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सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का एक रोचक अंश

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सरताज लोकप्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का दूसरा खंड ‘हम नहीं चंगे… बुरा न कोय’ का एक अंश पढ़िए,पुस्तक का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से हुआ है। कल इस पुस्तक का लोकार्पण दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में है। समय हो तो अवश्य आइएगा- मॉडरेटर

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फिर विमल सीरीज का चौथा उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ वजूद में आया। प्रकाशक ने अपनी अप्रसन्नता जताई। मेरी बाबत उसको मालूम पड़ा था कि मेरी सुनील सीरीज सबसे ज्यादा चलती थी। उसने जिद की कि मैं उसे सुनील सीरीज का नावल दूँ। मैंने कहा कि अब खड़े पैर ये मुमकिन नहीं था, वो अब तो इसी को छापे, आगे मैं उसके लिए सुनील सीरीज का नावल लिखने की कोशिश करूँगा।

भारी अनिच्छा के हवाले उसने मई 1977 में ‘पैंसठ लाख की डकैती’ छापा। उपन्यास मार्केट में आया तो मुझे मालूम पड़ा अपना एक करतब—गलत, नाजायज—उसने फिर भी कर दिखाया था। उपन्यास के टाइटल पर जहाँ ‘विमल सीरीज’ छपा होना चाहिए था, वहाँ ‘सुनील सीरीज’ छपा था।

मैंने एतराज किया तो प्रकाशक याकूब भाई ने जैसे कान से मक्खी उड़ाई। लेकिन उस विसंगति को पाठकों ने इस वजह से नजरअन्दाज कर दिया कि पाठकों को उपन्यास बेतहाशा पसन्द आया, सबने कहा कि हिन्दी में ऐसा, इस मिजाज का उपन्यास उन्होंने पहले कभी नहीं पढ़ा था। उपन्यास की वाहवाही प्रकाशक से भी न छुपी रही, उसने खास तौर से फोन करके मुझे कहा कि सुनील का उपन्यास मैं अभी मुल्तवी रखूँ और उनके लिए फिर विमल का ही उपन्यास लिखूँ।

तब मैंने विमल सीरीज का पाँचवाँ उपन्यास लिखा जिसका नाम मैंने ‘गैंगवार’ रखा लेकिन जो अक्टूबर में छपकर मार्केट में आया तो मालूम पड़ा कि मुझे बिना बताए प्रकाशक ने उपन्यास का नाम बदल दिया था और अपनी मनमानी से उपन्यास का नाम ‘आज कत्ल होकर रहेगा’ रख दिया जो कि मेरी नजर में वाहियात, बेमानी नाम था। लेकिन क्या किया जाता! स्ट्रगलिंग राइटर्स के साथ पॉकेट बुक्स के प्रकाशक ऐसी ज्यादतियाँ करते ही रहते थे। मैं ये सोचकर खामोश रहा कि दूध देने वाली गाय की लात भी सहनी पड़ती थी।

विमल के उस नए कारनामे की भी पाठकों में खूब सराहना हुई, कुछ ने तो कहा कि वो ‘पैंसठ लाख की डकैती’ से भी बेहतर था। मुझे खुशी थी कि मेरे जिस सीरियल हीरो को पाठकों ने बुरी तरह से रिजेक्ट किया था, वो अब उनके मिजाज में आने लगा था। गाइड पॉकेट बुक्स में कुल जमा मेरे पाँच उपन्यास छपे जिनमें सुनील सीरीज का एक भी नहीं था—दो उपन्यास विमल के थे और तीन थ्रिलर थे।

उन दिनों एक बड़ी घटना घटी जिसने चेज को लेकर पॉकेट बुक्स ट्रेड में इंकलाब ला दिया। गाइड की वार्निंग अब भी पत्रिकाओं में विज्ञापन के तौर पर गाहे-बगाहे छपती थी कि भारत में चेज को छापने के सर्वाधिकार उनके पास थे, कोई दूसरा चेज को छापने की हिम्मत न करे। फिर भी किसी दूसरे ने हिम्मत की। मेरठ से चेज का एक अनुवाद छपा और मार्केट में आया। वो चेज का पहला हिन्दी अनुवाद था जो गाइड के अलावा किसी दूसरी जगह से आया था। हर किसी ने कहा कि प्रकाशक को कोर्ट नोटिस बस आया कि आया। वस्तुत: कुछ भी न हुआ। उस प्रकाशक ने चेज का एक और अनुवाद छाप लिया। फिर भी कुछ न हुआ, गाइड की तरफ से कोई कोर्ट-कचहरी न हुई। फिर तो सब शेर हो गए और चेज के आनन-फानन तैयार किए अनुवादों की बाजार में एकाएक बाढ़ आ गई।

फिर दिल्ली के प्रकाशकों ने भी—खास तौर से साधना और डायमंड ने—चेज को छापना शुरू कर दिया, उसका एक-एक उपन्यास कई-कई जगहों से छपकर आने लगा। लेकिन ये मेरे किए अनुवाद का जहूरा था कि पाठकों की पहली पसन्द चेज के वही नावल थे जो गाइड से प्रकाशित होते थे।

बतौर चेज के अनुवादक मेरे नाम का मार्केट में ऐसा सिक्का जमा था कि मेरठ का एक नालायक प्रकाशक अपने छापे किसी और के कराए अनुवाद पर टाइटल पर तो नहीं लेकिन भीतर कहीं एक लाइन में बतौर अनुवादक मेरा नाम छाप देता था। लेकिन अपनी उस नाजायज हरकत का वांछित लाभ उसे न मिला। पाठक एक पेज पढ़ता था और कह देता था कि वो अनुवाद सुरेन्द्र मोहन पाठक का किया नहीं था।

चेज के इतने नावल दाएँ-बाएँ से मार्केट में आने लगे तो ये स्थापित हो गया कि गाइड का ये दावा कि भारत में चेज को छापने का सर्वाधिकार उनके पास था, झूठा था। लेकिन जब तक गाइड इस गेम में इकलौता खिलाड़ी रहा, उन्होंने भरपूर अर्थ और यश कमाया। चेज के कुल जमा 88 नावल प्रिंट में थे और उनमें से कितने ही ऐसे थे जो भारत में कहीं मिलते ही नहीं थे।

गाइड वालों के पास शायद सब थे।

ऐसा दूसरा शख्स मैं था।

गाइड के लिए चेज के अनुवाद मैं अब भी करता था लेकिन अब—बावजूद मोटी उजरत के—मुझे उस काम से किनारा करने की जरूरत महसूस होने लगी थी। अब पवन और शनु में मेरे नावल नियमित रूप से छप रहे थे और मुझे मालूम हुआ था कि साधना पॉकेट बुक्स वाले भी मेरे बारे में खुफिया तफ्तीश कर रहे थे कि मैं उनके छापने लायक लेखक था या नहीं।

शनु की वजह से बैंग्लो रोड पर मेरा जाना अक्सर होता था। वहाँ ब्रह्मप्रकाश त्यागी नाम का एक युवक मुझे मिला जो प्रकाश भारती के नाम से साधना के लिए चेज के अनुवाद करता था और उसने खुद बताया था कि इस काम के उसे वहाँ से चार सौ रुपए मिलते थे। वो काम के लिए शनु के चक्कर लगाता था, इस वजह से मेरा परिचय उससे हुआ था। एक बार मैं अच्छे मूड में था, मैंने उसे कह दिया—”हर प्रकाशक को चेज के ऐसे उपन्यास की तलाश है जिस का अनुवाद अभी तक कहीं से भी प्रकाशित न हुआ हो लेकिन तलाश नाकाम रहती है। मैं तेरे को चेज का ऐसा एक उपन्यास देता हूँ जिसकी बाबत तू साधना में जाके बोल कि वो उपन्यास किसी दूसरे प्रकाशन में दिखाई दे जाए तो तू अनुवाद फ्री में देगा लेकिन अगर न दिखाई दे तो फीस बारह सौ रुपए।‘

बड़े जोश में उसने जाकर साधना में वो बड़ा बोल बोला।

हजार रुपए में फैसला हो गया।

उपन्यास छपा तो ये भी स्पष्ट हो गया कि वो और किसी प्रकाशन में उपलब्ध नहीं था। प्रकाशक-अनुवादक दोनों बाग-बाग। प्रकाशक की सेल बढ़िया हुई, अनुवादक को स्थापित फीस से ढाई गुणा अधिक पैसा मिला।

लेखक मेरे से यूँ उपकृत हुआ तो मैंने उसे राजदाँ बनाकर बताया कि मैं गाइड के लिए अनुवाद बन्द करना चाहता था लेकिन वो सिलसिला ऐसे चलता रह सकता था कि अनुवाद वो करता और मैं कहता कि मैंने किया था। गाइड से मुझे अनुवाद के पन्द्रह सौ रुपए मिलते थे जो कि मैं टाइपिंग की फीस काटकर उसके हवाले कर देता।

वो बाग-बाग हो गया। फौरन मान गया। गाइड से जो नाम आइन्दा अनुवाद के लिए भेजा जाता था, प्रकाश भारती को बताए बगैर उसका पहला चैप्टर मैं खुद अनुवाद करता था और बाकी का अनुवाद उसका जोड़कर स्क्रिप्ट टाइप करा लेता था। सस्ता वक्त था, डेढ़-दो सौ रुपयों में स्क्रिप्ट आराम से टाइप हो जाती थी।

चार-     पाँच बार वो सिलसिला सुचारु रूप से चला।

गाइड से जो पन्द्रह सौ रुपए मिलते थे, उसमें से टाइप और पोस्टेज वगैरह के दो सौ रुपए काटकर तेरह सौ रुपए मैं प्रकाश भारती के हवाले कर देता था।

एक इतवार को वो मेरे घर आया और अपनी जुबानी अपनी करतूत उसने बयान की। बोला, उसने गाइड में चिट्ठी लिखी थी कि चेज के जो पिछले पाँच अनुवाद गाइड में छपे थे, वो वस्तुत: उसने तैयार किए थे इसलिए आइन्दा क्यों नहीं वो अनुवाद का काम सीधा उसे सौंपना शुरू कर देते थे!

कमबख्त ने खुद बताया कि जवाब में याकूब भाई की चिट्ठी आई थी कि उन्हें उसकी बात का कोई यकीन नहीं था, अनुवाद का उनका सिलसिला पाठक साहब के साथ ही चलेगा।

”क्यों किया ऐसा?’’ मैंने सवाल किया।

उसने जवाब न दिया लेकिन बाद में मुझे शनु वाले विपिन ने बताया—उसे साधना वालों ने बताया था—कि उसे कहीं से खबर लगी थी कि मुझे गाइड से अनुवाद के तीन हजार रुपए मिलते थे। यानी उससे काम कराकर आधी रकम मैं खुद रख लेता था।

मुझे जाती तौर पर मालूम था कि अनुवाद के मामले में गाइड वाले बहुत खता खाए हुए थे। मालिक अल्पशिक्षाप्राप्त व्यक्ति था, अनुवाद का खुद मूल्यांकन करने में असमर्थ था। दूसरे, कारोबार अहमदाबाद, गुजरात में था जहाँ ऐसे कामों की सुविधा हासिल ही नहीं थी। दिल्ली आकर अनुवादक तलाश करता था तो किसी व्यापारिक वाकिफ की साली कर सकती थी क्योंकि उसे हिन्दी आती थी, अंग्रेजी पढ़ लेती थी। किसी का भतीजा कर सकता था, किसी की बीवी कर सकती, किसी का दोस्त कर सकता था वगैरह।

ऐसे लोगों ने न सिर्फ कचरा अनुवाद किए, मोटी फीसें भी मँूड़ीं।

इस बाबत जब याकूब भाई ने पहली बार मेरे से बात की तो मैंने उसे काबिल अनुवादक ढूँढ़कर देने का आश्वासन दिया और अनुवाद के लिए आगे मोटी फीस का प्रलोभन देकर भूपेंद्र कुमार स्नेही से बात की। फीस से आकर्षित हुआ वो झट तैयार हो गया।

अनुवाद तो उसने ठीक किया लेकिन और तरीके से डंडी मारी।

अनुवाद करने की प्रक्रिया में मूल टैक्स्ट को अक्षरश: अनुवाद करने की जगह उसने उसे आधा कर दिया ताकि जल्दी काम खत्म होता और जल्दी उसे उजरत हासिल होती।

ऐसे और इतनी बार खता खाए प्रकाशक के लिए आखिर मैंने तगड़ी फीस की एवज में अनुवाद करने की हामी भरी।

वो अनुवाद मेरे लेखकीय जीवन का मेरा सबसे आसान काम साबित हुआ। चेज के सारे उपन्यास मैंने पहले से पढ़े हुए थे इसलिए जब गाइड की तरफ से अनुवाद करने के लिए उपन्यास का नाम आता था तो उससे वाकिफहोने के लिए मुझे उसे पहले पढ़ना नहीं पड़ता था। मैं फौरन अनुवाद शुरू कर देता था और वो तीन-चौथाई से ज्यादा काम मैंने आईटीआई के आफिस में बैठ के किया और किए गए अनुवाद को कभी दोबारा पढ़ने की कोशिश न की।

प्रकाशक अनुवादकों से खता खाया हुआ था इसलिए मेरे सिवाय उसे कोई दूसरा—प्रकाश भारती या काला चोर, वैसे तो वो खुद भी काला चोर ही था—अनुवादक कबूल नहीं था। मेरे अनुवाद से वो इतना सन्तुष्ट था कि उसने वो उपन्यास भी नए सिरे से मेरे से अनुवाद कराए जिनकी अन्य अनुवादकों ने पहले जड़ मारी थी और जिनके अनुवाद की वो फीस भर चुका था।

बहरहाल आइन्दा चेज के अनुवाद से बड़ी कमाई प्रकाश भारती के लिए सपना बन गया। साधना वालों ने उसकी फीस चार सौ से पाँच सौ कर दी। मेरठ ट्राई करता था तो इतने भी नहीं मिलते थे। बैंग्लो रोड मेरे को मिलता था तो पूछता था—”आपके पास अभी भी चेज का कोई ऐसा उपन्यास है जो हिन्दी में कहीं न छपा हो?’’’

”हाँ, है।‘’ मैं इत्मीनान से जवाब देता—”कई हैं।‘’

”मेरे को दो न! अब तो वो खुद ही ऐसे उपन्यास की हजार से ज्यादा की आफर कर रहे हैं।‘’

”सॉरी! किसी और को दे दिए।‘’

”किसको!’’

”जब अनुवाद बाजार में आएँगे तो नाम पढ़ना।‘’

इसे चेज का करिश्मा ही कहा जा सकता है कि अस्सी और नब्बे के दशक में उसके लिखे सारे उपन्यास कई-कई बार कितने ही प्रकाशकों ने छापकर उनको पूरी तरह से निचोड़ लिया था फिर भी आज भी कहीं-कहीं चेज का अनुवादित उपन्यास छपता है—इस फर्क के साथ कि फेसबुकिए मूल लेखक का नहीं, अनुवादक का प्रशस्तिगान करते हैं।

जैसे मूल लेखक तो निमित्त था अनुवादक के करतब कर दिखाने में।

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पुस्तक अंश – हम नहीं चंगे बुरा न कोय

लेखक – सुरेन्द्र मोहन पाठक

विधा – आत्मकथा

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन

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रूसी लेखक इवान बूनिन की कहानी ‘बर्फ़ का सांड’

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नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले रूसी लेखक इवान बूनिन की एक छोटी सी कहानी पढ़िए। बूनिन मानव मन और प्रकृति का चित्रण जिस बारीकी से करते हैं, वह मन को छू लेती है. आप उनकी रचनाएँ न केवल पढ़ते हैं, न सिर्फ ‘देखते’ हैं, बल्कि उन्हें जीते हैं, उनके पात्र में घुलमिल जाते हैं.बूनिन को भारत में कम पढ़ा गया है. उनकी संकलित रचनाओं का सिर्फ एक संग्रह निकला है जो एक अनुवाद-कार्यशाला का परिणाम है. कहानी का मूल रूसी से अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास ने-मॉडरेटर
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गाँव, जाड़ों की रात, एक बजे दूर के कमरों से अध्ययन-कक्ष तक बच्चे के कातर रोने की आवाज़ सुनाई दे रही है. ड्योढ़ी, दालान और गाँव सब कुछ काफ़ी देर से सो रहा है. नहीं सो रहा है सिर्फ खुश्योव. वह बैठकर पढ़ रहा है. कभी-कभी अपनी थकी हुई आँखें मोमबत्ती पर टिका देता है : सब कुछ कितना ख़ूबसूरत है. यह नीली-नीली स्टेरिन भी (स्टेरिन – मोमबत्तियों में प्रयुक्त चर्बीयुक्त पदार्थ – अनु.) .

लौ के सुनहरे चमचमाते किनारे, पारदर्शी चटख़ नीले आधार समेत, हौले से फ़ड़फ़ड़ा रहे हैं – और बड़ी-सी फ्रांसीसी किताब के चिकने पृष्ठ को चकाचौंध कर देते हैं. ख्रुश्योव मोमबत्ती के पास अपना हाथ ले जाता है – उँगलियाँ पारदर्शी हो जाती हैं, हथेलियों के किनारे गुलाबी हो जाते हैं. वह, बचपन की तरह, मगन होकर, मुलायम चटख़ लाल द्रव की ओर देखता रहता है, जिससे उसका अपना जीवन प्रकाशित हो रहा है, लौ के सामने से गुज़रता हुआ दिखाई दे रहा है.

रोने की आवाज़ और तेज़ हो गई – दयनीय, मिन्नत करती हुई.

ख्रुश्योव उठकर बच्चों के कमरे की ओर जाने लगता है. वह अँधेरे मेहमानख़ाने से होकर गुज़रता है, उसमें लटके हुए फ़ानूस और शीशा बड़ी मुश्किल से टिमटिमा रहे हैं – अँधेरे, फ़र्नीचर से सजे, बैठने के कमरे से, अँधेरे हॉल से गुज़रते हुए, खिड़कियों के पार चाँद की रात, बगीचे के देवदार के पेड़ों और उनकी काली-हरी, लम्बी, रोयेंदार शाख़ों पर पड़ी हुई हल्की सफ़ेद भारी परतों को देखता है. बच्चों के कमरे का दरवाज़ा खुला है, चाँद की रोशनी वहाँ पतले-से धुँए जैसी दिखाई दे रही है. बिना परदों वाली चौड़ी खिड़की से बर्फ़ से ढँका, आलोकित आँगन सादगी से, ख़ामोशी से झाँक रहा है. नीलिमा लिए सफ़ेद दिखाई दे रहे हैं बच्चों के पलंग. एक पर सो रहा है आर्सिक. लकड़ी के घोड़े फ़र्श पर सो रहे हैं, अपनी गोल-गोल काँच की आँखें ऊपर करके सफ़ेद बालों वाली गुड़िया पीठ के बल सो रही है, वे डिब्बे सो रहे हैं, जिन्हें कोल्या इतनी लगन से इकट्ठा करता है. वह भी सो रहा है, मगर नींद में ही अपने छोटे-से पलंग पर उठकर बैठ गया और फूट-फूटकर असहाय-सा रोने लगा – नन्हा, दुबला-पतला, बड़े-से सिर वाला…

“क्या बात है, मेरे प्यारे?” ख्रुश्योव पलंग के किनारे बैठकर फ़ुसफ़ुसाया, बच्चे का छोटा-सा मुँह रुमाल से पोंछते हुए और उसके नाज़ुक जिस्म को बाँहों में भरते हुए, जो अपनी छोटी-छोटी हड्डियों, छोटे-से सीने और धड़कते हुए नन्हे-से दिल समेत कमीज़ के भीतर से भी दिल को छू लेने वाले अन्दाज़ में महसूस हो रहा है.

वह उसे घुटनों पर बिठाता है, झुलाता है, सावधानीपूर्वक चूमता है. बच्चा उससे लिपट जाता है, हिचकियाँ लेते हुए सिहरता है और कुछ शान्त होता है…यह तीसरी रात उसे कौन-सी चीज़ जगा-जगा दे रही है?

चाँद हल्की-सी सफ़ेद तरंग के पीछे छिप जाता है, चाँद की रोशनी बदरंग होते हुए पिघलती है, मद्धिम हो जाती है, और एक ही पल के बाद फिर बढ़ जाती है, चौड़ी हो जाती है. खिड़की की सिलें फ़िर से सुलगने लगती हैं. आड़े तिरछे वर्ग बने हैं फ़र्श पर. खुश्योव फ़र्श से निगाहें हटाता है, खिड़की की सिल की चौखट पर, देखता है चमकीला आँगन – और याद करता है…यह रहा वो, जिसे आज फ़िर तोड़ना भूल गए. ये सफ़ेद अजीब-सी चीज़ जिसे बच्चों ने बर्फ़ से बनाया था, आँगन के बीचों-बीच खड़ा किया था, अपने कमरे की खिड़की के सामने. दिन में कोल्या उसे देखकर डरते-डरते ख़ुश होता है, यह किसी आदमी के धड़ जैसा, साँड के सींगोंवाले सिर और छोटे-छोटे फ़ैले हुए हाथों वाला – रात को , सपने में उसकी भयानक उपस्थिति का आभास होता है, अचानक, नींद खुले बिना ही, वह फूट-फूटकर आँसू बहाने लगता है. हाँ, हिम मानव रात में एकदम डरावना लगता है, ख़ासकर तब, जब उसे दूर से देखा जाता है, शीशे के पार से : सींग चमकते हैं, फैले हुए हाथों की काली परछाई चमकती बर्फ पर पड़ती है. मगर उसे तोड़ने की कोशिश तो करो! बच्चे सुबह से शाम तक बिसूरते रहेंगे, हालाँकि वह अभी से थोड़ा-थोड़ा पिघलने लगा है : जल्दी ही बसन्त आएगा, फूस की छतें गीली होकर दोपहर में सुलगने लगेंगी…ख्रुश्योव सावधानी से बच्चे को तकिए पर रखता है, उस पर सलीब का निशान बनाता है और पंजों के बल बाहर निकल जाता है. प्रवेश कक्ष में वह रेण्डियर की खाल की टोपी, रेण्डियर की खाल का जैकेट पहनता है, काली नुकीली दाढ़ी को ऊपर किए बटन लगाता है. फ़िर ड्योढ़ी का भारी दरवाज़ा खोलता है, घर के पीछे कोनेवाली चरमराती पगडण्डी पर चलता है, चाँद, विरल उद्यान के कुछ ही ऊपर ठहरा हुआ, बर्फ के सफ़ेद ढेरों पर अपना प्रकाश बिखेरते हुए, साफ़ है, मगर जैसा मार्च के महीने में होता है, वैसा निस्तेज है. बादलों की हल्की तरंगों की सींपियाँ क्षितिज पर कहीं-कहीं बिखरी हैं. उनके बीच की गहरी नीली पारदर्शिता में बिरले नीले सितारे ख़ामोशी से टिमटिमा रहे हैं. ताज़ी बर्फ ने पुरानी, कड़ी बर्फ़ को थोड़ा-सा ढाँक दिया. स्नानगृह से बाग में, शीशे जैसी चमकती छत से, शिकारी कुत्ता ज़लीव्का भाग रहा है.

“हैलो!” ख्रुश्योव उससे कहता है. “सिर्फ हम दोनों ही नहीं सो रहे हैं. दुःख होता है सोने में, छोटी-सी ज़िन्दगी है, देर से समझना शुरू करते हो कि वह कितनी हसीन है…”

वह हिम मानव के पास जाता है और एक मिनट के लिए झिझकता है. फ़िर निश्चयपूर्वक, प्रसन्नता से उस पर पैर से चोट करता है. सींग उड़ जाते हैं, साण्ड का सिर सफ़ेद फ़ाहे बनकर गिर जाता है…एक और प्रहार – और रह जाता है सिर्फ बर्फ का ढेर. चाँद की रोशनी से आलोकित ख्रुश्योव उसके ऊपर खड़ा हो जाता है और जैकेट की जेबों में हाथ डालकर चमकती छत की ओर देखता है. अपनी काली दाढ़ी वाला निस्तेज मुख, अपनी रेण्डियर की टोपी कंधे पर झुकाए, वह प्रकाश की छटा को पकड़ने और याद रखने की कोशिश करता है फ़िर मुड़ जाता है और धीरे-धीरे घर से मवेशीख़ाने के आँगन को जानेवाली पगडण्डी पर चलता है. उसके पैरों के पास, बर्फ़ पर, तिरछी परछाई चल रही है. बर्फ़ के ढेरों तक पहुँचकर वह उनके बीच से दरवाज़े से देखता है, जहाँ से तेज़ उत्तरी हवा आ रही है, वह बड़े प्यार से कोल्या के बारे में सोचता है, वह सोचता है कि ज़िन्दगी में हर चीज़ दिल को छू लेने वाली है, हर चीज़ में कोई अर्थ है, हर चीज़ महत्वपूर्ण है. और वह आँगन की ओर देखता है. वहाँ ठण्ड है, मगर आरामदेही भी है. छत के नीचे झुटपुटा है. हिमाच्छादित गाड़ियों के सामने के हिस्से धूसर हो रहे हैं. आँगन के ऊपर नीला – इक्का-दुक्का बड़े सितारोंवाला आसमान. आधा आँगन छाँव में है, आधा प्रकाश में है. और बूढ़े, लम्बे अयालों वाले सफ़ेद घोड़े, इस रोशनी में ऊँघते हुए हरे प्रतीत हो रहे है।

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अनन्या मुखर्जी की कैंसर डायरी के कुछ पन्ने

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अभी हाल में ही ‘ठहरती साँसों के सिरहाने से : जब ज़िन्दगी मौज ले रही थी (कैंसर डायरी)’ किताब प्रकाशित हुई है राजकमल प्रकाशन से।अंग्रेज़ी में यह किताब स्पिकिंग टाइगर प्रकाशन से पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। लेखिका अनन्या मुखर्जी का कैंसर से देहांत हो गया। किताब उसकी डायरी के पन्ने हैं, जो उसने उस दौरान लिखे हैं जिस दौरान वह अपनी छोटी सी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही थी। वह हारी नहीं उसका शरीर रोग से हार गया। इस किताब के शब्दों में वह अमर हो चुकी है। ज़िंदगी के भरपूर उल्लास से भरे उसके शब्दों में कहीं कोई भय नहीं है, अफ़सोस नहीं है, बल्कि जिजीविषा है। प्रस्तुत है पुस्तक का एक अंश- मॉडरेटर

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की और का

मुंबई में फ़िलहाल मैं जहाँ रह रही हूँ वहाँ बहुत सारे कौवे हैं. यहाँ कई रातें मैंने रोशनी देखते हुए बितायी हैं और सुबह के अजान की आवाज़ के साथ नींद की आग़ोश में चली गई. एक दिन अहले सुबह मैं जब नींद की आग़ोश में जाने ही वाली थी कि एक कौवे ने मेरी खिड़की पर कांव कांव करना शुरू कर दिया. यह अंग्रेज़ी वाला कांव नहीं था बल्कि यह शुद्ध देशी था. वह लगातार दुखी होकर, ज़ोर-ज़ोर से, बिना रुके  कांव कांव किए जा रहा था.

कीमो के असर से मेरा सिर भारी हो गया था और मैंने जी भर कर गालियाँ दी. मैंने अपना तकिया उठाकर बहुत ज़ोर से खिड़की की तरफ़ फेंक दिया. हरामज़ादा, हिला भी नहीं। मैंने सोचा की यह ज़रूर कोई पुराने बुज़ुर्ग होंगे जो मुझसे मिलने आए हैं. मैंने का को अच्छी तरह से देखा. उसके बाल बिखरे हुए थे और उसकी आँखें काली थीं. देखने से यक़ीनन वह परिचित लग रहा था, मैंने उसे दूध में डुबाया ब्रेड का टुकड़ा दिया. का ने मुझे देखकर अपनी गोल-गोल आँखें घुमाईं, ब्रेड के टुकड़े को बग़ल करते हुए एक क़दम आगे बढ़ गया (बाद में,एक कबूतर ने उस टुकड़े को खाया, खिड़की के शीशे पर बीट की और वहाँ कुछ अंडे दिए—वे बहुत सम्भव है मेरे पुरखे रहे हों।).

