट के पास वह  सरलता थी जो दैवीय शुद्धता के बाद ही हासिल होती है।

‘लेकिन तुम ब्राह्मज़ पर काम क्यों कर रहे हो?’

‘क्योंकि वह प्रेमी था, उसके भीतर प्रेमी की आत्मा बसती थी।‘

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लाल-हरा चूड़ा और गोल्ड्मन साक्स

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अनुकृति उपाध्याय को हम उनके हिंदी कहानियों के संग्रह ‘जापानी सराय’ तथा अंग्रेज़ी में दो लघु उपन्यासों ‘दौरा’ और ‘भौंरी’ के लिए जानते हैं।जानकी पुल पर वह समय समय पर वह यात्राओं पर लिखती रही हैं और इसमें भी उनकी नई शैली है। मसलन यह पढ़िए- मॉडरेटर

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साल – २०००, स्थान – हांगकांग का पूर्व और पश्चिम के संगम वाला अपूर्व महानगर। चमचम, लक़दक़। गगनचुंबी इमारतों के काँच-आमुखों पर चीनी नव वर्ष की सजावट और रिहायशी बिल्डिंगों की लॉबी में पॉन्सेटिया के धक लाल पत्तों वाले पौधे। सड़कों पर, इमारतों को परस्पर जोड़ते एलीवेटिड गलियारों में,  बहुमंज़िला बाज़ारों में – सब कहीं  आत्म्स्थ, व्यस्ततर लोगों की द्रुत-बहती भीड़। विक्टोरिया हार्बर पर फ़ैरी से उतर कर असमंजस से दुचित्ति मैं। दाएँ जाऊँ या बाएँ? आपस में कंधे छीलती इमारतों की भीड़ में किस तरफ़ है चुंकोंग सेंटर?

‘हनी, तुमने जीवन के तीन सबसे कठिन कामों में से दो एक साथ कर डाले – शादी और नए देश में आ बसना।’ हल्के रंग की आँखें मुझ पर करुणा से डाल कर उसने  कहा। वह मेरे पति के सहकर्मी की पत्नी थी। अमरीकी, आश्वस्त और बातूनी। मुझे आश्चर्य हुआ। जीवन को कठिन और सरल भागों में बाँट कर सोचा ही नहीं था। जो करना है, सो करना है और जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है, इन आर्ष वाक्यों को बचपन से सुनते, सहल-सरल कभी खोजा नहीं। और तीसरा सबसे कठिन काम? ‘जब करोगी तब ख़ुद जान जाओगी! अब कुछ दिन नए माहौल का आनंद लो, नई जगह में पैर जमाओ। नौकरी तो मिल ही जाएगी तुम्हें।’ बिना खोजे कैसे मिलेगी? और इस अनजान देश में? ‘गो विद द फ़्लो। बहाव में, बिन हाथ-पैर मारे बहो। जीवन जहाँ ले जाए, जाओ।’ लेकिन धारा में बहना? जीवन तो प्रवाह के विरुद्ध तैरना है, हर वक़्त ख़ुद को आजमाना। हाथ पर हाथ धर कर बैठने से कभी कुछ मिला है?‘क्यों नहीं? पूरा विश्व तुम्हारी सीपी है, उसमें मोती की तरह रहो।’

मोती? समुद्री जीव की नर्म देह में गड़ा-टीसता कंकड़, पीड़ा की परत-दर-परत से बना घनीभूत आँसू। मैं समझ नहीं पाई बहाव और मोती वाला दर्शन और गहरे  आत्मविश्वास से जन्मी धारणा कि पानी में बहते किनारे ख़ुद-ब- ख़ुद मिल जाते हैं। वह कुछ दिनों बाद अमरीका लौट गई और मेरा उससे दोबारा मिलना नहीं हुआ।

’नौकरी खोजने के लिए जुटना पड़ेगा।’ वह भारतीय थी, मेरी हमउम्र। दो-तीन सालों से होंगकोंग में।एक बड़ी कम्पनी में काम करती थी। ‘लोगों से सम्पर्क करो, मिलोजुलो, उनसे और लोगों का परिचय माँगो। नेटवर्किंग बहुत ज़रूरी है। हेडहंटिंग कम्पनियों को आवेदन दो।’ हेडहंटर्स यानी सिरों के शिकारी, कम्पनियों को जन खोज कर देने वाले लोग जिनके लिए मनुष्य जिन्स हैं।‘मैं जब पहले-पहल यहाँ आई थी, तो यही सब किया था। छःआठ महीने लगे थे। तुम क्वॉलिफ़ायड हो, अनुभव भी है लेकिन फ़ाइनेंस सेक्टर में बड़ी प्रतिद्व्न्द्विता है। हर छोटी छोटी बात का महत्त्व है। जैसे तुम्हारी इन चूड़ियों को ही लो।’

मेरा लाख का लाल-हरा चूड़ा। मुझे बचपन से चूड़ियों का शौक़ था। छोटे हाथों के लिए चूड़ियाँ मिलती नहीं थीं और मुझे तो काँच की ही चाहिए थीं। अंत को माँ ने साइकिल पर घूमने वाले मनिहार से   उसका रंग- बिरंगी चूड़ियों का सजावटी लच्छा ख़रीद दिया। गर्मियों की छुट्टी में उन छोटी-बड़ी, रंगारंग चूड़ियों से कंधों तक बाँहें भरे, गिरने के डर से हाथ अधर में उठाए देख कर अड़ोसी-पड़ोसी हँसते। कभी कभी मज़ाक़ में कोई गुदगुदा देता, बाँहें नीचे ढलक जातीं, चूड़ियाँ बिखर-झर जातीं। ऐसे में मेरा रोना-बिसूरना माँ को आज भी याद है। लेकिन यह लाख का चूड़ा और चूड़ियों से विशिष्ट था।  ब्याह वाला चूड़ा, महीन, सुबुक़, ख़ास तौर पर बनवाया गया, मेरे हाथ के नाप का। जीवन में एक बार पहना जाने  वाला लाल-हरा चूड़ा।‘ये अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं। यह भी देखा जाता है कि तुम वैश्विक माहौल में ढल पाती हो या नहीं। असीमिलेशन इज़ द की। हम पंजाबी भी शादी का चूड़ा पहनते हैं। मैंने होंगकोंग आते ही उतार दिया।’

‘तुम मीडिया कम्पनी में अपलाइ करो।’ उन्होंने कहा। वे उम्र में कुछ बड़ी थीं। बहुत सालों से विदेश में बसीं। डिनर पार्टी थी उनके यहाँ। ‘देखने और बोलने में अच्छी हो, तुरंत काम मिल जाएगा। फिर चाहो तो अपने फ़ील्ड का काम ढूँढती रहना, एक बार बाहर आना-जाना तो शुरू होगा।’

मीडिया? मेरा दूर का सम्पर्क नहीं मीडिया से। अंतर्मुखी, संकोची, नईपुरानी सभी जगहों में झिझकने वाली। ’मैं स्टार टीवी में कुछ लोगों को जानती हूँ। तुम्हें कनेक्ट कर दूँगी उनसे।’ ‘किस फ़ील्ड में काम ढूँढ रही हो वैसे?’ पास खड़े एक पुरुष ने पूछा। फ़ाइनेंस सुन कर हँसा। ‘फिर ये स्टार में क्यों काम करेगी, ये तो गोल्ड्मन में काम करेगी!’ व्यंग्य से उसकी भवें टेढ़ी थीं, ‘यहाँ फ़ाइनेंस वाले सब गोल्ड्मन से नीचे सोचते ही नहीं!’

गोल्ड्मन साक्स। विश्व का सबसे विख्यात, सबसे सफल वित्त संस्थान। ‘एसपिरेशनल है गोल्ड्मन में काम करना। द ब्लुएस्ट ऑफ़ ब्लू इन्वेस्टमेंट बैंक।’ पति ने बाद में बताया। ‘ज़रूर अप्लाई करो।’

आज गोल्ड्मन में इंटरव्यू का सातवाँ दिन था। गोल्ड्मन की लम्बी, कठिन और जटिल चयन-प्रक्रिया  के बारे में सबने आगाह  किया था। ‘इतने लोग इंटरव्यू लेंगे कि सर चकरा जाएगा और हफ़्तों लग जाएँगे।’ ठीक भी था। सात दिनों में जाने कितने लोगों से साक्षात्कार। सारे दिन सेंट्रल की सबसे ऐश्वर्यशाली, व्यावसायिक इमारत में अजनबियों से मिलना, अपने  बारे में दुहराना, गोल्ड्मन की विशिष्टता और कर्म-कठिन माहौल के बारे में सुनना। एक इंटरव्यू से दूसरे  को आते-जाते, क्यूबिकल और ऑफ़िसों में काम में जुटे लोगों को देखना। सात दिनों में सातों बार रास्ता भूली। ऊँची  इमारतों से घिर कर दिग्भ्रम हो जाता और पति हँसी से दुहरे होते फ़ोन पर रास्ता बताते। ‘गोल्ड मेडलिस्ट हो लेकिन सीधा-सीधा रास्ता याद नहीं रहता!’

आज भी टोह, टोह कर पहुँची। जिस प्रभाग में काम करना था, उसका अध्यक्ष दरवाज़े पर मिला। ‘टीम के सब लोगों से मिल चुकी हो । अब विभाग की अध्यक्षा से मिलना है। एशिया में गोल्ड्मन की जेनरल काउंसिल।’ जनरल काउंसिल माने विधि और नियमन के विषय में प्रमुख सलाहकार। बड़ी प्रखर हैं, कई लोगों ने कहा था। ‘विश्व की सबसे बड़ी लॉ फ़र्म में काम कर चुकी हैं बरसों। बेहद कुशाग्र और एकदम सीधीसपाट बात करने वालीं। मुलाक़ात के बाद तुम्हें पूछना नहीं पड़ेगा कि तुम चुन ली गईं या नहीं!’ फिर मेरे चेहरे पर एक निगाह डाल कर,‘तुम्हें घबराने की क्या बात? मेधावी और कुशल हो, निडर हो कर बात करना। लो, स्पेशल कॉफ़ी, एक घूँट में चुस्त-दुरुस्त!’ काली, बिन शक्कर, बिन दूध की अमेरिकानो कॉफ़ी का प्याला मुझे थमा कर कोने वाले ऑफ़िस की ओर इंगित। मैंने सूट-जैकेट की बाँहें हल्के से नीचे खींची और आगे ढलक आए चूड़े को पीछे कर लिया। मैंने न चूड़ा उतारा था न सास के द्वारा गले में

पहनाए पितर। लाल-पीले मौली धागे में पिरोए, उनके विश्वास से पूत, चाँदी के छोटे-छोटे बारह पत्रे तोशर्ट के भीतर छुप जाते थे लेकिन हाथ मिलाते समय अक़्सर चूड़ा आगे सरक आता। इतने साक्षात्कारों में कुछ लोगों ने उसे दबी जिज्ञासा से देखा था लेकिन कहा कुछ नहीं था।

द्वार  खोलते ही चमकती  टेबल के उस ओर  बैठी महिला उठ पड़ी। छोटे क़द की, छरहरी, सीधी-सतर। चेहरे और गर्दन की काग़ज़-सी पतली त्वचा पर महीन लक़ीरें जो मुस्कुराते ही किरणों सी खिल जातीं, प्रज्ञा से चमकती नीली आँखें। कोने में रखे सोफ़े की ओर इशारा किया। ‘मेज़ पर आमने-सामने बैठ कर मुद्दों पर बात हो सकती है, किसी को जाना-परखा नहीं जा सकता। पढ़ाई, अनुभव, गोल्ड्मन का वर्ककल्चर, कैरियर पर बात करते करते परिवार और विवाह का ज़िक्र आया। ‘शादी को बस चार महीने! कैसे मिलीं अपने पति से?’

