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सत्य और गल्प की गोधूलि का लेखक शरतचन्द्र

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कई साल पहले प्रकाश के रे जी के कहने पर महान लेखक शरतचन्द्र पर यह लेख लिखा था।आज उनकी जयंती पर याद आ गया- प्रभात रंजन

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शरतचन्द्र जिस दौर में लिख रहे थे तब साहित्य, राजनीति हर तरफ सुधार, उद्धार, आदर्शों की चर्चा रहती थी. उसी युग में शरतचंद्र ने ‘गृहदाह’ जैसा उपन्यास लिखा जिसमें अचला यह निर्णय नहीं कर पाती कि वह महिम से प्यार करती है या सुरेश से? ‘चरित्रहीन’ उपन्यास की सावित्री और किरणमयी जीवन में सच्चे प्यार की चाह करती है. ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी तवायफ बनकर अपने जीवन में स्वतंत्रता पाती है. स्त्रियों के जीवन को, उनके मन को इतनी बारीकी से पकड़ने वाला लेखक उस दौर में दूसरा नहीं हुआ. शरतचंद्र के लेखन में स्त्रियों के लिए अथाह प्यार है. साधारण स्त्रियों के जीवन को उन्होंने अपने लेखन में असाधारण बना दिया.

15 सितम्बर 1876 को पैदा हुए शरतचंद्र के पिता मोतीलाल चटोपाध्याय भी लेखक थे, लेकिन वे अपनी कोई रचना पूरी नहीं कर पाए. शरत बाबू ने भी 18 साल की उम्र में अपना पहला उपन्यास लिख लिया लेकिन उसे प्रकाशित नहीं करवाया. उनका बचपन मुश्किलों में बीता और इसीलिए शायद उनको घर से अधिक बेघरी भाती थी. वे बार-बार घर से भाग जाते थे, न जाने कहाँ के लिए. जीवन की इन्हीं आरंभिक यात्राओं और उनके अनुभवों को लेकर उन्होंने ‘श्रीकांत’ उपन्यास लिखा जिसकी शुरुआत इन वाक्यों से होती है- ‘मेरी सारी जिन्दगी घूमने में ही बीती है। इस घुमक्कड़ जीवन के तीसरे पहर में खड़े होकर, उसके एक अध्यापक को सुनाते हुए, आज मुझे न जाने कितनी बातें याद आ रही हैं। यों घूमते-फिरते ही तो मैं बच्चे से बूढ़ा हुआ हूँ। अपने-पराए सभी के मुँह से अपने सम्बन्ध में केवल ‘छि:-छि:’ सुनते-सुनते मैं अपनी जिन्दगी को एक बड़ी भारी ‘छि:-छि:’ के सिवाय और कुछ भी नहीं समझ सका।‘

इन पंक्तियों में उनके जीवन, उनके लेखन का सार छिपा है. न प्रचलित मानकों के अनुसार उन्होंने जीवन जिया, न लेखन किया. वे घूमते रहे, तरह-तरह के किरदारों से मिलते रहे, उनसे स्नेह पाते रहे. वे पहले भारतीय लेखक थे जिनकी रचनाओं में विस्थापन का दर्द दिखाई देता है. बंगाल-बिहार में उनका बचपन बीता और बिहार-बंगाल के लोग आज भी सबसे अधिक विस्थापित जीवन जीते हैं. वे जहाँ के होते हैं वहां नहीं रह पाते हैं. खुद शरत बाबू भी नौकरी के सिलसिले में बर्मा गए थे. इसीलिए उनके साहित्य में मिलन नहीं बिछोह अधिक है, घर बसाकर सुख पाने की तमन्ना से अधिक सच्चे प्यार की ख्वाहिश है. अकारण नहीं है कि उनका नायक ‘देवदास’ प्यार में घर से दूर जान दे देता है.

लिखते तो कम उम्र से ही थे लेकिन छपवाने को लेकर उदासीन रहे. उन्होंने अपनी रचनाएं कोलकाता में अपने एक मित्र के पास छोड़ दी थीं, जिन्होंने 1907 में उनको बिना बताये उनकी एक कृति ‘बड़ी दीदी’ का धारावाहिक प्रकाशन एक पत्रिका में शुरू करवा दिया. उसके बाद उनकी कहानियों, उनके उपन्यासों की धूम मच गई. बांगला साहित्य में उनको रबीन्द्रनाथ टैगोर और बंकिम के बरक्स रखकर देखा जाने लगा. लेकिन उनके लेखन की सबसे बड़ी मौलिकता यही है कि उन्होंने समाज में उपेक्षित, परित्यक्त समझे जाने वाले पात्रों के लिए अपने साहित्य में करुणा जताई. उनके उपन्यासों में किरदार संभ्रांत समाज से नहीं आते बल्कि वे ग्रामीण-कस्बाई समाज से आते हैं. वे पहले लेखक थे जिन्होंने समाज को सतह से देखा. बिना किसी आवरण के देखा. साहित्य को एक से एक किरदार दिए. फ्रेंच लेखक बालजाक की जीवनी में स्टीफेन ज्विग ने लिखा है कि ईश्वर के बाद मनुष्यों के सबसे बड़े सृजनकर्ता बालजाक ही थे. यह बात शरत के बारे में भी कही जा सकती है.

वे सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय लेखक थे. उनकी रचनाओं के अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं में हुए. महात्मा गांधी के कहने पर उनके सचिव महादेव देसाई ने उनकी कुछ कृतियों का गुजराती में अनुवाद किया था. बांगला भाषा के इस लेखक की सबसे प्रामाणिक मानी जाने वाली जीवनी हिंदी में गांधीवादी लेखक विष्णु प्रभाकर ने लिखी- आवारा मसीहा. शरत बाबू अभाव के कारण ललित कला की पढ़ाई नहीं कर पाए थे लेकिन वे संभवतः अकेले ऐसे लेखक हैं जिनकी साहित्यिक कृतियों पर सबसे अधिक फ़िल्में बनी, टीवी धारावाहिक बने. ‘देवदास’ एक ऐसी कृति है जिसके ऊपर उत्तर-दक्षिण की अनेक भाषाओं में एक दर्जन से अधिक फिल्मों का निर्माण हुआ.

वे स्वयं में एक किरदार थे विरोधाभासों से भरे. बेहद लोकप्रियता के बावजूद भद्र लोक में उनको चरित्रहीन के रूप में देखा जाता रहा और चरित्रहीन समझे जाने वाले लोगों के बीच भद्र पुरुष. एक प्रसंग ‘आवारा मसीहा’ में आता है- “उनके मामा उपेन्द्रनाथ उन्हें खोजते-खोजते जब वेश्यालय गए और शरत् के बारे में पूछा तो उन्हें जो उत्तर मिला वह ऐसे था, ‘ओह, दादा ठाकुर के बारे में पूछते हैं। ऊपर चले जाओ। सामने ही पुस्तकों के बीच में जो मानुष बैठा है वही शरत् है।‘“

वे घंटों कहानियां सुनाते थे और यह पूछने पर कि क्या आपके जीवन में घटित हुआ कहते- ‘‘न-न, गल्प कहता हूँ, सब गल्प, मिथ्या, एकदम सत्य नहीं।’’

15 जनवरी 1938 को साहित्य की एक बड़ी विरासत छोड़कर बार बार घर छोड़कर जाने वाला यह लेखक दुनिया छोड़कर चला गया.

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लापरवाह, चरित्रहीन, आवारा, मसीहा : आखिर तुम कौन हो शरत!

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शरतचंद्र की जयंती पर देवेंद्र शर्मा का यह गद्य पढ़ा तो साझा करने से रोक नहीं पाया- मॉडरेटर

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अब, जबकि तुमसे मिले बरसों बीत गए हैं और तुम्हारे होने का मेरे होने पर प्रभाव स्पष्ट रूप से मुझे और औरों को दिखने लगा है तो आज तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुमसे हर बार की तरह एक और बार पूछना चाहता हूँ शरत, तुम कौन हो?

देवानन्दपुर में जन्मा मोतीलाल चट्टोपाध्याय का वो बेटा जिसे उसके ही कुल वालों ने अपनी कुल की मर्यादा को डुबोने वाला घोषित कर खुद से अलग माना था वो शरत या बर्मा की तंग गलियों में कुलियों, मज़दूरों के मध्य डॉक्टर बाबू के रूप में सम्मानित शरत। वो शरत जिसकी लिखी किताबें आज उसके जाने के बरसों बाद भी लोगों के ज़ेहन में हैं, जिसके गढ़े किरदारों ने समाज में गहराई तक धँसी विद्रूपता के प्रति विद्रोह का शंखनाद किया था, जिसके उपन्यासों को पहली दफ़ा पढ़कर लोगों को लगा था कि “हो ना हो यह ज़रूर रवि बाबू ने ही नाम बदल लिखा है, बांग्ला साहित्य में इतनी सुगढ़ रचना करने वाला भला कोई दूसरा हो सकता है क्या?” या वो शरत जिसके उपन्यास को पढ़कर लोगों ने मोर्चे निकाले थे कि इसने हमारी संस्कृति को पथभ्रष्ट करने का बीड़ा उठाया है, तुम कौन हो शरत?

देवदास का रचयिता शरत, चरित्रहीन का रचयिता शरत, श्रीकांत का रचयिता शरत और उस पाथेरदाबी का रचयिता शरत जिसपर अँगरेज़ सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था मगर फिर भी क्रांतिकारियों और देशप्रेमियों ने खोज कर पढ़ लिया था, तुम कौन हो शरत?

जिसे अपनी पूरी ज़िन्दगी समस्याओं से जूझना पड़ा, समाज के तानों को सुनना पड़ा, गरीबी में जीना पड़ा मगर उन सारी परिस्थितियों से लड़कर, जूझकर उसने अपनी कलम को चलते रहने दिया; जो सदियों से शोषित आधी आबादी को मुक्ति की राह दिखा गया वो शरत या वो शरत जिसने तमाखू पीते और साधू बनकर सन्यासियों के साथ घूमते महीनों गुज़ार दिए, बेपरवाही से, निश्चिंतता से।

तुम कौन हो शरत?

शरतचंद्र के समूचे व्यक्तित्व में इतनी परतें हैं कि कोई उन्हें आवारा मानता है तो किसी के लिए वो मसीहा हैं। किसी के लिए वो आदर्श हैं तो किसी के लिए सखा, जो उन्हें हाथ पकड़कर देवानंदपुर ले जाता है, भागलपुर में शैतानियों में शामिल करवाता है, कलकत्ता में ठोकरे खाते लोगों को दिखाता है, रंगून में गुज़रे ज़माने में हुईं ज़्यादतियों को समझाता है और फिर वापस ला एक छोटे से गाँव में छोड़ देता है जहाँ प्रकृति की अप्रतिम सुंदरता, एक छोटी नदी और उसके कुछ साथी उसके साथ रह जाते हैं।

शरत ने जीवन अव्यवस्थित ढंग से जिया। इतना अव्यवस्थित कि उनके बारे में व्यवस्थित ढंग से लिखना भी मुश्किल है। कभी उनकी बेफिक्री याद आती है तो कभी साफ़गोई। कभी उनकी चंद्रमुखी याद आती है तो कभी श्रीकांत। कभी लालू का बचपना याद आता है तो कभी वो विधवा दीदी जो सारे मोहल्ले के लिए प्राणप्रण से लगी रहती थी मगर उसके अंतिम समय पर वहाँ सिर्फ शरत ही था, बाकि सबने मुंह मोड़ लिया था। शरत को याद करने पर, बहुत कुछ याद आता है।

ये शरत ही थे जिन्हें लोग मन ही मन मसीहा मानते थे मगर समाज ने उन्हें लगभग बहिष्कृत कर रखा था। इसलिए हैरत की बात नहीं कि शरत की कालजयी जीवनी रचने वाले विष्णु प्रभाकर जब उनके जीवन के बारे में जानने के लिए भटक रहे थे तो उन्हें सुनने को मिलता था, ‘छोड़िए महाराज, ऐसा भी क्या था उसके जीवन में जिसे पाठकों को बताए बिना आपको चैन नहीं, नितांत स्वच्छंद व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है?’ कुछ ने तो ये भी कहा कि ‘दो चार गुंडों-बदमाशों का जीवन देख लो करीब से, शरतचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी।’

ये शरत ही थे जिनके लिए कहा गया कि बंगाली साहित्य में टैगोर के अलावा कोई महान कथाकार हुआ है तो वो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय है।

मानव संवेदनाओं को पढ़ने, एक छोटे से शैतान बच्चे से लेकर बूढ़े व्यक्ति तक का मनोविज्ञान समझने, अपने आस-पास घट रही घटनाओं से विचलित होकर उनपर साफ़गोई से लिखने वाले शरत ने तथाकथित सभ्य बंगाली समाज की विसंगतियों को उजागर किया था और पहली बार अपनी लेखनी से औरतों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के बजाय उन्हें अपने निर्णय लेने और अपने जीवन को तय करने का अधिकार दिया था। समाज के उन वर्गों की कहानियाँ लिखी थीं जिन्हें लोग खुद से अलग और छोटा मानते थे, और उन मुद्दों को छुआ जो तब तक अछूते थे।

ये शरत ही हैं जिन्हें पढ़कर आज भी आँखों के कोर गीले हो जाते हैं, जिनकी कहानियां अनजाने ही आपको एक बेहतर इंसान बना देती हैं, जिनका जीवन यह प्रेरणा देता है कि अनंत मुश्किलों के बाद भी व्यक्ति महान बन सकता है, अमर हो सकता है।

शरत को पढ़िए। देवदास, श्रीकांत, परिणीता, चरित्रहीन, पाथेरदावी, विप्रदास, बड़ी दीदी, देना-पावना, शुभदा, गृह-दाह, पल्ली समाज, शेषप्रश्न सब पढ़ जाइये। शरत की कहानियाँ पढ़ जाइये। और उसके बाद विष्णु प्रभाकर की लिखी शरत की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ पढ़ जाइये। उसके बाद, शरत के व्यक्तित्व को जान, शायद आप भी यह प्रश्न कर बैठेंगे, “तुम कौन हो शरत?”

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देवेंद्र शर्मा

8448455343

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ड्रीम गर्ल- कहानी भीड़ में तन्हा होने की

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हाल में ही रिलीज़ हुई फ़िल्म ड्रीम गर्ल की समीक्षा लिखी है निवेदिता सिंह ने-

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इस फ़िल्म को देखने से पहले जब भी किसी के मुँह से ड्रीम गर्ल के बारे में सुनती थी तो हेमा मालिनी का खूबसूरत से चेहरा खुद-ब-खुद आँखों के सामने तैर जाता था पर अब शायद ऐसा नहीं होगा क्योंकि यह ड्रीम गर्ल कुछ.. अरे नहीं.. कुछ नहीं बिल्कुल अलग है। यह असलियत में तो बॉय है पर लोगों का दिल इनकी प्यार और रुमानियत भरी बातों में इस कदर घायल हो चुका है कि यह हर उम्र के लोगों के लिए उनके सपनों की सहजादी और अंग्रेजी में बोले तो ड्रीम गर्ल बन चुकी हैं …मेरा मतलब है कि बन चुका है।
फ़िल्म का इंट्रोडक्शन तो हो चुका अब आते हैं फ़िल्म की कहानी पर। फ़िल्म की कहानी का मुख्य क़िरदार है आयुष्मान खुराना जो हर बार ख़ुद को लीक से हटकर किसी नई कहानी के लिए तैयार करते हैं और अपने आप को ही चैलेंज करते हैं। इंडस्ट्री में बहुत कम अभिनेता हैं जिनके भीतर इस तरह की फ़िल्म को करने का साहस है और आयुष्मान का नाम इनमें सबसे ऊपर आता है यह बात इन्होंने विकी डोनर, अंधाधुंध, बधाई हो फ़िल्म करके पहले ही साबित कर दिया है। ड्रीम गर्ल उसी का विस्तार है। यह कहानी है करम की जिसे महिलाओं की आवाज की मिमिक्री करने में महारथ हासिल है और यही कारण है कि बचपन से वह मुहल्ले में होने वाले रामलीला और कृष्णलीला में राम और कृष्ण बनने की बजाय सीता मैया और राधा बनता रहा है पर इस तरह छोटे मोटे नाटकों में काम करके जिंदगी का गुजारा कब तक चलता यह बात उसके पिता जगजीत सिंह (अन्नु कपूर) को लगातार परेशान कर रही थी। वह बेटे से अच्छी नौकरी करके घर की क़िस्त और लोन चुकाने की उम्मीद कर रहे थे। बेटे का गोकुल की गलियों में बेटी बनकर 100- 200 रुपये कमान उन्हें ज़रा भी रास नहीं आ रहा था पर रेगुलर नौकरी न मिलने तक यह काम उसे जारी रखना था। आख़िर आर्थिक मजबूरी और जल्दी से जल्दी रेगुलर नौकरी की तलाश करम को कॉल सेंटर तक खींच लाई जहाँ ग्राहकों से प्रेम और सेक्स भरी बातें करके उनके फ़ोन का बिल बढ़ाने के एवज़ में उसे अच्छी सैलरी ऑफर की और इस तरह अलग अलग लड़कियों की आवाज़ निकालने में माहिर एक नौजवान लड़का पूजा बन गया पर यह बात उसने न तो अपने पिता को बताई और न ही अपनी प्रेमिका (नुसरत भरुचा) को। उसका हुनर और उसकी मेहनत रंग लाई और घर की क़िस्त और लोन चुकाने के साथ ही साथ वह न सिर्फ़ पुरुषों बल्कि प्यार में धोखा खायी लड़की के दिल में भी राज करने लगा। ज़िंदगी की समस्याओं से परेशान हर इंसान उसमें अपना सच्चा साथी ढूँढने लगा। देखते ही देखते बूढ़े से लेकर आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प लेने वाला जवान और जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाला किशोर बालक सबके लिए वह ड्रीम गर्ल बन गया पर हर झूठ का कभी न कभी अंत होता ही है। दोहरी जिंदगी जीते जीते और लोगों के दिल का ड्रीम गर्ल बनते बनते उसेअपने ड्रीम गर्ल   से दूूर  होने की नौबत आ जाती है। कैसे वह इस मकड़जाल से खुद को छुटकारा दिलाता है  और अपनी प्रेमिका को वापस  पाता है  यह जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी।
राज शाण्डिल्य के निर्देशन में और एक अलग विषय पर बनी यह एक इंटरटेनिंग फ़िल्म है पर हँसाते हँसाते आखिर में यह संदेश भी देने की कोशिश करती है कि हम सब सबके साथ होते हुए भी कितने अकेले और तन्हा हैं। हमारी जिंदगी में कोई एक भी ऐसा इंसान नहीं जिससे हम अपने मन की बात कर सकें। फ़िल्म सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी एक सवाल उठाती है कि आभासी दुनिया के चक्कर में वास्तविक दुनिया से कटते जा रहे हैं हम सब कहीं न कहीं। फ़िल्म के सभी पात्र ठीक अभिनय किया है पर अन्नू कपूर एक एकल पिता और अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय करते हैं पर फ़िल्म के असली हीरो तो आयुष्मान ही हैं। मैं इस अलग विषय पर बनी फिल्म में एक के बाद एक जोरदार कॉमेडी के पंच और हँसा हँसा कर पेट में दर्द करा देनी वाली फिल्म को 5 में से 3.5 रेटिंग दूँगी क्योंकि मेरा मानना है कि फ़िल्म का सेकंड हाफ और भी अच्छा हो सकता था।
निवेदिता सिंह

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विवेक मिश्र की कहानी ‘कारा’