इस बीच, सुबह 8 बजे तक का ने अपना अत्याचार जारी रखा. तब मुझे यह एहसास हुआ कि हमलोग कितना ज़्यादा एक दूसरे के जैसे हैं और फिर मैं उसके प्रति नरम पड़ी। अपनी फटी टीशर्ट और बरमूडा पैंट तथा अपने बालों के साथ जिन्हें देखकर यह नहीं समझा जा सकता है कि उग रहे हैं या झड़ रहे हैं, मैं आजकल बहुत हद तक का जैसा महसूस कर रही हूँ.

अक्सर आज जैसी सुबह की तरह मैं और का दोनों ही खिड़की के सामने खड़े रहते हैं, हम दोनों ही उपेक्षा से संसार की तरफ़ देखते हुए अपने की के वापस आने का इंतज़ार करते हैं.

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औरतें और स्कैन

कुछ दिन पहले जब मैं पीईटी सीटी (PET CT) स्कैन करवाने के लिए क़तार में लगी हुई थी, मैंने देखा कि चार और औरतें उसी क़तार में खड़ी थीं. वहाँ के कर्मचारी ने सभी के शरीरों में सुई चुभोई और सभी को बिल्कुल चुप रहने का आदेश देकर एक बहुत ही ठंडे कमरे में बंद कर दिया.

लेकिन जब इलाहाबाद, ग्वालियर, पुणे और हैदराबाद एक साथ इकट्ठा हो जाएँ तो कोई भी कर्मचारी उन्हें किसी भी तरीक़े से चुप नहीं करवा सकता है. हम में से उन लोगों ने जो उस विशाल मशीन से होकर पहले भी गुज़र चुके थे, नए लोगों का हौसला बढ़ाया. फिर हमारी बातचीत ट्यूमर से बालों के बढ़ने के तरीक़े से होते हुए स्वादिष्ट खाने से होकर अंत में सबके पसंदीदा विषय “साड़ी” पर जाकर ख़त्म हुई (अंतत: सब्यसाची को संतोष महसूस होगा), उस दिन सुबह में शिफ़ोन, प्रिंट वाले ज़ोर्जेट, कड़क सूती साड़ियों और मुलायम सिल्क की साड़ियाँ हमारे विषय थे.

अंतत: जब वह समय आ गया जब वह विशाल मशीनें हम सभी को एक-एक करके अपने अंदर ले जाने के बाद हमारे बुरे भविष्य के साथ हमें बाहर निकालने लगी, उस वक़्त हम सभी की आँखों में एक प्रकार की चमक थी. मैंने उस गहरे गुलाबी जामदानी के बारे में सोचा जो मेरी माँ ने मेरे लिए कुछ दिन पहले ही 2018 के पूजा में पहनने के लिए ख़रीदा था. इंशाअल्लाह!

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प्रदीपिका सारस्वत की नई कहानी ‘शायद’

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युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत की कहानियों, कविताओं का अपना अलग ही मिज़ाज है। वह कुछ हासिल करने के लिए नहीं लिखती हैं बल्कि लिखना ही उनका हासिल है। यह उनकी नई कहानी है- मॉडरेटर

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मैं घर लौटा हूँ. एक अरसे बाद. लेकिन इस शहर की तरफ निकलने से पहले ही मैं जानता था कि मैं घर नहीं लौटूँगा. ट्रेन में चढ़ते ही मैंने खुद को कहा था कि जा रहे हो, बस चले जाओ. सवाल मत करो. मेरी बर्थ पर सीधी धूप आती रही थी. बरसाती दिनों की धूप. कोंचती हुई सी. एक पल के लिए बादलों में इस अदा से छुपती कि जैसे कभी थी ही नहीं. और दूसरे ही पल मेरे बदन में भीतर तक उतर जाती, बेशर्म. मैं भी पूरी बेशर्मी से बर्थ पर पसरा हुआ था, कि आओ जो चाहो कर लो मेरे साथ, मैं उफ़ नहीं करुँगा.

उफ़ न करने वाला मिज़ाज नहीं है मेरा. भीतर ही भीतर उबलता रहता हूँ मैं, ज़रूरी-ग़ैरज़रूरी पता नहीं क्या कुछ सीने में लिए. कुछ देर पहले बेमतलब फ़ोन सर्फ़ करते हुए किसी फ़ोटोग्राफ़र की तस्वीर देखी. सिलवेट. कैमरा लिए एक छाया है, पीछे सूरज डूब चुका है. लगा कि बस भीतर का सब उबलकर बह ही जाएगा. पेट के भीतर बेचैनी सी महसूस हुई. मैं रोना चाहता हूँ पर आँखें हमेशा की तरह सूखी रह जाती हैं. मुझे बिलकुल नहीं पता कि उस तस्वीर में ऐसा क्या है जो मुझे इसतरह बेचैन कर रहा है. कुछ भी जाना पहचाना नहीं है जिसे में अपनी भाषा में पढ़ सकूँ. ऐसी कोई अलामत नहीं है तस्वीर में जिसे मैं अपनी बीती ज़िंदगी के किसी लमहे या फिर किसी बासी पड़ चुकी ख़्वाहिश से जोड़ कर देख सकूँ. शायद हमारे भीतर कुछ तस्वीरें होती हैं जिन्हें हम नहीं देख पाते. ये तस्वीरें अपनी ही ज़ुबान में बाहर की तस्वीरों से बात करती हैं. वैसे ही जैसे अनजान भाषाओं का संगीत हमारे भीतर के संगीत से बात करता है. और इस बातचीत का असर हमें झेलना पड़ जाता है.

घर में सब लोग मौजूद हैं. मेरे पिता, जिनका रिटायरमेंट नज़दीक है. छोटा भाई, उसकी पत्नी. दादी माँ. सब बातें कर रहे हैं. पिता नया मकान ख़रीदना चाहते हैं. शहर से बाहर मकान लेना ठीक रहेगा. कम से कम किचेन गार्डन की तो जगह होनी ही चाहिए. सड़क किनारे ज़मीन देख लेते हैं. सबके पास उन्हें देने के लिए कोई न कोई सलाह है. मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है. मुझे लग रहा है कि मैं हवा का बना हूँ. लोगों की आवाज़ें, उनकी नज़रें जैसे मेरे पार निकल जा रही हैं. मेरा यहाँ होना मायने नहीं रखता. न होना भी. बहुत वक्त हुआ मुझे ये जानने की कोशश करते हुए कि मैं कहीं भी अगर हूँ तो क्यों हूँ. इस सवाल को पूछने की ज़रूरत नहीं है, शैली के पिता ने कहा था. मैंने उस दिन उनकी बात को ज़हन के किसी खाँचे में बाहिफाज़त रख दिया था. मैं समझ तो नहीं पाया था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था. पर मुझे लगा था कि इस बात को कह सकने तक पहुँचने में उनकी ज़िंदगी की पाँच दिहाइयाँ लगी हैं. मुझे इस जवाब तक एक बार फिर वापस जाने की ज़रूरत पड़ेगी.

इस घर में घुटन है. सब कुछ बहुत सिमटा हुआ है. यहाँ की दीवारें, छतें, परदे, क़िस्से, बातें, प्यार, नफ़रत, ग़ुस्सा, अरमान सबकुछ बहुत सँकरा, दम घोंटने की हद तक क़ैद कर देने वाला है. यहाँ आकर मुझे लगता है कि इस पूरे शहर में बस यही एक मकान है. इस मकान की दीवारों के बाहर जैसे कुछ है ही नहीं. छुटपन में जितने दिन मैं इस घर में रहा, बाहर जाने की मनाही रही. बच्चों के लिए बस एक ही काम मुक़र्रर था, पढ़ना. दोस्ती-यारी, दुनिया देखना-समझना, ये सब बड़ों के काम थे. उन्होंने मुझे घर के भीतर रहने के लिए कहा; मैंने खुद को सिर्फ एक कमरे के भीतर क़ैद कर दिया. अब जब यहाँ लौटता हूँ तो लगता है मैं फिर उसी क़ैद में लौट आया हूँ, जिसके मायने तो अब पहले जैसे नहीं हैं पर तासीर अब भी वही है.

बेहद बेज़ारी में दूसरे तल्ले की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए में एक-एक सीढ़ी गिनता हूँ. हर बार की तरह. गिनी हुई सीढ़ियों को बार-बार गिनना बहुत थका देने वाला काम है. अचानक महसूस होता है कि कितना बेज़ार रहा हूँ मैं इस घर से, इस घर मैं रहने वाली हर चीज़ से. यहाँ आते ही मैं एक मशीन की तरह चलने लगता हूँ. बिना किसी इच्छा, बिना कारण, बिना उम्मीद. सीढ़ियों के ऊपर बरामदे की सीली हुई दीवार पर एक आईना है. यहाँ से गुज़रते हुए मैंने इस आईने में हज़ार बार खुद को देखा है. पर मुझे कभी याद नहीं रहा कि मैं पहले कैसा दीखता था. आज मैं शीशे के सामने रुकता हूँ तो देखता हूँ कि मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई है. पिता को बढ़ी हुई दाढ़ी सख़्त नापसंद है. मैं अपनी शेविंग किट साथ नहीं लाया. चंद पलों के लिए मैं उन दिनों में लौट जाता हूँ जब मैंने पिता की शेविंग किट इस्तेमाल करनी शुरू की थी. एक ब्लेड से चार शेव बनाने वाले पिता मुझे अपने जैसा नहीं बना सके.

बाहर बारिश होने लगी है. मुझे शैली के घर में बिताए पिछले मानसून के दिन बेतरह याद आ रहे हैं. सफ़ेद फूलों और केले के पत्तों के ऊपर तेज़ पड़ती हुई बारिश के पार दूर समंदर को देखते रहना. मैं मानता रहा हूँ कि मुझे पहाड़ अपनी तरफ खींचते हैं. पर इन दिनों लगता है जैसे उफनते समुद्र से कोई ऐफ्रोडाइट उठकर मुझे बुला रही हो. और मैं, कोई एडोनिस, उर्वरता और वंध्यत्व दोनों को सीने में संभाले बिना पानी के डूबता जा रहा हूँ. शैली के साथ बिताया वक्त मैं अक्सर याद करता हूँ, पर वो मुझे याद नहीं आती है. मैं उन शहरों की सड़कें, दुकानें, चौराहे, धूप और छाँव याद करता हूँ जहाँ हम दोनों साथ-साथ गए थे. उन घरों और होटलों की खाने की मेज़ों को भी जहाँ हमने साथ बैठ कर हरी चाय या फिर मछली या सूअर का गोश्त खाया. उन गुसलखानों को भी जहाँ हमने गलती से कमरे में छूट गए तौलिए एक दूसरे को बढ़ाए. मैं अधबनी सीमांत सड़कों पर चलता जाता हूँ जहाँ उसका साथ वैसा ही होता है जैसा आस-पास की हवा का, मौजूदगी में भी ग़ैर-मौजूद. पता नहीं क्यों.

हम दोनों अब बात नहीं करते. शैली आस-पास की हवा नहीं है. यह बात हम दोनों ने मान ली है. अब मैं शून्य में जीता हूँ. हवा के घेरे में और शून्य के बीच जीने में दृश्य से ज़्यादा भाव का अंतर है. वायुमंडल खत्म हो जाने से मेरी सतह पर अब जीवन के निशान नहीं दिखते. जीवन बाकी है लेकिन बहुत भीतर. कहीं जमा हुआ तो कहीं उबलता हुआ. पिता इन दिनों हर बातचीत में सिर्फ मेरी शादी का ज़िक्र करते हैं. रिटायर हो रहे पिता चाहते हैं कि वे ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाएं. छोटे भाई के शादी कर लेने के बाद भी मेरा अकेले रह जाना उन्हें अपने कंधों पर बोझ की तरह महसूस होता है. वे मुझसे ज़्यादा बात नहीं करते. बस पूछते हैं कि अब मैं साल भर में कितना कमा लेता हूँ. या फिर मैं अपने मकान में किराएदारों क्यों नहीं रख लेता, कम से कम लोन की किश्त ही निकल आएगी.

मैं पिता के कमरे में उनकी किताबें देख रहा हूँ. बड़े ध्यान से रखी जाने के बावजूद सब किताबें मैली चादरों सी दिखती हैं. इस्तेमाल किए जाने के निशान हैं उन पर. किताबें उनकी हैं, लेकिन कमरा उनका नहीं है. वे कहते हैं कि इस घर में कोई कमरा उनका नहीं. उन्होंने ये घर खुद बनाया है. दूसरे तल्ले के इस सबसे बड़े कमरे में एख शेल्फ में पड़ी फ़ाइलों और किताबों के अलावा पिता का कोई सामान नहीं है. उनका सामान थोड़ा-थोड़ा सब जगह है. या उनका सामान ही बहुत थोड़ा है. काग़ज़ों, किताबों के अलावा, कुछ कपड़े, एक-दो बैग और एक अदद शेविंग किट. पिछले साठ सालों में उन्होंने तमाम मेहनत कर बस इतना ही सामान जुटाया है अपने लिए. एक बार फिर रोने को जी हो आता है. मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि पिता मुझे देखकर कैसा महसूस करते होंगे या फिर छोटा भाई और उसका परिवार उन्हें कितनी तसल्ली दे पाता होगा. वे छोटे के साथ नहीं रहना चाहते. वे अकेले रहना चाहते हैं, सुकून से. परिवार की खींचतान में उनको सुकून नहीं.

मैं पिता की शेविंग किट तलाश रहा हूँ. पहले तल्ले के पिछले कमरे में सिलाई मशीन के ऊपर की अलमारी में हुआ करती थी. अब भी वहीं है. पिता को चीज़ों का नियत जगह रखना पसंद है. उन्हें पता है किसके लिए क्या सही है, किसकी क्या जगह है. मुझे लगता है वो हम बच्चों को भी वैसे ही देखते हैं जैसे अपनी शेविंग किट को. उन्हें ग़ुस्सा आता है जब उनकी शेविंग किट उन्हें उसकी तय जगह पर नहीं मिलती. हमारे फ़ैसलों पर भी उन्हें बहुत ग़ुस्सा आता है. उन्होंने अब मुझसे ज़्यादा सवाल करना बंद कर दिया है. मेरी जगह तय करने की उनकी कोशिश कामयाब नहीं हो सकी है. मैं घुटन नहीं चाहता. उनके लिए भी नहीं. पर घुटन से आज़ादी अपने लिए वो खुद ही चुन सकते हैं. मैं बस खुद को आज़ाद कर इस तरफ उनका ध्यान खींचने की कोशिश कर सकता हूँ.

तो मुझे अब चलना चाहिए. गिन कर मिले हुए दिनों में से अगर चंद दिन और मैंने यहाँ खपा भी दिए तो मेरी इस क़ुर्बानी से किसी को कुछ हासिल न होगा. पिता के लिए शायद मुझे देख भर लेना मेरे साथ वक्त बिता लेने के बराबर है. फिर में चार घंटे रहूँ या फिर चार दिन, कोई फ़र्क़ नहीं. फ़र्क़ होगा शायद. वो मुझे एक बुत की तरह सर झुकाए यहाँ से वहाँ भटकते देख चिढ़ने लगेंगे. पूरे घर में एक कोना ऐसा नहीं मिलता जहाँ किसी किताब के पीछे छुपकर मैं कुछ घंटों के लिए भी आस-पास की दीवारों को भूल जाऊँ. जहाँ जाकर बैठता हूँ, हवा विरल होती सी लगती है. इतने लोगों में होकर भी अकेले होना सज़ा की तरह है. क़ैद को सज़ा क़रार देने का ख़याल किसी ऐसे ही अकेले आदमी को आया होगा.

शाम को सात बजे एक ट्रेन है. अभी छह बजने में कुछ देर बाकी है. अगर मैं अभी निकल पड़ूँ तो मुझे यह ट्रेन मिल जानी चाहिए. भाई की पत्नी सबको चाय के लिए आवाज़ दे रही है. मैं चाय नहीं पीता. पिता भी अब चाय नहीं पीते. वे बाहर बरामदे में बैठे हैं. मुझे बैग थामे बरामदे की तरफ आते देख वे कुछ परेशान हो जाते हैं. पूछते हैं कि मैं कौन सी ट्रेन से जा रहा हूँ. कहते हैं कि वो मुझे स्टेशन छोड़ देंगे. वो गाड़ी की चाभी लाने के लिए खड़े होते हैं. मैं बैग छोड़ कर उन्हें गले लगा लेता हूँ. वो सबकुछ अपनी किताबों से पूछ कर करते रहे हैं.  गले लगाना उनकी किसी किताब में कहीं नहीं लिखा. मैं अब अकेले बाहर जा रहा हूँ. पिता दरवाज़े पर खड़े हैं. पहली बार वो मुझे माँ जैसे लग रहे हैं. मैं आख़िरकार रो रहा हूँ. रोता जा रहा हूँ. पिता का घर पीछे छूट रहा है. भीतर की घुटन भी शायद पीछे छूटती जा रही है.

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 खलील जिब्रान की किताब ‘द प्रोफ़ेट’के कुछ अंश

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ख़लील जिब्रान की किताब ‘द प्रोफ़ेट’ का अनुवाद आया है, अनुवाद किया है नीता पोरवाल ने-

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खलील जिब्रान जैसे भोर की मंद समीरण जैसे मघा नक्षत्र की वर्षा जैसे पुरवाई की मीठी झकोर जैसे रूह को जगाता राग भैरव! जिब्रान जैसे आसमान का निहुरकर आंगन में उतर आना जैसे मन की दीवारों पर हल्दी से मांडने बनाना! कहते हैं न कि सरल होना मुश्किल है तो जिब्रान ने वही लिखा जिससे जीवन सरल हो सके जिसे सहज अंगीकार किया जा सके| वे पारस की तरह हमारे जीवन को कांतिमय बना देते हैं| उनकी सूक्तियां हमें पुकारतीं हैं मानो बिन कहे हमारी हर उलझन समझ लेतीं हैं| उनकी सूक्तियां हमें बतातीं हैं कि वो क्या है जो हमें खुद से और औरों से दूर ले जा रहा है| जिस कस्तूरी के लिए हम जंगल-जंगल भटके उस कस्तूरी की सुवास सूक्तियों से होकर हमारी आत्मा को सिक्त करती है| जिस सुख को हम बाजार-हाट में खोजते फिरे, जिब्रान को पढ़ने के बाद वही सुख हमें हमारे मन-सरोवर के तलछट में धूनी रमाये मिलता है| जिब्रान उलझे धागों को इस सरलता से सुलझाते हैं कि मन-पांखी झरते पत्तों में भी संगीत सुनने लगता है, धूप का नन्हा सजीला टुकड़ा सारे अंधियारे को उड़न छू कर देता है| पुरानी इबारतों की जगह स्लेट पर एक नई इबारत उभर आती है जिसे पढ़ते-गुनते दिन उजले और शामें सुरमई हो उठतीं हैं| हर शय के लिये हथेलियाँ दुआओं में उठ जातीं हैं| मैं, मेरा की जगह जुबान हम, हमारा बोलने लगती है| सतह पर बुलबुले से बनते-बिगड़ते हम लहर-लहर हो उठते हैं| धानी, बैजनी, सुआपंखी, निब्बू पीला.. रंगों से रंग मिलते और मन के पश्चिमी छोर पर एक इन्द्रधनुष बन जाता| हमारी आँखें रंग देखतीं, रंग ही बुनती और रंग ही बांटतीं, रंग घुलते और दुनिया सतरंगी हो उठती| जिब्रान कभी सेवण घास की तरह मन में फैलते मरुस्थल को रोकते हैं तो कभी लेमन घास की तरह हमारी आत्मा को सुवासित करते हैं|

दुनिया में कुछ भी बुरा नही हर किसी से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है जिब्रान की इस उक्ति को ही देखिये–

“मैंने बातूनी से चुप्पी सीखी, असहिष्णु से सहिष्णुता और निर्दयी से दया|”

इस विरले संगीतकार ने महज कुछ सूक्तियों में प्रेम की ऐसी अनूठी सुर लहरियां भर दीं अगर ये सूक्तियां हमारे मन में जगह पा जाएँ तो जीवन-सरिता कलकल की मधुरिम ध्वनि के साथ प्रवाहित हो उठे| उन्होंने प्रेम और दोस्ती के साथ ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर लिखा है और ऐसा लिखा है कि उनकी हर कहानी, सूक्ति, लघुकथा अपनी से जुड़ी लगती है| और क्यों न हो यह प्रेम ही था जिसने उन्हें कदम-कदम पर सम्हाला था उन्हें संवारा उन्हें जिब्रान बनाया था इसीलिए तो वह कहते हैं—

“प्रेम तुम्हारे शिखर तक पहुँचकर धूप में तप्त तुम्हारी नाजुक टहनियों को चूम सकता है
तो तुम्हें गहरी नींद से जगाने के लिए जमीन से चिपकी तुम्हारी जड़ों तक पहुंचकर उन्हें हिला भी सकता है|”

खलील दुनिया के हर देश के लोगों को अपने से लगते हैं| वो उस दोस्त की तरह हैं, जो आपकी छोटी सी छोटी बात को बारीकी से समझते हैं और आपकी बेचैनी को दूर करने की भरसक कोशिश करते हैं|

अगर मैं अपनी बात करूं तो मुझे मेरे कितने ही सवालों के जवाब जिब्रान की सूक्तियों से मिलें हैं| जिब्रान तम को परे कर धरती पर रजत ज्योत्स्ना बिखेर देते हैं| जीवनसाथी के बारे में उनकी सुलझी विरली सोच को ही देखिये —

 “अपनी निकटता में कुछ दूरी बनाये रखना जिससे स्वर्ग की हवाएं तुम्हारे मध्य नृत्य कर सकें|”

बच्चों के बारे में यह एक उक्ति तो जैसे मन-दर्पण पर जमी सारी धुंध साफ़ कर देती है मन हर बंदिश से मुक्त हो जाता है शिकवे शिकायतें न जाने कहाँ विला जाते हैं —

“उनकी काया पर तो तुम्हारा हक हो सकता हो पर उनके मन पर तुम्हारा कोई हक नही बनता|

क्योंकि उनका मन तो आने वाले कल में वास करता है जहां तुम सपने में भी नही पहुँच सकते|”

किसी जरुरतमन्द को देते समय हमारा मन दसियों जोड़-घटाव करता है कितने ही दंभ पालता है पर जिब्रान तो जैसे मन में चलते हर बबंडर और हर नन्ही हरकत से वाकिफ़ हैं उनको पढ़ते ही सारी छटपटाहट न जाने कब उड़नछू हो जाती है एक उक्ति देखिये —

“दान दो पर ऐसे जैसे घाटी में मेहँदी अपनी सुगन्धित साँसे अन्तरिक्ष के लिए बिखेरती है|”

जिब्रान की उक्तियाँ अग्नि में तपा हुआ निखालिस सोना हैं, स्वाती नक्षत्र में बरसने वाली ओस की बूंद है जो हृदय रूपी सीपी में समा जाए तो वह सच्चे मोती सा जगमग कर उठे| पर यह तभी मुमकिन है जब हमारा हृदय-प्याला खाली हो| और इसके लिए हमें अपनी उम्मीदों, विचारों और यहाँ तक कि अपने विश्वास की परतों को भी हटाना होगा ताकि हम सच को जान सकें और अपने जीवन को सुंदर, सहज और सार्थक कर सकें|

जिब्रान सुरों के औलिया हैं, वे अपने सुरों से हमारे जीवन-लहरों में चुपचाप शरद की चांदनी घोल देते हैं वे एक ऐसा झरना है जिसकी कुछ बूँदें हमारी आत्मा को निर्मल कर देतीं हैं एक रंगरेज जिसने भी उनकी चूनर एक बार ओढ़ी वो उनका हो गया|

यह चंद पन्नों की एक साधारण किताब नही यह तो गहरे पानी में गोते लगाकर लाये गये बेशकीमती रत्नों का जखीरा हैं|

 

                           सुन्दरता

एक कवि ने आग्रह किया: आप हमें सुन्दरता के बारे में बताइये| उन्होंने कहा: *आप सुन्दरता कहां ढूँढेंगे जब तक वह स्वयं आपकी राह और आपकी गाइड न हो आप उसे कैसे पायेंगे? *आप उसके बारे में कैसे कुछ बता सकते हैं जब तक वह आपकी भाषा का ताना-बाना नही बुने? *सुन्दरता के तीर से घायल और चोटिल का कहना है:  “सुंदरता मृदुल और सौम्य होती है| एक युवा मां की तरह वह स्वयं अपनी कांति से लजाती हमारे             बीच रहती है।” *आतशमिजाज कहते हैं: “नहीं, सुन्दरता प्रचंड और खूंखार होती है। वह आंधी की तरह नीचे धरती को और ऊपर आकाश को कम्पित रखती है।” *सुस्त और उदासीन कहते हैं:”विनम्रता से बोलना ही सुन्दरता है| परछाई के भय से कांपती मद्धम रौशनी सी उसकी मखमली आवाज़ हमारी आत्मा को सुकून पहुंचाती है।” *अधीरमना कहते हैं: “हमने उसे पहाड़ों और घाटियों में रोते हुए सुना है| उसके करूण क्रन्दन के साथ खुरों की आवाज़, पंखों की फडफडाहट और सिंहों की गर्जना सुनाई देती है।” *रात के पहरेदार कहते हैं:“पूर्व दिशा से सूरज की किरणों के साथ-साथ सुन्दरता की पंखुरियां भी प्रस्फुटित होतीं हैं।” *दोपहर के मेहनतकश और मुसाफिर कहते हैं, “हमने सूर्यास्त के झरोखे से उसे धरती पर झुकते हुए देखा है।” *बर्फीले प्रदेश के लोग कहते हैं, “वह वसंत के साथ पहाड़ियों पर उछलते-कूदते हुए आएगी।” *तपती गर्मी में लुनेरा कहता है, “हमने उसे वसंत के मौसम में पत्तों के साथ नृत्य करते हुए देखा है,  उसके केशों में लहराती हुई बर्फ की लड़ियाँ देखी हैं।”

*सच तो यह है कि सबने सुन्दरता के बारे में नही बल्कि अपनी आधी-अधूरी ख्वाइशों के बारे में कहा|

*सुन्दरता हमारी जरूरत नही बल्कि परमानन्द है|

*यह न तो प्यास है और न सामने फैला खाली हाथ है|

*इसका दिल रतनारी और आत्मा जादुई है|

*इसकी कोई छबि नही जिसे आप आँखों से देख सकें न ही यह कोई गीत है जिसे आप कानों से सुन सकें|

*यह तो वह छबि है जिसे आप आँख बंद करके कभी भी देख सकते हैं|

*वह गीत है जिसे आप अपने कान बंद करके भी सुन सकते हैं|

*यह छाल से टपकता अर्क नही, न ही यह पंजे से जुड़ा पंख है|

*यह सदा खिला रहने वाला बागीचा है, उड़ती फिरती परियों और फरिश्तों की टोली है|

*ओर्फिलिस के निवासियों, जिन्दगी जब अपने मासूम चेहरे से घूँघट उठा लेती है, वही सुन्दरता है|

*क्या तुम्हें अहसास है कि तुम ही जीवन और तुम ही वह घूँघट हो?