माता-पिता ने मिलवाया सुन कर बारीक़ भवें उठीं। ‘अरेंज्ड मैरिज? इतनी पढ़ी-लिखी, होशियार हो कर भी?’

माता- पिता ने मिलवाया भर, पसंद तो हमारी ही थी, किसी की ओर से कोई ज़ोरज़बरदस्ती नहीं।

फिर  भी  दक़ियानूसी पद्धति है। एकाध बार मिलने से कैसी जान-पहचान? अनजान  व्यक्ति  के साथ जीवन बिताने का निर्णय कहाँ की समझदारी  है?’

मेरा चेहरा तमतमा गया। फिर कैसे किसी के बारे में जाना जाता है? कोर्टशिप के आकर्षण-काल में क्या आप सचमुच किसी को जान सकते हैं? और यदि मिलने और बात करने से कोई जानकारी नहीं होती तो मसलन इन इंटरव्यूज़ की ही क्या तुक? मेरी डिग्रियों से या मुझसे मिल कर

आप मेरे बारे में क्या जान पाएँगी? अपरिचय मिलने या साथ रहने से नहीं मिटते, सच में एक-दूसरे को समझने-जानने की कोशिश करने से मिटते हैं।

वे मुस्कुराईं। ‘बहुत बढ़िया! अच्छे तर्क! मुझे क़रीब-क़रीब लाजवाब कर दिया! एक वक़ील इससे ज़्यादा क्या प्रशंसा कर सकती है!’ वे उठ खड़ी हुईं। ‘अपोईंटमेंट लेटर वग़ैरह की औपचारिकता होती रहेगी, कल से आ जाओ।’  उन्होंने हाथ बढ़ाया। मेरा चूड़ा खड़का। ‘ये क्या हैं?’

 एक और दक़ियानूसी रीति, मैंने कहा।

वे ठठा कर हँसी। ‘ दैट्स चैकमेट आई गैस! लेकिन ये चूड़ियाँ वाक़ई ख़ूबसूरत हैं!’

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‘माउथ ऑर्गन’अपनी धुन गुनगुना रहा है

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सुशोभित के लेखन की अपनी ख़ास शैली है जिसके कारण हज़ारों लोग उनको फ़ेसबुक पर रोज़ पढ़ते हैं। उनकी किताब ‘माउथ ऑर्गन’ का गद्य भी बहुत सम्मोहक है। मन की यात्राओं के इस गद्य पुस्तक की काव्यात्मक समीक्षा अपनी  खास शैली में यतीश कुमार ने की है- मॉडरेटर

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माउथ ऑर्गन-सुशोभित
वह कालयात्री है
स्मृतियाँ रह-रह कर
उसकी नज़रों में
धुँधलाती हुई चमकती है
 
संस्मरण न लिखो
तो मन पर बोझ सा रहता है
नशे के खुमार-सा
जिसे न उतारा जाए
तो रचनात्मकता भोथराकर
सर्फ़िंग मोड में चली जाती है
स्मृतियाँ रेत-सा चस्पा है
उसने कई देह धरे किस्सागोई के लिए
पर शल्कों से चस्पा रेत
इतनी आसानी से नहीं छूटता
निजात शब्दों के लेप में
ढूँढ लिया है उसने
 
अब सारे रेत
लेप में चिपक रहे हैं
और फिर
दास्तान,आपबीती,कल्पना वाचन बड़बड़ाते हुए
सफ्हों पर अपनी जगह ढूँढते जा रहे हैं
और यह सब देख
माउथ ऑर्गन अपनी धुन गुनगुना रहा है
वो आँखे बंद करता है
तो ठुमरी और ग़ज़ल
एक साथ अलग कानों से सुन लेता है
वो शब्दों के आपसी प्रेम और तकरार में
संगीत ढूँढ लेता है
और संगीत की तरंगें तो
बंद आँखों से भी दिखती हैं उसे
मासूम नज़रों से उसके
न बच पाई
बेमोल फुग्गे की अदृश्य जादुई शक्ति
जिसका धागा अभी-अभी
एक बच्चे के हाथ से फिसल गया
और जिसने रोक दिया है
हाँफते शहर का यातायात
उस फुग्गे का उस बच्चे तक वापस आना
इस कायनात की सबसे सुखद घटना है
उसके लिए
जिसे कोई कैमरा क़ैद नहीं कर सकता
उसे कवि की नज़र में क़ैद होना नसीब है
वो देख सकता है
चोकलेट बार से निकलता संगीत
जिसे दुनिया माउथ ऑर्गन कहती है
 
वह उस छोटी सी जादुई साज़ से
सांता की सर्वव्यापी धुन
सुनाने की कोशिश करता है
उसे पता है उस धुन में
उम्मीद और दुआओं का मिश्रित असर है
ठिठलाते बच्चे की ख़ुशी को देखते ही
उसके अंदर का सांता मुस्करा उठता है
मुस्कुराहट का संचय ही
उसका ध्येय और प्राप्ति है
 
वो चर्च देखने निकलता है
पर उसे सफ़ेद चर्च के सामने बैठी
काली सिलाई मशीन
अपनी ओर खींच लेती है
वो इतनी आसानी से
जूता पोलिश को अब्राहम लिंकन से जोड़ता है
जितनी आसानी से खिचड़ी को विवेकानंद से
कुल मिलाकर अल्हदा है-यह ख़ुदरंग
वो निर्जीव में सजीवता देखता है
उसका थोड़ा पागल होना
उसकी नेज़े सी नज़र का पैनापन है
कि वो चीजों में
उसका कट मॉडल तैयार करता है
सिलाई मशीन,मोमजामे,धागों से बनी कलगी
छोटी दुनिया के रहस्य
उसे उस बूढ़े से समझना है
निर्जीव को सजीव बनाने वाली जादूगरी
जिसके हाथों के इशारे पर
यह मशीन नाचती है
और जो भरी दोपहरी
भागती दुनिया से बेख़बर
मोमजामे की छाँव में
इत्मिनान की नींद ले रहा है
और उसकी इस बेख़बरी भरे खर्राटे से
रह-रह कर काँप जाती है
इन्द्र की आसंदी
स्मृति में काले धब्बे……
शायद दाग अच्छे हैं
जामुन-करौंदे के दोने
और संतरे के लेमनचूस में
लेखक की उन्मुक्तता लबालब दिखती है
 
इंदौर उज्जैन भोपाल बम्बई
अनार के कसे दानों से
इन क़िस्सों में
आपस में चिपके हुए है
 
ज़िंदगी की खट्टी मीठी यादों को
खट्टी मीठी चीजों से जोड़ते हुए
वय क्षय गाथा आगे बढ़ती जाती है
धड़कते दिल से किसी का पीठ देखना
वक़्त की घड़ी को उल्टा घुमाने जैसा है
कथावाचक अक्सर अपनी कहानी
कहकर भूल जाता है
और सिर्फ़ सुनने वाले को याद रह जाती है
पिता को बचपन में
आदर्शों वाली कहानी सुनाते देखा था
जैसे-जैसे बड़े हुए
हमारी ही चिंता ने
उनके आदर्शों की किताब चुराई
आज मैं अपनी बेटी को
वही कहानी सुना रहा हूँ
ये सिलसिला ऐसा है
जिसे क्रमशः चलना है
दूसरों की यादों का संग्रहालय बनना
उस दरख्त के कोटर जैसा है
जिसकी सुरंग में आवाज़ें लौटती नहीं
यह एक तरफ़ा संचार है
कितनी गाँठें हैं
बारीक महीन
न गलतीं और न सीझतीं
ज़िंदगी में न घुल पाई है
घबराहट अबतक
और हम हैं कि दाल
समंदर के पानी से पकाने चले हैं
आसमान को आइना दिखाते लैम्प पोस्ट
ज़मीन पर तारों-से टिमटिमाते हैं
नींद के अंधेरे में जाग एक रौशनी है
और हर जागता इंसान एक लैम्प पोस्ट
वो एक चेहरा ही तो है
सूखी अंतड़ी और चेहरा ज़र्द
स्टेशन,बस अड्डे या अस्पताल
सच है चायवाला -हमशक्लों की प्रजाति है
और सच पूछो तो
आदमी का चेहरा उसका जूता है
जबकि मोची आदतन जूते नहीं पहनते
वो चिंतित है
उन स्टेशनों के बारे में सोचकर
जहाँ ट्रेनें रुकती नहीं हैं
नाम हम सबके
पानी से ही लिखे जाते हैं
किसी की उम्र उड़ते बादल-सी
तो किसी कि उम्र नमी जितनी
कुछ नाम किताबों से किए इश्क़ हैं
और कुछ उनपर छोड़े गए बोसे हैं -अजर
ताउम्र छोटी-छोटी बात
छोटी-छोटी चोट
और छोटी-छोटी मौत
ज़िंदगी एक माला बन गई है इन छोटी मुक्ताओं की
 
साँस भी तो अंतराल में ही चलती है
और छोटी-छोटी मृत्यु के
इन्हीं अंतरालों में
जन्म लेता है संस्मरण
बाहर तमाम खटराग और ऊभचूभ
साँकल बनकर खटखटाती रहती है
और भीतर सीने में धड़कनों का
एक कारख़ाना शोर कर रहा होता है
शहर की बौखलाहट
छहों दिन छटपटाती है
और सातवें दिन घुटने टेक देती है
प्रार्थना और प्रायश्चित की शक्ल लिए
कतबा गले में लटकाए
हम मस्जिद,गुरुद्वारे या चर्च में नज़र आते हैं
कोई उखाड़ कर लाया है
तो किसी को लगाना है
कतबे की अजब दास्ताँ
और तख़्त की अजीब लड़ाई
पर लेखक का सरोकार
जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों से है ।
वह लड़ाई की परछाई में
सोते ख़ुशियों की गिलहरी को
अखरोट बाँटता फिरता है
वह सकारात्मकता का हितैषी है
वह संतोष की कनी टटोलता है
ओस के मोती पिरोता है
पर उसे यह भी पता है
कि धूप खिलते ही मोती गल जाएँगे
उसे इस बात का डर है
और वो अच्छी तरह वाक़िफ़ है
कि रिश्तों की सतहें फिसलन से लिपी हैं
और हरदम उसे पकड़े रहना मुश्किल
समय के साथ
या तो फिसलन मिटती है या फ़ासला
सितारों के कितने आपसी फ़ासले हैं
और तारों के कितने अफ़साने
पर मृत्यु फ़ासलों का अंतिम सच
गिरते तारों का फ़ासला नापना अंतिम मंज़िल
अंतराल की उम्र मापने के लिए
ऊर्जा और गुरुत्वाकर्षण के
कश्मकश को समझना होगा
आपसी रंजिश सिर्फ़ रिश्तों,घरों और शहरों में नहीं होती
बल्कि ये जद्दोजहद तो कायनात में विसरित है
आम और शरीफ़े की सिफ़त पर
ज़िक्र ऐसे करता है कि
ज़िंदगी बीत गई उसी के बाग़ानों में
क़िस्सागोई बतकही से बतरस
क़सीदा फलों पर ऐसे
जैसे रिसर्च का पेपर
काव्यशैली में लिख रहे हों
उसकी कल्पना में
मन कभी पेड़े सा चपटा
तो कभी गोल रसगुल्ले सा रसभरा
दुनिया और मन
एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
कवि कहता नहीं महसूस कराता है
उसे हर उस घर के आँगन में
चंद्रमा उतरता दिखता है
जिसने उसके बिम्ब को
अपने भीतर महसूस किया
उस चाँदना को लिए
नींद से लड़ने के बजाय
उससे हारना
दिव्य प्राप्ति है उसकी
देवताओं का दुकूल
फ़रिश्तों की पैरहन
महक का मीज़ान
एक गंध और रूप अनेक
कोई विग्रह नहीं जिसका
 