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विवेक मिश्र समकालीन साहित्य का जाना-माना नाम हैं। उनकी नई कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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बाहर फैले स्याह रंग में हल्की-सी रोशनी घुलने लगी थी। अंधेरा फीका हो चला था। माया ने कुर्सी से उठकर खिड़की का पर्दा एक ओर सरका दिया। सारी रात अस्पताल में कटी थी। प्रशान्त पर अभी भी नींद के इन्जेक्शन का गहरा असर जान पड़ता था। चौदह घण्टे बीत जाने पर भी आँखें नहीं खुल रही थीं पर पुतलियाँ पलकों के नीचे हरकत करती मालूम होती थीं। दिमाग़ में अभी भी कुछ चल रहा था। वह कुछ सोच रहे थे।
बीमारी- बेनाम। कारण- नामालूम। इलाज़- कुछ नहीं। आगे क्या होगा- पता नहीं। बस एक ही बात- ‘यह सोचते बहुत हैं, कहिए कि ‘सोचना बन्द करें’। एक ही जवाब- ‘यह उनके बस में नहीं’। जीवन भर लिखते-पढ़ते, सोचते रहे हैं। जो है, वो भी। जो नहीं है, वो भी। दिन-रात, सुबह-शाम सोचते ही तो रहते हैं। दुनिया भरके सुख-दुख जीते, विचारों के विराट अरण्य में भटकते, परकाया प्रवेश करते, कभी पूरे, कभी आधे वापस लौटते, पर हर बार अपने को खंडित और छिन्न करके ही आते। इस आवा-जाही में कोई और उनकी अपनी काया में आकर बैठ गया है। भीषण उत्तेजना भरी रहती है, नस-नस में। सोते-जागते चलता ही रहता है, दिमाग़। एक ज़िरह है, जो थमती ही नहीं।
शुरुआत में बहुत तेज़ी से बाल झड़ने लगे। फिर एक दिन हाथ की उँगलियों के नाखूनों का रंग बदलकर हरा होने लगा। सुबह उठे तो आवाज़ भर्राने लगी। अब तो हाथों की त्वचा का रंग भी बदल गया है। कई रातों से सोए नहीं, फिर भी पढ़ते हुए पलक नहीं झपकती! न जाने आँखों की नींद कहाँ रख दी! ख़ून, मल-मूत्र आदि की बीसियों जाँचें हुईं- किसी में कुछ नहीं! ई.सी.जी., रक्तचाप-सब नॉर्मल! डॉक्टर कहते हैं- कोई ऑटो इम्यून डिसीज़ है। शरीर की सुरक्षा प्रणाली, किसी खास चीज़ से प्रतिक्रिया कर रही है, पर क्या है वो चीज़? वो बात? जिसने प्रशान्त के देह-दिल-दिमाग़, सब में एक आक्रोश, एक अशान्ति भर दी है। माया नहीं जानती। बस उसे इतना पता है कि प्रशान्त का शरीर और मन हर पल किसी चीज से लगातार लड़ रहे हैं।
सुबह के सात बज गए। नर्स ने सूचना दी, ‘डॉक्टर ने बुलाया है’। माया ने ख़ुद को व्यवस्थित करते हुए कोने में लगे शीशे पर नज़र डाली, लगा किसी अदृश्य परछाँई ने चेहरे को मलीन कर दिया है, आँखों के नीचे कालिख फैल गई है। उन्होंने कमरे से निकलने से पहले फिर प्रशान्त कि ओर देखा वह अभी भी दवा के असर से बेहोशी की झोंक में थे पर सोए नहीं थे। शायद अभी भी कुछ सोच रहे थे।
सच ही था। प्रशान्त के दिमाग़ में दृश्यों की एक श्रंखला बहुत तेज़ी से घूम रही थी। स्मृति बीते दिनों को ताश के पत्तों-सा फेंट रही थी। इस समय उनके सामने अतीत का जो पत्ता खुल रहा था- उसमें शायद आधी रात का समय था। स्कॉच की बोतल खाली होकर, फर्श पर पड़ी दरवाज़े से आती हवा से आगे-पीछे लुड़कती हुई, एक विचित्र-सी किरकिराहट पैदा कर रही थी जिससे प्रशान्त के शरीर में एक झुरझुरी दौड़ रही थी और उनके दाँत किसकिसाने लगे थे पर वह अपने दाँतों को भींचे, किसी गहरी सोच में डूबे, खिड़की से फैलती मद्धिम रोशनी के सहारे बाहर देख रहे थे। बारिश रुक गई थी पर अभी भी पेड़ों के पत्तों पर रुकी बूँदें रह रहके तेज़ होते हवा के झोंकों से फिसल कर गिर रही थीं।
कमरे में अकेले खड़े प्रशान्त अपनी ही तलब से खीज रहे थे। सचमुच ही तलब बुरी चीज है, फिर चाहे वह किसी चीज की हो। उस रात वहाँ तीन लोग थे- प्रशान्त, तपन और उन दोनो से लगभग छ: साल छोटा, सत्ताईस साल का विकल, और तीनों की अपनी तलब थी। प्रशान्त तपन से दक्षिण अफ्रीका के उस टापू पर बनी जेल के बारे में सब कुछ जान लेना चाहते थे जिसकी पड़ताल के लिए वह अनायास ही अपना सब कुछ छोड़कर चले गए थे। बात जिस उठान पर थी वहाँ उसे छोड़ना मुश्किल था पर तपन का बिना सिगरेट के आगे कुछ भी कह पाना उससे भी ज्यादा कठिन था। तपन की सिगरेट की हुड़क ने विकल को भी अपनी चपेट में ले लिया। उसने कहा ‘जब सिगरेट लेने जा ही रहे हैं, तो दारू भी ले आते हैं’। प्रशान्त ने खिड़की से बारिश का जायज़ा लेते हुए टोका भी था, ‘इतनी रात में शराब कहाँ मिलेगी’ पर तपन और विकल उनकी बात को अनसुना कर, गाड़ी स्टार्ट कर, गेस्ट हॉउस से नीचे जाती सड़क पर निकल गए, प्रशान्त गाड़ी की तेज़ रोशनी में सड़क पर पड़ती तिरछी बूँदों को चुपचाप देखते रहे।
वह अब तपन की कहानी से ज्यादा, उनकी झक के बारे में सोच रहे थे- यह भी अजीब आदमी हैं! एक सिगरेट के लिए आधी रात को, इतनी बारिश में, पहाड़ से उतरकर कर चल दिए, एक दिन अचानक हज़ारों मील दूर दक्षिण अफ़्रीका के किसी गुमनाम से टापू पर सालों पहले दफ़न की जा चुकी कहानियों की पर्तें उघाड़ने पहुँच गए। कहते हैं ‘माया की याद आई तो वापस चले आए’, अभी माया से मिले भी नहीं कि विकल और उसे लेकर, अपनी जाँच-पड़ताल के बारे में बताने, यहाँ इस पहाड़ी पर आ गए। क्या कहेगा तपन से अपने और माया के बारे में? क्या अभी आते ही उन्हें बता दे कि उनके जाने के बाद माया और वह एक साथ रहते हैं? प्रेम करते हैं एक-दूसरे से। क्या उसके यह बताने के बाद भी तपन उस टापू पर घटने वाली भीषण दमन की अराजक कहानी, इस गेस्ट हॉउस में बैठे सुनाते रहेंगे? या सिगरेट लाने के बहाने अकेले ही अंधेरे में इस पहाड़ी से उतरेगें और फिर कभी नहीं लौटेंगे।
प्रशान्त ने तपन के साथ यहाँ आने की बात माया को भी नहीं बताई थी। आखिर तपन माया से मिले क्यूँ नहीं? क्या है उनके मन में? कई बातें थीं जो प्रशान्त और तपन के बीच की जानी बाकी थीं पर न जाने क्यूँ वे हमेशा से ही स्थगित होती आई थीं पर आज ऐसा नहीं होगा। आज सब कुछ कह देना होगा, पर वह टापू! उस पर बनी वह जेल! तपन और प्रशान्त के बीच खड़ी थी। क्या उसके जैसी कोई जगह सच में दक्षिण अफ्रिका में कहीं थी? तपन ने अभी तक जो भी बताया था वह प्रशान्त को खींच रहा था पर वह उसे वर्तमान से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे। उन्हें लगता दूसरे विश्वयुद्ध के समय घटी घटनाओं की पड़ताल का आज के समय से क्या वास्ता? शायद तपन अतीत के एक ऐसे पन्ने पर लिखी इबारत को पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जिसे इतिहास ने भी ग़ैर जरूरी जानकर किनारे कर दिया, पर फिर लगता कि यह भी तो एक बड़ा सच है कि इतिहास के नाम पर अतीत की जो भी कहानियाँ हमारे दिल-दिमाग़ पर चस्पा कर दी गईं उनमें अधिसंख्य झूठी और पक्षपातपूर्ण ढ़ंग से लिखी गईं हैं। जिन सरोकारों को विकास के नारों और झंडों के साथ मानवता के उत्थान की दुहाई देकर बड़े-बड़े हुज़ुमों ने उठाया। उन्हीं के सामने गरीब किसान, मज़दूर, कलाकार, लेखक अपने हक़ से, अपने अधिकार से दूर धकेले जाते रहे, तथाकथित नई दुनिया के निर्माण के लिए बली चढ़ते रहे। प्रशान्त भूत और वर्तमान के धुंधलके में साफ़-साफ़ कुछ देख पाते कि उससे पहले ही…
.…गाड़ी का हॉर्न बजा। तपन और विकल वापस आ गए थे। विकल गाड़ी से उतरते ही बच्चों की तरह चीखते हुए बोला, ‘ये देखो हम सिगरेट के साथ क्या लाए हैं?,…ये है पहाड़ की जेन्विन देसी दारू! और इससे भी जेन्विन और इन्टरेस्टिंग था वो आदमी। बता रहा था कि अंग्रेजों के समय में ये पहाड़ के हर आदमी की पहली पसन्द थी। गोरी मेमें तो विलायती स्कॉच के बदले में इसे खरीदती थीं। वह तो अपने दादा, जो अंग्रेज़ी गीतों को लोक गीतों की धुनों में ढालकर गाया करते थे, के एक अंग्रेज़ी मेम के साथ प्रेम के किस्से सुनाने लगा। वो तो हम ही जल्दी में थे इसलिए चले आए। कह रहा था उसके दादा अंग्रेज़ी में लिखे ख़त उस समय पढ़ लिया करते थे जब इस इलाक़े के लोग अपनी बोली के अलावा भारत की भी कोई भाषा बोल-समझ नहीं पाते थे पर एक दिन वह अचानक ग़ायब हो गए। बड़ा मसाला है, उसके पास, है न तपन दा?’
तपन बिना विकल की बातों पर कान दिए कोने में बैठे सिगरेट पी रहे थे। फेफड़ों में जैसे धुआँ नहीं, आखिरी साँस लेते मरीज़ के भीतर ऑक्सीजन जा रही थी। साँसें सम पर आ रही थीं, प्राण लौट रहे थे। विकल ने भी खाली गिलास भर दिए। विकल को शराब और तपन को सिगरेट मिल गई थी पर प्रशान्त की तलब थी-कहानी, सो वह चाहते थे कि तपन उसे आगे बढ़ाएं।
उनके चेहरे की बेचैनी को पढ़ते हुए तपन ने बोलना शुरू किया, ‘अभी तक जो भी जाना है, बहुत दर्दनाक है। दुनिया भर के कारीगरों, कलाकारों, लेखकों, कवियों का वो दर्द- उनकी घुटन और कुंठा से जन्मी- वह भयावह बीमारी। उससे हुई-मौतें- किसी देश के इतिहास में दर्ज़ नहीं। वे सारी कहनियाँ या तो उस टापू पर बनी जेल के आस-पास दफ़न हैं या दूसरा विश्वयुद्ध देख चुकी कुछ बूढ़ी आँखों में एक डर की तरह कभी-कभी अनायास चमकती हैं। जब धरती-आसमान पर होते धमाकों से कई साम्राज्य ढह रहे थे। ठीक उसी समय उस धुंधलके की आढ़ में पूँजी और नए बाज़ार की ताक़तें खड़ी हो रही थीं। तभी दुनिया के कई हुनरमंद लोग जो अपनी अलग सोच-समझ रखते थे, कुछ बना सकते थे, कुछ नया खड़ाकर सकते थे, की शिनाख़्त की गई, उनपर नज़र रखी गई और बिना किसी अपराध के जबरन उन्हें उनकी ज़मीन से उठा लिया गया। वे अपने हाथ के हुनर और अपनी ज़मीन से ही नहीं, बल्कि सूरज की रोशनी तक से मेहरूम कर दिए गए थे और उधर उनके अपने लोगों ने उन्हें मरा हुआ मानकर भुला दिया। वे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से पकड़कर उस जेल में लाए गए थे। उनसे अपेक्षा की जा रही थी कि वे जो कुछ भी जानते हैं, सब अपने बयानों में दर्ज़ कराकर, उसे सदा के लिए अपनी स्मृति से मिटा दें।’
‘पर उन सबकी भाषा तो अलग रही होगी?’ प्रशान्त ने बीच में टोका।
‘हाँ, इसीलिए सबसे पहले उन्हें अंग्रेजी सीखनी होती थी। उसके बाद हर मन-मस्तिष्क को निचोड़कर उसके हर विचार को, उससे जुड़ी हर जाकारी को निकाल लिया जाता। …उनके मस्तिष्क विकृत स्मृतियों के खण्डहर भर रह जाते और फिर एक दिन उन्हें हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिया जाता।’
तपन की बात सुनकर प्रशान्त को फिर दातों के बीच कुछ किसकिसाता हुआ लगा।
तपन ने बोलना ज़ारी रखा, ‘वहाँ जो भी घट रहा था- अमानवीय था। आज हम सिर्फ़ उसकी कल्पना ही कर सकते हैं। यह इंसानी दिमाग़ों से तमाम ज़रूरी और अनोखे विचारों को जबरन निकाल कर भविष्य की किसी अज्ञात शक्ति के लिए एक विचारों का बैंक बनाने की योजना जान पड़ती थी। उनके बयान दर्ज़ हो जाने के बाद उन्हें ऐसे इन्जेक्शन दे दिए जाते, जिससे उनका दिमाग़ जड़ हो जाता। बयान न देने पर, या उसमें अपेक्षित जानकारी न होने पर, उन्हें भीषण यातनाएं झेलनी पड़तीं। ये सिलसिला कई दिनों, हफ़्तों या फिर कई बार महीनों तक भी चलता। मस्तिष्क बार-बार सक्रिय और निष्क्रिय किया जाता। विचार और अभिव्यक्ति में मुखर रहे आए लोग सुन्न पड़ जाते। अलग-अलग काल कोठरियों में बन्द लोग बेबसी में दीवारों को खुरचते, रोते, चीखते, छटपटाते। कुछ अपना दर्द दीवारों पर उकेरते पर उसे देखने, पढ़ने या समझने वाला वहाँ कोई न होता। धीरे-धीरे आँखें सूखकर पथराने लगतीं।
उस जेल में तैनात गार्डों के लिए उनका अस्तित्व तालाब की उन पालतू मछलियों से ज्यादा कुछ नहीं था जिन्हें हल्के से इशारे पर बिजली के एक झटके से मारा जा सकता था पर उससे पहले उन्हें अपनी मौत मरने की भी मनाही थी। वे एक-एक कोठरी में जाकर हर क़ैदी के पूरे कपड़े उतरवा कर उनकी जाँच करते थे। शायद अन्दाज़ा लगाते थे कि वह कितने दिन और इस यन्त्रणा को झेल सकता है। ऐसी ही जाँच के बाद एक दिन गार्डों ने अपने आकाओं को बताया था कि जेल के कुछ क़ैदियों के नाखूनों का रंग हरा हो रहा है, उनकी आवाज़ भर्राकर किसी मशीन की तरह हो गई है।’
विकल ने अपना गिलास खत्म करते हुए बीच में कुछ पूछना चाहा पर तपन ने उसकी बात पर ध्यान न देते हुए बोलना जारी रखा, ‘ठीक-ठीक किसी को नहीं पता कि उस जगह पर इन विशेष क़ैदियों के लिए बनाई गई, वह जेल किस संस्था या देश के अधीन थी और उसका अन्तिम उद्देश्य क्या था, शायद भविष्य का बाज़ार, शायद आने वाले समय में किसी नए साम्राज्य की स्थापना’।
प्रशान्त ने एक गहरी साँस भरते हुए कहा, ‘पता नहीं क्यूँ मुझे तो हमेशा से लगता है कि हम जो भी सोचते-समझते हैं, उसका लेखा-जोखा पहले ही इस विश्व बाज़ार को संचालित करने वाली ताक़तों के पास है। लगता है वे हमारे मष्तिस्क में आने वाले विचारों को कई साल पहले ही पढ़ चुके हैं। हम जैसे किसी दूसरे की बुद्धि से संचालित होने वाले रोबोट बन कर रह गए हैं।’
तपन ने बोलने से पहले थोड़ा रुककर बहुत ध्यान से प्रशान्त की ओर देखा। उनकी आँखों में इस कहानी से अलग भी कई बातें थीं, जो वह शायद प्रशान्त से पूछना चाहते थे पर उन सबको स्थगित करते हुए उन्होंने आगे बोलना शुरू किया, ‘कहा नहीं जा सकता कि उस जेल में हासिल की गई भाषा, संगीत, कला, विज्ञान आदि की जानकारियों का क्या उपयोग हुआ, क्या सचमुच वे शक्तियाँ भविष्य के बाज़ार के लिए ही काम कर रही थीं, या उन्ही विचारों के संवर्धन से आज बाज़ार के पास हर वो विचार है जिसकी मानव मस्तिष्क में आज, या फिर भविष्य में कभी आने की संभावना भी हो सकती है?’
प्रशान्त ने बीच में टोका, ‘पर विश्व के इतिहास में युद्धों के दौरान सैनिकों को, युद्ध बंदियों को यातनाएं देने की तमाम कहानियाँ हैं, पर उनमें कहीं इन लोगों का कोई जिक़्र नहीं!’
तपन ने छत की ओर ताक़ते हुए कहा, ‘दरसल हमेशा से ही अवाम वही देख पाता है जो उस समय को नियन्त्रित करने वाली शक्तियाँ उसे दिखाती हैं। फिर 1939-41 के बीच हुए उस युद्ध में दक्षिण अफ्रीका सीधे-सीधे शामिल भी नहीं था। उस युद्ध में वहाँ के कुछ लोग ब्रिटेन का साथ दे रहे थे, तो कुछ लोग इसे ब्रिटेन की हुकुमत को अपनी ज़मीन से उखाड़ फेकने के अवसर के रूप में देख रहे थे और वे चुपचाप जर्मनी का साथ दे रहे थे बल्कि दूसरी तरफ़ उत्तरी अफ्रीका, इथियोपिया, मेडागास्कर जैसे इलाके सीधे युद्ध से प्रभावित थे। जब विश्वभर में घमासान मची थी, इस जगह पर किसी की नज़र नहीं थी और इसीलिए इस जगह को इस गुप्त काम के लिए चुना गया।’
‘वहाँ स्थानीय लोगों को कुछ तो पता होगा, इसके बारे में’-प्रशान्त ने पूछा।
तपन ने लगभग बुझती हुई सिगरेट को झटकते हुए कहा, ‘हाँ, वहीं के एक छोटे से बर्ड नाम के टापू पर मिली एक तेरानवे साल की औरत, जो अभी भी आठ घण्टे अपने खेत में काम करती थी, ने बताया था कि उसके पिता ने कई प्राकृतिक औषधियों की खोज़ की थी, वह अपने मुँह में हवा भरके अपनी हथेलियों से अपने गाल बजाते थे और सुनने वालों को लगता कि यह कोंगो या किसी छोटे ड्रम की आवाज़ है। उन्होंने एक बिना डोरी का दूर तक मार करने वाला तीर-कमान भी बनाया था। वे बहुत हुनरमन्द थे, पर वे एक दिन शिकार पर निकले तो वापस नहीं लौटे’।
विकल तपाक से बोला, ‘यानी एक दम देसी दारू बेचने वाले उस पहाड़ी आदमी के दादा जी की तरह!’
तपन ने इस बार विकल की बात पर हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘बिलकुल हो सकता है, उस समय दुनिया भर से ऐसे ही कई लोग अनायस गायब हो गए थे। उसमें कई भारतीय भी थे।’ तपन ने एक लम्बी साँस भरकर, दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए आगे बोलना शुरु किया, ‘…वहाँ उस टापू पर उस औरत को शक था कि उसके पिता को कुछ जर्मन लोग उठाकर, किसी गुप्त जगह पर ले गए थे क्योंकि उसने आखिरी बार उन्हें अपना तीर-कमान किसी जर्मन आदमी को चलाकर दिखाते हुए, देखा था, पर उसी की छोटी बहिन का मानना था कि अंग्रेजों के शासन में वहाँ जर्मनों का आना असंभव था। जरूर उनके पिता को अंग्रेज ही ले गए होंगे।’
तपन ने थोड़ा रुककर प्रशान्त की ओर बहुत ध्यान से देखा जैसे बिना पूछे ही किसी प्रश्न का उत्तर उसके चेहरे पर पढ़ लेना चाहते हों, फिर धीरे से कहा, ‘अभी मुझे इस बारे में बहुत कुछ पता करना है पर इससे पहले कुछ और भी है, जो मैं जानना चाहता हूँ…और उसका संबंध तुमसे और मुझसे है। मैं कुछ पूछना चाहता हूँ और उम्मीद करता हूँ, तुम सच बोलेगे’।
प्रशान्त का गला सूखने लगा, वह गिलास से घूँट भर पाते, उससे पहले ही तपन ने गहरे धुँए के साथ सवाल छोड़ा, ‘तुम माया से प्रेम करते हो?’
प्रशान्त का मुँह खुला रह गया। विकल अपना गिलास ज़मीन पर रखकर प्रशान्त को देखने लगा। प्रशान्त के मुँह से सिर्फ़ एक ही शब्द निकला, ‘हाँ’
जिसके सुनते ही तपन ने सिगरेट बुझा दी।
……………………………
प्रशान्त अतीत से लौटने की कोशिश में अस्पताल के बिस्तर पर पड़े ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ा रहे थे।
माया डॉक्टर के कमरे में पहुँचकर चुपचाप खड़ी हो गई। डॉक्टर ने बहुत दूर से आती हुई आवाज़ में कहा, ‘देखिए कई विशेषज्ञों की राय लेने के बाद भी, हम किसी निषकर्ष पर नहीं पहुँच पाए हैं। हमें लक्षणों के आधार पर ही इलाज़ करना होगा।’ उसने विषय से ख़ुद को बिलग करते हुए कहा, ‘वैसे भी मिस्टर प्रशान्त बहुत एन्गसियस रहते हैं। कुछ दिन के लिए कहीं घूम आईए, कहिए अपने काम से अलग रहें। अगर इस कन्डिशन में इतना स्ट्रेस लेते रहे तो हेमेरेज हो सकता है। दिमाग की नसें फट सकती हैं’।
एक सिरे से चेहरे पर उतरती हुई निराशा को समेटते हुए माया ने कहा, ‘तो क्या यह पहले ऐसे आदमी हैं, जिसे यह बीमारी हुई है?’
डॉक्टर ने माया को लक्ष्य न करते हुए, शब्दों को चबाते हुए कहा, ‘देखिए अभी तक मेरी जानकारी में ऐसी कोई बीमारी नहीं है, जिसमें रिपोर्ट्स नॉर्मल होने पर भी, ऐसे लक्षण दिखाई दें। किसी प्रकार का कोई संक्रमण भी नहीं है, वॉयरल, बैक्टीरियल, फंगल कुछ भी तो नहीं है’।
माया को लगा कि वह डॉक्टर की बात सुनते हुए किसी गहरे कुँए में डूब रही हैं। शब्द बुलबुलों की तरह सतह पर तैर रहे हैं। बुलबुलों के सहारे डूबने से नहीं बचा जा सकता। पूरी तरह डूबने से पहले उसने आखिरी बार मदद के लिए हाथ उठाया, ‘दुनिया में कहीं, किसी को तो ऐसा कुछ हुआ होगा?’
‘कोई ऑथेन्टिक मेडिकल रिपोर्ट नहीं है, पर सुना है कि सॉउथ अफ्रीका के एक टापू पर बनाई गई, एक गुप्त जेल में कुछ क़ैदियों में ऐसे लक्षण देखे गए थे’ डॉक्टर ने यह बात इतने धीमे से कही, मानो अपने ही कहे शब्दों पर उसे गहरा संदेह हो।
डॉक्टर की बात काटते हुए माया लगभग चीख पड़ी, ‘मैं जानती थी, इनकी इस बीमारी का दक्षिण अफ्रीका से और इनकी उस किताब से-जरूर कोई संबंध है’। डॉक्टर के चेहरे पर एक प्रश्न आकार ले ही रहा था कि तभी नर्स ने आकर बताया ‘पेसेन्ट नींद में कुछ बड़बड़ा रहा है’।
प्रशान्त बुरी तरह तड़प रहे थे, मानो स्वयं को किसी कारा से छुड़ाने के लिए दीवारों पर सिर पटक रहे हों। वह अतीत के किसी ऐसे खण्डहर में भटक रहे थे जहाँ से बाहर निकलने का रस्ता वह बिलकुल अभी-अभी भूल गए थे। डॉक्टर ने उन्हें फिर नींद का इन्जेक्शन दे दिया। शरीर धीरे-धीरे शिथिल पड़ता चला गया।
बाहर उजाला हो गया था, कमरे के फर्श पर सुबह की धूप का एक चौखाना बन रहा था, जिसका एक कोना कुर्सी पर बैठी माया के पैरों पर पड़ रहा था। खिड़की से फर्श तक आती रोशनी में वक़्त रेशा-रेशा तिर रहा था। हँसते-मुस्कराते प्रशान्त के अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी इस जीर्ण काया में बदलने के बीच बीता समय, परत दर परत खुल रहा था।
माया को तपन ने ही प्रशान्त से मिलवाया था। कितने किस्से थे प्रशान्त के पास। एक खत्म नहीं होता कि दूसरा शुरू। दुनिया-जहान की चीज़ें मालूम थीं, उसे। तपन और प्रशान्त की खूब बनती थी। उन दिनो माया तपन के साथ ही थी। तपन, प्रशान्त के आते ही, जैसे जी उठते थे। दोनो कितनी बातें शेयर करते। उन दोनो की अलग ही दुनिया थी। माया कई बार खाना-पीना सब भूलकर उनकी बातें सुनती ही रह जाती। तपन को जैसे जानकारियाँ इक्ट्ठी करने का जुनून था, जहाँ भी किसी के अधिकारों के हनन का कोई मामला हो, तपन उसे सामने लाए बिना नहीं रह सकते थे। जैसे दमन और शोषण की हर कहानी को उजागर करने की सनक थी। तपन जैसा जानकारी जुटाने वाला पत्रकार और प्रशान्त जैसा सुनने और उसमें अपने अनुभव जोड़कर, किस्से गढ़ने वाला लेखक। अद्भुत जोड़ी थी।
उन्हीं दिनों तपन को दक्षिण अफ्रीका के उस टापू के बारे में कुछ पता चला था। बस उसके बाद तो जैसे उन्हें उसके बारे में जानने की झक सवार हो गई थी। वह वहाँ जाकर ख़ुद पड़ताल करना चाहते थे। वह जानते थे कि माया इसके लिए तैयार नहीं होगी।…और शायद इसीलिए एक दिन वह बिना किसी को बताए ही चले गए। कई दिन बाद, बस एक ख़त आया था। तपन की यह ज़िद माया के लिए नई नहीं थी पर लगता था कभी इससे निकलकर वह अपने जीवन के बारे में भी सोचेंग पर हुआ इसका उल्टा। उन्हें हमेशा से ही लगता था- माया सब संभाल लेगी। अक्सर कहते भी थे ‘तुम सब मेनेज कर लोगी और फिर कोई बात हो तो प्रशान्त तो है ही न।’ शायद प्रशान्त और माया के बीच जुड़ाव का एक हल्का सा धागा तपन की उपस्थिति में ही खिच चुका था पर तपन के यूँ अचानक चले जाने के बाद ही दोनो ने इसे प्रकट रूप में मेहसूस किया था। उसके बाद तपन और प्रशान्त के बीच क्या बातें होती रहीं, माया नहीं जानती थी।
पर कुछ दिनों से उसे लगने लगा था जैसे प्रशान्त और उसके बीच कोई पर्दा पड़ गया है। कुछ है जो साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा है और एक दिन जब अचानक ही ये पर्दा उठा…
उस रात विकल बदहावास-सा आया था, प्रशान्त से मिलने।
‘तपन दा का एक्सीडेन्ट हो गया’
‘कहाँ,…कब?’
‘वहीं, साउथ अफ्रीका में, दो दिन पहले, किसी दूर-दराज़ के गाँव के किसी फार्म से शहर लौटते समय’
‘पर दो दिन पहले ही तो मेरी उनसे बात हुई’
विकल और प्रशान्त की बातें सुनकर माया जो अब तक हैरानी से यह जानने की कोशिश कर रही थी कि यह हो क्या रहा है, ने झल्लाते हुए पूछा, ‘तुम्हारी तपन से बात हुई थी, वह तुम्हें फोन करते थे, तुमने कभी बताया नहीं?’
‘हाँ, बात भी होती थी और कुछ महीने पहले वह दिल्ली आए भी थे और अभी दो दिन पहले ही तो एक पार्सल भेजने वाले थे, बहुत ज़रूरी जानकारी थी उसमें’ प्रशान्त ने ऐसे जवाब दिया, जैसे उस समय माया की बात के कोई मायने न हों, वह किसी और ही दुनिया के बारे में बात कर रहे हों।
जहाँ माया अपने और तपन के अतीत में हिलगी थी, वहीं प्रशान्त ने भविष्य में किसी अनिष्ठ की आशंका को भांपते हुए विकल से पूछा, ‘अब कैसे हैं?’
‘कैसे हैं? कुछ नहीं बचा, ऑन स्पॉट डेथ हो गई…’
तीनो के पास तपन से कहने सुनने को बहुत कुछ था पर तमाम कही-अनकही बातें कहीं दूर डूबती चली गईं। प्रशान्त और माया के बीच कुछ शब्द तिरे तो पर एक-दूसरे तक पहुँचने से पहले ही जम गए। प्रशान्त भीतर आकर बिना किसी का सहारा लिए बैठते चले गए।
लगभग एक हफ़्ते बाद, तपन का भेजा हुआ पार्सल मिला। एक बड़ा गत्ते का डिब्बा था।
प्रशान्त के लिए जैसे उसमें क़ाग़ज़ नहीं, तपन की शेष रही आई देह थी, उनकी अस्थियाँ थीं। वह उसमें से एक-एक चीज़ तपन की कही बातों को याद करके ऐसे बाहर निकालते जैसे वह उनकी आँखों से देखकर किसी टीले की खुदाई कर रहे हों। धीरे-धीरे पर्तें उघड़ रही थीं। कहानियाँ ख़ुद ही उठकर सामने आती जा रही थीं। उसमें मिली तपन की डायरी में तमाम चीज़ें सिलसिलेवार लिखी गई थीं। उसके अलावा कुछ स्थानीय लोगों के बयान थे। कुछ एतिहासिक दस्तावेज़ों की ज़ेरोक्स कॉपियाँ थीं। कुछ स्कैच और भित्ति चित्रों के फोटोग्राफ थे जो क़ैदियों द्वारा दीवारों के पेन्ट और प्लास्टर को खरोंच कर बनाए गए थे। पर उन क़ाग़ज़ों में सबसे अहम थी- एक गूँगी लड़की की डायरी जिसे जेल के भीतर तक जाने और क़ैदियो से मिलने की इज़ाजत थी-
उसका नाम था- मैटी और वह स्थानीय जड़ी बूटियों के बारे में अच्छी जानकारी रखती थी। वह उस जेल में खाना बनाने का काम करती थी और उन क़ैदियों का ध्यान रखती थी जिनके बयान दर्ज़ किए जा चुके थे और उन्हें किसी भी समय ऊपर से आदेश मिलते ही मारा जा सकता था। उसका गूँगा होना, जेल के अधिकारियों को उसकी ओर से निश्चिन्त रखता था, पर शायद वह यह नहीं जानते थे कि वह नेटिव लड़की लिख-पढ़ भी सकती है और रोज़ घर जाकर अपनी डायरी लिखा करती है। तपन ने उसकी डायरी कैसे हासिल की प्रशान्त नहीं जानते थे, वह अब जीवित भी थी या नहीं यह भी उन्हें नहीं पता था पर उसमें उस डायरी के साथ एक पत्र था जो तपन के नाम लिखा गया था जिसमें तपन से उन तमाम बातों को दुनिया के सामने लाने की इल्तज़ा की गई थी। तपन ने उस डायरी को पढ़ कर ही वहाँ के इलाक़ों की छानबीन कर, अपने नोट्स बनाए थे।
तपन ने लिखा था- ‘मैं एक ही समय में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनो को देख रहा हूँ। अतीत में घटी इस अजीब-सी कहानी के पीछे भागते हुए, मेरा यहाँ तक आ जाना किसी को भी हैरानी में डाल सकता है पर मुझे लगता है कि यहाँ बीते समय में, जो कुछ भी घटा है, उसका हमारे वर्तमान से भी गहरा संबंध है।
…मैं आज शाम समुद्र के उसी तट पर टहलने गया था, जिसके बारे में मैटी ने अपनी डायरी में लिखा था। इस तट से टापू की एक निर्जन पहाड़ी पर बनी जेल की पिछली दीवार दिखती थी। शाम के समय क़ैदियों को, जेल के पिछले हिस्से में बने मैदान में ले जाया जाता था, जहाँ वे रात में अपनी काल कोठरियों में जाने से पहले खुली हवा में साँस लेते थे। यही वह जगह थी जहाँ जेल के अलग-अलग हिस्सों में बन्द क़ैदी एक दूसरे को देख पाते थे। किसी को एक दूसरे से बात करने या हाथ मिलाने की इजाज़त नहीं थी। कुछ क़ैदी मैदान में पहुँचते ही दीवार में बने छोटे-छोटे चौकोर खाँचों में जो समुद्र की तरफ़ खुलते थे, अपने मुँह फसा देते थे। वे ऐसा करके समुद्र तट पर चलती हवा में गहरी साँसे लेने की कोशिश करते थे, ऐसा पहरा देने वाले सैनिकों का मानना था पर गूँगी मैटी के अनुसार ठीक उसी समय कुछ स्थानीय महिलाएं अपने खेतों में काम करके लौटती थीं और दीवार में बने इन छोटे-छोटे तक्कों में से झाँकते क़ैदियों को देख कर खिलखिला कर हँसा करती थीं। उनकी हँसी देख कर क़ैदी भी मुस्कराते थे। यह सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा था।
एक अफ़गानी क़ैदी, जो बहुत अच्छी ढफ़ बजाता था और तोपें बनाने में माहिर था, मैदान में पहुँचते ही भाग कर समुद्र तट की ओर बनी दीवार के पूरब से पाँचवे खाँचे में अपना मुँह लगा देता था, उसे देखकर एक पतली लम्बी और अन्य महिलाओं से अपेक्षाकृत सुन्दर महिला बहुत हँसती थी। एक दिन उस अफ़गानी ने उस पाँचवे खाँचे में अपना मुँह लगाकर बाहर झाँकने के लिए, एक अन्य क़ैदी से झगड़ा कर लिया, जब लड़-झगड़ कर, उसने वह खाँचा ले लिया और उसमें मुँह लगाकर झाँकने लगा, तभी गार्ड्स ने पीछे से छुरा घोंप कर उसकी हत्या कर दी और उसे वहीं, वैसे ही खड़ा छोड़कर चले गए। उसका मुँह उसी खाँचे में फसा, तक्के से बाहर झाँकता हुआ, मुस्कराता रहा। उसने पीठ पर लगे घाव की पीड़ा अन्त तक अपने चेहरे पर नहीं आने दी।
उस रोज मैटी जब जेल में अपना काम निपटाकर घर लौट रही थी, तो उसकी सहेलियों ने समुद्र तट पर बैठी एक स्त्री की ओर इशारा करके बताया था कि यह औरत उस दीवार में बने चौकोर छेद में से झाँकने वाले एक अफ़गानी आदमी को चाहती है। वे कई महीनों से एक दूसरे को देखते आ रहे हैं। वे एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते पर आँखों के इशारों से सूरज डूबने तक आपस में बातें किया करते हैं। आज उन्होंने शादी करने का निर्णय किया है। इसीलिए आज वह आदमी सूरज डूबने के बाद भी उस छेद में से हटा नहीं है।
मैटी ने शाम के झुटपुटे में अपनी सहेलियों को तमाम तरह के इशारे करके यह समझाने की बहुत कोशिश की थी कि जिसके मुस्कराते चेहरे को देखकर, दूर बैठी वह स्त्री हँस रही है, आज शाम सैनिकों ने उसकी हत्या कर दी है, दरसल वह मुस्कराता चेहरा एक मृत आदमी का है पर उसकी सहेलियाँ उसकी बातों पर ध्यान न देकर, हँसती हुईं कोई शादी के समय गाया जाने वाला गीत गुनगुनाती, एक दूसरे को धकेलतीं आगे बढ़ गई थीं। उस रात गोलाकार चाँद अपने माप से दोगुना बड़ा लग रहा था। समुद्र की लहरें हवा में सूखते किसी चाँदी के रंग के बड़े स्कार्फ़-सी हवा में उड़कर चाँद को चूमने की कोशिश कर रही थीं। वह स्त्री सारी रात वहीं बैठी उस चाँद और आसमान में उड़ते उस स्कार्फ़ को देखती रही थी।
…आज इस तट पर बार-बार मेरी नज़र उस दीवार के पूरब से पाँचवें नम्बर के झरोखे पर जा रही थी, हवा के वेग के साथ किसी की हँसी की खनक सुनाई दे रही थी। लग रहा था सब कुछ सामने है और मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ।’
तपन की डायरी का हर पन्ना ऐसी दास्तानों से भरा था जिनका हर किरदार अपने दर्द और घुटन को बिना किसी से कहे इस दुनिया से कूच कर गया था। ये किरदार तपन की डायरी से निकल कर प्रशान्त से रुबरू हो रहे थे। अपनी अनकही-अनसुनी कहानियाँ सुना रहे थे। तपन ने एक जगह लिखा था- ‘आज भटकते हुए पूरा दिन बीत गया पर कुछ भी हाथ नहीं आया। हाँ, बार-बार ऐसा लगता रहा जैसे लगातार कोई मेरा पीछा कर रहा है। शाम होते-होते मैं थक गया था और थोड़ी देर सुस्ताने की गरज़ से एक बड़ी-सी चट्टान के नीचे पड़े एक छोटे-से पत्थर पर बैठ गया, उसके चारों तरफ़, कुछ लम्बी पत्तियोंवाली, गहरे हरे रंग की झाड़ियाँ उगी थीं, मुझे याद आया ये बिलकुल वैसी ही झाड़ियाँ थीं, जिनका जिक्र मैटी ने ढाका के उस मुस्लिम कारीगर के बारे में लिखते हुए किया था जो कालीनों के डिज़ाइन तैयार करता था, वह दुनिया का कोई भी कालीन एक बार देख ले तो उसकी डिज़ाइन की हूबहू नकल कर सकता था, कहीं एक सूत, या एक खाने का भी फ़र्क नहीं होता था, जेल में भी वह अपनी सैल की दीवार पर कालीनों के बेहतरीन डिज़ाइन बनाता रहता था। दीवार पर एक कोने में उसने एक नुकीले पत्थर से खुरच के पूरी दुनिया का नक्शा भी बनाया था, उसके हाथ के बने कई बेहतरीन कालीन जिन-जिन देशों में भेजे गए थे, उन स्थानों को उसने पत्थर से टीक दिया था, एक दिन उसने लम्बे-अंधेरे गलियारे से अपनी सैल में वापस आते हुए ज़मीन पर पड़े एक कोयले के टुकड़े को उठाकर अपनी मुट्ठी में भींच लिया था, ऐसा करते हुए मैटी ने उसे देखा था। दूसरे दिन जब मैटी उसकी सैल के पास से गुज़री थी, तो चीख पड़ी थी, वह आदमी जो एक बेहतरीन कारीगर था, अपनी सैल में औंधे मुँह मृत पड़ा था। मैटी को बाद में पता चला कि कल उसे गार्डस ने इसलिए पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था क्योंकि उसने दीवार पर बनाए गए नक्शे में इंलैण्ड, अमेरिका और जर्मनी को कोयले से काला कर दिया था। मैटी यह भी जानती थी कि वह जेल की दीवारों के किनारों पर, उनके टूटे हुए हिस्सों पर, अपने आप ही उग आई, लम्बी पत्तियोंवाली झाड़ियोँ से पत्तियाँ तोड़कर, अपनी सैल में इक्ट्ठी करता रहता था। उस रात देर से हुए गस्त में जब गार्ड्स ने नक्शे में उन देशों को कोयले से काला किया हुआ देखा तो वे बहुत गुस्साए और उन्होंने उसे बुरी तरह पीटा। वे सुबह उसे दोबारा सबक सिखाने की बात कर रहे थे, पर रात में गार्ड्स के वहाँ से जाने के बाद उसने सैल में इक्ट्ठी की हुई पत्तियों को खा लिया था, वे बहुत ज़हरीली थीं, मरने से पहले उसने पूरी दुनिया के नक्शे पर कालिख पोत दी थी। मैं जिस पत्थर पर बैठा था उसके आस-पास उगी झाड़ियों की पत्तियाँ बिलकुल वैसी ही लम्बी थीं। हवा के चलने से वे मेरे पैरों को छू रही थीं, पता नहीं क्यों मैं उस शाम एक अन्जाने डर से काँपने लगा था।’
……………………………………
सूरज चौथे माले की खिड़की तक चढ़ आया था। कमरे के फर्श पर बनने वाला छोटा-सा धूप का चौखाना दीवार पर एक रोशनी की चादर की तरह फैल गया था। माया अभी भी अपने ख्यालों में डूबी थी। किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। विकल था। वह कमरे में आकर बैठ पाता कि बिना किसी भूमिका के माया बोल पड़ी, ‘मैं जानती हूँ उन दास्तानों ने ही प्रशान्त को बीमार कर दिया है। उन्हीं ने तपन की भी जान ली। मेरी मानो इनके होश में आने से पहले तुम तपन के भेजे उन सब क़ाग़ज़ों को, उनपर प्रशान्त के किए सारे काम को जला दो। उन्हें जाके बहा दो कहीं पानी में। बहुत मनहूस हैं वे दास्तानें।’
विकल चुपचाप बेड पर लेटे प्रशान्त को देख रहा था। वह शुरु में इन दास्तानों से दोस्ती और मसखरी में ही जुड़ा था। पर बाद में इन्होंने उसे पकड़ लिया था और तपन की मौत और प्रशान्त की बीमारी ने तो जैसे उसे इनका एक ऐसा पात्र बना दिया था जो अब चाह के भी इनसे अलग नहीं हो सकता था। कितनी ही बातें थीं जो वह माया से कहना चाहता था पर माया इस बारे में बात होते ही भड़क उठती थी। वह नहीं जानती थी कि तपन दक्षिण अफ्रीका से आखिरी बार उससे मिलने ही आए थे, शायद उन्हें उसी समय अंदेशा था कि जिन ताक़तों के ख़िलाफ़ वह काम कर रहे हैं वे उन्हें कभी भी मिटा सकती हैं पर यहाँ आकर जब उन्हें पता चला था कि माया प्रशान्त के साथ ख़ुश है तो वह उससे बिना मिले ही विकल और प्रशान्त को लेकर पहाड़ पर चले गए थे। विकल को तपन की उस पहाड़ी पर सुनाई पूरी कहानी याद थी पर अब जैसे वह उस जेल के क़ैदियों का दर्द प्रशान्त के बेचैन जिस्म में अपनी आँखों के सामने देख रहा था। वह लगातार प्रशान्त के इलाज़ के बारे में बहुत-सी जानकारियाँ इक्ट्ठी करता रहा था पर उनके बारे में अभी माया को कुछ भी बताना नहीं चाहता था लेकिन आज माया के चेहरे पर चिन्ता और थकन के साथ हार की हताशा और टूटन देखकर वह माया को एक नई दवा के बारे में बताने लगा।
वह पलंग पर लेटे प्रशान्त को देखते हुए किसी हाल ही में अविष्कृत दवा जो अभी तक कहीं प्रयोग में नहीं लाई गई थी के बारे में माया को बता रहा था। माया ने बड़े निरापद भाव से विकल को देखा। उस तक विकल की बातें पहुँचकर भी नहीं पहुँच रही थीं। उसने बहुत ज़ोर देकर खुद को वर्तमान में खींचते हुए कहा, ‘मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। इन्हें हर हाल में इस बीमारी से निजात मिलनी चाहिए।’ दोनो ने एक साथ प्रशान्त की ओर देखा।
प्रशान्त को उन दास्तानों ने, उनके तनाव ने और उस अजीब बीमारी ने इस तरह जकड़ लिया था कि वह वर्तमान में भी किसी अतीत की छाया की तरह रहे आते थे। दो दिन बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी। उनकी काया और कमज़ोर हो गई थी पर घर पहुँचते ही वह एक अभेद्य चुप्पी साध कर काम में लग गए थे। घर में एक विचित्र से सन्नाटे ने कब्ज़ा कर लिया था। सब कुछ मूक और स्थिर था बस विकल की कही बात माया की आँखों में एक उम्मीद की तरह रह रह कर काँप जाती थी। उसने उस दवा के प्रयोग के बारे में विकल से कई बार फोन पर बात की थी। पर विकल जानता था कि जो भी वह सोच रहा है उसे कर पाना आसान नहीं होगा और अगर उसने सारा इन्तज़ाम कर भी लिया तो इस काम में सबसे बड़ी रुकावट प्रशान्त ख़ुद ही होंगे। क्योंकि उसे यह भी बताया गया था कि उस दवा के प्रयोग से प्रशान्त इस विचित्र बीमारी के लक्षणों से तो निजात पा लेंगे पर वह सारी बातें जिन्होंने उनके मन में यह उत्तेजना भरी है, उन्हें याद नहीं रहेगीं। वह आगे लिख-पढ़ नहीं सकेंगे, ज्यादा सोच नहीं सकेंगे। पढ़-लिखकर सीखी-समझी तमाम बातें या तो हमेशा के लिए स्मृति से मिट जाएंगी, या फिर बुरी तरह आपस में गड्ड-मड्ड होकर ऐसे उलझ जाएंगी जिससे वह उन्हें बिलगा नहीं सकेंगे। जीवित तो रहे आएंगे पर अपने ही शरीर में अपने अतीत से अपरिचित की तरह। उनकी उस टापू की वह अधूरी कहानी कभी पूरी नहीं हो सकेगी और इसके लिए वह कभी राजी नहीं होंगे।
उस शाम विकल ने माया को फोन करके बताया था कि दवा का इन्तज़ाम हो गया है और उसका एक दोस्त जो इस नए शोध के बारे में लम्बे समय से अध्यन कर रहा है, प्रशान्त पर इसका प्रयोग करने को तैयार भी है पर इसके लिए सबसे पहले उन्हें प्रशान्त को तैयार करना होगा।
माया जानती थी यह आसान नहीं। क्या कहे प्रशान्त को? कि पढ़ा-लिखा, जाना-समझा सब कुछ भूल जाओ, बस जीते रहो सिर्फ़ जीने के लिए।
वह अकेली बाहर के कमरे में बैठी प्रशान्त से बात शुरु करने का सिरा ढूँढते हुए सोचने लगी, ‘कैसे साथ-साथ जीते हुए हम एक दूसरे की छायाओं से ढक जाते हैं। प्रशान्त का हँसता चेहरा और जीवन से लबालब आँखें उसे हमेशा से अपनी ओर खींचती थीं। वह तपन के साथ रहते हुए भी अंजाने ही कब प्रशान्त से जुड़ने लगी थी वह ख़ुद भी नहीं जान पाई थी। तपन की ख़ोज की जिस सनक को देख वह एक समय हॉस्टल छोड़कर उसके साथ रहने चली आई थी, प्रशान्त से मिलने के बाद उसे वह उसकी बेरुखी लगने लगी थी। पर उस समय वह इस बात को तपन और प्रशान्त के सामने ज़ाहिर नहीं होने देती थी बल्कि हमेशा प्रशान्त को यही कहती कि तुम्हारे किस्से कितने भी अच्छे हों पर उसमें तपन की सच्ची रिपोर्टों जैसा ताप नहीं है पर भीतर ही भीतर प्रशान्त की कहानियाँ उसके मन में बैठती जा रही थीं। आज तपन नहीं थे पर उनके द्वारा भेजी उन अनसुलझी कहानियों के भीतर के सच ने प्रशान्त को ढक लिया था। इन कहानियों ने मानो प्रशान्त को तपन में बदल दिया था। सच, प्रशान्त की यह चुप्पी कुछ-कुछ तपन जैसी ही थी।
माया जैसे एक साथ दो लोगों से बात करने का मन बना रही थी। उसने धीरे से प्रशान्त के कमरे में जाकर उनकी एक मटमैले से नक्शे पर गड़ी आँखों को अपनी हथेलियों से ढक दिया। थकी हुई आँखें हथेलियों की ठंडक पाकर अपने आप ही मुँद गईं। माया ने प्रशान्त को उस दवा के बारे में बताना शुरू किया। वह अपनी बात पूरी करके प्रशान्त की हाँ या न पूँछ पातीं कि उससे पहले ही प्रशान्त ने माया की कलाइयाँ पकड़कर उनके हाथों को अपनी आँखों से हटा दिया। माया ने उन आँखों को बहुत ध्यान से देखा। वे ऊपर से कुएँ-सी गहरी और शान्त आँखें थीं पर उनके तले में किसी ज्वालामुखी का लावा उबल रहा था। वे जल रही थीं। उन आँखों की पलकों पे सदियों की नींद थी पर उनमें से उठते धुएँ के कारण वे जागने को अभिशप्त थीं। माया ने प्रशान्त के सिर पर हाथ फेरा और कमरे का दरवाज़ा भेड़कर बाहर आ गई। बहुत देर तक खड़ा नहीं रहा गया सो सोफ़े तक पहुँचने से पहले ही कोने में पड़ी तिपाई पर दीवार का सहारा लेकर ढह गई। कमरे में पहले से जमा सन्नाटा और गहरा हो गया। घड़ी की सुई लगातार टिकटिकाती उसे तोड़ने की कोशिश करती रही पर वह जब टूटा तो आधी रात बीत चुकी थी।
प्रशान्त के कमरे से कई लोगों के बोलने की आवाज़ें आ रही थीं।

प्रशान्त जैसे जेल के क़ैदियों से साक्षात मिल रहे थे। उनसे बातें कर रहे थे। क़ैदियों के संवाद बोलती आवाज़ ज्यादा भर्राई हुई थी। दुनिया की सैकड़ों भाषाएं एक साथ कमरे की दीवारों से टकरा कर रो रही थीं। उनकी पीड़ा से कमरे की दीवारों पर जमा सन्नाटा तार-तार होकर नीचे झर रहा था।
एक वृद्ध और जरजर आवाज़ ने काँपते हुए कहा, ‘युद्ध की हार-जीत, इसमें हुई हज़ारों मौतें सब पहले से तय थीं, पूँजी की ताक़त केवल तमाशे-प्रतियोगिताएं ही प्रायोजित नहीं करती, वे युद्ध भी प्रायोजित करती हैं, अपने लाभ के लिए उन्हें विकराल बनाती हैं और तब तक चलाए रखती हैं जब तक अपना तय लक्ष्य नहीं पा लेतीं।’
‘उस समय भी ऐसी ही बड़ी-बड़ी ताक़तें मिलकर एक भयावह खेल खेल रही थीं’, एक पतली तीखी आक्रोश से भरी आवाज़ ने पहली आवाज़ की बात काटकर अपनी बात कही।
एक हारी हुई शान्त आवाज़ ने कहा, ‘यह युद्ध था ही नहीं, यह ज़मीन पर कब्ज़े और दुनिया भर के मनुष्यों पर अपने वर्चस्व के लिए चली गई एक ख़ूनी चाल थी, पूरी दुनिया से बटोर लाना था- धन, विचार, ज्ञान सब कुछ, एक जगह’
एक डरी-सहमी हुई, पर अपेक्षाकृत सुरीली आवाज़ ने कहा, ‘जब उपनिवेश टूट रहे थे, हम समझ रहे थे कि हम आज़ाद हो रहे हैं पर तभी बड़ी ताक़तों की मिली भगत से पूरे विश्व को गुलाम बनाने कि स्क्रिप्ट लिखी जा रही थी, ऐसी गुलामी जो इंसान के मन, उसकी आत्मा को ऐसी बेड़ियों से जकड़ ले जो किसी को दिखाई न दें, तुमने मैटी की डायरी पढ़ी है,…अधूरी डायरी। मैटी ने जो लिखा वह उससे ज्यादा जानती थी। उसने एक रात जेल में जर्मनों को, अंग्रेजों को और कुछ लम्बे चेहरे वाले गोरों को जो शायद अमेरिकन थे, एक साथ नाचते हुए देखा था। उस रात उन्होंने सारे काम खत्म होने के बाद भी उस गूँगी लड़की को घर नहीं जाने दिया। उसके बाद किसी ने मैटी को नहीं देखा।’
‘उनका कपड़ा, खाना, तक़नीक सब हमारा है, सब हमसे छीना हुआ’ एक सधी हुई, भारी मर्दाना आवाज़ ने कहा। माया दरवाज़े से सटी खड़ी थी। उसके भीतर कुछ था जो डर से धीरे-धीरे काँप रहा था।
तभी उस भारी आवाज़ के पीछे सारी आवाज़ें इक्ट्ठी हो गईं, भर्राए गले से वे एक साथ बोलने लगीं ‘बोलो, तुम्हें बोलना ही होगा, नहीं तो पूरी धरती पर सबके नाखून हरे हो जाएंगे, सबके गले रुंध जाएंगे’
ऐसा कहते हुए वे आवज़ें कराह रही थीं और उस कराह में केवल इंसाफ़ की पुकार ही नहीं थी, उसमें भविष्य को सावधान करने का स्वर भी मिला हुआ था। उन सभी ने प्रशान्त को घेर लिया। वे जैसे प्रशान्त के स्वर से फूटकर दुनिया भर में फैल जाना चाहती थीं। वे प्रशान्त की कलम के सहारे आज़ाद होकर अपना प्रतिशोध लेना चाहती थीं। वे कहना चाहती थीं कि हमें एक बार फिर अपनी ज़मीन पर लौटना है। हमें फिर से अपनी मिट्टी में मिलना है। हमें अपने तरीके से ज़मीन से फूटना है, खिलना है, बिखरना है। हमें अपनी जड़ों की तरफ़ लौटकर फिर से आज़ाद होना है।
माया ने धीरे से कमरे का दरवाज़ा खोल दिया।
लगा जैसे प्रशान्त हर आवाज़ से लिपट-लिपट कर रो रहे हैं। गला रुंध गया, हाथ-पांव काँपने लगे, आँखों से पानी बह निकला। उनके रुदन में आश्वस्ति थी। उन्हें कमरे के बीचों-बीच खड़े देखकर माया को लगा वह किसी बीमार को नहीं बल्कि किसी युद्ध में सच के लिए लड़कर घायल हुए सैनिक को देख रही है। अब वह प्रशान्त से डर नहीं रही थी बल्कि हज़ारों दिलों के दर्द से रो रही थीं। उसने आगे बढ़कर प्रशान्त के दोनो हाथ अपने हाथों में लिए और उन्हें गले लगा लिया।
प्रशान्त के गले से निकलती आवाज़ की ख़राशें कुछ कम हो चली थीं। वह कमरे की छत की ओर ताकते हुए बोले, ‘मेरे शरीर में सैकड़ों बूटों की कीलें एक साथ चुभती हैं। पीठ हज़ारों कोड़ों की फटकार से बिलबिलाती है। मेरा दिमाग़ हज़ारों लोगों के दर्द की क़ब्रगाह है। वे मरे नहीं हैं! वे अभी भी किसी अंधेरी काल कोठरी की दीवारों पर सर पटक रहे हैं। उन्हें उस कारा से मुक्त किए बिना, न मैं जी सकता हूँ, न मर सकता हूँ’
बोलते-बोलते उन्होंने अपना सिर माया के कन्धे पर रख दिया। लगा उस सिर पर दुनिया के तमाम कटे हुए सिरों का बोझ है। एक अकेले इंसान के कंधे उस सिर का बोझ नहीं उठा सकते। कोई भी अकेला उस सिर का बोझ नहीं उठा सकता। माया और प्रशान्त दोनो ने मिलकर उस सिर को अपने कंधों पर ले लिया।
कई शोकाकुल आवाज़ों के बीच दोनो एक दूसरे के गले लगे खड़े रहे, दोनो रो रहे थे, दोनो की हिचकियाँ एक-दूसरे को संभाल रही थीं। आँखों से गालों पर ढुलक आए आँसू अनगिनत सिर विहीन कवंधों का तर्पण कर रहे थे। माया ने दोनो हाथों से प्रशान्त के चेहरे को पकड़ कर उनके सूखे होंठ गीले कर दिए। उनकी आंखें मुँदने लगीं। न जाने कितने दिनों बाद उनमें नींद थी। माया ने उनके कान में फुसफुसाते हुए कहा, ‘आज उन दास्तानों जैसा एक टापू हम सबके भीतर भी है, हम सब के चारों तरफ़ अदृश्य दीवारें खड़ी हैं, वह कारा बहुत बड़ी हो गई है। हम सब उसमें क़ैद हैं। अभी कुछ देर के लिए सो जाते हैं, कल से आगे का काम हम साथ करेंगे।’
सुबह विकल आया तो घर के दरवाज़े पर ताला लगा था जिसमें एक चिट फसी थी- ‘हम कारा से मुक्त होने और तमाम क़ैद रही आई आवाज़ों को मुक्त करने जा रहे हैं।’

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परिचयविवेक मिश्र

  15 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जन्म. विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर. तीन कहानी संग्रह– ‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’-शिल्पायन, ‘पार उतरना धीरे से’-सामायिक प्रकाशन एवंऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?’- किताबघर प्रकाशन तथा उपन्यासडॉमनिक की वापसीकिताबघर प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित. ‘Light through a labyrinth’ शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कोलकाता से तथा पहले संग्रह की कहानियों का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कोलकाता से तथा बाद के दो संग्रहों की चुनी हुई कहानियों का बंग्ला अनुवाद  भाषालिपि, कोलकाता से प्रकाशित.

  लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित. कुछ कहानियाँ संपादित संग्रहों व स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल. साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन. चर्चित कहानीथर्टी मिनट्सपर30 मिनट्सके नाम से फीचर फिल्म बनी जो दिसंबर 2016 में रिलीज़ हुई. कहानी– ‘कारा’ ‘सुर्ननोसकथादेश पुरुस्कार-2015’ के लिए चुनी गई. कहानी संग्रहपार उतरना धीरे सेके लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष 2015 कायशपाल पुरस्कारमिला. पहले उपन्यासडॉमानिक की वापसीको किताबघर प्रकाशन केआर्य स्मृति सम्मान-2015’ के लिए चुना गया. हिमाचल प्रदेश की संस्थाशिखरद्वाराशिखर साहित्य सम्मान-2016’ दिया गया तथाहंसमें प्रकाशित कहानीऔर गिलहरियाँ बैठ गईं..’ के लिएरमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार– 2016’ मिला.

संपर्क– 123-सी, पाकेटसी, मयूर विहार फेज़-2, दिल्ली-91

मो-9810853128 ईमेल vivek_space@yahoo.com        

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गौरव सोलंकी की तीन कविताएँ

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गौरव सोलंकी को हम उनकी कहानियों के लिए जानते हैं, आर्टिकल 15 जैसी सामाजिक सरोकार से जुड़ी फ़िल्म के लेखक के रूप में जानते हैं, लेकिन वे बहुत अच्छे कवि भी हैं। उनकी लगभग हर कविता में एक प्रसंग होता है और अंतर्निहित गीतात्मकता, जो समक़ालीन कविता में बहुत दुर्लभ गुण है। मुझे कई बार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताएँ याद आ जाती हैं जिनके बारे में कभी मनोहर श्याम जोशी ने कहा था कि समक़ालीन कविता में कविताई केवल सर्वेश्वर के पास थी बाक़ी कवि तो बस कविताएँ लिख रहे थे। फ़िलहाल आप तीन कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
===============
1
मैं उसके जिस्म में गुंथा हुआ था
 
मैं उसके जिस्म में गुंथा हुआ था
तब भी उसने कहा कि वो मुझे अच्छी तरह नहीं जानती
 
यह पुलिस की एफ़ आई आर में लिखा है
और आप कभी भी उधर से गुज़रें तो चैक कर सकते हैं
 
उसके बाद कई दिन तक मैंने सोचा कि किसी पतंग के साथ कट जाऊं
और मेरी याद में कोई सभा भी न हो
लेकिन यह बहुत हताशा भरी बात थी
इसलिए मैंने जताया कि मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता
 
हमारे कई दोस्त साझे थे
और ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी था
कि मैं उनकी हत्या कर दूं
पर यह भी मुमकिन नहीं हो सका जज़्बाती कारणों से
 
इसलिए मैंने ख़ुद को बेहतर इंसान की तरह पेश किया
और ख़ुद को एक खिड़की के आकार में काटा
जैसे देखा जा सकता हो मेरे आर-पार
 
यह एक साज़िश थी
और इससे मुझे बहुत कुछ हासिल भी हुआ
सिवा अपने जिस्म के
जो कई हिस्सों में कटकर उसके पास पड़ा था
 
मैं रूह की बात नहीं करूंगा यहां
क्योंकि इतनी हैसियत नहीं होती कविताओं की
 
 
2
कितने दिन हुए कि मेरे और तुम्हारे बीच कुछ भी नहीं बचा
 
 
 
कितने दिन हुए
कि मेरे और तुम्हारे बीच एक भी रात नहीं बीती
 
 
मैंने इस बीच पता लगाया कि यह धरती कब ख़त्म होगी
और मेरे पड़ोसी बूढ़े को वो क्या पता है जो उसकी आंख में चमकता है
बारिश के कुछ देर बाद तक इतना पानी रहता है फूल पर कि तितलियां फिसल सकती हैं
मैंने छज्जे पर से लटककर देखा कि जगह बदलो तो हिलता है क्या चांद,
नहीं हिला
 
 
मैं कई चीज़ों में नाकामयाब हुआ जान
नौकरी से निकाला गया 18 तारीख़ को
25 तक मैंने ख़ुश रहने का दिखावा किया सबके सामने और फिर लड़खड़ा कर गिर गया
 
एक दिन तो लगा मुझे कि मैं मामूली मौत मर जाऊंगा
फिर मैं शराब पीने लगा एक-दो या तीन हफ़्ते तक रोज़ाना
 
फिर एक पड़ोसी ने कहा कि आप दिखाई नहीं देते
तो मैंने दिखाई देने की कोशिश की
मेंरे पास कुछ सेल्फ़ियां हैं उन दिनों की,
लेकिन तुम्हें नहीं भेजूंगा, डरो मत
 
 
मैं तुम्हें उस सपने के बारे में बताना चाहता था
जिसमें मैं नाव पर था अकेला
और तुम गोलियां चला रही थी
पर मैं अगर फ़ोन करता भी तो तुम उठाती नहीं
इसलिए मैं लिखकर रखने लगा सारे सपने
कि बाद में किसी को ज़रूरत पड़े अगर
 
 
पूरे महीने तुम ऐसे याद आती रही
जैसे अँधेरे में माँ याद आती थी बेहतर दिनों में
 
 
कितने दिन हुए
कि मेरे और तुम्हारे बीच कुछ भी नहीं बचा
 
मैं चादर से बादल बनाना सीख रहा हूं
मुझे चमेली के फूल दिखने लगे हैं हवा में
मुझे बिच्छुओं पर यक़ीन होने लगा है आख़िर
और मैंने एक दर्ज़ी से अपनी छत के फटने का हिसाब माँगा है
 
लेकिन पहाड़ जो टूटा है,
उसके बारे में किसी को कुछ भी नहीं बता सकता मैं
वरना हम उन लोगों में बदल जाएंगे
जिनसे नफ़रत करते रहे हैं हम
 
जिन्हें ख़राब कहती थी तुम
जिन्हें मैं कहता था कि कमज़ोर हैं
 
 
3
मैं कहां पहुंचकर मैसेज करता उसे?
 
हम डूबने से तुरंत पहले
बचाते रहे अक्सर एक-दूसरे को
वैसे हमने ही धकेला एक-दूसरे को पानी में
जब भी बस चला
 
 
बहुत आख़िर तक तो
हमने ज़िंदा रहने का इतना अभ्यास कर लिया था
कि उसने मेरा नाम लेकर कहा
कि अब तो तुम्हें मारा ही नहीं जा सकता
 
 
उसके देखने में चाँद आधा और एक नया सा उस्तरा था
उसके कहने के ढंग में थी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ और अंगड़ाई की खनक
उन दिनों जब वो मेरे पास सोती थी
 
 
तो चारों और दीवारें खिंच आती थीं
और एक घर बन जाता था ख़ाली मैदानों, रेलगाड़ियों और जंगलों में भी
 
फिर आख़िरी दिनों में
मेरी छाती पर सर रखते हुए उसने कहा
कि यह घर नहीं अब,
कोई मैदान, रेलगाड़ी या जंगल है
 
आख़िरी चीख थी ये, एक अपशकुन था
पर हमने ज़िंदा रहने का इतना अभ्यास कर लिया था
कि मैं उसके साथ आख़िरी बार खाना खाते हुए भी हँसा
 
और जैसे यह कोई आम विदा हो अगली सुबह तक के लिए,
मेरे गले लगते हुए उसने कहा
कि पहुंचकर मैसेज करना और सो जाना वक़्त से
 
उसके अंगूठे और उंगली के बीच एक तिल था
वहीं था मेरा घर
मैं कहां पहुंचकर मैसेज करता उसे?
 

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सीमा मेहरोत्रा की पाँच कविताएँ

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सीमा मेहरोत्रा ने बीएचयू से अंग्रेज़ी में एमए करने के बाद अमेरिका के शिकागो शहर में रहकर पढ़ाई की। आजकल शिकागो के एक विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर हैं। हिंदी में कविताएँ लिखती हैं जो पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रही हैं। आज जानकी पुल पर पहली बार उनकी पाँच कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर

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रागविराग

  1. जीवन बहा
    समय की चलनी से
    छलता रहा मन
    चलता रहा तन
    ढलता यौवन
    फिर एक दिन
    सार कहीं बह गया
    प्यार यहीं रह गया
    2. प्यार तुला
    रिश्तों की तराज़ू में
    जुड़ा हानि लाभ
    किया गुणा भाग
    राग से विराग
    फिर एक दिन
    गणित ही निपट गया
    शून्य में सिमट गया
    3. शून्य लिखा
    जीवन के पन्नों पर
    एक अंक छोह का
    दूसरा बिछोह का
    मोह से निर्मोह का
    फिर एक दिन
    लिखा सब मिट गया
    प्रियजन सहित गया
    बची बस धूल
    चंद पूजा के फूल
    स्मृति के पल
    और नयनों में जल…..

**************************

2

दादी माँ का पानदान

सलीक़े से सजा रहता था
दादी माँ का पानदान
हरे भरे सजीले पान के पत्ते
इतराते थे नेह की हल्की नमी से तर…
पुरकशिश रिश्ते में बँधा था
वो पान का बीड़ा
जहाँ चूने की तल्ख़ तेज़ी को
मंद करती थी कत्थे की सादगी
क़रीने से कतरी नन्ही
सुपारियाँ इठलाती थीं उस गिलौरी में
जिसमें रचीबसी थी
गुलकंद की मिठास
और इलायची की ख़ुशबू………
अब न दादी माँ हैं
न उनका पानदान
सूख गये वो हरे भरे पान के पत्ते
झर गये चांदी के रूपहले वर्क
और बिखर गयीं सब डिब्बियाँ
अब पानदान तो क्या
ख़ानदान के रिश्तों में भी
वो सलीक़ा या मिठास नहीं मिलती…

**************************

3

गंगा के तट पर
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जाने क्यों ये मन करता है
सुख के वे कुछ पल मिल जायें
फिर ये सारा वैभव तजकर
आगत की चिन्ता विस्मृत कर
मस्तक पर चन्दन चित्रित कर
हम तुम फिर से बैठें मिलकर
गंगा के उस पावन तट पर

जाने क्यों ये मन करता है
जीवन की ये बहती धारा
वहीं कहीं पर फिर रुक जाये
जब मन्त्रों की स्वरलहरी थी
गुलमोहर की छाँव घनी थी
पीपल के धागे से लिपटी
मन की कोई आस बँधी थी

जाने क्यों ये मन करता है
सावन के बादल फिर बरसें
दूर कहीं मन बहता जाये
सपनों का इक लोक सजाये
कजरी के कुछ गीत सुनाये
सोंधी मिट्टी की वो खुशबू
मन प्राणों में फिर बस जाये

जाने क्यों ये मन करता है
अस्सी पे तुलसी बन जाऊँ
रामचरित से हृदय भिगो लूँ
सुनूँ कबीर की शीतल बानी
जग के सारे कल्मष धो लूँ
फिर प्रसाद के ‘आँसू’ पढ़कर
मन की कोई पीर संजो लूँ
जाने क्यों ये मन करता है……..

