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नो टू फ्री का आंदोलन अर्थात अनमोल बनाम बेमोल

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नो टू फ़्री अभियान को लेकर कुछ बातें युवा लेखक रवींद्र आरोही ने की है। हिंदी समाज को लेकर कुछ विचारणीय बातें हैं। आप भी पढ़िए-

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यह बात गलत नहीं है और यह नया भी नहीं कि हिंदी का लेखक सिर्फ लिखकर अपनी आजीविका क्यों नहीं चला सकता। समय-समय पर हर उम्र के लेखक अपनी बातचीत में इस तरह की चिंता जाहिर करते रहे हैं। पर आखिर क्या बात है कि ये चिंता चिंता ही बनी रही।

कहते हैं कि मार्खेज के घर के सामने उन्हें देखने वालों की भीड़ लगती थी। हमारे यहां ऐसा नहीं है। आज लेखक अपने शहर से चलकर हमारे शहर तक आए फिर भी हम उसे देखने नहीं जाते। हाल के वर्षों में एक दो नहीं पंद्रह-बीस लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाए। सरकार और जनता के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। यही सच्चाई है। इसका अर्थ ये नहीं है कि वे लेखक महत्वपूर्ण नहीं हैं या उनका काम महत्वपूर्ण नहीं है।

पर बात क्या हुई।

कोई लेखक तकलीफ में हो। आर्थिक तंगी में हो। बीमार हो तो उसकी सहायता के लिए देखा गया है कि साथी लेखक ही आए हैं। जनता नहीं आई है, जिस जनता के लिए वो आजीवन लिखता रहा है। दिल्ली में मरने वाले लेखकों की अंतिम यात्रा में तो साथी लेखक भी लगभग न के बराबर जाते हैं।

यह बहुत आसान जुमला है कि साहित्य का काम भीड़ जुटाना नहीं है। पर यह जुमला ही है। जो लोग भीड़ जुटा रहे हैं। कविताएँ पढ़ रहे हैं। माल कमा रहे हैं। हम उन्हें साहित्यकार ही नहीं मानते। भाई! जनता तो उन्हें साहित्यकार मान रही है। तो हम वैसी जनता को जनता ही नहीं मानते।

एक विदेशी लेखक थे। वे ऑटोग्राफ़ देने के पैसे लेते थे। निर्मल एक अखबार में साक्षात्कार देने के लिए पैसे चाहे थे। लोग संगोष्ठियों, सेमिनारों में जाने के लिए पैसे चाहते रहे हैं। लेते रहे हैं। पर ये सब बातें उन लेखकों की निजी बातें रही हैं। ये कोई आंदोलन नहीं है। ये कोई क्रांति नहीं है।

पढ़ना और लिखना एकदम व्यक्तिगत मामला है। चूँकि नौकरी के लिए पूरी दुनिया मर रही है तो आप कहें कि देखो जिसके लिए पूरी दुनिया मर रही है उसे लात मार कर मैं लेखन में आया हूं। मैं कितना बड़ा तपस्वी हूं। इसी तर्क से सोचें तो जो लोग लेखन छोड़कर दारु पी रहे हैं, वे कितने बड़े त्यागी हुए और दारु पीना कितना महान काम हो गया!

सोचने का तो ये भी एक नज़रिया है कि कोई लेखक लेखन के साथ नौकरी इसलिए भी कर रहा होगा कि उसे पैसों के लिए अपनी गुणवत्ता के साथ समझौता न करना पड़े। वैसे लेखक हैं जिन्होंने बिना नौकरी किए भी ग़ज़ब लिखा पर उनकी संख्या बहुत अधिक है जो पैसों के लिए बिक गए और क्या-क्या नहीं लिखा।

इसलिए ये सब बातें बेमानी हैं।

 ख़ैर, हमारे नहीं मानने के दायरे बहुत बड़े हैं और मानने के कम। हम सबको नकार सकते हैं हमें कोई नहीं नकार सकता, ये हम मानते हैं।