क्या से क्या लिख देते हैं
और लिखते हैं कि
जो भी सुंदर होगा निष्कवच होगा
तो मैं पूछता हूँ
ईश्वर इतने कवच क्यों धारण करते हैं?
चक्के का केंद्र नहीं घूमता
चक्का घूमता है
 
मन भी तो घूमता है
मन का केंद्र पाना
ख़ुद को पाना है क्या ?
 
सिमुर्ग हमारी सोच है
मन से निकली सोच
पर ख़याल की परिधि नहीं दिखती
क्या केंद्र दिखता है?
सड़क अगर चलती ही रहती हैं
तो मंज़िल केंद्र है क्या ?
जहाँ रुकते ही
वो छोटी वाली ज़िंदगी की
दीपशिखा बुझ जाती है
इस तरह के गूढ़ रोचक सवालों का क़ाफ़िला
कि गर्द में खो जाते है
जब लेखक
इतिहास से बीन कर
क़िस्सागोई सुनाता है
जो कि सच्ची घटना रही होगी
क्यूँकि सच्ची घटना के
मिथ बनने का सफ़र ही इतिहास है
वो लिखते हैं तो वो हर चीज़
उनकी प्राप्ति में बदल जाती है
और सफ्हों पर
सही का नीला निशान लगता चला जाता है
और इस तरह इस किताब को लिख कर
प्राप्ति का पूरा पन्ना भर लिया है उसने
मैंने मांडू नहीं देखा की समीक्षा जब लिखी थी तब
बाज बहादुर और रानी रूपमती की इतनी अच्छी
वृत्तांत कथा नहीं सुनी थी ।
पढ़कर मांडू जाना अब लगभग तय हो गया है
अगर फल और मिठाइयों के खोजी व्याख्या के साथ कुछ और रोचक प्रसंग भी होते तो
यह दास्तानगोई की एक अनुपम भेंट होती।
कुछ फ़लसफ़े छू कर छोड़ दिए गए भी लगे।
सुशोभित आपने जो किताबघर बचपन से बनाना शुरू कर दिया था वो मैंने चालीस के दशक को पार करने के बाद शुरू किया ।
मुझे आपसे बस एक सवाल पूछना है कि कितनी किताबें पढ़ी है आपने जो ऐसा फ़लसफ़ा बयान कर दिया ।
बहुत सारे नए शब्दों की बेहतरीन अभिव्यक्ति -मेरे लिए सीखने को बहुत कुछ था
 

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स्त्री-कविता का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उसने एक चटाई बिछाई है

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रेखा सेठी हिंदी की सुपरिचित आलोचक हैं। हिंदी की स्त्री कविता पर उनकी किताब आई है ‘स्त्री कविता पहचान और द्वंद्व’ तथा ‘स्त्री कविता पक्ष और परिप्रेक्ष्य’।राजकमल से आई दोनों किताबों का कल दोनों का लोकार्पण है। फ़िलहाल आप एक अंश पढ़िए जो अनामिका की बातचीत का एक अंश है- मॉडरेटर

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पुस्तक अंश–स्त्री-कविता : पहचान और द्वंद्व

रेखा सेठी

 

अनामिका की कविता की शक्ति उनके बिंब हैं और उन्होंने अनेक कविताओं में स्त्री जीवन की विडंबना व अंतर्विरोध को बखूबी उभारा। इनमें स्त्री जीवन की वंचना और पीड़ा के बिंब एक नई करवट लेते हैंI अनामिका ने ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’ लिखकर स्त्रीवादी आलोचना की शुरुआत भी की और कविता में भी स्त्री के सामाजिक जीवन के लिए नया सौंदर्यशास्त्र प्रस्तुत कियाI

रेखा सेठी : स्त्री-कविता जैसा अभिधान क्या केवल पाश्चात्य सन्दर्भों से अनुप्रेरित है या भारतीय-दृष्टि भी उसके निर्माण का आधार है ?

अनामिका : स्त्री-कविता का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उसने एक चटाई बिछाई है और पर्सनल-पोलिटिकल, कॉस्मिक-कॉमनप्लस, में माइक्रो-मैक्रो, इहलोक-परलोक, इतिहास और मिथक, शास्त्र और लोक, पौर्वात्य और पश्चिमी के बीच का पदानुक्रम तोड़कर उन्हें एक चटाई पर बिठाया है |

         हमें जिधर से ताज़ा हवा मिलेगी––हम उधर से खिड़की खोलेंगे | एशियाई दर्शन और प्रपत्तियाँ, अफ्रीकी लोक, ऑस्ट्रेलियन एबोरिजन्स का लोक, अमरीकी-यूरोपीय उद्योग, लातिन अमरीकी  लोक—सबका सार हम चलनी से चालकर, सूप से फटककर समदुख-योगियों के बृहत्तर हित साधने का सपना दिखाने वाले समवेत गीत गाएँगे, कविताएँ लिखेंगे ! यही है बहनापा | यही है मध्यममार्ग !

          स्त्री-कविता या स्त्री-दृष्टि पर पश्चिमी प्रभावों के अतिरेक का अभियोग लगाने वालों को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि ‘कोलोनियल’ और ‘कैनोनिकल’ दोनों पर पहला प्रहार इसने  ही किया, इसी ने पहली बार घरेलू चिट्ठी-पत्री और अंतरंग देशी दस्तावेज़ों को ज्ञान-प्रत्याख्यान के प्रामाणिक स्रोत के रूप में मान्यता दिलाई और अपने सर्जनात्मक लेखन में इनका भरपूर उपयोग किया |

रेखा सेठी :  पिछले बीस वर्षों में—कविता, गद्य एवं शोध—सभी क्षेत्रों में स्त्री-कविता एवं स्त्री- विमर्श आपके चिंतन के केंद्र में रहे हैं | आपने अंग्रेज़ी में भी स्त्री लेखन का संकलन संपादित किया और एक तरह से हिंदी में स्त्री विमर्श को विश्व वातायन से जोड़ने का कार्य किया | इसके पीछे आपकी क्या दृष्टि रही ?

अनामिका : मेरे मन में यह रहता है कि पूरब और पश्चिम में जो भी साझा है उसके बीच एक पुल बना दूँ | सोचने में भी मुझे लगता है कि यह दुनिया और वह दुनिया कैसे जुड़ जाए झपाके से… वहाँ सखी भाव से आपसी गपशप होती रहे | मैं चाहती हूँ कि सबका सबसे अंतरंग बातचीत वाला रिश्ता बने और अगर उसे जोड़ने में मैं पुल बन सकती हूँ तो मुझे अच्छा लगता है |

रेखा सेठी :  लेकिन क्या आपको लगा कि इससे एक समस्या भी पैदा हो गयी, स्त्रीवादी मुहावरा आपकी कविताओं की पहचान बन गया यहाँ तक कि स्त्री विमर्श की स्थापनाओं पर आपकी कविताओं के उदाहरण चुन-चुनकर चस्पां कर दिए गये | इससे आपकी रचनाओं का स्वतंत्र मूल्यांकन बाधित होता है | क्या आपको भी ऐसा लगता है ?

अनामिका : इस तरह से मैंने अपनी कविताओं के बारे में सोचा नहीं लेकिन जो भी मैं देखती हूँ, स्त्री तो मैं हूँ ही, स्त्री की आँख से संसार भी देखती हूँ और स्त्री कविता के बारे में भी मेरा यही नज़रिया है कि व्यक्ति का लोकेल कहीं भी हो उसकी आँखें तो अपने आस-पास के पूरे संसार को देखती हैं, जैसे पेड़ का तना—अपने होने के वजूद में एक जगह स्थित होकर भी उसकी टहनियाँ बाहें फैलाकर बाहर की ओर जाती हैं | व्यक्ति भी भीतर अपने वजूद में स्थित होकर बाहर की ओर देखता है | मैंने भी केवल स्त्रियों को ही देखा हो ऐसा नहीं है | मैंने वृहत्तर संसार को देखने की कोशिश की है, स्त्री दृष्टि से | यह सब जान कर नहीं हुआ, ऐसा कैसे हुआ यह तो आलोचना ही बताएगी | मुझे नहीं मालूम मैं तो जैसी थी वैसी ही रही लेकिन देखने की खिड़की वह हो गयी, क्योंकि वह ऐसा समय था जब स्त्री स्वर को लोग अलग से देख रहे थे, पहचानने की कोशिश कर रहे थे उसी तरफ से यह खिड़की खुली होगी | इस बारे में मैंने कोई सचेत प्रयास नहीं किया |

रेखा सेठी : एक आखिरी सवाल स्त्री कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है ? क्या हमारा समाज ‘जेंडर सेंसेटिव’ होने की जगह कभी ‘जेंडर न्यूट्रल’ हो सकेगा यानी आप स्त्री हैं या पुरूष इससे कोई अंतर न आये और आपकी पहचान व्यक्ति रूप में हो ?

अनामिका : अंतरंग स्पेस में जेण्डर-सेंसिटिव करना ! प्रकृति ने सिर्फ दो जातियाँ बनाई हैं—स्त्री- जाति, पुरुष-जाति ! इनकी देह-मन-भाषा का जो अंतरंग पक्ष है—उनकी जरूरतें थोड़ी अलग हैं, इसी हिसाब से इनकी दैहिक-मानसिक-भाषिक आवश्यकताएँ भी थोड़ी विशिष्ट हैं जिनके प्रति दोनों को संवेदनशील होना चाहिए !

     जहाँ तक पब्लिक स्पेस का सवाल है, आदर्श स्थिति है जेंडर-न्यूट्रल होना ! सारे नागरिक अधिकार और कर्त्तव्य समान अवसरों और संसाधनों का बराबर बँटवारा —- इसमें कोई कोताही  नहीं होनी चाहिए क्योंकि स्त्री, स्त्री होने के सिवा मनुष्य भी तो है !