*दर्पण में स्वयं को शाश्वत निहारना ही सुन्दरता है|

 और तुम ही शाश्वत नजर और तुम ही दर्पण हो|

 

                         ~~~~~~~~~~~~~~~~~~

 

 

 नीता पोरवाल (Neetta Porwal)

जन्म: 15 जुलाई 1970

शिक्षा: एम. ए. अर्थशास्त्र

प्रकाशन: वियतनाम के जनवादी कवि माई वान फान की प्रसिद्ध पुस्तक ‘एक अस्वीकार्य युग’ और फ़्रांस के जाने-माने लेखक ‘एंटोनी डे सेंट-एक्जुपेरी’ के प्रसिद्ध उपन्यास ‘द लिटिल प्रिंस’ के साथ-साथ आप रबीन्द्रनाथ टैगोर, यूनान के प्रसिद्ध कवि नाजिम हिकमत, यूनानी कवयित्री सप्फो जैसे अनेक महत्वपूर्ण कवियों और कथाकारों की रचनाओं को हिंदी में रूपांतरित कर चुकीं हैं| अनुवाद के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए विगत वर्ष आपको सारस्वत सम्मान से सम्मानित किया गया| आप बतौर अनुवादक विगत कई वर्षों तक कृत्या पत्रिका के साथ भी जुड़ीं रहीं| 2018 में आपने चीनी कविताओं के एक संग्रह ‘सौ बरस सौ कविताएँ (चीन की कविताओं में आधुनिकवाद)’ में काम किया| जिसके लिए आपकी टीम को चीनी साहित्य के अनुवाद के लिए DJS Translation Award  प्राप्त हुआ|

To contact the Translator: neeta.porwal4@gmail.com

 

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ईशान श्रिवेदी की कहानी ‘ग्योलप्पा’

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ईशान श्रिवेदी का ताल्लुक़ टीवी-फ़िल्मों में की दुनिया से है, सीनियर कलाकार हैं लेकिन मेरे जैसे लोग उनके लिखे के क़ायल हैं। अपने गद्य से समाँ बाँध देते हैं। मसलन यह पढ़िए, कहानी है या संस्मरण जो भी है पढ़ते ही दिल में बस जाता है- प्रभात रंजन

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राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीन सालों के दौरान मैंने तीन पतझड़ देखे। ये दूसरे पतझड़ का वाक़या है। उन दिनों एन एस डी में चरस पीने का रिवाज़ था। चूंकि चरस घास हुआ करती है इसलिए पीने वालों को बकरी कहा जाता था। जब किसी बकरी को दूसरी बकरी की ज़रुरत होती तो मिमियाने की ‘मेंहह मेंहह’ से एक दूसरे को रिझाया जाता। दिन भर ये बकरियां जन्नतनशीं होतीं और रात होते होते जिबह हो जातीं।

इतवार का दिन था। अमाल अल्लाना थर्ड इयर के साथ ब्रेश्ट का नाटक ‘औरत भली रामकली’ कर रही थीं। अनुराधा कपूर हमें सल्वादोर डाली की पिघलती घड़ियों और एडवर्ड मुंच की चीख समझा रही थीं। चरस पीने के बाद सब कुछ ज़रा जरूरत से ज्यादा ही समझ में आता था। पतझड़ के सूखे पत्तों में अनघटी प्रेम कहानियाँ नज़र आतीं। कभी कभी इंक़लाब भी दिख जाता। मैं और राजीव मनचंदा ओमी के झुलसते हुए ब्रेड पकोड़े खा कर घास पे लेटे थे। चरस खून में दौड़ रही थी और हरसिंगार के फूल पेड़ों से गिरने के बाद भी हमसे कुछ इंच ऊपर आकर ठहर जाते थे। जिस लड़की से मुझे प्यार था और जो पिछले एक साल से झगड़ा किये बैठी थी, वो पास से गुज़री तो ठहरे हुए फूलों में से एक टपक कर मेरे लबों पे आ गिरा। पता नहीं क्यों बहुत सी चीज़ें दिमाग को तिड़काने लगीं। दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ कि ‘तुम किसी रेल सी गुज़रती हो/मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ’ और ‘हंगेरियन रहैप्सोडी’ में शोवान्योस की घाटियों में दौड़ती एना टेकक्स आपस में गड्डमड्ड होने लगे। पिंक फ्लॉयड ‘कोरा कागज़ था ये मन मेरा …’ क्यों गा रहे हैं, ये सवाल मन में उठा ज़रूर लेकिन बस उतना जितना चरस उठने देती है। मैंने एक झटके से सोचा कि बहुत हो गया और उसी झटके से उठ गया। कहीं जाना होगा। कुछ करना होगा। ये सोचती क्या है अपने बारे में? अपने को क्रिस्ताबेल लामोत्त समझती है क्या जो कोई इसके लिए पूरी ज़िंदगी बैठा रहेगा? सूरत देखे अपनी किसी आईने में जाके! नाक अच्छी है लेकिन नीची आके घूम नहीं जाती क्या? आँखें चलो माना कि पनीली हैं चमकीली हैं पर झाँक के देखो तो बस खुद ही खुद दिखती है। ऐंठ तो ऐसी कि रस्सी भी शरम से खुल जाए। राजीव ने अधमुंदी आँखों से मुझे देखा और फिर से मुंद लिया। वो क्या समझता। उसे अभी प्यार होने में कुछ महीने बाकी थे। बाहर निकला तो इरफ़ान सुतपा गोल चक्कर पे बैठे घास नोच रहे थे। थोड़ा और आगे पीयूष मिश्रा रोज़ की तरह बेचारी सहमी सी हवाओ को धमकाने में लगा था। मैं घूम कर बाराखंबा रोड पे आ गया और जो पहली बस मिली उसमें बैठ गया। वो कहते हैं ना कि जब कुछ होना होता है तो कायनात भी आपके इशारे समझती है। चरस और दारू  एक जैसी नहीं होती। दारु डुबाती है और चरस उठाती है। बस में कई सीट खाली थीं लेकिन मैं जिस पे बैठा वहाँ एक लड़की पहले से बैठी थी। वो खिड़की से बाहर देख रही थी और उसकी पतली उँगलियों ने एक कपडे के बैग को भींच के पकड़ा हुआ था। मुझ में इतनी शालीनता हमेशा से रही है कि लड़कियों को बस कनखियों से देखा जाए और जताया जाए कि ये कनखियाँ उनके लिए ही हैं। इससे ज्यादा गैर शरीफ़ाना हरक़त कोई और नहीं हो सकती कि किसी भी लड़की को इग्नोर मारा जाए। बस जब कनॉट प्लेस से होके चेम्सफोर्ड रोड पे आयी तो उस लड़की ने कसमसाना शुरू किया। एक और बस स्टॉप के बाद उसने अपने बैग से एक नक्शा निकाल लिया। उस ज़माने के नक़्शे आपको कहीं पहुंचाते कम और भटकाते ज्यादा थे। चरस की एक और खासियत होती है। वो आपको आपकी सतह से उठा के भी ये एहसास बनाये रखती है कि आप सतह पे ही हैं। आप जितना जितना ऊपर उठते जाएँ उतना उतना आपके साथ आपकी सतह भी उठती जाती है। जब वो लड़की खिड़की और नक़्शे के बीच कुछ ज्यादा ही झूलने लगी तो मैंने अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में पूछा – “आय थिंक यू लॉस्ट?” उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। ओये तेरी त्तो! इतनी बड़ी आँखें। वो भी परेशान। उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया तो मैंने ही संवाद पूरा कर दिया – “मी लॉस्ट टू…” उस शाम मुझे बहुत देर बाद पता चला कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। कि वो रवांडा से है। कि उसका नाम इरिबग़ीज़ा है। मुझे २३ साल बाद पता चला कि उसके नाम का मतलब होता है कुछ ऐसा जो झिलमिलाता है। दो साल पहले दिल्ली में एशियन गेम्स हो चुके थे। बाहर से आये रेसिंग ट्रैक्स फटने लगे थे और इसके पहले कि जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के ‘घूस’ वो ट्रैक्स पूरी तरह से खा जाएँ, सोचा गया कि एफ्रो एशियन गेम्स कर लिए जाएँ। इरिबग़ीज़ा की बड़ी बहन मारासियन रवांडा के लिए १५०० मीटर की रेस दौड़ती थी और दोनों बहनें इसीलिये दिल्ली आई थीं। इरिबग़ीज़ा को बताया गया था कि जनपथ पे बहुत से एम्पोरियम हैं जहाँ से वो तरह तरह की चीज़ें खरीद सकती है। बस जनपथ से बहुत आगे निकल चुकी थी और उसकी मदद के बहाने मैं उसके साथ हो लिया था। एम्पोरियम बहुत मंहगे थे। लेकिन सड़क पे बिकने वाली न जाने क्या क्या चीज़ें उसने खरीदीं। ऑक्सीडाइज़्ड नथनी, झुमके, चूड़ियाँ, रंग बिरंगे पत्थरों की मालाएं। वो बहुत खुश थी। एकदम बच्चों जैसी खुश। जब हमने गोलगप्पे खाए तो तीखे पानी से वो इतनी ज़ोर से उछली कूदी कि आस पास के लोग हंसने लगे। वो स्मोक नहीं करती थी लेकिन हम दोनों ने मिल के चरस पी। चरस ने उस पे असर तब दिखाया जब हम लौट कर एशियाड विलेज पहुंचे और सुनसान पड़े मेलविल डी मेलो स्ट्रीट पे उसने अचानक से मुझे चूम लिया। पैरों के नीचे अस्फ़ाल्ट था और सर के ऊपर हैलोजेन। उसके होठों पे अभी तक मिर्चीले पानी की ठसक थी। ये चरस ही थी कि वो मिर्चियाँ आज भी किसी कोने में दुबकी हुई है। जैसे हरसिंगार के उन फूलों की तरह ठहर गयी हों। ये चरस ही थी कि लौट के मैं सीधे गर्ल्स हॉस्टल गया। दिल में था की उस ऐंठू लड़की से जा के न जाने क्या क्या कहूँगा। लेकिन बाहर ही बरगद के पेड़ के नीचे सीमा बिस्वास मिल गयीं। उनके हाथ में तीन लिटर वाला कनोड़िआ छाप सरसों का तेल था जो वो अभी अभी बंगाली मार्केट से खरीद कर लौटी थीं। उनसे मालूम पड़ा कि ‘वो’ तो कोई रशियन बैले देखने सीरी फोर्ट गयी है। आज भी बच गयी। पर जितनी भी चरस बची थी मेरे भीतर उसका ज़ोर लगा के मैंने कहा – “सीमा दी … उसे बोल दीजियेगा … ऐसे नहीं चलेगा … ” और उनका जवाब सुने बगैर मैं वापिस पलट लिया। तीन साल बाद उस बल खाती रस्सी ने मेरे साथ सात फेरे घूमे। राजीव, सुतपा, इरफ़ान, पीयूष, हरगुरजीत, सीमा सभी ने जम के शादी के रसगुल्ले उड़ाए। जिन्होंने चरस पीनी थी उन्होंने मंडप के पीछे कई बार जा के पी। सुनते हैं कि शादी करवाने वाले पंडित को भी इसका भोग मिला। २३ साल बाद मीरा नायर की वर्कशॉप के लिए मैं युगांडा गया। मेरा रूम पार्टनर रवांडा से था। उसे मैंने इरिबग़ीज़ा के बारे में बताया। वो मारासियन मुकामोरेंज़ी को जानता था। उस समय मारासियन रवांडा की स्पोर्ट्स मिनिस्टर थी। वापिस लौटते हुए मैं बजाय नैरोबी के रवांडा में रुकता हुआ आया। जहाँ देखो वहां लाल मिट्टी थी।  जैसे धूसर में किसी ने खून मिला दिया हो। मारासियन से मुलाक़ात हुई। १९९४ के नरसंहार में लगभग १० लाख लोगों को मार दिया गया था। इरिबग़ीज़ा भी उनमें से एक थी। तब उसकी बेटी ३ साल की थी। मैं जब इरिबग़ीज़ा की बेटी से मिला तो वो १६ साल की थी। उसका नाम है ग्योलप्पा। मुझे याद आया इरिबग़ीज़ा उस दिन गोलगप्पों को यही बोल रही थी- ग्योलप्पा …

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इंविटेशन एक नहीं, दो मंगाना मैं भी साथ चलूंगा – इमरोज

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अमृता प्रीतम और इमरोज का रिश्ता, जिसने कभी भी, किसी तरह के सामाजिक बंधनों की परवाह नहीं की। उन्होंने अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जिया, सिर्फ एक–दूसरे की परवाह करते हुए। वे एक ही छत के नीचे दो अलग–अलग कमरों में रहते थे। पत्रकार-अनुवादक संगीता के द्वारा इमरोज से बातचीत के आधार पर तैयार यह संस्मरण सन 2003 मार्च में लिटरेट वर्ल्ड में प्रकाशित हुआ था। उन दिनों अमृता बहुत बीमार चल रही थीं, इमरोज का ज्यादातर वक्त अमृता के साथ ही बीतता था। संस्मरण का पहला हिस्सा पढिए।

तल पर, पार्किंग प्लेस से थोड़ा पीछे हटकर, एक कोने में स्थित है इमरोज की चित्रशाला, जिसे शीशे की दीवारों ने घेर रखा है। लेकिन सूर्य की किरणों को वहां आने–जाने की और वहां लगी पेंटिंग से छेड़–छाड़ करने की पूरी इजाजत दे रखी है इमरोज ने। कभी तेज तो कभी मद्धम किरणें उनकी पेंटिंग को कभी सहलाती, तो कभी झुलसाती भी रहती होंगी। इमरोज के रंगों और किरणों के पेंटिंग से नोक–झोंक क्या इमरोज को और भी नए रंगों से, जीवन के अनबूझ रंगों से या फिर प्रेम के स्वप्निल रंगों से नित–नया परिचय भी करवाते होंगे।

इमरोज की छोटी सी चित्रशाला में कुछ खाली पड़ी कुर्सियों और उनकी पेंटिंग्स के साथ बैठी मैं उन दीवारों पर टंगे चित्रों में रुचि लेने की कोशिश कर रही थी। उन चित्रों पर धूल की कुछ परतों ने भी अपना रंग चढा रखा था और मकड़ों ने भी कोने–कोने में जगह बनाते हुए अपने जालों से उन चित्रों पर प्राकृतिक रंग जहां–तहां से भर रखा था। शायद वे सब ये बता रहे थे कि अमृता के बीमार होने की वजह से इमरोज रंगों से दूरी बनाते जा रहे हैं सो वे ही आजकल वहां अपना रंग भरकर इमरोज की चित्रशाला को कुछ और भी नए रंगों से परिचय करवा रहे हैं। इधर मेरी आंखें चित्रों पर न जमकर उनमें दी गई विषयों पर रूकने लगी थीं। ‘गॉड इज द क्वालिटी ऑफ लव’, ‘प्रेयर इज नथिंग बट द मोस्ट रिफाइंड फार्मस ऑफ लव’, ‘ मैन इज ए विजिवल ट्री, वोमन इज लाइक रूट्स’, ‘ लव इज हाईर दैन गॉड’, ‘ लव इज द ग्रेटेस्ट आर्ट इन एक्जिसटेंस ’, ‘ इट इज द ग्रेटेस्ट लव दैट बिकम्स प्रेयर’। पर मेरा ध्यान उस दरवाजे की ओर ज्यादा लगा था जहां से इमरोज को आना था। दो साल पहले इमरोज से कुछ क्षणों की मुलाकात हुई थी, जब अमृता के इंटरव्यू के लिए वहां जाना हुआ था। कुर्ते–पायजामे में अपनी लम्बी कद लिए इमरोज से अमृता ने मेरा परिचय करवाया था ‘ये इमरोज हैं , बहुत अच्छी तस्वीरें बनाते हैं।’ इससे पहले ही मेरी नजर उनके बनाए उन पेंटिंग्स पर पहुंच चुकी थी जिसमें पहले की, फिर बाद की और हाल की भी अमृता ही अमृता थीं। और इधर, उन्होंने मेरे औपचारिक अभिवादन का जवाब दिया था। ऐसा करते समय उनके सामने से थोड़े लम्बे हो रहे दोनों तरफ के बाल चश्में के फ्रेम को छूने लगे थे, आंखें थोड़ी ढक सी गई थीं। क्या अब भी वे वैसे ही दिखते होंगे…कि सामने से आते इमरोज दिखते हैं। उनके वही बाल इस बार फिर चश्में के फ्रेम के उन्हीं हिस्सों को छू रहे थे… जैसे की पिछली बार। जैसे कि उन्हें ऐसा करने की आदत पड़ गयी हो। मैं अब तक पेंटिंग से निकलकर अपने ही विचारों में पता नहीं कब वहीं पड़ी कुर्सी पर बैठ गई थी सो इमरोज को अपनी तरफ बढ़ता देख उठ खड़ी हुई और औपचारिक अभिवादन हुआ। उन्होंने कहा था, ‘आप बैठिए , मैं अमृता को अटेंड करके आता हूं, वे बेड पर हैं।’ ‘मैं भी चलूं उन्हें मिलने।’ ‘नहीं।’ कहने के साथ ही उनके चेहरे पर आए भाव यही कह रहे थे कि अभी अमृता किसी से मिलना पसंद नहीं करेंगी… । और कुछ देर बाद इमरोज वापस आते हैं अपनी यादों को समेटने के लिए लिटरेट वर्ल्ड के संस्मरण स्तंभ की खातिर। और इस क्रम में उनके चेहरे पर कई बार, कितनी ही आड़ी–तिरछी रेखाएं खिंचती रहीं, बातों का क्रम बनता बिगड़ता रहा, जीवन के उन्हीं उतार–चढ़ावों की तरह जिसे खुद इमरोज भी शायद न गिन सकें।

उनका अफसाना शुरू ही कुछ ऐसे हुआ। अमृता को एक किताब का डिजाइन बनवाना था, किसी ने इमरोज का नाम सुझा दिया। इमरोज का उनसे परिचय भी करा दिया। वे पास–पास ही रहते थे, लेकिन कभी मिले नहीं थे। फिर उनका थोड़ा–थोड़ा मिलना–जुलना शुरू हुआ। और ऐसे ही मिलते–मिलते ज्यादा मिलना हो गया। और होते–होते बगैर किसी शर्त के आपस में यह तय हुआ कि वे अब इकट्ठे रहेंगे। तब अमृता का डॉयवोर्स होना बाकी था। इमरोज कहते हैं – ‘ऐसा नहीं था कि मेरी वजह से मैरिज टूटी या उन्होंने तोड़ी। मैरिज तो थी ही नहीं। कोई घर आदमी तोड़ता नहीं है। जिसको हम तोड़ना कहते हैं वे पहले ही टूटा होता है। दूसरे मकान का तभी सोचा जाता है। जब पहला टूटा हुआ होता है। लेकिन वो नजर आए या ना आए, ये और बात है।’

तो ऐसे ही उनका साथ–साथ रहना शुरू हो गया। डाइवोर्स तो हुआ ही नहीं। डाइवोर्स की जरूरत उनके पति को पड़ी, 15–20 साल बाद। इमरोज कहते हैं ‘जब रिश्ता हो, तो उसे लीगलाइज करने की जरूरत होती है क्या? लोगों ने कहा कि ‘भाई शादी करनी चाहिए। ’ शादी क्यों करें? कम से कम मुझे तो जरूरत नहीं है। न ही उनको जरूरत है। तो डायवोर्स के बाद भी हमने नहीं सोचा शादी के बारे में। वे अपनी वाइफ कहलाएँ या न कहलाएँ, एक आदमी–औरत तो कहलाते ही न। ’

‘लोग क्या कहते हैं … लोगों का कोई कनसर्न नहीं होता। ये तो हम सोचते हैं, डरते हैं, तब कनसर्न बनाते हैं। तो आदमी–समाज क्या चीज है? आप मेरे समाज में हैं, मैं आपके समाज में हूँ। इतना ही न, बस। इससे ज्यादा तो कुछ नहीं… । और इस तरह हमने इकट्ठे रहना शुरू कर दिया। 1964 से इस मकान में रह रहे हैं। ’

वे बताते हैं ‘साथ रहकर भी हम दोनों इंडिविजुअल हैं। हमें साथ रहकर भी कभी ये मुश्किल नहीं हुई कि – ‘तुम ये करो, ये न करो। ’ मैं ये करूँ, ये न करूँ। उसका जो जी चाहता है वो करती हैं। जो मेरा जी चाहता है, मैं करता हूँ। संयोगवश ये टेंपरामेंट मेरा भी है, और उनका भी है कि जो हम अर्न करते हैं सिर्फ वे ही खर्च करते हैं। मैंने अपने मां बाप की जायदाद नहीं ली। सिर्फ इसलिए कि वो मेरी कमाई नहीं है। बचपन में ही कह दिया था छोटे भाई को, कि वही ले ले, जो मर्जी करे उसका। अपने कमाए पैसे को ही मैं इनज्वाय कर पाता हूं और कोई बात नहीं। ’ स्वतुष्टि का भाव उभर आता है चेहरे पर ‘जैसे अभी मैंने काम किया, मुझे कुछ पैसे मिले, मैं उसको खर्च करने में इनज्वाय करता हूँ। जब भी आ जाएं। ’

‘मैं तो कोई नौकरी करता नहीं। फ्रीलांस आर्टिस्ट हूँ। इसी तरह उन्होंने भी कोई नौकरी नहीं की। हां, शुरू में रेडियो पर 5 रूपए रोज की नौकरी की थी। जब कोई और काम नहीं था। फिर जब ये कमाई हो गई तो छूट गया रेडियो। ’

अमृता का कमरा अलग है और इमरोज का कमरा अलग। अमृता का कमरा मकान के अगली तरफ है, जबकि इमरोज का मकान के पिछली तरफ। उन दोनों की जरूरतें भी अलग–अलग हैं। इमरोज बताते हैं – ‘मेरी जरूरतें और हैं, काम करके वे रात को 9 बजे सो जाती हैं, तीन बजे उठ जाती हैं। तो तीन बजे या डेढ़ बजे उठकर,यानी बारह बजे के बाद वो फिर लिखती हैं, पढ़ती हैं। अभी तो तबीयत ठीक नहीं है, तब भी वे लिख–पढ़ लेती हैं। मैं पहले ही काम कर लेता हूँ। मैं बारह बजे सोना शुरू करता हूँ। तो इस तरह हम एक कमरे में कभी भी नहीं रहे। तो बात तो दो इंडिविजुअल्स की है। जो उसका जी चाहे। हम सिर्फ किचन शेयर करते हैं। किचन के लिए कभी कुछ पैसे उसने डाल दिए तो कुछ मैंने डाल दिए। ’ इमरोज कहते हैं ‘बाकी जो उसका जी चाहे करे। मुझे नहीं मालूम कि उसके बैंक में कितने पैसे हैं। ना ही हमने शुरू में पूछा था एक दूसरे को। बहुत लोग ऐसा करते हैं। तो इस तरह हमारे यहां कोई प्रॉब्लम नहीं हुई जैसा कि जनरली मियां बीवी के दरम्यान होती है। हम कानूनन मियां बीवी भी नहीं हैं। कभी भी, एक दूसरे को अगर यह लगे कि अब रिलेशन में चार्म नहीं रहा तो एक दूसरे से अलग हो सकते हैं बगैर कुछ कहे। मगर वो होगा ही नहीं।’ पूरे विश्वास से कहते हैं वे।

वे दोनों आजाद हैं। वे कहते जाते हैं, ‘हर आदमी जानता है कि न पेरेंट्स, न समाज और न ही नाते–रिश्ते आजादी देते हैं। न मजहब देता है, न मुल्क देता है। आजादी जिस आदमी को चाहिए, वो ले लेता है।’

‘नहीं, मैं किसी को नहीं मानता। पेरेंट्स के पास ठीक है कि पढाई–वढ़ाई करनी है। वे तो ये हुक्म करते हैं कि जैसे मैं कहता हूँ, वैसे ही करो। खैर, संयोगवश मेरे पेरेंट्स वैसे नहीं हैं कि उन्होंने ये कहा हो कि मैं आर्ट्स स्कूल में पढ़ने नहीं जा सकता। मेरे मां–बाप तो खेती–बारी करते हैं, मगर मैं तो मैट्रिक के बाद ही आर्ट्स स्कूल में चला गया, खुद ही। खुद ही ढूंढ़ा, खुद ही दाखिल हो गया। मुझे छोड़ने भी कोई नहीं आए। उन्हें क्या मालूम कि आर्ट्स स्कूल किधर है? मुझे पेरेंट्स से दिक्कत नहीं हुई। उनको मालूम था कि मैं अपनी मर्जी का करने वाला हूँ। अमृता के पेरेंट्स नहीं हैं अब। बाकी ये कंटेम्पोरेरी जो हैं, कुछ बोलते–बालते रहते हैं। जो मर्जी बोलें। क्या फर्क पड़ता है?’ वे कहते हैं, ‘वो तो हरेक आदमी के बारे मे बोला जा सकता है। हम अपने प्राइम मिनिस्टर को भी कुछ कह लेते हैं। जिसको जी चाहे आप कह लेते हैं। जो उन्होंने कहा उसके जिम्मेदार वे हैं। हम जिम्मेदार नहीं है। आपने मेरे बारे में क्या कहा इसके जिम्मेदार आप हैं।’

इमरोज आगे कहते हैं, ‘उन्हें बच्चे हैं। बच्चों में मुश्किल हुई। वे विलायती बच्चे हैं। वहीं के पैदावार हैं। उसी माहौल में रहते हैं। उनको मैं बाप के रूप में स्वीकार्य तो नहीं हो सकता था। तो ठीक है, कोई बात नहीं – अपने बाप से मिले। अमृता के हसबैंड नहीं आते थे। उनका दूसरी औरत के साथ रिलेशन हुआ था। लेकिन जब वे बीमार हुए तो वह औरत उन्हें छोड़कर चली गई। तो उनके लड़के ने पूछा ‘मम्मी उनको घर ले आएँ?’ तो उन्होंने कहा ‘तुम्हारा बाप है घर ले आओ।’ और उन्हें लाकर इसी घर में रखा, उनका इलाज किया। फिर उनकी मृत्यु हो गई। यहीं इसी मकान में। कुछ सालों पहले। सात–आठ साल हो गए। यहीं से सब कुछ हुआ। वो बच्चों का बाप था। इसमें झगड़ा काहे का? झगड़ा तो हम खुद क्रियेट करते हैं। इसमें आब्जेक्शन की क्या बात है? उनका बाप है – जब मर्जी मिलें।’

पर अमृता ने इस तरह की कोई जिंदगी नहीं बनाई कि बच्चे उनके साथ रहें। पर बच्चों ने मां को ही चुना साथ रहने के लिए। इमरोज कहते हैं ‘बच्चों की अपनी मर्जी थी, वे जिधर रहें। हम कुछ नहीं कह सकते थे। बच्चे हमारे साथ ही हैं। उनकी शादी हुई। लड़का नीचे रहता है। उनके दो बच्चे हैं। लोग कई तरह से सोचते हैं कि मां–बाप को शादी के बाद नहीं छोड़ना चाहिए। मगर ये बात उनके तब समझ आएगी, जब उनका भी यही हस्र होगा। क्योंकि अपनी एक्सपीरियंस के बगैर बात समझ नहीं आती। ये समझाने वाली बात तो है नहीं, ये तो समझने वाली बात है। ’

इमरोज कहते हैं ‘अभी उनको ये बात समझ नहीं आती कि अगर उनका मां और बाप एक दूसरे से खुश नहीं हैं और अलग हो जाते हैं तो एक आदमी तो खुश हो गया न? तो एक आदमी से तो खुशी मिलेगी। हां, नाखुश मां–बाप से आपको क्या मिलेगा? नाखुश मां बाप के पास जो है आपको वही देंगे! अनहैप्पीनेस ही देंगे न! खुशी तो नहीं ! खुशी उनके अपने पास नहीं है, तो वो आपको कहां से देंगे? पर यह समझ बड़े होके आती है बच्चों के पास। जब उनकी बीवी उनको छोड़कर चली जाती है। जब प्रॉब्लम बच्चों को खुद होती है, फिर उनको पता लगता है। उनको जल्दी समझ नहीं आती बातें।’

