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कवि वीरेन डंगवाल का स्मरण

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आज कवि वीरेन डंगवाल की पुण्यतिथि है। उनको स्मरण करते हुए यह टिप्पणी की है कवि-कथाकार-पत्रकार हरि मृदुल ने-

===============

‘मैं तो सतत रहूंगा तुम्हारे भीतर नमी बनकर, जिसके स्पर्श मात्र से जाग उठा है जीवन मिट्टी में’

० हरि मृदुल

कविता के प्रति तीव्र उत्कंठा-उत्सुकता के दिन थे वे। बरेली में स्तरीय साहित्य के मिलने की एक मात्र दुकान थी- पीपुल्स बुक हाउस। सिविल लाइन्स स्थित इस दुकान में एक दिन मैं बस ऐसे ही भटकते-भटकते पहुंच गया और हिंदी साहित्य के सेक्शन में एक नजर मारने लगा। नई किताबों के बीच से मैंने बस यूं ही एक किताब उठा ली ‘इसी दुनिया में’। नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद। लेखक का नाम पढ़ा, तो उत्सुकता चौगुनी हो गई। यह वीरेन डंगवाल जी का कविता संग्रह था। अरे, बताया भी नहीं कि कविता संग्रह आनेवाला है। पहले से ही उनसे मुलाकात थी। घर आना-जाना था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं पढ़ता रहता था। दरअसल अपनी रचनाओं या अपने बारे में कोई भी चर्चा न करना उनके स्वभाव में था। खैर, वहीं खड़े-खड़े मैंने उनके इस पहले संग्रह की कविताएं पढऩी शुरू कर दीं। ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’, ‘राम सिंह’, ‘पी.टी. ऊषा’, ‘तोप’, ‘मक्खी’, ‘ऊंट’ और  ‘मरते हुए दोस्त के लिए’ जैसी कविताएं पढ़ीं, तो लगा कि मैं काव्य के एक ऐसे लोक में प्रवेश कर गया हूं, जहां इससे पहले कभी गया ही नहीं था –

इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सर्कस के हाथी

गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत सारी प्रतिभा

किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया

ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

(इतने भले नहीं बन जाना साथी)

०००

वे माहिर लोग हैं राम सिंह

वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं

(राम सिंह)

०००

वे जो मानते हैं बेआवाज जबड़े को स5यता

दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं

(पी.टी. ऊषा)

०००

दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप

एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बंद

(तोप)

०००

यह १९९१ की एक शाम की बात है। इन कविताओं के पाठ से मेरी वह शाम यादगार बन गई थी। मैं अभिभूत था। रोमांचित। एकदम मंत्रमुग्ध। एक अलग शिल्प, अलग कथ्य और बेहद पारदर्शी-खिलंदड़ी भाषा के अलग ही रचाव-बर्ताव में पगी थीं ये कविताएं। कितनी तो अनूठी कविताएं। कितनी तो अलग कविताएं। दरअसल उस दौर में अबूझ किस्म की, विदेशी शिल्प की नकल वाली और पाठकों से दूर कर देनेवाली कविताएं आनी शुरू हो चुकी थीं, जो इस समय अपने चरम पर हैं। ऐसे कवियों और कविताओं के बीच हवा के खुशनुमा शीतल झौंके की तरह थीं वीरेन जी की ये कविताएं। मैंने तत्काल वह किताब खरीदी और उस बुक हाउस से सीधे मैं वीरेन जी के घर पहुंच गया। तब वह भटनागर कॉलोनी वाले घर में अपने वयोवृद्ध माता-पिता और बीवी-बच्चों के साथ रहते थे। उनके दोनों बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल तब बहुत छोटे थे। उनके घर पहुंचा मैं बड़ा उल्लसित, पर पसीने से तर। हांफता-तेज सांस लेता। शाम का समय था। वीरेन जी कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। मैंने तत्काल यह संग्रह उनके आगे कर दिया और पेन पकड़ा दिया ऑटोग्राफ के लिए। वह इस तरह की औपचारिकताओं में पडऩेवाले व्यक्ति कभी नहीं रहे, लेकिन उन्होंने मुस्कराते हुए मेरा मान रखा। और पीठ पर धौल जमाते हुए पुस्तक पर ऑटोग्राफ दे दिया- नई उम्र के प्यारे कवि हरि मृदुल के लिए… बहुत स्नेह से। मैं प्रमुदित था। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा। फिर उन्हें जहां जाना था, निकल गए और मैं अपने घर की तरफ बढ़ गया।