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श्वेता मिश्र की कहानी ‘नाइजीरिया, नोरा और अजगर’

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श्वेता मिश्र लागोस नाइजीरिया में रहती हैं। कहानियाँ लिखती हैं। इनकी कई कहानियाँ प्रकाशित भी हो चुकी हैं। यह एक नई कहानी है- मॉडरेटर

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एक दशक पहले यूरोप से अफ्रीका जब मेरा आना हुआ तो रुई के फाहे की तरह गिरते बर्फ की जगह यहाँ की ठंडी पुरवाई मेरे मन को लुभाती चली गयी मन हज़ार तरह की आशंकाओं से घिरा थाl यूरोप का अत्याधुनिक माहौल और यहाँ के लोग प्रकृति पर पूरी तरह निर्भरl एअरपोर्ट से बाहर आते ही कुछ दूर आने पर शांत समुन्दर जिसमे कोई भी हलचल नहीं, जिसके समुन्दर होने पर मुझे यकीं तो नही हुआ लेकिन मेरे मन में एक खूबसूरत एहसास की तरह ठहर गया l मन तुलनात्मक दृष्टिकोण से हर चीज़ को देख रहा था कभी कोई चीज़ मन में बैठती कोई सिरे से खारिज करती l रास्ते में बड़े बड़े पेड़ों से घिरे जंगलों में झांकते आम के बड़े बड़े वृक्ष आश्चर्य से मन को भर रहे थे l आम भी अलग अलग तरह के दिख रहे थे मन कौतुहल से भर उठा और ड्राइवर से पूछा की यह आम का ही पेड़ है या किसी और का? डाइवर ने एक पेड़ की देखते हुए गाड़ी को किनारे में पार्क कर दी और गाड़ी से उतर कर आम तोड़ लायाl आम को हाथ में ले कर मन इतना प्रफुल्लित हुआ कि जैसे किसी अपने बिछड़े परिजन से मिल रही हूँ l यूरोप में 5 यूरो का एक आम और यहाँ जंगल …कैसा विरोधाभास है प्रकृति पर यह दृश्य प्रत्यक्ष दिख रहा था वास्तव में यूरोप में पेड़ों के नीचे बिछे सेव भी उतना मन को प्रफुल्लित नही कर सके थे जितना अपने देश के फलों के राजा आम ने किया l यूरोप की चकाचौंध पर नैसर्गिक दृश्य हावी होने लगे थे l रास्ते भर ड्राइवर से यहाँ के भाषा और परिवेश की बातें सुनते सुनते 2 घंटे का सफर कैसे कट गया पता ही नही चला और हम अपने रिसोर्ट में आ गये l अब कुछ महीनो का अस्थायी आवास यही था और यहाँ रहते हुए अलग अलग तरह के लोगों से मिलते सुनते यहाँ की संस्कृति काफी करीब से देखने को और समझने को मिलने लगी l यहां के लोगों में भारत और भारतीय सिनेमा के प्रति सम्मान और दीवानगी , फ़िल्मी गानों को गाकर भारतीओं को रिझाने की कोशिशें कभी कभी बड़ी दिलकश भी लगती हैं l इसी बीच इक समारोह में जाने का अवसर मिला जिसमे हम शामिल भी हुए l कई तरह के लोगों से मेल मिलाप भी हुआ l समारोह में नोरा नाम की एक लड़की से भी मुलाक़ात हुई l नोरा सुन्दर मिलनसार व्यक्तित्व की स्वामिनी थी l बातों ही बातो में पता चला की उसे जानवरों से बेहद लगाव है और उसने एक अजगर पाल रखा है और वह उसके साथ सोता खेलता भी है l सुनकर मैं तो एक अनजाने भय से काँप उठी और उससे पूछ बैठी तुम्हे डर नही लगता ?
नोरा कहने लगी वह बहुत प्यारा है और अभी तो बच्चा है घर में इधर उधर घूमता है कभी कभी मैं नींद में रहती हूँ तो बिस्तर में मेरे आ जाता है और मुझ से लिपट जाता है l मुझे बड़ी हैरानी हुई अभी तो अपने देश में गाय भैंस घोडा खरगोश और कुत्ते ही पालतू पशु के रूप में देखा था और मैं उनसे भी डर जाती थी ये कहाँ मैं घने जंगल में आ गयी और ये महारानी तो मुझे मॉडर्न दिख तो रही है पर है अन्दर से भयंकर जंगली l नोरा के लिए उस अजगर से सुन्दर प्यारा और दिल के करीब जितना था उतना तो कोई नही लग रहा था और जब तक साथ थी सिर्फ उसी की बातें ,मुझे ऊब सी लगने लगी थी l किसी तरह हम वहां से निकल अपने रिसोर्ट आ गये l हालाँकि रिसोर्ट में भी शुतुरमुर्ग मोर रंग बिरंगे तोते जैसे मन मोहने वाले कुछ जानवर थे l शाम हमारी इन्ही को आस पास घूमते देखते बीत जाती l धीरे-धीरे हम भी यहाँ के माहोल से परिचित हो चुके थे और हमारे अपने आवास में शिफ्ट होने का समय भी नजदीक आ रहा था l लगभग तीन-चार महीने रहने के उपरांत हम अपने आवास में पहुच गये l नोरा भी उसी कैंपस में ही थी लिहाजा अक्सर मुलाक़ात होने लगी और उसके पालतू जानवर की बातें जो मुझे अन्दर से एक डर ही महसूस करवाती उससे सुनती रही l एक दिन मैं अपने बेटे को स्कूल से लेने जा रही थी कि नोरा मिल गयी पूछने पर पता चला कि हॉस्पिटल जा रही है उसका पालतू हफ्ते भर से खाना नही खा रहा है और अक्सर उससे कुछ ज्यादा ही लिपट रहा है l नोरा को उसके भूखे रहने से उसके मर जाने की आशंका ने घेर रखा था l खैर नोरा उसको लेकर जब डॉक्टर के पास पहुची तो डॉक्टर ने गहन जांच की जिसमे कुछ न पाया l डॉक्टर का अब अगला सवाल नोरा से था ‘क्या यह आपको लिपटता है ?’ नोरा ने बड़ी खुशी से जबाब हाँ में दिया और यह भी बताया की कभी कभी इतनी जोर से लिपटा रहता है कि उससे छुड़ाना भी थोडा मुश्किल होता है l डॉक्टर चुपचाप सुनते रहे ,नोरा की सारी बातें सुनने के बाद एक गहरी साँस लेते हुए डॉक्टर ने कहा ,”यह आपको निगलना चाहता है और जब आप से लिपटता है तो आपसे लाड प्यार में नही बल्कि आपकी माप लेता है कि आपको निगलने के लिए उसके पेट में कितनी जगह होनी चाहिए और अब यह बड़ा हो गया है तो अपनी पेट में जगह बना रहा है भूखे रह कर ” यह सुनकर नोरा के होश उड़ गये उसे समझ ही नही आया की करे तो क्या करे ,जिसे वो इतना लाड प्यार दे रही है वही उसकी मौत है और मौत भला किसको प्यारी लगती है l नोरा हास्पिटल से सीधे जंगल की ओर चली गयी और उसे ले जाकर जंगल के बाहर छोड़ आई पर उसके मन में डर ने घर कर लिया, उसने किसी भी जानवर को पालतू न रखने की कसम खा ली और मैंने राहत की साँस क्योंकि अब मुझे उसके खतरनाक पालतू के बारे में नही सुनना पड़ेगा और जिसकी वजह से मैं उसके घर में भी पैर रखने से डरती थी आसानी से आ जा सकूँगी।

Shweta Misra

Nigeria

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रितुपर्णो घोष की फ़िल्म ‘शुभो मुहूर्त’पर विजय शर्मा का लेख

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रितुपर्णो घोष की फ़िल्में उपन्यास की तरह होती हैं। किसी क्लासिक उपन्यास की तरह बार बार थोड़ा-बहुत देखने लायक़। ‘शुभो मुहूर्त’ तो अगाथा क्रिश्टी के उपन्यास पर आधारित है और रितुपर्णो द्वारा निर्देशित एकमात्र मर्डर मिस्ट्री है। इस फ़िल्म पर विजय शर्मा का लेख पढ़िए। यह उनकी आगामी किताब का हिस्सा है- मॉडरेटर

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शुभ मुहूर्त: मर्डर मिस्ट्री

विजय शर्मा

मर्डर मिस्ट्री ऋतुपर्ण घोष का क्षेत्र नहीं था लेकिन उन्होंने सदा अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर निकल कर काम किया है। वैसे वे अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से पूरी तरह बाहर गए भी नहीं हैं, क्योंकि इस फ़िल्म में भी वे स्त्रियों को केंद्र में रख कर फ़िल्म बना रहे हैं और इस विषय में वे निष्णात हैं। स्त्री और उसके दूसरे लोगों से रिश्तों को परिभाषित करने में फ़िल्म निर्देशक ऋतुपर्ण घोष कुशल हैं। अपनी 2003 की फ़िल्म ‘शुभ मुहूर्त’ में भी वे यही कर रहे हैं। हालाँकि इस फ़िल्म की कहानी उन्होंने किसी भारतीय साहित्य से नहीं ली है। न ही उनकी अपनी लिखी कहानी है। हाँ, उन्होंने कहानी का पुनर्लेखन किया है और इसमें वे पूरी तरह सफ़ल भी रहे हैं। इसमें उन्होंने कहानी उठाई है, एक समय की प्रसिद्ध मर्डर मिस्ट्री लेखिका अगाथा क्रिस्टी की और उसे पूरी तरह से भारतीय या यूँ कहें बंगाली जामा पहना दिया है। हालाँकि वे अगाथा क्रिस्टी का नाम कहीं नहीं देते हैं, लेकिन फ़िल्म को उनके गढ़े एक चरित्र ‘मिस मेपल’ को समर्पित करते हैं। अगाथा क्रिस्टी की कहानी पर स्क्रिप्ट तैयार करना आसान काम नहीं है, मगर यह काम घोष ने बड़े सलीके से किया है।

अब जिन्होंने अगाथा क्रिस्टी को पढ़ा या उनके काम पर बनी फ़िल्में देखी हैं उन्हें तो ‘शुभ मुहूर्त’ का पूरा रहस्य और हत्यारा फ़िल्म की शुरुआत में ही मिल जाएगा क्योंकि यह फ़िल्म अगाथा के ‘द मिरर क्रैक्ड फ़्रॉम साइड टू साइड’ का बाँग्ला संस्करण है। फ़िर भी फ़िल्म देखने का मजा किरकिरा नहीं होता है क्योंकि एक तो खूबसूरत लोगों ने इसमें अभिनय किया है, दूसरे इसके डॉयलॉग आपको बाँधे रखते हैं। जब पूछा जाता है, ‘क्या हम एक साथ दो लोगों को प्यार नहीं कर सकते हैं?’ तो दर्शक सोचने-विचारने पर मजबूर हो जाता है। और इस फ़िल्म में आकर्षित करता है बंगाल के उच्च-मध्यम वर्ग का रहन-सहन, उनका पहनावा, उनका शृंगार, केश-विन्यास, वैसे यह ऋतुपर्ण का हॉलमार्क है। फ़िल्म किसने हत्या की है, से अधिक हत्या क्यों की गई है, पर केंद्रित रहती है। अपराध को मनोवैज्ञानिक रुख दिया गया है, जो अगाथा क्रिस्टी की भी विशेषता है।