इस बीच उनकी बहू कॉफी रख जाती हैं। इमरोज बताते हैं ‘ये जो अभी लड़की आई, ये हमारी बहू है, पर बेटे की दूसरी बीवी है। पहली छोड़कर चली गई। बेटा बहुत आहत हुआ था कि औरत ही मुझे छोड़कर गई। फिर समझ आई इसको। मगर बड़ी देर लगती है। इससे पहले वे अन्दर ही अन्दर घुलते रहते हैं मन ही मन उन्हें गलत समझते रहते हैं।

वे कहते हैं ‘जिंदगी बहुत सुलझी हुई है मेरे लिए। किसी ने तरीका नहीं बताया। जो जीना चाहता है उसे खुद ही तरीका भी आ जाता है। अमृता को भी किसी ने नहीं बताया कि अपना अलग रूपया खर्च करना चाहिए। ये किसी किताब में भी नहीं लिखा होता। अब मेरे पास काम न भी हो, अर्निग न भी हो, वो थोड़े पैसे दे भी, तो अच्छा ही लगता है।’ एक दफा तभी वे इकट्ठे नहीं रह रहे थे। अलग–अलग रह रहे थे। उस समय जहां इमरोज काम कर रहे थे, वहां कुछ कहा सुनी हो गयी और उन्होंने जॉब छोड़ दी। तब अमृता के पूछने पर इमरोज ने बताया कि उन्होंने जॉब छोड़ दिया है। यह जानने के बाद अमृता ने इमरोज की शर्ट की जेब में कुछ रुपए रख दिये। कुछ दिनों तक इमरोज को काम नहीं मिला। वे बताते हैं ‘लगभग एक हप्ते बाद ही मुझे काम मिल गया। पैसे भी मिल गए। तब मैंने अपनी जेब उनकी तरफ बढ़ा दिया कि अब पैसे वापस ले लो। मैंने उनके रखे पैसे को हाथ तक नहीं लगाया। वह जस का तस वहीं पड़ा रहा। मुझे अच्छा लगा चलो कोई आदमी मेरे लिए इतना तो महसूस करता है।’

इमरोज के काम करने का अपना अलग ही उसूल है। अभी भी वे काम करते हैं, किताब के डिजाइन बनाते हैं। कोई नया आदमी आता है तो उससे एडवांस लेते जरूर हैं लेकिन उसे तब तक हाथ नहीं लगाते हैं जब तक कि काम पूरा न हो जाए। डिजाइन बना कर ही उसे खर्च करते हैं। इससे जुड़ी एक घटना याद करते हैं ‘जब मैं छोटा था तो यह सुना था कि एक आर्टिस्ट को कोई पांच हजार रूपया एडवांस दे गया, पोर्ट्रेट बनाने के लिए। और उसने कहा कि एक महीने के बाद आकर ले जाना। हजार रूपये तो आर्टिस्ट ने उसी वक्त खर्च कर दिए और बाद में पोर्ट्रेट बना ही नहीं पाया। आदमी आया तो कहने लगा कि मैं अभी नहीं बना पाया। पता नहीं वह बात उस आर्टिस्ट को बुरी लगी नहीं या नहीं, मुझे बड़ी अजीब लगी कि यदि पैसे तुमने लिए हैं, तो खर्च क्यों किए। यह सुनने के बाद मैंने यह तय कर लिया कि मैं जब एडंवास लूंगा तो खर्च ही नहीं करूंगा? यह 1945 की बात रही होगी। मैं तब लाहौर आर्टस्कूल में था। उसी वक्त मुझे लगा था कि ऐसा नहीं करना चाहिए उसको। अमृता भी ठीक इसी तरह सोचती है। उसके पति जितना पैसा देते थे, उससे वह घर खर्च चलाती थी। अपने पति के एक पैसे भी वह अपने ऊपर खर्च नहीं करती थी।’

इमरोज कहते हैं ‘उसने कहीं लिखा नहीं है अपनी आटोबायोग्राफी में मगर मुझे मालूम है कि वो 5 रुपए कमाती थी और वही अपने ऊपर खर्च करती थी। जब तलाक हुआ तो जज ने कहा कि मेन्टेनेंस ले ले। तो उन्होंने कहा नहीं चाहिए। जज ने दो दफे पूछा, तीन दफे पूछा, चार दफे पूछा। फिर जज को बहुत अजीब लगा, कि ये औरत क्यूं नहीं ले रही ? अमृता ने हर बार यही कहा था कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। जिस आदमी को आप छोड़ना चाहें, उसके पैसे भी आप स्वीकार करें तो ये स्वाभिमान की बात नहीं होगी, फिर मान क्या रह जाएगा आपका।’

वो इसी तरह आगे बढ़ी है अपनी जिंदगी में। लेखिका है। अपनी किताब का उन्होंने कभी भी विमोचन आदि नहीं करवाया। वे कहती हैं ‘लोग पढ़ना चाहेंगे तो खुद ही पढ़ेंगे, न पढ़ना चाहें तो न पढ़ें।’ इसके लिए लोगों को बुलाकर एंटरटेन करना, खर्च करना, ये सब इन्होंने कभी नहीं किया।

अमृता आजकल बहुत बीमार चल रही हैं। इमरोज ज्यादा समय अमृता के पास ही रहते हैं। बढ़ती उम्र के कारण अमृता को इन दिनों काफी तकलीफें उठानी पड़ रही हैं वह अक्सर इमरोज से कहने लगती हैं ‘अब तकलीफ सही नहीं जाती , जल्द ही बुलावा आ जाए तो अच्छा है।’ कहते–कहते रूंध जाती है इमरोज कि आवाज। … । ‘अमृता एक नहीं , दो इंविटेशन मंगाना… । मैं भी साथ चलूंगा… ।’

क्रमशः

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इमरोज से वे कहतीं – आग तुम जलाओ और रोटी मैं बनाती हूँ

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संस्मरण के इस भाग में फिर मिलते हैं इमरोज से। देखते हैं कि एक भावुक व्यक्ति, एक भावुक कलाकार कैसे प्रेम–प्यार, व्यक्ति, परिवार और समाज को देखता है। अमृता के विषय में लम्बी बातचीत करने के बाद जब इमरोज से मैंने उन दोनों की तस्वीरें मांगी, थोड़ी देर बाद ही वे खाकी लिफाफे में कुछ पुरानी तस्वीरें ले आए थे। उन्हें देखने के बाद मैं तस्वीरों को वापस लिफाफे में डालते समय उन्हें सहारा देने के लिए लाए गए उस हार्ड बोर्ड को रखना भूल गई। इमरोज ने तुरंत मेरे हाथों से लिफाफा लिया और खुद उन तस्वीरों को लिफाफे में डालने लगे। ‘किसी भी काम को करने का प्रोपर तरीका होना चाहिए।’ लग रहा था जैसे अमृता से जुड़ी हुई हर चीज को उन्हीं लिफाफों की तरह ऐसे सहेज लेना चाहते हैं कि उनमें कभी कोई सिलवट न पड़ने पाए। जबकि वहीं उनकी खुद बनाई हुई पेंटिंग पर धूल की परतें जमी थीं। पत्रकार-अनुवादक संगीता के द्वारा इमरोज से बातचीत के आधार पर तैयार यह संस्मरण सन 2003 मार्च में लिटरेट वर्ल्ड में प्रकाशित हुआ था। संस्मरण का पहला भाग ये रहा — इंविटेशन एक नहीं, दो मंगाना मैं भी साथ चलूंगा – इमरोज

‘अमृता एक नहीं , दो इंविटेशन मंगाना… । मैं भी साथ चलूंगा… ।’ …कहकर मुश्किल से ही, पर खुद को संयत करते हैं। ‘… । हम कभी लड़े नहीं, दोनों अपनी मर्जी की जिंदगी जी रहे हैं। अपने–अपने काम में जुटे रहते हैं। मैं अपना पेंट करता हूँ, वह कविताएँ लिखती हैं। और जब हम किचन में मिलते हैं, तो मिलकर खाना बनाते हैं। सब कुछ खुद ही करते हैं।’ ‘आप खाना बना लेते हैं?’ ‘हां, जब उनकी तबीयत ठीक नहीं होती है तो मैं बना लेता हूँ।’

‘आप लोग अलग कमरे में रहते हैं, अपने–अपने कामों में व्यस्त रहते हैं, फिर बातें कब करते हैं?
‘सुबह में करते हैं। जब वे चाय पीती हैं, खाना खाती हैं। किचन में भी बातें होती है। मिलकर हमलोग खाना बनाते हैं। सुबह को हम बनाते हैं बच्चों के लिए और रात में वे बनाती हैं, हम ऊपर खाना खाते हैं बच्चे नीचे खाने जाते हैं। हमारी फैमिली ज्वाइंट भी है और इंडीविजुअल भी। अमृता कभी कहेंगी, ये नहीं खाना है तो कभी वो नहीं खाना है। थोड़ा ज्यादा सिंक गया टोस्ट उन्हें अच्छा नहीं लगता। तो बहू के हाथ का सिंका टोस्ट उन्हें पसंद नहीं आता। तब उनकी बहू भी इमरोज से ही कहती है कि आप ही बना दो।’ इमरोज कहते हैं ‘अगर कोई इन छोटी–छोटी बातों में खुश रहता है तो कर देना चाहिए। इन्होंने कभी शापिंग नहीं किया है। इनको पता भी नहीं है कि शापिंग मार्किट किघर है। अब तो वे बीमार हैं, मैं सारा दिन उनके पास ही रहता हूँ। रात को तकरीबन जागती ही रहती हैं वे।’ …कहते–कहते इमरोज फिर उदास हो जाते हैं।

इमरोज-अमृता प्रीतम

इमरोज को जब अमृता के कमरे में रंग भरना होता है तब वे इंतजार में होते हैं कि उस समय अमृता कहीं बाहर गई हों। वे कहते हैं ‘ ये जब घर में होती हैं, तो इनके होते हुए घर रंग नहीं सकते आप। क्योंकि सब चीजें निकालनी पड़ेंगी और ये मुश्किल काम है। जब ये कहीं गई होती हैं तो पीछे से मैं इनका कमरा रंग करवा देता हूँ। जिंदगी में पहली दफा जबकि वो बीमार हैं, इस बार उनके कमरे को उनके रहते हुए ही रंगना पड़ा है। उनको उठाकर मैं अपने कमरे में लाया। वे मेरे कमरे में भी कम्फर्टेबल नहीं हैं। उनको अपना ही कमरा चाहिए। दो–तीन दिन वो रहीं मेरे कमरे में पर उन्हें कम्फर्टेबल नहीं कह सकते, वो अपने कमरे में ही कम्फर्टेबल है। वे बेड पर ही लिखती हैं, .मेज पर नहीं। उनका बेड भी सामान्य से बड़ा है। मेज की जरूरत नहीं पड़ती। एक साईड में कागज–वागज, किताबें और किताबें हैं। सोने के लिए तीन फुट ही काफी है। वह तो ऐसे ही है। बिल्कुल सहज।’

आपसी संबंधों के बारे में इमरोज कुछ ऐसे सोचते हैं। ‘ मैं कहता हूं, बलपूर्वक आप औरत से क्या लोगे? बलपूर्वक आप उससे शारीरिक संबंध बनाएंगे, तब, जब उसका मन तैयार नहीं होगा, कहोगे कि मैं पति हूँ, ये मेरा राइट है। एक तरफा क्या होगा? ये तो ऐसा ही है जैसे कि आदमी दीवार के साथ खेले। दीवार के साथ खुद ही हिट करते रहो और बॉल आपके ही पास वापस आता है। आप खेल तो नहीं रहे। मगर आम घरों में मियां–बीवी मेरे ख्याल से इसी तरह जिंदगी खेलते हैं। जब उसका दिल नहीं चाहता, वो थकी हुई होती है, तो आप ये नहीं सोचते कि वे थकी हुई है इस वक्त। ये तो एक तरह का रेप ही हुआ न। बीवी के साथ भी आप एन्जॉय नहीं कर सकते, जब तक वे मिली हुई नहीं होती हैं। आदमी को पता नहीं क्या हो गया है। मुझे तो लगता है कि आदमी सेंसिबल ही नहीं रह गया है। कल्चर्ड तो आदमी हुआ ही नहीं। पढ़ने–लिखने से भी आदमी कल्चर्ड नहीं हुआ। पढ़ने–लिखने से तो आदमी चालाक ही हो गया है, कनिंग ज्यादा हो गया है। एकतरफा प्यार, एकतरफा सेक्स क्या है, कुछ नहीं। पता नहीं आदमी सोच क्यों नहीं पाता!’

अमृता के लिए कहते हैं ‘ वो बहुत सिंपल भी हैं। जब नज़्म लिख रही होती हैं और बच्चे कहते हैं कि मम्मी नाश्ता दो, तो वह नज्म को वहीं रोककर कहती है ‘प्लीज होल्ड आन, मैं तुरंत आती हूं।’ आकर वह नाश्ता तैयार करती है फिर जाकर नज़्म लिखने में जुट जाती हैं। ’

वो लगातार कहते ही जाते हैं ‘उनका उनके पति के साथ वास्तव में मैच गलत हो गया। हो सकता है कि उनके पति को सिर्फ खाना बनाने वाली, कपड़े धोने वाली बीवी मिलती तो वे खुश रहते। शादी तो उनकी बचपन में ही हो गई थी। इनके पिता और लड़के के पिता अच्छे दोस्त थे और दोनों ने आपस में ये तय किया हुआ था कि बड़े होंगे तो इन दोनों की शादी करा देंगे। तो ऐसे हुई थी इनकी शादी। एकबार उनके पति का दोस्त उनसे कहने लगा कि पोएट्री–वोएट्री क्या सुनना है। औरत को क्या चाहिए, गर्म खाना और एक गर्म बिस्तर। वो पोएट्री–तस्वीरों की बात क्या करेगी? पर आज वह नज़्म लिखती है तो मुझे सुनाती है, मैं कुछ बनाता हूं तो उन्हें दिखाता हूं। हो सकता है कि नहीं अच्छा लगे, परंतु सुनता हूं। उनके पति को कर्ज लेने की आदत थी। एक से कर्ज लेकर दूसरे को सूद देना, फिर कर्ज लेना। वे कहती थीं कोई नौकरी कर लो’, परंतु वे भी नहीं करते थे।’

‘उनको एक अवार्ड मिला था उसी पैसे से उन्होंने यह मकान बनाई। नहीं तो राइटर मकान नहीं बना सकता। थोड़ा–थोड़ा करके मकान किश्तों में खड़ा किया गया। मकान 1961 में बन गया था, लेकिन तब मैं नहीं रहता था यहाँ। मैं 1964 से इनके साथ रह रहा हूं।’

1957 से रोज शाम को रेडियो लेकर जाता था छोड़कर आता था। इकट्ठे रहने की तो बाद में सोचा। वे आगे कहते हैं ‘जहाँ कंडीशन है वहां मुहब्बत नहीं हैं। हमलोगों ने एक दूसरे से कुछ भी नहीं पूछा कि मां–बाप कौन हैं, जायदाद आदि। बच्चे हमारे पास रहेंगे या नहीं।’

आप लोगों ने अपना बच्चा क्यूं नहीं चाहा? ‘होना चाहिए था। लोग पूछते हैं। दो बच्चे पहले भी हैं। आप कल्पना करें कि हमारा बच्चा भी होता तो ये बच्चे खुश नहीं होते। इन बच्चों के लिए नए बच्चों का आना…ये स्वीकार नहीं करते। फिर उनके लिए माहौल क्या होता? बच्चे तो प्रोपर्टी भी चाहेंगे, प्रॉपर्टी शेयर करने को तैयार नहीं होंगे। समस्या होती यदि हम अपना बच्चा लाते।’

वे बताते हैं ‘अमृता कभी मुझे स्टेशन पर छोड़ने नहीं जाती थी, मेरे जाते ही उन्हें बुखार हो जाता था और जब लेने आती थीं तो स्टेशन पर ही इनका बुखार उतर जाता था। एक बार जब हम हिल स्टेशन पर गए तो वहां एक आर्टिस्ट थे शोभा सिंह। वे इनके पिता के दोस्त थे और बचपन से अमृता जानती थीं उनको। हम उनके पास ही ठहरे हुए थे। उनकी पत्नी हमलोगों के लिए खाना बनाती थीं। बड़ी मुश्किल से उनको मनाकर तैयार किया कि एक वक्त वो खाना बनाए, एक वक्त हमलोग बना लेंगे। वहां लकड़ी का चूल्हा था। तब अमृता कहती हैं ‘आग तुम जलाओ और रोटी मैं बनाती हूँ।’ एक और दिलचस्प यात्रा का जिक्र करते हैं वे, ‘एक दफा मैं और अमृता बंबई गए थे। जब महाराष्ट्र में प्रवेश किया तो चेकिंग चल रही थी। उन्होंने चेक किया कि कोई नशे की चीज तो नहीं है हमारे पास। सब सामान देखा, कुछ मिला नहीं। तो मैंने अमृता से कहा कि इन बेवकूफों को पता ही नहीं है कि जो सबसे ज्यादा नशे वाली चीज है वो तो उसने देखी ही नहीं। उनको तो सिर्फ बोतल ही नजर आती है। वे बोतल को ही नशा समझते हैं।’

वे कहते हैं ‘मेरे हिसाब से तो जिंदगी कुछ ऐसी होनी चाहिए। एक कहानी है ‘आखिर कब तक?’ ‘एक बहुत संपन्न स्त्री किसी बहुत संपन्न आदमी से पार्टी में मिली। आदमी को वह औरत कहती है कि मेरी बात सुनो। शादी की बात तो हम बाद में करेंगे। पहले आपस की बातचीत तो तय कर लें। परिचय तो हुआ नहीं। कम्युनिकेशन तो हुई नहीं। शादी की प्रपोजल इतनी जल्दी तुम कर रहे हो। ये नदी है। इसके पार मेरा घर है। जब तुम मुझे आमंत्रित करोगे तो मैं आऊँगी और जब मैं तुम्हें आमंत्रित करूंगी तो तुम आओगे। और जब तुम आमंत्रित करो और मैं न चाहूँ तो मैं जिद कर सकती हूँ कि नहीं आऊँगी। तो जब मेरी मर्जी होगी और तुम्हारी मर्जी होगी तब हम इकट्ठे रहेंगे।’ वो रूढ़िवादी आदमी था उसने कहा ये शादी थोड़े–ही है। वह खुश नहीं हुआ। मगर ऐसे हो सकता है। कहानी में ये बात नहीं हुई। ऐसे भी दो लोग रह सकते हैं कि वो अपने घर में रहे। जब वे एक–दूसरे को आमंत्रित करना चाहें तो करें।’

इमरोज कहते हैं ‘जब दो आदमी एक दूसरे को स्ट्रांगली पसंद करते हैं तो वे एक दूसरे की उपस्थित से आनंदित होते हैं। सिर्फ शरीर ही एन्ज्वाय नहीं करते। लेकिन जब आप दूसरे की उपस्थिति एन्ज्वाय नहीं करेंगे तो एक दूसरे को डिस्टर्ब ही करेंगे।’

एम्बेसी में पहले वे अमृता के साथ जाया करते थे। ‘किसी भी दूतावास में जाएं सबका एक ही रूल है। आपको अलग व्यक्ति के साथ बैठना है। ऐसे ही वे मुझे अमृता के पास नहीं बैठने देते थे। वो उधर और हम इधर बैठते। मुझे किसी और की औरत के साथ बिठाया–अमृता को किसी और मर्द के साथ बिठाया।’ ‘फिर क्या किया आपने?’ ‘कुछ नहीं। अब दूसरे की औरत से क्या बात करें? न उसे जानते हैं, न पहचानते हैं। कभी कहो मौसम अच्छा है, तो कभी कुछ।’ (हंसते हैं) दूतावासों के डाइनिंग टेबुल पर इसी तरह होता है नाम लिखा रहता है। लगता है कि अपनी औरत में उनकी रूचि कम हो गई है तो दूसरी औरत के साथ बैठे हैं। हालांकि दोनों भीड़–भाड़ से अलग ही रहना पसंद करते हैं। इसलिए न तो वे दावतें करते हैं और न ही किसी को आमंत्रित ही करते हैं। सामान्यता वे किसी के यहाँ जाना भी पसंद नहीं करते। देर रात तक पार्टी अटेंड करना, ये सब दोनों ही पसंद नहीं करते।

अमृता पार्लियामेंट जाना ही नहीं चाहती थी। जब उनको मनोनीत किया गया तो उन्होंने कहा कि मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूँ। इमरोज बताते हैं, ‘6 साल हुए, इन्हें पार्लियामेंट जाना था। इन्होंने कहा मैं ड्राइवर के साथ जाने वाली नहीं। आप ही लेके जाओ, आप ही लेके आओ। गाड़ी है मगर वो ड्राइवर की गाड़ी में नहीं बैठती। उन्हें लगता है कि ड्राईवर रखो तो ये बात भी ध्यान में रखो कि ड्राइवर सुन रहा है। तो क्या बात करोगे? हर बात तो ड्राइवर के सुनने वाली नहीं होती। तो मैं उतनी देर पार्लियामेंट के बाहर रहता पार्किंग में और उसकी किताब पढ़ता। 6 साल तक मैं यही करता रहा। जब फ्रेंच दूतावास से इनको बुलावा आता–तो कार्ड पर सिर्फ इन्हीं का नाम लिखा होता, मुझे तो वे नहीं जानते थे। मैं उनसे कहता आप ही अंदर जाओ, मुझे तो उन्होंने आमंत्रित किया नहीं हैं, मैं नहीं जानेवाला। मैं अपना खाना साथ लेकर जाता, बाहर बगीचे में गाड़ी पार्क करता, बत्ती जलाकर खाना खाता। और वो अंदर खाना खा रही होतीं। 6–7 ऐसी पार्टियों के बाद जब उन्होंने मुझे देखा तो पूछा कि ये भी आए थे। फिर मेरा भी नाम कार्ड में आने लगा और मैं भी अंदर जाने लगा। मेरे लिए ये दिक्कत नहीं थी कि मैं भी जाँऊ या मुझे भी आमंत्रित किया जाता। छोटी–छोटी बात पर यदि झगड़ा करना हो तो झगड़ा बना लो। मैं बाहर में इंज्वाय कर रहा हूँ। मैं अपनी मर्जी से, पंसद से खाना बनाकर ले आया और खाया तो इसमें क्या दिक्कत है। मुश्किलें सामान्यत: — हम खुद ही पैदा करते हैं।’

वे कहते हैं ‘आर्टिस्ट की आय बहुत थोड़ी है। और आजकल तो पेंटिग ही ऐसी बन रही है कि कौन आदमी घर में लेकर जाएगा उसे। क्या सुबह उठकर देखी जा सकती ऐसी पेंटिग? ये जो मॉडर्न आर्ट है! ऐसा लगता है मॉडर्न आर्ट को देखकर, कि इन कलाकारों ने कभी कोई खुशी देखी ही नहीं। आपने इतनी उदासी कहाँ देखी? आपने जिंदगी में खुशी भी तो देखी होगी? खुशी तो कहीं नहीं दिखाती ये पेंटिंग्स। भई एक लिमिट है। देखी है वो मर्डर स्टोरी! जिंदगी से अगर ली है, तो जिंदगी में सिर्फ मर्डर तो नहीं है न! जिंदगी में तो खुशी भी, गम भी। मगर वो उसका स्टाईल ही हो गया है (मॉर्डन आर्ट का)। मैं तो ये कहता हूँ कि ये पंटिंग जो है, जितने भी आर्ट्स हैं–ये सब रास्ते हैं। ये मंजिल नहीं है। मंजिल तो जिंदगी है। हम जिंदगी खूबसूरत जीना चाहते हैं। किसी ने कहा है ‘कभी ऐसा वक्त आएगा जब सब आर्ट खत्म हो जाएंगे। सिर्फ जिंदगी आर्ट होगी। ये एक खुशफहमी है।’

अमृता के विषय में लम्बी बातचीत करने के बाद जब इमरोज से मैंने उन दोनों की तस्वीरें मांगी, थोड़ी देर बाद ही वे खाकी लिफाफे में कुछ पुरानी तस्वीरें ले आए थे। उन्हें देखने के बाद मैं तस्वीरों को वापस लिफाफे में डालते समय उन्हें सहारा देने के लिए लाए गए उस हार्ड बोर्ड को रखना भूल गई। इमरोज ने तुरंत मेरे हाथों से लिफाफा लिया और खुद उन तस्वीरों को लिफाफे में डालने लगे। ‘किसी भी काम को करने का प्रोपर तरीका होना चाहिए। चीजें खराब हो जाती हैं ऐसे।’ लग रहा था जैसे अमृता से जुड़ी हुई हर चीज को उन्हीं लिफाफों की तरह ऐसे सहेज लेना चाहते हैं कि उनमें कभी कोई सिलवट न पड़ने पाए। जबकि वहीं उनके द्वारा बनाई गई पेंटिंग पर धूल की परतें जमी थीं…।

 

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गांधी का कला व सौंदर्य दर्शन पूर्णतः प्रकृति से उपजा सच था