घर पहुंच कर मैंने रात भर में ही पुस्तक का पारायण कर लिया। ‘कैसी जिंदगी जिये’, ‘कमीज’, ‘हाथी’, ‘भाप इंजन’, ‘भाषा मेरे दोस्त की बेटी’, ‘गाय’, ‘प्रधानमंत्री’, ‘घुटनों घुटनों भात हो मालिक’ आदि कविताओं ने जैसे जादू ही कर दिया था।

कैसी जिंदगी जिये

अपने में ही गुत्थी रहे

कभी बंद हुए कभी खुले

कभी तमतमाये और दहाडऩे लगे

कभी म्याऊं बोले

कभी हंसे, दुत्कारी हुई खुशामदी हंसी

(कैसी जिंदगी जिये)

०००

पकड़े जाने के बाद

हाथी के बदन, ताकत और

उन दांतों का इस्तेमाल मालिक करते हैं

जिन्हें हाथी ने बनाया था

बहुत मेहनत और प्यार के साथ

पकड़े जाने से पहले

(हाथी)

०००

 

बहुत दिन में दीखे भाई

कहां गए थे? पैराम्बूर?

शनै: शनै: होती जाती हैं अब जीवन से दूर

आशिक जैसी विकट उसांसें वह सीटी भरपूर

(भाप इंजन)

 

‘घुटनों घुटनों भात हो मालिक

और कमर-कमर तक दाल’

यही है हमारे पहाड़ों के धुनार-शिल्पकारों की

सुखद कल्पना की हद

‘घुण्डा घुण्डा भात ठकुरो अर कमर-कमर तक दाल’

(घुटनों घुटनों भात हो मालिक)

और ‘मरते हुए दोस्त के लिए’ कविता। ओह। यह कविता मैंने फिर-फिर पढ़ी। बार-बार पढ़ी। जितनी बार पढ़ी, उतनी बार रोया। यह कविता उन्होंने कैंसर से मरते हुए अपने जिगरी दोस्त बलदेव साहनी के लिए लिखी थी। एक लंबी कविता मानो कोई शोकगीत हो। उस कविता की आखिरी पंक्तियां मुझे हर बार रोने के लिए मजबूर कर देती थीं-

‘…जल्दी-जल्दी मैं तेरे लिए यह कविता लिखता हूं बलदेव

जल्दी

स्मृति में तेरे गुम हो जाने से पहले

मैं यह लिखता हूं

और पुराने बंगाली कवियों की तरह बोलता हूं-

घाट से नाव खुल रही है भाई

हम रुलाई दबाते हुए हाथ हिलाएंगे

और जहां तक होगा

किनारे-किनारे तेरे साथ दौड़े चले जाएंगे’

बरेली में रहते हुए तब मैंने ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक जागरण’ और ‘आज’ अखबारों के अलावा ‘जनसत्ता’ और ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले अखबार पढऩे शुरू कर दिए थे। बरेली में तब ‘जनसत्ता’ और ‘नवभारत टाइम्स’ की सीमित प्रतियां ही आती थीं। उन्हीं दिनों हिंदी में ‘संडे मेल’ और ‘संडे ऑब्जर्वर’ जैसे वीकली अखबार भी निकल रहे थे। इन अखबारों को लेने मैं बस स्टेशन या रेलवे स्टेशन जाता था। ये वहीं मिलते थे। तब मैंने इन तमाम अखबारों में वीरेन जी के संग्रह ‘इसी दुनिया में’ की समीक्षाएं पढ़ीं। सभी समीक्षाओं में वीरेन जी के काव्य कर्म की बड़ी सराहना थी। सभी समीक्षाओं का एक ही स्वर था कि हिंदी में इस अंदाज में कविताएं पहले नहीं लिखी गई थीं। एक अलग ही विन्यास। अलग भाषिक संरचना। शिल्प और कथ्य की जबर्दस्त ताजगी। इन्हीं दिनों दिल्ली के ‘नवभारत टाइम्स’ के रविवारीय परिशिष्ट में वीरेन जी की ‘मक्खी’, ‘पर्जन्य’, ‘पी.टी. ऊषा’, ‘इंद्र’ और ‘हाथी’ जैसी कविताएं छपीं, जो ‘इसी दुनिया में’ संग्रह से एक विशेष टिप्पणी के साथ साभार ली गई थीं।