4

रोटी और रिश्ते

***************

सखी, एक कला होती है
रोटी बेलना और
रिश्ते निभाना भी
कहीं भावनाओं का पानी ज़्यादा
कहीं अधूरी ख़्वाहिशों की उठती ख़मीर
कहीं नौसिखिये हाथों से गढ़े
आड़े तिरछे नक़्शे
कहीं अभ्यस्त हाथों की
चिरपरिचित गोलाई
कहीं प्रेम की मद्धम आँच में
सुकून से पका मनचाहा स्वाद
कहीं उच्छृंखल जलन से
आयी अनचाही कड़वाहट

बस इतनी सी बात है सखी
उनमें कुंठा और निराशा की
शिकन ना लाना
क्यूँकि सिलवट भरे
रोटी और रिश्ते
परवान नहीं चढ़ते….

5

डोर

कुछ उलझी सी, कुछ सुलझी सी
कुछ गहरी सी, कुछ हलकी सी
कुछ खद्दर की, कुछ रेशम की
ये डोर तुम्हीं ने बाँधी थी
कुछ नेह भरी, कुछ मोह भरी
जब मिलती है तब बुनती है
कुछ रंग नये, कुछ छंद नये
गर तोड़ो तुम, बस कह देना
जो बीत गयी, सो बात गयी
बिसरा कर पिछली यादों को
जा चुन ले कोई राह नयी
मैं फिर भी उसका एक सिरा
अपनी उँगली में बाँधूँगी
शायद उन उलझे धागों में
अब भी लिपटी हो आस कोई….

 

 

 

 

 

The post सीमा मेहरोत्रा की पाँच कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

ज्ञान और संवेदना के संतुलन का उपन्यास

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पंकज सुबीर के उपन्यास ‘जिन्हें जुर्मइश्क़ पे नाज़ था’ की आजकल बहुत चर्चा है। इसकी समीक्षा पढ़िए। वीरेंद्र जैन ने लिखी है-

==============

मुक्तिबोध ने कहा था कि साहित्य संवेदनात्मक ज्ञान है। उन्होंने किसी विधा विशेष के बारे में ऐसा नहीं कहा अपितु साहित्य की सभी विधाओं के बारे में टिप्पणी की थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस रचना में ज्ञान और संवेदना का संतुलन है वही साहित्य की श्रेणी में आती है।  

खुशी की बात है कि विधाओं की जड़ता लगातार टूट रही है या पुरानी विधाएं नये नये रूप में सामने आ रही हैं। दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम हो या कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान , काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी हो या वीरेन्द्र जैन [दिल्ली] का डूब, सबने यह काम किया है। पंकज सुबीर कीजिन्हें जुर्मइश्क पे नाज़ थाइसीकीअगलीकड़ीहै।

       अमूमन उपन्यास अनेक चरित्रों की अनेक कहानियों का ऐसा गुम्फन होता रहा है जिनके घटित होने का कालखण्ड लम्बा होता है और जो विभिन्न स्थलों पर घटती रही हैं। यही कारण रहा है कि उसे उसकी मोटाई अर्थात पृष्ठों की संख्या देख कर भी पहचाना जाता रहा है। चर्चित पुस्तक भी उपन्यास के रूप में सामने आती है। इसका कथानक भले ही छोटा हो, जिसका कालखण्ड ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यासनरक यात्राकी तरह एक रात्रि तक सिमिटा हो किंतु तीन सौ पृष्ठों में फैला इसमें घटित घटनाओं से जुड़ा दर्शन और इतिहास उसे सशक्त रचना का रूप देता है भले ही किसी को उपन्यास मानने में संकोच हो रहा हो। ईश्वर की परिकल्पना को नकारने वाली यह कृति विश्व में धर्मों के जन्म, उनके विस्थापन में दूसरे धर्मों से चले हिंसक टकरावों, पुराने के पराभवों व नये की स्थापना में सत्ताओं के साथ परस्पर सहयोग का इतिहास विस्तार से बताती है। देश में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर समकालीन राजनीति तक धार्मिक भावनाओं की भूमिका को यह कृति विस्तार से बताती है। इसमें साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक छात्र को दुष्चक्र से निकालने के लिए उसके साथ किये गये सम्वाद के साथ उसके एक रिश्तेदार से फोन पर किये गये वार्तालाप द्वारा लेखक ने समाज में उठ रहे, और उठाये जा रहे सवालों के उत्त्तर दिये हैं। पुस्तक की भूमिका तो धार्मिक राष्ट्र [या कहें हिन्दू राष्ट्र] से सम्बन्धित एक सवाल के उत्तर में दे दी गयी है, जिससे अपने समय के खतरे की पहचान की जा सकती है।

जब किसी देश के लोग अचानक हिंसक होने लगें। जब उस देश के इतिहास में हुए महापुरुषों में से चुनचुन कर उन लोगों को महिमा मंडित किया जाने लगे, जो हिंसा के समर्थक थे। इतिहास के उन सब महापुरुषों को अपशब्द कहे जाने लगें, जो अहिंसा के हामी थे। जब धार्मिक कर्मकांड और बाहरी दिखावा अचानक ही आक्रामक स्तर पर पहुँच जाए। जब कलाओं की सारी विधाओं में भी हिंसा नज़र आने लगे, विशेषकर लोकप्रिय कलाओं की विधा में हिंसा का बोलबाला होने लगे। जब उस देश के नागरिक अपने क्रोध पर क़ाबू रखने में बिलकुल असमर्थ होने लगें। छोटीछोटी बातों पर हत्याएँ होने लगें। जब किसी देश के लोग जोम्बीज़ की तरह दिखाई देने लगें, तब समझना चाहिए कि उस देश में अब धार्मिक सत्ता आने वाली है। किसी भी देश में अचानक बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और हिंसा ही सबसे बड़ा संकेत होती है कि इस देश में अब धर्म आधारित सत्ता आने को है।’’ रामेश्वर ने समझाते हुए कहा। “     

इस पुस्तक में टेलीफोन के इंटरसेप्ट होने के तरीके से इतिहास पुरुषों में ज़िन्ना, गाँधी, नाथूराम गोडसे के साथ सम्वाद किया गया है जैसा एक प्रयोग फिल्मलगे रहो मुन्नाभाईमें किया गया था।इस वार्तालाप से उक्त इतिहासपुरुषों के बारे में फैलायी गयी भ्रांतियों या दुष्प्रचार से जन्मे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं।कथा के माध्यम से निहित स्वार्थों द्वारा कुटिलतापूर्वक धार्मिक प्रतीकों के दुरुपयोग का भी सजीव चित्रण है।

नेहरूजी के निधन पर अपने सम्वेदना सन्देश में डा. राधाकृष्णन ने कहा था किटाइम इज द एसैंस आफ सिचुएशन, एंड नेहरू वाज वैल अवेयर ओफ इट महावीर के दर्शन में जो सामायिक है वह बतलाता है कि वस्तुओं को परखते समय हम जो आयाम देखते हैं, उनमें एक अनदेखा आयाम समय भी होता है क्योंकि शेष सारे आयाम किसी खास समय में होते हैं। जब हम उस आयाम का ध्यान रखते हैं तो हमारी परख सार्थक होती है। पंकज की यह पुस्तक जिस समय आयी है वह इस पुस्तक के आने का बहुत सही समय है। कुटिल सत्तालोलुपों द्वारा न केवल धार्मिक भावनाओं का विदोहन कर सरल लोगों को ठगा जा रहा है, अपितु इतिहास और इतिहास पुरुषों को भी विकृत किया जा रहा है। पुराणों को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को झुठलाया जा रहा है। आधुनिक सूचना माध्यमों का दुरुपयोग कर झूठ को स्थापित किया जा रहा है जिससे सतही सूचनाओं से कैरियर बनाने वाली पीढी दुष्प्रभावित हो रही है जिसका लाभ सत्ता से व्यापारिक लाभ लेने वाला तंत्र अपने पिट्ठू नेताओं को सत्ता में बैठा कर ले रहे हैं। ऐसे समय में ऐसी पुस्तकों की बहुत जरूरत होती है। यह पुस्तक सही समय पर आयी है। हर सोचने समझने वाले व्यक्ति की जिम्मेवारी है कि इसे उन लोगों तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शायद यही कारण है कि देश के महत्वपूर्ण चिंतकों ने सुबीर को उनके साहस के लिए बधाई देते हुए उन्हें सावधान रहने की सलाह दी है।  

      वीरेंद्र जैन

इस कृति की कथा सुखांत है, किंतु इसके सुखांत होने में संयोगों की भी बड़ी भूमिका है। कितने शाहनवाजों को रामेश्वर जैसे धैर्यवान उदार और समझदार गुरु मिल पाते हैं! कितने जिलों के जिलाधीश वरुण कुमार जैसे साहित्य मित्र होते हैं, विनोद सिंह जैसे पुलिस अधीक्षक होते हैं, और भारत यादव जैसे रिजर्व फोर्स के पुलिस अधिकारी मिल पाते हैं, जो रामेश्वर के छात्र भी रहे होते हैं व गुरु की तरह श्रद्धाभाव भी रखते हैं। आज जब देश का मीडिया, न्यायव्यवस्था, वित्तीय संस्थाएं, जाँच एजेंसियों सहित अधिकांश खरीदे जा सकते हों या सताये जा रहे हों, तब ऐसे इक्का दुक्का लोगों की उपस्थिति से क्या खतरों का मुकाबला किया जा सकता है या इसके लिए कुछ और प्रयत्न करने होंगे?

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पुस्तकजिन्हें जुर्मइश्क़ पे नाज़ था (उपन्यासपंकज सुबीर)

प्रकाशन : शिवना प्रकाशन, पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, सीहोर, मप्र, 466001, दूरभाष– 07562405545

प्रकाशन वर्ष – 2019, मूल्य – 200 रुपये, पृष्ठ – 304

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समीक्षक: वीरेन्द्र जैन

मो. 09425674629

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‘पॉपुलर की हवा’और ‘साहित्यिक कहलाए जाने की ज़िद’के बीच हिंदी लेखन

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राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम निस्सन्देह इस समय हिंदी के ऐसे चुनिंदा संपादक हैं जो हिंदी के नए और पुराने दोनों तरह के लेखकों-पाठकों के महत्व को समझते हैं और हिंदी में अनेक नए तरह के नए बदलावों के अगुआ रहे हैं। पढ़िए उनसे समकालीन लेखन और हिंदी के बाज़ार को लेकर जानकी पुल की एक छोटी सी बातचीत- मॉडरेटर

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प्रश्न- इस समय हिंदी में संख्या के हिसाब से पाठकों की क्या स्थिति है? पिछले सालोजन में संख्या के हिसाब से इसमें आपने क्या फ़र्क़ देखा है?

हिंदी किताबों की रीडरशिप पिछले एक दशक में धीरे-धीरे बढ़ी है.खासकर, पिछले 5 सालों में ज्यादा तेजी से. लेकिन ऐसा पेपरबैक संस्करण के साथ हुआ है. हार्डबैक एडिशन के पाठकों की संख्या में कोई बड़ा बदलाव नहीं है. अगर मैं राजकमल प्रकाशन समूह के आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए बताऊँ तो अब ऐसी कई किताबें हैं जो अपने छपने के साल भर के भीतर ही पेपरबैक एडिशन में 5000 कॉपी बिक गईं. साहित्यिक किताबों के साथ हिंदी में ऐसा पहले नहीं था. पहले आम तौर पर किताबों के पेपरबैक संस्करण 800 प्रतियों के होते थे. जिनमें से अधिकतर साल भर में नहीं समाप्त होती थीं. अब 1100 प्रतियों का पहला संस्करण सामान्य बात है.

प्रश्न- इस समय किन हिंदी लेखकों की किताबें अधिक बिक रही हैं?

हिंदी पाठकों में आजकल रवीश कुमार, नीलोत्पल मृणाल, सत्य व्यास, गौरव सोलंकी, शशिकांत मिश्र, अनुराधा बेनीवाल, अशोक कुमार पाण्डेय, अनिल कुमार यादव, अजय सोडानी, पुष्यमित्र जैसे नए लेखकों ने अपनी खास जगह बनाई है. इनकी किताबें तेजी से बिक रही हैं. स्थापित लेखकों में काशीनाथ सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, मैत्रेयी पुष्पा, शाज़ी ज़माँ, प्रभात रंजन की किताबों की इधर मांग बढ़ी है. सुरेन्द्र मोहन पाठक बाजार में अपनी लोकप्रियता और मांग बरकरार रखे हुए हैं. क्लासिक्स के पाठक पहले की तुलना में कुछ बढ़े ही हैं.

प्रश्न- किस तरह की किताबों की बिक्री अधिक है- अपराध कथाएँ या लोकप्रिय साहित्य?

अगर बदलते ट्रेंड की बात करें तो हिंदी में नॉन फ़िक्शन, नैरेटिव नॉन फ़िक्शन की मांग पहले से बढ़ी है. जैसे कि ट्रेवलॉग, मेमायर, ऑटोबायोग्राफी, हिस्ट्री, हिस्टोरिकल फ़िक्शन, कन्टेम्परेरी डिबेट्स पर बेस्ड बुक्स. पल्प या क्राइम फिक्शन के पाठक  कम हुए हैं. पहले उनकी जितनी बिक्री होती थी, अब वैसी बात नहीं है.

प्रश्न- अनुवाद की क्या स्थिति है? क्या हिंदी से होने वाले अनुवादों की संख्या में वृद्धि हुई है? क्या अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद होने वाली किताबों की संख्या में वृद्धि हुई है?

हिंदी में दूसरी भाषाओँ से अच्छी या पोपुलर किताबों के अनुवाद हमेशा से खूब होते रहे हैं. लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि दूसरी भाषाओँ में हिंदी से किताबें अनूदित कम होती हैं. हिंदी में विदेशी भाषाओँ से अनूदित किताबें भारतीय भाषाओँ से अनूदित किताबों की तुलना में कम बिकती रही हैं. हाल के दौर में भारतीय अंग्रेजी लेखन के अनुवाद का बाजार बढ़ा है और उन किताबों की बिक्री भी बढ़ी है.

प्रश्न- हिंदी में ऐसी कौन सी लोकप्रिय कृतियाँ हैं जिनके अनुवाद अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं में होते रहे हैं?

हिंदी में ऐसे कई लेखक हैं, जिनकी किताबें अंग्रेजी और दूसरी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. अभी भी हो रही हैं. प्रेमचन्द से लेकर यशपाल, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, श्रीलाल शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, उदय प्रकाश, गीतांजली श्री आदि कई नाम हैं.

प्रश्न- नए पाठकों के साथ जुड़े रहने के लिए हिंदी के प्रकाशक क्या कर रहे हैं जिससे कि वे अपने पुराने पाठकों से भी जुड़े रह सकें?

पुराने पाठकों को जोड़े रखने के साथ नए पाठकों को बढ़ाने की दिशा में कई तरह की पहल हिंदी प्रकाशनों में हुआ है. पुरानी किताबों को नए कलेवर, ट्रेंडी लुक में पेश करने से लेकर, नए पाठकों के लिए नए तरह के कंटेंट को प्रकाशित करने तक के प्रयास हो रहे हैं. नए हिंदी पाठकों को जोड़ने में सबसे प्रभावी भूमिका हाल के वर्षों में जिस किताब ने अदा की, वह है, रवीश कुमार के लप्रेक की किताब—इश्क़ में शहर होना. केवल 3 माह में 10000 से ज्यादा और 4 साल में 25000 से ज्यादा कॉपी बिकने वाली यह किताब हिंदी किताबों की दुनिया में एकदम नए पाठक जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा रही है. अब यह अंग्रेजी में ट्रांसलेट हो चुकी है और इसके हिंदी पाठक न केवल हिन्दीभाषी राज्यों से बाहर, बल्कि भारत से बाहर भी पर्याप्त हैं.

प्रश्न- क्या किताबों की बिक्री में कमी आई है या इसका पुराना बाज़ार बरक़रार है?

हिंदी किताबों की बिक्री का बीच में एक खराब दौर आया था.जिसमें पुस्तकालयों पर निर्भरता बढ़ी थी. लेकिन अब उससे सब बाहर निकल रहे हैं. पाठकों का किताबों से लगाव भी बढ़ा है, नए पाठक भी आए हैं. लेकिन बीते 4-5 सालों में जिस तेजी से कागज की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है, वह चिंताजनक है. हिंदी किताबों का बाजार प्राइस सेंसिटिव है. पाठक पेपरबैक्स किताबें प्रेफर करते हैं. सस्ता होना उनकी पहली शर्त है. कागज की बढ़ती महंगाई का असर पेपरबैक किताबों पर भी पड़ रहा है. ऐसे में आने वाले समय की चिंता बढ़ रही है.

प्रश्न- क्या आपको पढ़ने के ढंग में कोई फ़र्क़ दिखाई दे रहा है, ख़ासकर स्मार्टफ़ोन के आगमन और डिजिटल माध्यम की लोकप्रियता के बाद?

 स्मार्टफोन के एडिक्शन के दौर में किताबों का महत्व दवा की तरह कायम होने वाला है. बहुत लोगों को नेट सर्फिंग से बुक रीडिंग की तरफ शिफ्ट होते हम अपने आसपास देख रहे हैं. पुरानी कहावत सच साबित होने वाली है—रोज 10-20 पन्ने किताब जरूर पढनी चाहिए. हिंदी में अभी डिजिटल/ई-रीडर जेनरेशन तैयार हुई नहीं है. पेपरलेस स्कूलों से निकले बच्चे ही असली डिजिटल या ई-रीडर साबित होंगे.

प्रश्न-समकालीन लेखन का क्या भविष्य देखते हैं?

समकालीन लेखन दो खेमे नहीं, बल्कि दो दुनिया में बंटी हुई दिख रही है। जो साहित्यिक लेखक हैं, उनमें से कई ‘बेस्टसेलर’ और ‘पॉपुलर’ की हवा में डगमग हो रहे हैं। जो पॉपुलर राइटिंग कर रहे हैं, उनमें से कई साहित्यिक कहलाए जाने की जिद में हैं। ऐसे में नुकसान ज्यादा क्लास राइटिंग का हो रहा है। जो किसी खास तरह से लोकप्रिय होने या किसी खास जैसे दिखने के लोभ से बचकर, अपनी कहानी अपने ढंग से, अपने मिजाज में लिखते रह सकता है, उसी का भविष्य है। वरना सब इस संक्रांति काल में दिशा भटक कर अपनी ऑर्गेनिक आइडेंटिटी खोएंगे। सोशल मीडिया की आभासी लोकप्रियता के दौर में विधा, कथ्य और स्वयं की तैयारी को लेकर भ्रम से बचना सबसे जरूरी है। अगर कोई सौ या हजार क्लासी या बहुत प्रबुद्ध रीडर की संतुष्टि का लेखक है तो उसे वही बने रहना चाहिए। उसका किसी होड़ में शामिल होने से बचना साहित्य के भविष्य को बचाएगा। लेकिन, उन्हें भी आत्म-मूल्यांकन की जरूरत है कि क्या वे वाकई अपने समय और समाज की वास्तविकता को देख परख पा रहे हैं या वे अपने ही किसी मुहावरे में फँस गए हैं। क्या वे वाकई भविष्य के पाठक को देख पा रहे हैं और उन्हें एड्रेस कर रहे हैं–ऐसा उन्हें भी सोचना चाहिए। लोकप्रिय लेखन करने वाले लेखकों को भी समझना पड़ेगा कि समाज से स्टारडम पा लेने भर के लिए मनोरंजनकारी लेखन करना तात्कालिक प्रसिद्धि की बात है। लम्बे समय बाद समाज में वही बचेगा जो समाज की सचाई को, उसकी जरूरत को, उसकी परेशानियों को समझ कर लिखेगा। आने वाले 5-7 सालों में हिंदी लेखन की एक नई पीढ़ी तैयार होने वाली है जो बीते दो दशकों के असमंजस से मुक्त होगी। अपने-अपने पाठक वर्ग को लेकर स्पष्ट होगी। जाहिर है कि यह स्पष्टता साहित्य और पाठकों के बीच आने वाले तमाम आलोचकों, समीक्षकों, अध्यापकों के बीच आने में अभी बहुत देर है।

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बक्सर का आखिरी नायक?

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अमृतांशु नामक इस युवा को उसके इस गद्य के पढ़ने से पहले मैं जानता भी नहीं था। अभी भी केवल इतना जानता हूँ कि कुछ अलग ढंग से लिखने की ललक है इनमें। आप भी पढ़कर बताइएगा- मॉडरेटर

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मैं प्रायः एक अंतहीन सवाल से जूझता रहता हूँ कि मेरा दोस्त राहुल कुमार नायक है या खलनायक? लम्बे खुले बालों और गोल फ्रेम वाले चश्मे को पहनकर वह किसी बम्बईया फिल्म के नायक जैसा इठलाता है, उसे थिएटर में भी बेहद दिलचस्पी है, उसके ‘नायकत्व’ में तमाम संशय होने के बाद भी मैं इस तथ्य को लेकर बेहद आशान्वित हूँ की वह अपने अवचेतन दिमाग में कोई नायक ही है. मनोविज्ञान संबंधी तमाम अवधारणाओं को पढ़ने-समझने के (अ)सफल प्रयासों के बाद मैं इस तथ्य से काफी संतुष्ट होता हूँ कि व्यक्ति की अवचेतना ही उसकी चेतना/सत्य का निर्माण करती है, वस्तुतः अपने अवचेतन मस्तिष्क में आत्म को नायक समझने वाला व्यक्ति ही भविष्य में नायकत्व की ओर बढ़ेगा.

राहुल के नायक या खलनायक होने की मेरी जिज्ञासाओं का संदर्भ-बिंदु किसी चल-चित्र, बम्बईया फिल्म इंडस्ट्री का नायक नही है बल्कि मेरे लिए वो मेहनतकश औसत भारतीय ग्रामीण व्यक्ति का एक प्रतिनिधि है जो अपने यथोचित सम्मान, भारत के ‘नायक वर्ग’ में अपनी हिस्सेदारी के लिए संपूर्ण निष्ठा के साथ कार्य कर रहा है. बिहार के बक्सर का भोजपुरीभाषी राहुल जिसे न मानक के अनुरूप ‘ढंग’ की हिंदी बोलनी आती है और न सामान्य भारतीय अंग्रेजी, जो अपनी संवाद शैली में अपूर्णता के लिए प्रायः अपने इंजीनियरिंग बैकग्राउंड को दोष देता रहता है, जिसने संवाद और भाषाई शैली में खोट होने के बाद भी ‘असाधारण’ रूप से मात्र दो साल के भीतर उत्तराखंड के सरकारी पाठशाला, मध्य प्रदेश के विद्युत उत्पादन में अग्रणी और सामाजिक विकास में अत्यंत पिछड़े सिंगरौली जिले के अंचलों में, मध्य प्रदेश के आदिवासी ग्रामीण क्षेत्रों, दिल्ली के तमाम सामाजिक संगठनों में काम किया है, जो भारत में प्रतिभा के मूल्यांकन के मानकों से इतना क्षुब्ध है कि वह बिहार के मुख्यमंत्री बनते ही अपने कार्यकाल के पहले दिन ही अंग्रेजी को बिहार के सभी लोगों के लिए अनिवार्य करने का स्वप्न देखता है और भारत में स्पर्धा के मूल्यांकन के प्लेटफॉर्म को सपाट बनाने के लिए जीना-मरना चाहता है. राहुल सबको अंग्रेज़ीदां बनाना चाहता है, महान आधुनिक भारतीय समझ के हिसाब से वह सभी को नायक बनाना चाहता है, राहुल के बाद सभी नायक होंगे इसलिए वही असली मायनों में बिहार का आखिरी नायक होगा.

अगर मैं राहुल के बिहार के आखिरी नायक होने का विश्लेषण कर रहा हूँ तो सबसे पहले मुझे इस बात का विश्लेषण करना चाहिए की नायक कौन है? पहला नायक कौन था? क्या बिहार का पहला नायक भी बक्सर का ही था? बक्सर हमारे विश्लेषण का अहम हिस्सा है, वही बक्सर जो कभी बंगाल की आख़िरी चौकी था, आज भी वो गेटवे ऑफ़ बिहार है. इतिहास में पूरब का जो भी आदमी दिल्ली जीतना चाहता था वो अगर बक्सर को पार कर जाता था तो सीधे दिल्ली के तख़्त में अपनी हिस्सेदारी तय कर लेता था, सासाराम बिहार के एक सूर ने अफ़ग़ानी शहज़ादे बाबर के बेटे हुमायूँ के हुक्म को मानने से इंकार करके दिल्ली के नए नवेले मुग़ल तख़्त को सीधी चुनौती दी थी, बादशाह हुमायूँ उस गुस्ताख सूबेदार को सबक सिखाने पूरब किनारे निकले, जब जनाब हुमायूँ बक्सर से वापस आ रहे थे तो पूरे बादशाह ही नही बचे थे.  सासाराम के सूबेदार शेरशाह ने बक्सर के चौसा में हुमायूँ को सीधी चुनौती दी थी, वहां मुग़ल बादशाह के पाँव उखड़ गए और उनके हाथ से दिल्ली छूट गया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल की दीवानी प्लासी के युद्ध में ही जीत ली थी लेकिन उसके हिंदुस्तान जीतने का सपना बक्सर के युद्ध से साकार हुआ, जब कुछ हज़ार की अंग्रेज़ी टुकड़ी ने मुग़ल बादशाह, अवध के नवाब और अपने ससुर को प्लासी में धोखा देकर शाही तख़्त में आसीन हुए बंगाल के नवाब की भारी भरकम सेना को आसानी से धूल चटा दिया, बक्सर का युद्ध जिसे भारत के ‘नायक’ हिंदुस्तान का वियना सीज लिखेंगे, वो वियना जिसे दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आक्रान्ताओं ने जीत लिया और ‘देशज’ लोगों की संस्कृति से ‘नायकों’ को पैदा करना शुरू कर दिया.

अंग्रेजों के ‘सर’ लार्ड मैकाले ने भारत से ‘नायकों’ के उत्पादन वाली फ़ैक्टरी विकसित करने की योजनाओं के संदर्भ में अपने पिता को एक पत्र में लिखा था की उसकी योजना बर्बर भारतीय समाज से ऐसे ‘नायकों’ को पैदा करेगी जो अपने रूप-रंग से तो हिन्दुस्तानी होंगे लेकिन अपने विचार और समझ से यूरोपीय होंगे, जो भारत के ‘अमानवीय’ संस्कृति को परिष्कृत करके इसे वैश्विक यूरोपीय संस्कृति के जैसी बना देगी, ये फारसी और संस्कृत जैसी कमजोर भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी को भारतीय भाषा के रूप में परिवर्तित कर देगी. ( यह बात अलग है कि संस्कृत भाषा में पणिनि द्वारा लिखे गये अष्टाध्यायी ने भाषा-विज्ञान एवं शब्दों के विज्ञान को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, स्विस भाषाविज्ञानी Ferdinand de Saussure द्वारा भाषा और शब्दों के विज्ञान से पश्चिम के दर्शन में हस्तक्षेप के बाद पणिनि का प्रभाव पुरातन विचारकों में सुकरात, प्लेटो, अरस्तू की तिकड़ी के बाद सबसे ज्यादा है, स्ट्रक्चरलिस्ट और पोस्ट-स्ट्रक्चरलिस्ट विषयों का असली पितामह कश्मीर का एक संस्कृत व्याकरण-शास्त्री है[1]) मैकाले अपने पिता को लिखे पत्र में बिलकुल सही थे, लार्ड मैकाले ने मरने के डेढ़ सौ सालों बाद इस देश से असंख्य ‘नायकों’ को उत्पन्न कर दिया है, जिन्हें राष्ट्र के दिमाग को मैकाले के विचार से द्वन्द करने के लिए, स्वतंत्र करने के लिए कार्य करना चाहिये था, अब नायक हो गये हैं. जो मैकाले के सपनों का नायक था वही आज भी भारत का नायक है, उन्हीं नायकों से भारत में ‘नायक वर्ग’ का मिथ्य गढ़ा गया है. मैकाले का स्वप्न ही भारत के नायक वर्ग की अपील है.

मैकाले ने भारत में नायकों के उत्पादन के लिए भले ही सबसे पहले एक व्यवस्थित प्रस्तावना लिखी हो लेकिन उसकी भारतीय नायकों की फ़ैक्टरी से कई साल पहले भारत को इसका एक नायक मिल गया था, वो नायक जिसने भारत के लोगों को अंग्रेजी अधिनायक के प्रवक्ताओं की तरह ही बर्बर, अमानवीय कहकर संबोधित किया. भारत का पहला नायक बंगाल की आखिरी चौकी बक्सर के एक मुसलमान नाई का बेटा था, उसके अब्बा कंपनी की सेना में अफ़सर थे और 7 वर्षों के युद्ध में कहीं कंपनी के लिए शहादत प्राप्त की थी. भारत के पहले ‘नायक’ के पिता जी द्वारा सेना के लिए किये गए ‘महत्वपूर्ण’ कार्य के बदले उसके परिवार को पटना में क्वार्टर दिया गया था उसने वहीं उसी क्वार्टर से उसने अपने नायक होने का सपना देखा, 12 वर्ष की उम्र से ही कंपनी के लिए काम करने वाला यह सिपाही मात्र 25 वर्ष की उम्र में हिंदुस्तान को हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया और बाद में भारत का पहला नायक बना. उसने ब्रिटेन में अपनी अच्छी पहचान बनाई, एक स्कॉट लड़की के परिवार वालों से भागकर शादी रचाई, भारत में प्रचलित ‘चम्पू’ को ‘शैम्पू’ कहकर यूरोप में बेंचा, आज हम जो अमेरिका, पेरिस, लंदन की बहु-राष्ट्रीय ब्रांडो का शैम्पू इस्तेमाल करते हैं ये बक्सर के एक नाई का यूरोप और दुनिया पर उपकार है.

भारत के पहले ‘नायक’ शेख दीन मोहम्मद ने भारत के अपने जीवन के अनुभवों पर इंग्लैंड के नायकों के लिए एक किताब लिखी, उससे पहले किसी एशियाई ने अंग्रेजी भाषा में कोई किताब नही लिखी थी,  The Travels of Dean Mahomet, a Native of Patna in Bengal, Through Several Parts of India, While in the Service of the Honourable the East India Company. Written by Himself, in a Series of Letters to a Friend[2]. उसने इस किताब में अपने 35 पत्रों के माध्यम से 1770 से लेकर आने वाले 10 सालों में हिंदुस्तान के अपने जीवन का जिक्र किया है, कैसे 2 मील लम्बे अंग्रेजी सेना के काफ़िले को पटना से मुंगेर और भागलपुर होते हुए कोलकाता पहुँचने में लगभग 4-5 महीने लग गये, उसने जिक्र किया की रास्ते में दो जगह उसके काफ़िले के साथ ‘असभ्य’ क्षेत्रीय लोगों ने लूटपाट की, सेना ने उन ‘असभ्यों’ नाक-कान काटकर उनको घुमा कर सभी दूसरे ‘असभ्यों’ को एक सबक सिखाया, आश्चर्यजनक रूप से ब्रिटेन के नायकों को 1770 के हिंदुस्तान का जिक्र करते हुए बक्सर के पहले नायक ने उस साल पड़े बंगाल के सूखे का जिक्र नही किया, 1770 के भारत का सूखा इतिहास की सबसे बड़ी मानवजनित तबाहियों में से एक है, वह सूखा उस दौर की बंगाल प्रेसीडेंसी की एक तिहाई आबादी को लील ले गया था, युद्धों को छोड़ दें तो आधुनिक मानवजनित त्रासदियों से सबसे बड़ी कम्बोडिया के कम्युनिस्ट तानाशाह पोल पॉट की सत्ता ने कम्बोडिया के एक चौथाई लोगों को ही मारा था. भारत के पहले नायक ने सड़क पर कांपते पैरों के लाश हो जाने का जिक्र नही किया, उसकी कहानियों में हिंदुस्तान बर्बर लोगों का देश है जिसे अँग्रेज़ खुशहाल/आबाद कर रहे हैं. भारत के पहले नायक के पत्रों के संग्रह को पढ़ते हुए मुझे लग रहा था कि मानो वो मैकाले की भावी योजना की (देशीय) भूमिका लिख रहा है.

“मैंने अपने मित्र राहुल की कहानी में इतिहास को एक संदर्भ की तरह जोड़ दिया है, मेरे विचारों में एक विषय के रूप में इतिहास बेहद बोझिल है, इसमें विश्लेषण का महत्व तथ्यों से ज्यादा है. मैंने बक्सर की बात को एक तथ्य या तथ्य-बिंदु के रूप में प्रस्तुत किया है न की इतिहास के रूप में, आने वाले तथ्य-बिंदु भी ऐसे ही हैं, वो तारीख या तवारीख का विश्लेषण नही कर रहे हैं बल्कि कहानी के लिए तथ्य-बिंदु की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं.”

‘नायक’ की दुनिया में ‘देशीय’ लोगों का मतलब असभ्य, पिछड़े एवं गरीब लोगों से होता है, नायक असभ्य दुनिया को सभ्य बनाना चाहता है, वह इन सबको मुक्त करना चाहता है, नायक अपने आप को इस दुनिया का उद्धारक समझता है. मैकाले भी इस दुनिया का उद्धार करना चाहता था, आज का नायक भी इस दुनिया का उद्धार करना चाहता है. नायक अपने उद्धारक होने की छवि के आगे दूसरे के ‘आत्म’ को हमेशा लील जाता है, नायक परग्राही होता है, वो दूसरे की आत्मीय चेतना का ग्राह करता है, जो परग्राही है वो हिंसक है, नायक हिंसक है. आत्मबोध से स्वयं को नायक मानकर चलने वाले व्यक्ति की प्रवृत्ति में सबसे ज्यादा नायक का विपरीत होता है.

एक स्वतंत्र चिंतक की हैसियत से मैं नायक होने की तमाम मौजूद अवधारणाओं को संदेहास्पद दृष्टि से देखता हूँ, अपने दोस्त राहुल के ‘नायकवादी’ रूप को भी अस्वीकार्य मानता हूँ, उसके नायकत्व होने से असहमति होने के बावजूद भी मैं राहुल को खलनायक की दृष्टि से नही देखता हूँ, नायक का विपरीत खलनायक नही होता है, वास्तविक दुनिया में बम्बईया फिल्म उद्योग या साहित्यिक नायकवाद की तरह नायक का कोई ‘असाधारण’ महत्व नही है, दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यथार्थ या यथार्थवाद की दुनिया में भी नायक का एकक्षत्र राज है, नायक होने का अर्थ है यथार्थ के तमाम गौण प्रतिनिधियों को एक विषय (नायक के विषय, नायक के विश्लेषण का विषय) के रूप में बदल देना, नायक की दृष्टि से देखा गये व्यक्ति का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व/अस्तित्व नही है. अलग अलग दुनिया (साहित्यिक अथवा वास्तविक) के नायक अपने विचारों से दुनिया को मुक्त बनाना चाहते हैं, वह अपनी चेतना/अवचेतना के अनुभवों के आधार पर सभी व्यक्ति/इकाई को एक-रूप बनाकर, मूलतः अपने हितों को साधने के लिए नायक बन जाते हैं, नायक होना स्वयं में केंद्र हो जाना है, एकपक्षीय होना है, अलोकतान्त्रिक होना है. केंद्रीकृत होने का स्वभाव व्यक्ति में एक नायक को जन्म देता है, केंद्रीकृत होने का स्वभाव व्यक्ति को एकपक्षीय बनाता है, केंद्रीकृत होने का स्वभाव व्यक्ति को अलोकतांत्रिक बनाता है. केंद्र और नायक के सवालों का दायरा विस्तृत है, वह असंख्य सवालों को जन्म देता है, उनमें से एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या आज की केंद्रीकृत शासन प्रणाली नायकों के उत्पादन की प्रणाली है? क्या वह सबसे अलोकतांत्रिक है? क्या मैकाले हमारे अवचेतन मन से जोंक की तरह लिपटा हुआ है? क्या मैकाले का ‘नायक’ हमारी सबसे बड़ी और क्रूर सच्चाई है?

राहुल कोई खलनायक नही है, वह अपने चेतन व अवचेतन अनुभवों के आधार पर अपने दर्द को अपने समूह के असंख्य लोगों के दर्द की तरह देखता है, वह अपने जैसे सभी लोगों को मुक्त करना चाहता है. मुक्ति का स्वप्न कभी किसी को नायक या खलनायक नही बता सकता है, मुक्ति का असल स्वरूप (व्यक्ति के समूहों में) इतना उलझा हुआ है कि वह किसी नायक द्वारा नही किया जा सकता है या किसी खलनायक द्वारा नही रोका जा सकता है. खलनायक संबंधी अवधारणा का यदि स्वतंत्र रूप से विश्लेषण किया जाए तो नायकवादी दुनिया में जो नायक के अधिपत्य को अस्वीकार करता है वह खलनायक है, विश्लेषण का अगला चरण दिखाता है कि नायक अथवा खलनायक का भेद नायक की सत्ता को मजबूत दिखाने का उपकरण है, धर्म या धर्म के शिल्पकारों ने संभवतः जब नायक या नायक के बहाने अपनी सत्ता को स्थापित करना चाहा होगा तो उन्होंने खलनायक को कल्पित किया होगा, हम नायक और खलनायक के भेद के बाद नायक को सर्व मान लेते हैं और खलनायक को निषिद्ध कर देते हैं, महिषासुर को खलनायक बता कर हजारों वर्ष तक सत्ता ने उसको निषिद्ध किया है, आज की धार्मिक चर्चाओं में एक धारा उसी खलनायक महिषासुर को नायक मानती है. नायक और खलनायक का भेद अतार्किक है, यह ‘नायक’ की सत्ता को मजबूत करने का एक उपकरण है, किसी भी स्वतंत्र चेतना का विश्लेषण नायक अथवा खलनायक के प्रश्न से मुक्त होकर होना चाहिए. नायक लोगों को व्यक्ति से विषय बना देता है और खलनायक का विचार उस प्रक्रिया में उसका सबसे बड़ा उपकरण है.

नायक संबंधी प्रश्नों से भी ज्यादा जटिल प्रश्न है की राहुल को व्यक्ति से नायक बना देने की मुख्यवृति क्या है? जैसे मैकाले के नायक बनाने की मुख्य वृति भाषा है, वह भाषा को नायकत्व प्राप्त करने का हथियार मानता है वैसे ही राहुल भाषा के आधार पर नायक बने कुछ मानस के एकाधिकार को तोड़ना चाहता है, वह सबको नायक बनाना चाहता है. राहुल स्वयं नायक बनने की दिशा मे है, भविष्य में वह सबको इस दिशा में ला देगा. बेहद अस्पष्ट तौर से ही सही लेकिन मैं इस बात को कह सकता हूँ कि राहुल की अवचेतना से उसके आत्म/सत्य को मिटाया गया है, वह अब सबके अवचेतन से उनके वर्तमान/आत्म को मिटाना चाहता है. वर्तमान युग ने यातना देने के माध्यमों में अप्रत्याशित उन्नति कर ली है, वर्तमान युग के सदके लोगों को सदैव शारीरिक रूप से नही प्रताणित करते हैं, वह उनके कान में सीसा डालने की बात नही करते हैं, वह उनकी अवचेतना को मारते हैं, उनके सपने देखने की दृष्टि पर प्रहार करते हैं, अवचेतना पर प्रहार करके वो सोचने की शक्ति पर सीधा प्रहार करते हैं, ये क्रूर सदके मुक्तिकामी व्यक्तियों को भी एक समय बाद विषय में बदलने में कामयाब हो जाते हैं, एक व्यक्ति के विषय में परिवर्तित होने के बाद ही उसमें नायक का जन्म होता है. भाषा व्यक्ति को एक विषय एवं नायक बनाने की सबसे महत्वपूर्ण वृत्तियों में से एक है, भाषा एक उपकरण की तरह काम करती है, वह अधिनायकवाद की मुख्य संरचना है, वह मैकाले की दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण हथियार है. मेरा दोस्त व्यक्ति से विषय बनता जा रहा है, जिस दिन वह स्वतंत्र व्यक्ति के हैसियत से भारत के नायकों का विश्लेषण करेगा तो वह उन नायकों को एक विषय के रूप में पाएगा, उन नायकों के पास आत्म के रूप में कुछ नही है, न आत्म के तौर पर कोई समझ है और न ही किसी प्रकार की मौलिक मौलिकता. वह नायक बनने की प्रक्रिया में ही मैकाले संजाल में फंसे हुए हैं, उन्होंने उपनिवेशवाद के विचारों को आत्मसात कर लिया है, वह पश्चिम के आधिपत्यवादी विचारों के विषय हैं.

मेरा दोस्त राहुल अपने यथोचित सम्मान के लिए ही सही लेकिन मैकाले की दृष्टि में काम कर रहा है, अवचेतन में ही सही इस राष्ट्र के सभी ‘नायक’ मैकाले के संदेशवाहक हैं, इस देश के सामान्य लोगों ने अपने नायकों में मैकाले के अंश पर मौलिक होकर सवाल उठाना नही शुरू किया है, मैकाले की वृति देश के अवचेतना/सपनों को मार रही है और मैकाले के संदेशवाहकों ने इस देश में स्वयं को ‘नायक वर्ग’ में परिवर्तित कर रखा है, एक अधिनायक देश के लोग खुद को विषय बनाने से इंकार कर देंगे, तब नायक बनने के झूठ का पर्दाफ़ाश हो जायेगा, इस देश में ‘नायक वर्ग’ का तिलिस्म भी टूट जायेगा और मेरे दोस्त राहुल जैसे मेहनतकश औसत भारतीय ग्रामीण व्यक्ति को भी उसकी मेहनत का यथोचित सम्मान मिल जायेगा.

मुझे लगता है कि (निबंधनुमा लेख) में लेख के शिल्पकार द्वारा लिखे किसी उप-संहार/निष्कर्ष/conclusion का कोई महत्व नही रहता है, तथ्यों के आधार पर पाठक निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र होता है, पढ़ने वाला अपने महत्व, समझ या पूर्वाग्रह के अनुसार किसी सार तक पहुँच सकता है. निष्कर्ष के नाम पर बहुधा लेखक/शिल्पकार तथ्यों के बहाने पाठक पर अपनी समझ थोप देता है. यदि मैं शिल्पकार के नाम किसी अंतिम बिंदु/निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए बाध्य हूँ तो मैं कहूँगा कि राहुल नायक भी है, राहुल खलनायक भी है, राहुल न नायक है, राहुल न खलनायक है.

[1]. स्वतंत्र विश्लेषण, विचाराधीन

[2] Dean Mahomet (Author), Michael Fisher (Editor), कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा 1997 में प्रकाशित

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रूसी लेखक सिर्गेइ नोसव की कहानी ‘फ्रीज़र’

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रूसी लेखक सिर्गेइ नोसव की कहानी का अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास ने-

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आख़िरकार रात के दो बजे केक आ ही गया. दो टुकड़े खाने के बाद – एक अपने लिए और एक शौहर के लिए, – मार्गारीटा मकारोव्ना को टी.वी. की तलब आई, अपने प्यारे कॉमेडी-कलाकारों को देखने का जी चाहने लगा. वह हिम्मत करके डाइनिंग रूम से बाहर निकली और दूसरी मंज़िल पर भी चढ़ गई, जहाँ क्रिसमस ट्री की ख़ुशबू फैली थी, मगर टी.वी. तक वह पहुँच ही नहीं पाई – निढ़ाल होकर उससे सात कदम की दूरी पर आरामदेह कुर्सी में धंस गई, समझ गई, कि अब उसमें उठने की और टी.वी. चालू करने की शक्ति नहीं है, उसने गहरी सांस छोड़ी, पस्त हो गई और ऊँघने लगी.

जल्दी ही हॉल हल्की-हल्की आवाज़ों से भर गया. हेल्थ-रिसॉर्ट के दर्जनों रहने वाले यहाँ आ पहुँचे, जिससे कि एक दूसरे के मन में डर पैदा कर सकें, – उनका दिल ‘ख़ौफ़नाक घटनाएँ’ सुनना चाह रहा था, ये है नये साल का अटपटापन. मार्गारीटा मकारोव्ना सुन रही थी, मगर ग्रहण नहीं कर रही थी. सब लोग दबी ज़ुबान में बात कर रहे थे, जिससे मार्गारीटा मकारोव्ना जाग न जाए, मगर असल में, इस प्रोजेक्ट की तरफ़ दूसरे कोण से देखा जाए, तो…ख़ौफ़नाक कहानियाँ हमेशा इसी तरह से तो सुनाई जाती हैं.