ऋतुपर्ण घोष की अभिनेत्रियाँ बंगाल की खूबसूरत साडियाँ बड़े सलीके से पहनती हैं और यहाँ तो टॉप ग्रेड की हिरोइने हैं। एक ओर राखी गुलजार है तो दूसरी ओर शर्मिला टैगोर। दोनों बाँग्ला और बॉलीवुड की खूब प्रसिद्ध और मंजी हुई अभिनेत्रियाँ हैं। और तीसरी युवती है मल्लिका सेन (नंदिता दास) मगर वह बंगाली स्टाइल के नहीं आधुनिक लड़की, बिंदास पत्रकार के कपड़े पहनती है, यानि जीन्स-टॉप पहनती है और हाँ, सिगरेट भी फ़ूँकती है। शुरु में बाथरूम में छिप कर लेकिन अपनी रंगापीसीमाँ (राखी गुलजार) की नजरों से नहीं बच पाती है। मिस मैपल की भूमिका में पीसीमाँ अपनी पत्रकार भतीजी से कहती हैं, ‘बाथरूम के बाहर सिगरेट पीयो लेकिन कम और हाँ, मुझे भी एकाध पकड़ा दिया करो।’ फ़िल्म में पीसीमाँ को विधवा, कोमल, मधुर बोलने वाली लेकिन कुशाग्र बुद्धि दिखाया गया है, जो अपनी सफ़ेद साड़ी में भव्य लगती है और अपनी ढ़ेर सारी बिल्लियों के साथ रहती है। वह टिपिकल बंगाली विधवा लाचार बुआ नहीं है। उसके आँख-कान-नाक खूब सजग हैं। भतीजी अपनी बुआ से अपने पत्रकार जीवन की बातें बताती है और उन्हीं से टुकड़े-टुकड़े जोड़ कर बुआ हत्या के रहस्य का पर्दाफ़ाश करती है।

दूसरी ओर उम्र दराज, एक समय की नामी-गिरामी अभिनेत्री है। आधुनिक उच्च वर्ग की, विदेश पलट पद्मिनी चौधुरी (शर्मिला टैगोर)। वह काफ़ी समय बाद विदेश से लौटी है, एक फ़िल्म को प्रड्यूस करने के लिए। पद्मिनी यह फ़िल्म अपने पति संबित राय (सुमंत मुखर्जी) से निर्देशित करवा रही है। पति जो प्रतिभाशाली है मगर कभी सफ़ल नहीं हो सका है। पद्मिनी खूबसूरत है, घर-बाहर दोनों स्थानो पर सुरूचिपूर्ण कपड़े पहनती है। उसकी बाकी साज-सज्जा कपड़ों और मौके के अनुरूप होती है।

अधिकाँश लोगों का जीवन बड़ा विचित्र होता है। सफ़लता के साथ संतोष नहीं आता है, महत्वाकांक्षाएँ पीछा नहीं छोड़ती हैं। जीवन में संत्रास बना ही रहता है। ‘शुभ मुहूर्त’ इन्हीं बातों से जुड़ी फ़िल्म है। ऊँचाई पर पहुँची अभिनेत्री पद्मिनी परिवार में रह रही थी मगर परिवार से उसे वह कुछ नहीं मिल रहा है जो वह चाहती थी। जब वह ‘प्राणेर प्रदीप’ फ़िल्म में कार्य कर रही थी उसका झुकाव फ़िल्म के युवा निर्देशक संबित राय की ओर हो जाता है और वह उससे विवाह करती है। गर्भवती होती है, गर्भावस्था में उसका संसर्ग एक संक्रामक रोगी से होता है, फ़लस्वरूप उसका बच्चा मानसिक रूप से विकलांग पैदा होता है, जो 16 साल जीवित रह कर मर जाता है। बेटे की मृत्यु से व्यथित पद्मिनी तलाक ले कर विदेश चली जाती है और अब कई वर्षों के बाद वह फ़िल्म प्रड्यूस करने भारत लौटी है। क्या वह सिर्फ़ फ़िल्म प्रड्यूस करने लौटी है या उसका कोई हिडेन एजेंडा भी है?

फ़िल्म शूटिंग के प्रारंभ में जो शॉट लिया जाता है वह मुहूर्त शॉट कहा जाता है और इसे ही बाँग्ला में ‘शुभ मुहूर्त’ नाम से फ़िल्माया गया है। अधिकतर यह पहला शॉट खूब उत्सव, ताम-झाम और समारोह के साथ किया जाता है। फ़िल्म में ऋतुपर्ण घोष भी इसे बड़े फ़ैन-फ़ेयर के साथ फ़िल्माते हैं। इस दृश्य में सेट पर अभिनेता सौमित्र चैटर्जी, शुभेंदु चैटर्जी, माधबी मुखर्जी, निर्देशक गौतम घोष जैसी हस्तियाँ सशरीर मौजूद  हैं, खूब फ़ोटो क्लिक किए जा रहे हैं। इस समारोह की स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी को मुख्य रूप से शुभंकर चौधुरी (अनिन्द्य चैटर्जी) अंजाम दे रहा है, बीच में प्रमुख लोगों का एक फ़ोटो लेने गौतम घोष भी आ जाते हैं। पत्रिका की ओर से इवेंट कवर करने मल्लिका भी आई हुई है। खूब हँसी-खुशी के बीच मुहूर्त सम्पन्न होता है। पद्मिनी ने इस फ़िल्म के लिए स्वयं अभिनेत्री चुनी है। इस फ़िल्म की होरोइन है, काकोली सिन्हा (कल्याणी मंडल)। हालाँकि अभिनेत्री बहुत नर्वस है, बाद में पता चलता है कि वह ड्रग एडिक्ट है। मल्लिका काकोली का इंटरव्यू लेना चाहती है। काकोली की तबियत खराब है, अत: काकोली मल्लिका को अपने साथ कार में अपने घर ले आती है।

कार में प्रारंभ हुआ इंटरव्यू हिरोइन के घर में भी जारी रहता है, लेकिन अचानक मुँह से झाग फ़ेंकती हुई काकोली मर जाती है। वह ड्रग से नहीं मरी है। उसकी हत्या हुई है। चूँकि उस समय काकोली के पास केवल मल्लिका ही थी अत: वह भी हत्या की जाँच-पड़ताल की चपेट में आ जाती है। एक ओर फ़िल्मी दुनिया के लोग, दूसरी ओर पुलिस, बीच में मौत और इन सबके बीच युवा पत्रकार। फ़िल्म दिखाती है अतीत में कई लोगों के कई लोगों के साथ प्रेम प्रसंग हैं, लेकिन वर्तमान में इसी बीच मल्लिका को दो लोग अपना दिल दे बैठते हैं। फ़्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र शुभंकर चौधुरी और पड़ताल कर रहे आईपीएस ऑफ़ीसर अरिंदम चैटर्जी (तोता राय चौधुरी) दोनों को मल्लिका भा जाती है। मल्लिका का झुकाव भी आईपीएस ऑफ़ीसर अरिंदम चैटर्जी की ओर हो जाता है, जबकि इंट्रोवर्ट शुभंकर उसका प्रेम पाने के अपने तई बहुत उपाय करता है। शुभंकर पद्मिनी का रिश्तेदार भी है। रंगापीसीमाँ शुभंकर की खूब आवभगत करती है लेकिन स्वार्थवश। रंगापीसीमाँ भतीजी से उसकी शादी के लिए उसका लाड़-प्यार नहीं करती है, वह उससे हत्या का रहस्य सुलझाने के लिए सूत्र प्राप्त करने के लिए ऐसा करती है। और वह इसमें सफ़ल रहती भी है।

‘शुभ मुहूर्त’ फ़िल्म है प्रेम, प्रतिकार, ब्लैकमेलिंग, श्याम-अतीत, पश्चाताप, रहस्य और हत्या की गुत्थियाँ हैं। यह फ़िल्म है स्मृतियों की, रिश्तों की, रिश्तों के उलझाव की, उन्हें सुलझाने की। स्मृतियाँ सदैव मधुर नहीं होती हैं। कटु स्मृतियाँ प्रतिकार के लिए उकसाती हैं, अपराध करवाती हैं। कटु स्मृतियों और प्रतिकार के लिए किए गए अपराध की फ़िल्म है, ‘शुभ मुहूर्त’।

फ़िल्म में हत्या, रहस्य, प्रेम के समानांतर एक प्रेम कथा और चलती है, हेयर ड्रेसर तथा असिस्टेंट कैमरामैन के बीच। एक समय इनके बीच प्रेम था मगर अब हेयरड्रेसर मुसीबत में है और वह कैमरामैन से रुपए ऐंठती रहती है। अभिनेत्री की हत्या की सुई कई पात्रों पर घूमती रहती है। फ़िल्म निर्देशक संबित का भी अतीत है, इस अतीत का गवाह एक अभिनेता है, जिसे फ़िल्म से निकाल दिया गया था और आजकल वह फ़िल्म युनिट के लिए कैटरिंग सर्विस का काम करता है। क्या वह राज का भंडाफ़ोड़ करेगा? शक के घेरे में काकोली का पति भी है। हत्या किसने की है यह रहस्य खोल लर मैं आपका नुकसान नहीं करना चाहती हूँ। उत्तर के लिए फ़िल्म खुद देखनी होगी।

ऋतुपर्ण घोष ने यह फ़िल्म बना कर उन स्त्रियों को अपनी आदरांजलि दी है, जो घर के भीतर रह कर दिन-रात परिवार की देखभाल करती हैं। उन्हीं की कर्तव्यपरायणता के फ़लस्वरूप घर के सदस्यों को समय पर भोजन मिलता है। असल में ऐसी स्त्रियाँ समाज को मजबूती प्रदान करती हैं। अक्सर उनकी लगन, उनके कार्य, कर्तव्य परायणता, बुद्धिमता, उनके बलिदान की चर्चा नहीं होती है।

ऋतुपर्ण घोष की कई अन्य फ़िल्मों के भाँति इस फ़िल्म में भी रबींद्र संगीत है। इस फ़िल्म में कवि के एक गीत को अनिन्द्य चट्टोपाध्याय ने भी गाया है। अनिन्द्य बाँग्ला रॉक बैंड ‘चंद्रबिंदु’ के गायक हैं। इतना ही नहीं उन्होंने फ़िल्म में अभिनय भी किया है। इस फ़िल्म का म्युजिक देबज्योति मिश्र का है।

इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले ऋतुपर्ण घोष ने देबब्रत दत्ता के साथ मिल कर तैयार किया है। कहानी का इंग्लिश ट्रान्सलेशन सुदेशना बंधोपाध्याय का है। फ़िल्म के संवाद चुस्त-दुरुस्त हैं, बिना बड़बोलेपन के। हास्य-व्यंग्य, कटाक्ष, हल्के-फ़ुल्के संवाद दर्शक को भाते हैं। एडीटिंग अर्घ कमल मित्रा ने की है। अवीक मुखोपाध्याय का कैमरा बारीकी से घटनाओं तथा अभिनेताओं के मनोभावों को पकड़ता है। कौशिक सरकार का आर्ट डेकोरेशन कहानी के अनुरूप है। 150 मिनट की इस फ़िल्म को 2003 का सर्वोत्तम बंगाली फ़ीचर फ़िल्म का नेशनल अवार्ड मिला था। साथ ही राखी गुलजार को सर्वोत्तम सहायक अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड मिला भी था। फ़िल्म ‘शुभ मुहुर्त’ को देखा जाना चाहिए।

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डॉ विजय शर्मा, 326, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर – 831009

Mo. 8789001919, 9430381718  Email : vijshain@gmail.com

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क्यों नहीं हो रहा हिंदी में इतिहास-लेखन

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जाने-माने इतिहासकार रजीउद्दीन अक़ील ने इस लेख में बहुत गम्भीर सवाल उठाया है कि इतिहास लेखन हिंदी में क्यों नहीं हो रहा? इतिहासकारों के सामने यह बड़ा सवाल है कि उन्होंने कभी इस दिशा में कोई ठोस काम क्यों नहीं किया? रज़ी साहब का यह लेख पहले ‘नवजीवन’ में प्रकाशित हो चुका है। आप भी पढ़ना चाहें तो पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर

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यह सवाल सबके मन में कौंधता है कि भारतीय इतिहास को लेकर शोध के काम हिंदी में क्यों नहीं हो पा रहे हैं। इस पर विचार करते हुए कुछ बातें ध्यान में रखनी होंगी ताकि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हम किसी नतीजे तक पहुंचें।

विभिन्न भारतीय भाषाओं और शैलियों में पाए जाने वाले स्रोतों के आधार पर राजनीति, धर्म, संस्कृति, स्थापत्य और चित्रकला, जेंडर (लिंग), जाति और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के इतिहास को समझने का प्रयास किया जा रहा है। अभी तकरीबन सारा अच्छा काम अंग्रेजी में होता है और उसे अंतरराष्ट्रीय ज्ञान-पटल से जोड़ने का प्रयास किया जाता है। कुछ हद तक बांग्ला, मलयालम और मराठी इतिहास अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषा में भी लिखा जाता रहा है लेकिन उसका स्तर अंग्रेजी से नीचे रहता है। उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों से आए हुए प्रतिष्ठित संस्थानों के बड़े इतिहासकार हिंदी में पठन-पाठन को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। यानि, यहां हालत और भी चिंताजनक है।

इसके उलट एक और स्थिति है। औपनिवेशिक काल की अंग्रेजी कट-दलीली को अगर नजरअंदाज कर दिया जाए, तो यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हिंदुस्तान में साहित्य-सृजन और इतिहास-लेखन की बहुआयामी परंपराएं प्राचीन-काल से मध्य-युग होते हुए आधुनिक दौर तक चली आती रही हैं। साहित्यिक परंपराएं न केवल संस्कृत, तमिल और फारसी-जैसी शास्त्रीय भाषाओं में देखने को मिलती हैं बल्कि मध्य-काल से विभिन्न देशज या क्षेत्रीय भाषाओं- कन्नड़, बांग्ला, मराठी, हिंदी और उर्दू इत्यादि, में भी पाई जाती हैं।

यह जानी हुई बात है कि ऐतिहासिक साहित्य- चाहे भाषा के आधार पर विभाजित हो या नाना प्रकार की शैलियों में फैला हुआ हो, कालांतर में ये महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत का रूप ग्रहण कर लेता है। लेकिन इन स्रोतों की तथ्यात्मकता और साक्ष्य के रूप में उनके बहुमूल्य उपयोग भर की बात नहीं है,  अपितु, इस साहित्य का बहुत बड़ा भाग लेखन-शैली के आधार पर अपने आप में इतिहास की हैसियत रखता है। इतिहास, पुराण, वंशावली, चरित, बुरंजी, बाखर और तारीख आदि शैलियों में पेश किए गए लेख शायद मिथकों से भरे पड़े हों, तथ्यों की सत्यात्मकता की कसौटी पर पूरी तरह खरे न उतरें या उनका विवरण सटीक काल-क्रमानुसार न हो, फिर भी वह भारत में इतिहास-बोध और ऐतिहासिक परंपराओं की प्रचुर मिसाल पेश करते हैं। सिर्फ इसलिए कि वह आधुनिक काल की पाश्चात्य ऐतिहासिक पद्धति से कुछ हद तक अलग हैं, हम उनके महत्त्व को सिरे से नकार नहीं सकते।

हां, देशज भाषाई इतिहास की यह बड़ी समस्या जरूर है कि धर्म, जात-पात, क्षेत्रीयता या भाषायी पहचान की राजनीति और संघर्ष में उनका इस्तेमाल एक हथकंडे के रूप में किया जाता है। संवेदनाएं मामूली और कमजोर होती हैं और उनके ठेकेदार बाहुबलि। वे तय करते हैं कि ऐतिहासिक अनुसंधान से निकल कर आने वाली आवाज को कुचल देना है, ताकि समाज परंपरागत मान्यताओं और विश्वास के मायाजाल में फंसा रहे। नतीजतन, साक्ष्यों और ऐतिहासिक तथ्यों पर सामाजिक और ऐतिहासिक स्मृतियों को तरजीह दी जाती है, तथ्यों की व्याख्या में पक्षपात और पूर्वाग्रह की समस्या उभर कर सामने आ जाती है और ज्ञान-रूपी गंगा को संवेदनशील भावनाओं की गंदी राजनीति से मैली कर दी जाती है। यह सब दरअसल सत्ता की होड़ में इतिहास के दुरूपयोग की निशानी है।

दूसरी ओर, राजनीतिक विचारधाराओं और ऐतिहासिक यथार्थ के बीच के अंतर्विरोध और अन्य तमाम कठिनाइयों के बावजूद विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और अकादमिक पत्रिकाओं से निकल कर आने वाला पेशेवर इतिहास अपनी बुनियादी उसूलों और रुपरेखा के साथ नए आयाम तलाशता रहा है। भूतकाल से जुड़े प्रासंगिक ऐतिहासिक प्रश्नों का विश्लेषण साक्ष्यों और तथ्यों की प्रामाणिकता के आधार पर किया जाता है। हालांकि इतिहासकारों के सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ, साहित्यिक भाषा, सैद्धांतिक प्रतिपादन और अवधारणाएं, ऐतिहासिक व्याख्या और विवरण को प्रभावित करते हैं, एक अच्छे इतिहासकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने ऐतिहासिक विवेचन में वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षतावाद का परिचय दें। इन्हीं मापदंडों के आधार पर उनके कार्यों की समीक्षा और कदरदानी होती है, अन्यथा प्रोफेसर तो बहुत बनते हैं लेकिन इतिहास-लेखन के इतिहास में सबको जगह नहीं मिलती।

शैक्षणिक संस्थान अपने इर्द-गिर्द की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह कटकर नहीं रह सकते। इसलिए शिक्षण और शोध के विषय अपने समकालीन सन्दर्भ से प्रभावित होते रहते हैं। फिर भी, सार्वजनिक ज्ञान-क्षेत्र के भारतीय भाषायी इतिहास और पेशेवर अकादमिक इतिहास के बीच एक बहुत बड़ी खाई है जिसे पूरी तरह पाटना तो मुश्किल है लेकिन उनके बीच के फासले को कम करके ऐतिहासिक शोध को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना जरूरी है।

राजभाषा के नाम पर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करती है और गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी थोपने का मुद्दा गाहे-बगाहे उभरता रहता है। लेकिन, काम कागजी है या सिरे से नदारद। हिंदी की सौतेली बहन उर्दू का मामला भी जग-जाहिर है- बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुबहानल्लाह! हिंदी में गुणात्मक, स्तरीय और अकादमिक ग्रंथों की कमी कोई ढकी-छुपी बात नहीं है। पाठ्य-पुस्तकें तीस-चालीस साल पुराने शोध को बैलगाड़ी की चाल से ढोती हैं। अच्छे मौलिक शोध-प्रपत्र हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं। ऐतिहासिक शोध-पत्रिकाएं या तो नहीं के बराबर हैं या उनका स्तर घटिया दर्जे का है। इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को कम-से-कम दो से तीन भाषाओं में महारत होनी चाहिए- ऐसे विद्वान कम ही मिलते हैं। आम तौर पर, साहित्य वाले नया इतिहास नहीं पढ़ते और इतिहासकार अभी भी साहित्य को पूरी तरह मनगढ़ंत समझकर उनके महत्व को नजरअंदाज कर जाना चाहते हैं। यह एक नासमझी है। वैसे, इसे हाल के वर्षों में थोड़ी-बहुत सफलता के साथ दूर करने की कोशिश की गई है।

हिंदी में इतिहास-लेखन और शिक्षण से जुड़ी समस्याओं के निदान के मद्देनजर कुछ काम किए जा सकते हैं। पहला, अंग्रेजी की अच्छी किताबों और अधिकृत पाठ्य-पुस्तकों का अनुवाद आसान जबान में निरंतर होता रहना चाहिए। इसके अलावा हिंदी में भी मौलिक पाठ्य-पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन जारी रहे। हिंदी में ऐतिहासिक शोधकार्य को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह विडंबना है कि प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों के शोधकर्ता अपना शोध-ग्रंथ, जिसके लिए उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि मिल सके, हिंदी में नहीं लिख सकते, लेकिन सरकारी बोर्ड हिंदी में अवश्य लिखे होने चाहिए। स्तरीय प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए हिंदी में ऐतिहासिक जरनल या पत्रिकाएं सुचारू रूप से निकाले जाने की जरूरत है। यहां भी सरकारी संस्थानों और वित्तीय योगदान की जरूरत है। हम अकादमिक संस्थानों में घोटालों की बात नहीं करते। यहां समस्या और भी जटिल है। यहाँ बात सिर्फ प्रायोरिटी (प्राथमिकता) और ग्लैमर (अंग्रेजी की चमक-झमक) की भी नहीं है बल्कि विभिन्न प्रसंगों में स्वार्थ और नीयत की भी है।

यह विडंबना ही है कि भारतीय भाषायी साहित्य निम्नवर्गीय इतिहास और महत्वकांक्षाओं की भी अक्कासी करता है, वहीं अकादमिक संस्थानों में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से उच्च तबकों के सामंती लोग आधुनिकता का चोला ओढ़कर अपनी पैठ बनाए बैठे हैं। परिणामस्वरूप, पिछड़े वर्गों से उठकर आने वाले न जाने कितने कबीर-दबीर का गला घोंट दिया जाता है। इसके अलावा, नए शोध को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। पब्लिक डोमेन में न्याय की बात उठाना राजनीतिक प्रोपगंडे का रूप धारण कर लेता है। इसके बरअक्स, अकादमिक संस्थानों में गुरु-चेला, जात-पात, क्षेत्रीयता और धार्मिक सांप्रदायिकता को विचारधारा और सिद्धांत-रूपी विद्वत जामा पहनाकर ऐतिहासिक अनुसंधान और ज्ञान-विज्ञान की बात की जाती है।