‘इसी दुनिया में’ की कविताओं ने मुझ पर जैसे जादू ही कर दिया था। यह संग्रह मैंने कई-कई बार पढ़ा। साहित्य में रुचि रखनेवाले अपने साथियों को पढ़वाया। मुझे और मेरे कई साथियों को ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’, ‘तोप’, ‘पी.टी. ऊषा’ और ‘भाप इंजन’ जैसी कितनी ही कविताएं रट चुकी थीं। और इसी बीच इस संग्रह को ‘रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार’ देने की घोषणा हो गई। वीरेन जी का नाम साहित्य के आकाश में एक अलग चमक के साथ स्थापित हो गया। ‘पल-प्रतिपल’ पत्रिका की ओर से इस पुरस्कार की स्थापना हुई थी। पहले ‘रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार’ के लिए वीरेन जी की कृति को चुना गया था। इस पुरस्कार के थोड़े समय के बाद ही उनके नाम ‘श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार’ की भी घोषणा हो गई, जो विख्यात कवि श्रीकांत वर्मा के नाम पर उनके परिवार की तरफ से दिया जाता था। १९९३ में इस पुरस्कार के लिए उनके नाम का चयन हुआ था।

यह मेरा सौभाग्य रहा कि जब दिल्ली में ‘श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार’ दिया जा रहा था, तो मैं वहां मौजूद था। मुझे याद है कि प्रख्यात चित्रकार जे.स्वामीनाथन के हाथों उन्हें यह पुरस्कार दिया गया था। जे.स्वामीनाथन ने वीरेन जी की कविताओं की खूबियों और प्रभाव के बारे में बड़ी आत्मीयता से बताया था। मंच पर केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह थे। संभवत: वह तब मानव संसाधन मंत्री थे। श्रीकांत जी की धर्मपत्नी वीणा वर्मा भी थीं। मुख्य अतिथि के तौर पर नामवर सिंह मौजूद थे। उन्होंने वीरेन जी की कविताओं पर बहुत सारगर्भित वक्तव्य दिया था। अच्छी तरह स्मरण में है कि उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह के जिक्र वाली कविता ‘बगैर नामपट्ट’ का उदाहरण देते हुए वीरेन जी की काव्यगत विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डाला था। वहीं पुरस्कार समारोह में श्रीकांत वर्मा पर निकली एक स्मारिका भी वितरित हुई थी, जो आज भी मेरे पास है, जिसमें श्रीकांत वर्मा का जीवनवृत्त, चुनिंदा कविताएं और अमेरिका में कैंसर का इलाज करवाते समय की डायरी प्रकाशित की गई थी। इस डायरी के एक पन्ने पर श्रीकांत वर्मा ने लिखा था कि ‘मैं अभी हर हाल में जीना चाहता हूं। यूं असमय मरना नहीं चाहता…।’ लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका। कैंसर ने उनका जीवन ले लिया था। श्रीकांत वर्मा पुरस्कार समारोह की मेरे पास कई तस्वीरें हैं। ये तस्वीरें मैंने अपने कैमरे से ली थीं। उस समारोह में मैं पहली बार अशोक वाजपेयी, कृष्णा सोबती, मंगलेश डबराल, गिरधर राठी, प्रयाग शुक्ल और संजय चतुर्वेदी आदि से मिला।

बड़ी कृतज्ञता से याद करता हूं कि वीरेन जी की वजह से ही मैं कितने ही ख्यातिनाम रचनाकारों से मिल पाया। उनके यहां स्थानीय से राष्ट्रीय रचनाकारों तक लेखकों-कवियों-पत्रकारों का आना-जाना लगा रहता था। बाबा नागार्जुन, शैलेश मटियानी, बटरोही, गंभीर सिंह पालनी, सुकेश साहनी, सुधीर विद्यार्थी से लेकर तब के युवतर कवि और आज के प्रखर गद्यकार हल्द्वानी निवासी अशोक पांडेय तक ना जाने कितने ही लोगों से बरेली के उनके भटनागर कॉलोनी वाले घर पर मुलाकात संभव हो पाई। वह बरेली कॉलेज में प्रोफेसर भले ही थे, लेकिन उनकी एक बड़ी पहचान पत्रकार की थी। ‘अमर उजाला’ से वह विभिन्न स्तरों पर जुड़े थे। कभी उन्होंने संपादक की जिम्मेदारी निभाई, तो कभी सलाहकार संपादक की। ‘अमर उजाला’ के मालिकों में से एक अतुल माहेश्वरी को उन्होंने बरेली कॉलेज में पढ़ाया था। अतुल जी उनकी बहुत इज्जत करते थे। अखबार को विश्वसनीय बनाने, प्रतिष्ठित करने और बेशुमार लोकप्रिय बनाने में वीरेन जी का बहुत बड़ा योगदान था। इस अखबार के रविवारीय सप्लीमेंट को उन्होंने जैसा स्तर प्रदान किया, उसकी कोई सानी नहीं। अपने उसूलों और मूल्यों पर जब भी आंच आती दिखी, उन्होंने इस अखबार से किनारा करने में जरा भी देर नहीं लगाई। यही वजह है कि ‘अमर उजाला’ से उनका कई बार नाता जुड़ा और कई बार नाता टूटा।