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कलाओं को गांधी ने किस तरह से प्रेरित किया इसको लेकर एक छोटा सा लेख लिखा है कलाकार-लेखक राजेश्वर त्रिवेदी ने-मॉडरेटर
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गांधी ने भी अन्य लोगों की तरह एक सीधे,सरल और बेहद विनय पूर्ण ढंग से कला को आत्म की अभिव्यक्ति कहकर संबोधित किया है। विभिन्न कलाओं को लेकर उन्होंने कोई  विस्तृत विमर्श भले ही न किये हो पर वे मनुष्य को स्वंय को जानने के लिए इसके सहाचर्य की बात ज़रूर करते रहें। वे इस बात को स्वीकारते थे की मनुष्य कलाओं के सहाचर्य को अन्य बातों की तरह ही अपने में कायम रखें तभी उसका खुद से एक तरह का संबंध बन सकता है। यह संबंध मनुष्य का विवेक, आचरण और उसके अपने सहज होने का है।  उनके सौंदर्य बोध को लेकर कई तरह की बातें प्रचलन में रहीं हैं। कुछ लोग उनके कला बोध को बेहद अल्प मानते रहे हैं,तो कुछ लोगों के लिए गांधी का कला व सौंदर्य दर्शन पूर्णतः प्रकृति से उपजा सच था। एक ऐसे वातावरण में जब देश बहुत बड़े संकट के दौर का सामना कर रहा था,वहां कलाएं किसी भी तरह से अनिवार्यता कि तरह तो कतई नहीं थी,मगर,मगर दुनिया को सत्य और अहिंसा कि राह पर चलने के लिए प्रेरित करने वाले गांधी का आकर्षण वैश्विक पटल पर पिछले लगभग सौ सालों से बरकरार रहा है। इसी आकर्षण की परिणति छोटे कद के विशाल गांधी के कर्म और जीवनचरित के असंख्य पहलूओं बहु-तेरे रूपों में दर्शाती रही है उनमें कलाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
यह एक सर्वज्ञात पहलू है की स्वतंत्रता आंदोलन के उस भीषण दौर में गांधी की प्रतिबद्धता और प्राथमिकता सिर्फ और सिर्फ स्वतंत्रता ही थी। गांधी अपने अभिष्ठ की ओर अग्रसर थे। भारतीय स्वाधिनता आंदोलन ने सभी को अपने आगोश में ले लिया था। हर तरफ़ इसका स्पष्ट प्रभाव था। ऐसे में दृश्य कलाओं में विशेष रूप से चित्र-कला भी इससे अछूती नहीं रही। कला के अनेक माध्यमों में शिल्प वह चित्र रचे जा रहे थे। १९०१ में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन शिक्षा और कला के क्षेत्र की एक अनुपम धरोहर की तरह आज भी अपने विस्तृत स्वरूप में विद्यमान है, भारतीय स्वाधिनता आंदोलन के उस दौर में शांति निकेतन का अपना एक विशेष स्थान रहा है। महात्मा गांधी ने अनेक अवसरों पर शांति निकेतन का प्रवास किया। वे गुरुदेव रवींद्र की इस साकार कल्पना से  बेहद प्रभावित थे। शांति निकेतन संगीत व साहित्य के साथ कलाओं का घर बना। भारतीय कला में स्वदेशी के विचारों के प्रबल समर्थक चित्रकार व कला शिक्षक अवनिंद्रनाथ टैगोर  जो शांति निकेतन में कला शिक्षक थे, ने नंदलाल बोस, जामिनी रॉय व रामकिंकर बैज सहित  भविष्य के अनेक ऐसे कलाकारों की पीढ़ी तैयार की जो आधुनिक भारत के कला इतिहास में सबसे अलग नज़र आते हैं।
आधुनिक भारत की कला के पुनर्जागरण में बंगाल स्कूल के अग्रणीय योगदान से कला संसार भली-भांति परिचित हैं। शांति निकेतन के अपने एक प्रवास के दौरान गांधीजी की मुलाकात अवनिंद्र नाथ के शिष्य वह चित्रकार नंदलाल बोस से हुई । बोस ने गांधी जी को वहां के कला संकाय में प्रदर्शित कलाकृतियों से रूबरू करवाया। इन कलाकृतियों के प्रति गांधी के प्रश्नों के उत्तर   नंदलाल बोस ने बहुत ही सहजता के साथ दिए। १९३८ में गांधी जी ने उन्हें हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के मंच व पांडाल सज्जा के लिए आमंत्रित किया। नंदलाल बोस ने वहां चित्रकार रविशंकर रावल व कनु देसाई के मिलकर दो सौ चित्र तैयार किए थे। किसीने इस पर सही कहा है कि “महात्मा गांधी की अनेक परिकल्पनाओं को नंदलाल बोस ने अपनी कला के माध्यम से। साकार किया था। “
एक और अन्य प्रसंग आता है जब गांधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन के आव्हान पर शांतिनिकेतन के युवा चित्रकार “नारायण श्रीधर बेंद्रे” मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान पर अपने प्रसिद्ध चित्र भारत छोड़ो का चित्रण करने पहुंचे थे। गांधी एक प्रेरक और पथ प्रदर्शक थे, उनसे प्रेरणा पाने वालों में तात्कालिक कला संसार तब भी था,और अब  तक भी है। उस दौर की कई ऐसी बातों का उल्लेख मिलता है जिनमें गांधी किसी कलाकृति या स्थापत्य को देखते हुए भावुक, विभोर या विस्मित हुए हैं। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में जब महात्मा गांधी अपनी एक अंग्रेज अनुयाई  “मुरिएल लेस्टर” के साथ यूरोप के अनेक देशों की यात्रा करते हुए इटली पहुंचते हैं। मुरिएल लेस्टर गांधी की इस यात्रा को एक पुस्तक “गांधी की मेजबानी” के रूप में अंकित किया है। उनकी इस किता़ब को पढ़ते हुए सादगी और कला का महात्मा गांधी के जीवन में क्या अर्थ था? उनकी इटली यात्रा के इस प्रसंग से यह समझा जा सकता है,जब वे वेटिकन के सिस्टीन चैपल में प्रार्थना करने के साथ उस स्थल के कलात्मक स्वरूप को महसूस करने के लिए गए थे। गांधी जी वेटिकन की दीर्घाओं को लेकर बहुत उत्साहित थे,जो विशेष रूप से उनके लिए खोली गई थी। वह वेटिकन के कला- संग्रह में उनकी बहुत रुचि लेते हैं। वह उन लंबे, सूने गलियारों को महसूस करते हैं। सिस्टीन चैपल उन्हें अपनी महिमा और विस्मय में तल्लीन कर लेता है। गांधी कहते हैं ” मैंने वहां ईसा की एक आकृति देखी,”वह विस्मित करती है। “मैं वहां से खुद को हटा नहीं सका।
गांधीजी वहां पुनर्जागरण कला और पश्चिम के कला इतिहास के सबसे प्रभावशाली भित्तिचित्रों को देखते हैं, जो ओल्ड टेस्टामेंट की गाथाओं से चित्रित थे। वे दुनियाभर के ईसाइयत के गढ़ माने जाने वाले वेटिकन की उन विशाल और कल्पनातीत दीर्घाओं को देखकर विस्मय और आश्चर्य से खुद को भरा पाते हैं, गांधी जी की आँखें   आंसुओं से भर जाती है, जिनको “माइकल एंजेलो”  जैसे महानतम कलाकार  ने तीस सालों के अथक परिश्रम के बाद चित्रित किया था। गांधी माइकल एंजेलो के अथक श्रम और धैर्य और कल्पनाशीलता  के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वहां अपनी नियमित प्रार्थना में तल्लीन हो जाते  हैं। संभवतः गांधी को पश्चिम के इस महान कलात्मक व धार्मिक आख्यान को देखते हुए हजारों सालों से भारत में मौजूद स्थापत्य का स्मरण भी हुआ हो!
इससे पहले गांधी एक बार अपनी युवा अवस्था में 1890 की अपनी पेरिस यात्रा में नात्रोदम कैथेड्रल की वास्तुकला और उसकी आंतरिक सज्जा को देखकर बेहद प्रभावित  हुए थे। इस बात  का उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है। गांधी को भी अपने देश में मैजूद विरासत और कलात्मक परंपरा के विषय में वैसा ही भान था जो एक भारतीय मानस को अपनी वाचिक और मौखिक परंपरा से मिलता रहा है। गांधी के सत्याग्रह, अहिंसा, व्रत,आचरण, दांडी, स्वदेशी जैसे दर्शन, विचार,आग्रह व आंदोलन दुनियाभर के सृजनधर्मियों की प्रेरणा रहे हैं। भारतीय दृश्यकलाओं व शास्त्रीय संगीत  में भी गांधी की महत्त्वपूर्ण मौजूदगी रही हैं। यह गांधी का ही आकर्षण था जो “कुमार गंधर्व” जैसे निर्गुणी गायक को स्वनिर्मित राग “गांधी मल्हार” गाने के लिए प्रेरित करता है, तो रविशंकर का सितार गांधी के लिए राग “मोहन कौंस” के सुर छेड़ता है। गांधीजी  की प्रार्थना सभाओं में एम.एस सुब्बालक्ष्मी अपने गायन में गांधी के प्रिय भजनों को दोहराती थी।
यहां मुझे  मूर्धन्य चित्रकार सैयद हैदर रज़ा का भी स्मरण होता है,जिनके अमूर्त चित्रों में गांधी शाब्दिक संदर्भों से परे सिर्फ रंगों से मुखरित होते हैं। रज़ा के रंगों में गांधी के मुख निकले अंतिम शब्द हे राम की गूँज है, इसके साथ ही इनमें सबको सम्मति, देने का आग्रह व पीरपराई जानने का निवेदन भी है। सत्य और शांति जैसी अनुभूति  इनमें स्वतः शामिल  हैं। रज़ा ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व महात्मा गांधी को समर्पित चित्रों की एक श्रृंखला तैयार की थी। यहां यह स्पष्ट तौर पर प्रतीत होता है कि,गांधी संगीत में कहीं एक राग की ध्वनित हुए है तो किसी चित्र-कृति में विचार या विषय की तरह। मैं यहां विषय की अपेक्षा गांधी के विचारों की बात पर ज्यादा ज़ोर दूँगा ।
 १९१५ में गांधी जी की दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी भारतवासियों के लिए एक बहुत बड़ी घटना की तरह थी। एक ऐसी घटना जिसके घटने का सारा देश इंतजार कर रहा था। गांधी घर लौटते हैं,इस बार वे अपने देशवासियों के लिए आज़ादी के संघर्ष की नई दास्तान लिखने का प्रण साथ लिए हुए थे। दक्षिण अफ्रीका में किए गए उनके “सत्याग्रह” की गूंज  उनके पहुंचने से पहले ही हिंदुस्तान पहुंच चुकी थी। गांधी  की देश वापसी ने तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने का काम किया। गांधी के शुरुआती जीवन और राजनीतिक सफर पर बहुत ही विस्तार से लिखने वाले प्रसिद्ध लेखक “रामचंद्र गुहा”ने अपनी पुस्तक “गांधी भारत से पहले” में एक जगह गांधी के दक्षिण अफ्रीकी सत्याग्रह पर केंद्रित केवल पांच दृश्यों वाले एक तेलुगू नाटक का उल्लेख करते है। नाटक ने अपनी मातृभूमि में गांधी के विराट होते कद को लाज़वाब ढंग से दर्शाया गया था। वे कहते कि “गांधी का संघर्ष तेलुगू में इस तरह के जुनूनी नाटक लिखने का आधार बन सकता है यह अपने आप में बेहद उल्लेखनीय है।” आज़ादी के बाद भारतीय रंगमंच में नाटकों के माध्यम से गांधी के व्यक्तित्व उनके योगदान और विचारधारा को कई आयामों में प्रस्तुत किया गया।
 रंगमंच की राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका के जो संदर्भ मिलते हैं उनमें  अनेक भारतीय भाषाओं में मंचित हुई ऐसे अनेक नाटकों का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रेरणा गांधी रहें हैं। हां “दीन बंधु मित्र” का  बांग्ला में “नीलदर्पण” और “भारतेंदु हरीशचंद्र” खड़ी बोली में “भारत दुर्दशा” का उल्लेख  राष्ट्रीय आंदोलन के बहुत शुरुआती मंचित नाटक कहे जा सकते हैं।  रंगमंच के कालांतर में गांधी और उनकी विचारधारा को कई तरह से प्रश्नांकित  किया गया। गांधी का जीवन और दर्शन  कई  रंगमंचीय प्रयोगों के साथ प्रकट हुआ।  ऐसे भी कुछ उल्लेख  मिलते जो इस बात को दर्शाते हैं कि सिनेमा जैसे माध्यम के प्रति महात्मा गांधी की कोई रुचि कभी नहीं रही। बावजूद इसके बहुत सारे फ़िल्मकारों ने गांधी के  तात्कालिक भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर बहुत सारे सिनेमा को रचा।  उन्होंने अपने जीवन में एक मात्र फिल्म १९४४ में “राम राज्य”नामक देखीं थीं वो भी आधी। किसी भी तरह से सिनेमा जैसा माध्यम उन्हें कभी भी आकर्षित नहीं कर सका। गांधी जब जब १९३१में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए के लिए इंग्लैंड गए तब मशहूर अभिनेता “चार्ली चैप्लिन” उनसे मिलने आए थे। गांधी ने उनकी अदाकारी के विषय में किसी से सुना था। चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में गांधी जी से अपनी मुलाक़ात का उल्लेख किया है। यहां “रिचर्ड एटनबरो” की उस खूबसूरत फिल्म “गांधी” का  का ज़िक्र लाजमी हैं जिसने आधुनिक दुनिया के सामने गांधी के मोहन दास से महात्मा बनने के सफ़र को बखूबी दर्शाया।
पिछले लगभग एक सदी की आधुनिक भारतीय दृश्यकलाओं (जिनमें चित्र कला,रंगमंच व सिनेमा भी शामिल हैं) की बात करें तो आप महसूस करते है कि ये सभी महात्मा गांधी के संपूर्ण  दर्शन वर्णित उन उद्गारों के हवाले से अपनी खोज में सलंग्न है। मनुष्य को कलाओं के सहाचर्य में रहने के पक्षधर महात्मा गांधी की शिक्षा हमें यह भी याद दिलाती है कि परिवर्तन हमेशा व्यक्तगत स्तर पर ही शुरू होता है,और यह भी कि हम सभी मनुष्य शांतिपूर्ण सक्रियता के माध्यम से ही दुनिया को बदलने की क्षमता रखते है। लगातार कलाओं की शरण जाकर भी मनुष्य ने शांति और आत्मपरिवर्तन को महसूस किया है। हम इस बात को सहज ही महसूस कर सकते हैं कि गांधी ने अपने दर्शन से हमको जीवन जीने की कला से अवगत कराया है। हमारे जीवन और हमारी कलाओं में गांधी की मौजूदगी का एक स्थायी भाव निरंतर ध्वनित हो रहा है।

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पाब्लो का प्रेमी तथा अन्या कविताएँ: अमृत रंजन

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किशोर कवि अमृत रंजन अब धीरे धीरे वयस्क हो रहा है और उसकी कविताएँ भी अपना रंग बदल रही हैं। ये उसकी सबसे नई कविताएँ हैं- प्रभात रंजन
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पाब्लो का प्रेमी 

कितना प्रेम है?
बहुत ज़्यादा।
कहाँ तक? 
बहुत दूर।
कश्मीर तक?
हाँ।
इटली तक? 
हाँ।
अमरीका तक? 
हाँ।
जन्नत तक?
नहीं।
क्यों? 
 
प्रेम का ग़ुलाम मुझे नरक में खींच लेगा!
 
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सबसे पास का सितारा

आज का दिन सबसे अच्छा है,
तुम्हें बताने के लिए
कि क्या अभी महसूस कर रहा हूँ। 
क्या जानो? 
मेरी धड़कन तुम्हारे बारे में इतनी प्यारी चीज़ें कहती है।
एक मिनट…
अगर तुम्हें ये सारी बातें पसंद नहीं आयी तो?
सबसे पास वाला सितारा निराश हो जाएगा।
 
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 विंसेट की तस्वीर

 
तारों के बारे में लिखना उतना मुश्किल नहीं है।
कभी-कभी चोट पहुँचाने का मन करता है।
मन करता है एक पत्थर उठा फेकूँ।
सारे पत्ते बिछा चुका हूँ
अब और क्या माँगते हो तुम?
ख़ूबसूरत।
एक अकेला तो हो नहीं पाऊँगा तुम्हारा
सबसे पसंदीदा ही बन जाता हूँ इन सब में।
हल्की इज़्ज़त तो छोड़ दो।
 
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 त्रिशंकु

अनगिनत रास्तों का ग़ुलाम
मेरे पैर नोचता है।
कीड़े दौड़ रहे हैं हर जगह
इस जगह को घर कैसे बुलाऊँ।
कोई अपना नहीं है
कोई सोचने का काबिल भी नहीं है।
मौत और जिंदगी में क्या
अंतर रह गया है अब?
बीच में फँस गया हूँ
अपने फ़ोन के वॉलपेपर को भी अँधेरा कर दिया।
अब तो बचा लो।
 
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यतींद्र मिश्र की किताब ‘अख्तरी’पर अंकिता जैन की टिप्पणी

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यतींद्र मिश्र के संगीत विषयक लेखन-संपादन की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि वह उन लोगों को संगीत से, उसकी शास्त्रीयता से जोड़ता है जो आम तौर पर संगीत के शास्त्र को जानने समझने वाले नहीं होते हैं। उनके द्वारा संपादित किताब ‘अख्तरी’ पर युवा लेखिका अंकिता जैन की इस लिखत में भी इस बात को रेखांकित किया गया है- मॉडरेटर

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मेरे जैसे किसी संगीत प्रेमी किंतु संगीत व्याकरण का अ-ब-स-द भी ना जानने वाले ने यह किताब क्यों पढ़नी चाही इसका उत्तर किताब में यतीन्द्र जी द्वारा लिखे एक लेख में मिलता है। वे लिखते हैं – “बेगम अख़्तर को मात्र एक गायिका या अभिनेत्री मानकर देखने से संगीत के इतिहास को पूर्णता नहीं मिलती। उनकी जैसी महिला के जीवन में यह देख पाना, इतिहास, संस्कृति और समाज की निगाह से बड़ा प्रासंगिक है कि एक तवायफ़ की दुनिया से निकलकर आने वाली लड़की, किस तरह समाज के बने-बनाये बन्दोबस्त में अपने रहने के लिए, अपनी तरह से तोड़फोड़ करती है और बाई के लिबास से गुज़रकर बेगम बनने का बाना अख़्तियार करती है।”

उपर्युक्त पंक्तियाँ इस किताब को पढ़ने के लिए एक वाजिब वजह हैं तब भी जब आप संगीत ज्ञाता ना हों। यह सच है कि मुझे इतिहास की तारीख़ें याद नहीं रहती लेकिन यह भी सच है कि मैं देश-दुनिया के सारे इतिहास से गुज़रना चाहती हूँ। उसे जानना देखना चाहती हूँ।

किसी भो देश का इतिहास सिर्फ उसके शासकों के बारे में लिखे-पढ़े जाने से पूरा नहीं होता। संस्कृति, संगीत एवं कला का इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है। कितनी ही कहावतें, कितने ही लोक गीत ऐसे हैं जो किसी स्थान विशेष से जुड़े इतिहास के बारे में हमें जानकारी दे देती हैं।

बेग़म अख़्तर को जानना भी इतिहास के उस अध्याय को जानने जैसा है जिसके पन्ने पलटते हुए आपके आसपास का सारा माहौल संगीतमय हो जाए। दर्द-विरह-मिलन-तड़प जैसे कई भाव आपके भीतर उमड़ने लगें और आप किसी दूसरी ही दुनिया मे विचरने लगें।

किताब तीन हिस्सों में बंटी है। पहले भाग में कई संगीत अध्येताओं एवं संगीत प्रेमियों द्वारा लिखे गए लेख हैं। यह सभी लेख पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे मैं खा तो ‘भात’ ही रही हूँ लेकिन हर प्लेट में रखे भात का स्वाद एकदम नया है, लाजवाब और रसीला, स्वादिष्ट। हर लेख बेग़म अख़्तर पर ही है लेकिन हर लेख का ट्रीटमेंट अलग है। प्रत्येक लेख अख़्तरी के जीवन से जुड़ी कोई नई बात बताता है या पुरानी ही बात को नए स्वाद में लपेटकर। मैंने एक दिन में एक ही लेख पढ़ा ताकि हर लेख का स्वाद नया बना रहे। ऐसा करना सुखद रहा। ऐसा करते हुए मैं एक लेख पढ़ती और फिर पूरा दिन बेग़म अख़्तर को सुनती। यह किताब संगीत के कुछ और करीब ले गई।

इस किताब को पढ़ने से पहले मेरे लिए बेग़म अख़्तर का अर्थ ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, या ‘हमरी अटरिया पे आओ साँवरिया’ जैसे कुछ चुनिंदा गीतों या गज़लों से ही था।

संगीत से मेरा बस इतना नाता रहा है कि मेरे दादाजी सिरहाने हारमोनियम रखकर सोते थे,  पिताजी बाँसुरी रखकर सोते हैं और मैं कुछ महीने वायलिन सिरहाने रखकर सोई।

पिताजी के छः भाइयों में शायद ही कोई ऐसा हो जिन्होंने किसी ऑर्केस्ट्रा का हिस्सा ना रहे हों। बचपन में पिताजी हमारे लिए कुछ बाल कविताएँ और भजन लिख देते, ख़ुद ही उनकी धुन तैयार करते और हम उन्हें किसी प्रतियोगिता में गाकर फर्स्ट प्राइज़ जीत लाते।

1995 से 1998 तक भौंती में बिताए तीन सालों में पिताजी की रात दो बजे तक ख़ूब संगीत मंडली जमी जिसमें पिताजी हारमोनियम बजाते, और उनके कुछ मित्र जो तबला, मंजीरा और ढोलक बजाते। हम बच्चों की भूमिका साथ में अलापने और नाचने की थी। भौंती छूटा और संगीत मंडली भी। लेकिन रेडियो, फिर टेप में कैसेट्स द्वारा और फिर कम्यूटर, इंटरनेट द्वारा संगीत सुनने का सिलसिला चलता रहा।

इस सबके बाद भी मैं संगीत के मामले में अनाड़ी हूँ। सरगम के सात सुरों के अलावा संगीत से जुड़ी कोई आधारभूत जानकारी नहीं। संगीत की व्याकरण के मामले में मैं निल बटे सन्नाटा हूँ। कौन गायक किस घराने का, कौन से राग में कौन माहिर, राग की पहचान, इस सबके मामले में मैं अनपढ़ हूँ। पर बचपन से संगीत से रहा विशेष लगाव और संगीत समझने की इच्छा ही इन किताब को पढ़ने का कारण बनी।

इस किताब को पढ़ने से पहले तक बेग़म अख़्तर मेरे लिए उनकी कुछ चुनिंदा गज़लों तक ही सिमटी हुई थीं। हाँ एक बार कोक स्टूडियो में फरीदा ख़ानम द्वारा ‘आज जाने की ज़िद ना करो’ सुनते वक़्त यह ख़याल ज़रूर आया था कि काश आज बेगम अख़्तर जीवित होतीं और कोक स्टूडियो में उनकी गज़लों के साथ सजी महफ़िल का मज़ा मिल पाता। कोक स्टूडियो में परोसे जाने वाले शुद्ध संगीत से बेहद लगाव है जिसने इस ख़याल को जन्म दिया था। बहरहाल यह ऐसी ख़्वाहिश है जो पूरी नहीं हो सकती।

बेगम अख़्तर का किरदार कैसा था, उनकी शख़्सियत कैसी थी, कैसा जीवन बीता यह सब जानने की कभी कोशिश नहीं की। एक रवैया रहा है जितना ज़रूरी है उतना ही काम करो। शायद इसी वजह से उनके जीवन में नहीं झाँका। क्या करना था? उनकी आवाज़ से यदा-कदा सुख तो मिल ही रहा था। लेकिन यतीन्द्र जी द्वारा संपादित यह किताब जब आई और दो-चार जगह इसके बारे में पढ़ा तो दिलचस्पी बनी। और पढ़ना शुरू किया।

इस किताब को पढ़कर समझ आया कि जिन बेग़म अख़्तर के ‘गीत’ मैं सुनती रही हूँ असल में वे गज़ल, दादरा, कजरी में बंटे हुए हैं।

बेग़म अख़्तर से जुड़े संस्मरण, उनके साथ हुई बातचीत सब कुछ कथेतर होते हुए भी कथा सी दिलचस्पी बनाए रखता है। नरेंद्र सैनी जी द्वारा लिखा गया लेख जिसमें बेग़म अख़्तर का काल्पनिक साक्षात्कार है, शिवानी जी का लेख जिसमें उन्होंने अख़्तरी को कितनी साफ़गोई से तवायफ़ के तमगे से अलग रखते हुए एक स्त्री के जीवन संघर्ष का ब्यौरा दिया है, ममता कालिया जी का लेख जिसमें वे अपने निजी जीवन से कितनी सहजता से बेग़म अख़्तर के गीतों को जोड़ती हैं, सुशोभित का लेख जिसे पढ़ते हुए आप जलसाघर देख लेने के लिए मचल उठते हैं। इसके अलावा भी जितने लेख हैं सभी ख़ास हैं।

मेरी राय में साहित्य का अहम हिस्सा बन जाने वाली इस किताब को सभी साहित्य प्रेमियों को पढ़ना चाहिए।

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पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। 

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ईशान त्रिवेदी की नई कहानी ‘एक चूहे की मौत’

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ईशान त्रिवेदी फ़ेसबुक पर ईशान श्रिवेदी के नाम से हैं। टीवी-फ़िल्मों की दुनिया से ताल्लुक़ रखते हैं लेकिन मैं उनकी क़िस्सागोई का क़ायल होता जा रहा हूँ। कहाँ कहाँ से चुन चुन कर किससे लाते हैं। मत पूछिए। सुना है कि इनका एक उपन्यास जल्दी ही राजकमल प्रकाशन समूह से आने वाला है। वह जब आएगी तब आएगी फ़िलहाल इस छोटे से क़िस्से का आनंद लीजिए और लेखक को दाद दीजिए- प्रभात रंजन

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एक चूहे की मौत

मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मैं स्वाद वाली चीज़ें बचा के रख लेता हूँ। जैसे करेलों के साथ भुने आलू। जनपथ से ४०-४० रुप्पइये की पाँच टी शर्ट्स में जो उँगलियों को सबसे ज्यादा सलसलाती उसे बाकी की चार फाड़ के ही पहनता। आज भी सबसे अच्छे दोस्तों को संभाल के ही रखता हूँ कि कहीं खर्च न हो जाएँ। ऐसा करने से एक बेचैनी पैदा होती है जो ठीक वैसा दर्द देती है जैसा तलवों में फंसा वो काँटा देता है जिसे कभी भी निकाला जा सकता है। और मुझे ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि मेरी इसी आदत ने मुझे बरबाद कर दिया। बात है तब की जब १४ बिना छुए ही मुझे इश्क़ हो गया। आठवीं में पढता था और पाखाने में बैठ के ‘सूरज और चंदा’ का हिट गाना ‘तेरे नाम का दीवाना’ गाया करता था। पाखाना इसलिए कि एक वही जगह थी जहाँ हमेशा मैंने अपने आप को अपने आप से सुर में पाया है। वो मेरे कस्बे की तथाकथित ‘सबसे खूबसूरत लड़की’ थी। मेरे से एक साल बड़ी थी और मुझ से २ से ५ साल बड़े लड़कों की उसपे नज़र थी। इन में से कई लड़के सूरमा किसम के थे और उनकी धाक में वाज़िब दम था। उनके प्यार जताने के तरीकों में भी दम था। वो लड़की भी इस बात को जानती थी कि बिन मसें भीगे कस्बे का दो तिहाई हिस्सा उस पे मरता है और बाकी का एक तिहाई जो नहीं मरता वो जाए तिलहट्टी लेने।

तो ये उस दिन की बात है जब एक साथ बहुत सारी अच्छी अच्छी बातें हुईं। कोतवाली के सामने मेरे मैथ्स के टीचर टकरा गए। बुला के बोले – भई वाह! तुम तो ५० में ५० लाये हो। ये सुबह सुबह की बात थी। गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं। घर पे कर्नल रंजीत की ‘पीले बिच्छू’ और इब्ने सफ़ी की ‘नीला महल’ मेरा इंतज़ार कर रहे थे। ‘पीले बिच्छू’ में मैं उस पन्ने पे था जहाँ सोनिया अपनी एड़ियाँ उचका चुकी थी और मैं बेचैन था कि क्या वो मेजर बलवंत को चुम्बन देगी। इस अद्भुत चुम्बन को मैंने पिछली रात बचा के रख लिया था। बेचैनी का भी अपना एक सुख होता है। मुझे पता था कि मैं अगर घर में घुस गया तो वो पन्ना खुल ही जाएगा। इसलिए लू झेलता भी मैं इधर उधर लफंदड़ी करता रहा। ‘उसके’ घर के सामने से गुज़रा तो उसकी बड़ी बहन ने बुला लिया। “तुम आते नहीं आजकल?” अब उसे कैसे बोलता कि उसकी छोटी बहन मेरे लिये करेलों का आलू हो चुकी है। जितना नहीं मिलूंगा उतना ही बेचैन रहूंगा। “तीन नए इंद्रजाल आये पड़े हैं और तुम … एक काम करोगे … ये ज़रा गंज जाके ले आओ ना …” – और उसने एक पर्ची और थैला थमा दिया। पाव किलो मसूर, सेंधा नमक और अब्बास टेलर से पूछ के आना था कि जो दो बेलबॉटम दीं थीं बनने को वो कब मिलेंगी। लौट के आया तो चाची ने बेल का शरबत पिलाया। जिस कमरे में बैठा था वहाँ से ‘वो’ दो तीन बार गुज़री। मेरे कस्बे में उस समय ‘हाए हेलो’ का दस्तूर नहीं था। मुस्कुराने का भी नहीं क्योंकि ‘हंसी तो फंसी’ वाली कहावत हर जवान हो रही लड़की को कंठस्त थी। उठने लगा तो ‘वो’ इंद्रजाल लेके सामने आ गयी। वैसे तो नए नए इंद्रजाल देख के मुंह में पानी आ रहा था लेकिन इम्प्रैशन मारने के लिए मैंने कह दिया – “मैं आजकल ये सब नहीं पढता …” “तो क्या पढ़ते हो?” – मुझे याद है वो किसी अच्छे साबुन जैसी महक रही थी। “तुम्हें नहीं पता” – मैंने और शान झाडी। “मुझे सब पता है। ” – उसने भी तर्रा कर कहा। “क्या पता है?” – मुझे पता था कि उसका ये तर्राना तब तब याद आएगा जब जब सोनिया अपनी एड़ियां उचकायेगी। “अर्रे! मुझे सब पता है!” – उसने आँखें तरेर के कहा और बाहर चली गयी। लगभग बारह बजे जब नगलिया वाली तरफ से पीली धूल का बवंडर उठने लगा तो मैं घर लौट आया। दादी ने काली उरद की सूखी खिचड़ी बनाई थी। माई मोस्ट फेवरेट। आँगन में बैठे पापा बी बी सी सुन रहे थे। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी डिक्लेअर कर दी थी। किसको पता था की दो ही दिन बाद पापा १८ महीने के लिये जेल के भीतर होंगे। आज का दिन तो अच्छा जा रहा था। खिचड़ी की थाली लिए मैं अंदर कमरे में चला गया। बवंडर के चलते दिन में भी अँधेरा था। वो आखिरी पल था जब मैं उजाले से अँधेरे में गया और फिर कभी वापिस नहीं लौटा। ‘पीले बिच्छू’ और ‘नीला महल’ के साथ एक और किताब रखी थी जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था। बदीउज़्ज़माँ की ‘एक चूहे की मौत’। शायद पापा कॉलेज की लाइब्रेरी से इशू करवा के लाये थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि ये वोई बचा के रखने वाली आदत थी कि मैंने सोनिया की उचकती एड़ियों को रोक दिया और इस नयी किताब को उठा लिया। एक कारखाने में मज़दूरों की ज़िंदगी की इस काफ्केसकिएन कहानी को पता नहीं मेरे उस १४ साल के दिमाग ने कैसे छाना। लेकिन इतना पता है कि दिल तो ठहरा रहा वहीं … उसी पन्ने पे … जहाँ वो एड़ियाँ आज भी आधी उचकी सी ठहरी हैं … लेकिन दिमाग … बहुत सालों बाद दिल्ली के हयात में बैठ के कबर्नेत सविग्नोन पीते हुए और सूशी खाते हुए जब मैंने अपने दिल और दिमाग के झगडे को प्रिय मित्र राजीव कुमार को बताया तो उसने मुस्कुरा के कहा – “हम सब रेडिकल बूर्जुआ हैं … ” सुनने पे ये उस समय भी गाली लगी थी … आज भी लगती है …

