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वर्तमान भारत न गांधी के सपनों का भारत है और न लोहिया के सपनों का

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आज समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की जयंती है। इस अवसर पर पढ़िए कुमार मुकुल की लिखी किताब ‘डॉ लोहिया और उनका जीवन दर्शन’ पर युवा कवि देवेश पथ सारिया की टिप्पणी-

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अपने शीर्षक के अनुरूप ही यह पुस्तक भारत में समाजवाद के अगुआ नेता डॉ राम मनोहर लोहिया के जीवन वृत्त और उनके विचारों का विश्लेषण करती है।

किताब के लिखे जाने की शुरुआत की कथा भी रोचक है जिसमें लेखक द्वारा बोलकर अपने बेटों से किताब लिखवाने की शुरुआती कोशिश का जिक्र है। इस कोशिश को विफल होना था और वह विफल हुई। इस किताब की तैयारी के लिए लेखक को अनेक गंभीर अध्येताओं द्वारा वृहद जानकारी, लोहिया द्वारा लिखित सामग्री के साथ लोहिया के पत्र मुहैया कराए गए। इस किताब का लेखक स्वीकारता है कि लोहिया ने उनके मस्तिष्क पर मुक्तिबोध रचनावली जैसा ही असर डाला।

वर्तमान दौर में डॉ लोहिया को इस तरह रेखांकित किया जाना ज़रूरी हो जाता है, जब लोहिया को उन्हीं के बताए राजनीतिक पथ पर चलने वाले सिर्फ़ एक नाम की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और उनके विचारों की रोशनी जनता तक पहुंचाने से बचते रहे हैं। उजागर तौर पर स्वयं को लोहियावादी बताने वाले कई वर्तमान नेता जानते भी नहीं कि लोहिया की विचारधारा दरअसल क्या थी।

इस किताब से आप उस लोहिया को जानेंगे जो कभी रिक्शे में नहीं बैठते थे क्योंकि वे एक आदमी द्वारा दूसरे को खींचा जाना अत्याचार मानते थे। लोहिया इस बात पर आपत्ति जताते थे कि एक बड़े आदमी को ‘आप’ कहा जाता है और एक रिक्शा वाले को ‘तू’ कह कर संबोधित किया जाता है। अपनी जन्मतिथि की सही जानकारी उपलब्ध न होने की स्थिति में लोहिया ने 23 मार्च को अपना जन्मदिन मान लिया था, किंतु वे कभी अपना जन्मदिन मनाते नहीं थे क्योंकि उसी दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। लोहिया मानते थे कि यदि आप किसी को कुछ देना चाहते हैं तो अपने पास उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ उसे देना चाहिए।

लोहिया की मां उनके बचपन में ही गुज़र गईं। ऐसे में उन्हें पड़ोस की स्त्रियों ने मातृत्व की छाया दी। यही कारण है कि वे जीवन भर स्त्रियों के प्रति विनम्र बने रहे। वे दिल्ली की एकमात्र महिला शासक रजिया बेगम को महत्व देते थे। दो अलग-अलग जगह ऐसी विदेशी महिलाओं के क़िस्से भी आते हैं जो भारत में रहना चाहती थीं और लोहिया ने उनकी इच्छा का समर्थन किया, किंतु सरकार की तरफ से बात नहीं बन पाई। यह विचार या बहस का विषय हो सकता है कि यदि लोहिया आज के युग में होते तो क्या उन्हें आज की परिभाषा के अनुसार फेमिनिस्ट कहा जाता।

लोहिया अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र रहे। किताब में उस घटना का वर्णन भी है जब एक यात्रा में सारा सामान चोरी हो जाने पर आगे की यात्रा के लिए उन्होंने तुरत – फुरत एक लेख लिखकर ₹25 कमाए। एक लेखक होते हुए हम में से कितने अपनी प्रतिभा पर इतना विश्वास रख सकते हैं? लोहिया जो अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध मुकदमा लड़ते हुए ख़ुद अपनी पैरवी करते हैं और जीत जाते हैं।

लोहिया गांधी के प्रति श्रद्धा रखते थे और गांधी भी उन्हें भविष्य की बड़ी उम्मीद मानते थे। फिर भी न वे स्वयं को गांधी का भक्त मानते थे और न गांधीवाद विरोधी। इसी तरह वे मार्क्स से प्रभावित तो थे किंतु मार्क्सवाद से निरपेक्ष रहने की कोशिश करते थे। वे साम्यवादी नीतियों में बदलाव के समर्थक दिखाई देते हैं। लोहिया का मानना था कि गांधी मार्क्स की तुलना में अधिक सामान्यीकरण कर पाते थे और अपनी कुछ विरोधाभासी बातों के बावजूद गांधी बुद्ध की अपेक्षा अधिक स्पष्ट थे।

लोहिया की प्रतिभा को नेहरू ने भी पहचाना। हालांकि नेहरू से उनके वैचारिक मतभेद रहे। लोहिया को नेहरू में ज़िंदादिली का अभाव दिखता रहा। लोहिया इंदिरा गांधी की मुख़ालफत करने से भी पीछे नहीं हटे। शुरुआत में कांग्रेसी होते हुए उन्होंने कांग्रेस के भीतर ‘सोशल डेमोक्रेट’ विचारधारा की नींव रखी।