000

वीरेन जी का मुझ पर हमेशा ही बहुत स्नेह रहा। उन्होंने मुझे एम.ए. में पढ़ाया था। लेकिन मेरा संबंध उनसे दोस्ताना ज्यादा रहा। उन्होंने कभी मुझे छात्र की तरह लिया ही नहीं। इसकी वजह यह रही कि मैं भी कॉलेज के समय से ही कविताएं लिखने लगा था और कुछेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होने लगा था। मेरा रुझान पत्रकारिता की तरफ होने लगा, तो आश्चर्य की बात कि उन्होंने मुझे इस पेशे में आने से रोकने की पूरी कोशिश की। एक बार तो उन्होंने मुझे तगड़ी डांट लगा दी कि तुम प्रतिभाशाली हो, आईएएस-पीसीएस बनने की सोचो। पत्रकार बनने की क्यों सोचते हो? जब मैंने उन्हें मूर्खतापूर्ण तर्क दिया कि पत्रकारिता और साहित्य का बहुत गहरा संबंध रहा है। मुझे साहित्यकार बनाने में पत्रकारिता से मदद मिलेगी। तब वह मेरी नासमझी पर बेतरह हंसे थे और उन्होंने समझाया था कि हिंदी का लेखक बनने के लिए पत्रकारिता के पेशे से जुडऩे का क्या मतलब? लेकिन उनकी बातें तब मेरी समझ में न आनी थीं और न ही कालांतर में आईं। उनके डांटे जाने के बाद मैं लंबे समय तक उनसे नहीं मिला और न ही उनके घर गया। खैर, कालांतर में मैंने पत्रकारिता को ही अपना पेशा बनाया। मुंबई में ‘नूतन सवेरा’ और ‘दैनिक जागरण’ के ब्यूरो में काम करने के बाद मैंने ‘अमर उजाला’ ज्वाइन कर लिया था। लेकिन मैंने उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं दी थी। मेरा मानना था कि उन जैसे जागरूक पत्रकार को बहुत जल्द ही खुद-ब-खुद इसकी जानकारी हो जाएगी। वही हुआ भी। कई महीनों के बाद जब नियमित रूप से नाम के साथ मेरे आलेख और समाचार छपने लगे, तो उन्हें पता चल गया कि मैं ‘अमर उजाला’ में वरिष्ठ पद पर काम कर रहा हूं। उन्होंने थोड़ी नाराजगी व्यक्त की कि कब पहुंचे अमर उजाला? बताया तक नहीं? मैंने जवाब में इतना ही कहा कि मैं किसी भी कीमत पर आपकी सहायता नहीं लेना चाहता था। खैर, एक बार फिर हमारी घनिष्ठता बढ़ गई। लेकिन आज पत्रकारिता की स्थिति देखकर सोचता हूं कि वह कितने सही थे। मैं कितना गलत।