वह कौन सी कड़ी है जो जनता और लेखक के बीच नहीं बन पाई। वो संबंध जो सूख गया। या बना ही नहीं।

मेरी बेटी चौथी कक्षा में है। उसके सोचने का तरीका और लिखने का वाक्य विन्यास गज़ब का है। वो डायरी लिखती है और कहानियां लिखती है। वो सुधा मुर्ति और रस्किन बॉण्ड को अंग्रेजी में पढ़ती है। ये लड़की बड़ी होकर कुछ भी बने, कुछ भी पढ़े पर इस पर इन दो लेखकों का प्रभाव हमेशा रहेगा, ऐसा मुझे लगता है। क्योंकि यही वो उम्र है जिसपर किसी का भी प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है।

शहर में सैकड़ों अंग्रेजी मीडियम स्कूल हैं। एक-एक स्कूल में L, M, N, O तक सेक्शन चलते हैं। सब में तीस-तीस बच्चे पढ़ते हैं। सारे बच्चों को शिक्षक कविता कहानी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। स्कूलों में बड़े-बड़े पुस्तकालय हैं। सप्ताह में एक क्लास लाइब्रेरी की होती हैं। बच्चे वहां किताबें पढ़ते और दो किताबें इश्यू करवाते हैं। लाइब्रेरियन उन्हें किताबें ढूंढ़ना और चुनना सिखाते हैं। उन पुस्तकालयों में आप देखेंगे कि क्लास के हिसाब से शेल्फ बनाए गए गए हैं। तीन, चार, पांच क्लास के बच्चे इघर की किताबें देखें। छठवीं से लेकर आठवीं तक के बच्चे उधर की किताबें देखें। और बड़े बच्चें बाकी किताबें लें। ये उनकी सुविधा के लिए बनाया गया है। वैसे कोई भी बच्चा पूरी लाइब्रेरी से कोई भी किताब ले सकता हैं। वे पुस्तकालय अंग्रेजी किताबों  से भरी पड़ी हैं। जिन लेखकों का नाम हिंदी में लोग अपनी इमेज़ चमकाने और खुद को पढ़ाकू दिखाने के लिए लेते हैं, उन लेखकों को ये बच्चे अपने बचपन से जान रहे होते हैं और उनका मज़ा ले रहे होते हैं। कहने का अर्थ है कि अंग्रेजी के लगभग हर बड़े लेखक ने बच्चों के लिए लेखन किया है और बच्चों ने उस लेखक को किसी दबाव या दिखावे में नहीं, अपनी रुचि से पढ़ा है। बच्चे बड़ी सहजता से कहते हैं- ये लेखक अच्छा नहीं लिखता, ये अच्छा लिखता है। इतनी सहज और आत्मीय संबंध होता है उनका अपने लेखक के साथ। इतना कि इस छोटी उम्र में वे अपने लेखक के विरुद्ध एक शब्द सुनना पसंद नहीं करते।

इसके साथ ही जो बंग्ला भाषी बच्चे हैं और अंग्रेजी मीडियम में पढ़ते हैं, उनके माता-पिता, उनके शिक्षक अपनी मातृभाषा में भी उनकी रुचि जगाए हुए हैं। वे बच्चे रबींद्रनाथ को पढ़ते है, सत्यजीत रॉय को पढ़ते हैं, विभुतिभूषण बंदोपाध्याय को पढ़ते हैं। बंगाल के बच्चो के बीच फेलुदा का चार्म हैरीपॉटर से कहीं कम नहीं है। फेलुदा सत्यजीत रॉय का एक कैरेक्टर है। उस कैरेक्टर पर उनकी पचासों किताबें हैं। बांग्ला के हर बड़े लेखक ने बच्चों के लिए लिखा है। लिख रहा है। बांग्ला साहित्यकारों-कलाकारों का दबदबा जनता और राजनीति दोनों में रही है। जहां जनता उनकी बातें सुनती है, वहीं नेता भी सुनते हैं। वह दृश्य बहुत पुराना नहीं है जब बहुत से साहित्यकार बंगाल में हो रही राजनीति से क्षुब्ध हुए और सरकार बदल गई। महाश्वेता देवी जब नाराज हुईं तो ममता बनर्जी उन्हें मनाने उनके घर पहुंच गईं। यहां का हर औसत आदमी अपने लेखकों-कलाकारों को पहचानता है। क्योकि वो उन्हें बचपन से सुनता जानता है।