किसी समाज के निरंतर नव-निर्माण में उसके ऐतिहासिक धरोहरों का ज्ञान और उपयोग बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं। चालीस-पचास साल पहले लिखी गई किताबों को लेकर हम बैठ जाएं तो पुरानी लकीर के फकीर ही बने रहेंगे जबकि दुनिया कहां से कहां जा चुकी होगी। दुनिया की वही कौमें तरक्की करती हैं जो इतिहास की दिखाई हुई रोशनी में दूर तक निकल जाती हैं। शैक्षणिक संस्थान इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं। लेकिन मौजूदा दौर में सारा जोर या तो डिग्रियों या उपाधियों पर है या ज्ञान से जुड़ी सत्ता की राजनीति पर। फलस्वरूप, शिक्षा से जुड़े लोगों का, न सिर्फ छात्रों बल्कि शिक्षकों का भी, मानसिक पुनर्गठन नहीं हो पा रहा है। दकियानूसी एक ऐतिहासिक यथार्थ है।

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चुन-चुन खाइयो मांस: आमिस  

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असमिया भाषा की फ़िल्म ‘आमिस’ पर यह टिप्पणी युवा लेखक-पत्रकार अरविंद दास ने लिखी है- मॉडरेटर

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एक बार मैं एक दोस्त के साथ खाना खा रहा था. अचानक से दाल की कटोरी से उसने झपटा मार के कुछ उठाया और मुँह में डाल लिया. जब तक मैं कुछ समझता, हँसते हुए उसने कहा- चिंता मत कीजिए मैं आपको नहीं खिलाऊँगी. दाल में गलती से एक टुकड़ा मछली का आ गया था.

भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म ‘आमिस’ देखते हुए यह प्रसंग मेरे मन में आता रहा. प्रसंगवश, मैं वेजिटेरियन हूँ और मेरी दोस्त उत्तर-पूर्व से थी,  जहाँ पर खान-पान की संस्कृति उत्तर भारतीयों से भिन्न है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है जो एंथ्रापलॉजी विभाग में उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली जो पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की माँ है अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसका डॉक्टर पति अपने सामाजिक काम से ज्यादातर शहर से बाहर रहता है और निर्मली के जीवन में निरसता है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह तरह के मांस खान को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम (?) पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है. लेकिन फिल्म में दोनों के बीच साहचर्य का अवसर कम है और सहसा विकसित प्रेम के इस रूप से खुद को जोड़ना मुश्किल होता है. सिनेमा देश-काल को स्थापित करने में असफल है.  क्या हम इसे खाने के पैशन से विकसित ऑब्सेशन कहें?

खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने ‘लंच बाक्स’ फिल्म में भी देखा था, पर आमिस फिल्म के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.

इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर यह मानवीय प्रेम के आधे-अधूरे जीवन को ही व्यक्त कर पाता है. क्या संपूर्णता की तलाश व्यर्थ है?  क्या दोनों के बीच प्रेम का कोई भविष्य नहीं?

फिल्म में अदाकारी, सिनेमैटोग्राफी, संपादन और बैकग्राउंड संगीत उत्कृष्ट है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित (locale) है, जिसे सिनेमा में खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है. सिनेमा चूँकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है इस वजह से महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते. जाहिर है आमिस के कई पाठ संभव हैं, पर यह फिल्म अपने ‘अकल्पनीय कथानक’ की वजह से चर्चा में है. जहाँ अंग्रेजी मीडिया में आमिस को लेकर प्रशंसा के स्वर हैं, वहीं असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों के बीच तीखी बहस जारी है.

परकीया प्रेम को लेकर पहले भी फिल्में बनती रही हैं, साहित्य लिखा जाता रहा है. फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर किसी नैतिक दुविधा या समकालीन राजनैतिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. मिथिला की बात करुँ तो कुछ जातियों में शादी से पहले वर-वधू की अंगुली से थोड़ा सा नाम मात्र का खून (नहछू?) निकाला जाता है, जिसे खाने में मिला कर एक-दूसरे को खिलाया जाता है. यह परंपरा के रूप में आज भी व्याप्त है. मिथिला की तरह असम में भी तंत्र-मंत्र का प्रभाव रहा है और ख़ास तौर पर कामरूप प्रसिद्ध रहा है. फिल्म में मांस के बिंब को प्रेमी-प्रेमिका के (स्व) मांस भक्षण के माध्यम से स्त्री-पुरुष के संयोग की व्याप्ति तक ले जाना, दूर की कौड़ी लाना है. कला में तोड़-फोड़ अभिव्यक्ति के स्तर पर जायज है, पर कल्पना के तीर को इतना दूर खींचना कि तीतर और बटेर की जगह मानव के मांस के टुकड़े हाथ आए तो इसे हम क्या कहेंगे? इसे हम अभिनव प्रयोग तो नहीं ही कह सकते.

प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एबसर्ड की तरफ मुड़ जाती है.

प्रेम में कागा से ‘चुन-चुन खाइयो मांस’ की बात करते हुए दो अँखियन को छोड़ने की बात भी की गई है जिसे पिया मिलन की आस है. यहाँ तो प्रेम उन आँखों को ही निगलना चाहता है. आँखें ही नहीं बचेंगी तो फिर दर्शक (प्रेमी) देखेगा क्या?

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क्योंकि रेप भी एक सियासत है

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हैदराबाद में बलात्कार और हत्या की अमानवीय घटना ने देश भर की संवेदना को झकझोर दिया है। हमारा समाज आगे जा रहा है या पीछे यह समझ नहीं आ रहा है। मुझे नीलिमा चौहान की किताब ‘ऑफ़िशियली पतनशील‘ का यह अंश ध्यान आया। आपने न पढ़ा हो तो पढ़िएगा- मॉडरेटर

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रेप तो होना ही था

उसकी मुट्ठियाँ भिचीं और ओंठ कटे फटे सूजे थे ।  मुझे पता  नहीं कि क्यूँ मैंने उसकी अँगुलियों को एक- एक कर खोला होगा और क्यों उसकी हथेलियों के पसीने को अपनी कुर्ती के कोने से पोंछकर उन्हें दोबारा बंद कर दिया होगा । हाथ में मेरे अखबार है । अखबार में रेप की खबर है । खबर में हमेशा की तरह कोई बदकिस्मत लड़की है । लड़की के पास हमेशा की तरह एक चेहरा है । नाम है । सपने हैं । अपने हैं । पराये हैं । भीड़ है ।

है नहीं थी कहो भीड़  की आवाज़ है । थी क्यों मैं अभी भी हूँ | मैं अभी भी रहना चाहती हूँ । क्या सुना आपने भी ? अभी यह लड़की बुदबुदाई  थी । नहीं जी ढहा दी गई  लड़की नहीं बोलती ।  वो होती ही नहीं क्योंकि  । खबर बन जाती है । ये कान बस बात बना  रहे हैं । नहीं पर मैंने अभी खुद उस लड़की के पसीने और लहू को पोंछा है । मैंने उसकी उघड़ी देह को छूकर जाना है कि मरी नहीं अभी ज़िंदा है । नहीं साहेबान !  ये तबतक मर सकती नहीं जबतक यह मरना नहीं चाहेगी  ।

उफ ये कैसी जानी पहचानी भीड़  है । हर बलात्कृत लड़की को घेरकर खड़ी हो जाने वाली भीड़ । इस भीड़ को आँख नहीं । कान नहीं । कलेजा नहीं  । हाथ नहीं ।  बस ज़बान है । अच्छा हुआ आपने इसके चेहरे को  ढाप  दिया और लड़की अभी देख नहीं सकती । बस सुन सकती है | देख सकती तो आपके  चेहरे मोहरे में बलात्कारी का चेहरा पहचान जाती  । यह आपके लिए भी अच्छा हुआ वरना आप भी बर्दाश्त कर नहीं पाते इसका चेहरा । अजी गुस्साइए मत मैं तो बस यह कह रही थी कि हमारे यहाँ हर लड़की का चेहरा  काफी कुछ एक- सा  होता है । हर हँसती हुई का नहीं भी मिले पर रुलाई गई , तड़पाई गई , नोची- खसोटी गई हर लड़की एक- सी दिखाई देती है । कौन माई का लाल ऐसी सड़क  पड़ी खूनमखून लड़की में अपने घर की बच्चियों औरतों का चेहरा देखकर सुन्न होना बर्दाश्त कर सकेगा ।  आप सबको पुख्ता यकीन है न कि ये तकलीफज़दा बलात्कृता लड़की आपके घर खानदान की नहीं ?हाँ आपकी जानी- पहचानी ‘शुक्र है’ वाली फुसफुसाहट सुनाई दे रही है । लड़की को अपनी बदकिस्मती और दुस्साहस के साथ- साथ अँधेरे और  निर्जनता की भी सज़ा मिल रही है । हमने नहीं दी और यह हमने नहीं किया । हमने कुछ भी नहीं किया । और हमारे घर की लड़कियाँ हमारी चौकसी के घेरे में महफूज़ हैं और हम आप भी शरीफज़ादे और दीन- धर्म , बाल- बच्चों वाले आदमी हैं जी ।

…….

वो जो रेपगति को प्राप्त हुई 

हर बस में चढ़कर कंडक्टर का , डाइवर का , मुसाफिरों का चेहरा गौर से देखती थी वह । नहीं , नहीं बिटिया  की चूड़ियाँ और माता की चुनरी स्टीयरिंग से बाँधने वाला ड्राइवर बलात्कारी नहीं हो सकता । कंडक्टर के चेहरे- मोहरे पर मनहूसितय,  कमज़ोरी , अभाव पसरा पड़ा  है । न यह कतई ऎसे  कुकर्म का भागीदार  नहीं हो सकता । यह मुसाफिर खुद अपनी ज़नानी के साथ है यह बलात्कार क्यों करेगा । यह वाला मुसाफिर ज़माने का सताया और उनींदा , अनमना  सताया है ।  यह भी बलात्कारी नहीं सकता । और यह सफेद-  पीले तिलक वाला  इबादती आदमी । नहीं इसको खुदा का खौफ । यह ऐसा संगीन ज़ुर्म क्यों करेगा ।  हाँ माँ मैं बस में चढ़  गई हूँ । मैंने एतियातें  बरत ली है मुआयना कर लिया है यकीन बना लिया है । इस बस  में कोई  मेरा रेप नहीं करेगा । लड़की बच गई थी सड़क पर चलती आजू- बाजू , ऊपर – नीचे देखती चलती थी । कपड़े सँभालती पर बीच- बीच में उसका मन कर जाता थोड़ा