वहाँ आए हुए लोगों में ज़्यादातर महिलाएँ ही थीं, – धीमी, रहस्यमय आवाज़ों में रक्तपिपासु सांप्रदायिकों के बारे में, सीरियल किलिंग्स के बारे में, इन्सानों को खाने वाले नकाबपोशों के बारे में बातें हो रही थीं. ऊँघ के बीच मार्गारीटा मकारोव्ना ने तीसरी मंज़िल के स्पोर्ट्स-वीकली के संवाददाता कोस्त्या सलव्योव की मौजूदगी को महसूस किया. छुट-पुट फिकरों की वजह से उसके अपने पति, मैमालोजिस्ट रस्तिस्लाव बरीसोविच ने भी अपनी उपस्थिति का एहसास करवाया. लगता है, कोई और मर्द नहीं थे.

नहीं, मार्गारीटा मकारोव्ना दहशतभरी बकवास को नहीं सुन रही थी, उसे तो खुमानियों के केक की याद आ रही थी, – वो सपना भी, जिसमें वह लुढ़क गई थी, मीठा, ख़ुशनुमा, खुमानी जैसा था.

(बस, प्लीज़, मुझसे ये न पूछिए, कि मार्गारीटा मकारोव्ना को कैसा सपना आ रहा है इसके बारे में मुझे कैसे मालूम है; मैं तो लेखक हूँ!… बस, ऐसा ही था.)

इस बीच कोस्त्या सलव्योव ने, जहाँ तक टी.वी. के ऊपर रखी प्रकाश की एकमात्र स्त्रोत मोमबत्ती इजाज़त दे रही थी, महिलाओं के जामों में शैम्पेन डाल दी. बिजली, ज़ाहिर है, बंद कर दी गई थी.

“डियर लेडीज़,” बेख़याली से सलव्योव की उपस्थिति को अनदेखा करते हुए रस्तिस्लाव बरीसोविच ने इस समूह को संबोधित करते हुए कहा, “जो कुछ भी आप यहाँ कह रहे हैं, ख़तरनाक हद तक दिलचस्प है. मगर आप किसी और के साथ हुई घटना के बारे में बात कर रही हैं, न कि आपबीती सुना रही हैं. जब तक मेरी बीबी सो रही है, आपको एक अचरजभरी घटना के बारे में सुनाता हूं, जो ख़ुद मेरे साथ हुई थी. ग्यारन्टी के साथ कहता हूँ, कि आपकी पीठ और पैरों में ठण्डक दौड़ जाएगी.

महिलाओं में काफी उत्सुकता दौड़ गई. रस्तिस्लाव बरीसोविच ने, शायद अनुमान लगा लिया, कि सोती हुई बीबी का ज़िक्र करने से उसकी बात का गलत मतलब लगाए जाने का ख़तरा है. उसने फ़ौरन स्पष्ट किया:

“नहीं, नहीं. मार्गो को ये किस्सा बहुत अच्छी तरह से मालूम है. और वैसे भी, मैं कई सारी बातों के लिए उसका शुक्रगुज़ार हूँ…आप अंदाज़ा नही लगा सकते कि उसने कैसे उस समय मेरा साथ दिया. उस घटना के बाद मुझे भयानक नर्वस-ब्रेकडाउन हो गया था. मगर उसने मुझे उससे बाहर निकाला, अपने पैरों पे खड़ा किया. ये लब्ज़ इस्तेमाल करने से मैं हिचकिचाऊँगा नहीं, उसने मुझे बचाया.

उसने प्राकृतिक यूरोपियन बालों से बना उसका ‘विग’ ठीक किया जो एक किनारे को खिसक गया था.

“सोने दें थोडी देर,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने भावुकता से कहा. “कभी ये मेरे साथ क्लिनिक में नर्स का काम करती थी.”

“छोडो, छोडो,” उपस्थित लोगों ने रज़ामंदी दर्शाई. “आप सुनाइये, रस्तिस्लाव बरीसोविच, ये इतना दिलचस्प है.”

रस्तिस्लाव बरीसोविच ने अपनी कहानी शुरू की:

“ये किस्सा मेरे साथ हुआ था, पेर्वोमायस्क  शहर में….”

तभी सलव्योव ने उसकी बात काटते हुए पूछा:

“कौन से वाले पेर्वोमायस्क  में? कहीं वही तो नहीं, जो आजकल स्तारोस्कुदेल्स्क कहलाता है?”

“देखिए, जानता है आदमी,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने ख़ुशी से कहा. “स्तारोकुदेल्स्क – ये शहर का प्राचीन ऐतिहासिक नाम है. बस, प्लीज़, सिर्फ ये न कहिये, कि आप वहाँ जा चुके हैं.”

“जा चुका हूँ? हाँ, मैं वहां प्रादेशिक अखबार में मशक्कत करता था! पंद्रह साल पहले.”

“वाह!” रस्तिस्लाव बरीसोविच ज़ोर से चहका, बीबी बस जागते-जागते रह गई. “सुना आपने?! मैं भी…पंद्रह साल पहले…एक हादसे में फँस गया था!…”

“क्या हम मिल चुके हैं?” सलोव्येव ने आँखें सिकोड़ते हुए अपनी याददाश्त पर ज़ोर देते हुए पूछा.

“सवाल ही नहीं है. मैं पेर्वोमायस्क  में सिर्फ कुछ घंटे ही था. इकतीस दिसम्बर को, इत्तेफ़ाक से! और सिर्फ दो लोगों को छोड़कर मैं वहाँ किसी से भी नहीं मिला था. अच्छा बताइये तो सही, चूंकि आप अख़बार में काम करते थे, तो शायद आपको पता होगा, कि पेर्वोमायस्क  में लोग कहीं बिना कोई निशान छोड़े गायब तो नहीं हुआ करते थे?”

“उस समय तो पूरे रूस में लोग गायब हो जाया करते थे, ऐसे हालात थे,” सलोव्येवने उड़ते-उड़ते जवाब दिया.

“नहीं, बल्कि पेर्वोमायस्क  में, पेर्वोमायस्क  में?” रस्तिस्लाव बरीसोविचने फिर से कोशिश की. “कहीं वहाँ कोई ‘सीरियल किलर’ या साफ़-साफ़ पूछूं तो, ‘सीरियल किलर्स’ तो नहीं थे?…”

सवाल से परेशान सलोव्येव बुदबुदाया :

“वैसे तो, मैंने वहाँ सिर्फ चार महीने ही काम किया था. नया साल आते-आते मैं मॉस्को आ गया था.”

“तब, ठीक है,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने कहा, “आपको पता नहीं चला होगा…”

महिलाएँ, जिनकी उत्सुकता चरमसीमा तक पहुँच गई थी, एक सुर में मांग करने लगीं, कि फ़ौरन कहानी शुरू की जाए.

“तो, ये अजीब घटना मेरे साथ पेर्वोमायस्क  में हुई,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने दुहराया, उसके बाद आराम से जाम की शैम्पेन ख़तम की और ग़ौर से बीबी की तरफ देखा: मार्गारीटा मकारोव्ना कुर्सी में पूरी तरह समाकर, सुकून से सो रही थी,

और उसने कहानी आगे बढ़ाई.

और करीब बीस मिनट में पूरी कर दी.

इन बीस मिनटों के दौरान रस्तिस्लाव बरीसोविच हॉल का आकर्षण केंद्र बना रहा.

सुननेवालियाँ, जैसा कि बाद में उन्होंने स्वीकार किया, काफ़ी चकित थीं, और कई तो परेशान भी थीं, रस्तिस्लाव बरीसोविच के अजीब से, भरोसा दिलाते, करीब-करीब स्वीकारोक्ति जैसे अंदाज़ ने (कम से कम, सभी पर, एक साथ, गहरा असर डाला था) – वैसे भी “डरावना” किस्सा सुनाने वाले से किसी ने भी असली उत्तेजना की उम्मीद रखने की जुर्रत नहीं की. बाद में, जब इस सनसनीखेज़ किस्से को सेनिटोरियम की सभी मंज़िलों पर बार-बार सुनाया जाएगा, और पार्क के बर्फ साफ किये गए गलियारों में एक साथ या दो-दो के गुटों में टहलते हुए रस्तिस्लाव बरीसोविच की अजीब किस्मत पर चर्चा होगी, वे सभी, जिन्होंने इस किस्से को ख़ुद उसीके मुँह से सुना था, रस्तिस्लाव बरीसोविच के बयान करने के अंदाज़ को, उसकी ख़ासियत को याद करने का और उस पर गौर करने का एक भी मौका नहीं छोडेंगे: जोश, विश्वसनीयता, स्वीकारोक्ति. ये सही है, कि ऐसे शक्की लोग भी मिल जाएँगे (ख़ासकर, उनमें जिन्हें किस्से को घिसे पिटे तरीके से बार-बार दुहराए जाने के परिणामस्वरूप मोटे तौर पर इसका सारांश पता चला है) जो कहेंगे : वो, जिसे तुम जोश, विश्वसनीयता, स्वीकारोक्ति समझ रहे हो – शायद सिर्फ एक आम, भलीभांति आत्मसात् की गई ट्रिक है, जो महिलाओं की सभा में तुरंत सफलता के लिए अपनाई जाती है. मगर इस बात पर बहस कौन करेगा, कि रस्तिस्लाव बरीसोविच, किस्सा शुरू करते समय, अच्छी तरह समझ रहा था, कि वह किसके सामने और क्यों अपनी कहानी सुना रहा है; अगर उसने स्वयम् को इस छोटे से नाटक का रचयिता समझ लिया, तो फिर क्यों नहीं? – वह एक अच्छा एक्टर भी बन सकता था. ज़्यादा महत्वपूर्ण बात ये है, कि किस्सा सुनाते हुए, वो, सभी की राय में, ख़ुद ही कुछेक बातें समझना चाह रहा था, – ये सबको याद रहेगा. मतलब, रस्तिस्लाव बरीसोविच का किस्सा, एक स्थानीय लोक-कथा बन जायेगा और न केवल इस शिफ्ट के, बल्कि आने वाली शिफ्टों के – अप्रैल तक के, और शायद मई के भी टूरिस्ट्स के बीच चलता रहेगा. कोस्त्या सलव्योव, प्रादेशिक अख़बार में अपने ‘मशक्कत’ के अनुभव को याद करके, इस किस्से को एक साहित्यिक रचना के रूप में प्रस्तुत कर देगा, मगर, अफ़सोस, उसके हाथ रचनात्मक असफ़लता ही आयेगी. पहली बात, वो, पेर्वोमायस्क  के जीवन से भली भांति परिचित होने के कारण, अपने लेखकीय ‘स्व’ को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करेगा, और दूसरी बात, परिणामस्वरूप – पेश करने के अंदाज़ में मात खा जायेगा. वाकई में, रस्तिस्लाव बरीसोविच के मौखिक स्वगत-कथन को लिखित रूप में प्रस्तुत करना बेहद मुश्किल है. साहित्यिक परिष्करण के बिना काम नहीं चलेगा. अगर काबिल व्यक्तियों में से कोई रस्तिस्लाव बरीसोविच के अत्यंत भावावेशपूर्ण स्वगत-कथन को उचित दिशा में हल्के से सुधार कर (जैसे, ‘प्यारी महिलाओं’ के प्रति अत्यधिक आग्रहों को घटा कर और भावनाओं के अतिरेक को कम करके), अपने शब्दों में सुनाने का निर्णय करे, तो वो कुछ इस तरह का हो सकता है.

इस तरह का.

“तुलना के लिए माफ़ करें, मेरे दोस्तों, मगर मैं था कौन?… मैं था, परवाने जैसा, जो शमा की ओर लपकता है. परवाने जैसा!…

सोचिये, उसका नाम था फ़इना. इसके बाद मैं कभी भी किसी फ़इना से नहीं मिला.

शुरुआत कुछ पहले ही हुई थी…नये साल से करीब तीन महीने पहले.

मैं ये नहीं बताऊंगा कि हमारी मुलाकात किन परिस्थितियों में हुई, मगर क्यों नहीं? – ये हुआ था ग्लीन्स्का में, रेल्वे स्टेशन पर, मुझे मॉस्को जाना था, उसे, बाद में पता चला, पेर्वोमायस्क, मतलब, आज के स्तारोस्कुदेल्स्क. हम अलग-अलग टिकिट-खिडकियों के सामने खड़े थे, मेरा नंबर बस आ ही गया था, मगर उसे अभी काफ़ी देर तक कतार में खड़ा रहना था. वो कोई किताब पढ़ रही थी. उसने मुझे नहीं देखा था, हालाँकि अब मुझे शक है, कि पहले किसने किसको देखा था, आज मुझे इस बात का भी यकीन नहीं है, कि वो वाकई में ख़ूबसूरत थी, जैसा मुझे तब प्रतीत हुआ था. हो सकता है, कि मुझे पहले चुना गया था, भीड़ से अलग करके, – हो सकता है, कि मैं किसी मानसिक धोखे का शिकार बन गया था, जैसे जिप्सी लोग करते हैं. वैसे, उसमें कुछ जिप्सियों जैसी बात तो थी, और, सबसे पहले, बेशक, उसकी आँखें – काली, जैसे, पता नहीं क्या…जैसे बेपनाह गहरे दो छेद. मगर आँखें मैंने थोड़ी देर बाद देखीं – जब हम करीब आये. मतलब, मैं उसकी ओर एकटक देखने लगा, जो, स्वीकार करना पड़ेगा, कि अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं करता हूं – भीड में किसी औरत की ओर एकटक देखना, मगर मैं किसी पागल की तरह उसकी ओर आँखें गडाए था, और ऊपर से मैं कतार की दिशा के  विपरीत मुड गया, – देखा और इस बात से हैरान हो गया, कि दूसरे लोग उसकी तरफ़ क्यों नहीं देख रहे हैं? सही में, कोई भी नहीं देख रहा था. सिर्फ मैं अकेला ही देख रहा था. क्या इसका कोई ख़ास मतलब है?…तो, बात इसीके बारे में है.

आगे का घटनाक्रम इस प्रकार है. वो किताब में देख रही है, और मैं उसे देख रहा हूं; अचानक वह पढ़ना रोक देती है, जैसे महसूस कर रही हो, कि लोग उसकी ओर देख रहे हैं, और अचूकता से, बिना किसी सहायता के मुझ पर नज़र गड़ा देती है. और, मैं क्या करता हूँ? मैं हाथ के इशारे से उसे बताता हूँ, कि यहाँ खड़ी हो सकती है, मेरे आगे, – प्लीज़, मैं आपको जाने दूँगा. और वो, मुझे ऐसा लगा, कि थोड़ा सा हिचकिचाकर, आँख़ों से मुझे धन्यवाद देते हुए हमारी कतार में आ जाती है और मेरे आगे खड़ी हो जाती है, और मैं, उसकी आँखों में झांकते हुए, यूँ ही किसी से कह देता हूँ ‘हम एक साथ हैं’ और आँखें हटाकर देखता हूँ, कि वह किताब को पर्स में रख रही है, और वहाँ, पता है, कवर के ऊपर कोई विकृत व्यक्ति था और शीर्षक कुछ इस तरह का ‘विध्वंसक आएगा सोमवार को’. पूछता हूँ: “दिलचस्प है?’ – “अरे नहीं, क्या कह रहे हैं,” वो जवाब देती है, “फालतू बकवास है!” – “तो फिर क्यों पढ़ रही हैं?” और पता है, उसने क्या जवाब दिया? उसने जवाब दिया : “मज़ेदार है.”

उसका पेर्वोमायस्क का टिकट बनाने में काफी देर लग रही थी, तब ग्लीन्स्का में रेल्वे काउन्टर्स पर कम्प्यूटर नहीं थे, मालूम नहीं है, कि अब हैं या नहीं; कैशियर लगातार कहीं फोन किये जा रही थी, खाली बर्थ्स के बारे में सूचना मांग रही थी, और मैं उसके पीछे खड़ा था…अरे, नहीं, कैशियर के नहीं, ख़ैर, बेवकूफ़ीभरे सवाल क्यों पूछ रहे हैं?…उसके पीछे खड़ा था और मुश्किल से अपने आप पर काबू कर रहा था, जिससे उसे अपनी बांहों में न भर लूँ, जिससे उसके गालों को होठों से न छू लूं.

देखिये, आपके सामने मैं अपना दिल खोलकर रख रहा हूँ. वर्ना तो कहानी बनेगी ही नहीं.

तो ऐसी बात है. मैं उसके साथ प्लेटफॉर्म पर आया, हम स्टेशन के पास वाले छोटे से बगीचे में गए, वहां बीयर के स्टाल्स हैं, सिमेन्ट का घण्टे के आकार के फूल का फव्वारा है, मतलब – भूतपूर्व, मैपल्स के पेड हैं, वो मुझसे कहती है : “आप उदास क्यों हैं, उदास नहीं होना चाहिए”. मैं जोश से कहता हूं: “ ये आपसे किसने कह दिया, कि मैं उदास हूं?” वो कहती है : “साफ दिखाई दे रहा है”. और उस समय मैं कई असफ़लताओं से जूझ रहा था, मुझे पूरी दुनिया से नफ़रत हो गई थी, जीने की ख़्वाहिश ही नहीं रह गई थी. अपने मरीज़ों से नफ़रत हो गई थी, स्तनों की बीमारियाँ, मेरी प्रैक्टिस भी उन दिनों बेहद बुरी चल रही थी…”उदास न हों, देखिए, कितना अच्छा है”. और वाकई में बहुत अच्छा था: पतझड का मौसम, गिरते हुए पत्ते (अगर,बेशक, गंदे प्लेटफॉर्म से कल्पना की जाए तो). और तब मैं अचानक उसके सामने खुल गया, अपने बारे में बताने लगा. मुझ पर ये कैसा भूत सवार हो गया था? फिर मैं कल्पना की दुनिया में खो गया : सुख, भाग्य, मगर क्या-क्या कह डाला, याद नहीं – शायद लचर बातें थीं. मगर वो बड़े ग़ौर से मेरी बातें सुन रही थी, मैं भी इसीलिए कहे जा रहा था, क्योंकि मैं देख रहा था, कि वह कैसे मेरी बातें सुन रही है. पता नहीं, मुझमें ऐसी क्या ख़ासियत थी, मगर, एक आम बात को भी उसने अनदेखा नहीं किया, उस प्यारी लड़की ने. वो, प्यारी महिलाओं, आपको अच्छी तरह मालूम है: हमारे भाई को पटाना बेहद आसान है, अगर उससे उसकी विशेषता का ज़िक्र कर दो. हद से हद, जब ‌आह, प्यारे, और किसी के भी साथ इतना अच्छा नहीं लगा था, जितना तुम्हारे साथ”, पर हमारी छोटी-मोटी खूबियाँ भी, जब उनकी तारीफ़ की जाती है, तो बदले में प्यार जताने के लिए प्रेरित करती हैं. मैं पूरा का पूरा पिघल गया, जब उसे मेरे बयान करने का तरीका, कैसे कहूँ, ‘ख़ास’ प्रतीत हुआ. मतलब, उसे मुझमें कोई योग्यता नज़र आई, जैसे कुशाग्र बुद्धि, विरोधाभास. जैसे, इस तरह की बात कभी किसी से सुनी नहीं हो. जैसे कि मैंने उसके सामने मानव-स्वभाव को खोलकर रख दिया हो. इस बात के लिए धन्यवाद देते-देते रह गई, कि मैं दुनिया में हूँ. इस पर मैं कहता तो क्या कहता? कुछ नहीं. मगर मैंने उसके दिल को जैसे छू लिया था, ऐसा लगा. किसी तरह.

याद नहीं, कि कैसे हमने एक दूसरे के फोन नंबर लिये, और क्या ये हुआ था? – जैसे नहीं हुआ था, मगर मेरा पर्स जिसमें उसका पता और टेलिफोन नंबर था, मॉस्को में किसी ने पार कर लिया, मगर उसके पास मेरा नंबर, मतलब, रह गया.

हाँ, हमारी बातचीत करीब चालीस मिनट चली, चलो घंटे भर. उसकी ट्रेन आई, मैंने उसे कम्पार्टमेन्ट तक छोड़ा. बिदा लेते हुए उसने मुझे चूमा, जैसे किसी अपने को चूम रही हो. अगर बुलाती, तो मैं वैसे ही उसके पीछे-पीछे पेर्वोमायस्क चला जाता. ताज्जुब की बात है, कि नहीं गया, – मॉस्को में उस समय मेरे पास कोई ख़ास काम नहीं था.

शायद, मैं किसी और मुलाकात के लिए अपने आप को तैयार कर चुका था.

उसने मुझ पर सम्मोहन कर दिया था, मैं आपसे कहूँगा. मगर, प्यार मैं कर नहीं सकता था, नहीं कर सकता था. ये मेरा अंदाज़ नहीं है. मैं अपने आप को अच्छी तरह जानता हूँ.

इस बीच मेरे साथ ऐसा हुआ!

मॉस्को वापस लौटता हूं – जैसे पूरी तरह बदल गया हूँ – अपने आप में नहीं हूँ, दूसरा ही इन्सान बन गया हूँ. औरत के रूप में औरतों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई – किसी भी औरत में नहीं, सिर्फ एक को छोड़कर, इस पेर्वोमायस्कवाली को छोड़कर. और ऊपर से, माफ़ कीजिए, ‘सेक्स’ की इतनी चाहत पैदा हो गई, या अगन?…कि उसके बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है, वर्ना अश्लील प्रतीत होगा. आप तो ख़ुद ही जानती हैं, कि डॉक्टर सनकी होते हैं, और मैं भी अपवाद नहीं हूँ, मगर यहाँ तो, जैसे कोई जुनून पैदा हो गया था!… ओह, अपनी कल्पना को मैं कैसे हवा दे रहा था! जैसे मैं कोई मुँहासे भरा स्कूली बच्चा हूँ, न कि पैंतीस साल का मेडिकल सायन्स का विशेषज्ञ! तो, मेहेरबानी करके मुझे बताइये, इसके बाद क्या मैं उसे शैतान नहीं समझूँगा?

जल्दी ही, सही में, ये सब रुक गया.

मगर कुछ ही वक्त के लिए.

दिसम्बर की बीस वाली तारीखों में टेलिफोन की घंटी बजती है. कानों पर भरोसा नहीं करता: फइना! अपने छोटे भाई के साथ नया साल मनाने के लिए पेर्वोमायस्क आने की दावत दे रही है. बस ऐसे ही दावत दे रही है. जैसे मैं बगल वाली सड़क पर रहता हूँ.

अब मैं आपसे पूछता हूँ: इस हरकत का क्या मतलब है? ज़ाहिर है, कि इसका मतलब सिर्फ निमंत्रण ही नहीं, बल्कि कुछ और भी है. मुझे अच्छी तरह याद है, कि कैसा आश्चर्य हुआ था – मानना पडेगा, बहुत अच्छा लगा था – मेरे ही फैसले पर, क्योंकि मैंने एक भी मिनट के लिए नहीं सोचा था, कि जाना चाहिए या नहीं. और वैसे, ऐसा लग रहा था, कि पहल मैंने की है, न कि उसने. उसने क्या कहा था? “हम,” बोली थी वो, “मेरे छोटे भाई के साथ मिलकर नया साल क्यों नहीं मना सकते?” समझ रहे हैं ना, ये सवाल था, सिर्फ एक सवाल. और मैं फ़ौरन बोला: “ओह,” कहता हूँ, “कितना ग़ज़ब का ख़याल है!” – “तो फिर, आ जाइये, आपसे मिलकर हमें ख़ुशी होगी.”

और मैं चल पड़ा. इकतीस दिसम्बर को. चल क्या पड़ा – चल नहीं पड़ा – लपका! और अगर उस समय कोई मुझसे कहता, कि मुझ पर किसीने जादू कर दिया है, तो मैं उस बेवकूफ़ के मुँह पर थूकता, इतनी स्वाभाविक मुझे प्रतीत हो रही थी  मेरी ललक.

नहीं, झूठ बोल रहा हूँ. जब पेर्वोमायस्क नज़दीक आ रहा था, मन में संदेह थे. सब कुछ इतनी आसानी से हो गया था. हो सकता है, कि मैंने बाद में ऐसी कल्पना की, मगर, मेरे ख़याल से, नहीं, – एक उत्तेजित करने वाला ख़याल था – चिढ़ाता सा, अपने आप को चिढ़ाता हुआ: जैसे, अभी प्लेटफॉर्म पे उतरोगे, और काली आँखों वाली सुंदरी के बदले खड़ी मिलेगी पोपले मुँह, लम्बी नाक वाली बुढ़िया: “क्या, प्यारे, पहुँच गए?”

और पता है, अगर उस समय वाकई में मेरे दिमाग़ में ये बकवास ख़याल आ सकता था, तो अपने गुज़रे हुए अनुभव को देखते हुए, स्वीकार करना पड़ेगा, कि वो बेवजह नहीं आया था…मगर, चलिए, सब कुछ सिलसिलेवार बताता हूं!

मेरा स्वागत किया गया था. मैं प्लेटफॉर्म पर उतरा और मैंने उसे देखा, और वो मुझे और भी ज़्यादा आकर्षक लगी, उससे भी ज़्यादा, जितनी ग्लीन्स्का में लगी थी. उसने बड़ी बड़ी बटनों की दो कतारों वाली, लम्बी काली ड्रेस पहनी थी, सिर पर कुछ नहीं था, और वो घिनौनी चीज़, जो आसमान से गिर रही थी, और जो बिल्कुल बर्फ जैसी नहीं थी, बड़े आश्चर्यजनक तरीके से उसके घने काले बालों में आकर्षक, चमकदार, पन्ने जैसी ओस की बूंदों में बदल रही थी. और सर्दियाँ बिल्कुल सर्दियों जैसी नहीं थीं, कुछ बेहूदा सी चीज़ थी. नया साल और बाहर का तापमान +4 डिग्री!

“मिलो, ये है मेरा भाई , गोशा”. – मतलब, वह मेरे साथ ‘तुम’ पर उतर आई थी, बिना किसी हिचकिचाहट के. मैंने भी सोचा : बढ़िया है!

महाप्रलय पूर्व की ‘पहले’ मॉडेल की ‘वोल्गा’ से, जो तब भी प्राचीन एवम् दुर्लभ वस्तुओं में शुमार किये जाने लायक थी, मैं शाम के पेर्वोमायस्क का नज़ारा देख रहा था. करीब छह बज रहे थे, अंधेरा हो गया था. गोशा कार चला रहा था. उसे फिसलन भरे कीचड़ से होकर गाड़ी चलाना पड़ रहा था, बर्फ लगातार पिघल रही थी और बह रही थी. वह मज़ेदार तरीके से कार से बातें कर रहा था, कभी उसे नाम से संबोधित करता, प्यार से – ब्रोन्का, ब्रोनेच्का, ब्रोन्याशा. “ब्रोनेविक” (बख्तरबन्द गाडी) इस शब्द से,” – फइना ने कहा.

उनके साथ मुझे हल्का लग रहा था.

वे मुझे शहर के अंतिम छोर तक ले गए. वे लकड़ी के दुमंज़िले मकान में रहते थे, जो उन्हें माता-पिता से मिला था. उसमें अनगिनत कमरे थे, छह से कम तो थे ही नहीं. फइना मुझे घर दिखाने ले गई. ये है स्वर्गीय माता-पिता का कमरा, वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं है, ये है गोशा का कमरा, ये रहा गोशा का फोटोस्टूडिओ, बहुत बडे फोटो-एनलार्जर के साथ, जो पुरानी एक्सरे मशीन की याद दिलाता था…ग़ौर कीजिए, मैं गोशा की फोटोग्राफी के नमूने देख ही नहीं पाया (कल्पना कर सकता हूँ कि वहाँ कैसे-कैसे फोटोग्राफ्स होंगे!).

नहीं, कुल मिलाकर गोशा मुझे तब अच्छा लगा था, मगर अब मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ, कि वो किसी सनकी जैसा था, बहन से भी ज़्यादा. पहली बात, मेरे बारे में अपनी राय का वह ज़रा ज़्यादा ही खुलकर प्रदर्शन कर रहा था. दूसरी, उसका बर्ताव भी काफ़ी भेद भरा लग रहा था, जैसे उसे कुछ मालूम है, जिसे वो छुपा रहा है. तीसरी बात, वह बहुत भेंगा था, हालाँकि इससे उसे कार चलाने में ज़रा भी मुश्किल नहीं हो रही थी, मगर जिसके कारण मैं उससे बात नहीं कर पा रहा था, – मैं समझ नहीं पा रहा था, कि उससे बात करते समय मुझे किस आँख की तरफ़ देखना है; अंदाज़ से उस वाली की तरफ़ जो तुम्हें देख रही है, मगर दोनों ही कहीं और ही देख रही थीं.

सच कहूँ, तो मैंने गोशा से बहुत बातें नहीं कीं; वह मुझे फइना के साथ अकेले छोड़ने की कोशिश कर रहा था. उस समय मुझे महसूस हो रहा था, कि मेरी फइना के साथ आश्चर्यजनक रूप से अच्छी जम रही थी, दोनों तरफ़ किसी किस्म का दबाव नहीं था. जैसे इससे पहले हमने एक दूसरे के साथ सिर्फ एक घंटा नहीं, बल्कि आधी ज़िंदगी बिताई हो. बेशक, बिना हिप्नोसिस के ये हो नहीं सकता था. हालाँकि मैं ‘मैमालोजिस्ट’ हूँ, पर मनोविज्ञान की भी मुझे थोड़ी बहुत समझ है. इस घटना के बारे में मेरा एक अपना सिद्धांत भी है, मगर उसे यहाँ नहीं बताऊँगा. मुझे उनके घर में अटपटापन महसूस नहीं हो रहा था. और वो भी मेरे आने से अचकचा नहीं रही थी. जैसे लंबी जुदाई के बाद पति पत्नी के पास आया हो. ऊपर से, काफ़ी इंतज़ार के बाद. इस घर में जैसे मैं अपनापन महसूस कर रहा था, चाहे घर की हर चीज़ पहली बार ही क्यों न देखी हो.

जब वो मुझे मेरे वाले कमरे में ले जा रही थी, तब गोशा किचन में बर्तनों की खड़खड़ाहट कर रहा था. हर चीज़ मेरे लिए सजाई गई थी, सब कुछ साफ़-सुथरा था. थोड़ी शरम आई थी मुझे, याद है, लाल कम्बल देखकर: क्या लाल रंग का कोई ख़ास मतलब था? – मगर, मानता हूँ, कि उस समय तो मुझे पलंग की चौड़ाई ने आकर्षित किया था, क्योंकि चौड़ाई के इस आयाम से मेज़बान के इरादों का अप्रत्यक्ष रूप से आभास हो रहा था. और पलंग – सिंगल बेड नहीं था…मुझे लगा, कि फइना मेरे ख़याल पढ़ रही है, तभी मैंने फ़ौरन – उसकी ओर देखा! – और मुझे लगा: जैसे होठों पर पतंगे की परछाईं है… वह कुछ कहते-कहते रह गई. और उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे कॉरीडोर में ले आई. और मेरे कान में फुसफुसाई: “पता है, मैं बहुत ख़ुश हूँ, कि तुम आए हो”. वह कॉरीडोर में जा रही थी, और मैं उसके पीछे था, और तब मैंने फ़ौरन वो कर डाला, जो तब, रेल्वेस्टेशन की टिकिट खिडकी के पास नहीं कर पाया था: मैंने उसे रोक कर अपनी बाहों में ले लिया. ऐसे, पेट पकड़कर. उसने हौले से, बिना मुड़े, अपने आप को मेरे आलिंगन से ये कहते हुए आज़ाद किया: “मेज़ पर जाना चाहिए”, मतलब ये कहना था, “डाइनिंग टेबल सजाना है”, – और आगे चल पडी, अबूझे, शैतानी आकर्षण क्षेत्र से मुझे अपने पीछे-पीछे घसीटते हुए.

हम तीनों ने मिलकर मेज़ सजा दी, मैं, सच कहूँ, तो बस इधर-उधर डोलता रहा, क्योंकि फ्रीज से ओलिविएर सलाद और ड्रेस्ड हैरिंग निकालने में तो कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. उन्होंने काफ़ी सारी चीज़ें बनाई थीं. वो साल, अगर आपको याद हो, हमारे देश के लिए भरपेट अनाज वाला नहीं था. मगर नए साल की मेज़ – एक पवित्र बात है. ये सभी के यहाँ होता है. मैं भी साथ में कुछ लाया था, – याद है, कैवियर का डिब्बा, वोद्का, शैम्पेन. क्रिसमस-ट्री के नीचे चुपके से दो डिब्बे रख दिए – उनके लिए गिफ़्ट्स. मगर गोशा ने देख लिया: “देखो तो, सान्ता क्लॉज़ आया था, साथ में कुछ तो लाया था”. इस पर वो सवालिया जवाब देती है: “और सान्ता क्लॉज़ वाला हमारा ‘सरप्राइज़’ क्या है? शायद, अभी? या बाद में?” – “चल, अभी”, – गोशा कहता है.

वो मुझे कमरे से कहीं भी न जाने के लिए कहते हैं और सरप्राइज़ के लिए निकल जाते हैं. मुझे, छुपाऊँगा नहीं, अच्छा लग रहा था. मैं इंतज़ार करता हूँ, उनके आपसी संबंधों पर ख़ुश होता हूँ.

अच्छे संबंध हैं. बहुत ही प्यार से, मिलजुलकर रहते हैं. आधे शब्द से ही एक दूसरे को समझ लेते हैं. वैसे, सच में, अजीब तरह से बातें करते हैं – एक दूसरे की ओर करीब-करीब देखे बिना, कम से कम, मेरी मौजूदगी में, – ये, जैसे गलती ढूँढ़ने पर ही उतर आओ तो…तब मैंने इस बात को कोई महत्व नहीं दिया था, मगर अब सोचता हूँ: ऐसा कहीं इसलिए तो नहीं था, कि वो अपनी आपसी समझ को मुझसे पूरी तरह छुपाना चाहते थे, वर्ना, संभव है कि मैं षडयंत्र को ताड जाऊँगा?

मगर उस समय मेरे मन में ये ख़याल भी नहीं था. मैं सुखी था, जितना दुनिया में कोई और नहीं हो सकता. और मुझे ऐसा लग रहा था, कि मेरे साथ कोई अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक घटना हो रही है, जैसे मैं ख़ुद कोई दूसरा इन्सान बन जाऊँगा, कि मैं फिर कभी भी, कभी भी पहले की तरह जी नहीं पाऊँगा. एक ख़ामोश खुशी ने मेरे अस्तित्व को सराबोर कर दिया था. और इन क्षणों में पूरी दुनिया मुझे साफ़-सुथरी, सुंदर नज़र आ रही थी, – जैसे किसी नर्म ब्रश से उसकी धूल झटक दी गई हो.

हालांकि विचित्रता के हल्के से एहसास ने, मानना पड़ेगा, मुझे छोड़ा नहीं था. बेशक. सब कुछ बड़ी आसानी से, हौले से हो गया था, मेरी ज़रा सी भी कोशिश के बगैर.

सुन रहा हूँ: ऊपर चल रहे हैं, कोई चीज़ सरका रहे हैं, ‘सरप्राइज़’ निकाल रहे हैं.

तभी मुझे याद आया कि मैंने वोद्का फ्रीज़र में नहीं रखी थी.

बोतल लेता हूँ, फ्रिज के पास जाता हूँ, फ्रिज का दरवाज़ा खोलता हूँ…(मैंने शाम को फ्रिज में कई बार झांका था, मगर फ्रीज़र एक भी बार नहीं खोला था)…मतलब, मैंने फ्रीज़र खोला.

तो.

और, करीब पूरे पंद्रह साल हो गए, जब मैंने फ्रीज़र खोला था. अगर बिल्कुल सही-सही कहूँ तो पंद्रह साल और चार घंटे, दस मिनट कम-ज़्यादा.

तबसे कितना पानी बह गया है, कितनी सारी घटनाएँ हो चुकी हैं!…जैसे, मैंने शादी कर ली…हाँ…मार्गारीटा मकारोव्ना से…

नर्व्हस ब्रेकडाउन…अगर वो नहीं होती…

अच्छा. माफ़ कीजिए…मैं कुछ अंदाज़ तो लगा सकता हूँ, कि फ्रीज़र के बारे में आप क्या सोच रहे होंगे, और किसी हद तक वो सही भी होगा, मगर सिर्फ कुछ हद तक. मैं कोई भी शर्त लगाने के लिए तैयार हूँ, कि आप कल्पना भी नहीं कर पाएँगे कि फ्रीज़र में क्या था.

तो! उसमें थे दो जूते! दो बिल्कुल नये, काले जूते! बर्फ से ढँके हुए!

क्या माजरा है?

मैंने बोतल रखे बिना फ्रीज़र बंद कर दिया, कुर्सी पर बैठ गया और सोचने लगा. दिमाग पूरा सुन्न हो गया था! एक भी विचार नहीं. एक भी कैफ़ियत नहीं!

सैद्धांतिक रूप से ये माना जा सकता था, कि एक जूता फ्रीज़र में रखा जा सकता था किसी बेहद भुलक्कडपन के कारण…मगर सिर्फ एक!…मगर यहाँ तो दोनों हैं!

हो सकता है, मज़ाक हो? तो इसमें हँसने वाली बात क्या है?

मेरा सिर फटने को हो रहा था. मुझे लग रहा था, कि पागल हो जाऊँगा. मैंने सोच लिया कि ये मेरा भ्रम था. अपने आप पर यकीन नहीं हो रहा था.

तब मैंने फिर से फ्रीज़र खोला…जूते! मैंने गौर से देखा और मुझे जूतों से मुश्किल से झाँकती जुराबें नज़र आईं. मैंने एक जूता उठाया और मुझे महसूस हुआ कि वो खाली नहीं है, उसमें कुछ है!… मैंने उसे फ्रीज़र से बाहर निकाला, मैंने जूते के भीतर झांक कर देखा और मैंने बर्फीली चिकनी सतह देखी, किनारे तक आती हुई…समझ रहे हैं?…कोई कटी हुई चीज़, बर्फ बन चुकी कटी हुई चीज़!…एक अमानवीय भय ने मुझे दबोच लिया, मेरे होश बस खो ही गए थे!…

और मुझे पल भर में ही कुछ और भी याद आ गया – उसकी किताब किसी हत्यारे के बारे में, और खून जैसा लाल कंबल, और दो हाथों वाली आरी, जिसे संयोगवश प्रवेश द्वार के पास देखा था…और उनकी बातें भी याद आईं: “क्रिसमस-ट्री तिरछी खड़ी है”. – क्योंकि उसे तिरछा काटा गया है”. – “किसका कुसूर है?” – “मिलकर ही तो काटा था!” – “तू बड़ा आरी चलाने में माहिर है”. – “और तू?”

और भी बहुत कुछ याद आया.

और उनके कदम नज़दीक आ रहे थे. वे दरवाज़े के पास खड़े थे – अपना मनहूस ‘सरप्राइज़’ लिए! मैं सुन रहा था, कि वे कैसे फुसफुसा रहे हैं, जैसे दरवाज़े के पीछे किसी बात पर चर्चा कर रहे हों…

और फिर, जैसे मेरी आँखों से परदा हट गया!

जैसे मुझसे किसी ने कहा: “अपने आप को बचा, बेवकूफ़!”

और मैं खिड़की की ओर लपका – वो बंद थी! और पूरी ताकत से अपने आपको चौखट पे दे मारा, दोहरी चौखट पे, और दोनों चौखट साथ लिए उड चला, बाग में!…कैसे छिटका था, दिमाग़ समझ नहीं पाया!…

फेन्सिंग फांदी, और पूरे पेर्वोमायस्क के नये साल के उस चिपचिपे कीचड़ से होकर भागा रेल्वे स्टेशन की ओर! ये तो अच्छा था, कि पैसे पतलून की जेब में थे, और जैकेट भी था, मगर वो वहीं रह गया!

मेरी किस्मत अच्छी थी: पौने बारा बजे एक ट्रेन वहाँ से गुज़रने वाली थी. मुझे पहले कम्पार्टमेन्ट की टिकट दी गई, और वहाँ कण्डक्टर्स नया साल मना रहे हैं. कोई और नहीं था, मैं अकेला ही पैसेन्जर था! पूरी ट्रेन में – मैं इकलौता पैसेन्जर!…उन्होंने मेरे लिए गिलास में वोद्का डाली, ठण्डी. मेरे हाथ काँप रहे थे. मैंने आपबीती सुनाई. कण्डक्टर्स को बहुत अचरज हो रहा था, बोले, कि मैं किस्मतवाला हूँ. ऐसा था किस्सा.”

तो ऐसा किस्सा – शायद, कुछ अलग लब्ज़ों में – अपने बारे में सुनाया रस्तिस्लाव बरीसोविच ने.

रस्तिस्लाव बरीसोविच की कहानी से स्तब्ध होकर सभी श्रोता एक मिनट चुप रहे. मोमबत्ती की लौ किसी चुम्बक के समान नज़रों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. कुछ देर इंतज़ार किया, कि कहीं रस्तिस्लाव बरीसोविच कुछ और तो नहीं जोड़ने वाला है. उसने आगे कुछ नहीं कहा. बस, ख़ामोशी… सोई हुई मार्गारीटा मकारोव्ना की नाक सूँ-सूँ कर रही थी.

ख़ामोशी को तोड़ा दूसरी बिल्डिंग की एलेना ग्रिगोरेव्ना ने, जो फर्स्ट रैंक की टैक्स इन्स्पेक्टर थी. उसने सावधानीपूर्वक कहा, कि रस्तिस्लाव बरीसोविच ने चालाकी से लोगों को हैरान कर दिया था, आसान शब्दों में – वह लोगों की भावनाओं से खेल रहा था – उसकी कहानी एकदम अविश्वसनीय है.

विरोध के सुर सुनाई दिए. ये घोषित किया गया, कि रस्तिस्लाव बरीसोविच की कहानी में कई सारे ऐसे विवरण थे, जो कपोल कल्पित नहीं थी. जैसे, वो ही जूते फ्रीज़र में…अगर उसे फ्रीज़र में जूते नहीं, बल्कि कोई और पारंपरिक चीज़ दिखाई देती, तो तब कहानी की विश्वसनीयता पर संदेह किया जा सकता था…मगर जूते! जूते क्यों? किसलिए? ऐसी चीज़ की कल्पना नहीं की जा सकती.

रस्तिस्लाव बरीसोविच से जूतों का रहस्य जानने की कोशिश की गई, मगर उसने अपनी कहानी की व्याख्या करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसके पास इस संबंध में कोई ढंग का स्पष्टीकरण था ही नहीं.

और वो ‘सरप्राइज़’…क्या सरप्राइज़ था? किसलिए?

“यहाँ काफी कुछ ऐसा है, जो तर्कहीन है,” रस्तिस्लाव बरीसोविच ने कहा. “मैं अक्सर दिमाग़ से सोचता हूँ, मगर यहाँ कुछ न सोचना ही बेहतर है.”

पूछने लगे: उसने पुलिस में रिपोर्ट दी थी या नहीं?

“नहीं. पता नहीं क्यों, मगर कोई चीज़ मुझे ऐसा करने से रोक रही थी.

लोग उसका धिक्कार करने लगे. गुस्सा भी करने लगे.

और तब सलव्योव उठा, जो अब तक चुप बैठा था. वो हॉल के बीचोंबीच आया. मोमबत्ती उसकी पीठ के पीछे जल रही थी, उसका चेहरा छाया में था, मगर उसके लगभग अदृश्य चेहरे से भी साफ़ ज़ाहिर हो रहा था, कि सलव्योव बेहद परेशान है.

“रस्तिस्लाव बरीसोविच, आपने बिल्कुल सही किया, कि कहीं भी रिपोर्ट नहीं की!”

एकत्रित समूह अविश्वास से चीख़ा. शोर होने लगा.