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ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘ग्योलप्पा’ का लिंक https://www.jankipul.com/2019/08/a-short-story-by-ishan-shrivedi.html?fbclid=IwAR0ZdTGN59msFzP-TG5LA5djJ3SlCm5CcLsD7HeTRl28AFiNpLpE-N89nSA

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संजय कुंदन की कुछ नई कविताएँ

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संजय कुंदन मेरी पीढ़ी के ऐसे कवियों में हैं जो शोर शराबे से दूर रहकर कवि कर्म कर रहे हैं। मध्यवर्गीय जीवन के रोएँ रेशे जिस तरह से उनकी कविताओं में उघड़ते हैं उस तरह से कम कवियों में दिखाई देता है। अभी हाल में ही उनका नया कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘तनी हुई रस्सी पर‘। पढ़िए उनकी कुछ नई कविताएँ-
=====================
करियरिस्ट लड़की
 
किसी शाम एक चौराहे पर
तफरीह के लिए खड़े तुम
जब किसी लड़की की आंखों में झांकते हो
तुम्हें उसकी देह की खरोंचों का
का अंदाजा नहीं होता
 
जब वह बदहवास इधर-उधर देखती है
तुम्हें लगता है
वह अपने यार के इंतजार में है
या अपने शिकार के
 
तुम्हें क्या पता कि
वह एक खोखल की तलाश में है
जिसके अंधेरे में खुद को छुपा सके
 
तुम सोच भी नहीं सकते कि
वह अभी-अभी किसी तरह बची है
बलात्कार से
 
तुम जब उसके कपड़े के भीतर के भूगोल
की थाह ले रहे होते हैं
वह अपने बीमार पिता के बारे में सोच रही होती है
जिनका इलाज उसी के पैसे से चल रहा होता है
वह अपने छोटे भाई-बहन के बारे में सोच रही होती है
जिनकी पढ़ाई चलती है उसी के पैसों से
 
 
कल सुबह
जब तुम उसका चेहरा भूल चुके होगे
वह नहा-धोकर तैयार भागती हुई
फिर वहीं पहुंचेगी
एक बहुमंजिली इमारत के एक कमरे में
जहां वह एक सफेदपोश का शिकार
होते-होते बची थी
 
वह रोज की तरह मुस्कराती हुई
सबको गुड मॉर्निंग कहेगी
उस सफेदपोश को भी
जो उसे सबके सामने ‘बेटी-बेटी’
कहकर पुकारता है
 
 
हो सकता है पांच साल बाद
वह अपने साथ हुए हादसे का बयान करे
और अपने लिए न्याय की मांग करे
 
औरतखोरों के खिलाफ
मुंह खोलने वाली लड़कियों को
अब कुलटा नहीं करियरिस्ट कहा जाता है
 
उस लड़की के बारे में भी कहा जाएगा
कितनी चालू है
पांच साल तक मजा लिया
जब काम निकल गया तो एक
शरीफ को फंसा दिया!
……..
 
 
 
 
महिलाओं की चोरी की आदत
 
मैंने कई सभ्य अधेड़ महिलाओं को
खरीदारी करते हुए
दुकानदार की नजर बचाकर
दो-चार टमाटर, सेब, चम्मच, कटोरी आदि
अपने झोले में डालते देखा है
 
उनकी हैसियत देखते हुए
यह प्रवृत्ति मुझे विचित्र लगती रही है
इसका राज तब खुला
जब मैंने अपनी नानी को खाने में से
कुछ हिस्सा छुपाकर रखते देखा
 
अपने लिए थोड़ा खाना छुपाने
या छुपकर खाने की मजबूरी
बाहर भी थोड़ा बहुत हाथ साफ कर लेने
की आदत में बदल जाती होगी, ऐसा मेरा अनुमान है
 
महान संयुक्त परिवार में
पुरुषों के खाने के बाद ही
स्त्रियों के खाने का चलन रहा है
औरतों में भी बड़ी-बूढ़ियों को खिला लेने के बाद ही
बहुएं खाती रही हैं
सबसे छोटी बहू का नंबर सबसे बाद में
 
औरतों का सबके सामने खाना
पाप के बराबर रहा है
ऐसे में हम जिसे चोरी कहते हैं वह स्त्रियों के लिए
अस्तित्व रक्षा का यत्न रहा
 
विराट सांस्कृतिक परंपरा के रथ में जुती हुई स्त्रियों ने
अपने को और कई बार अपने पेट में पल रहे
जीव को बचाया
अपने हाथ की सफाई से
 
ढह रहा है संयुक्त परिवार का किला
एकता कपूर!
तुम कब तक बेचती रहोगी उसका मलबा
 
देखो, स्त्रियां ठठाकर हंस रही हैं तम्हारे धारावाहिकों पर
देखो, चाट के ठेलों पर लगी हुई है महिलाओं की भीड़
 
झुंड के झुंड लड़कियां जा रही हैं सड़क पर
आइसक्रीम चूसती हुईं
पॉपकॉर्न खाती हुईं
……….
 
 
 
 
 हैप्पी फैमिली
वह आदमी जिसने अपनी पत्नी और दो मासूम बच्चों
का गला रेतकर
खुद अपनी नस काट ली,
हर समय मुस्कराता रहता था
 
उसके बारे में अखबार में छपा कि वह अवसाद में था
और यह भी कि उसकी पत्नी से नहीं बनती थी
हालांकि व्हाट्सऐप पर रोज वह सुप्रभात के साथ
जीवन में विश्वास बढ़ाने वाली सूक्तियां भेजा करता था
 
फेसबुक पर वह हमेशा घूमने-फिरने
और अपनी पत्नी के साथ
होटल में खाने की तस्वीरें डालता
 
एक दिन उसने अपनी बेटी की फोटो
के साथ यह सूचना दी
कि उसे 95 फीसदी अंक मिले हैं
 
जिस रात उसने यह कांड किया
उसके ठीक एक दिन पहले उसने
अपने परिवार की तस्वीर डाली थी
और लिखा था # हैप्पी फैमिली
………..
 
 
 
गरीब रिश्तेदार
 
जब सुबह-सुबह किसी गरीब रिश्तेदार का फोन आता है
हमें लगता है, जरूर वह पैसा मांगेगा
कहीं वह इलाज के लिए तो नहीं आ रहा
या किसी को नौकरी के लिए तो नहीं भेज रहा
 
जब पता चलता है उसने ऐसे ही फोन किया है
तो हम डांटते हैं
कि एकदम सुबह-सुबह फोन मत किया करो
हम देर रात सोते हैं
मेहनत करते हैं
यह कोई गांव नहीं है कि हम खाली बैठे हैं
बहुत कठिन है बड़े शहरों का जीवन
यहां रहो तो पता चलेगा
 
और फिर जब काफी दिनों तक
बाद उसका फोन नहीं आता
हमें गुस्सा आ जाता है
हम भुनभुनाते हैं
देखो भाव बढ़ गए हैं उसके
दो पैसे क्या आ गए
पता नहीं खुद को क्या समझ बैठा है !
……..
 
कविता की नौकरी
 
कविता लिखते हुए वह डरा रहता था
कहीं वह गौरैया सचमुच न आ जाए उसके पास
जिसका उसने कविता में जिक्र किया है
कहीं आकर यह न कहे कि चलो मेरे साथ जंगल में
 
अगर एक दुखी आदमी उसकी कविता से निकल
उसके पास आ गया तो वह क्या करेगा
कहीं वह कह न दे कि
चलो अस्पताल ले चलो
 
ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिरा रहता था वह कवि
जो नौकरी करने की तरह कविता लिखता था
 
वह अपने ही वाक्यों से डरता था
उसे यह चिंता सताती रहती थी कि कहीं
उसके किसी शब्द से कोई वरिष्ठ नाराज न हो जाएं
 
वह यह सोचकर भी घबराता था
कि साहित्यिकों की दुनिया से
बहुत देर बाहर रहना पड़ गया तो वह कैसे जिएगा
 
 
एक सच्चे नौकरीपेशा की तरह
वह अपना ध्यान हमेशा प्रोन्नति पर केंद्रित रखता था
……..
 
 
कैसी लड़ाई
 
यह कैसी लड़ाई है
जो हमारी सभा में
सबसे ज्यादा गरजा
वह दूसरे दिन दिखा
दुश्मन के साथ
उसकी मोटरसाइिकल पर पीछे बैठकर
जाता हुआ
 
जिसने एक जोरदार कविता सुनाई
शत्रुओं के खिलाफ
वह कुछ ही दिन बाद
नजर आया उनके सम्मेलन का
संचालन करता हुआ
 
जिसने तंबू कनात का खर्चा उठाया
वह भी दुश्मन का ही आदमी निकला
 
यह सचमुच कठिन लड़ाई है
न जाने दुश्मन कहां किस वेश में मिल जाएगा
मदद पर आमादा
आमंत्रण और पुरस्कार लिए।
………..
 
शहर में डिब्बे
 
सुबह होते ही
डिब्बों की आवाजाही शुरू हो जाती
इस शहर में
 
सुबह होते ही
प्रकट होते अचानक सड़क पर
ढेरों मोटरसाइकिल सवार
रंगीन टोपियां पहने
भारी-भरकम थैले लादे
 
वे एक के बाद एक
घरों में पहुंचाते डिब्बे
 
कहीं डिब्बे से जूते निकलते
कहीं मोबाइल
कहीं कपड़े
तो कहीं खाना
 
एक आदमी डिब्बा खोलकर देखने के बाद
घर से बाहर
इस तरह निकलता
जैसे डिब्बे मे बंद हो
 
उसे आकाश गत्ते का नजर आता
जिसमें चांद-तारों की जगह लटके नजर आते
तरह-तरह के सामान।
………..
उसका जाना
 
जब वह गया तो
उसके साथ कई कहानियां भी चली गईं
असल में वह खुद एक कहानी था
 
जरा पूछो उसकी पत्नी से
वह उसके बारे में ऐसे बताएगी जैसे
वह किसी परीकथा का नायक हो
वह कई बार गायब हो जाता था घर से
फिर अचानक लौट आता था
 
वह एक कलाकार भी था
जो रात के आखिरी पहर
बांसुरी पर कोई धुन छेड़ देता था
 
उसकी बेटी बताएगी
वह एक अलग तरह का पिता था
 
जरा पूछो उसके दोस्तों से
वह गांधीजी को याद करता था
और कहता था
कि अभी अगर बापू होते तो सब ठीक हो जाता
 
लेकिन सरकार और मीडिया ने उसे सिर्फ एक किसान माना
किसानों पर लिखे गए असंख्य निबंधों वाला एक किसान
और कहा कि एक और कृषक ने आत्महत्या कर ली
इस तरह इस वर्ष खुदकुशी करने वाले किसानों की संख्या 11998 हो गई
वह दस्तावेजों में 11998 वें के रूप में दर्ज हुआ
उसकी खुदकुशी याद रखी गई
लेकिन फंदे पर झूलने से पहले तक
उसने जो कुछ जिया
उसे भुला दिया गया।
अच्छे लोग
 
अब अच्छे लोगों के बारे में बातचीत
नहीं के बराबर होती थी
कभी-कभार चर्चा छिड़ भी जाती तो
माहौल एकदम भारी हो जाता
आम राय यही थी कि
कोई जानबूझकर थोड़े ही अच्छा बनता है
पर कोई अच्छा हो ही गया तो क्या करे
 
जैसे कोई ढोलक थोड़े ही जानता है
कि वह ढोलक है
और अगर जानता भी है तो
क्या कर सकता है
 
अच्छे लोगों के बारे में कुछ इस तरह बात होती
जैसे वे अच्छे होने की सजा भुगत रहे हों
और उन्हें बहुत सारी सहानुभूति की जरूरत हो
 
किसी को अच्छा कहने के पहले
अब बेचारे जोड़ने का चलन हो गया था
जैसे- वे बेचारे… अच्छे आदमी हैं।
…….
 
खलनायक
 
कहने वाले कहते हैं
क्या फायदा है कविता लिखने से
कौन पढ़ता है यह सब
 
फिर आप कोई निराला, फैज
जैसा तो लिख पाएंगे नहीं
वे लोग जो लिख गए
वो क्या कोई लिख पाएगा अब
 
कहने वाले कहते हैं
किसी को कोई मतलब
थोड़े ही रह गया है
साहित्य और संस्कृति से
अपनी परंपरा से
 
कहने वाले कहते हैं
अब कुछ नहीं हो सकता इस देश का
कुछ भी नहीं बदलेगा यहां
कहने वाले कहते हैं
चाय सुड़कते हुए
या पान चुभलाते हुए
 
फिर जब वे मंद-मंद मुस्कराते हैं
अपने समय के सबसे बड़े खलनायक
नजर आते हैं।
………………………
 
 

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योजना साह जैन की कविताएँ

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योजना साह जैन पेशे से एक वैज्ञानिक और शोधकर्ता हैं | बचपन से लेखन में रूचि के चलते कविता, कहानी, यात्रा वृत्तांत, ब्लॉग्स लिखती रहती हैं जो कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।  www.kritiyojna.com वेबसाइट के माध्यम से नए लेखकों को एक डिजिटल प्लेटफॉर्म देने की शुरुआत भी की। अपने लेखन में नए नए प्रयोग करना इनका शौक भी है और विशेषता भी। योजना आजकल अपने परिवार के साथ जर्मनी में रहती हैं। इनके कविता संग्रह ‘काग़ज़ पे फुदकती गिलहरियाँ’ का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ है। उसी संग्रह से कुछ कविताएँ-

मौन और अभिव्यक्ति
मैंने सदियों से,
“मौन” लिखा,
तो तुम
मुझ पर “चिल्लाते” रहे !
 
मैं,
चुपचाप नदी के किनारे
चबूतरा बन बैठ गयी,
तो तुमने
घाटों पे महफिलें जमा दीं !
बड़े सुन्दर,
सतरंगी पंख,
कजरारी आँखें हैं मेरी !
 
पर तुमने
बस मेरे वक्ष पे निगाहें जमायीं !
 
बहुत कुछ है मेरे अन्दर,
जो “मुझे”,
मेरे वजूद,
मेरे चरित्र को
बनाता है !
 
पर तुमने
उसे बस
मेरी योनि से जोड़ दिया !
मेरी चोटी में मैंने
दुनिया गूंथ ली थी,
तो तुम बोले कि
खुले बाल मुझे मुक्ति देंगे !
 
मेरी जीभ को तुमने,
अपने दाँतों में दबाए रखा
ताकि मेरी चीख भी
तुम्हारे अन्दर समा जाए !
फिर तुम कहते हो
कि “मैं” धरती हूँ,
इसलिए फसलें उगाती रहूँ !
फिर तुम कहते हो
कि “मैं” देवी हूँ !
इसलिए आशीर्वाद तुम्हारा हक़
और देना मेरा काम है !
फिर तुम कहते हो,
कि मैं चुप रहती हूँ तो
बहुत प्यारी और मासूम लगती हूँ !
 
इसलिए बंद होंठ,
चोटी में,
तुम्हारा संसार सम्भालूँ,
बन के ठूंठ,
किसी चबूतरे पे नदी किनारे !
पर जानते हो ?
मेरी आवाज़ भी बहुत प्यारी है,
और चीख सुरीली…
बस
बस
बस
बहुत हुआ अब छलावा !
मैंने सदियों से मौन लिखा,
तो तुम मुझ पे चिल्लाते रहे…
अब “मैं” तोड़ रही हूँ
ये “मौन”
और लिख रही हूँ
 
“अभिव्यक्ति” नयी कलम से …
लरजता है आँखों से
लरजता है आँखों से, होठों से गरजता नहीं,
ये बादल चुप है तो ये न समझना कि बरसता नहीं!
चूहों की फौज ने लोकतंत्र को जंगल में कैद किया,
बर्फीली वादी के गिद्धों ने मानवता को नोंच नोंच मार दिया,
आपसी सौहाद्र पर धर्मोन्माद ने कातिलाना वार किया,
और फिक्स्ड फिक्सिंग ने क्रिकेट उन्माद को तार तार किया !
पर नहीं, नहीं,
तुम चुप बैठो, अपनी कुर्सियां संभालो,
ये ज्यादा इम्पोर्टेन्ट है!
क्योंकि इस ग्लोबल युग में,
यूनिवर्सल होना ज्यादा शुभ है !
बैंक स्वदेशी हों या स्विस?
क्या फर्क पड़ता है ?
आखिर काजल की कोठरी में भी,
तो दिया ही जलता है !
इस दिए से आग भी लग जाए तो हम संभाल लेंगे
क्योंकि हम वो बादल हैं जो बरसने को तरसते हैं
पर सच तो ये है
कि आप गरजते हर मौसम में हैं,
पर कभी नहीं बरसते हैं !!
सच तो ये है कि
आश्वासनों की आग पे स्वार्थों की चढ़ी पतीली है,
कैसे कह दूँ मैं कि फागुन की धूप नशीली है !
मोम की हैं ये सारी अट्टालिकाएं सजीली,
गाँव की सडकें तो आज भी कागजी और,
रेत के समंदर की बस आँखें ही पनीली हैं !
इस आग में कई घरों की लकडियाँ लगी हैं
उनमें से कोई न कोई लकड़ी तो मेरी,
या तुम्हारी भी सगी !
 
आपकी बेशरम आँखों की लरज तो जाने कब बरसेगी,
सुभाष-गाँधी के लिए हमारी धरती,
जाने कब तक तरसेगी !
क्योंकि आप वो बदल हैं जो गरजते तो सदा हैं
पर कभी नहीं बरसते हैं !
और हम वो मुसाफिर हैं,
जो बादबानी को तरसते हैं !
 
पर याद रखना कि,
लरजता है आँखों से, होठों से गरजता नहीं,
ये बादल चुप है तो ये न समझना कि बरसता नहीं !
एक चित्र
एक चित्र बनाना चाहती हूँ !
नीले आसमाँ के,
बड़े से खाली,
कोरे कैनवस पर !
कल्पना के ब्रश से,
इस दुनिया के रंग,
और उस दूसरी दुनिया से,
उजली सच्ची सफेदी लेकर!
क्या बनाऊँगी?
पता नहीं !
शायद खुद को ?
या शायद तुम्हे ?
या शायद इक आइना ऐसा
जिसमें अक्स सच्चा दिखाई दे!
खुद को बनाना चाहा,
तो नहीं बना पायी !
चेहरा याद ही नहीं था !
कैसा अक्स है मेरा?
और रंग तो बहुत कम पड़ गए,
अधूरा रह जाता चित्र !
तो सोचा,
चलो तुम्हें बना लूं !
और तुमसे सजी
मेरी ये दुनिया !
तो टांगा,
चाँद को एक तरफ,
और सूरज को दूजी ओर,
तारे भी लटकाए कुछ इधर उधर !
हवा में घुमड़ते बादलों का शोर !
माचिस की डिबिया से दिखते हैं न,
ये हमारे ऊँचे ऊँचे घर आसमां से ?
ऐसे ही बना दिए,
चंद माचिस के डिब्बे !!
तुम्हें बनाया जितना जानती थी !
पर मैं तुम्हें पूरा जान ही कब पायी थी ?
और बनाये,
हमारे आस पास की दुनिया का,
वो सब जो हमारा साँझा था…
अभी भी पर अधूरा सा लगता है चित्र !
बहुत बड़ा आसमां हैं,
और बहुत बड़ा कैन्वस !
बहुत बड़े दिन हैं ये आजकल
और जानलेवा लम्बी रातें !
ख़ाली पड़ी है अभी जिंदगी की किताब,
कोरा पड़ा है अभी कैन्वस बहुत सारा
और ये बहुत बड़ा सा ख़ाली मैदान हमारे बीच !
बहुत कुछ है हममें जिससे हैं हम तुम अनजान,
आ जाओ तुम एक बार,
फिर मिल कर इस कैन्वस को रंगते हैं !
आओ ये चित्र पूरा करते हैं !!!

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‘मार्ग मादरज़ाद’की कविताएँ: पीयूष दईया

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आजकल लेखन में ही कोई प्रयोग नहीं करता कविता में करना तो दूर की बात है। सब एक लीक पर चले जा रहे हैं। लेकिन कवि संपादक पीयूष दईया अपनी लीक के मार्गी हैं। कम लिखते हैं, लेकिन काया और माया के द्वंद्व में गहरे धँस कर लिखते हैं। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित ‘मार्ग मादरज़ाद’ उनकी काव्य-कथा है, लेकिन इसकी धुरी कथाविहीनता है। इस अनंत ऋंखला से कुछ कविताएँ-मॉडरेटर  

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“अचानक से एक बच्चा
रखता है तीन पत्थर
और कहता है-
यह मेरा घर है।”
 
मैं नहीं चाहता
मेरे बच्चे भी कभी रखें
-तीन पत्थर।
=====
 
वह विद्यमान है। विधाता। उसके रास्ते से गुज़रो।
पूरी तरह से भुला दिए गए।
 
रिक्त स्थल हैं।
वहाँ।
 
भींचे हुए जिन्हें नुकीले काँच-सा खुबता है शून्य।
लकीरें उसकी हथेली की।
 
क्या मार्ग हैं मकड़ीले?
===========
 
पता चलता कि उसके तथाकथित शब्द
किसी ग़ुब्बारे की तरह जितना फूलते जाते
वह भीतर से उतना ही खोखला होता जाता।
 
उसके खोखल ख़ाली नहीं होते,
सिफ़र का कौन जाने।
=======
 
उसे पता होता
कि कोरे में काग़ज़ का इल्म नहीं
 
पर कौन जाने वह उसी इल्म का कोर हो
जो काग़ज़ लिखने से उजागर होता हो,
कोरे में।
 
तब न वह कोरा रहता,
न काग़ज़
बस उजागर होता चला जाता।

 

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बांधे रखने वाला मनोरंजन देता है ऑडियो नॉवेल गुस्ताख़ इश्क़

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स्टोरीटेल पर कुछ कहानियाँ धारावाहिक रूप में भी हैं, जो समक़ालीन जीवन स्थितियों को लेकर हैं। ‘ग़ुस्ताख़ इश्क़‘ ऐसी ही एक सीरीज़ है, जिसे इरा टाक ने लिखा है। उसकी समीक्षा की है शिल्पा शर्मा ने- मॉडरेटर

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इरा टाक का लिखा पहला ऑडियो नॉवेल गुस्ताख़ इश्क़ एक युवा पत्रकार मिताली की एक बिज़नेस टाइकून रोनित पटेल, जो उम्र में मिताली से ख़ासा बड़ा है, की प्रेम-कहानी है.  प्रेम कहानियों में यूं भी पेंच-ओ-ख़म कम नहीं होते, लेकिन इस कहानी में बहुत सारे घुमाव हैं, बहुत सारे पेच हैं. मिताली पहले ही शादीशुदा है और रोनित शादीशुदा भी है और दो बच्चों का पिता भी.

किस तरह रोनित और मिताली एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं, पास आते हैं, दुनिया को उनके बारे में पता चलता है, अपने रिश्ते को नकारते हैं, स्वीकारते हैं, मिलते हैं, बिछड़ते हैं, एक-दूसरे को अपनाते हैं और फिर कैसी नई समस्याएं आती जाती हैं इनके जीवन में… इन सभी बातों का ताना-बाना इरा ने बड़े दिलचस्प और श्रोताओं को बांधे रखनेवाले अंदाज़ में बुना है. मिताली और रोनित की इस कहानी में पहले एपिसोड से जागी दिलचस्पी आपको इस तरह सम्मोहित करती है कि आप पांचवे एपिसोड तक दम साधे उपन्यास को सुनते रहना चाहते हैं.

पांचवे एपिसोड के बाद आपको कहानी थोड़ी समझ में आने लगती है और आप अंदाज़ा लगा पाते हैं कि आगे क्या हो सकता है या क्या होगा, बावजूद इसके आप मिताली के बारे में आगे जानने को उत्सुक हो उठते हैं, क्योंकि उसका क़िरदार बहुत डूबकर गढ़ा गया लगता है. इस ऑडियो नॉवेल को सुनते हुए आप बड़े मनोरंजक ढंग से मिताली और रोनित की दुनिया में खोते चले जाते हैं. मिताली की दोस्त संयोगिता हो या रमोना, दोनों ही बहुत अपने से और अपने आसपास के लगते हैं. उपन्यास के दूसरे क़िरदार जैसे- मिताली के माता-पिता, पाछी, रोनित के बेटे राघव-माधव, विमल कुमार और राघव की पत्नी स्वीटी जैसे लोग भी यूं लगते हैं, जैसे आप उन्हें जानते हों. वॉइसओवर आर्टिस्ट नेहा गार्गव और विजय विक्रम सिंह ने नॉवेल के क़िरदारों को अपनी आवाज़ से जीवंत कर दिया है.

 मिताली का क़िरदार एक सशक्त महिला का क़िरदार है, फिर भी कभी-कभी उसके अनिर्णय की स्थिति आपको खलती है. साथ ही, यह महसूस होता है कि नवें एपिसोड तक आते-आते उपन्यास को समेटा जा सकता था. हालांकि यहां लेखक की नहीं चलती, क्योंकि उपन्यास कितने एपिसोड में समेटना है, यह बात प्रोड्यूसर्स अपनी कंपनी की पॉलिसीज़ के तहत तय करते हैं. बतौर एक श्रोता व समीक्षक उन्हें यह सलाह देना मैं ज़रूरी समझती हूं कि वे अपने नॉवेल्स की श्रव्यता को दिलचस्प और निर्बाध बनाए रखने के लिए इनकी लंबाई को कम करने में पीछे न रहें, क्योंकि इससे उनके ऑडियो नॉवेल्स की गुणवत्ता बढ़ेगी ही.