उघाड़कर

इठलाकर

बलखाकर

इतराकर

लहलहाकर चलती

पर नहीं अंधेरे में वीराने में नहीं । सब देखभाल कर , सूँघ – वूँघ कर जाँच -वाँच कर । अभी के लिए ठीक नहीं । अभी भावहीन , कामनाहीन , रंगथीन , लचकहीन , कहकहाहीन , सपनाहीन , दमकहीन होकर बचूँगी । ओह वीरानगी !  काश इस वीराने से गुज़रती हुई मैं अदृश्य हो जाऊँ  या काश घरती के नीचे नीचे कोई सुरंग होती जो घर तक ले जाती  होती । लड़की के सिर पर चील कौव्वे गिद्धों का मँडराना महसूस करती है पर चलती जाती है ।

 

चूक़ि भीड़ भी एक लिंग है

हम बलात्कारी नहीं बलात्कार के बाद पुलिस के आने तक ज़ख्मी लड़की को घेरकर अफसोस जताने वाली भीड़ हैं । बस हम तो यह जानना चाहते हैं कि लड़की किस जात की थी किस जात के लोगों ने कांड  किया । क्या पहनकर निकली थी घर से । कहाँ और किस वक्त थी । नहीं हम यह नहीं कह रहे कि शरीफ नहीं थी | पर शराफत थी तो तो अक्लमंदी क्यों नहीं थी। अक्लमंद रही होगी पर हादसे के वक्त उसकी मत और किस्मत खराब क्यों थी वरना यही लड़की क्यों । ए भाइयों चेहरा मत उघाड़ो रे |  बेकार में याद रह जाएगा और घर जाकर निवाला भी हलक से उतारना मुमकिन न हो पाएगा । अभी हमने ही तो अपनी उतारी कमीज़ से इसका निचला हिस्सा ढापा है |

क्या करें इसकी देह से लटकती हुई आँतों को समेटकर   ठूँस  दें इसके भीतर वापस ? बहादुर थी तभी इसका यह हाल हुआ । इसको हाथ पैर मारने की क्या पड़ी थी की । दरिंदों के आगे हाथ जोड़कर भैया मैं आपकी बहन की तरह हूँ जैसी बातें कहकर गिड़गिड़ाना था । हम खुद आदमी हैं तो समझते हैं कि चालबाज़ी ,  बराबरी करती औरत गुस्से और जोर को भड़का बैठती है। ये नहीं कि जिस्म बनकर बिछी रहें कुछ मिनट चुपचाप । नीचे की नसों में खून और दिमाग की नसों में जब आवेश बहता है तो उस वक्त आदमी में जानवर उतर आता है । कोई फर्क नहीं पड़ता कि औरत अपने आदमी के रुआब नीचे है या बलात्कारी के नीचे खौफ के नीचे फर्क बस इतना है कि घरवाले को अगली दफा फिर उसी जिस्म को खँखोड़ना  है पर बलात्कारी के लिए तो वह आज और अभी का माल है । शिकार की होशियारी ज़ोराज़्माइश किस शिकारी को रास आएगी भला ।  यही दुष्कर्म आराम से होता तो आज रात को उतनी जल्दी नींद आती घर की जनानियों को थोड़ा कम चेताने से भी काम चल जाता ।

पता नहीं तिरंगे  का डंडा डाला है या पहिया बदलने का सरिया । कैसे मुमकिन है । है न मुमकिन । जब कई- कई लोग कई- कई बार एक ही रास्ते में घुसकर राहत पाएँगे तो फिसलन से लबालब रास्ता सुरंग में तब्दील हुआ होगा ।  वरना कैसे अबतक लड़की की साँसे चल रही हैं । अब तक अपनी आँख से इस कदर दो फाँक लड़की  नहीं देखी । देखें फटी हुई लड़की कितनी देर तक ज़िंदा रह  सकती है । साहेबान लड़की अपनी अम्मा को यह बताने को ज़िंदा है अबतक कि गलती उसकी नहीं थी । कि उसने इज़्ज़्त को जान से ज़्यादा हिफाज़त की चीज़ समझा । कि वह कभी तो नहीं चूकती थी बस आज पता नहीं कैसे । कि माई बापू मुझे माफ कर दो ।

 

रेप हो के रहम

वो आए और ले गए देह और उसके बाहर झाँकते सामान को । रेप किट पर लिखे निर्देशों पर रौशनी डालकर ज़रूरियात के सबूत इकट्ठा  करने । वरना लड़की इंसाफ किस मुँह से माँगेगी । होंठ , छातियों , नितम्बों , योनि पर लगी लिसलिसाहट अस्पताल वालों के ज़िम्मे ।  पुलिस के ज़िम्मे नुचे बालों के गुच्छे , टूटे नाखूनों के टुकड़े  , चिथड़ी ब्रेज़ियर , लोहे के छड़ । सब दिख रहा  । लड़की के तार – तार दिल –  ज़िगर – आत्मा के छिटके लोथड़े नंगी आँखों से नहीं दिखते । नहीं रेप किट के हिसाब से ये सबूत मायने रखते नहीं । अगर ये कहीं हों भी तो इनको मौका ए वारदात पर लावारिस छोड़ना बेहतर । अब अस्पताल को और अस्पताल से अगर घर को गई लड़की  तो बस देह होकर रहे अच्छा । वैसे भी खंडहर जिस्म में जज़बात , अरमान,  सपने  रहेंगे नहीं । आत्मा – जिगर- दिमाग रहा तो भी लड़की  की बची ज़िंदगी पर उलटा असर करेगा इनका वजूद ।दबोची हुई यह  अगर पड़ी रही होती तो आज इसकी आँतें कम – से – कम इसके अंदर ही होतीं ।

 

भीड़ के एक हिस्से में गुस्सा है पर सवाल नहीं । होश है पर हरकत नहीं । खफगी  भी है पर आग नहीं । अभी भीड़ एकमत है कि लड़कियों को ही सिखाना होगा कि   बलात्कार होने देने के सिवाय  कोई चारा  बचे ही न तब किस मैनूअल का पालन करें । कल पुलिस , कानून , राज्य , सरकार मिलकर जारी करेंगे हिदायतावलि  । चिकित्सक,  मनोचिकित्सक महिला और स्वास्थ्य विभाग , महिला आयोग मिलकर करेंगे तय कि हिंसक रेप कम कैसे हों , लड़कियाँ रेपिस्ट को पहचाने कैसे , रेप के वक्त क्या करें | कल हर रिसाले में हर सड़क पर समाज – कल्याण विभाग के लगाए होर्डिंगों पर लड़कियों को ” अपनी महफूज़ शेल में और महफूज़ कैसे रहें ” सबंधी अधिसूचना चिपकी  होंगी । गली- गली से चुनकर बलात्कारी इकट्ठे कर सकते हो ? सज्जन का  दुर्जन में तब्दील होना रोक सकती हो ? हर गली कोने के अँधेरे को बल्ब और व्यवस्था की रौशनी से लैस कर सकते हो ? मर्दों और उनकी नलियों की हलचल को काबू कर सकते हो ? नहीं न ? तो लड़कियों को अपनी योनि की पवित्रता का महत्व तो समझा सकते हो । उनके पंख कतर तो सकते हो । उनकी योनि पर पहरा तो दे सकते हो ।  तो हर लड़की देह में जी पी एस तो फिट कर सकते हो ।

जवाब दो ! जबाव चाहिए !

प्यार उर्फ हिफाज़त वल्द तहज़ीब हाज़िर हो !  

हुज़ूर अफसानेबाज़ी नहीं कर रही अपनी बीमारी से लाचार हूँ बस । अखबार की सुर्खियों का आवरण हटाकर बलात्कृताओं की ज़ख्मी देह और आत्मा के नज़दीक कुछ देर बैठकर न जाने किस बात का सोग मना आने  की बीमारी   । उफ आपको इस तरह घेरकर खड़े होने की कैसी लत है । जनाब जब लड़की का बलात्कार हुआ तो वो अकेली कहाँ थी ।हर बलात्कारी जानता है कि जब वो शिकार पर हमला करेगा तो उसके आसपास दायरा बनाकर एक अदृश्य भीड़  खड़ी ज़रूर होगी । बलात्कार एक सामूहिक स्वीकृति का कर्म है चाहे कितने ही वीराने में क्यों न किया गया हो उसकी जायज़गी को समर्थन देने वाली पूरी सांस्कृतिक चेतना अट्टहास करती शिकार को दहलाती मौजूद हुआ ही करती है । क्या कहा आपने बलात्कार भी हिंसा का एक और तरीका भर है उसमें औरतों को इतनी हाय तौबा मचाकर एक्स्ट्रा सहानुभूति बटोरने की आदत पड़ी हुई है । जनाब आपने औरत की योनि की पाकीज़गी का मिथ गढ़ा और फिर औरत ज़ात की तमाम ताकत को अपनी उस अस्मत की हिफाज़त में झोंक दिया । कमाल ! कमाल ! कमाल!   देने वाले भी आप और लेने वाले भी आप  । यूँ आधी कुव्व्त और पूरे खौफ के साथ ज़िंदा रहने को औरतों के लिए  मशक्कत  भरा काम  बनाकर आप निश्चिंत हैं । आप जानते नहीं कि हम जानती हैं कि हम आपके लिए जिस्म हैं पर गलती से हमारे पास एक दिमाग भी है । जिसकी मौजूदगी खतरा है आपकी हुकूमत के लिए । एक बहुत बड़ी नाइंसाफी और यह कि आप महज़ बुद्धि हैं पर संयोग से आपके पास एक जिस्म है । आपकी यह बुद्धि आपके जिस्म के ज़रिये आपको हुकूमती होने के लिए उकसाती होती है । आपके लिंग के आतंक के भरोसे आप राज करते रंगे हाथ धरे गए हैं  ।

ओह आप अंधेरों और वीरानों के मालिक अपनी औरतों को रौशनी तक दहलीज तक सीमित रखने को प्यार कहते । ध्यान कहते | कद्र कहते । रखवाली कहते । इतना प्यार , ,रखवाली , कद्र , ध्यान कि हम अंतर्ध्यान होने लगें । अंधेरे में कई मर्दों के बीच अकेली हम बेवकूफ , लावारिस , लाचार ,बेकद्र और बदकिस्मत कहलाएँ । आखिरकार शिकार हो जाएँ ।

सुनो लोगों  !

मर गईं  वो चक्रव्यूह में उलझाया जिनको तुमने

नहीं बचीं  वो आठवें चक्र का तोड़ छिपाया जिनसे तुमने

पर देखो !

नज़दीक आ रहा  रेला खदेड़ी हुई औरतों  का

डर के बँटी हुई  नहीं डर का लबादा  उतार डटी हुई औरतों  का

खोलों को खुरचती बढ़ती चली आती हुई औरतों  का

अँधरी खोहों से , गटरों से , तहखानों से , पाताल से

वजूद उनका उफनता चला आ रहा

वे मुड़ – मुड़कर जगह ले रही काफिलों में

भिड़ने को वे  आ रही  लौट- लौट

प्यार उर्फ हिफाज़त उर्फ महफूज़गी वल्द  तहज़ीब  के  लोम्बड़  से

भिड़ने को वे  आ रही लौट- लौट

लेट देयर बी फाइट

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(Dr.) Neelima Chauhan

Associate Professor

Zakir Husain Delhi College (E)

University Of Delhi

Patansheel patniyon Ke Notes
http://patansheel.com

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