“आप सबसे ज़्यादा मैं चौंक गया हूँ!…” स्पोर्ट्स-जर्नलिस्ट सलव्योव सबको एक साथ संबोधित करते हुए चहका, उसने कहा, “अविश्वसनीय संयोग!…एक शानदार सिलसिला!…पता है, इस सबमें कुसूरवार कौन है?…मैं!…मैं अकेला और सिर्फ मैं!…चाहे तो मेरे टुकडे कर दो!…आप मेरी तरफ इस तरह क्यों देख रहे हैं?…अब, जैसे आपके हाथों से मछली की गंध आ रही है, मिसाल के तौर पे!…क्या करेंगे?…नींबू निचोड़ देंगे!…और जब प्याज़ काटते हैं, तो आप कुछ भी चबा रहे नहीं होते?…बस, इसीलिए रोते हैं!…कुछ चबाना चाहिए!…पेचकश के बिना बोतल?…आँ?…ये सब मेरा ही किया धरा है!…सब मेरा!…कैसे खोलें!…मैं यही सब करता था!…”

सभी स्तब्ध होकर सलव्योव की ओर देख रहे थे – कोई भय से, कोई ख़ौफ़ से : ये, वाकई में, बहुत अजीब है, जब इन्सान आपकी नज़रों के सामने पागल हो जाता है. मगर तभी सलव्योव फिर से रस्तिस्लाव बरीसोविच से मुख़ातिब हुआ:

“वो, जिसे आप जुराबें समझ रहे थे, जो जूतों से बाहर झांक रहे थे, असल में पॉलिथीन की थैलियाँ थीं, यकीन कीजिए, ये सचमुच में ऐसा ही था!…समझाता हूँ!…सब लोग सुनिए!…जब मैं अख़बार में काम करता था, मैं उसमें एक कॉलम लिखता था :घर के लिए उपयोगी सलाह”!…सारे अख़बारों में ऐसे कॉलम होते थे!…याद है?…ख़ैर, मैं आपको समझाता हूँ…कुर्सियाँ…कुर्सियों से फर्श पर खरोंचें पड़ती हैं!…क्या किया जाए? उनकी टांगों में वाइन की बोतलों के प्लैस्टिक के ढक्कन पहना दीजिए!…या फिर: आपको जूते पॉलिश करने हैं…बढ़िया! पुराने स्टॉकिंग्ज़ इस्तेमाल कीजिए और कोई समस्या ही नहीं!…और अगर जूते?…अगर जूते तंग हों तो?…क्या करें जब जूते तंग हों तो?…तो ऐसे मतलब, मुझे याद आया, कि जब मैं स्कूल में था, तभी हमारे फ्लोर वाले पडोसी ने मुझे सिखाया था, कि जूतों को चौड़ा कैसे करना चाहिए…और मैंने अख़बार में छाप दिया!…बेहद आसान है: जूतों में पॉलिथीन की थैली रखना चाहिए, उसे पानी से भरकर जूतों को अपने फ्रिज के फ्रीज़र में रख देना चाहिए!…पानी जमते हुए आयतन में फैलता है…”

“ये असंभव है!” रस्तिस्लाव बरीसोविच ज़ोर से बोला और झटके से उठ गया.

“आपको यकीन दिलाता हूँ, ये भौतिक शास्त्र का नियम है!…बर्फ फैलती है, जूता चौड़ा हो जाता है!… इकतालीस नंबर का जूता था, बयालीस का बन गया!…हाँ, हमारे इस प्रकाशन पर इतनी प्रतिक्रियाएँ आई थीं, आप क्या कह रहे हैं!…कई लोगों को विश्वास नहीं हुआ, कहते थे, ऐसा हो नहीं सकता, बर्फ को फैलने दो, मगर चमड़े को तो सिकुड़ना चाहिए, है कि नहीं?!…नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है!…अपने आप पर प्रयोग किया था!…आपको और क्या चाहिए? उस समय पेर्वोमायस्क में सिर्फ इकतालीस नंबर के जूते आये थे. मुझे याद है. और अगर आपको बयालीस नंबर की ज़रूरत हो तो? और तैंतालीस?…हाँ, हमारे पेर्वोमायस्क में मेरे इस प्रकाशन के बाद हर दसवें आदमी के जूते फ्रीज़र में रखे जाते थे!…और आप कह रहे हैं!…”

ये अंतिम शब्द सलव्योव ने रस्तिस्लाव बरीसोविच की अनुपस्थिती में ही कहे.

रस्तिस्लाव बरीसोविच मुँह से एक भी शब्द निकाले बिना हॉल से बाहर निकल गया था. सलव्योव के स्वगत भाषण में सब इतने मगन थे, कि किसी का भी इस ओर ध्यान नहीं गया.

लाइट जलाई गई.

तभी मार्गारीटा मकारोव्ना जागी.

“मैं जैसे ही शैम्पेन पीती हूँ, मेरी आँख लग जाती है.” उसके होठों पर मुस्कान थी: “बाग का सपना आया था…अफ्रीका, शायद?…पूरे नींबू के पेड…”

एलेना ग्रिगोरेव्ना ने, जो टैक्स इन्स्पेक्टर थी, सलव्योव के पास से गुज़रते हुए एक फ़ब्ती कसी:

“आपने बेकार ही में ये किया. वह अपने रहस्य को अपने भीतर समेटे रहता तो बेहतर था.”

“और मेरा शौहर कहाँ है? फिर ग़ायब हो गया?” मार्गारीटा मकारोव्ना ने अनचाही उबासी को हथेली से रोका. “क्या बॉक्स के लिए गया है?”

अब तक रस्तिस्लाव बरीसोविच को सभी मंज़िलों पर ढूँढ़ा जा रहा था. वह कहीं भी नहीं था.

मार्गारीटा मकारोव्ना भारी बदन से कुर्सी से उठी और धीरे-धीरे टेलिविजन की तरफ़ जाने लगी.

स्क्रीन भड़क उठा. हास्य कलाकारों का अगला प्रोग्राम चल रहा था.

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The post रूसी लेखक सिर्गेइ नोसव की कहानी ‘फ्रीज़र’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

आज़ादी को ज्यादातर लोग पाप समझते हैं.  

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पूनम दुबे को  पढ़ते हुए कई बार लगता है कि वह यात्राओं पर लिखने के लिए ही बनी हैं। इस बार उन्होंन एम्सटर्डम शहर पर लिखा है- मॉडरेटर

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एम्सटर्डम  में एक पूरा दिन ऐसे बिता जैसे कि कुछ पल हों. जाने से पहले तय किया था कि एम्सटर्डम में रेड लाइट एरिया के दर्शन के अलावा (जिसके लिए वह इतना पॉपुलर है) विन्सेंट वैन गो म्यूजियम और ऐनी फ्रैंक हाउस जरूर जाऊंगी.  दोनों ही मुझे बेहद पसंद है. करीब तेरह घंटों की लंबी बस यात्रा कर ढलती शाम के साथ मैं पहुंची एम्सटर्डम. बीच में दो घंटे जर्मनी में ब्रेक लिया था लेकिन लम्बी यात्रा के बाद थक गई थी इसलिए सोचा दूसरे दिन सवेरे ही निकलूंगी इस अनोखे शहर की खोज खबर लेने.

जिस हास्टल में मेरा बसेरा था वह ट्रेन स्टेशन के पास था. और उस स्टेशन को क्रॉस करता एक इंद्रधनुषी रंग का ब्रिज था जिसके सामने एक बोर्ड पर लिखा था- इन रिस्पेक्ट ऑफ़ इक्वलिटी एंड फ्रीडम ऑफ़ लेज़बियन, गे एंड ट्रांसजेंडर कम्युनिटी.

दूसरे दिन मौसम सुहावना था. डर लगा था कही बारिश न हो जाए लेकिन सूरज ने अपनी कृपा बरसा ही दी. 48 घंटे का लोकल ट्रांसपोर्टेशन पास लिया और ट्रैम लेकर निकल पड़ी म्यूजियम डिस्ट्रिक्ट की ओर.  ट्रैम में खिड़की के पास बैठे-बैठे मैं इस खूबसूरत शहर को निहारती जा रही थी.

एम्सटर्डम मुझे एक ऐसी मन मोहिनी अप्सरा सी लगी कि जिसकी तारीफ़ में जितने भी अल्फाज़ कहें जाये वह कम हैं. शहर के बीचोबीच पानी के कनाल का जाल सा बिखरा हुआ था. कनाल्स और जमीन को जोड़ती अनगिनत फूलों के क्यारियों से सजे खूबसूरत छोटे-छोटे पुल मन को मंत्रमुग्ध कर देते हैं. ऊपर नीले आसमान के तले कनाल के कुछ हरे से रंग के पानी पर तैरती खूबसूरत किश्तियाँ और उन किश्तियों पर सवार लोगों के चेहरे पर बिखरी मुस्कान खुशी का रंग बिखेर रही थी हवाओं में. सड़कों पर ट्रैम लाइन बिछी हुई थी. सायकिल और गाड़ी चालानें वालों की अलग लेन थी. लोग साइकिल पर सवार निकल पड़े थे दिन की शुरुआत के लिए. आस-पास सब कुछ इतने रिदम में हो रहा था जैसे कोई संगीत बज रहा हो.

म्यूजियम डिस्ट्रिक्ट पहुंचकर मैंने विन्सेंट वैन गो म्यूजियम की टिकट ली. लोगों की खूब भीड़ थी, मेरा नंबर ग्यारह बजे आने वाला था. जिसमें अभी समय था. हल्की धूप हर-भरे पेड़ और घासों से आती खुशबू पिकनिक के लिए बेस्ट दिन था.  मैंने अपना बैग सर के नीचे रखा और लेट गई नरम घास पर.

एम्सटर्डम में गाँजा-चरस पीना अलाउड है, जो कि आसानी से कॉफ़ी शॉप में मिल जाता है. इसलिए लोग बेझिझक कश लगाते हुए दिख जाएंगे. गार्डन में मेरे सामने एक लड़का बैठा कागज़ के टुकड़े पर अपना कश बना रहा था. बाल उसके लंबे-लंबे और साधुओं की तरह चोटी में गुँथे हुए थे. उत्सुकतावश मैं दूर से उसे देख रही थी. उसने कश जलाई और मेरी तरफ इशारा करते हुए ऑफर किया. मन ही मन सोचा क्यों न ट्राय कर लूँ लेकिन फिर म्यूजियम भी जाने का समय हो रहा था. मैंने मुसकुराकर मना कर दिया. वह बेल्जिम से आया था और करीब एक महीनों से एम्सटर्डम में ही रह रहा था. कहने लगा आर्टिस्ट बनना चाहता हूँ. वह पेंटिंग करना चाहता था. यह सुनते ही मुझे अपने डच दोस्त डैफने की याद आ गई. वह भी पिछले पांच सालों से इसी कोशिश में है. उसे अमेरिका में मिली थी. आजकल वह यूरोप के अलग-अलग हिस्सों में रहती है आर्गेनिक खेती करती है. और पेंटिंग करने की कोशिश करती है. हम दोनों ने साथ में एक बार मेंहदी लगाई थी. तब से जब भी वह मेंहदी लगाती है मुझे उसकी फोटो जरूर भेजती है.

“स्टारी स्टारी नाईट” के पेंटर विन्सेंट वैन गो को कौन नहीं जानता. विन्सेंट वैन गो  नीदरलैण्ड से थे. करीब चार घंटे बिता कर जब म्यूजियम से बाहर निकली तो मन भारी सा लगा. उनका जीवन बहुत ही कठिन था. उनके मृत्यु के बाद लोगों ने उनकी कला को समझा और उसे अहमियत दी. उनका मानना था कि जीवन की असल खूबसूरती प्रकृति और उनके आस-पास रहने वाले में होती है. इसलिए वह प्रकृति, किसानों और उनके जीवन से प्रेरित होकर पेंटिंग किया करते थे. उन्हें पेज़न्ट (किसानों) पेंटर भी कहा जाता है. “पोटैटो ईटर” उनकी बहुत ही प्रसिद्ध पेंटिंग है जिसमें किसान का परिवार दिन भर के काम के बाद एक साथ बैठकर आलू खाते दिखाई देते हैं. विन्सेंट वैन गो के बारे में जानते हुए मुझे हमारे देश के महान लेखक प्रेमचंद की याद आ गई. वह भी तो किसानों खेत खलिहानों और उनके जीवन से जुड़ी हुई कहानियां लिखते थे. उनके जीवन का अंत भी कितना दुखद था. यही सब सोचकर मन भारी हो गया. काश इन महान कलाकारों का इसका अंदाजा होता कि आने वाले भविष्य में वह कितने लोगों के प्रेरणा का स्रोत बनने वाले थे.

म्यूजियम से निकल कर चलते हुए मैं पहुंची ऐनी फ्रैंक हॉउस पहुंची. वहां जाकर पता चला टिकट बिक चुकी थी. थोड़ी निराशा हुई लेकिन फिर सोचा इसी बहाने एक बार फिर आऊंगी एम्सटर्डम.

प्लान के मुताबिक़ शाम को हम पहुंचे रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट. शोरूम की तरह शीशे के दीवारों के पीछे सजी-धजी लड़कियाँ ऐसे लग रही थीं जैसे मैनकिन हों. एक से एक खूबसूरत अप्सराएं बूथ पर बैठी अपने कस्टमर से मोल-भाव करती नजर आ रही थीं. एक तरह की आज़ादी ही तो थी कि वह मन मुताबिक़ खुद यह फैसला ले सकें. उत्सुकता बस मैंने भी एक लड़की से बात कर ली. वह यूक्रेन की रहने वाली थी कुछ साल पहले ही एम्सटर्डम आई थी. वह अपनी खुशी से इस व्यापार में थी. सैलानियों की भीड़ लगी थी उन्हें देखने के लिए. जगह-जगह बोर्ड पर लिखा था, “इन औरतों को इज्जत दें और कृपया इनकी तस्वीरें न खींचें.” कुछ लोग उनसे बेझिझक बातें कर रहे थे तो कुछ नजरें बचाकर बस देख भर लेते. कुछ लोगों की चेहरे पर जिज्ञासा थी तो कुछ के चेहरे पर गिल्ट की परछाई. पूरा डिस्ट्रिक स्ट्रिप क्लब, पोल डांस और पीप शो से भरा था. जैसे कि सामान्य बाजार हो, सब कुछ खुलेआम कोई छुपम-छुपाई नहीं.

“द फाल्ट इन आवर स्टार” के लेखक जॉन ग्रीन ने कहा है “कुछ यात्री सोचते हैं कि एम्स्टर्डैम सिटी ऑफ़ सिन (पाप) है, जबकि वास्तव में आज़ादी का शहर है. और आज़ादी को ज्यादातर लोग सिन (पाप) समझते हैं.

एम्सटर्डम की रेड लाइट एरिया में घूमते मुझे हुए कुछ ऐसा ही महसूस हुआ.

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अभिषेक रामाशंकर की तीन कविताएँ

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मैं जब सोचता हूँ कि अब कविताएँ नहीं पढ़ूँगा, जानकी पुल पर कविताएँ नहीं। तभी कोई कवि आ जाता है, कोई कविता आ जाती है और सोचता हूँ एक बार और लगा लेता हूँ कविताएँ। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे अभिषेक रामाशंकर की कविताएँ पढ़कर भी ऐसा ही लगा। आप भी पढ़कर बताइए ताज़गी है या नहीं- मॉडरेटर
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१.
एक वॉयलिनवादक रोज चर्च में संगीत देता है
मैं मंत्रमुग्ध उसे सुनता हूँ
हम शाम में चाय की दुकान पर मिलते हैं
मैं सिगरेट फूंकते उससे वॉयलिन सीखने की इच्छा प्रकट करता हूँ
वो बताता है उसने जघन्य पाप किये हैं
अपने पापों के प्रायश्चित के लिये बजाता है
क्या वो मेरे घर आकर बजा सकता है?
नहीं – वो कहता है
“संगीत एक ज़रिया है रूठे ईश्वर को मनाने का”
मैं उसकी पत्नी के बारे में पूछता हूँ
क्या वो मुझे मेरे गायन में मदद कर सकती है?
वो कहता है – वो सुंदर लड़की उसकी पत्नी नहीं है
– दोस्त है
क्या उसने भी पाप किये हैं?
हाँ – हम दोनों ने एक साथ
ये सुनकर मेरे मन में उमड़ता है एक सवाल
ऐसा कौन सा पाप है जो साथ में किया जा सके
और संगीत से धुल जाये
अगली सुबह मैं उस पाप की तलाश में भटकता हूँ
चर्च से आती हर संगीत को अनसुना कर देता हूँ
इस मुगालते में रहना कितना सुखद है कि मैंने कभी कोई पाप नहीं किया
और ख़ुद को ईश्वर मान लेना
२.
बारिश हुई थी
उग आई है घास जहाँ-तहाँ
बेतरतीब!
चर रही हैं गायें और घुटने के बल बकरियां
कुछ औरतें छील रही हैं घास…
कल फिर मारा है उसे उसके पति ने –
एक बताती है दूसरी को जिसका पति शराब और वेश्याओं का आदी है
वह कहती है उसका देवर उसे रातों को तंग करता है
सुनकर रो पड़ती है तीसरी
जिसकी बहन को लेकर उसका पति फरार है
और औरतें इकट्ठा होती हैं…
सब कोसती हैं अपने मरदों को –
गरियाती हैं – रोती हैं – कहती हैं एक दूसरे से
भाग चलते हैं कहीं दूर — बहुत दूर
अचानक बारिश शुरू हो जाती है
गायें रम्भाती हैं – बकरियां दौड़ने लगती हैं
औरतें अलग अलग लौटने लगती हैं
अपने अपने घरों को
गाते हुये अपना दुखड़ा
जिसे सुनता है सिर्फ़ उनका चूल्हा
रात होने को है अब आते ही होंगे उनके मरद
तोड़ने को रोटी और सिसकियां
औरतें नोच रही हैं घास
सदियों से
जो उग आई हैं बेतरतीब उनके अंतर्मन में
अकेले अपने अकेलेपन में
जहाँ शायद ही पहुँच सके किसी पुरुष के हाथ
३.
अँधेरा हमारे लिये एक अवसर ही रहा
सड़क पर आज इतनी भीड़ है
कि
मैं भूल भी जाऊं अपना पता
तो बहती इस भीड़ ने मुझे मेरे घर छोड़ आना है
नतीजतन
हमें विस्मरण हो चुका है
पशु और इंसान में फ़र्क
कोई भी आता है
और हमें हाँककर चला जाता है
मेरी बगल में खड़ा लड़का सिगरेट माँगते हुये मुझसे कहता है
वो इस बार यूपीएससी नहीं भरेगा
( गाली बकता है )
थक चुका है
रेलवे में घूसखोरी चल रही है
कहाँ नहीं है? हर जगह है!
बहन की शादी है
सात लाख में तय हुई
माँ का थाइरॉइड बढ़ चुका है
घर जाकर
व्यापार में पिताजी के हाथ बँटाना चाहता है
हताश है – निराश है – उदास है – परेशान है
कौन नहीं है?
मुझे अपने घर की याद आती है
मैं झटपट इस भीड़ से निकलना चाहता हूँ
मकानमालिक का किराया
दूध की उधारी
राशन का बकाया
मोबाइल का रिचार्ज
सिगरेट और चाय के पैसे
मैं कर्ज़ में डूबा हुआ अदना सा लड़का हूँ
भागता हुआ – तेज बहुत तेज
जो सारी दुनिया पीछे छोड़ देना चाहता है
मुझे रस्ते भर याद आती है
उस लड़के की बातें
मुझे सोने नहीं देगी आज उसकी हताशा
( मैं भी गाली बकता हूँ )
कमरे में अंधेरा है
बिस्तर की जगह ज़मीन पर गिर जाता हूँ
सोचता हूँ —
थाने में बैठा अफ़सर
चौराहे पे खड़ा हवलदार
नुक्कड़ का चौकीदार
दरवाजे का दरवान
कचहरी में घूमता वकील
ऊँची मेज़ से झाँकता मुंसिफ़
सरकारी दफ़्तर की खिड़की से हाथ बढ़ाता मुंशी
सचिवालय में कार्यरत क्लर्क
विश्वविद्यालय का दलाल
सब खुलकर माँगते हैं रिश्वत
रिश्वत – रिश्वत – रिश्वत
बस वो शख़्स जो खाता है शपथ उस किताब की
कहता है – मैं नहीं खाता
हमें दुहाई देता है गर्त में जाते लोकतंत्र की
मुझे वोट दो
मुझे वोट दो
मुझे वोट दो
मैं सब ठीक कर दूँगा.
वोट वोट वोट
रिश्वत रिश्वत रिश्वत
की तरह क्यों नहीं लगता?
सच है हमें कोई भी हाँककर चला जाता है
मैं रुआँसा हूँ
मुझे घर की याद आ रही है
मेरा बाप जो किसानी छोड़कर झूल गया है फंदा
माँ जो रख आई है गिरवी बहनों को जमींदारों के घर
भाई गुम गया है दिहाड़ी की तलाश में
ना जाने कहाँ?
और मैं — जिसे भेजा गया
पटना – दिल्ली, पढ़ने को
दस बाई दस के कमरे में बैठकर
लिख रहा हूँ कविता
नीचे सीढ़ियों से आ रही है आवाज़
एक बजने को है
शायद पहुँच चुका है डिलेवरी बॉय
मुझे अब जाना चाहिए
– अभिषेक रामाशंकर
पितृग्राम – सीवान ( बिहार )
दरभंगा कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक । कविताएँ पढ़ने और लिखने में रुचि ।

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ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘स्टील का बिल्ला’

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एनएसडी के ग्रेजुएट, फ़िल्मों-टीवी की दुनिया के वरिष्ठ पेशेवर ईशान त्रिवेदी के छोटे छोटे क़िस्सों का मेरे ऊपर ग़ज़ब जादू हो गया है। हर बार एक ताज़ा अहसास से भर देती हैं उनकी कहानियाँ। जैसे इसी कहानी को लीजिए- मॉडरेटर

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मेरे घर कामरेड सुरजीत सिंह आ रहे थे। सी पी एम् की सेंट्रल कमिटी के तीन सदस्य का ये जांच मुहिम था कि क्या हमारा क़स्बा दो दशक के आन्दोलनों के बाद इस लायक हो चुका है कि वहाँ से इलेक्शन लड़ा जाए। दिल्ली के कामरेड्स का आना हमेशा की तरह इस बार भी घर में काफी उथल पुथल मचा रहा था। कस्बे के कम्युनिस्टों को लग रहा था जैसे क्रांति अब बस होने ही वाली थी। माँ की तमाम चीख चिल्लाहट के बावजूद एस्प्रेसो कॉफ़ी मशीन खरीदी गयी थी जो ऐसी आवाज़ें निकलती थी जैसे सूखे कुँए के भीतर विक्रमादित्य के दो चार वेताल चिंघाड़ रहे हों। माँ को पूरा शक़ था कि हर रोज़ ५ लिटर दूध की कॉफ़ी के साथ साथ पापा कैंची सिगरेट भी मुफ्त में पिला रहे थे। मेरे बचपन का ये वो काल खंड था जहाँ मेरी दिलचस्पी यू एफ ओ (उड़न तश्तरी) से हट कर लड़कियों में हो चली थी। उनकी आँखों, उनकी ज़ुल्फ़ों, उनके होठों में मुझे उड़न तश्तरियों से ज्यादा रहस्य नज़र आते थे। ढेला के उस पार लाल पलाश के जंगलों में मेरे साथ यू एफ ओ ढूंढने वाला और मेरा सबसे करीबी दोस्त दिनेश मेरी इस नयी दिलचस्पी से ख़ासा नाराज़ रहता था। “भोड़ीवाले! तू बदल गया।” मैं झेंपता – “नहीं यार वो तो वैसे ही …” “नहीं यार क्या!? उसके चबूतरे पे क्या उसे लसोड़े का अचार बनाना सिखा रहा था तू!?” क्या बताता मैं उसे? कि जब वो अपनी पिन्नी सी आँखें उठा के मुझ से कहती है कित्ती खबसूरत लगती है न डायना पामर, तो न जाने क्या क्या होता है मुझे। और वो टंकी के पीछे वाली रेनू। पता ही नहीं चलता कि वो शरमा के मुस्कुरायी या मुस्कुरा के शरमायी। और वो बड़े गंज वाली अलका। पास से गुज़रो तो कभी रूहअफ्ज़ा सी महकती है तो कभी बाजरे की रोटी जैसी। ये वो रहस्य थे कि अगर सुलझे नहीं तो मैं पागल भी हो सकता था। पापा की तमाम कोशिशों के बावजूद कि इतने बड़े बड़े लोग आ रहे हैं तो कस्बे में एक जलसा भी हो, सेंट्रल कमिटी ने इस प्रस्ताव को ये कह के खारिज कर दिया कि कामरेड सुरजीत सिंह को आगे भी जाना है और टाइम बिलकुल नहीं है। कामरेड सुरजीत के साथ प्रकाश करात, सुमीत चोपड़ा और येचुरी थे जांच कमिटी में लेकिन उनका काफिला और भी बड़ा होगा ये पक्का था। ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ कर लौटे और खेतों के ट्यूब वेल की मोटी धार में नहाना पसंद करने वाले सुमीत पिछली बार जब आये थे तो उन्हें माँ के हाथ से बने ब्रेड रोल्स बहुत भाये थे। “ऐसा करें गीतो? कॉफ़ी तो रामपाल सीख ही गया है बनाना .. तुम बस ब्रेड रोल्स.. हो गया…” लोहे के बम्बे में नहाने का पानी गरम करती माँ ऐसी दहकी कि बम्बे को किसी अंगार की ज़रुरत नहीं थी। २५ लोगों के लिए ब्रेड रोल्स बनाने का मतलब था दुनिया भर के झंझट। इसके पहले कि बहसा बहसी शुरू हो धरमपाल प्रिंटिंग प्रेस का लड़का ताज़ा ताज़ा छापे बिल्ले लेके आ गया। गत्ते वाला बिल्ला तिकोना था और मोटे पेपर वाला गोल। दोनों पर लाल हंसिया हथोड़ा। उस दिन पार्टी के सभी मेंबर्स को ये बिल्ले अपने सीने पे लगाने थे। अच्छा ख़ासा जमावड़ा होना था उस दिन। गत्ते वाले तिकोने बिल्ले को उँगलियों से सहलाते हुए पापा ने बताया कि दुअन्नी का एक पड़ा है ये वाला। मेरा दिल किया कि अपने और दिनेश के लिए एक एक बिल्ला मांग लूं लेकिन बेफालतू का लेक्चर सुनने का मूड नहीं था। आज सन्डे था। पिछले इतवार पलाश के जंगलों में हमने कुछ सनसनीखेज सुराग खोजे थे। कुछ सिलेटी चट्टानों पे किसी ने एक लोमड़ी जैसी कुछ बनायीं हुई थी जिसकी दुम पे एक चक्का सा बना था। पास ही में खायी हुई मछलियों के कंकाल थे। हमारे इलाके में न तो चक्के वाली ऐसी लोमड़ियाँ थीं और ना ही ढेला में ऐसी मछलियां। तीन दिन पहले कुछ झंझावाती सा भी घटा था मेरे जीवन में। टंकी पीछे वाली रेनू क़स्बा छोड़ के चली गयी थी। उसके पापा जो कस्बे के ढोर अस्पताल में डॉक्टर थे, उनका कहीं ट्रान्सफर हो गया था। वो शरमायी सी मुस्कराहट या मुस्कुराती शरमाहट अब हमेशा हमेशा के लिए एक ऐसा रहस्य बन चुकी थी जो चक्के वाली लोमड़ी से भी ज्यादा गूढ़ था।

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कामरेड सुरजीत का काफिला वाकई में बहुत बड़ा था। ऊपर छत से खड़े होके मैंने नीचे झाँका तो लाल झंडों का वो सैलाब ठीक वैसे हिल रहा था जैसे सर्दियों की सुबह नए दिन की नयी उम्मीदों का सफ़ेद धुआं हर घर से उठता है। आसमानी पगड़ी और सफ़ेद खद्दर की बंडी – भव्य थे कामरेड सुरजीत। लेकिन बंडी पे लगा स्टील का वो चमचमाता बिल्ला जिस पे लाल हंसिया हथोड़ा ऐसा सज रहा था कि नज़रें हटती ही नहीं थीं। उस पल उस दिन अगर मुझे कुछ चाहिए था तो बस वो बिल्ला। क्या मैं उसे बंडी से नोच लूं और भाग जाऊं? क्या पापा से कहूँ कि अगर मेरी माँ ने इतना मर मर कर ब्रेड रोल्स बनाये हैं तो क्या कामरेड सुरजीत मुझे वो बिल्ला नहीं दे सकते? मुझे पता था इनमें से कोई भी विकल्प खतरों से खाली नहीं था। तमाम वाद विवाद के बाद मैंने पाया कि सही तरीका ये होगा कि मैं चुंगी के पास जाके खड़ा हो जाऊं। काफिला वहाँ कुछ देर के लिए रुकेगा और तब मैं कामरेड सुरजीत की गाडी तक जाके उनसे वो बिल्ला मांग सकता हूँ। वहाँ पापा का खतरा नहीं और हो सकता है कि अगर मैं मुठ्ठी बाँध कर उन्हें लाल सलाम कहूँ तो वो मुझे बिल्ला दे ही दें।

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काशीपुर चुंगी पे पहलवान राम नाथ बैठते थे। पहलवानी उनका शौक था, चुंगी वसूलना रोज़गार और रामलीला में हर साल रावण बनना एक मजबूरी। मैंने जीवन में कई रामलीलाएं देखीं लेकिन इतना उदासीन रावण कभी नहीं देखा। जब वो स्टेज पे होते थे तो उनकी बला से राम उनका अपमान करें या हनुमान लंका में आग लगा के चले जाएँ। बहुत बाद में चल के मैंने जाना कि इसे अंडर एक्टिंग कहते हैं। आज के बहुत से प्रसिद्ध अभिनेता ऐसी ही एक्टिंग करना पसंद करते हैं जहां चेहरे के अकर्मण्य भाव और आवाज़ की निर्पेक्षता उन्हें काफी सारे अवार्ड्स दिलाती है। अगर अफवाहों पे गौर किया जाए तो कहा जाता था कि उन्हें किसी ऐसी से प्यार हो गया था जो शादी शुदा थी और उनकी ये उदासीनता उसी का परिणाम थी। मैं भी तब जैसा मौका मिला (मतलब जैसी कॉस्ट्यूम मिली) बन्दर या राक्षस बन जाता था इसलिए राम नाथ मुझे जानते थे। भरी दोपहरिया में सड़क के कंकर उछाल रहे मैं और दिनेश उनके स्थायी भाव ‘उदासीनता’ को चुनौती देने लगे तो उन्होंने इशारे से हम दोनों को अपने ठेपचे में बुलाया। उनकी आँखों में कोई सवाल नहीं था। भृकुटि भी शायद कुछ मिलीमीटर ही ऊपर गयी थी। लेकिन हमें पता था कि उनका सवाल क्या था। दिनेश ने जवाब दिया – “इस लसोड़े को बिल्ला चाहिए।” लसोड़ा एक छोटा सा बेर नुमा चिपचिपा फल होता है जिसका ज्यादा इस्तेमाल फटी पतंगे चिपकाने में होता है। कुछ कदरदान इसका अचार भी डालते हैं। हमारी तरफ ये फल फल न होके कब एक गाली हो गया इसका एक मज़ेदार किस्सा है लेकिन वो फिर कभी सही। दिनेश का जवाब पूरा हुआ ही था कि मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पीछे कुछ हुआ हो। ज़ह्हहीईन्ग्गग्ग! ज़हिन्न्ग्गग्गग्गग! आवाज़ पहले आयी और फिर हमारे कस्बे के इतिहास में वो हुआ जो किसी ने कभी न देखा था। एकदम रत्ती रत्ती में तौलने वाले पहलवान राम नाथ का चेहरा ऐसा फटा कि फटा ही रह गया। मैंने पलट के देखा तो उड़ती हुई धूल के गुबार में कोई गुलाबी नीली सी चीज़ कौंधी और गायब हो गयी। थेपचा ऐसे हिला जैसे कोई भूकम्प आया हो। मैं दौड़ा, दिनेश दौड़ा, यहाँ तक कि निरपेक्षता के सरदार पहलवान राम नाथ भी दौड़े। सड़क जादूनगरी में बदल गयी थी। एक के बाद एक रंगबिरंगी कारें। उनपे बड़े बड़े नंबर लिखे थे। स्पीड ऐसी जैसी उड़न तश्तरियाँ हों। लेकिन सबसे हैरतअंगेज थीं वो लडकियाँ जो उनपे बैठी थीं। सबके ऊपर चमकदार कनटोपे। सुते हुए जिस्मों पे हाहाकारी कपडे। होठों पे ऐसा रोमांच कि सत्तर फीट दूरी पे भी मुझे भस्म कर रहा था। ये जादुई मंज़र आनन फ़ानन में सिर्फ धूल का गुबार रह गया। अगले दिन अखबार से पता चला कि वो पहली हिमालयन कार रैली थी जिसका रास्ता हमारे कस्बे से होके भी गुज़रता था। कामरेड सुरजीत तिकोनिया वाले रास्ते से निकल गए और वो स्टील का बिल्ला मुझे नहीं मिला लेकिन उस चिपचिपाती गर्मी में कुछ चिपक सा गया था मेरे भीतर। कुछ ऐसा जो हमें अपने गाँव और कस्बों से बाहर खींचता है। कुछ ऐसा जिसपे ढेरों पलाश के जंगल और स्टील के बिल्ले कुर्बान हैं। टंकी पार की रेनू गयी तो ये भी नहीं सोचा कि सैकड़ों शरमाई मुस्कराहटों का कुछ तो जमा जोड़ होना चाहिए था। हम सब वहाँ जाना चाहते हैं जहाँ पीठ के पीछे “ज़ह्हहीईन्ग्गग्ग! ज़हिन्न्ग्गग्गग्गग!” सरसराती हों। ये अलग बात है कि पलट के देखो तो बस धूल के गुबार नज़र आते हैं।

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पराग मांदले की कहानी ‘चाह की गति न्यारी’उपसना झा की टिप्पणी के साथ

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‘नया ज्ञानोदय’ के अगस्त अंक में प्रकाशित पराग मांदले की कहानी ‘चाह की गति न्यारी’ पढ़िए युवा कवयित्री-लेखिका उपासना झा की टिप्पणी के साथ- मॉडरेटर

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नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में छपी पराग मांदले की कहानी ‘चाह की गति न्यारी’ मनुष्य के मन की परतों को खोलती हुई एक अच्छी कहानी है। हिंदी में इस तरह की कहानियाँ जैनेंद्र और इलाचन्द्र जोशी ने लिखी हैं। इनकी कहानी में रुआँसी भावुकता नहीं है बल्कि दबी हुई समस्या और उनके समाधान तक जाने का प्रयास भी है। जैनेंद्र कहते हैं कि कहानी तो एक भूख है जो निरंतर समाधान खोजने का सतत प्रयत्न करती है। युंग ने अन्य कारकों के साथ-साथ व्यक्तित्व संरचना में व्यक्तिगत अचेतन की भूमिका मानी है। मनोविश्लेषकों का यह मानना है कि बचपन में हुई अच्छी और बुरी घटनाएं हमारे व्यक्तित्व निर्माण पर बहुत प्रभाव छोड़ती हैं। कहानी में चार मुख्य पात्र हैं- छाया, अजय, अथर्व और ठाकुर साहब। छाया को केंद्रीय चरित्र कह सकते हैं। वह एक सुलझी हुई महिला है, अपने परिवार और जीवन में रमी हुई। अजय छाया का पति है, आम भारतीय पुरुषों की तरह परिवार के दायित्वों और दफ़्तर के काम में दबा हुआ। ठाकुर साहब छाया के बॉस हैं, कहानी में वे अभिभावक और संवेदनशील, अनुभवी व्यक्ति हैं जो सफल मनोचिकित्सक भी हैं। कहानी में एक पॉइंट है कि याद करने की कोशिश में छाया अपने इक्कीस वर्षों के वैवाहिक जीवन में कोई सुखद स्मृति नहीं याद कर पाती इसका अर्थ है कि क्रोध और उससे उपजे भय की स्मृतियाँ हावी हैं। अधिकांश भारतीय पुरुषों की तरह अजय को अत्यधिक क्रोध करने की समस्या है। हमारे समाज में क्रोध को एक समस्या या रोग की तरह लिया ही नहीं जाता। जबकि अगर किसी भी ट्रेट से अन्य व्यक्तियों को शारीरिक या मानसिक कष्ट होता है उसे अस्वाभाविक समझा जाना चाहिए। उस स्थिति को समझने, स्वीकारने और उसका उचित उपाय करने की आवश्यकता है। घरेलू हिंसा के अधिकांश मामले एक थप्पड़ से शुरू होकर कई बार हत्या और आत्महत्या के प्रेरक बनते हैं। छाया ने ग्यारह वर्ष की आयु में जो हिंसा और तकलीफ़ सही, उसे वह किसी को बता नहीं सकी। वह भय, हिंसा और उससे उपजा दर्द उसके मन के एक हिस्से में दब गए हैं। बरसों बाद जब उसका पति उसकी असहमति को दरकिनार कर उससे जबरदस्ती करता है तो उसका आहत मन उसी मानसिक अवस्था में चला जाता है। बरसों से उसके मन में दबा गुस्सा, असहायताबोध और भय एक साथ प्रकट होते हैं। उस एक क्षण में उसे पुरुषजाति से घृणा होती है, कहानी के अनुसार उन्हीं क्षणों की परिणीति से उसे गर्भ ठहरता है। उसका बेटा बचपन से ही अपने क्रोधी पिता का स्वभाव सहता-देखता आ रहा है लेकिन जब वह एक साधारण बहस के बाद उसे अपनी माँ पर हाथ उठाते देखता है तो उसके मन में दबी हुई घृणा, गुस्सा और क्रोध एकसाथ हावी हो जाता है और वह प्रहार कर बैठता है। कहानी समस्याओं, जीवन पर उनके प्रभाव और उनके समाधानों की तरफ संकेत भी करती है।

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चाह की गति न्यारी

पराग मांदले

ठाकुर साहब ने जैसे ही उसके सिर पर हाथ फेरा, उसकी चेतना पालतू कबूतर की तरह अपने ठिये पर लौटी।

सब कुछ इतनी तेजी से घटा था कि उसे अपने होशो-हवास संभालने का होश भी नहीं रहा था।

उसे केवल इतना याद है कि फूटे हुए तरबूज की तरह खुले अजय के सिर में से फर-फर बहते खून को अपनी साड़ी से रोकने का प्रयास कर रही थी वह।

उसके बाद क्या हुआ, अजय और उसे कौन इस अस्पताल में लेकर लाया, उसे पता नहीं। वह यंत्रवत् संवेदनाशून्य होकर साथ चली आई थी।

अस्पताल पहुँचते ही अजय को तुरंत ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया। इधर उस पर प्रश्नों की बौछार हो रही थी। उन प्रश्नों की स्वर-लहरियां छू भर रही थीं उसे, मगर उन स्वर-लहरियों पर सवार शब्दों को उसके मन-मस्तिष्क को स्पर्श करने का कोई अवसर नहीं मिल रहा था। पता नहीं उसके मस्तिष्क में उस समय सौ-सौ तूफान एक साथ उमड़ रहे थे या फिर भयानक सन्नाटा छाया हुआ था। साथ में आये लोगों ने ही उसकी ओर से यथासंभव उत्तर देने का प्रयास किया। सारी हलचल से बेख़बर वह ऑपरेशन थियेटर के बाहर रखी बेंच पर चेतना-शून्य होकर बैठी थी।

सामने शून्य में ताक रही थी वह, जब ठाकुर साहब ने आकर उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा था। अचानक मानो स्वप्न से जागकर उठ खड़ी हुई वह। ठाकुर साहब के पैरों में झुकी तो सही वह मगर उन्होंने बीच में ही उसे थाम लिया। ठाकुर साहब के स्पर्श ने उसकी हिचकियों और रूलाई के सोतों को मार्ग दिखा दिया। उनकी हथेलियों का कोमल स्पर्श कुछ देर तक उसकी पीठ पर थपकियां देता रहा।

भीतर का शोक, संताप, पीड़ा जब कुछ हुई तो अथर्व के हाथ में लहराता क्रिकेट का बेट और अजय का खुला हुआ सिर एक साथ एक दृश्य के रूप में उसकी खुली आँखों के सामने लहराये।

“अथर्व कहाँ है?” अचानक जैसे नींद से जागकर चीखी वह।

“पुलिस हिरासत में है वह।”  ठाकुर साहब ने शांत स्वर में उत्तर दिया।

“पुलिस हिरासत में?”  हैरत से उसकी आँखें और स्वर दोनों फैल गए थे।

“हाँ, अजय पर वार करने के बाद रक्त से सना बेट लिए वह खुद पुलिस थाने पहुँच गया था। मैंने एडवोकेट जाधव से कह दिया है। वह उसकी जमानत के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं।” ठाकुर साहब का स्वर उनके समान ही कोमल और शांत था।

“यह अचानक सब क्या हो गया है बाबा? ”  उसके आँसू एक बार फिर बह निकले थे।

“जो नियति की इच्छा थी, वही हुआ है बेटा।” ठाकुर साहब ने कहा।

“मगर ऐसी अनहोनी मेरे ही घर में क्यों होनी थी? ” उसके स्वर में कातरता थी।

“हर घटना की तरह हर प्रश्न के उत्तर का भी एक निर्धारित समय होता है बेटा। समय आने पर तुम्हें अपने हर प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। फिलहाल तुम्हारी प्राथमिकता अपने प्रश्नों का उत्तर नहीं, बल्कि अजय है।” ठाकुर साहब ने कहा।

“अजय बच तो जाएंगे न बाबा? ”  अजय का ध्यान आते ही तमाम आशंकाओं ने उसके स्वर को जकड़ लिया था।

ठाकुर साहब पहली बार हौले से मुस्कुराए। “घृणा से अधिक प्यार बलशाली है। फिर बचेगा क्यों नहीं वह? “

घृणा शब्द ने कुछ पलों को उसे उलझन में डाला, किसकी घृणा, किसके लिए घृणा; मगर फिर सावन की हल्की फुँहारों-सी आश्वस्ति की ठंडक उसके कलेजे में उतर गई।

उसने स्वप्न में भी कभी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि उसका बेटा अथर्व कभी अपने ही पिता पर इस तरह जानलेवा वार कर सकता है।

बचपन से ही संस्कारों के झीने आँचल तले अपने प्रेम का दूध पिलाकर पाला है उसने अथर्व को। अपनी ही तरह थोड़े-से क्रोधी स्वभाव के अपने इस बेटे को खुद अजय ने भी कोई कम प्यार नहीं दिया है। तमाम नोक-झोंक के बावजूद अजय और अथर्व के बीच समान सोच और रूचियों की डोर बड़ी मजबूती से बंधी हुई थी। फिर अथर्व के हाथ से यह पाप कैसे घटा, खुद वह भी समझ नहीं पा रही थी।

यूँ तो अपने-आपको संपूर्ण लुटा देने की अभिलाषा और उत्साह से भरा प्यार तथा अपने समक्ष की हर वस्तु और व्यक्ति को तहस-नहस कर देने की धधकती अग्नि से भरा क्रोध – दोनों ही अजय के व्यक्तित्व के अहम् हिस्से हैं। बल्कि अटूट कहना ज्यादा समीचीन होगा। हालाँकि यह सच है कि प्यार उसका स्थायी भाव है, जबकि क्रोध क्षणिक, मगर खुद उसे आँखें बंद करने पर सबसे पहले अजय का क्रोध से भरा चेहरा ही याद आता है। अपने वैवाहिक जीवन के 21 वर्षों के लम्बे सफ़र में अजय ने उससे प्यार भी बहुत डूबकर किया है और जब कभी किया है तो क्रोध भी उतना ही खुलकर किया है। पर पता नहीं क्यों उसकी स्मृति में हमेशा प्यार करने वाले अजय को धकेलकर क्रोध करने वाला अजय हावी हो जाता है। खुद अजय को भी उससे हमेशा इसी बात की शिकायत रही है। वह कहता है कि उसने जितना क्रोध किया है, उससे कई-कई गुना अधिक प्यार किया है। मगर प्यार से भरा उसका रूप कभी छाया की आँखों के आगे नहीं रहता।