वहीं हिन्दी के बच्चों के पास हिंदी में पढ़ने के लिए जातक कथाएं हैं, पंचतंत्र है और तेनालीराम है। और कमाल की बात कि इसे भी वे बच्चे अंग्रेजी में पढ़ लेते हैं। हिंदी के लेखकों को बच्चे सिर्फ परीक्षा में पास होने के लिए पढ़ते हैं। अपने लेखक से यही उनका संबंध रहता है। आज हिंदी में जो बच्चों के लिए लिखा जा रहा है वो उनके लायक है ही नहीं। एक या तो उनके स्तर से बहुत नीचे की चीज लिखी जा रही है। जो आज के कंप्युटर और मोबाइल चलाने वाले बच्चों को भा नहीं रही है और नहीं तो लेखक इस चालाकी से लिख रहे हैं कि बच्चे भी पढ़ें, बड़े भी पढ़ें। टू इन वन। इसमें और घटिया लेखन हुआ है। निस्संदेह कुछ अच्छा भी हुआ, जिनका बच्चों तक पहुंच नहीं है। कुल मिलाकर देखें तो  हिंदी भाषी बच्चों की ग्रुमिंग साहित्य के साथ होती ही नहीं। अपने समाज में ऐसा नवजागरण हमने किया ही नहीं। बांग्ला भाषी समाज हर घरेलू बजट की तरह पुस्तक मेला का एक बजट निकालते हैं। बच्चों और पत्नी के साथ पुस्तक मेला जाते हैं। स्कूल में शिक्षक बच्चों से पूछते हैं कि मेला से क्या-क्या खरीदे। बच्चे चहक कर किताबों के नाम बताते हैं। ऐसी चीज़ें हमारे समाज में नहीं दिखतीं।

इस समाज शास्त्र को समझना होगा कि क्या कारण है कि जवानी  में सबको ठेंगे पर रखकर विचारधारा के अश्व पर सवार लेखक, साठ पार होते ही विचलन से भर जाता है। उसमें हीनताबोध देखा जाता है। वो कुंठित पाया जाता है। एक दो की बात होती तो कोई बात नहीं पर ऐसा सर्वत्र घटने लगे तो रुककर हमें चिंतन करना चाहिए कि वो कौन सा नस है जो सूख जाता है।  इसका एक बानगी देखिए— पिछले दिनों हिंदी लेखक प्रभात रंजन का एक फेसबुक स्टेटस दिखा कि एक समय के बाद यह मायने नहीं रखता कि कितने लोग आपको पढ़ते हैं, यह मायने रखता है कि कौन लोग आपको पढ़ते हैं।

क्यों मायने नहीं रखता? ‘कितने लोग’ क्यों मायने नहीं रखते। वो कौन खास लोग हैं जो मायने रखते हैं? वो कौन खास लोग हैं जिनके लिए आप लिखना चाहते हैं और उनकी आंखों में बने रहना चाहते हैं?

अगली पीढ़ी की चिंता हो तो अपने समाज में एक नवजागरण की बात होनी चाहिए। जिससे कि लोगों में पढ़ने की रुचि जगे। जिससे आने वाली पीढ़ी को सुरुचिकर किताबें मिलें और आने वाली लेखकीय पीढ़ी को सुबोध और समझदार पाठक मिलें।

तब शायद लेखकों को पैसे उगाही की बात नहीं करनी पड़ेगी लेकिन इससे पहले उसे अपने समाज में ये सिद्ध करना होगा कि वो अपने समाज के लिए अनमोल है कि बेमोल है।

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