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ऑडियो नॉवेल: गुस्ताख़ इश्क़

लेखिका: इरा टाक

प्लैटफ़ॉर्म: स्टोरीटेल

एपिसोड: 10

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एक ऐसी कहानी जिसे ब्रिटिश छुपाना चाहते थे और हिंदुस्तानी भुलाना

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प्रवीण कुमार झा की चर्चित पुस्तक ‘कुली लाइंस’ पर यह टिप्पणी लिखी है कवि यतीश कुमार ने- मॉडरेटर

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अखिलेश का ‘निर्वासन’ पढ़ा था और वो मेरा  ‘गिरमिटिया’ शब्द से पहला परिचय था। जहाँ सूरीनाम,1985 में आए एक्ट का जिक्र था। गोसाईगंज से सूरीनाम तक रामअजोर पांडे के बाबा और बिहार की उनकी दादी का भारत से पलायन और सूरीनाम में पाँच साल के कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने के बाद वहीं बस जाने का और उनके  समृद्ध होने का  बहुत सुंदर चित्रण है।

पहला गिरमिटिया -गिरिराज किशोर की लिखी है ।यह उपन्यास महात्मा की नहीं बल्कि मोहनदास से महात्मा बनने की यात्रा के बारे में है । जब मोहनदास दक्षिण अफ़्रीका में दूसरे पाँच-साला गिरमिटिया को साथ लेकर मुक्ति की राह पर चल देते है। पढ़ने की इच्छा जागृत हुई पर किसी कारणवश अब तक पढ़ नहीं पाया।

इसी बीच जब ‘कुली लाइन्स’ हाथ आया पढ़ना शुरू किया तो मेरे ज़ेहन में ‘निर्वासन’ पढ़ते हुए जो प्रश्न कुलबुला रहे थे, वही चेतन में फिर से लौटने लगे।
‘कुली  लाइन्स’ पढ़ते-पढ़ते लेखक आपको वर्तमान से निकालकर फ़्लैशबैक में चल रही कहानी में आसानी से लेकर चला जाता है और तब आपको एहसास होता है कि कपोल कल्पना की दुनिया से बाहर यह कथेतर दर्द मनुष्य होने और बने रहने की जीजिविषा की अप्रतिम गाथा है।

लेखक ने बड़ी बारीकी से और गहराई में जाकर तालाश किया है, इतिहास के सबसे पड़े पलायन को, जिसे हम लगभग भूल गए थे। यह एक शोध पत्र भी है। जैसे मिट्टी में दफ्न इतिहास को कोई पुरातत्व विशेषज्ञ बड़ी सावधानी से ढूंढ निकालता है। उसके खनन की प्रक्रिया बहुत ही सधी हुई होती है उसे हमेशा डर ये भी रहता है कि ढूंढते वक़्त कुछ टूट न जाये और  जिसकी बाद में मरम्मत भी न की जा सके। इस पुस्तक में  भी बड़ी बारीकी से तथ्यों को गुना गया है। इस के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।

बचपन में हम अपने लिखे को पेंसिल से मिटाते थे तो कागज पर शब्दों के गुम होने के निशान हमेशा के लिए छोड़ जाते थे ।पन्ना उस जगह सदा के लिए खुरदरा, दबा और स्लेटी रह जाता था।उसी दबे मिटे हुए स्लेटी इतिहास को फिर से ढूंढ निकालने और लिखकर  हम तक पहुँचाने  का भागीरथ प्रयास किया है लेखक ने और इसके लिए उन्हें  हृदय से कोटि कोटि धन्यवाद ।

नम मौसम में गरम हवा पर रेंगने से जन्मे
हलकान की यह कथा है।
मुकदमे  लड़ने के लिए जमा की गई
सामूहिक सहकारी राशि
और उससे कहीं  ज्यादा बढ़ते
अत्याचार की कहानी है यह।

स्त्रियों के मान के लिए
खुशी- खुशी फाँसी के फंदे पर
चढ़ने वालों की दास्तान है यह।

नवजन्मे बच्चों को खेतों में
गाड़ने के बाद
उस पर रखे पत्थरों से बने
मानचित्र  की कहानी है यह
“स्त्री एकता” के जीत और जातियों का जातपात से विमुख होकर मनुष्यता में विलिप्तता की कहानी है यह ।

फिजी के गांधी और वहीं के जलियाँवाला बाग की कहानी है यह
चार्ल्स एंड्रयूज का दीनबन्धु बनने की भी कहानी है यह

उनके शब्दों में
“हिंदुस्तानी गरीबी और यातना  झेल सकते हैं पर किसी महिला की इज्जत से खिलवाड़ कभी नहीं झेल सकते।”

एक ऐसी कहानी जिसे ब्रिटिश छुपाना चाहते थे
और हिंदुस्तानी भुलाना ।

पढ़ने के बाद जब भी मैं अपने आफिस के रास्ते से गुजरते समय खिदिरपुर पोर्ट ट्रस्ट एरिया से गुजरता हूँ , नज़रें किनारे लगे जहाज के साथ गिरमिटियों के पदचिन्हों को ढूंढने लगती हैं । इन्हीं जगहों में यह सब चल रहा होगा दिमाग में सवालों की झड़ी लग जाती है।

कथेतर सूत्रों से सूत्र मिलाकर कोई जादुई सूत्र बनाता है
यह तब जब लोगों की यादों में पतझड़ लगा हो बसंत नहीं और वो जितने पत्ते समेटता है उससे ज्यादा बिखर जाते हैं पर लेखक ने बहुत सलीके से यादों के पत्तों को सहेजते हुए उनकी माला बनाई है और खुद से  इस इतिहास को रच दिया है ।

वो  तब की बातों की दास्तान समेटने निकले हैं जब चूल्हा घर के बाहर जलता था और जिंदगी इंसान के भीतर।
घर के अंदर सिर्फ आँखें जलती थी फूस के छप्पर नहीं।
राम लगे लदीन,मोती माड़े जी,झुनमुन गोसाई ,शिवुधारी जमींदार,तोताराम जी फिजी के गांधी ,सोम नायडू,कुंती ,सुजारिया,रामलखन बाबू और कमला प्रसाद बिसेसर,गुरदीन भागू……

ये इन  सब की कहानी है जिन्हें शायद कभी नहीं सुना जाता  अगर कुली लाइन्स नहीं लिखी जाती।
कुली तमिल शब्द है कि यह भी मुझे पता नहीं था।

अजीबोगरीब किस्सों का संकलन है जो कभी आपको डराता है तो कभी आप आँसुओं में डूब जाते हैं ।कभी-कभी  अंग्रेज आपको अच्छे भी लगते हैं ।
कुछ बहुत रोचक घटनाओं का जिक्र है जैसे-

डॉ ऑलिवर जिसने महिला अस्मिता की रक्षा के लिए पूरे जहाज की यात्रा रोक दी ।

मेजर फेगन एक मजिस्ट्रेट होकर भी उनका कुलियों का साथ देना।

मुंशी रहमान खान जो जहाज पर उन हिंदुओं को जिन्होंने अपना जनेऊ पानी में बहा दिया उन्हें रामायण सुनाते थे।

रूजवेल्ट या कहें कुली पापा की उदारता की कहानी भी है यह ।

तोताराम जी ऐसे गांधी जिन्होंने जुरूरत पड़ने पर अहिंसा भी छोड़ी ।

जाने तेतरी जैसी साहसी मुस्लिम महिला जिसने हिन्दू बच्चे को गोद लिया और दिलेरी की मिसाल बनकर शाहिद हुईं ।उनकी कहानी है ये।

ऐसे लोगों का जिक्र है जिन्होंने गिरमिट को गिरना और मिटना नहीं समझा और वापस उभर कर भारत को भारत के बाहर स्थापित किया।

चावल और चीनी ये दो ऐसे खाद्य सामग्री है जो अकेले जिम्मेदार है इतने सारे लोगों के गिरमिटिया बन जाने के लिए ।ब्रिटेन का चीनी पर टैक्स खत्म करना क्या इतना महंगा पड़ा भारत और चीन को।

मलेशिया को छोड़ जहाँ रबर प्राथमिकता थी बाकी सभी जगह लगभग या तो गन्ने की खेती या धान के लिए इतने मजदूर विस्थापित किए गए।

कनाडा की कहानी अलग जरूर है, वैसे सिख भी बिल्कुल अलग हैं मेहनत और उनकी अपनी एकता में , बाकी की बची खुची कसर रेल की पटरियाँ बिछाने ने पूरी कर दी।  ऐसी कितनी ही विस्तृत जानकारी लगभग सभी टापुओं की जहाँ तस्करी कर गिरमिटियों को विस्थापित किया गया जिसे बहुत ही क्रमबद्ध तरीके से लिखी गई है इस किताब में ।

पढ़कर सोचता हूँ चीनी की मिठास में कितने विष घुले हैं । 8.9 प्रतिशत भारत के लोग एक शताब्दी  में विस्थापित किए गए।ये आंकड़े आपको चकित कर देंगे। गिरमिटिया में पुरुष ज्यादातर निचली जाति से और महिलाएं उच्च जाति से थी, आश्चर्यचकित तथ्य है। आश्चर्य यह भी है चाहे गुलामी हो या गिरमिटिया विस्थापन में  कोलकाता हमेशा केंद्र बिंदु रहा ।

उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों के नजरिया और व्यवहार का अंतर और भारत और चीन के लोगों के सहनशीलता के  अंतर को बहुत सही तरीके से रखा गया है इस किताब में।

वस्तुतः फ्रेंच लोगों ने जिस काम को तस्करी के रूप में किया  ब्रिटिश लोगो ने उसे कानून के तहत कानून में सुविधाजनक बदलाव ला कर किया, सब कुछ बिल्कुल प्लांड तरीके से।

सेशेल्स द्वीप में 6 % भारतीय हैं पर  80% लोगों  में भारतीय खून है अजीब आंकड़े हैं। इन द्वीपों में अफ्रीकी गुलाम भारतीय से पहले आयें पर भारतीयता बची हुई है अफ्रीकी संस्कृति विलुप्त हो चुकी है।यह सच आपको अपने भीतर की भारतीयता को समझने में सहायता करेगा।

गिरमिटयों के साथ  सिर्फ संस्कृति ही नहीं बल्कि आम की गुठली,इमली के पेड़ ,गांजा ,भांग और चिलम के साथ चूहों को भगाने के लिए नेवला भी गया । ऐसी किंवदंतियाँ भी गिरमिटियों के साथ संस्कृति की तरह गई और यह अप्रवास सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं था  । सतीश राय सिडनी से और नईम राय बलरामपुर ,दोनो बिछड़े हुए भाई एक ही खानदान से ताल्लुक रखते थे पर एक मुसलमान और दूसरा हिन्दू । बहुत ही रोचक संयोग आपको धर्म की परतें खरोचती मिलेंगी।

कोई ऐसा भी हो सकता है जो फिजी से 10 पाउण्ड सिर्फ इसलिए गाँव भेजता है कि गाँव में कुआँ खुद सके और जो  खुद वहीं फिजी में बंधुवागिरी करते-करते मर जाता है।

अरकाटी(दलाल या एजेंट)पतंग का वह मांझा था जिसकी डोर किसी और ने पकड़ रखी थी । मृदुभाषी और मार्केटिंग गुरुओं का जंजाल तोड़ना कितना कठिन होगा उस भुखमरी और सामंतवाद की बेचैनी भरे वातावरण में ….

सिपाही विद्रोह भी पलायन का कारण बनेगा ये ख्याल से परे है। जिस नीति या एक्ट में सरकारी ठप्पा लग जाये तो आज के पढ़े लिखे लोग भी  सरेआम बेवकूफ बनते हैं , नहीं तो सारदा, नारदा ,सहारा ,पीयरलेस जैसे स्कीमों से लाखों लोग बेवकूफ नहीं बनते।उस समय तो माहौल भी और उपयुक्त था ऐसी स्कीम लाने का।

जब आप प्रोटेक्टर ऑफ इमिग्रेंट की बात करते हैं तो लगा कि इस यूनिवर्स को बचाने वालों की बात हो रही होगी पर यहॉं तो सारे शब्द विलोम होते दिख रहे थे ।चैन ऑफ कमांड की बात हो रही थी।एग्रीमेंट के प्रोटेक्टर की बात थी न कि इमिग्रेंट के प्रोटेक्टर की।

एक स्नान से जात पात सारे मतभेद मिट सकते हैं और सब कुछ जरूरत के अनुसार सिकुड़ती और फैलती है और मिश्रण का अनुपात भी सुविधा ही निर्धारित करती है ।जनेऊ का पानी में बहा देने से मन के भीतर भी  प्रवाह बनता है और पसीने के रास्ते सब बह जाते है ।
अब सब एक समान।

हर चैप्टर  में कालक्रम और संदर्भ  बनाकर लेखक ने क्रमबद्ध  समय के बदलते चक्र को समझने में आसानी ला दी ।

1853 में भारतीय रेल की शुरुआत होने से बेरोजगारी बढ़ने का लिंक आश्चर्यचकित करता हैं ।मैं खुद रेल अधिकारी हूँ और सोच में पड़ गया कि जिस संस्था पर इतना गर्व है उसके  दुष्परिणाम की एक शक्ल गिरमटिया की बढ़ोत्तरी भी थी यह सच विस्मित करता है।

सोचता हूँ कौन सा विद्रोह बड़ा था 1857 का सिपाही विद्रोह जिसने गिरमिटयों की संख्या बढ़ाई या कुंती की लिखी  1913 की  वो चिट्ठी जिसे जिसने भारत के प्रेस मीडिया को आकर्षित किया और 1920 में फिजी में गिरमिटियों को मुक्त किया गया।

युगाण्डा के तख्ता पलट के बाद ईदी अमीन ने जिन 80 हज़ार भारतीय को देश निकाला दिया उन्होंने ब्रिटेन,कनाडा,और केन्या के विकास में भूमिका निभाई। ऊर्जा का विनाश नहीं होता बस अपनी शक्ल सूरत बदलती रहती है।

हरेक अध्याय के अंत में दिए गए संदर्भ को पढ़ने से लगता है लेखक ने कितनी मेहनत और रिसर्च की है ।कितना गंभीर अध्ययन किया है ताकि वास्तविकता मौलिकता के साथ उभर कर आए।

नारायणी की कहानी रूह पर हंटर चला जाती है।इसे एक पन्ने से निकलना होगा ,एक पूरी किताब उसका इंतजार कर रही है……

नेहरू जी का यह कहना कि थेतर लोग आ गए ।पढ़कर विश्वास नहीं हुआ ऐसा भी प्रधानमंत्री कह सकते हैं उनके लिए जो आप पर आस लगा कर वतन वापस आ रहे हैं।क्या गुजरी होगी उन पर। क्या मात्र एक बिस्कुट लेना  देह सौपने की स्वीकृति का प्रतिचिन्ह बन सकता है ।अजीब नियमों की दुनिया से गुजर कर लोग टापुओं पर पहुँचते थे।

कुछ ऐसी रोचक घटनाओं का भी जिक्र है जब चीनी हिंदी सच में भाई-भाई बनकर एकजुट होकर लड़े।मलय एन्टी जैपनीज पार्टी इसी का उदाहरण है।
मलय कम्युनिष्ट पार्टी भी।जब संकट के बादल घिरते हैं तो वर्गीकरण और ध्रुवीकरण से परे एकता जन्म लेती है जहां जातिवाद तो क्या देशवाद भी हार जाता है।

1947 में हिन्दुस्तानियों को भारत में आजादी मिलने से पहले कनाडा में आजादी मिली , उन्हें वोट देने का अधिकार मिला।

पलायन संस्कृति का विकास है ।सभ्यता का डायन,जातिवाद से मुक्ति  और एकमयता और एकता का सूत्र । किताब पढ़ते- पढ़ते इतिहास में विचरण करने लगता है पाठक ।उन सारे देशों को फिर से अलग तरह से समझने का मौका देती है यह किताब। कई अनसुलझे प्रश्नों का जवाब देती है और कई नए प्रश्न भी जन्म लेते हैं।

लेखक को अनेक बधाई उनकी यायावरी के लिए जिसके बिना इतने देशों में जाकर इतने तथ्य, इतनी बड़ी और रोचक जानकारियाँ  इकट्ठा करना संभव नहीं था।

और अंत में उन सभी  दिवंगतों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना जिनकी मौत पूर्णतः अस्वाभाविक तरीके से हुई और जिनकी रूह आज भी भटक रही है।

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पुस्तक का प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। 

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मोमबत्ती दिलवाली रात भर जलती रही

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सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपनी आत्मकथा के दूसरे खंड ‘हम नहीं चंगे बुरा न कोय’ में अमृता प्रीतम से मुलाक़ात का ज़िक्र किया। आत्मकथा के पहले खंड में उन्होंने इंद्रजीत यानी इमरोज़ के बारे में लिखा था, दूसरे खंड में भी उन्होंने लिखा है कि एक कलाकार के रूप में उनका जलवा कितना था। अमृता प्रीतम की जन्मशताब्दी के साल पढ़िए वरिष्ठ लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का यह लेख- मॉडरेटर

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अपने जीवन काल में अमृता प्रीतम पंजाबी की आइकॉनिक लेखिका थीं लेकिन हिंदी में ज्यादा पढ़ी और पसंद की जाती थीं, यहाँ तक कि वर्तमान पीढ़ी के कितने ही पाठक हैं जो जानते ही नहीं कि अमृता जी वस्तुत: पंजाबी की लेखिका थीं. नज्में और अफसाने दोनों लिखती थी और दोनों विधाओं पर ही उन की पकड़ और महारत काबिलेरश्क थी. यहाँ उन की रची सिर्फ दो लाइन उद्धृत हैं और ये दो ही पाठकों पर जादू कर देंगी:

आईयाँ सी यादां तेरियां, महफ़िल सजा के बैठी आँ;

मोमबत्ती दिलवाली रात भर जलती रही.

अफसानानिगारी में भी वो बेमिसाल थीं, इस के लिये ‘पिंजर’ का ही जिक्र काफी है जिस का कई भारतीय और यूरोपियन भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है और जिस पर बॉलीवुड में एक निहायत कामयाब और मानीखेज फिल्म भी बन चुकी है.

अमृता जी को समय-समय पर कई सरकारी और गैरसरकारी इनामों से नवाजा गया था जिन में प्रमुख हैं: पद्मविभूषण, पंजाब रतन और ज्ञानपीठ पुरुस्कार. उनकी लिखी लगभग सौ किताबें प्रकाशित हुई थीं और वो अपनी ज़िन्दगी के आखिरी लम्हे तक लिखने में मशगूल रहीं थी. उस दौरान उन्हों ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी लेकिन जैसा अजीमोश्शान उन का किरदार था उसके मुकाबले में बायो उतनी वसीह नहीं थी जितनी होने की उनके मुरीद पढने वालों को उम्मीद थी. लेकिन कलेवर में कदरन मुख़्तसर होने के बावजूद भी दिलचस्प, मानीखेज मालूमात से भरपूर थी और ऐन दुरुस्त और माकूल नाम ‘रसीदी टिकट’ (Revenue Stamp) से नवाजी गयी थी.

आत्मकथा में इस गैरमामूली नाम के पीछे ही एक कहानी है:

एक बार खुशवंत सिंह ने अमृता जी से इसरार किया था कि वो अपनी बायो लिखें. उन का जवाब था कि उनकी ज़िन्दगी तो बस इतनी इवेंटफुल थी कि उसको एक डाक टिकट पर दर्ज किया जा सकता था. लिहाज़ा आखिर जब अमृता जी ने आत्मकथा लिखी तो उसे ‘रसीदी टिकट’ ही नाम दिया. यहाँ ये बात भी गौरतलब है कि रसीदी टिकट में एक ऐसी खासियत होती है जो बाकी डाक टिकटों में नहीं होती; बाकी डाक टिकटों के साइज़ बदलते रहते हैं, छोटे बड़े होते रहते हैं लेकिन रसीदी टिकट का साइज़ कभी नहीं बदलता; जब से डाक का महकमा है, तभी से रसीदी टिकट का एक ही साइज़ मुक़र्रर है जो कि आज तक भी चला आ रहा है, कभी नहीं बदला – और लगता है न कभी आइन्दा बदलेगा. ‘रसीदी टिकट’ उनवान के एक सिंबॉलिक मायने हैं जो इस बात की तरफ इशारा हैं कि लेखिका ने बतौर बायो जो कुछ लिखा है वो वाकेई इतना मुख़्तसर लेकिन मानीखेज  है कि रसीदी टिकट पर मुकाम पा सकता है.

कोई बड़ी बात नहीं कि ‘रसीदी टिकट’ से ज्यादा मुख़्तसर लेकिन मुखर आत्मकथा भारत में किसी दूसरे सेलिब्रिटी की हो ही नहीं.

दो मर्तबा मुझे अमृता जी के रूबरू होने का इत्तफाक हुआ था. दोनों बार मैं बस उन के दर्शन ही पा सका था.

ओम प्रकाश शर्मा जी की मुसाहिबी महफ़िल में शरीक होने के लिए मेरठ गया था तो वापिसी में शर्मा जी ने इमरोज़ का बनाया एक टाइटल मुझे थमा दिया था और हुक्म फ़रमाया था कि दिल्ली लौटने के बाद इमरोज़ से संपर्क करूँ और उसे टाइटल के बारे में बताऊँ कि शर्मा जी उसमें क्या क्या करेक्शन चाहते थे. हासिल हुए टेलीफोन नम्बर पर मैंने इमरोज़ को फोन किया और शर्मा जी की दरख्वास्त के बारे में बताया तो जवाब मिला कि शाम को अमृता जी की एक रेडियो वार्ता की रिकॉर्डिंग थी, मैं सवा छ: बजे पार्लियामेंट स्ट्रीट स्थित रेडियो स्टेशन के एंट्री गेट पर मिलूं.

मुक़र्रर वक़्त पर मैं गेट पर मौजूद था तो इमरोज़ ने अमृता जी के साथ वहां कदम रखा. इमरोज़ को मैं पहले से पहचानता था लेकिन अमृता जी के रूबरू मैं पहली बार हुआ था – बस, रूबरू ही हुआ था, ये भी स्वाभाविक  तौर पर सोचा था कि जब उस घड़ी रेडियो स्टेशन पर थीं, रेगुलर एस्कॉर्ट इमरोज के साथ थीं तो अमृता जी ही हो सकती थीं. मैंने उन्हें सादर प्रणाम किया लेकिन शायद शाम के नीमअँधेरे में मैं तो उन्हें दिखाई दिया, मेरा प्रणाम न दिखाई दिया. मैं मामूली, बेहैसिअत शख्स था, रेसिप्रोकल कर्टसी पर मेरा कोई दावा तो बनता नहीं था! बहरहाल, मैंने इमरोज़ को टाइटल सौंपा और शर्मा जी का संदेशा दोहराया.

“शर्मा जी को बोलना” – इमरोज बोला – “चार-पांच दिन में टाइटल पहुँच जायेगा.”

और टाइटल के चार टुकड़े कर के करीबी डस्टबिन डाल दिए.

मैं भोंचक्का सा उसका मुंह देखने लगा.

उसने शायद मेरे मनोभावों को समझा, बोला – “पुराने टाइटल में शर्मा जी के बताये बदलाव करने से नया टाइटल बनाना आसान है . . .”

और अमृता जी के साथ ये जा वो जा.

ऐसी मुलाक़ात का दूसरा इत्तफाक अंसारी रोड पर स्थित इंडिया पेपरबैक्स के ऑफिस में हुआ जहाँ कि बतौर संपादक, अनुवादक, लेखक मेरा दोस्त सुरेश कोहली भी पाया जाता था और वहीँ ऑफिस में उसे एक केबिन उपलब्ध था. बगल में प्रकाशक का केबिन था जो कि साइज़ में कोहली के केबिन से बहुत बड़ा था. क्योंकि खुद मेरा सरकारी ऑफिस वहां से बस दो फर्लांग ही दूर था इसलिए तक़रीबन रोज ही मैं कोहली से मिलने इंडिया पेपरबैक्स में ऑफिस में पहुँचा होता था. ऐसी एक दोपहरबाद अपनी वहां हाजिरी के दौरान जब मैं कोहली के केबिन में उसके सामने बैठा हुआ था तो एकाएक वहां अमृता जी और इमरोज़ के कदम पड़े. कोहली उन्हें देखते ही स्प्रिंग लगे गुड्डे की तरह उछल कर खड़ा हुआ और मुझे पूरी तरह से नज़रअंदाज करते उस ने उन खासुलखास मेहमानों का इस्तकबाल किया. तीनो तत्काल आपस में बतियाने लगे. मैं तो जैसे वहां मौजूद ही नहीं था. उनका मेरे से तआरूफ तो दूर, मैं तो इंतज़ार कर रहा था कि अभी कोहली मुझे कहीं बाहर जा कर बैठने को कहेगा लेकिन ऐसा न हुआ. खुद उठ के बाहर जाने की मैंने कोशिश न की क्योंकि मैं तो अपने इतने करीब इतनी बड़ी लेखिका की मौजदगी से ही मुग्ध था और जैसे ट्रांस में था.

पौना घंटा उन लोगों ने वहां हाजिरी भरी जिस के दौरान अमृता जी ने लगातार डनहिल के सिगरेट पिए. वस्तुत: जब वो आयीं थीं तब भी सुलगा हुआ सिगरेट उनके हाथ में था और रुखसती के वक़्त भी ऐसा ही था.

उस वार्तालाप के दौरान मेरी समझ में आया कि अमृता जी का कोई उपन्यास इंगलिश में अनुवाद हो कर छप रहा था और अनुवादक खुद सुरेश कोहली था जिस से दोनों की पुरानी वाकफियत थी और जिस के मुलाहजे में वो दोनों वहां पधारे थे. बगल में प्रकाशक-प्रोप्राइटर कृष्ण गोपाल आबिद का केबिन था जो खुद को उर्दू का बड़ा  अदीब बताते थे और खुद अक्सर कहते थे कृशन चंदर को उन्हों ने कलम पकडनी सिखाई थी. बड़े अदीब साहब  अपने ऑफिस में मौजूद थे लेकिन अमृता जी ने उनसे मिलने में कोई दिलचस्पी न दिखाई – सुरेश ने भी ऐसी  कोई पेशकश न की. फिर मेहमानों में और मेजबानों में टा टा बाई बाई हुआ और उन्हों ने रुखसत पाई.

बिना मेरे पर एक बार भी निगाह डाले.

ऑफिस के किसी डोरमेंट पीस ऑफ़ फर्नीचर पर कौन निगाह डालता है!

मैं फिर भी खुश था कि पौना घंटा मैं इतनी बड़ी लेखिका के इतने करीब बैठा.

अमृता जी की पंजाबी पोएट्री शायद इसलिए भी वाह वाह थी क्योंकि इस फील्ड में उनके कद का कोई कम्पीटीटर नहीं था. उनको निर्विवाद रूप से पंजाबी की पहली कवियत्री का दर्जा हासिल था. मुल्क के बंटवारे के दौरान व्यापक मार काट और दुनिया के सब से बड़े विस्थापन के दौरान उन्हों ने इसी विषय पर एक बाकमाल कविता लिखी जो रहती दुनिया तक याद की जाएगी. ‘हीर’ और उसके मुंसिफ वारिस शाह से मुखातिब उस कविता की कुछ लाइने यहाँ उद्धृत है:

इक रोई धी पंजाब दी, ते तु लिख लिख मारे वैन;

अज लक्खां धियाँ रोंदियाँ, तैनू वारिस शाह नू कहन.

आ दर्द वंडा जा दर्दिया, कितों कब्रां विच्चों बोल;

ते अज किताबेइश्क दा, कोई अगला वरका फोल. 

 

( धी : बेटी    वैन : प्रलाप, रुदन    वंडा : शेयर, बंटा    दर्दिया : दुःखभंजन    फोल : स्कैन, खंगाल )

(When wept a daughter of Punjab

You wrote and wrote odes about her,

Now millions of daughters are wailing

Imploring to you, O Waris Shah.

Come share my pathos, O my saviour

Come speak from the graves of dead,

And of the book of love this day

Scan yet another page.)

अमृता प्रीतम को उनकी जन्म शताब्दी पर सादर नमन.