और यह बात केवल उसके ही मामले में नहीं है। बच्चों के मामले भी ठीक वैसा ही है। बच्चे और खुद वह भी अजय की कमजोरी हैं। उनके बिना एक दिन भी रहना पहाड़ जैसा हो जाता है अजय के लिए। बच्चों की इच्छाओं, मांगों और फरमाइशों को पूरा करने की कोशिश में अजय हमेशा पूरी जी-जान से जुटा रहा है। इसके लिए अपनी हर बड़ी इच्छा से समझौता किया है उसने। मगर कभी किसी भी वजह से यदि उसे क्रोध आ जाए तो फिर साक्षात् दुर्वासा का अवतार बन जाता है अजय। ऐसे समय में हमेशा छाया का तो हलक ही सूख जाता है, जिसमें से एक शब्द भी बाहर निकलने को राजी नहीं होता। वैसे चाहे उसके शब्द हों या उसका मौन – दोनों ही अजय की क्रोधाग्नि को और भड़काने वाले घी का ही काम करते हैं। इन इक्कीस सालों में आज तक कभी वह इस बात को सुनिश्चित नहीं कर पायी कि जब अजय को क्रोध आता है तो उसे क्या करना चाहिए। परिणाम यह होता है कि इस असमंजस में भावहीन चेहरा लिए चुप लगा जाती है वह।

अथर्व में बड़ी हद तक अजय के ही स्वभाव की छाप है। बाप के क्रोध का एक बड़ा शिकार भी वही इस मायने में रहा है कि बेहद क्रोध में भी अजय ने कभी छाया पर हाथ नहीं उठाया। उधर बेटी होने के कारण सृष्टि भी हमेशा अपने पिता की मार से बच जाती है। मगर अथर्व ऐसी किसी भी छूट से अक्सर वंचित ही रहा। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अपने पिता की तरह ही क्रोधी होने के कारण ऐसे समय में वह मौन नहीं रहता, बहस करता है। हालाँकि इधर कुछ सालों में जबसे अथर्व अपने पिता के कद के आगे निकला है, अजय ने बड़ी हद तक अपने हाथों को नियंत्रित करना सीख लिया है। मगर क्रोध पर नियंत्रण करना अजय कभी सीख नहीं पाया।

उस दिन भी तो यही हुआ था।

अथर्व की बारहवीं की परीक्षाएं अभी खत्म ही हुई थीं। आईआईटी में एडमिशन के लिए पिछले दो सालों से तैयारियां कर रहा था वह और सीईटी बस एक महीने दूर थी। यही वजह थी कि वह रात-दिन पढ़ाई में जुटा हुआ था। आईआईटी में अथर्व का एडमिशन दरअसल उसका और अजय का दोनों का ही साझा सपना था। अपने जमाने में अजय का यह सपना बस कुछ ही अंकों से पीछे रह जाने के कारण पूरा नहीं हो पाया था इसलिए अथर्व के मामले में वह ज्यादा आग्रही हो गया था। यूँ तो अथर्व अपनी ओर से मेहनत में कोई कमी नहीं कर रहा था, मगर क्रिकेट की वजह से वह पढ़ाई पर पूरा ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता था। बचपन से क्रिकेट अथर्व की कमजोरी था। विश्वकप विजय के बाद तो क्रिकेट मानो उसका जीवन हो गया था और धोनी उसका भगवान। अजय क्रिकेट को अथर्व और उसके सपने के बीच की सबसे बड़ी बाधा मानता था। यही बाप-बेटे के बीच टकराहट का एक बड़ा कारण बन गया। अजय का मानना था कि इस समय अथर्व का केवल एक ही लक्ष्य होना चाहिए – आईआईटी में प्रवेश। इसके लिए उसे लाखों स्पर्धकों में सबसे अव्वल रहने वाले चुनिंदा लोगों में शामिल होना होगा। और इसके लिए उसे अपना ध्यान विचलित करने वाली हर चीज से दूर रहना होगा – क्रिकेट से भी।

अथर्व इसके लिए तैयार नहीं था।

उस दिन जब ऑफिस से घर लौटा अजय तो सबसे पहले उसने अथर्व के बारे में पूछा। जब उसे पता चला कि वह किसी क्रिकेट टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए सुबह से गया है तो बस उसका पारा थर्मामीटर के सारे अंकों को पार कर गया।

बची-खुची कसर पूरी कर दी छाया ने अथर्व की तरफदारी करके। बस बुरी तरह भड़क उठा अजय।

“तुम्हारी इसी तरफ़दारी ने उसे लापरवाह बना दिया है छाया।” अजय की आँखें कोटरों से बाहर निकलने के लिए तड़प उठीं।

“एक दिन क्रिकेट खेलने चला गया तो वह लापरवाह कैसे हो गया?” न जाने क्यों उस दिन अपने स्वभाव के विपरीत बहस के मूड में आ गई वह।

“आईआईटी के लिए चुना जाना क्या तुम्हें बच्चों का खेल लगता है?”  अजय ने उत्तेजित होकर पूछा।

“जानती हूँ कि बच्चों का खेल नहीं है, और अथर्व भी तो जानता है यह। क्या वह दिन-रात मेहनत नहीं कर रहा है इसके लिए?” आमतौर पर वह ऐसा करती नहीं थी, मगर उस दिन न जाने क्यों वह भी हथियार डालने के लिए तैयार नहीं थी।

“जितनी मेहनत वह कर रहा है, उतनी पर्याप्त नहीं है। इस तरह क्रिकेट के लिए दिन-दिन भर बाहर रहेगा तो क्या खाक चुना जाएगा वह आईआईटी में, और वह भी कानपुर में।” अजय का स्वर कुछ और तेज़ हो गया था।

“तुम्हें एक दिन उसका क्रिकेट खेलने के लिए जाना तो इतना चुभ रहा है आँखों में, मगर रोज रात-रात भर बैठकर उसका पढ़ना कभी दिखाई नहीं देता।” उसने भी अजय के स्वर में ही स्वर मिलाया।

“मुझे सब दिखता है, इसीलिए कह रहा हूँ कि उसकी कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं। यदि इसी तरह उसका ध्यान विचलित होते रहा तो उसकी सारी कोशिशें बेकार जाएंगी और मेरी सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी। क्या तुम्हें नहीं पता कि वह आईआईटी में सिलेक्ट होकर इंजीनियर बने, इस एक सपने को पूरा करने की ख़ातिर अपनी इच्छाओं से कितने समझौते किए हैं मैंने?” शायद थोड़ा भावुक हो गया था अजय।

“तो तुम उन समझौतों की कीमत उसकी छोटी-छोटी खुशियों से वसूलना चाहते हो?” उसकी कठोरता में कोई कमी नहीं आई थी।

“और मैंने उसके लिए जो सपना देखा, उसका क्या?” भावुकता की जगह फिर उत्तेजना ने ले ली।

“तुम अपने सपने को उसकी खुशियों का कफ़न बना रहे हो।” उसकी कठोरता न जाने कैसे उस दिन निर्ममता में बदल गई थी। न जाने कैसे उसके मुँह से फिसल गया था वह वाक्य। मगर उस वाक्य ने अजय को बुरी तरह से भड़का दिया।

“बहुत बोलने लगी हो तुम। जी करता है तुम्हारा गला दबा दूँ।” क्रोध से अपने दाँत भींचे अजय ने।

वह भी रणचंडी बन बैठी, “और कर भी क्या कर सकते हो तुम? हम सबका गला ही तो दबा सकते हो। तो दबा दो। देर किस बात की कर रहे हो?”

इतनी खुली चुनौती उसने जीवन में पहली बार दी थी अजय को। कभी उस पर हाथ न उठाने वाला अजय बेकाबू हो गया और उसकी दोनों हथेलियां छाया की गरदन पर कस गयीं।

पता नहीं दरवाज़े पर कब आकर खड़ा हुआ था अथर्व।

अंदर आकर जब उसने अजय की हथेलियों की पकड़ में छटपटाती छाया को देखा तो फिर आव देखा न ताव, पूरी ताकत से अपने हाथ का बेट उठाकर घूमा दिया।

नारियल की तरह खुल गये अजय के सिर से बहते ख़ून को अपनी साड़ी से रोकने का प्रयास करती छाया को फिर कुछ याद नहीं रहा।

अजय की हालत ख़तरे से बाहर थी, मगर उसे अब तक होश नहीं आया था।

एडवोकेट जाधव का कहना था कि एक बार अजय को होश आ जाए, पुलिस उसका बयान ले ले, फिर वह जमानत पर तुरंत अथर्व को छुड़ा लेगा।

छाया अथर्व से मिलने थाने गई थी, मगर वह उससे एक शब्द भी नहीं बोला। सारा समय उसकी ओर पीठ किए खड़ा रहा।

अपने मन के हज़ारों प्रश्नों के साथ वह ठाकुर साहब के सामने थी।

जिस स्कूल में वह शिक्षिका थी, ठाकुर साहब वहाँ के प्राचार्य थे। बहुत छोटी थी वह, जब उसके पिता की मौत हो गई थी। बचपन से ही पिता के प्यार से वंचित छाया को ठाकुर साहब में अपने खोये हुए पिता मिल गए थे।

दुबला-पतला शरीर, मध्यम कद, खिचड़ी दाढ़ी, छोटी मगर बहुत गहरी आँखें और अपूर्व शांति से भरा चेहरा। अधिकांश लोगों की दृष्टि में वे एक विद्वान, सज्जन और बेहद अनुशासनप्रिय प्रिंसिपल थे। मगर बहुत कम लोग जानते थे कि वे बहुत अच्छे मनोविश्लेषक और मनोचिकित्सक भी थे।

“जो कुछ हुआ, अथर्व तो उसमें निमित्त मात्र था बेटा। मुझे लगता है कि इसके मूल में तुम्हारे अपने भीतर की घृणा ही काम कर रही थी।” बड़ी देर तक उसके साथ बातें करने के बाद कहा ठाकुर साहब ने।

“मेरी घृणा! इस हद तक! और वह भी अजय के प्रति! यह क्या कह रहे हैं आप?” वह अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी।

“हाँ, किसी समय अजय को मार डालने की हद तक पहुँची तुम्हारी घृणा ने ही इस घटना का रूप लिया है, इसकी मुझे ज्यादा संभावना लग रही है। क्योंकि जितना मैं अथर्व को जानता हूँ और जितना तुम्हारी बातों से समझ सका हूँ, मुझे लगता है कि इस घटना में उसके भावों की जगह तुम्हारे भाव प्रबल थे।” ठाकुर साहब का स्वर अब भी उतना ही शांत था।

“मगर मैं अजय से घृणा कैसे कर सकती हूँ बाबा? मैंने तो हमेशा उन्हें प्यार ही किया है। उनका क्रोध कई बार मन में दुःख और शिकायत उपजाता रहा है, मगर घृणा, और वह भी इस सीमा तक! और इसका मुझे पता भी न चले, यह कैसे संभव है?” वह भयानक उलझन में थी।

“एक पल, केवल एक पल का भी बहुत असर पड़ता है जीवन पर। हर पल हम जिस-जिस कामना के बीज बोते हैं, उन्हें पाल-पोसकर वृक्ष बनाती है इस विश्व की नियंता शक्ति, और फिर एक दिन उसी का फल हमारे हाथ में थमा देती है। चाहे उस पल की, उस बीज की स्मृति हमें हो या न हो।” ठाकुर साहब ने कुछ रहस्यमय अंदाज़ में कहा।

“यह कैसी पहेलियां बुझा रहे हैं आप बाबा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।” कातर भाव से उसने कहा।

“थोड़ा याद करने की कोशिश करो सुधा, क्या अथर्व के जन्म के बाद, उसकी अबोधावस्था में कोई ऐसी घटना घटी थी, अजय के क्रोधपूर्ण स्वभाव के ही कारण, जिसने तुम्हारे भीतर अजय के प्रति प्रबल घृणा का भाव उपजाया हो और चेतन या अचेतन रूप से अथर्व उसका साक्षी रहा हो।”

सुधा बड़ी देर तक अपने अतीत के पन्नों में उलझी रही। बहुत प्रयास से उसने अथर्व के जन्म के बाद से अब तक की उन घटनाओं को याद किया, जिनमें अजय का रौद्र रूप देखा था उसने। उस समय उसके अपने भीतर रोष और क्रोध तो कई बार उपजा था, मगर लाख कोशिश करने के बाद भी उसे एक भी ऐसी घटना याद नहीं आई, जब उसके भीतर अजय के लिए घृणा का भाव उपजा हो।

लम्बे विचार के बाद जब उसने यह बात कही ठाकुर साहब से तो वह गहरी सोच में पड़ गए। फिर अचानक उनकी आँखों में एक चमक कौंधी, “पिछले जन्म जैसी बात मैं इस समय करना नहीं चाहता बिटिया, इसलिए मेरे हिसाब से तो फिर सिर्फ एक ही संभावना शेष रह जाती है।” कुछ पलों को रूके ठाकुर साहब।

वह उत्सुकता से उनकी ओर देख रही थी।

“हालाँकि यह मुश्किल हो सकता है मगर क्या तुम उस पल को याद कर सकती हो, जिस पल के संयोग का नतीजा अर्थव है। …… मेरा अनुमान है कि अथर्व का तुम्हारे गर्भ में जिस क्षण बीजारोपण हुआ था, शायद उस पल अजय के प्रति किसी वजह से तीव्र घृणा का भाव रहा हो तुम्हारे मन में। इस हद तक कि उस पल उसकी जान ले लेने की तमन्ना उपजी हो तुम्हारे भीतर।”

ठाकुर साहब के इस वाक्य ने एक विस्फोट-सा किया था उसके भीतर। एक क्षण में कोई उन्नीस साल का फासला तय कर लिया था उसने। जैसे टाइम मशीन में बैठा दिया हो किसी ने उसे।

वह दिन या कहे कि वह रात उसकी आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम गई।

जनवरी महीना। दिल्ली का जाड़ा। हड्डियों को कँपकँपा देने वाला। स्कूल से घर लौटते समय वह जाम में फँस गई थी। जब घर लौटी तो बुरी तरह थकी हुई थी। उसका बस चलता तो वैसे ही सो जाती, मगर कम से कम उस दिन तो यह संभव नहीं था। क्योंकि अपनी कक्षा के बच्चों की टेस्ट काँपियां लादकर लायी थी वह। अगले दिन रिजल्ट बनाना था इसलिए बिना कुछ खाये-पीये ही देर तक काँपियां जाँचती रही। काम पूरा करते-करते देर रात हो गई और फिर उसमें उठकर कुछ खाने की हिम्मत भी नहीं रही।

अजय होता तो उसकी कुछ मदद कर देता और उसे कुछ बना कर खिला भी देता। मगर वह तो ऑफिस से सीधे सिरीफोर्ट जाने वाला था। किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में। उसके किसी दोस्त ने पास का जुगाड़ किया था। बड़े उत्साह से बता रहा था वह सुबह, बिना सेंसर की हुई कई हॉट फिल्में शामिल हैं फेस्टिवल में।

आधी रात को लौटा वह। उसके पास लेटते ही मचलने लगा था अजय का हाथ।

“अजय, प्लीज़ अभी नहीं। मैं बहुत थकी हुई हूँ और मुझे बहुत नींद आ रही है।” उसने अजय का हाथ अपनी छाती से परे किया।

आमतौर पर उसकी सहमति-असहमति का सम्मान करता था अजय, मगर उस दिन पता नहीं क्यों उसकी अनिच्छा के बावजूद अजय ने उसे अपनी बाँहों में कसकर जकड़ लिया और उसके होठों को अपने होठों से बंद करते हुए उसे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया।

उसकी घुटी हुई आवाज़, शरीर के माध्यम से छटपटाकर कुछ देर प्रतिरोध करने का प्रयास करती रही। मगर फिर प्रतिरोध करने की शक्ति भी शेष न रही।

कुछ पलों बाद सब कुछ शांत हो जाता, मगर किसी विदेशी फिल्म के जाने किस दृश्य का भूत छाया हुआ था अजय के भीतर। उसने छाया को पलटकर उस पर हावी होने की कोशिश की।

“नहीं अजय, इस तरह नहीं।” उसके भीतर का प्रतिरोध एक बार फिर जाग उठा।

मगर अजय था कि कुछ मानने को तैयार ही नहीं था।

कैमरे के फ्लैश की तरह एक पल के भीतर छाया के मन में अपने अबोध बचपन की वह दर्दनाक स्मृति जाग उठी।

महज ग्यारह साल की थी तब वह। घर में बड़े भैया की शादी की धूम मची हुई थी। रिश्तेदारों का मेला लगा हुआ था। उसे यह भीड़-भाड़ बिलकुल पसंद नहीं थी। ज्यादातर समय कोई ना कोई किताब लेकर किसी कोने में बैठी हुई होती। उस दोपहर घर की बैठक में हो रहे हो-हल्ले से पहेशान होकर वह ऊपरी मंजिल पर अपने कमरे में सिंड्रेला की कहानी की किताब पढ़ते-पढ़ते सो गई थी। जब तेज दर्द से उसकी आँखें खुलीं तो उसने खुद को पेट के बल लेटे हुए पाया। कोई पीछे से उस पर हावी था। वह चीखना चाहती थी मगर एक सख्त हथेली ने उसके मुँह को कसकर बंद कर रखा था। पता नहीं कितनी देर तक छटपटाने के बाद वह बेहोश हो गई थी। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो कमरे में कोई नहीं था। उस वक्त तो वह यह भी ठीक से समझ नहीं पायी थी कि उसके साथ हुआ क्या था। बस एक लिजलिजा अहसास था, जिससे उपजा डर उसके भीतर कई दिनों तक बना रहा। शायद उस डर के कारण ही न तो वह किसी को कुछ कह पायी और शादी की भागादौड़ी में किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं थी कि उसके बिना कुछ कहे, घर के लोग कुछ समझ पाते।

अजय की हरकतों ने एक पल में उसके घाव को कुरेद कर हरा कर दिया था। उसे महसूस हुआ जैसे उसके बचपन की नींदों को डरावना कर देने वाला वही व्यक्ति एक बार फिर उसके साथ अपनी घिनौनी हरकत दोहराने की कोशिश कर रहा है। घृणा से भरकर अपनी पूरी ताकत लगाकर पलटी थी वह। अजय एक पल को हकबकाया, मगर फिर उसके होठों को अपने होठों से कसते हुए उस पर छा गया।

उस पल अजय के प्रति, बल्कि सचे कहे तो पूरी पुरुष जाति के प्रति असीम घृणा से भर उठी थी वह। उस पल सचमुच उसका दिल चाहा था कि खून कर डाले वह अजय का।

क्या ठीक उसी पल अजय के बीज ने किया था उसके अपने बीज के साथ उसके गर्भ में प्रवेश, और फिर लिया था अथर्व का आकार?

आश्चर्य से विस्फारित थे नेत्र उसके।

विस्मय से भरा था उसका ह्रदय।

जैसे अंधेरी कंदराओं से निकालकर जलते सूर्य के समक्ष खड़ा कर दिया था किसी ने उसे।

अचानक विस्फारित नेत्रों को ढक लिया था मेघों ने।

वह वर्षा थी या हिमशिखरों से निकल पूरे प्रवाह के साथ बहती गंगा!

“अब क्या होगा बाबा? ” इस एक वाक्य के लिए सदियों का साहस जुटाना पड़ा था उसे।

उसके चेहरे पर तेजी से बदलते भावों को देखकर ठाकुर साहब समझ गए थे कि जिस पल की आशंका उनके भीतर है, उसके उत्स तक पहुँच गई थी सुधा। अब कुछ और पूछने की जरूरत नहीं थी। इस समय सबसे ज्यादा जरूरी सुधा को हौंसला देना था। इसलिए वह बोले, “होना क्या है पगली, जब एक पल की घृणा यह रूप ले सकती है तो अजय के प्रति लाखों पलों का तुम्हारा प्यार क्या नहीं कर सकता? उस प्यार पर भरोसा करो। सब ठीक होगा।”

वह विश्वास और अविश्वास, उम्मीद और आशंका के दो सिरों के बीच झूलती बड़ी देर तक अनमनी-सी बैठी रही थी कि तभी उसका मोबाइल कुनमुनाया।

दूसरी तरफ सृष्टि थी, खुशी और उत्तेजना से भरे स्वरों में कह रही थी, “माँ, पापा को होश आ गया है।”

सृष्टि के स्वरों के उजाले से उसका ह्रदय भर गया।

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पराग मांदले

9420363062/8484999664

paragmandle@gmail.com

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लोकप्रियता को कलात्मक-वैचारिक स्तर का पैमाना नहीं बनाया जा सकता

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एक ज़माने में जिसको लुगदी साहित्य कहा जाता था आज वह लोकप्रिय साहित्य कहा जाता है। उसकी परम्परा पर वरिष्ठ कवयित्री कात्यायनी ने फ़ेसबुक वाल पर एक लम्बी टिप्पणी लिखी थी। आप भी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर
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फिल्मकार कोस्ता गावरास ने एक बार किसी साक्षात्कार के दौरान कहा था कि हर फिल्म‍ राजनीतिक फिल्म होती है, जिस फिल्म में अजीबोग़रीब हथियार लिए लोग पृथ्वी़ को परग्रहीय प्राणियों के हमले से बचाते होते हैं, वे फिल्में भी राजनीतिक ही होती हैं। बात सही है। अक्सर हम जो घोर अराजनीतिक किस्म की रूमानी या मारधाड़ वाली मसाला फिल्म देखते हैं, वह किसी न किसी रूप में हमारे समय का, या उसके किसी पक्ष का ही रूपक रचती होती है। जाहिर है कि देशकाल के इस रूपक के पीछे सर्जक की एक विशेष वर्ग-दृष्टि होती है और उसे ध्यान में रखकर ही उस रूपक को समझा जा सकता है।
चालू मसाला फिल्मोंं की तरह ही, समाज में बड़े पैमाने पर जो चलताऊ, लोकप्रिय साहित्य या लुगदी साहित्य पढ़ा जाता है, वह भी किसी न किसी रूप में सामाजिक यथार्थ को ही परावर्तित करता है। सचेतन तौर पर लेखक कतई ऐसा नहीं करता, लेकिन रोमानी, फैमिली ड्रामा टाइप या जासूसी लुगदी साहित्य भी किसी न किसी सामाजिक यथार्थ का ही रूपक होता है, या अपने आप सामाजिक यथार्थ ही वहाँ एक फन्तासी रूप में ढल जाता है। कई बार होता यह है कि सतह पर कहानी का जो नाट्य घटित होता रहता है, सतह के नीचे की दूसरी या तीसरी परत पर कथा के कुछ दूसरे अर्थ उद्घाटित होते चलते हैं और सामाजिक जीवन का किसी और यथार्थ का खेला चालू रहता है। इन अर्थ-सन्दर्भों में, मुझे लगता है कि जिसे हम ज्यादातर लुगदी साहित्य मानते हैं, उसका भी एक सामाजिक-राजनीतिक चरित्र होता है जिसे ऐसे साहित्य की ‘पॉलिफोनिक’ (बहुस्तरीय, बहुसंस्तरीय) संरचना और स्थाापत्य  को समझकर ही समझा जा सकता है।
भारत में इस तरीके के गम्भीर मार्क्सवादी अध्ययन लगभग न के बराबर हुए हैं। देवकीनन्दन खत्री की तिलिस्म और ऐय्यारी वाली रचनाओं (‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता संतति’) पर एक अध्ययन डा. प्रदीप सक्सेना का है जो यह स्थापना प्रस्तु्त करता है कि इन कृतियों के कथात्मक ताना-बाना और विन्यास के माध्य‍म से औपनिवेशिक सत्ता के विरोध का एक नाट्य रचा गया है, या एक फन्ता‍सी बुनी गयी है। मेरा मानना है कि ठीक इसी प्रकार का शोधकार्य गोपाल राम गहमरी के कृतित्व पर भी हो सकता है, जिन्होंने हिन्दी में जासूसी उपन्यासों के लेखन की शुरुआत की थी। हिन्दी भाषा के विस्तार और विकास में गहमरी का योगदान शायद खत्री से कम नहीं था। आज यह एक अल्प ज्ञात तथ्य है कि गोपालराम गहमरी एक जाने-माने पत्रकार थे, जिन्होंने ‘हिन्दुस्तान दैनिक’ (कालाकांकर), ‘बम्बई व्यापार सिन्धु’, ‘गुप्तगाथा’, ‘भारत मित्र’, ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’ आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया था और कई अन्य के लिए नियमित लेखन किया था। वह अकेले ऐसे हिन्दी पत्रकार थे जिन्होंने बाल गंगाधर तिलक के पूरे मुकदमे की कार्यवाही अपने शब्दों  में दर्ज़ की थी।
राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में और आज़ादी के कुछ वर्षों बाद तक भारतीय समाज में लुगदी साहित्य का दायरा बहुत संकुचित था। दरअसल इसके उपभोक्ता  आम शहरी मध्यवर्ग का संख्यात्मक अनुपात ही समाज में बहुत कम था। इससे भी अहम बात यह थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन ने समाज में जो सांस्कृतिक-आत्मिक गतिशीलता और ऊर्जस्विता का माहौल पैदा किया था, उसमें अच्छे साहित्य की पहुँच समाज के आम पढ़े-लिखे लोगों तक हो रही थी। देश के सुदूरवर्ती इलाकों तक कुछ साहित्य प्रेमी रियासतदारों-ज़मीन्दारों, कुछ व्या्पारियों और कुछ राष्ट्रीय चेतना सम्प‍न्न शिक्षित नागरिकों (शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि) की पहल पर पुस्तकालय खुल गये थे और पत्र-पत्रिकाएँ-पुस्तकों तक लोगों की पहुँच बनने लगी थी। देवकीनन्दन खत्री और गहमरी ही नहीं, प्रेमचन्द, सुदर्शन, जैनेन्द्र आदि का साहित्य भी लोकप्रिय साहित्य की तरह पढ़ा जाने लगा था। बंकिम चन्द्र, टैगोर, शरतचन्द्र आदि भी अनूदित होकर हिन्दी  पाठकों तक पहुँचने लगे थे। इससे पीछे की चेतना वाले लोग ज्यादातर धार्मिक साहित्य पढ़ते थे और मेला-बाज़ारों में बिकने वाली ‘राजा भर्तृहरि’, ‘सोरठी बृजभार’, ‘आल्हा’, ‘किस्सा  हातिमताई’, ‘अलिफ लैला ‘ आदि किताबें पढ़ते थे।
1950 और 1960 का दशक नेहरूकालीन सार्वजनिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र और दफ़्तरों-कचहरियों के फैलाव के साथ शिक्षित मध्यवर्ग के भारी फैलाव का काल था। यह समय था जब राष्ट्रीय आन्दोलन से समाज में पैदा हुई गतिशीलता और ऊर्जस्विता छीजती जा रही थी। मध्यवर्ग का एक ऐसा हिस्सा तेज़ी से फैलता जा रहा था जो शिक्षित था, लेकिन बस नौकरी करना और परिवार चलाना उसका जीवन-लक्ष्य था। कला-साहित्य-संस्कृति से उसका कोई लेना-देना नहीं था। आज़ादी के पहले के दिनों के मुकाबले, इस दौर का मध्यवर्ग कहीं अधिक अराजनीतिक था। यह एक आत्मतुष्ट, कूपमण्डू‍क और गँवार-कुसंस्कृत शिक्षित समुदाय था। इसमें से जो थोड़ा-बहुत साहित्य,-प्रेमी था भी, उसकी पहुँच गुरुदत्त से लेकर चतुरसेन शास्त्री  के उपन्यासों तक थी। फिर इसी पाठक समुदाय तक पहुँचने वाले बहुत सारे लेखक पैदा हुए जो ज्यादातर परम्पराओं का महिमामण्डन करने वाले, सामाजिक सुधारवादी या सतही रूमानी किस्म  के गल्प लिखा करते थे। यही हिन्दी का प्रारम्भिक लुगदी साहित्य था। लुगदी साहित्य के दायरे में शुरुआती दौर का सर्वाधिक चर्चित नाम कुशवाहा कान्त का था, हालाँकि उनके रूमानी उपन्यासों में प्राय: परम्पराभंजन का भी एक पक्ष हुआ करता था और उन्होंने एक उपन्यास ‘लाल रेखा’ ऐसा भी लिखा था जो क्रान्तिकारी राष्ट्रीय आन्दोलन पर केन्द्रित था। एक दूसरा नाम गोविन्द सिंह का था, जिनके लेखन में यौन-प्रसंगों की छौंक-बघार के बावजूद सामाजिक तौर पर परम्परा-भंजन की अंतर्वस्तु हुआ करती थी !
1960 और 1970 के दशकों में गुलशन नन्दा लुगदी साहित्य या फुटपाथिया साहित्य नामधारी सस्ते लो‍कप्रिय साहित्य की दुनिया के बेताज़ बादशाह रहे। गुलशन नन्दा के बाद रानू, राजवंश, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश काम्बोज, ओमप्रकाश शर्मा, अनिल मोहन, मनोज आदि पिछले पचास वर्षों के दौरान लुगदी साहित्य के शीर्षस्थ रचनाकार रहे हैं। इनमें गुलशन नन्दा  के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय शायद वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक ही रहे हैं। वेद प्रकाश शर्मा के बहुचर्चित उपन्यास ‘वर्दी वाला गुण्डा’ की पहले ही दिन 15 लाख प्रतियाँ बिक गयी थीं। सुरेन्द्र  मोहन पाठक के एक-एक उपन्यास के एक-एक संस्करण 30 हजार से अधिक प्रतियों तक के हुआ करते हैं। लुगदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम प्यारे लाल आवारा का भी है, जिन्हें  आज बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन साठ के दशक में उनकी तूती बोलती थी। इलाहाबाद स्थित अपने रूपसी प्रकाशन से वह हर माह ‘रूपसी’ नामक पुस्तकाकार मासिक पत्रिका निकालते थे जिसके हर अंक में एक सम्पूर्ण उपन्यास प्रकाशित होता था, चाहे वह जासूसी हो, रूमानी हो या सामाजिक हो। ज्यादातर प्यारेलाल आवारा के ही उपन्यास होते थे, कभी-कभी दूसरे (प्राय: अल्पचर्चित) लेखकों के भी हुआ करते थे। बहुत कम लोग आज इस बात को जानते हैं कि राजकमल चौधरी का विवादास्पद उपन्यास ‘देहगाथा’ सबसे पहले ‘सुनो ब्रजनारी’ नाम से ‘रूपसी’ में ही प्रकाशित हुआ था। एक महत्वपूर्ण नाम ओमप्रकाश शर्मा का भी है जिनके उपन्यासों में वाम राजनीति के रंग भी यदा-कदा दीख जाते थे ! लुगदी उपन्यासों का लेखन शुरू करने से पहले वह एक कारख़ाना मज़दूर थे और ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सक्रिय थे !
1970 के दशक में लुगदी साहित्य पर फिल्मों  के बनने की शुरुआत हुई। शुरुआत गुलशन नन्दा  से हुई, फिर और लेखकों की कृतियों पर भी फिल्में बनीं। इनसे लुगदी साहित्य  की लोकप्रियता और बिक्री पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। लेकिन गत शताब्दी  के अन्तिक दशक से, जब घर-घर में टी.बी. पर्दों पर लोकप्रिय सामाजिक-पारिवारिक-रूमानी-पौराणिक-छद्म ऐतिहासिक धारावाहिकों की बाढ़ आ गयी, तो घरों में लुगदी साहित्य का स्पेस किसी हद तक कम हुआ। प्लेटफार्मों के स्टालों पर अभी भी इनकी ढेरी लगी रहती है और ट्रेनों में यात्रा के दौरान वक्त काटने के लिए लोग इन्हें  खूब खरीदते हैं। लेकिन स्मार्टफोन आने के बाद और फेसबुक-ट्विटर-इंस्टाग्राम-ह्वाट्सअप आदि का चलन बढ़ने के साथ ट्रेनों-बसों में भी लोगों के हाथों में किताबें नहीं, स्मार्टफोन ही अधिक दीखने लगे हैं। मज़दूरों की बस्तियों और निम्न मध्यवर्गीय बस्तियों पर फिर भी लुगदी साहित्य की पकड़ किसी हद तक कायम है।
लुगदी साहित्य की एक श्रेणी के रूप में अगर जासूसी उपन्यासों की बात करें तो इस मामले में इब्ने सफ़ी को एक ‘ट्रेण्ड सेटर’ कहा जा सकता है। गहमरी के जासूसी उपन्यासों के बाद दशकों तक अल्पख्यात लेखकों द्वारा छिटपुट जो जासूसी उपन्यास लिखे जाते रहे, उनमें सेक्स-प्रसंगों का तड़का ज़रूर होता था। अपने दो दोस्तों  — राही मासूम रज़ा और इब्ने सईद द्वारा यह कहे जाने पर असरार अहमद उर्फ़ इब्ने सफ़ी ने इसे एक चुनौती की तरह लिया और ऐसे साफ़-सुथरे जासूसी उपन्यासों की शुरुआत की जिनमे हास्य के प्रसंग तो होते थे लेकिन अश्लीलता बिल्कु्ल नहीं होती थी। पहले उनके उपन्यास उर्दू में छपे, फिर हिन्दी में छपने लगे। ‘जासूसी दुनिया’ पत्रिका में उनके उपन्यासों की श्रृंखला प्रकाशित होती थी। 1950 के दशक के अन्त में जब वह पाकिस्तान चले गये, तब भी वहाँ से उनकी पाण्डुलिपियाँ आती रही और उनके उपन्यास इलाहाबाद से छपते रहे। जासूसी उपन्यासों में इब्ने सफ़ी जैसी लोकप्रियता फिर किसी और लेखक को नहीं मिली। इसके बाद किसी हद तक कर्नल रंजीत चर्चित रहे, पर जल्द  ही उनके उपन्यासों में भी सेक्स-प्रसंगों की छौंक-बघार खूब नज़र आने लगी। गत कुछ दशकों के दौरान परशुराम शर्मा, प्रेम वाजपेयी, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र् मोहन पाठक, केशव पण्डित आदि कुछ चर्चित जासूसी उपन्यासकार रहे हैं, पर इनके ज्यादातर उपन्यासों में कोई रहस्य जटिल नहीं बन पाता। वे सामान्य अपराध कथाएँ होती हैं और साहित्यिक शैली की दृष्टि से काफ़ी कमज़ोर होती हैं।
पश्चिम में अगाथा क्रिस्टी और आर्थर कानन डॉयल जैसे कई लेखकों ने जासूसी उपन्यासों के साहित्यिक स्तर को काफ़ी ऊँचा उठा दिया था। उनमें कई पात्रों के जटिल मनोविज्ञान का प्रभावी चित्रण होता था और अपराध शास्त्र (क्रिमिनोलॉजी) और विधि शास्त्र (ज्यु‍रिस्प्रूडेंस) की अच्छी‍ समझ के साथ ही सामाजिक परिवेश और व्यक्तित्वों का भी उम्दा चित्रण होता था। भारत में विशेषकर बांग्ला भाषा में कुछ लेखकों ने जासूसी गल्प को ऐसे उत्कृष्ट मनोरंजक साहित्य के स्तर तक ऊपर उठाने का काम किया, जिसमें किसी हद तक सामाजिक यथार्थ और मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ भी उत्कृष्ट ढंग से चित्रित होती थीं। सारदेन्दु बंदोपाध्याय का पत्र ब्योमकेश बक्शी टी.वी. सीरियल बनने के पहले ही बंगाल के घर-घर में लोकप्रिय था। जासूसी कहानियों में सत्य‍जीत रे ने भी सफलतापूर्वक हाथ आजमाया था और उनके जासूस फेलू दा की भी घर-घर में लोकप्रियता थी। हिन्दी –उर्दू में स्थापित साहित्यकारों में से एक – कृश्नचन्दर ने ‘हांगकांग की हसीना’ नाम से एक जासूसी उपन्यास लिखा भी तो एक चलताऊ जासूसी उपन्यास से आगे वह अपना कोई विशेष साहित्यिक मूल्य स्थापित नहीं कर पाया।
 मेरा विचार है कि जासूसी उपन्यासों की इस दुरवस्था पर विशेष ऐतिहासिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ ही विचार किया जा सकता है। पश्चिम में पूँजी की दुनिया के ऐतिहासिक विकास के साथ-साथ जो सभ्य समाज विकसित हुआ, उसमें सम्पत्ति-विषयक अपराधों, जटिल आपराधिक मानसिकता, रुग्ण  मानसिकता, अपराधशास्त्र , विधिशास्त्र और फोरेंसिक साइन्स आदि का विकास हुआ। यही वह ज़मीन थी, जिसपर रहस्य-रोमांच और जटिल ताना-बाना वाले, साहित्यिक स्तर वाले जासूसी उपन्यासों का विकास हुआ। भारत में स्वतन्त्रता पश्चात काल में, विलम्बित और मंथर गति से जिस पूँजीवाद का विकास हुआ, उसमें प्रा‍कपूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्ध लम्बे समय तक बने रहे। भारतीय पूँजीवाद ने मध्यकालीन संस्कृति और संस्थाओं को पुन:संस्कारित करके अपना लिया। अपनी प्राच्य विशिष्टताओं वाला भारतीय पूँजीवाद तर्कणा के मूल्यों से काफ़ी हद तक रिक्त है। यही कारण है कि इस समाज में तिलस्म, जादू, भूत-प्रेत और सामान्य अपराध-कथाओं की ज़मीन ज्यादा व्यापक रूप में मौजूद है, जबकि जटिल अपराध-कथाओं की ज़मीन यहाँ बहुत कमज़ोर और संकुचित रूप में मौजूद है। ज्यादा उन्नत  स्तर के जासूसी उपन्यास प्राय: उन्नत पूँजीवादी समाजों में ही लिखे जा सकते हैं, जहाँ सम्पत्ति-विषयक सम्बन्ध जटिल होते हैं और बुर्जुआ नागरिकों के मानस की रुग्णता तथा अन्तर-वैयक्तिक सम्बन्ध भी अधिक जटिल होते हैं। ऐसे समाजों में अपराधों और अपराध शास्त्र  के अधिक जटिल स्वरूप विकसित होते हैं और उन्नत स्तर के जासूसी उपन्यासों की ज़मीन भी मौजूद रहती है और पाठक भी।
लुगदी साहित्य के दायरे में, जिसतरह के रूमानी, सामाजिक और पारिवारिक किस्म  के उपन्यास गत शताब्दी के अन्त तक हिन्दी संसार में बड़े पैमाने पर लिखे और पढ़े जाते थे, उनके उत्पादन और खपत में गिरावट का एकमात्र कारण टी.वी. और कम्प्यूटर की घर-घर पहुँच ही हो, ऐसी बात नहीं है। इससे भी अहम बात यह है कि पिछले लगभग 20-25 वर्षों के दौरान, नवउदारवाद के प्रभाव में भारतीय समाज का ताना-बाना तेज़ी से बदला है। जीवन की गति तेज़ हो गयी है, लेकिन विचारों और भावनाओं का गुरुत्व कम होता चला गया है। समाज के पोर-पोर में अलगाव (एलियनेशन) का ज़हर भिनता चला गया है। भाग-दौड़ और अलगाव भरे जीवन में रोमांस का स्वरूप भी अब पहले जैसा नहीं रह गया है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन भी अब पहले जैसा नहीं रह गया है। लुगदी साहित्य के ज्यादातर लेखक सफलता की पुरानी लीक को पीटने के चक्कर में बदलते समय की नब्ज़ को नहीं पकड़ पा रहे हैं और लोकप्रियता के नये मंत्र ढूँढ पाने में विफल होने के कारण पुराने अनुष्ठानों को ही दुहरा रहे हैं। यही मुख्य  कारण है कि नयी पीढ़ी में अब आपको लुगदी साहित्य के पाठक कम मिलेंगे। उसे अपने मनोरंजन की खुराक़ इण्टरनेट और स्मार्ट फोन के ज़रिए मिल जा रही है। लुगदी साहित्य  की ज्यादातर खपत इनदिनों पढ़े-लिखे मज़दूरों में और अधेड़ वय के आम मध्यवर्गीय नागरिकों में हो रही है। आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा  जो नयी चीज़ों से घबराकर नॉस्टैल्जिक होकर अतीत को शरण्य बनाता है, उसे टी.वी. सीरियल्स  से और बीच-बीच में आने वाली ‘बागवान’ और ‘विवाह’ जैसी कुछ फिल्मों  से ख़ुराक मिल जाया करती है। अब फिल्मों में अतीत का प्रेत अगर जगाया भी जाता है तो पुरानी कथा को नये अन्दाज़ में सुनाना पड़ता है।
लगे हाथों ‘लोकप्रिय’ और ‘कलात्मक-वैचारिक रूप से स्तरीय’ के बीच के द्वंद्व पर भी विचार कर लिया जाना चाहिए। सभ्यता के इतिहास में श्रम-विभाजन के प्रवेश और मानसिक श्रम – शारीरिक श्रम के बँटवारे के साथ ही कला-साहित्य की दुनिया में इस द्वंद्व की शुरुआत हो गयी थी। मिथक कथाओं के काल में यह अन्तरविरोध नहीं था। मिथकों का रचयिता वही जन समुदाय था जो समस्त सामाजिक सम्प‍दा का निर्माता था। लेकिन ग्रीक और संस्कृत महाकाव्यों के रचयिता अपने युग के व्यक्ति-बुद्धिजीवी थे। उस समय सभी आम लोग इन कलाकृतियों को नहीं पढ़ते थे। उनका अपना लोक-साहित्य था, लोक-कलाएँ थीं। पूँजीवाद के युग की खास बात यह है कि वह (प्रिण्टिंग प्रेस से लेकर कम्प्यूटर आदि तक के जरिए) कलात्मक-साहित्यिक सामग्री का ‘मास-प्रोडक्श‍न’ कर सकता है, लेकिन बुर्जुआ श्रम-विभाजन वाले समाज में किसी भी तरह से यह सम्भव ही नहीं है कि व्यापक आम मेहनतक़श आबादी और नीरस कलमघिस्सू  जीवन जीने भर की शिक्षा पाई हुई आम मध्यवर्गीय आबादी उच्च स्तर के कलात्मक अमूर्तन और वैचारिकता का आस्वाद ले सके। ‘आर्ट एप्रीसियेशन’ का वह प्रशिक्षण उसे बुर्जुआ सामाजिक ढाँचे में नसीब ही नहीं होता। इसलिए यह तय है कि आम तौर पर हम कलात्मक-वैचारिक रूप से स्तरीय साहित्य से लुगदी साहित्य जैसी लोकप्रियता की अपेक्षा नहीं कर सकते। यह सम्भव नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि किसी समाज में जब बदलाव की सरगर्मी, वैचारिक उथल-पुथल और उम्मीदों का माहौल होता है, तो आम जनमानस उस कला-साहित्य को लेकर उत्सुक-उत्कण्ठित हो जाता है जो अपने समय और उसके भविष्य  के बारे में संजीदगी से बातें करते हैं और सवाल उठाते हैं। यही कारण था कि आज़ादी के पहले स्तरीय लेखन ही पढ़ी-लिखी आबादी में लोकप्रिय था। अलग से लुगदी साहित्य का अस्तित्व  नहीं था। कमोबेश यह स्थिति 1950 के दशक तक बनी रही। इस बात को फिल्मों के उदाहरण से भी किसी हद तक स्पष्ट किया जा सकता है। 1950 के दशक के अन्त तक शान्ता राम, बिमल राय, गुरुदत्त, राजकपूर आदि की जो फिल्में स्तरीय कलात्मक मानी जाती थीं, उनकी व्यापक लोकप्रियता भी थी। 1960 के दशक के मध्य से एक ओर व्यावसायिक सिनेमा मुखर सामाजिक-राजनीतिक अन्तर्वस्तु‍ और स्तरीयता को खोता चला गया (हालाँकि गहरे अर्थों में, वह राजनीतिविहीन नहीं था), दूसरी ओर इन मसाला फिल्मों के बरक्स कला सिनेमा या समान्तर सिनेमा की एक समान्तर धारा अस्तित्व‍ में आयी।
लुगदी साहित्य को लेकर इन दिनों एक नया विमर्श चलन में है। कुछ साहित्यकार इसकी व्यापक लोकप्रियता को ही साहित्यिक मूल्य का मान बनाकर पेश कर रहे हैं। वे जनता में इसकी व्यापक पहुँच और इसके व्यापक प्रभाव को पैमाना बनाकर उन्नत कलात्मक स्तर और कम पहुँच वाले साहित्य की भर्त्सना तक पर आमादा दीख रहे हैं। यह बेहद बचकानी, लोकरंजक और हास्यास्पद बात है। माना कि उन्नतस्तरीय साहित्य को यथासम्भव व्यापक लोगों तक पहुँच बनानी चाहिए, और माना कि कई बार इसमें सफलता भी मिल सकती है (प्रेमचन्द से लेकर परसाई तक की लोकप्रियता उदाहरण हैं), पर लोकप्रियता को कलात्मक-वैचारिक स्तर का पैमाना नहीं बनाया जा सकता। भले ही ‘हार्पर कालिंज’ इब्ने सफ़ी के उपन्यासों के पुनर्प्रकाशन के बाद अब सुरेन्द्र मोहन पाठक को भी छापने जा रहा हो और ‘राजकमल प्रकाशन’ भी लुगदी साहित्य  के प्रकाशन के लिए ‘फंडा’ नाम का उपकरण शुरू करने जा रहा हो, लुगदी साहित्य को स्तरीय साहित्य का दर्जा़ कभी नहीं मिल सकता।
हाँ, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लेखक की सचेतनता से स्वतंत्र होकर सामाजिक यथार्थ लुगदी साहित्य  में भी परावर्तित होता है। जाने-अनजाने लुगदी साहित्य भी अपने समय और समाज का ही रूपक रचता है। उसमें सामाजिक यथार्थ की फ़न्तासी का संधान अवश्य  किया जा सकता है। इन अर्थों और सन्दर्भों में, लुगदी साहित्य समाजशास्त्रीय अध्ययन और समाजेतिहासिक अध्ययन की बेहद उपयोगी सामग्री है, इसमें कतई सन्देह नहीं है।