यह किताब द्वितीय विश्वयुद्ध के परिदृश्य में भारत की स्वतंत्रता के इतिहास का जिक्र भी करती है। इसमें विभिन्न वैश्विक शक्तियों के बारे में लोहिया के विचारों को बताया गया है। साथ ही लोहिया की वैश्विक नीति की वर्तमान परिदृश्य में चर्चा करते हुए लेखक बताता है कि कहां लोहिया के विचार गलत साबित हुए। लोहिया की विदेश नीति का विश्लेषण करते समय कहीं-कहीं लेखक की अन्य देशों के प्रति निजी राय हावी होने लगती है।

भारत विभाजन के कारणों और दोषियों की पड़ताल भी यहां की गई है। उल्लेखनीय यह है कि लोहिया खुद को भी क्लीन चिट नहीं देते। विभाजन हो चुकने के बाद लोहिया मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती होनी चाहिए, यह दोनों के सह अस्तित्व के लिए आवश्यक है।

पूंजीवाद एवं साम्यवाद के बारे में भी लोहिया के विचारों को विस्तार से बताया गया है। पूंजीवाद की एक कमी तो उन्हें यही लगती है कि इससे अर्जित आय का एक बड़ा हिस्सा बेकार पड़ा रहता है।

“लोहिया पाते हैं कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का आखिरी दौर नहीं है बल्कि वह उसका साथी है।”

उस समय दुनिया में व्याप्त औपनिवेशिक व्यवस्था और पूंजीवाद के संबंध के बारे में यह स्थापना देखिए-

“लोहिया देखते हैं कि पूंजीवाद अपने देश के मजदूरों से अतिरिक्त मूल्य तो लेता ही है, वह औपनिवेशिक मजदूरों से और अधिक अतिरिक्त मूल्य लेता है।”

उस समय के भारत के बारे में लोहिया के विचार कुछ ऐसे हैं कि भारत अब भी अपने पुराने विदेशी आकाओं के कदम चूम रहा है। लोहिया के अनुसार तत्काल परिणाम प्राप्ति की इच्छा भारत की विदेश नीति की कमज़ोरी है। यह स्थिति फिलहाल कितनी बदली है इसके बारे में विदेश नीति के जानकार अपनी राय रख सकते हैं।

दल-विहीनता की राजनीति को लोहिया ख़तरा मानते हैं। लेखक के अनुसार पिछले दशक में हुए अन्ना के आंदोलन की जड़ें गांधीवादी समाजवाद में मिलती हैं। हालांकि लोहिया का मानना है कि अनशन से आंदोलन व्यक्ति-केंद्रित हो जाता है। समाजवादियों के प्रति लोहिया का नज़रिया सकारात्मक नजर आता है हालांकि वे उनके आंदोलनों में कमियां निकालने से भी नहीं चूकते।

भारत में उपस्थित सांप्रदायिकता और जातिवाद के निर्मूलन के लिए लोहिया के विचार स्पष्ट हैं। दूसरे धर्मों का अध्ययन लोहिया के अनुसार सौहार्द फैलाने का एक कारगर उपाय है। जातिवाद, ब्रिटिश सरकार का इसमें योगदान और ऊंची और निजी दोनों ही प्रकार की जातियों की मानसिकता के बारे में इस पुस्तक में विस्तार से बताया गया है।

“कोई भी जाति विनाशक आंदोलन लोहिया जाति के नाश की दृष्टि से चाहते हैं, न कि ब्राह्मण और कायस्थ की बराबरी के लिए, उनके जैसा ही हो जाने के लिए।”

डॉ लोहिया द्वारा प्रोफेसर रमा मित्र को लिखे गए पत्रों का ब्यौरा भी इस किताब में मिलता है। लोहिया हिंदी, अंग्रेज़ी एवं जर्मन भाषा में पत्र लिखते थे। हालांकि संसद में वे अंग्रेज़ी का प्रयोग करने से बचते थे, क्योंकि उनका मानना था कि जब जनता से वोट हिंदी बोल कर लिया है तो संसद में हिंदी ही बोली जाए। इन पत्रों में लोहिया के व्यक्तित्व के विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं जो कि अन्यथा देखना संभवतः दुर्लभ होता।

अपने अंतिम दिनों में मृत्यु की छाया देखकर लोहिया मात्र इस बात को लेकर चिंतित रहते थे कि उनके बाद समाजवादी आंदोलन बिखर जाएगा। और हुआ भी ऐसा ही।

यह टिप्पणीकार इस पुस्तक की इस बात से प्रभावित है कि किताब के लेखक कुमार मुकुल ने कहीं भी यह नहीं लगने दिया है कि उनकी आधारभूत ज़मीन कविताओं की है। यह एक राजनीतिक विश्लेषक की किताब लगती है।

इस टिप्पणीकार का यह भी मानना है कि यह तेज़ हवा के झोंकों के बीच किसी तरह  संतुलन बनाकर मंझधार में टिका हुआ देश‌ है। ‌

 

~ देवेश पथ सारिया

 

पुस्तक शीर्षक: डॉ लोहिया और उनका जीवन दर्शन

लेखक: कुमार मुकुल

प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

अमेज़न लिंक: https://www.amazon.in/Dr-Lohia-Aur-Unka-Jeevan-Darshan/dp/935048207X/ref=mp_s_a_1_21?keywords=Kumar+Mukul&qid=1616224374&sr=8-21

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