सुरेन्द्र मोहन पाठक

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क्या हिंदी, हिंदी ढंग की हो गई है?

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दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ने से लेकर पढ़ाने तक के अनुभवों को लेकर एक लेख कल दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ। तीस साल पहले कंप्लीट अंग्रेज़ीदां माहौल में दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में हिंदी के विद्यार्थियों के लिए परीक्षा पास होने से बड़ी चुनौती अंग्रेजियत की परीक्षा पास होने की होती थी। हम अपने मानकों पर नहीं उन अंग्रेज़ीदां लोगों के मानकों पर खरे उतरने की कोशिश कर रहे होते थे। हिंदी हमें हेय लगने लगती थी और अंग्रेज़ी श्रेष्ठ। हालाँकि उन्हीं दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास में पढ़ा कि शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य के लिए जो मानक बनाया वह था ‘अंग्रेज़ी ढंग का’। यह ज़रूर है कि अब कैंपस में अंग्रेज़ियत का वह माहौल बदल रहा है, लेकिन क्या हिंदी का अपना कोई मानक विकसित हो पाया है जो अंग्रेज़ी ढंग का न हो? क्या हिंदी, हिंदी ढंग की हो गई है?

तीस साल पहले जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने आया था तो एक नया शब्द सुना था- एचएमटी यानी हिंदी मीडियम टाइप्स! बिहार के उत्तरवर्ती सुदूर क़स्बे से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने आना अनुभव तो था हिंदी का विद्यार्थी होकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस में पढ़ना न भूलने वाला अनुभव था। हम कॉलेज में होकर भी नहीं होते थे, कैंपस में होकर भी नहीं होते थे। क्योंकि हम हिंदी मीडियम टाइप्स होते थे। कैंपस कॉलेजों में हिंदी ऑनर्स और संस्कृत ऑनर्स का विद्यार्थी होना वैसे ही होता था जैसे गाँवों के बाहर अछूत कहे जाने वाले समाज की बस्ती। इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि आप अपने विषय में किस तरह के विद्यार्थी थे, अन्य विषयों में आपकी गति कैसी होती थी आप हिंदी वाले की छवि में ढाल दिए जाते थे। यह आम धारणा थी कि कैंपस कॉलेज में जिसका नामांकन किसी अन्य विषय में नहीं होता था वह कैंपस में पढ़ने के मोह में हिंदी या संस्कृत ऑनर्स पढ़ता था।

आप हिंदी के अच्छे विद्यार्थी हैं- इस बात का महत्व दूसरे विषयों के विद्यार्थियों को केवल तब समझ में आता था जब जब उनको अनिवार्य हिंदी के पेपर में पास होना होता था। उनके लिए अच्छे विद्यार्थी होने के बड़े प्रमाणों में एक यह था कि हिंदी के अनिवार्य पर्चे में तब तक फ़ेल होते रहें जब तक कि हिंदी में पास होने का अंतिम मौक़ा न आ जाए। हिंदी में फ़ेल होना अच्छे विद्यार्थी होने की निशानी मानी जाती थी। वैसी स्थिति में उनको मेरे जैसे टॉपर विद्यार्थियों की याद आती थी और परीक्षा के उन मौसमों में हम कुछ दिन इस बात के ऊपर गर्व महसूस करते थे कि अंग्रेज़ी, इतिहास जैसे हाई फ़ाई समझे जाने वाले विषयों के लड़के लड़कियाँ भी न केवल मुझसे हिंदी पढ़ने आते थे बल्कि हिंदी में पास करने लायक़ समझा देने के लिए आदर से थैंक यू भी बोलते थे। मुझे याद आ रहा है कि मैं उन दिनों कैंपस के हिंदू कॉलेज में छात्र कार्यकर्ता था और अपने आपको बाक़ी हिंदी वालों से विशिष्ट दिखाने के लिए लड़के लड़कियों के छोटे मोटे काम करवाया करता था। देखते देखते कॉलेज की लड़कियाँ मुझे भैया बुलाने लगी। बाद में समझ आया कि दिल्ली में रिक्शे वालों, सब्ज़ी वालों के लिए यह संबोधन आम था- जिससे हिंदी में बात की जाए वह भैया! बाद में यू आर अनंतमूर्ति का लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने यह चिंता व्यक्त की थी कि आने वाले समय में हिंदी जैसी भाषाएँ ‘किचन लेंगवेज’ बनकर रह जाएँगी यानी नौकर-चाकरों, मजदूरों से बातचीत की भाषा। यह सत्ता की भाषा नहीं बन पाएगी।

प्रसंगवश, यह भी बताता चलूँ कि केवल हिंदी-संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ यह संकट नहीं था बल्कि कैंपस कॉलेजों में हिंदी माध्यम से इतिहास, राजनीतिशास्त्र पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ भी दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाता। यह हाल केवल विद्यार्थियों का रहा हो ऐसा नहीं था बल्कि स्टाफ़ रूम में हिंदी पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को भी कोना पकड़ कर रहना पड़ता था या अंग्रेज़ी में संवाद करने की कोशिश करनी पड़ती थी। मेरे कॉलेज में मेरे एक प्रिय अध्यापक थे जो सालों तक हर कार्यक्रम में अंग्रेज़ी का एक गाना गाकर अपनी शान जताते रहे- ‘ओह, यू कैन किस मी ऑन अ मंडे, अ मंडे, अ मंडे इज वेरी वेरी गुड…’

पिछले लगभग पंद्रह सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाते हुए महसूस होता है कि यह अनुभव अब अतीत की बात हो गई है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय ने ऐसा लगता है कि अंग्रेजियत का लबादा उतार  दिया है। पिछले वर्षों में हिंदी के एक प्राध्यापक विश्वविद्यालय के शीर्ष पद पर भी पहुँचे यानी यूनिवर्सिटी के वीसी बने। इतिहास, राजनीतिशास्त्र की पढ़ाई हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए भी आम हो गई है। हिंदी पढ़ने वालों में अब पहले से अधिक आत्मविश्वास दिखाई देने लगा है। पहले हिंदी का विद्यार्थी अधिक से अधिक किसी सार्वजनिक निगम में हिंदी अधिकारी बनने का सपना देखता था, अब वह मीडिया की ग्लैमरस नौकरी के सपने देखता है। पिछले कई  सालों में मैंने एचएमटी मुहावरा भी नहीं सुना। कॉलेज की गतिविधियों में हिंदी वाले कोना पकड़े नहीं दिखाई देते बल्कि वे बीचोबीच होते हैं।

लेकिन एक सच अभी भी नहीं बदला है- आज हिंदी पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी वही होते हैं जो किसी अन्य विषय में दाख़िला नहीं ले पाते!

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प्रभात रंजन

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गौतम राजऋषि की कहानी ‘चिल-ब्लेन्स’

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सेना और कश्मीर के रिश्ते को लेकर इस कहानी का ध्यान आया। गौतम राजऋषि की यह कहानी इस रिश्ते को एक अलग ऐंगल से देखती है, मानवीयता के ऐंगल से। मौक़ा मिले तो पढ़िएगा- मॉडरेटर

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            “क्या बतायें हम मेजर साब, उसे एके-47 से इश्क़ हो गया और छोड़ कर चली गई हमको” कहते-कहते माजीद की आँखें भर आई थीं | माजीद…माजीद अहमद वानी…उम्र क़रीब सैंतीस-अड़तीस के आस-पास, मेजर नीलाभ से बस कुछेक साल बड़ा…मेहदी से रंगी हुई सफ़ेद दाढ़ी पर चढ़े हल्के भूरे रंग की परत उसकी आँखों के कत्थईपन को जैसे सार्थक करती थी |  तक़रीबन छह महीने पहले जब नीलाभ ने इस सैन्य-चौकी की कमान संभाली थी, कुपवाड़ा शहर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित सेना के एक महत्वपूर्ण बेस-हेडक्वार्टर की अग्रिम सुरक्षापंक्ति के तौर पर, माजीद का विस्तृत परिचय चौकी के पिछले कर्ता-धर्ता ने दिया था इलाके के बारे में चौकी की कमान देने से पहले…“आसपास के औसत युवाओं से एक़दम अलग सोच वाला और सुलझा हुआ युवक है और अगल-बगल की तमाम ख़बरें लाकर देता रहेगा…उसे चतुराई से इस्तेमाल करना”…चलते-चलते कहा था मेजर कौस्तुभ ने जाने से पहले |

            चौकी की कमान संभाले हुये दूसरा ही तो दिन था, जब मार्च की उस ठिठुरती दोपहर को माजीद आया था मिलने द्वार पर खड़े संतरी को पिछले मेजर का हवाला देते हुए…

            “सलाम वलेकुम, साब! वो मेजर नीलाभ वर्मा आप ही हैं ?” किसी गहरे कुएं से आती हुई एक अजब सी कशिश से भरी आवाज़ वाला माजीद अहमद वानी उस दिन से नीलाभ का लगभग सब कुछ हो चुका था…उसका दोस्त, उसका हमसाया…उसका फ्रेंड-फिलॉसोफर-गाइड | उसकी आँखों में एक कैसा तो कत्थईपन था जो हर वक़्त मानो पूरी की पूरी झेलम का सैलाब समाये रखता था अपनी रंगत में और हाथ इतने सुघड़ कि नीलाभ के उस लकड़ी के बने इकलौते कमरे का हर हिस्सा हर घड़ी दमकता रहता था | इन छ महीनों में जाने कब उसने कम्पनी द्वारा प्रदान किये गए रसोइये को बेदख़ल कर दिया था, नीलाभ को पता तक ना चला | उन सुघड़ हाथों की बनी रोटियाँ जैसे अपनी पूरी गोलाई में स्वाद का हिज्जे लिखा करती थीं और यही स्वाद जब उसके हाथों से उतर कर करम के साग या फिर मटन के मार्फत जिह्वा की तमाम स्वाद-ग्रंथियों तक पहुँचता तो नीलाभ का उदर अपने फैले जाने की परवाह करना छोड़ देता | अभी उस रात जब उसके हाथों के पकाये वाजवान का लुत्फ़ लेते हुये नीलाभ ने कहा कि “माजीद, तेरी बीवी तो जान छिड़कती होगी तुम्हारे हाथों का रिस्ता और गुश्ताबा खा कर” तो एक़दम से जैसे कत्थई आँखों में हर वक़्त उमड़ती झेलम अपना पूरा सैलाब लेकर कमरे में ही बहने लगी थी | पहले तो बस पल भर को एक विचित्र सी हँसी हँसा वो…वो हँसी जो उसके पतले होठों से फिसल कर उसकी मेहदी रंगी दाढ़ी में पहले तो देर तक कुलबुलाती रही और फिर धच्च से आकर धँस गई मेजर नीलाभ के सीने में कहीं गहरे तक |

            “क्या बतायें हम मेजर साब, उसे एके-47 से इश्क़ हो गया और छोड़ कर चली गई हमको !” दाढ़ी में कुलबुलाती हँसी के ठीक पीछे-पीछे चंद हिचकियाँ भी आ गई थीं दबे पाँव |

            “क्या मतलब ? क्या कह रहे हो, माजीद ?” अगला निवाला नीलाभ के मुँह तक जाते-जाते वापस प्लेट में आकर ठिठक गया था |

            “हमारी मुहब्बत, दो धूप-सी खिली-खिली बेटियाँ, भरा-पूरा घर और आपका ये रिस्ता-गुश्ताबा वग़ैरह कुछ भी तो नहीं रोक पाया हमारी कौंगपोश को | इन सब पर एके-47 का करिश्मा और नामुराद जिहाद का जादू ज़ियादा भारी पड़ा, मेजर साब |”

            “कौंगपोश ? तुम्हारी बीवी का नाम है ? बड़ा खूबसूरत नाम है ये तो ! क्या मानी होता है इसका ?”

            “जी साब ! केसर का फूल…उतनी ही ख़ूबसूरत भी थी वो, बिलकुल केसर के फूल की तरह ही !” हिचकियाँ जिस तरह दबे पाँव आई थीं, उसी तरह विलुप्त भी हो गईं…लेकिन झेलम का सैलाब अब भी उमड़ ही रहा था अपने पूरे उफ़ान पर |

            “हुआ क्या माजीद ? तुम चाहो तो शेयर कर सकते हो मेरे साथ सब बात…अब तो हमदोनों दोस्त हैं ना !”

            “आप बहुत अच्छे हो, मेजर साब ! हुआ कुछ नहीं, बस हमारी क़िस्मत को हमारी मुहब्बत से रश्क होने लगा था और हमारी मुहब्बत ने इस कश्मीर वादी के आवाम की तरह ही एके-47 के आगे अपनी जबीं टेक दी |”

            “तुम तो शायरी भी करते हो माजीद !”, उसे छेड़ते हुये नीलाभ ने कहा तो झेलम का उमड़ता सैलाब थोड़ा-सा थमक गया जैसे |

            “मुहब्बत ने जितने बड़े शायर नहीं पैदा किए होंगे, बेवफ़ाई ने उससे कहीं ज़ियादा और उससे कहीं बड़े-बड़े शायर दिये हैं इस जहान को | कौंगपोश को शायरी वाले माजीद से ज़ियादा एके-47 वाला उस्मान भाया और वो चली गई एक दिन हमको छोड़ के |”

            सिहरते हुये सितम्बर की जुम्मे वाली ये रात एक नए माजीद से मिलवा रही थी नीलाभ को , जो इन छ महीनों में अब तक छिपा हुआ था उस से | खाना ख़त्म करके बर्तन वग़ैरह धुल जाने के बाद, जब वो गर्म-गर्म कहवा लेकर आया तो उसकी आँखों के कत्थईपन ने अब झेलम के सैलाब को पूरी तरह ढाँप लिया था | कहवे के कप से इलायची और केसर की मिली-जुली ख़ुशबू लेकर उठती हुई भाप, कमरे में एक़दम से आन टपकी चुप्पी को एक अपरिभाषित-सा स्टीम-बाथ दे रही थी | फ़र्श पर चुकमुक बैठा अपने दोनों हाथों से कहवे के कप को थामे हुये माजीद बस अपने लौकिक अवतार में ही उपस्थित था नीलाभ के साथ…मन तो जाने कहाँ विचरण कह रहा था उसका | देर बाद स्वत: ही उसकी आवाज़ ने नीलाभ को कहवे के स्वाद और सुगंध की तिलिस्मी दुनिया से बाहर खींचा | कुआँ जैसे थोड़ा और गहरा हो गया था…

            “उस्मान नाम है उसका, साब ! हमारे ही गाँव दर्दपुरा का है | दस बरस पहले जिहादी हो गया | उस पार गया था ट्रेनिंग लेने | गाँव में आता था फ़ौज से छुप-छुपा कर और कौंगपोश से मिलता था | उसे रुपये-पैसे देता था और उसके लिए खूब सारे तोहफ़े भी लाता था | हमारे दर्दपुरा की लड़कियों पर एक अलग ही रौब रहता है, साब, इन जिहादियों का | तक़रीबन सत्तर घर वाले हमारे गाँव में कोई भी घर ऐसा नहीं है, जिसका लड़का जिहादी ना हो | एक तरह का रस्म है साब, हमारे दर्दपुरा का | मेरे दोनों बड़े भाई भी जिहादी थे…मारे गये फ़ौज के हाथों | मुझपे भी बड़ा ज़ोर था, साब, भाई के मरने के बाद…लेकिन मुझे कभी नहीं भाया ये जिहाद-विहाद |”

            “हासिल तो कुछ होना ही नहीं है इस जिहाद से और इस आज़ादी के नारों से, माजीद ! जिस पाकिस्तान की शह पर ये बंदूक उठाए घूमते हैं, उसी पाकिस्तान से अपना मुल्क तो संभलता नहीं !” नीलाभ से  रहा नहीं गया तो उबल सा पड़ा था वो…उसकी आँखों के सामने बीते वर्षों में अपने चंद साथियों की शहादत का मंज़र तैर उठा था |

            “सच पूछिए तो मेजर साब, ख़ता हमारे क़ौम की भी नहीं है | शुरुआत में जो हुआ सो हुआ…उसके बाद हमारी पीढ़ी के लिए आज़ादी का नारा उस भूत की तरह हो गया है, जिसके क़िस्से हम बचपन में अपनी नानी-दादी और वालिदाओं से सुनते आते हैं और बड़े होने के बाद ये समझते-बूझते भी कि भूत-प्रेत कुछ नहीं होते, मगर फिर भी ज़िक्र किए जाते हैं |”

            “ख़ता कैसे नहीं हुई, माजीद ? एक पूरी क़ौम ने एक दूजी पूरी क़ौम को जलावतन कर दिया और तुम कहते हो कि ख़ता क़ौम की नहीं है ?” चंद कश्मीरी पंडित मित्रों द्वारा सुने हुए सितम के क़िस्से इस वक़्त नाच उठे थे नीलाभ की आँखों के सामने | माजीद थोड़ा सहम-सा गया था नीलाभ की इस औचक प्रतिक्रिया पर |

            “आपका ग़ुस्सा सर-आँखों पर मेजर साब ! उस एक ख़ता की जो हमारे पंडित हमसायों की क़ौम के साथ हुई…उसकी तो कोई तौबा ही नहीं साब ! वो जाने किस क़ाबिल शायर ने कहा है ना साब कि लम्हों ने ख़ता की है सदियों ने सज़ा पायी…उसी की सज़ा तो हम भुगत रहे हैं | पूरी की पूरी एक पीढ़ी गुम हो गई है साब | निकाह के लिए लड़के नहीं हैं अब तो हमारी क़ौम में | आप यक़ीन करोगे साब, हमारे दर्दपुरा में कुंवारी लड़कियों की गिनती लड़कों से दूनी से भी ज़ियादा है | लड़के बचे ही नहीं इस नामुराद जिहाद के चक्कर में |” वो गहरा कुआँ जैसे एक़दम से भर सा गया था और नीलाभ को ख़ुद पर अफ़सोस होने लगा अपने इस बेवज़ह के ग़ुस्से से | ख़ुद पर बरस पड़ी खीझ की भरपाई करने के लिए, एक़दम से कह उठा नीलाभ उस से…

            “मुझे अपने गाँव कभी नहीं ले चलोगे, माजीद ?”

…और माजीद तो जैसे किलक ही पड़ा ये सुनकर | तय हुआ कि अगले सप्ताहांत का फ़ायदा उठाते हुये चौकी की तात्कालिक जिम्मेदारी सूबेदार रतन सिंह को सौंप कर माजीद के गाँव का भ्रमण किया जाएगा |

            74.420 डिग्री के अक्षांश और 34.311 डिग्री देशांतर पर बसे दर्द्पुरा गाँव तक पहुँचने के लिये कुपवाड़ा शहर को दायें छोड़ते हुये मुख्य सड़क से फिर से दायीं तरफ उतरना पड़ता है | पहाड़ों पर घूमती कच्ची सड़क पर लगभग साढ़े चार घंटे की हिचकोले खाती ड्राइव के पश्चात चारों तरफ़ से पहाड़ों से घिरे इस गाँव तक पहुँचने पर सम्राट जहांगीर के कहे “गर फ़िरदौस बर रूए ज़मीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त”… का यथार्थ मालूम चलता है | दर्दपुरा, जहाँ आज़ादी के इन अड़सठ सालों बाद भी बिजली का खंभा तक नहीं पहुंचा है…जहाँ भेड़ों की देखभाल के लिये एक देसी डॉक्टर तो है लेकिन इन्सानों के डॉक्टर के लिये यहाँ के बाशिंदों को लगभग सत्तर किलोमीटर दूर कुपवाड़ा जाना पड़ता है, इतना ख़ूबसूरत होगा, नीलाभ की कल्पना से परे था | कश्मीर में टूरिस्ट बस गुलमर्ग और सोनमर्ग के मिडोज़ देखकर जन्नत का ख़्वाब बुन लेते हैं, यहाँ तो जैसे साक्षात जन्नत अपनी बाँह पसारे पहाड़ों के दामन में बैठा हुआ था |  सुबह जब माजीद के घर पहुँचा तो जैसे पूरे का पूरा गाँव उमड़ा पड़ा था मेजर साब के स्वागत की ख़ातिर |

            माजीद का परिवार, जिसमें उसके अब्बू और अम्मी और उसकी दो छोटी बेटियाँ, हीपोश और शिरीन…नीलाभ को यूँ लगा कि जैसे दूर जालंधर में बैठा हुआ उसे अपना परिवार यहाँ मिल गया था | माजीद ने अपनी बड़ी वाली नौ साल की बेटी से बड़े गर्व से मिलवाया और ज़िद की कि नीलाभ उस से इंगलिश में कुछ पूछे | सकुचाहट को बड़े ही अंदाज़ में साक्षात अवतरित-सी करती हुई उस गोरी-चिट्टी सेब-सी लाल-लाल गालों वाली छुटकी से उसका नाम पूछा तो उसका “माय नेम इज हीपोश…हीपोश अहमद वानी” कहना जैसे इस सदी का अब तक गुनगुनाया हुआ सबसे ख़ूबसूरत नगमा था |

“एंड व्हाट डज हीपोश मीन माय डियर यंग लेडी ?” नीलाभ ने हंसते हुए पूछा |

“ओ…इट्स अ’ फ्लावर, अंकल ! जेस्मीन फ्लावर !”

            नीलाभ का मन किया उस सकुचाई-सी बोलती हुई जेस्मीन के फूल को गोदी में उठा ले |

            धीरे-धीरे जब अधिकांश गाँव वाले वहाँ से रुख़सत हुये तो चंद बुजुर्गों के साथ नीलाभ अब माजीद के परिवार के साथ अकेला था | ये तय कर पाना लगभग असंभव था कि पूरे परिवार का और ख़ास तौर पर माजीद के अब्बू का नीलाभ पर उमड़ता स्नेह महज़ इस वज़ह से था कि मेजर की सैन्य-चौकी उस परिवार के इकलौते कमाने वाले की आय का साधन थी या फिर वो स्नेह हर मेहमान के लिए नैसर्गिक ही था |

            दालान में सबके साथ बैठा नमकीन चाय के दौर पर दौर चल रहे गोल-गोल सख़्त मीठी रोटियों के साथ का लुत्फ़ उठाता बस चुपचाप सुने जा रहा था नीलाभ वहाँ बैठे बुजुर्गों की बातें | माजीद के अब्बू और उनके हमउम्र बुजुर्गों की क़िस्सागोई नीलाभ को जैसे नब्बे के दशक से पहले वाले ख़ुशहाल कश्मीर की यात्रा पर ले चली थी | एक अपनी ही तरह की टाइम-मशीन में बैठा नीलाभ सत्तर और अस्सी के दशक वाले कश्मीर की यात्रा पर था और तभी नज़र पड़ी उसकी माजीद के अब्बू के बायें हाथ पर | अंगूठे के छोड़ कर बाकी सारी ऊँगलियाँ नदारद थीं उनके बायें हाथ की | एक अजीब सी झुरझुरी दौड़ गई मेजर के पूरे वजूद में उस महज़ अंगूठे वाले हाथ को देखकर | पूछा जब उसने कि ये कैसे हुआ तो वहाँ बैठे तमाम के तमाम लोगों का जबर्दस्त मिला-जुला ठहाका गूँज उठा | नीलाभ तो अकबका कर देखने लगा था क्षण भर को | माजीद भी सबके साथ ठहाके तो नहीं, एक स्मित सी मुस्कान जरूर बिखेर रहा था …और तब जो मेजर नीलाभ वर्मा ने  उन कटी ऊँगलियों की कहानी सुनी तो वो बस दंग से भी ऊपर जो कुछ होता है, वो रह गया |

            अपने अब्बू के बायें हाथ की चारों ऊँगालियों को ख़ुद माजीद ने काटा था…वो भी कुल्हाड़ी से और वो भी तब जब वो बस ग्यारह साल का था | भेड़ पालने के अलावा माजीद के अब्बू का जंगल से लकड़ी काट कर लाने का भी व्यवसाय था | आतंकवाद का उफ़ान चढ़ा ही था कश्मीर में तब | माजीद के दोनों बड़े भाई जा चुके थे उस पार पाक अधिकृत कश्मीर के जंगलों में चल रहे किसी जेहादी ट्रेनिंग कैम्प में और अपनी दो बहनों के साथ माजीद था बस अपने अब्बू और अम्मी के साथ…अब्बू की भेड़ों की देखभाल में हाथ बँटाते हुये और बचपन की सुहानी पगडंडी पर एक़दम से जवान होते हुये | बर्फ़ की चादर में लिपटे सर्दी वाले उन्हीं दिनों में कभी इक रोज़ एक देवदार को अपनी कुल्हाड़ी से धराशायी करते हुये उसके अब्बू के बायें हाथ की तरजनी के जोड़ में भयानक दर्द उठा था | दो रोज़ लगातार भयानक पीड़ा सहते रहे वो…ठीक वहाँ, तर्जनी जहाँ हथेली से जुड़ी रहती है | अम्मी के चंद एक घरेलू उपचार बेअसर रहे थे और तीसरे दिन झिमी- झिमी गिरते बर्फ़ के फाहों में बाहर अपनी बहनों के साथ उधम मचाते माजीद को पकड़ कर ले गए अब्बू भेड़ों के बाड़े में | पहले से पड़े देवदार के एक कटे तने पर अपनी बायीं हथेली बिछाते हुये उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी की तेज धार को तर्जनी और हथेली के जोड़ पर रखा और माजीद को वहीं पड़ा पत्थर उठा कर कुल्हाड़े पर प्रहार करने का हुक्म दिया | सहमा सा माजीद डर से मना करता रहा देर तक, लेकिन फिर एक ना चली उसकी अब्बू की तेज़ आवाज़ में बार-बार दिये जा रहे हुक्म के आगे | उधर माजीद के दोनों हाथों से पकड़ा हुआ पत्थर पड़ा कुल्हाड़े पर और उधर तरजनी छिटक कर अलग हुयी हथेली से | अगली तीन सर्दियों तक ये सिलसिला फिर फिर से दोहराया गया और तरजनी की तरह ही मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अलग होती गईं इम्तियाज़ अहमद वानी की बायीं हथेली से |

            दर्दपुरा के उस बुजुर्ग, इम्तियाज़ अहमद वानी, का ये अपने तरीके का खास उपचार था चिल-ब्लेन्स से निबटने का | एक उस गाँव में, जहाँ आज भी किसी सच के डॉक्टर से मिलने के लिए सत्तर किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है और वो भी बर्फ़बारी में अगर रास्ता बंद न हो तब…जहाँ शाम को सूरज ढलने के बाद अब भी लकड़ी की मशाल और कैरोसीन वाले लालटेन जलते हों, उन कटी हुई ऊँगलियों की हैरतअंगेज़ दास्तान पर मेजर नीलाभ की हैरानी को चुपचाप तकता हुआ दर्दपुरा जैसे हौले-हौले चिढ़ा रहा था उसे |

अगले दिन…रविवार की उस सिली-सी दोपहर को वापसी की यात्रा में गाँव को पलट कर निहारता हुआ नीलाभ सोच रहा था कि उसके हेडक्वार्टर की प्रतिक्रिया क्या होगी, जब वो उनको अपना प्रोपोजल देगा कि हफ़्ते में दो दिन उसकी सैन्य-चौकी पर पदस्थापित डॉक्टर इस दर्द्पुरा गाँव का विजिट करे !

            जीप के रियर-व्यू मिरर में पीछे छूटते हुए दर्दपुरा का चिढ़ाना जाने क्यों मेजर को एक़दम से एक मुस्कुराहट में बदलता नज़र आ रहा था इस प्रोपोजल पर | पलट कर पिछली सीट पर बैठे माजीद को बताने के लिए कि देखो तुम्हारा गाँव मुस्कुरा रहा है, मेजर नीलाभ वर्मा मुड़ा तो सीट की पुश्त पर सिर टिकाये माजीद का ऊंघना उसे भी रियर-व्यू मिरर में मुस्कुराते दर्द्पुरा के संग मुस्कुराने को विवश कर गया |

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