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अनुपम मिश्र का लेख ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’

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आज सत्यानंद निरुपम जी ने फ़ेसबुक पर अनुपम मिश्र के इस लेख की याद दिलाई तो मुझे ‘जनसत्ता’ के वे दिन याद आ गए जब एडिट पेज पर हमने यह लेख प्रकाशित किया था, याद आई अशोक शास्त्री जी की जिनसे घंटों घंटों इस लेख को लेकर चर्चा होती थी। बिहार में बेमौसम बाढ़ के हालात हैं, इस लेख को फिर से पढ़ा जाना चाहिए। अनुपम जी के इस लेख में वह तैरने वाला समाज बिहार का ही था जो अब ड़ूब रहा है- मॉडरेटर

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उत्तर बिहार में आई भयानक बाढ़ अब आगे निकल गई है। कुछ लोग उसे भूल भी जाएंगे। लेकिन याद रखना चाहिए कि उत्तर बिहार उस बाढ़ की मंजिल नहीं था। वह एक पड़ाव भर था। बाढ़ की शुरुआत नेपाल से होती है, फिर वह उत्तर बिहार आती है। उसके बाद बंगाल जाती है। और सबसे अंत में सितम्बर के अंत या अक्टूबर के प्रारंभ में- वह बांग्लादेश में अपनी आखरी उपस्थिति जताते हुए सागर में मिलती है।

इस बार उत्तर बिहार में बाढ़ ने बहुत अधिक तबाही मचाई। कुछ दिन सभी का ध्यान इसकी तरफ गया। जैसा कि अक्सर होता है, हेलीकॉप्टर आदि से दौरे हुए। फिर अगली बाढ़ तक इसे भुला दिया जाता है। भूल नहीं पाते हैं वे लाखों लोग जो बाढ़ में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। इन्हें अपना जीवन फिर लगभग शून्य से शुरू करना पड़ता है।

बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन का अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं। इसलिए अब बाढ़ की मारक क्षमता पहले से अधिक बढ़ चली है। पहले शायद हमारा समाज बिना इतने बड़े प्रशासन के या बिना इतने बड़े निकम्मे प्रशासन के अपना इंतजाम बखूबी करना जानता था। इसलिए बाढ़ आने पर वह इतना परेशान नहीं दिखता था।

बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन का अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं।इस बार की बाढ़ ने उत्तर बिहार को कुछ अभिशप्त इलाके की तरह छोड़ दिया है। सभी जगह बाढ़ से निपटने में अव्यवस्था की चर्चा हुई है। अव्यवस्था के कई कारण भी गिनाए गए हैं- वहां की असहाय गरीबी आदि। लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात का अंदाज होगा कि उत्तर बिहार एक बहुत ही संपन्न टुकड़ा रहा है इस प्रदेश का। मुजफ्फरपुर की लीचियां, पूसा ढोली की ईख, दरभंगा का शाहबसंत धान, शकरकंद, आम, चीनिया केला और बादाम और यहीं के कुछ इलाकों में पैदा होने वाली तंबाकू, जो पूरे शरीर की नसों को हिलाकर रख देती है। सिलोत क्षेत्र का पतले से पतला चूड़ा जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नाक की हवा से उड़ जाता है, उसके स्वाद की चर्चा तो अलग ही है। वहां धान की ऐसी भी किस्में रही हैं जो बाढ़ के पानी के साथ-साथ खेलती हुई ऊपर उठती जाती थीं और फिर बाढ़ को विदा कर खलिहान में आती थीं। फिर दियारा के संपन्न खेत।

सुधी पाठक इस सूची को न जाने कितना बढ़ा सकते हैं। इसमें पटसन और नील भी जोड़ लें तो आप ‘दुनिया के सबसे बड़े’ यानी लंबे प्लेटफार्म पर अपने आप को खड़ा पाएंगे। सोनपुर का प्लेटफार्म। ऐसा कहते हैं कि यह हमारे देश का सबसे बड़ा प्लेटफार्म है। यह वहां की संपन्नतम चीजों को रेल से ढोकर देश के भीतर और बाहर ले जाने के लिए बनाया गया था। एक पूरा संपन्न इलाका उत्तर बिहार आज दयनीय स्थिति में क्यों पड़ गयाहै? हमें सोचना चाहिए। आज हम इस इलाके की कोई चिंता नहीं कर रहे हैं और उसे एक तरह से लाचारी में छोड़ बैठे हैं।

बाढ़ आने पर सबसे पहला दोष तो हम नेपाल को देते हैं। नेपाल एक छोटा-सा देश है। बाढ़ के लिए हम उसे कब तक दोषी ठहराते रहेंगे? कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा, इसलिए उत्तर बिहार बह गया। यह देखने लायक बात होगी कि नेपाल कितना पानी छोड़ता है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि नेपाल बाढ़ का पहला हिस्सा है। वहां हिमालय की चोटियों से जो पानी गिरता है, उसे रोकने की उसके पास कोई क्षमता और साधन नहीं है। और शायद उसे रोकने की कोई व्यवहारिक जरूरत भी नहीं है। रोकने से खतरे और भी बढ़ सकते हैं। इसलिए नेपाल पर दोष थोपना बंद करना होगा।

यदि नेपाल पानी रोकेगा तो आज नहीं तो कल, हमें अभी की बाढ़ से भी भयंकर बाढ़ झेलने की तैयारी करके रखनी पड़ेगी। हम सब जानते हैं कि हिमालय का यह हिस्सा कच्चा है और इसमें कितनी भी सावधानी और ईमानदारी से बनाए गए बांध किसी न किसी तरह से प्रकृति की किसी छोटी सी हलचल से टूट भी सकते हैं। और तब आज से कई गुना भयंकर बाढ़ हमारे सामने आ सकती है। यदि नेपाल को ही दोषी ठहराया जाए तो कम से कम बिहार के बाढ़ नियंत्रण का एक बड़ा भाग- पैसों का, इंजीनियरों का, नेताओं का अप्रैल और मई में नेपाल जाना चाहिए ताकि वहां यहां की बाढ़ से निपटने के लिए पुख्ता इंतजामों के बारे में बातचीत की जा सके। बातचीत मित्रवत हो, तकनीकी तौर पर हो और जरूरत पड़े तो फिर मई में ही प्रधानमंत्री नहीं तो प्रदेश के मुख्यमंत्री ही नेपाल जाएं और आगामी जुलाई में आने वाली बाढ़ के बारे में चर्चा करके देखें।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम बाढ़ के रास्ते में हैं। उत्तर बिहार से पहले नेपाल में काफी लोगों को बाढ़ के कारण जान से हाथ धोना पड़ा है। पिछले साल नेपाल में भयंकर भूस्खलन हुए थे, और तब हमें पता चल जाना चाहिए था कि अगले साल हम पर भी बड़ा संकट आएगा, क्योंकि हिमालय के इस कच्चे भाग में जितने भूस्खलन हुए, उन सबका मलबा वहीं का वहीं पड़ा था और वह इस वर्ष की बरसात में नीचे उतर आने वाला था।

उत्तर बिहार की परिस्थिति भी अलग से समझने लायक है। यहां पर हिमालय से अनगिनत नदियां सीधे उतरती हैं और उनके उतरने का एक ही सरल उदाहरण दिया जा सकता हैः जैसे पाठशाला में टीन की फिसलपट्टी होती है, उसी तरह से यह नदियां हिमालय से बर्फ की फिसलपट्टी से धड़ाधड़ नीचे उतरती हैं। हिमालय के इसी क्षेत्र में नेपाल के हिस्से में सबसे ऊंची चोटियां हैं और कम दूरी तय करके ये नदियां उत्तर भारत में नीचे उतरती हैं। इसलिए इन नदियों की पानी क्षमता, उनका वेग, उनके साथ कच्चे हिमालय से, शिवालिक से आने वाली मिट्टी और गाद इतनी अधिक होती है कि उसकी तुलना पश्चिमी हिमालय और उत्तर-पूर्वी हिमालय से नहीं कर सकते।

एक तो यह सबसे ऊंचा क्षेत्र है, कच्चा भी है, फिर भ्रंश पर टिका हुआ इलाका है। यहां भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी हैं जहां से हिमालय का जन्म हुआ है। बहुत कम लोगों को अंदाज होगा कि हमारा समाज भी भू-विज्ञान को, ‘जिओ मार्फालॉजी’ को खूब अच्छी तरह समझता है। इसी इलाके में ग्यारहवीं शताब्दी में बना वराह अवतार का मंदिर भी है। भगवान के वराह रूप के मंदिर किसी और इलाके में आसानी से मिलते नहीं है। यह हिस्सा कुछ करोड़ साल पहले किसी एक घटना के कारण हिमालय के रूप में सामने आया। यहीं से फिर नदियों का जाल बिछा। ये सरपट दौड़ती हुई आती हैं- सीधी उतरती हैं। इससे उनकी ताकत और बढ़ जाती है।

जब हिमालय बना तब कहते हैं कि उसके तीन पुड़े थे। तीन तहें थीं। जैसे मध्यप्रदेश के हिस्से में सतपुड़ा है वैसे यहां तीन पुड़े थे- आंतरिक, मध्य और बाह्य। बाह्य हिस्सा शिवालिक सबसे कमजोर माना जाता है। वैसे भी भूगोल की परिभाषा में हिमालय के लिए कहा जाता है कि यह अरावली, विंध्य और सतपुड़ा के मुकाबले बच्चा है। महीनों के बारह पन्ने पलटने से हमारे सभी तरह के कैलेंडर दीवार पर से उतर आते हैं। लेकिन प्रकृति के कैलेंडर में लाखों वर्षों का एक पन्ना होता है। उस कैलेंडर से देखें तो शायद अरावली की उम्र नब्बे वर्ष होगी और हिमालय, अभी चार-पांच बरस का शैतान बच्चा है। वह अभी उलछता-कूदता है, खेलता-डोलता है। टूट-फूट उसमें बहुत होती रहती है। अभी उसमें प्रौढ़ता या वयस्क वाला संयम नहीं है। शांत, धीरज जैसे गुण नहीं आए हैं। इसलिए हिमालय की ये नदियां सिर्फ पानी नहीं बहाती हैं वे साद, मिट्टी, पत्थर और बड़ी-बड़ी चट्टानें भी साथ लाती हैं। उत्तर बिहार का समाज अपनी स्मृति में इन बातों को दर्ज कर चुका था।

एक तो चंचल बच्चा हिमालय, फिर कच्चा और तिस पर भूकंप वाला क्षेत्र भी- क्या कसर बाकी रह गई है? हिमालय के इसी क्षेत्र से भूकंप की एक बड़ी और प्रमुख पट्टी गुजरती है। दूसरी पट्टी इस पट्टी से थोड़े ऊपर के भाग में मध्य हिमालय में आती है। सारा भाग लाखों बरस पहले के अस्थिर मलबे के ढेर से बना है और फिर भूकंप इसे जब चाहे और अस्थिर बना देते है। भू- विज्ञान बताता है कि इस उत्तर बिहार में और नेपाल के क्षेत्र में धरती में समुद्र की तरह लहरें उठी थीं और फिर वे एक-दूसरे से टकरा कर ऊपर ही ऊपर उठती चली गईं। और फिर कुछ समय के लिए स्थिर हो गई, यह ‘स्थिरता’ तांडव नृत्य की तरह है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में लाखों वर्ष पहले ‘मियोसिन’ काल में घटी इस घटना को उत्तरी बिहार के समाज ने अपनी स्मृति में वराह अवतार के रूप में जमा किया है। जिस डूबती पृथ्वी को वराह ने अपने थूथनों से ऊपर उठाया था, वह आज भी कभी भी कांप जाती है। 1934 में जो भूकंप आया था, उसे अभी भी लोग भूले नहीं हैं।

लेकिन यहां के समाज ने इन सब परिस्थितियों को अपनी जीवन शैली में, जीवन दर्शन में धीरे-धीरे आत्मसात किया था। प्रकृति के इस विराट रूप में वह एक छोटी सी बूंद की तरह शामिल हुआ। उसमें कोई घमंड नहीं था। वह इस प्रकृति से खेल लेगा, लड़ लेगा। वह उसकी गोद में कैसे रह सकता है- इसका उसने अभ्यास करके रखा था। क्षणभंगुर समाज ने करोड़ वर्षों की इस लीला में अपने को प्रौढ़ बना लिया और फिर अपनी प्रौढ़ता को हिमालय के लड़कपन की गोद में डाल दिया था।लेकिन पिछले सौ-डेढ़-सौ साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें की हैं जिनसे उसका विनम्र स्वभाव बदला है और उसके मन में थोड़ा घमंड भी आया है। समाज के मन में न सही तो उसके नेताओं, के योजनाकारों के मन में यह घमंड आया है। समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है।

वह इस प्रकृति से लड़ लेगा, उसे जीत लेगा, ऐसा घमंड नहीं किया। वह उसकी गोद में कैसे रह सकता है – इसका उसने अभ्यास करके रखा था। क्षणभंगुर समाज ने करोड़ वर्षों की इस लीला में अपने को प्रोढ़ बना लिया और पिर अपनी प्रौढ़ता को हिमालय के लड़कपन की गोद में डालर दिया था।उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों की संख्या अनगिनत है। कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने उनकी गिनती की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा की तरह देवियों के रूप में देखा है। हम उनके विशेषण दूसरी तरह से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह-तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे जो उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से होंगे। कुछ गुणों पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं।

इन नदियों के विशेषणों में सबसे अधिक संख्या है- आभूषणों की। और ये आभूषण हंसुली, अंगूठी और चंद्रहार जैसे गहनों के नाम पर हैं। हम सभी जानते हैं कि ये आभूषण गोल आकार के होते हैं- यानी यहां पर नदियां उतरते समय इधर- उधर सीधी बहने के बदले आड़ी, तिरछी, गोल आकार में क्षेत्र को बांधती हैं- गांवों को लपेटती हैं और उन गांवों का आभूषणों की तरह श्रृंगार करती हैं। उत्तर बिहार के कई गांव इन ‘आभूषणों’ से ऐसे सजे हुए थे कि बिना पैर धोए आप इन गांवों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। इनमें रहने वाले आपको गर्व से बताएंगे कि हमारे गांव की पवित्र धूल गांव से बाहर नहीं जा सकती, और आप अपनी (शायद अपवित्र) धूल गांव में ला नहीं सकते। कहीं- कहीं बहुत व्यावहारिक नाम भी मिलेंगे। एक नदी का नाम गोमूत्रिका है- जैसे कोई गाय चलते-चलते पेशाब करती है तो जमीन पर आड़े तिरछे निशान पड़ जाते हैं इतनी आड़ी तिरछी बहने वाली यह नदी है। इसमें एक-एक नदी का स्वभाव देखकर लोगों ने इसको अपनी स्मृति में रखा है।

एक तो इन नदियों का स्वभाव और ऊपर से पानी के साथ आने वाली साद के कारण ये अपना रास्ता बदलती रहती हैं। कोसी के बारे में कहा जाता है कि पिछले कुछ सौ साल में 148 किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी कोसी ने नहीं छोड़ी है जहां से वह बही न हो। ऐसी नदियों को हम किसी तरह के तटबंध या बांध से बांध सकते हैं, यह कल्पना करना भी अपने आप में विचित्र है। समाज ने इन नदियों को अभिशाप की तरह नहीं देखा। उसने इनके वरदान को कृतज्ञता से स्वीकार किया। उसने यह माना कि इन नदियों ने हिमालय की कीमती मिट्टी इस क्षेत्र के दलदल में पटक कर बहुत बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन निकाली है। इसलिए वह इन नदियों को बहुत आदर के साथ देखता रहा है। कहा जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो सका तो इन्हीं नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण ही। लेकिन इनमें भी समाज ने उन नदियों को छांटा है जो अपेक्षाकृत कम साद वाले इलाकों से आती हैं।

ऐसी नदियों में एक है- खिरोदी। कहा जाता है कि इसका नामकरण क्षीर अर्थात दूध से हुआ है, क्योंकि इसमें साफ पानी बहता है। एक नदी जीवछ है, जो शायद जीवात्मा या जीव इच्छा से बनी होगी। सोनबरसा भी है। इन नदियों के नामों में गुणों का वर्णन देखेंगे तो किसी में भी बाढ़ से लाचारी की झलक नहीं मिलेगी। कई जगह ललित्य है इन नदियों के स्वभाव में। सुंदर कहानी है मैथिली के कवि विद्यापति की।कवि जब अस्वस्थ हो गए तो उन्होंने अपने प्राण नदी में छोड़ने का प्रण किया। कवि प्राण छोड़ने नदी की तरफ चल पड़े, मगर बहुत अस्वस्थ होने के कारण नदी किनारे तक नहीं पहुंच सके। कुछ दूरी पर ही रह गए तो नदी से प्रार्थना की कि हे मां, मेरे साहित्य में कोई शक्ति हो, मेरे कुछ पुण्य हों तो मुझे ले जाओ। कहते हैं कि नदी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और कवि को बहा ले गई।

नदियां विहार करती हैं, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कूदती हैं। यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएं उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियां थीं। इन असंख्य नदियों में वहां का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से अपनी देह में, अपने मन और अपने विचारों में उतारता था। इसलिए कभी वहां कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएं रेत में उकेरी जातीं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं- हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें, लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। फुलपरास का किस्सा यहां दोहराने लायक है।

समाज ने पीढ़ीयों से शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है।कभी भुतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदलकर कहीं और भटक गई। तब वहां के गांवों ने भुतही को वापस बुलाने के लिए अनुष्ठान किया। नदी ने मनुहार स्वीकार की और अगले वर्ष वापस चली आई ! ये कहानियां समाज इसलिए याद रखवाना चाहता है कि लोगों को मालूम रहे कि यहां की नदियां कवि के कहने से भी रास्ता बदल लेती हैं और साधारण लोगों का आग्रह स्वीकार कर अपना बदला हुआ रास्ता फिर से सुधार लेती हैं। इसलिए इन नदियों के स्वभाव को ध्यान में रखकर जीवन चलाओ। ये चीजें हम लोगों को इस तरफ ले जाती हैं कि जिन बातों को भूल गए हैं उन्हें फिर से याद करें।

कुछ नदियों के बहुत विचित्र नाम भी समाज ने हजारों साल के अनुभव से रखे थे। इनमें से एक विचित्र नाम है- अमरबेल। कहीं से आकाशबेल भी कहते हैं। इस नदी का उद्भव और संगम कहीं नहीं दिखाई देता है। कहां से निकलती है, किस नदी में मिलती है- ऐसी कोई पक्की जानकारी नहीं है। बरसात के दिनों में अचानक प्रकट होती है और जैसे पेड़ पर अमरबेल छा जाती है वैसे ही एक बड़े इलाके में इसकी कई धाराएं दिखाई देती हैं। फिर ये गायब भी हो जाती हैं। यह भी जरूरी नहीं कि वह अगले साल इन्हीं धाराओं में से बहे। तब यह अपना कोई दूसरा नया जाल खोल लेती है। एक नदी का नाम है दस्यु नदी। यह दस्यु की तरह दूसरी नदियों की ‘कमाई’ हुई जलराशि का, उनके वैभव का हरण कर लेती है। इसलिए पुराने साहित्य में इसका एक विशेषण वैभवहरण भी मिलता है।

फिर बिल्कुल चालू बोलियों में भी नदियों के नाम मिलते हैं। एक नदी का नाम मरने है। इसी तरह एक नदी मरगंगा है। भुतहा या भुतही का किस्सा तो ऊपर आ ही गया है। जहां ढेर सारी नदियां हर कभी हर कहीं से बहती हों सारे नियम तोड़ कर, वहां समाज ने एक ऐसी भी नदी खोज ली थी जो टस से मस नहीं होती थी। उसका नाम रखा गया- धर्ममूला। ये सब बताते हैं कि नदियां वहां जीवंत भी हैं और कभी- कभी वे गायब भी हो जाती हैं, भूत भी बन जाती हैं, मर भी जाती हैं। यह सब इसलिए होता है कि ऊपर से आने वाली साद उनमें -भरान और धसान- ये दो गतिविधियां इतनी तेजी से चलाती हैं कि उनके रूप हर बार बदलते जाते हैं।

छोटे से लेकर बड़े बांध बड़े-बड़े तटबंध इस इलाके में बनाए गए हैं, बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके-यह मान कर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। लेकिन अब बार-बार पता चल रहा है कि इनसे बाढ़ रुकने के बजाय बढ़ी है, नुकसान ही ज्यादा हुआ है।बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलता है कि इनमें ऐसे भंवर उठती हैं कि हाथियों को भी डुबो दे। इनमें चट्टानें और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब वे आपस में टकराते हैं तो ऐसी आवाज आती है कि दिशाएं बहरी हो जाएं! ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कुछ नदियों में बरसात के दिनों में मगरमच्छों का आना इतना अधिक हो जाता है कि उनके सिर या थूथने गोबर के कंडे की तरह तैरते हुए दिखाई देते हैं। ये नदियां एक-दूसरे से बहुत मिलती हैं, एक-दूसरे का पानी लेती हैं और देती भी हैं। इस आदान-प्रदान में जो खेल होता है उसे हमने एक हद तक अब बाढ़ में बदल दिया है। नहीं तो यहां के लोग इस खेल को दूसरे ढंग से देखते थे। वे बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे।

इन्हीं नदियों की बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना पद मिलता है- ‘चार कोसी झाड़ी।’ इसके बारे में नए लोगों को अब ज्यादा कुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर यहां के इलाके का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चम्पारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह- बारह सौ किलोमीटर तक चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था। चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज के खर्चीले, अव्यावहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन-बंध बाढ़ लाने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी।

ढाई हजार साल पहले एक संवाद में बाढ़ का कुछ वर्णन मिलता है। संवाद भगवान बुद्ध और एक ग्वाले के बीच है। ग्वाले के घर में किसी दिन भगवान बुद्ध पहुंचे हैं। काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मजबूती से खूंटे में बांध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है। आराम से चाहे जितना पानी बरसे। नदी देवी दर्शन देकर चली जाएगी। इसके बाद भगवान बुद्ध ग्वाले से कह रहे हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं है। युगपुरुष साधारण ग्वाले की झोपड़ी में नदी किनारे रात बिताएंगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी भी बाढ़ आ जाएगी? पर दोनों निश्चिंत हैं। आज क्या ऐसा संवाद बाढ़ से ठीक पहले हो पाएगा?

ये सारी चीजें हमें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना जानते थे। यहां का समाज इस बाढ़ में तैरना जानता था। इस बाढ़ में तरना भी जानता था। इस पूरे इलाके में ह्रद और चौरा या चौर शब्द बड़े तालाबों के लिए हैं। चौर में बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया जाता था। इस इलाके में पुराने और बड़े तालाबों का वर्णन खूब मिलता है। दरभंगा का एक तालाब इतना बड़ा था कि उसका वर्णन करने वाले उसे अतिशयोक्ति तक ले गए। उसे बनाने वाले लोगों ने अगस्त्य मुनि तक को चुनौती दी कि तुमने समुद्र का पानी पीकर उसे सुखा दिया था, अब हमारे इस तालाब का पानी पीकर सुखा दो तब जानें। वैसे समुद्र जितना बड़ा कुछ भी न होगा- यह वहां के लोगों को भी पता था। पर यह खेल है कि हम इतना बड़ा तालाब बनाना जानते हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी तक वहां के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। परिहारपुर, भरवाहा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे-चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों, राजनेताओं, अधिकारियों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं- इनका पानी सुखाकर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत जरूर बढ़ा लिए, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। अब यहां पुराने केत तो डूबते ही है, नए भी डूबते हैं। खेत ही अकेले नहीं खलियान, घर, बस्ती सब बाढ़ में समा जाते हैं।

बाढ़ राहत में खाना बांटने में, खाने के पैकेट गिराने में हेलीकॉप्टरों का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लगात से सिर्फ दो करोड़ रुपए की रोटी-सब्जी, पुरी बांटी गई थी। ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलीकॉप्टर के बदले हम कम-से-कम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते।आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिंग शब्द है। इस तरह का पूरा ढांचा उत्तर बिहार के लोगों ने बनाया था A वह ‘फ्लड वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम’ था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था। तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम-से-कम करना जानते थे। तालाब का एक विशेषण यहां मिलता है- नदियां ताल। यानी वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहां हिमालय से उतरने वाली नदियां इतना अधिक पानी लेकर आती हैं कि नदी से भरने वाला तालाब बनाना ज्यादा व्यावहारिक होता था। नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाया जाता था। ऐसे भूगोलविद समझदार समाज के आज टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे दंभी हैं।

उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाजा है कि बांग्लादेश में कुल जो जलराशि इकट्ठा होती है, उसका केवल दस प्रतिशत उसे बादलों से मिलता है। नब्बे फीसदी उसे बिहार, नेपाल और दूसरी तरफ से आने वाली नदियों से मिलता है। वहां तीन बड़ी नदियां गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियां नब्बे फीसदी पानी उस देश में लेकर आती हैं और शेष दस फीसदी वर्षा से मिलता है। बांग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे इनके संगम के किनारे रहना जानता था। वहां नदी अनेक मीलों फैल जाती है। हमारी जैसी नदियां नहीं होतीं कि एक तट से दूसरा तट दिखाई दे। वहां की नदियां क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के किनारे भी वह न सिर्फ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फसल निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसीलिए सोनार बांग्ला कहलाता था।

लेकिन धीरे- धीरे चार कोसी झाड़ी गई। हृद और चौर चले गए। कम हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसके लालच में थोड़े बड़े हिस्से में फैलाकर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं। बस्तियां कहां बनेंगी, कहां नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं बसेगी- ऐसे नियम टूट चुके हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़ने लगी है। उसे भी धीरे-धीरे भूलकर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य अनियंत्रित विकास के कारण- अब हम नदियों के बाढ़ के रास्ते में सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंजिल तक पानी भरता है तो इसका एक बड़ा कारण नदी के रास्ते में विकास करना है।

भारत में ही एक नहर, नदी के किनारे लगे एक तंबू में जन्मे सर विलियम विलकॉक्स नामक एक अंग्रेज इंजीनियर ने 77 वर्ष की उम्र में सन् 1930 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रांगण में तीन भाषण बाढ़ विषय पर दिए थे। इन्होंने मिस्र जैसे रेगिस्तान में भी पानी का काम किया था और बिहार, बंगाल जैसे विशाल नदी प्रदेश में भी। सर विलियम तब से कहते आ रहे हैं कि विकास के नाम पर इन हिस्सों में जो कुछ भी किया गया है, उसमें बाढ़ और बढ़ी है, घटी नहीं है।एक और बहुत बड़ी चीज पिछले दो-एक सौ साल में हुई है। वह है- तटबंध और बांध। छोटे से लेकर बड़े बांध इस इलाके में बनाए गए हैं, बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके यह मानकर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। आज पता चलता है कि इनसे बाढ़ रुकने के बजाय बढ़ी है, नुकसान ही ज्यादा हुआ है। अभी तो कहीं-कहीं ये एकमात्र उपकार यह करते हैं कि एक बड़े इलाके की आबादी जब डूब से प्रभावित होती है, बाढ़ से प्रभावित होती है तो लोग इन तटबंधों पर ही शरण लेने आ जाते हैं। जो बाढ़ से बचाने वाली योजना थी वह केवल शरणस्थली में बदल गई है। इन सब चीजों के बारे में सोचना चाहिए। बहुत पहले से लोग कह रहे हैं कि तटबंध व्यावहारिक नहीं हैं। लेकिन हमने देखा है कि पिछले डेढ़ सौ साल में हम लोगों ने तटबंधों के सिवाय और किसी चीज में पैसा नहीं लगाया है, ध्यान नहीं लगाया है।

बाढ़ अगले साल भी आएगी। यह अतिथि नहीं है। इसकी तिथियां तय हैं और हमारा समाज इससे खेलना जानता था। लेकिन अब हम जैसे- जैसे ज्यादा विकसित होते जा रहे हैं, इसकी तिथियां और इसका स्वभाव भूल रहे हैं। इस साल कहा जाता है कि बाढ़ राहत में खाना बांटने में, खाने के पैकेट गिराने में हेलीकॉप्टर का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लागत से सिर्फ दो करोड़ की रोटी- सब्जी बांटी गई थी। ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलीकॉप्टर के बदले हम कम-से-कम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते। यह नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इसे बाढ़ भयानक नहीं दिखती। अपने घर की, परिवार की सदस्य की तरह दिखती है- उसके हाथ में हमने बीस हजार नावें छोड़ी होतीं। ढेर सारी नदियां हर कभी हर कहीं से बहती हों सारे नियम तोड़ कर, वहां समाज ने एक ऐसी भी नदी खोज ली थी जो टस से मस नहीं होती थी। उसका नाम रखा गया-धर्ममूला। ये सब किस्से, नाम बताते हैं कि नदियां वहां जीवंत भी हैं और कभी-कभी वे गायब भी हो जाती हैं, भूत भी बन जाती हैं, मर भी जाती हैं। यह सब इसलिए होता है कि ऊपर से आने वाली साद उनमें भरान और धसान की दो गतिविधियां इतनी तेजी से चलाती हैं कि उनके रूप हर बार बदलते जाते हैं।इस साल नहीं छोड़ी गईं तो अगले साल इस तरह की योजना बन सकती है। नावें तैयार रखी जाएं- उनके नाविक तैयार हों, उनका रजिस्टर तैयार हो, जो वहां के जिलाधिकारी या इलाके की किसी प्रमुख संस्था या संगठन के पास हो, उसमें किसी राहत की सामग्री कहां- कहां से रखी जाएगी, यह सब तय हो। और हरेक नाव को निश्चित गांवों की संख्या दी जाए। डूब के प्रभाव को देखते हुए, पुराने अनुभव को देखते हुए, उनको सबसे पहले कहां- कहां अनाज या बना-बनाया खाना पहुंचाना है- इसकी तैयारी हो। तब हम पाएंगे कि चौबीस करोड़ के हेलीकाप्टर के बदले शायद यह काम एक या दो करोड़ में कर सकेंगे और इस राशि की एक-एक पाई उन लोगों तक जाएगी जिन तक बाढ़ के दिनों में उसे जाना चाहिए।

बाढ़ आज से नहीं आ रही है। अगर आप बहुत पहले का साहित्य न भी देखें तो देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू की आत्मकथा में देखेंगे कि उसमें छपरा की भयानक बाढ़ का उल्लेख मिलेगा। उस समय कहा जाता है कि एक ही घंटे में छत्तीस इंच वर्षा हुई थी और पूरा छपरा जिला पानी में डूब गया था। तब भी राहत का काम हुआ और तब पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सरकार से आगे बढ़कर काम किया था। उस समय भी आरोप लगे थे कि प्रशासन ने इसमें कोई खास मदद नहीं दी। आज भी ऐसे आरोप लगते हैं, ऐसी ही बाढ़ आती है। तो चित्र बदलेगा नहीं। बड़े नेताओं की आत्मकथाओं में इसी तरह की लाइनें लिखी जाएंगी और अखबारों में भी इसी तरह की चीजें छपेंगी। लेकिन हमें कुछ विशेष करके दिखाना है तो हम लोगों को नेपाल, बिहार, बंगाल और बांग्लादेश- सभी को मिलकर बात करनी होगी। पुरानी स्मृतियों में बाढ़ से निपटने के क्या तरीके थे, उनका फिर से आदान-प्रदान करना होगा। उन्हें समझना होगा और उन्हें नई व्यवस्था में हम किस तरह से ज्यों-का-त्यों या कुछ सुधार कर अपना सकते हैं, इस पर ध्यान देना होगा।

जब शुरू- शुरू में अंग्रेजों ने इस इलाके में नहरों का, पानी का काम किया, तटबंधों का काम किया तब भी उनके बीच में एक-दो ऐसे सहृदय समझदार और यहां की मिट्टी को जानने-समझने वाले अधिकारी थे, जिन्होंने ऐसा माना था कि जो कुछ किया गया है, उससे यह इलाका सुधरने के बदले और अधिक बिगड़ा है। इस तरह की चीजें हमारे पुराने दस्तावेजों में हैं। सन् 1853 में बारत में ही एक नहर, नदी के किनारे लगे एक तंबू में जन्मे सर विलियम विलकॉक्स नामक एक अंग्रेज इंजीनियर ने 77 वर्ष की उम्र में सन् 1930 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रांगण में तीन भाषण इसी विषय पर दिए थे। इन्होंने मिस्र जैसे रेगिस्तान में भी पानी का काम किया था और बिहार, बंगाल जैसे विशाल नदी प्रदेश में भी। सर विलियम तब से कहते आ रहे हैं कि विकास के नाम पर इन हिस्सों में जो कुछ भी किया गया है, उसमें बाढ़ और बढ़ी है, घटी नहीं है।

इसी तरह बंगाल में मुख्य इंजीनियर रहे श्री एस.सी. मजुमदार ने भी बंगाल की नदियों पर खूब काम दिया था। उन्होंने भी बार-बार यही कहा था कि इन नदियों को समझो। पिर आजादी के बाद इस क्षेत्र में जब दामोदर नदी पर बांध बनाया जा रहा था तो उसी विभाग में काम कर रहे इंजीनियर श्री कपिल भट्टाचार्य ने भी इन्हीं बातों को लगभग भविष्यवाणी की तरह देश के सामने रखा था। आज भी इन बातों को श्री दिनेश कुमार मिश्र जैसे इंजीनियर शासन, समाज के सामने रख रहे हैं। इस साल बिहार की बाढ़ ने एक बार फिर जोर से कहा है कि इन बातों को कब समझोगे। नहीं तो उत्तर बिहार की बाढ़ का प्रश्न ज्यों-का-त्यों बना रहेगा। हम उसका उत्तर नहीं खोज पाएंगे। कब बूझोगे। तभी कोई रास्ता निकलेगा।

The post अनुपम मिश्र का लेख ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

प्रेम में लोग अक्सर अक्टूबर में आये फूलों की तरह ख़त्म हो जाते हैं

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आमतौर पर किसी कवि की कविताएँ इतनी जल्दी दुबारा नहीं प्रकाशित की जानी चाहिए, हिंदी में बहुत कवि हैं। लेकिन अभिषेक रामाशंकर कुछ अलग कवि है जिसको जितना पढ़ता जाता हूँ मुग्ध होता जाता हूँ। इंजीनियरिंग के छात्र अभिषेक की भाषा शैली बहुत भिन्न है। कविता आख़िर कहने का एक ढंग ही तो है। क्या कहन है इस कवि की- मॉडरेटर
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१. दुःख
दुःख मोमेंटल होता है फिर भी इसे पसरने से कोई रोक नहीं पाता।
इसके पास यही एक हथियार है – पसरना ।
एक क्षण में एक आदमी का दुःख बन जाता है एक परिवार का,
एक परिवार से पूरे समाज का फिर पूरे गाँव का – पूरे शहर का ।
सुख इतना प्रोग्रेसिव नहीं है ।
अतीत में छला गया व्यक्ति भविष्य में रोता है
हमें हमारे गहरे सुख के क्षण भी विस्मरण हो चुके होते हैं
सुख के आँगन में बैठा दुःख आमरण अनशन करता है
दुःख – अमर है
दुःख – अश्वत्थामा है
जीवन – पछतावों का एक ज़खीरा है
दुःख कार्बन है – कोयला है : सुख हीरा है
२. उदास लड़कियाँ
संसार दो किस्म की लड़कियों में बँटा हुआ है । एक वे जो कहना चाहती हैं । दूसरी वे जो सुनना चाहती हैं।
जो कहना चाहती हैं उन्हें कभी सुना नहीं गया और जो सुनना चाहती हैं उनसे कुछ साझा ना हो सका।
कहने वाली लड़कियों के पास अथाह प्रेम होता है इतना कि हम अघा जायें।
सुनने वाली लड़कियों के पास अथाह उदासी जिसे सुनने के लिये उदास होने जितना खाली होना पड़ता है।
वे सब सुनकर आपको अनकहा रह जाने से बचाती हैं।
वे जानती हैं अनकहा रह जाने का दुःख।
उदास लड़कियाँ कुछ भी अनसुना नहीं करती।
मुझे याद करती है मेरी नई प्रेमिका
मुझे आती हैं हिचकियाँ
नई प्रेमिका को कुछ नहीं सुनता
मेरी पहली प्रेमिका सुन लेती है
३. प्रेम में अक्टूबर होना
प्रेम में लोग अक्सर अक्टूबर में आये फूलों की तरह ख़त्म हो जाते हैं।
किसी को कानोंकान ख़बर तक नहीं होती।
कब सितंबर की उदासी आई और फूल बनकर चली गई।
प्रेम इतना ही क्षणिक होता है। मोमेंटल।
शायद रेडियोएक्टिव एलिमेंट।
ख़त्म होकर भी बना रहता है।

४. ब्लैकहोल यात्री

सूख जाएंगे पेड़, कबूतरों को विस्मरण हो जायेगा ज्ञान दिशाओं का,

संसार के सारे जल स्रोत बन जाएंगे मृग मरीचिका,

जितनी है रेत उतना ही बचेगा पानी,

ना बचेगा पत्थर, ना बचेगा फूल, ना माटी – ना धूल!

क्या होगा इस संसार का तुम्हारे बिना?

जैसे नायिका की नाभि का चक्कर काटता हुआ लट्टू खोकर अपना नियंत्रण लुढ़क जाता है

नीचे ठीक उसी तरह अपनी धुरी छोड़ देगी ये पृथ्वी और जा गिरेगी ब्लैकहोल में।

क्या होगा मेरा अकेले तुम्हारे बिना?

मैं तुम्हें ढूंढ़ता हुआ बनकर रह जाऊंगा संसार का पहला ब्लैकहोल यात्री।

तुम्हारे जाने के बाद…

 

५. आत्ममुग्धता
मैंने जब भी देखा है खिड़कियों से बाहर
बाहरी दुनिया को
पाया है झांकता हुआ खुद को
खुद की आँखों से
और पाया है खुलता हुआ
संसार के लिए
मेरी आँखें संसार की सबसे सुंदर खिड़कियां हैं
और मेरा हृदय :
संसार की ओर खुलता हुआ दरवाजा

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उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी है

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प्रसिद्ध लेखक रोमां रोलाँ ने ने महात्मा गांधी पर किताब लिखी थी, जिसका हिंदी अनुवाद सेंट्रल बुक डिपो, इलाहाबाद से 1947 में प्रकाशित हुआ था। अनुवादक का नाम किताब में नहीं है लेकिन इसका पहला संस्करण 2000 प्रतियों का था। आज उसी पुस्तक ‘महात्मा गांधी विश्व के अद्वितीय महापुरुष’ का एक अंश पढ़िए-

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बंकिम भौंहों तले श्यामल नेत्र, दुर्बल देह, पतला चेहरा, सिर पर सफ़ेद टोपी, खादी के वस्त्र, नंगे पैर।

वे शाकाहारी हैं और पेय पदार्थों में केवल जल ग्रहण करते हैं। ज़मीन पर सोते हैं- सोते बहुत कम हैं, काम अविराम करते हैं। ऐसा मालूम होता है मानो उन्हें शरीर की कोई चिंता ही नहीं। देखने से उनमें कोई असाधारणता नहीं मालूम होती, पर यदि कोई है तो वह है उनका निखिल अस्तित्व; असीम धैर्य और अनंत प्रेम ही उनका निखिल अस्तित्व है। दक्षिण अफ़्रीका में उनसे मिलकर पियर्सन को स्वभावतः ऐसिसी के सेंट फ़्रांसिस का ध्यान हो आया था। उनमें बालक सी सरलता है। विरोधियों के साथ उनका व्यवहार बहुत सौजन्यपूर्ण होता है। वे नम्र और अहमन्यता से दूर हैं, यहाँ तक कि कभी कभी ऐस मालूम होता है कि वे हिचक रहे हैं या किसी बात पर दृढ़ होने से दब रहे हैं, फिर भी उनकी अजेय आत्मा का अनुभव सभी को होता है। विश्वास और वास्तविकता के मध्य में उन्हें कोई आस्था नहीं है और वे किसी भी त्रुटि को छिपाने का प्रयास नहीं करते। अपनी ग़लती स्वीकार करने में वे निर्भय और निस्संकोच हैं। राजनीति की कुटिलता से वे अपरिचित हैं और व्याख्यान के प्रभाव से उन्हें घृणा है। यहाँ तक कि वे इसके बारे में कभी सोचते नहीं; और अपनी सेवा एवं प्रतिष्ठा में आयोजित उत्सवों से उन्हें स्वाभाविक हिचक रहती है। ‘पुजारी भीड़ के द्रोही’ उनके लिए यथार्थ रूप से उपयुक्त होता है। बहुसंख्यकता पर उन्हें अविश्वास है, वे भीड़ से बहुत डरते हैं और भीड़ के अनियंत्रित आवेशपूर्ण कार्यों के घोर निंदक हैं। अल्पसंख्यकों में उन्हें सुख मिलता है और विशेष सुख उन्हें आत्मगत होकर आंतरिक संदेश को सुनने से प्राप्त होता है।

इसी पुरुष ने छत्तीस करोड़ पुरुषों को विद्रोह में प्रविष्ट कराया और अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव हिलाते हुए राजनीति में गत दो हज़ार वर्षों के उच्चतम धार्मिक सिद्धांतों का समन्वय किया।

उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी है।

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गाँधी का अंत संवाद की एक परंपरा का अंत था

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आज की पीढ़ी गांधी के बारे में क्या सोचती है यह जानना मेरे लिए ज़्यादा ज़रूरी है।यह लेख अमृतांशु ने लिखा है जो दिल्ली विश्वविद्यालय के क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में बीए तृतीय वर्ष के होनहार छात्र हैं- मॉडरेटर

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सम्पूर्ण भारतीय राजनीतिक संस्कृति दो विपरीत ध्रुवों में बंटी रही है, एक उच्च वर्ग की राजनीतिक संस्कृति एवं दूसरी जनमानस की राजनीतिक संस्कृति।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में भावी राष्ट्र के निर्माण की योजनाओं की जो दो व्यापक छवियाँ रही हैं उनमे से एक लुटियंस के टीले के वासी एलीट वर्ग के यूरोपीय मानकों के हिसाब के भारत के निर्माण की संस्कृति रही है और दूसरी अंचलों में रहने वाले भारतीयों की अपने सांस्कृतिक महत्व और जरूरत के हिसाब से भावी भारत के निर्माण को योजनाबद्ध करने की संस्कृति। (मायरन विनर का Elite Political Culture और Mass Political Culture वर्गीकरण )

भारतीय राजनीतिक का विश्लेषण करने वाले अमेरिकी एडवर्ड शिल्स ने इसे राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय संस्कृति (National and Parochial Culture) कहा है, अमेरिकी चिंतक रेडफोर्ड और सिंगर ने इसे भारत की ‘महान परंपरा’ एवं ‘अल्प परंपरा’ (Great Tradition and Little Tradition) के रूप में वर्गीकृत किया है, अंग्रेजी राजनीतिशास्त्री वाश्ब्रूक ने इसे ब्रिटिश भारत से चले आ रहे सेक्युलर भारत बनाम देशज भारतीयों के अनुसार ‘पुरातनपंथी’ भारत के निर्माण के स्वप्न के रूप में वर्गीकृत किया गया है, अमेरिकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुदीप्त कविराज इन संस्कृतियों को उच्च विचार (Upper Discourse) एवं निम्न विचार (Lower Discourse) में बाँटा है।

गाँधी वो पहले एवं अंतिम व्यक्ति थे जिन्होंने इन दो विपरीत संस्कृतियों के बीच सेतु का काम किया, गाँधी व्यक्तिगत रूप से देशीय कल्पनाओं के भारत के पैरोकार थे, उन्होंने सदैव भावी भारत के निर्माण की योजनाओं की अल्प परंपरा का नेतृत्व किया है, जिसे कोई पुरातनपंथी भी कह सकता है। गाँधी ने इन दो विपरीत संस्कृतियों के बीच समुच्चय का काम किया, वो नेहरु जैसे यूरोपीय मानकों के अनुसार बने भारत की कल्पनाओं के नायक के साथ भी जुड़े रहे और समाज के सबसे पुरातनपंथी समूहों को भी बराबर जगह दी। गाँधी के बाद भारत में कोई ऐसा सेतु नही बन पाया जो लुटियंस के भारत को अंचल के भारत से जोड़ सके। भारत ने गाँधी के बाद जितना इस बात का हर्जाना चुकाया है संभवतः किसी और बात का नही, गाँधी का अंत संवाद की एक परंपरा का अंत था, आज उसकी जितनी जरूरत है संभवतः और किसी बात की नही।

गाँधी के बाद संभवतः कोई गाँधी इसलिये भी नही पैदा हो पाया क्योंकि किसी भी भारतीय ने आम आदमी के इतना सरल होने की कोशिश नही की, किसी ने दिलों को जोड़ने के काम को सर्वोच्च काम नही माना। प्रख्यात कन्नड़ लेखक एवं गाँधीवादी विचारक यू. आर. अनंतमूर्ति मानते हैं कि यूरोपीय जैसे भारत के निर्माण को कल्पना को सबसे ज्यादा गाँधी के अधिकृत चेलों ने ही पाला, नेहरु ऐसी योजनाओं के नायक थे, कम्युनिस्टों ने भी ऐसे ही भारत के निर्माण को जरूरी समझा, अनंतमूर्ति के अनुसार स्वतंत्र भारत में लोहिया ही एकमात्र आदमी थे जिन्होंने गाँधी के सपनों के भारत के लिए असली एवं तार्किक संघर्ष किया लेकिन लोहिया के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी की उनकी संवाद शैली दिलों तक असर करने वाली तो थी लेकिन दिलों को जोड़ने वाली नही।

गाँधी अपने युग के नेता थे। उन्होंने उस युग में जो गलतियाँ की हैं उनकी निंदा की जानी चाहिए, यही असली गाँधीवाद है। उस युग के गाँधी के इतर आज के युग को भी गाँधी की दरकार है, जो कई महत्वकांक्षाओं वाले समूहों के बीच सेतु का काम करे, जो सबसे आगे एक लाठी लेकर अन्याय का प्रतिकार करता रहे। जो समता, बंधुता एवं प्रेम के लिए मृत्यु को भी स्वीकार्य माने।

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मिखाइल बुलगाकोव के उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गरीटा’का एक अंश

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रूसी लेखक मिखाइल बुलगाकोव के उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गरीटा’ मूल का मूल रूसी से अनुवाद किया है आ चारुमति रामदास जी ने-

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मास्टर और मार्गारीटा

अध्याय – 28

लेखक : मिखाइल बुल्गाकव

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

करोव्येव और बेगेमोत के अंतिम कारनामे

 

ये साए थे या सादोवाया वाली बिल्डिंग के भय से अधमरे लोगों को सिर्फ अहसास हुआ था, यह कहना मुश्किल है. यदि वे सचमुच साए थे, तो वे कहाँ गए, यह कोई भी नहीं जानता. वे कहाँ अलग-अलग हुए, हम नहीं कह सकते, मगर हम यह जानते हैं, कि सादोवाया में आग लगने के लगभग पन्द्रह मिनट बाद, स्मोलेन्स्क मार्केट की तोर्गसीन नामक दुकान के शीशे के दरवाज़े के सम्मुख एक चौखाने वाला लम्बू प्रकट हुआ, जिसके साथ एक काला मोटा बिल्ला था.

आने-जाने वालों की भीड़ में सहजता से मिलकर उस नागरिक ने दुकान का बाहरी दरवाज़ा बड़ी सफ़ाई से खोला. मगर वहाँ उपस्थित छोटे, हड़ीले और बेहद सड़े दिमाग वाले दरबान ने उसका रास्ता रोककर तैश में आते हुए कहा, “बिल्लियों के साथ अन्दर जाना मना है.”

 “ मैं माफी चाहता हूँ,” लम्बू खड़बड़ाया और उसने टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियों वाला हाथ कान पर इस तरह लगाया मानो ऊँचा सुनता हो, “बिल्लियों के साथ, यही कहा न आपने? मगर बिल्ली है कहाँ?”

दरबान की आँखें फटी रह गईं, यह स्वाभाविक ही था : क्योंकि नागरिक के पैरों के पास कोई बिल्ली नहीं थी, बल्कि  उसके पीछे से फटी टोपी पहने एक मोटा निकलकर दुकान में घुस गया, जिसका थोबड़ा बिल्ली जैसा था. मोटॆ के हाथ में एक स्टोव था. यह जोड़ी न जाने क्यों मानव-द्वेषी दरबान को अच्छी नहीं लगी.

 “हमारे पास सिर्फ विदेशी मुद्रा चलती है,” वह कटी-फटी, दीमक-सी लगी भौंहों के नीचे से आँखें फाड़े देखता हुआ बोला.

 “मेरे प्यारे,” लम्बू ने टूटे हुए चश्मे के नीचे से अपनी आँखें मिचकाते हुए गड़गड़ाती आवाज़ में कहा, “आपको कैसे मालूम कि मेरे पास विदेशी मुद्रा नहीं है? आप कपड़ों को देखकर कह रहे हैं? ऐसा कभी मत कीजिए, मेरे प्यारे चौकीदार! आप गलती करेंगे, बहुत बड़ी गलती! ज़रा ख़लीफा हारून-अल-रशीद की कहानी फिर से पढ़िए. मगर इस समय, उस कहानी को एक तरफ रखकर, मैं आपसे कहना चाहता हूँ, कि मैं आपकी शिकायत करूँगा और आपके बारे में ऐसी-ऐसी बातें बताऊँगा, कि आपको इन चमकीले दरवाज़ों के बीच वाली अपनी नौकरी छोड़नी पड़ेगी.”

 “मेरे पास, हो सकता है, पूरा स्टोव भरके विदेशी मुद्रा हो,” जोश से बिल्ले जैसा मोटा भी बातचीत में शामिल हो गया. पीछे से जनता अन्दर घुसने के लिए खड़ी थी और देर होते देखकर शोर मचा रही थी. घृणा एवम् सन्देह से इस जंगली जोड़ी की ओर देखते हुए दरबान एक ओर को हट गया और हमारे परिचित, करोव्येव और बेगेमोत, दुकान में घुस गए.

सबसे पहले उन्होंने चारों ओर देखा और फिर खनखनाती आवाज़ में, जो पूरी दुकान में गूँज उठी, करोव्येव बोला, “बहुत अच्छी दुकान है! बहुत, बहुत अच्छी दुकान!”

जनता काउंटरों से मुड़कर न जाने क्यों विस्मय से उस बोलने वाले की ओर देखने लगी, हालाँकि उसके पास दुकान की प्रशंसा करने के लिए कई कारण थे.

बन्द शेल्फों में रंग-बिरंगे फूलों वाले, महँगी किस्म के, सैकड़ों थान रखे हुए थे. उनके पीछे शिफॉन, जॉर्जेट झाँक रहे थे; कोट बनाने का कपड़ा भी था. पिछले हिस्से में जूतों के डिब्बे सजे हुए थे, और कई महिलाएँ नन्ही-नन्ही कुर्सियों पर बैठकर दाहिने पैर में पुराना, फटा जूता पहने और बाएँ में नया, चमचमाता पहनकर कालीन पर खट्-खट् कर रही थीं. दूर, कहीं अन्दर, हार्मोनियम बजाने की, गाने की आवाज़ें आ रही थीं.

मगर इन सब आकर्षक विभागों को पार करते हुए करोव्येव और बेगेमोत कंफेक्शनरी और किराना वाले विभाग की सीमा रेखा पर पहुँचे. यह बहुत खुली जगह थी. यहाँ रूमाल बाँधे, एप्रन पहने महिलाएँ बन्द कटघरों में नहीं थीं, जैसी कि वे कपड़ों वाले विभाग में थीं.

नाटा, एकदम चौकोर आदमी, चिकनी दाढ़ी वाला, सींगों की फ्रेम वाले चश्मे में, नई हैट जो बिल्कुल मुड़ी-तुड़ी नहीं थी और जिस पर पसीने के धब्बे नहीं थे, हल्के गुलाबी जामुनी रंग का सूट और लाल दस्ताने पहने शेल्फ के पास खड़ा था और कुछ हुक्म-सा दे रहा था. सफ़ेद एप्रन और नीली टोपी पहने सेल्स मैन इस हल्के गुलाबी जामुनी सूट वाले की ख़िदमत में लगा था. एक तेज़ चाकू से, जो लेवी मैथ्यू द्वारा चुराए गए चाकू के समान था, वह रोती हुई गुलाबी सोलोमन मछली की साँप के समान झिलमिलाती चमड़ी उतार रहा था.

 “यह विभाग भी शानदार है,” करोव्येव ने शानदार अन्दाज़ में कहा, “और यह विदेशी भी सुन्दर है,” उसने सहृदयता से गुलाबी जामुनी पीठ की ओर उँगली से इशारा करते हुए कहा.

 “नहीं, फ़ागोत, नहीं,” बेगेमोत ने सोचने के-से अन्दाज़ में कहा, “तुम, मेरे दोस्त, गलत हो…मेरे विचार से इस गुलाबी जामुनी भलेमानस के चेहरे पर किसी चीज़ की कमी है!”

गुलाबी जामुनी पीठ कँपकँपाई, मगर, शायद, संयोगवश, वर्ना विदेशी तो करोव्येव और बेगेमोत के बीच रूसी में हो रही बातचीत समझ नहीं सकता था.

 “अच्छी है?” गुलाबी जामुनी ग्राहक ने सख़्ती से पूछा.

 “विश्व प्रसिद्ध,” विक्रेता ने मछली के चमड़े में चाकू चुभोते हुए कहा.

 “अच्छी – पसन्द है; बुरी – नहीं –“ विदेशी ने गम्भीरता से कहा.

 “क्या बात है!” उत्तेजना से सेल्स मैन चहका.

अब हमारे परिचित विदेशी और उसकी सोलोमन मछली से कुछ दूर, कंफेक्शनरी विभाग की मेज़ के किनारे की ओर हट गए.

 “बहुत गर्मी है आज,” करोव्येव ने लाल गालों वाली जवान सेल्स गर्ल से कहा और उसे कोई भी जवाब नहीं मिला. “ये नारंगियाँ कैसी हैं?” तब उससे करोव्येव ने पूछा.

 “तीस कोपेक की एक किलो,” सेल्स गर्ल ने जवाब दिया.

 “हर चीज़ इतनी महँगी है,” आह भरते हुए करोव्येव ने फ़ब्ती कसी, “आह, ओह, एख़,” उसने कुछ देर सोचा और अपने साथी से कहा, “बेगेमोत, खाओ!”

मोटे ने अपना स्टोव बगल में दबाया, ऊपर वाली नारंगी मुँह में डाली और खा गया, फिर उसने दूसरी की तरफ हाथ बढ़ाया.

सेल्स गर्ल के चेहरे पर भय की लहर दौड़ गई.

 “आप पागल हो गए हैं?” वह चीखी, उसके चेहरे की लाली समाप्त हो रही थी, “रसीद दिखाओ! रसीद!” और उसने कंफेक्शनरी वाला चिमटा गिरा दिया.

 “जानेमन, प्यारी, सुन्दरी,” करोव्येव सिसकारियाँ लेते हुए काउण्टर पर से नीचे झुककर विक्रेता लड़की को आँख मारते हुए बोला, “आज हमारे पास विदेशी मुद्रा नहीं है…मगर कर क्या सकते हैं? मगर मैं वादा करता हूँ कि अगली बार सोमवार से पहले ही पूरा नगद चुका दूँगा. हम यहीं, नज़दीक ही रहते हैं, सादोवाया पर, जहाँ आग लगी है.”

बेगेमोत ने तीसरी नारंगी ख़त्म कर ली थी, और अब वह चॉकलेटों वाले शेल्फ में अपना पंजा घुसा रहा था; उसने एक सबसे नीचे रखा चॉकलेट बार बाहर निकाला जिससे सारे चॉकलेट बार्स नीचे गिर पड़े ; उसने अपने वाले चॉकलेट बार को सुनहरे कवर समेत गटक लिया.

मछली वाले काउण्टर के सेल्स मैन अपने-अपने हाथों में पकड़े चाकुओं के साथ मानो पत्थर बन गए; गुलाबी जामुनी इन लुटेरों की ओर मुड़ा, तभी सबने देखा कि बेगेमोत गलत कह रहा था : गुलाबी जामुनी के चेहरे पर किसी चीज़ की कमी होने के स्थान पर एक फालतू चीज़ थी – लटकते गाल और गोल-गोल घूमती आँख़ें.

पूरी तरह पीली पड़ चुकी सेल्स गर्ल डर के मारे ज़ोर से चीखी, “पालोसिच! पालोसिच!”

कपड़ों वाले विभाग के ग्राहक इस चीख को सुनकर दौड़े आए, मगर बेगेमोत कंफेक्शनरी विभाग से हटकर अपना पंजा उस ड्रम में घुसा रहा था जिस पर लिखा था, ‘बेहतरीन केर्च हैरिंग’. उसने नमक लगी हुई दो मछलियाँ खींचकर निकालीं और उन्हें निगल गया. पूँछ बाहर थूक दी.

 “पालोसिच!” यह घबराहट भरी चीख दुबारा सुनाई दी, कंफेक्शनरी वाले विभाग से, और मछलियों वाले काउण्टर का बकरे जैसी दाढ़ी वाला सेल्स मैन गुर्राया, “तुम कर क्या रहे हो, दुष्ट!”

पावेल योसिफोविच फौरन तीर की तरह घटनास्थल की ओर लपका. यह प्रमुख था उस दुकान का – सफ़ेद, बेदाग एप्रन पहने, जैसा सर्जन लोग पहनते हैं, साथ में थी पेंसिल, जो उसकी जेब से दिखाई पड़ रही थी. पावेल योसिफोविच, ज़ाहिर है, एक अनुभवी व्यक्ति था. बेगेमोत के मुँह में तीसरी मछली की पूँछ देखकर उसने फ़ौरन ही परिस्थिति को भाँप लिया, सब समझ लिया, और उन बदमाशों पर चीखने और उन्हें गालियाँ देने के बदले दूर कहीं देखकर उसने हाथ से इशारा किया और आज्ञा दी:

 “सीटी बजाओ!”

स्मोलेन्स्क के नुक्कड़ पर शीशे के दरवाज़ों से दरबान बाहर भागा और भयानक सीटी बजाने लगा. लोगों ने इन बदमाशों को घेरना शुरू कर दिया, और तब करोव्येव ने मामले को हाथ में लिया.

 “नागरिकों!” कँपकँपाती , महीन आवाज़ में वह चीखा, “यह क्या हो रहा है? हाँ, मैं आपसे पूछता हूँ! गरीब बिचारा आदमी,” करोव्येव ने अपनी आवाज़ को और अधिक कम्पित करते हुए कहा और बेगेमोत की ओर इशारा किया, जिसने फौरन दयनीय मुद्रा बना ली थी , “गरीब आदमी, सारे दिन स्टोव सुधारता रहता है; वह भूखा था…उसके पास विदेशी मुद्रा कहाँ से आए?”

इस पर आमतौर से शांत और सहनशील रहने वाले पावेल योसिफोविच ने गम्भीरतापूर्वक चिल्लाते हुए कहा, “तुम यह सब बन्द करो!” और उसने दूर फिर से इशारा किया जल्दी-जल्दी. तब दरवाज़े के निकट सीटियाँ और ज़ोर से बजने लगीं.

मगर पावेल योसिफोविच के व्यवहार से क्षुब्ध हुए बिना करोव्येव कहता रहा, “कहाँ से? मैं आपसे सवाल पूछता हूँ! वह भूख और प्यास से बेहाल है! उसे गर्मी लग रही है. इस झुलसते आदमी ने चखने के लिए नारंगी मुँह में डाल ली. उसकी कीमत है सिर्फ तीन कोपेक. और ये सीटियाँ बजा रहे हैं, जैसे बसंत ऋतु में कोयलें जंगल में कूकती हैं; पुलिस वालों को परेशान कर रहे हैं, उन्हें अपना काम नहीं करने दे रहे. और वह खा सकता है? हाँ?” अब करोव्येव ने हल्के गुलाबी जामुनी मोटे की ओर इशारा किया, जिससे उसके मुँह पर काफी घबराहट फैल गई, “वह है कौन? हाँ? कहाँ से आया? किसलिए? क्या उसके बगैर हम उकता रहे थे? क्या हमने उसे आमंत्रित किया था? बेशक,” व्यंग्य से मुँह को टेढ़ा बनाते हुए पूरी आवाज़ में वह चिल्लाया, “वह, देख रहे हैं न, उसकी जेबें विदेशी मुद्रा से ठसाठस भरी हैं. और हमारे लिए…हमारे नागरिक के लिए! मुझे दुःख होता है! बेहद अफ़सोस है! अफ़सोस!” कोरोव्येप विलाप करने लगा. जैसे प्राचीन काल में शादियों के समय बेस्ट-मैन द्वारा किया जाता था.

इस बेवकूफी भरे, बेतुके, मगर राजनीतिक दृष्टि से ख़तरनाक भाषण ने पावेल योसिफोविच को गुस्सा दिला ही दिया, वह थरथराने लगा, मगर यह चाहे कितना ही अजीब क्यों न लग रहा हो, चारों ओर जमा हुई भीड़ की आँखों से साफ प्रकट हो रहा था कि लोगों को उससे सहानुभूति हो रही है! और जब बेगेमोत अपने कोट की गन्दी, फटी हुई बाँह आँख पर रखकर दुःख से बोला, “धन्यवाद, मेरे अच्छे दोस्त, तुम एक पीड़ित की मदद के लिए आगे तो आए!” तो एक चमत्कार और हुआ. एक भद्र, खामोश बूढ़ा, जो गरीबों जैसे मगर साफ़ कपड़े पहने हुए था, जिसने कंफेक्शनरी विभाग में तीन पेस्ट्रियाँ खरीदी थीं, एकदम नए रूप में बदल गया. उसकी आँखें ऐसे जलने लगीं, मानो वह युद्ध के लिए तैयार हो रहा हो; उसका चेहरा लाल हो गया, उसने पेस्ट्रियों वाला पैकेट ज़मीन पर फेंका और चिल्लाने लगा, “सच है!” बच्चों जैसी आवाज़ में यह कहने के बाद उसने ट्रे उठाया, उसमें से बेगेमोत द्वारा नष्ट किए गए ‘एफिल टॉवर’ चॉकलेट के बचे-खुचे टुकड़े फेंक दिए, उसे ऊपर उठाया, बाएँ हाथ से विदेशी की टोपी खींच ली, और दाएँ हाथ से ट्रे विदेशी के सिर पर दे मारी. ऐसी आवाज़ हुई मानो किसी ट्रक से लोहे की चादरें फेंकी जा रही हैं. मोटा फक् हुए चेहरे से मछलियों वाले ड्रम में जा गिरा, इससे उसमें से नमकीन द्रव का फ़व्वारा निकल पड़ा.

तभी एक और चमत्कार हुआ, हल्का गुलाबी जामुनी व्यक्ति ड्रम में गिरने के बाद साफ-स्पष्ट रूसी में चिल्ला पड़ा, “मार डालेंगे! पुलिस! मुझे डाकू मारे डाल रहे हैं!” ज़ाहिर है, इस अचानक लगे मानसिक धक्के से वह अब तक अनजानी भाषा पर अधिकार पा चुका था.

तब दरबान की सीटी रुक गई, घबराए हुए ग्राहकों के बीच से पुलिस की दो टोपियाँ निकट आती दिखाई दीं. मगर चालाक बेगेमोत ने स्टोव के तेल से कंफेक्शनरी विभाग का काउण्टर इस तरह भिगोना शुरू किया जैसे मशकों से हमाम की बेंच भिगोई जाती है; और वह अपने आप भड़क उठा. लपट ऊपर की ओर लपकी और पूरे विभाग को उसने अपनी गिरफ़्त में ले लिया. फलों की टोकरियों पर बँधे लाल कागज़ के रिबन जल गए. सेल्स गर्ल्स चीखती हुई काउण्टर के पीछे से निकलकर भागने लगीं और जैसे ही वे बाहर निकलीं, खिड़कियों पर टँगे परदे भभककर जलने लगे और फर्श पर बिखरा हुआ तेल जलने लगा. जनता एकदम चीखते हुए कंफेक्शनरी विभाग से पीछे हट गई, अब बेकार लग रहे पावेल योसिफोविच को दबाती हुई; और मछलियों वाले विभाग से अपने तेज़ चाकुओं समेत सेल्स मैनों की भीड़ पिछले दरवाज़े की ओर भागी. हल्का गुलाबी जामुनी नागरिक किसी तरह ड्रम से निकला. नमकीन पानी से पूरा तरबतर वह भी गिरता-पड़ता उनके पीछे दौड़ा. बाहर निकलने वाले लोगों के धक्कों से काँच के दरवाज़े छनछनाकर गिरते और टूटते रहे. और दोनों दुष्ट – करोव्येव और बेगेमोत – न जाने कहाँ चले गए, मगर कहाँ – यह समझना मुश्किल है. फिर गवाहों ने जो अग्निकाण्ड के आरम्भ में तोर्गसीन में उपस्थित थे, बताया कि वे दोनों बदमाश छत से लगे-लगे उड़ते रहे और फिर ऐसे फूटकर बिखर गए, जैसे बच्चों के गुब्बारे हों. इसमें शक है कि यह सब ऐसे ही हुआ होगा, मगर जो हम नहीं जानते, बस, नहीं जानते.

मगर हम बस इतना जानते हैं कि स्मोलेन्स्क वाली घटना के ठीक एक मिनट बाद बेगेमोत और करोव्येव ग्रिबोयेदोव वाली बुआजी के घर के निकट वाले उस रास्ते के फुटपाथ पर दिखाई दिए, जिसके दोनों ओर पेड़ लगे थे. करोव्येव जाली के निकट रुका और बोला, “”ब्बा! हाँ, यह लेखकों का भवन है. बेगेमोत, जानते हो, मैंने इस भवन की बहुत तारीफ सुनी है. इस घर की ओर ध्यान दो, मेरे दोस्त! यह सोचकर कितना अच्छा लगता है कि इस छत के नीचे इतनी योग्यता और बुद्धिमत्ता फल-फूल रही है!”

 “जैसे काँच से घिरे बगीचों में अनन्नास!” बेगेमोत ने कहा और वह स्तम्भों वाले इस भवन को अच्छी तरह देखने के लिए लोहे की जाली के आधार पर चढ़ गया.

 “बिल्कुल सही है,” करोव्येव अपने साथी की बात से सहमत होते हुए बोला, “दिल में यह सोचकर मीठी सुरसुरी दौड़ जाती है कि अब इस मकान में ‘दोन किखोत’ या ‘फाऊस्त’ या, शैतान मुझे ले जाए, यहाँ ‘मृत आत्माएँ’ जैसी रचनाएँ लिखने वाला भावी लेखक पल रहा है! हाँ?”

 “अजीब लगता है सोचकर,” बेगेमोत ने पुष्टि की.

 “हाँ,” करोव्येव बोलता रहा, “अजीब-अजीब चीज़ें होती हैं – इस भवन की क्यारियों में, जो अपनी छत के नीचे हज़ारों ऐसे लोगों को आश्रय देता है, जो साहित्य-सेवा में अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं. तुम सोचो, कितना शोर मचेगा तब, जब इनमें से कोई एक जनता के सम्मुख ऐसी रचना प्रस्तुत करेगा – जैसे ‘इन्स्पेक्टर जनरल’ या उससे भी ज़्यादा बदतर स्थिति में – ‘येव्गेनी अनेगिन’!”

 “काफी आसान है,” बेगेमोत ने फिर से कहा.

 “हाँ!” करोव्येव कहता रहा और उसने चिंता से उँगली ऊपर को उठाई, “लेकिन!…लेकिन, मैं कहता हूँ, और दुहराता हूँ यह – ‘लेकिन!’ अगर इन आरामदेह नाज़ुक फसलों पर कोई कीट न गिरे, उन्हें जड़ से न खा जाए, अगर वे मर न जाएँ! और ऐसा अनन्नासों के साथ होता है! ओय, ओय, ओय, कैसा होता है!”

बेगेमोत ने जाली में बने छेद से अपना सिर अन्दर घुसाते हुए पूछा, “लेकिन ये सब लोग बरामदे में क्या कर रहे हैं?”

 “खाना खा रहे हैं,” करोव्येव ने समझाया, “मैं तुम्हें यह भी बताता हूँ, मेरे प्यारे दोस्त, कि यहाँ एक बहुत अच्छा और सस्ता रेस्तराँ है. और मैं, जैसा कि दूर के सफर पर निकलने से पहले हर यात्री चाहता है, यहाँ कुछ खाना चाहता हूँ. ठण्डी शराब का एक पैग पीना चाहता हूँ, मैं.”

 “मैं भी,” बेगेमोत ने जवाब दिया और दोनों बदमाश लिण्डेन के वृक्षों की छाया तले सीमेण्ट के रास्ते पर चलते हुए सीधे, आगामी ख़तरे से बेख़बर रेस्तराँ के बरामदे के प्रवेश द्वार तक आ गए.

एक बदरंग-सी उकताई महिला सफ़ॆद स्टॉकिंग्स और फुँदे वाली गोल सफ़ॆद टोपी पहने, कोने वाले प्रवेश-द्वार के पास कुर्सी पर बैठी थी, जहाँ हरियाली बेलों के बीच छोटा-सा प्रवेश-द्वार बनाया गया था. उसके सामने एक साधारण-सी मेज़ पर एक मोटा रजिस्टर पड़ा था. उसमें यह महिला न जाने क्यों, रेस्तराँ में आने वालों के नाम लिख रही थी. इस महिला ने करोव्येव और बेगेमोत को रोका.

 “आपका परिचय-पत्र?” उसने करोव्येव के चश्मे की ओर और बेगेमोत की फटी हुई बाँह तथा बगल में दबे हुए स्टोव को आश्चर्य से देखते हुए पूछा.

 “हज़ार बार माफ़ी चाहता हूँ, कैसा परिचय-पत्र?” करोव्येव ने हैरानी से पूछा.

 “आप लेखक हैं?” महिला ने जवाब में पूछ लिया.

 “बेशक!” करोव्येव ने काफी अहमियत से कहा.

 “आपका परिचय-पत्र?” महिला ने दुहराया.

 “मेरी मनमोहिनी…,” करोव्येव ने भावुकता से कहना शुरू किया.

 “मैं मनमोहिनी नहीं हूँ,” महिला ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा.

 “ओह, कितने दुःख की बात है,” करोव्येव ने निराशा से कहा, “अगर आपको मोहक होना पसन्द नहीं है, तो चलिए, ऐसा ही हो, हालाँकि यह आपके लिए बढ़िया होता. तो मैडम, दोस्तोयेव्स्की लेखक है, यह सुनिश्चित करने के लिए क्या उसी से प्रमाण-पत्र माँगना चाहिए? आप उसके किसी भी उपन्यास के कोई भी पाँच पृष्ठ ले लीजिए, और बिना किसी परिचय-पत्र के आपको विश्वास हो जाएगा कि आप एक अच्छे लेखक को पढ़ रही हैं. हाँ, उसके पास शायद कोई परिचय-पत्र था ही नहीं! तुम्हारा क्या ख़याल है?” करोव्येव बेगेमोत से मुख़ातिब हुआ.

 “शर्त लगाता हूँ, कि नहीं था,” वह स्टोव को रजिस्टर के पास रखकर एक हाथ से धुएँ से काले हो गए माथे का पसीना पोंछता हुआ बोला.

 “आप दोस्तोयेव्स्की नहीं हैं,” करोव्येव की दलीलों से पस्त होकर महिला ने कहा.

 “लो, आपको कैसे मालूम? आपको कैसे मालूम?” उसने जवाब दिया.

 “दोस्तोयेव्स्की मर चुका है,” महिला ने कहा, मगर शायद उसे भी इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था.

 “मैं इस बात का विरोध करता हूँ,” बेगेमोत ने तैश में आते हुए कहा, “दोस्तोयेव्स्की अमर है!”

 “आपके परिचय-पत्र, नागरिकों!” उस महिला ने फिर पूछा.

 “माफ कीजिए, यह तो हद हो गई?” करोव्येव ने हार नहीं मानी और कहता रहा, “लेखक को कोई उसके परिचय-पत्र से नहीं जानता, बल्कि उसे जाना जाता है उसके लेखन से! आपको क्या मालूम कि मेरे दिमाग में कैसे-कैसे विचार उठ रहे हैं? या इस दिमाग में?” उसने बेगेमोत के सिर की ओर इशारा किया, जिसने फौरन अपनी टोपी उतार ली, शायद इसलिए कि वह महिला उसका सिर अच्छी तरह देख सके.

 “रास्ता छोड़ो, श्रीमान,” उस औरत ने काफी घबराते हुए कहा.

करोव्येव और बेगेमोत ने एक ओर हटकर भूरे सूट वाले, बिना टाई के एक लेखक को रास्ता दिया. इस लेखक ने सफ़ेद कमीज़ पहन रखी थी, जिसका कॉलर कोट के ऊपर खुला पड़ा था. उसने बगल में अख़बार दबा रखा था. लेखक ने अभिवादन के अन्दाज़ में महिला को देखकर सिर झुकाया और सामने रखे रजिस्टर में चिड़ियों जैसी कोई चीज़ खींच दी और बरामदे में चला गया.

 “ओह,” बड़े दुःख से करोव्येव ने आह भरी, “हमें नहीं, बल्कि उसे मिलेगी वह ठण्डी बियर जिसका हम गरीब घुमक्कड़ सपना देख रहे थे. हमारी स्थिति बड़ी चिंताजनक हो गई है, समझ में नहीं आ रहा क्या किया जाए.”

बेगेमोत ने दुःख प्रकट करते हुए हाथ हिला दिए और अपने गोल सिर पर टोपी पहन ली जिस पर बिल्कुल बिल्ली की खाल जैसे घने बाल थे. उसी क्षण उस महिला के सिर पर एक अधिकार युक्त आवाज़ गूँजी, “आने दो, सोफ्या पाव्लोव्ना.”

रजिस्टर वाली औरत चौंक गई. सामने बेलों की हरियाली में से एक सफेद जैकेट वाला सीना और कँटीली दाढ़ी वाला समुद्री डाकू का चेहरा उभरा. उसने इन दोनों फटे कपड़ों वाले सन्देहास्पद प्राणियों की ओर बड़े प्यार से देखा, और तो और, उन्हें इशारे से आमंत्रित भी करने लगा. आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच का दबदबा पूरे रेस्तराँ में उसके अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा महसूस किया जाता था. सोफ्या पाव्लोव्ना ने करोव्येव से पूछा, “आपका नाम?”

 “पानायेव,” शिष्ठतापूर्वक उसने जवाब दिया. महिला ने वह नाम लिख लिया और प्रश्नार्थक दृष्टि से बेगेमोत की ओर देखा.

 “स्काबिचेव्स्की,” वह न जाने क्यों अपने स्टोव की ओर इशारा करते हुए चिरचिराया. सोफ्या पाव्लोव्ना ने यह नाम भी लिख दिया और रजिस्टर आगंतुकों की ओर बढ़ा दिया, ताकि वे हस्ताक्षर कर सकें. करोव्येव ने ‘पानायेव’ के आगे लिखा ‘स्काबिचेव्स्की’; और बेगेमोत ने ‘स्काबिचेव्स्की’ के आगे लिखा ‘पानायेव’. सोफ्या पाव्लोव्ना को पूरी तरह हैरत में डालते हुए आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच मेहमानों को बड़े प्यार से मुस्कुराते हुए बरामदे के दूसरे छोर पर स्थित सबसे बेहतरीन टेबुल के पास ले गया. वहाँ काफी छाँव थी. टेबुल के बिल्कुल निकट सूरज की मुस्कुराती किरणें बेलों से छनकर आ रही थीं. सोफ्या पाव्लोव्ना विस्मय से सन्न् उन दोनों विचित्र हस्ताक्षरों को देख रही थी, जो उन अप्रत्याशित मेहमानों ने किए थे.

बेयरों को भी आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच ने कम आश्चर्यचकित नहीं किया. उसने स्वयँ कुर्सी खींची और करोव्येव को बैठने की दावत दी, फिर एक बेयरे को इशारा किया, दूसरे के कान में फुसफुसाकर कुछ कहा, और दोनों बेयरे नये मेहमानों की ख़िदमत में तैनात हो गए. मेहमानों में से एक ने अपना स्टोव ठीक अपने लाल जूते की बगल में फर्श पर रखा था. टेबुल के ऊपर वाला पुराना पीले धब्बों वाला मेज़पोश फौरन गायब हो गया और हवा से उड़ता हुआ सफ़ेद कलफ़ लगा मेज़पोश उसकी जगह आ गया.

आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच हौले-हौले करोव्येव के ठीक कान के पास फुसफुसा रहा था, “आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ? खासतौर से बनाई गई लाल मछली, आर्किटेक्टों की कॉंन्फ्रेंस से चुराकर लाया हूँ…”

 “आप…अँ…हमें कुछ भी खाने को दीजिए,…अँ…” करोव्येव सहृदयता से कुर्सी पर फैलते हुए बोला.

 “समझ गया,” आँखें बन्द करते हुए आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच ने अर्थपूर्ण ढंग से कहा.

यह देखकर कि इन संदिग्ध व्यक्तियों के साथ रेस्तराँ का प्रमुख बड़ी भद्रता से पेश आ रहा है, बेयरों ने भी अपने दिमाग से सभी सन्देह झटक दिए और बड़ी संजीदगी से उनकी आवभगत में लग गए. उनमें से एक तो बेगेमोत के पास जलती हुई तीली भी लाया, यह देखकर कि उसने जेब से सिगरेट का टुकड़ा निकालकर मुँह में दबा लिया है; दूसरा खनखनाती हरियाली लेकर मानो उड़ता हुआ आया और मेज़ पर हरी-हरी सुराही और जाम रख गया. जाम ऐसे थे जिनमें तम्बू के नीचे बैठकर नार्ज़ान पीने का मज़ा ही कुछ और होता है…नहीं हम कुछ और आगे बढ़कर कहेंगे…जिनमें तम्बू के नीचे अविस्मरणीय ग्रिबोयेदोव वाले बरामदे में अक्सर नार्ज़ान पी जाती थी.

 “पहाड़ी बादाम और तीतर का पकवान हाज़िर कर सकता हूँ,” संगीतमय सुर में आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच बोला. टूटे चश्मे वाले मेहमान ने इस प्रस्ताव को बहुत पसन्द किया और धन्यवाद के भाव से बेकार के चश्मे की ओट से उसे देखा.

बगल की मेज़ पर बैठा कहानीकार पेत्राकोव सुखोयेव जो अपनी पत्नी के साथ पोर्क चॉप खा रहा था, अपनी स्वाभाविक लेखकीय निरीक्षण शक्ति से आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच द्वारा की जा रही आवभगत को देखकर काफी चौंक गया. उसकी सम्माननीय पत्नी ने करोव्येव की इस समुद्री डाकू से होती निकटता को देखकर जलन के मारे चम्मच बजाया, मानो कह रही हो – यह क्या बात है कि हमें इंतज़ार करना पड़ रहा है, जबकि आइस्क्रीम देने का समय हो गया है! बात क्या है?

आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच ने मुस्कुराते हुए पेत्राकोवा की ओर एक बेयरे को भेज दिया, लेकिन वह खुद अपने प्रिय मेहमानों से दूर नहीं हटा. आह, आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच बहुत अकलमन्द था! लेखकों से भी ज़्यादा पैनी नज़र रखने वाला. आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच वेराइटी ‘शो’ के बारे में भी जानता था, और इन दिनों हो रही अनेक चमत्कारिक घटनाओं के बारे में भी उसने सुन रखा था; लेकिन औरों की भाँति ‘चौखाने वाला’ और ‘बिल्ला’ इन दो शब्दों को उसने कान से बाहर नहीं निकाल दिया था. आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच ने तुरंत अन्दाज़ लगा लिया था कि मेहमान लोग कौन हैं. वह जान चुका था, इसलिए उसने उनसे बहस नहीं की. पर सोफ्या पाव्लोव्ना! यह तो बस कल्पना की ही बात है – इन दोनों को बरामदे में जाने से रोकना! मगर उससे किसी और बात की उम्मीद ही क्या की जाती!

गुस्से में मलाईदार आइस्क्रीम में चम्मच चुभाते हुए पेत्राकोवा देख रही थी कि कैसे बगल वाली मेज़ पर जोकरों जैसे कपड़े पहने दो व्यक्तियों के सामने खाने की चीज़ों के ढेर फटाफट लग रहे थे. चमकदार धुले सलाद के पत्तों के बीच झाँकते मछलियों के अण्डों की प्लेट अब वहाँ रखी गई…एक क्षण में खासतौर से रखवाए गए एक और नन्हे-से टेबुल पर बूँदें छोड़ती चाँदी की नन्ही-सी बाल्टी आ गई.

इंतज़ाम से संतुष्ट होने के बाद, तभी, जब बेयरे के हाथों में एक बन्द डोंगा आया, जिसमें कोई चीज़ खद्-खद् कर रही थी, आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच ने मेहमानों से बिदा ली. जाने से पहले उनके कान में फुसफुसाया, “माफ कीजिए! सिर्फ एक मिनट के लिए!…मैं स्वयँ तीतर देख आऊँ.”

वह मेज़ से हटकर रेस्तराँ के अन्दरूनी गलियारे में गायब हो गया. अगर कोई आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच के आगामी कार्यकलापों का निरीक्षण करता, तो वे उसे कुछ रहस्यमय ही प्रतीत होतीं.

वह टेबुल से दूर हटकर तेज़ी से किचन में नहीं, अपितु रेस्तराँ के भंडारघर में गया. उसने अपनी चाभी से उसे खोला और उसमें बन्द हो गया. बर्फ से भरे डिब्बे में से सावधानी से दो भारी-भारी लाल मछलियाँ निकालकर सावधानी से उन्हें अख़बार में लपेटा. उसके ऊपर से रस्सी बाँध दी और एक किनारे पर रख दिया. फिर बगल वाले कमरे में जाकर इत्मीनान कर लिया कि उसका रेशमी अस्तर वाला गर्मियों वाला कोट और टोपी अपनी जगह पर हैं या नहीं. तभी वह रसोईघर में पहुँचा, जहाँ रसोइया मेहमानों से वादा की गई तीतर तल रहा था.

कहना पड़ेगा कि आर्किबाल्द आर्किबादोविच के कार्यकलाप में कुछ भी रहस्यमय नहीं था और उन्हें रहस्यमय केवल एक उथला निरीक्षक ही कह सकता है. पहले घटित हो चुकी घटनाओं के परिणामों को देखते हुए आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच की हरकतें तर्कसंगत ही प्रतीत होती थीं. हाल की घटनाओं की जानकारी और ईश्वर प्रदत्त पूर्वानुमान करने की अद्वितीय शक्ति ने आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच को बता दिया था, कि उसके दोनों मेहमानों का भोजन चाहे कितना ही लजीज़ और कितना ही अधिक क्यों न हो, वह बस कुछ ही देर चलेगा. और उसकी इस शक्ति ने उसे इस बार भी धोखा नहीं दिया.

जब करोव्येव और बेगेमोत मॉस्को की अत्यंत परिशुद्ध वोद्का का दूसरा जाम टकरा रहे थे, तब बरामदे में पसीने से लथपथ घबराया हुआ संवाददाता बोबा कान्दालूप्स्की घुसा जो मॉस्को में अपने हरफनमौला ज्ञान के कारण सुप्रसिद्ध था. आते ही वह पेत्राकोव दम्पत्ति के पास बैठ गया. अपनी फूली हुई ब्रीफकेस टेबुल पर रखते हुए बोबा ने अपने होठ तुरंत पेत्राकोव के कान से सटा दिए और बहुत ही सनसनीख़ेज़ बातें फुसफुसाने लगा. मैडम पेत्राकोवा ने भी उत्सुकतावश अपना कान बोबा के चिकने फूले-फूले होठों से लगा दिया. वह कनखियों से इधर-उधर देखता बस फुसफुसाए जा रहा था. कुछ अलग-थलग शब्द जो सुनाई पड़े वे थे:

 “कसम खाकर कहता हूँ! सादोवाया पर…सादोवाया पर…” बोबा ने आवाज़ और नीची करते हुए कहा, “गोलियाँ नहीं लग रहीं! गोलियाँ…गोलियाँ…तेल… तेल, आग… गोलियाँ…”

 “ऐसे झूठों को, जो ऐसी गन्दी अफ़वाहें फैलाते हैं,” गुस्से में मैडम पेत्राकोवा कुछ ऊँची, भारी आवाज़ में, जैसी बोबा नहीं चाहता था, बोल पड़ी, “उनकी तो ख़बर लेनी चाहिए! ख़ैर, कोई बात नहीं, ऐसा ही होगा, उन्हें सबक सिखाया ही जाएगा! ओह, कैसे ख़तरनाक झूठे हैं!”

 “कहाँ के झूठे, अंतोनीदा पोर्फिरेव्ना!” लेखक की पत्नी के अविश्वास दिखाने से उत्तेजित और आहत होकर बोबा चिल्लाया, और फुसफुसाते हुए बोला, “मैं कह रहा हूँ आपसे, गोलियों से कोई फ़ायदा नहीं हो रहा…और अब आग…वे हवा में…हवा में… “ बोबा कहता रहा, बिना सोचे-समझे कि जिनके बारे में वह बता रहा है, वे उसकी बगल में ही बैठे हैं, और उसकी सीटियों जैसी फुसफुसाहट का आनन्द ले रहे हैं. मगर यह आनन्द जल्दी ही समाप्त हो गया.

रेस्तराँ के अन्दरूनी भाग से तीन व्यक्ति बरामदे में आए. उनके बदन पर कई पट्टे कसे हुए थे. हाथों में रिवॉल्वर थे. सबसे आगे वाले ने गरजते हुए कहा, “अपनी जगह से हिलो मत!” और फौरन उन तीनों ने बरामदे में करोव्येव और बेगेमोत के सिर को निशाना बनाते हुए गोलीबारी शुरू कर दी. गोलियाँ खाकर वे दोनों हवा में विलीन हो गए, और स्टोव से आग की एक लपट उस शामियाने में उठी जहाँ रेस्तराँ था. काली किनार वाला एक विशाल फन मानो शामियाने में प्रकट हुआ और चारों ओर फैलने लगा. आग की लपटें ऊँची होकर ग्रिबोयेदोव भवन की छत तक पहुँचने लगीं. दूसरी मंज़िल पर सम्पादक के कमरे में रखी फाइलें भभक उठीं; उसके बाद लपटों ने परदों को दबोच लिया, फिर आग भीषण रूप धारण कर बुआजी वाले मकान में घुस गई, मानो उसे कोई हवा दे रहा हो.

कुछ क्षणों बाद सीमेण्ट वाले रास्ते पर, आधा खाना छोड़कर लेखक, बेयरे, सोफ्या पाव्लोव्ना, बोबा, पेत्राकोवा और पेत्राकोव भाग रहे थे. यह वही रास्ता है जो लोहे की जाली तक जाता है, और जहाँ से बुधवार की शाम को इस दुर्भाग्य की प्रथम सूचना देने वाला अभागा इवानूश्का आया था, और जिसे कोई समझ नहीं पाया था.

समय रहते पिछले दरवाज़े से बिना जल्दबाज़ी किए निकला आर्किबाल्द आर्किबाल्दोविच – जलते हुए जहाज़ के कप्तान की तरह, जो सबसे अंत में जहाज़ छोड़ता है. वह अपना रेशमी अस्तर का कोट पहने था और बगल में दो मछलियों वाला पैकेट दबाए था.

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