इस बीच वीरेन जी का एक अन्य संग्रह राजकमल प्रकाशन से आ गया था- ‘दुश्चक्र में सृष्टा’ (२००२)। इस संग्रह को भी आलोचकों और सुधी पाठकों ने हाथोंहाथ लिया। इसे ‘साहित्य अकादमी’ अवार्ड भी मिल गया। साहित्य के मठाधीशों के बीच वीरेन जी की धाक जम गई। हालांकि वीरेन जी पर इस उपलब्धि का कोई असर नहीं पडऩा था। वह हमेशा ही साहित्य की राजनीति से कोसों दूर रहे। वैसे ही मस्त-मगन, लेकिन जन सरोकारों के लिए बहुत ज्यादा व्यग्र। उनकी कविताओं से उनकी सोच और स्वभाव का आकलन आसानी से किया जा सकता है। इस संग्रह की ‘हमारा समाज’, ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’, ‘दुश्चक्र में सृष्टा’, ‘उजले दिन जरूर’, ‘माथुर साहब को नमस्कार’, ‘जलेबी’, ‘पत्रकार महोदय’, ‘कुछ नई कसमें’ और ‘नाक’ जैसी बीसियों कविताएं बड़ी सराही गईं। खूब चर्चित रहीं। एक जटिल समय में उन जैसे कवि का हस्तक्षेप रचनात्मक हस्तक्षेप बहुत महत्वपूर्ण रहा-

इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है

वह कत्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर

निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है

किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है

जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है

(हमारा समाज)

०००

आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर

तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?

अपना कारखाना बंद करके

किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?

कौन सा है आखिर वह सातवां आसमान?

हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!!

(दुश्चक्र में सृष्टा)

०००

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूं

हर सपने के पीछे सच्चाई होती है

हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है

हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

(उजले दिन जरूर)

०००

वह मनहूस खबर मुझे बनारस ही मिली थी, जब वीरेन जी को कैंसर ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। बनारस में प्रसिद्ध कवि ज्ञानेंद्रपति को २००६ में ‘पहल’ पत्रिका की ओर से दिया जानेवाला ‘पहल सम्मान’ दिया जा रहा था। देश के तमाम नामी साहित्यकारों की उपस्थिति हो रही थी। इस मौके पर कविता पाठ भी होने थे। इस विशेष अवसर पर मैं भी कवि मित्र और ‘संवाद प्रकाशन’ के कर्ता-धर्ता आलोक श्रीवास्तव के साथ बनारस में मौजूद था। खबर थी कि वीरेन जी भी आ रहे थे। मुझे विशेष रूप से उनका इंतजार था। उनके साथ कविता पाठ का सौभाग्य मुझे भी मिलने जा रहा था। मैं बहुत ज्यादा उत्साहित था। तभी ‘पहल’ के संपादक ज्ञानरंजन जी ने कहा- वीरेन नहीं आ रहे हैं। वह एक बड़े संकट में फंस चुके हैं। इतना कहकर उन्होंने चुप्पी साध ली। वह उदास थे। मैंने बाद में अकेला पाकर उन्हें कुरेदा कि आखिर बात क्या हो गई? इस बार उनका जवाब था, ‘वीरेन को कैंसर हो गया है।’

मेरे पांवों की तो जैसे जमीन ही खिसक गई। कल्पना ही नहीं की थी कि ऐसी खबर भी मिल सकती है। मैंने उन्हें तत्काल फोन किया। उन्होंने मुझे यह कह कर तसल्ली दी कि शुरुआत में ही पकड़ में आ गई है बीमारी। डॉक्टरों का कहना है कि ऑपरेशन से स्थिति काबू में आ जाएगी…। खैर, बाद में उनका सफल ऑपरेशन हुआ। धीरे-धीरे वह स्वस्थ भी हो गए। कविताओं में उनका मन भी रमा। फिर तीसरा संग्रह ‘स्याही ताल’ भी आ गया अंतिका प्रकाशन से। उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का विस्तार देखा जा सकता है इस संग्रह में। एक कठिन समय में साफ-साफ और दो टूक बातें। वाकई यह आगे का संकलन था। एक नई ताजगी के साथ वह साहित्यिक परिदृश्य में उपस्थित हुए। इस संग्रह में ‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा’, ‘पेप्पोर रद्दी पेप्पोर’, ‘मानवीकरण’, ‘साइकिल के बहाने कुछ स्मरण और एक पछतावा’, ‘चारबाग स्टेशन: प्लाटफॉर्म नं. ७’, ‘उठा लंगर खोल इंजन’,  ‘कानपुर’, ‘पलटे हुए रूपक में नख-दंत कथा’ और ‘स्याही ताल’ जैसी कविताएं कभी भूली नहीं जा सकतीं-

सोचो तो

सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत

काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी

क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!

तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो

चाहे किसी भाव से

तब उसमें से ले जाते हो तुम

उसकी आत्मा का कोई अंश

जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश

(कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा)

०००

अब तो बीमारियां भी नई-नई आ गईं

विभाजन भी होते जाते हैं नित नए-नए

चारों दिशाओं से उमड़ रहीं

पीड़ा की जो विकल हिलोरें

एक तिहाई देश को उनका आभास अथवा परवाह ही नहीं

(साइकिल के बहाने कुछ स्मरण और एक पछतावा)

०००

 

हैं अभी वे लोग जो ये बूझते हैं

विश्व के हित न्याय है अनमोल

वही शिवि की तरह खुद को जांचते

देते स्वयं को कबूतर के साथ ही में तोल

याद है क्या यह कहानी?

(उठा लंगर खोल इंजन)

००० 

लाल आंखोंवाला एक जईफ मुसलमान

जब वो मुझसे पूछता है तो शर्म आती है :

‘जनाब, हमारी गलती क्या है?

कि हम वहां क्यों नहीं गए?’

इस पुराने सवाल का जवाब पूछती उसकी दाढ़ी

आधी सफेद आधी स्याह है

(कानपूर)

०००

कैंसर ने वीरेन जी पर दोबारा हमला किया और यह हमला प्राणघातक साबित हुआ, इस दौरान भी उन्होंने  ‘नीली फाइल’, ‘मैट्रो महिमा’, ‘आओ, ढिंग बैठ रहो’, ‘मैं नहीं तनहा’, ‘तेरे दिल में रहना चाहूं’, ‘पितृपक्ष’, ‘मेरी निराशा’, ‘सावन बीता’, ‘आषाढ़’, ‘तालपत्र’,  ‘सुबोध, एक नेकदिल शख्स’ और ‘गोली बाबू और दादू’ जैसी अद्भुत कविताएं लिखीं। इन कविताओं में उनकी तकलीफ इतनी चरम पर है कि पाठ के बीच ही रुला-रुला जाती हैं। दोबारा बीमार पडऩे से पहले की भी कुछ कविताएं बड़ी अद्भुत हैं। ‘परिकल्पित कथालोकांतर काव्य-नाटिका नौरात, शिवदास और सिरी भोग वगैरह’ जैसी लंबे शीर्षक की कविता तो एक लोक आख्यान ही है। पहाड़ का जीवन एक अलग ही अंदाज में धडक़ता है इसमें। अनूठे शिल्प और अजूबे कथ्य वाली ऐसी कविताएं इधर हिंदी में रची ही नहीं गई हैं। यह कविता हिंदी कविता की धरोहर है। वीरेन जी के कवि जीवन की सबसे लंबी रचना है यह। कुछ इस तरह शुरू होती है यह कविता –

बहुत धुआं है मां

आंखें हुई हैं गुड़हल का फूल

हे मां, गुड़हल का लाल-लाल फूल

दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़…

 ०००

वह मेरी वीरेन जी से आखिरी मुलाकात थी। वह अपने दोनों बेटों प्रशांत और प्रफुल्ल के साथ अचानक ही फ्लाइट से मुंबई आए थे। उनका टाटा हॉस्पिटल के एक बड़े डॉक्टर से अपॉइंटमेंट था। कवि और नवभारत टाइम्स, मुंबई के संपादक सुंदर चंद ठाकुर ने ‘परिवार’ संस्था के महासचिव और मित्र सुरेश चंद्र शर्मा के सहयोग से कालबा देवी स्थित शारदा होटल में उनके रुकने की व्यवस्था करवाई थी। तब मैं और सुंदर चंद ठाकुर उनसे मिलने गए थे। उनमें जीवन जीने की अदम्य इच्छा दिख रही थी। वह अपनी पूरी सामर्थ्य से भिड़े हुए थे बीमारी से। हालांकि मैंने उनकी आंखों में एक गहरी उदासी महसूस की। उनका वजन तब तक काफी गिर चुका था। मुंबई से जाने के बाद उनसे फोन पर नियमित बातचीत होती रही। लेकिन एक दिन वह खबर भी आ गई, जो बहुत दुखद थी।

वीरेन जी असमय चले गए, हमारी भाषा की बड़ी हानि है। वह हिंदी के बड़े कवि थे। अपनी रचना में और अपने व्यवहार-व्यक्तित्व में। हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं में भी उनकी जैसी प्रतिभा के कवि कम हैं। वह हमारे बीच रहते, तो हिंदी कविता और भी समृद्ध होती। उन्हें अपने पाठकों और समकालीन रचनाकारों का अकूत प्यार अवश्य मिला है, लेकिन उनकी कविताओं पर अभी काफी बात-विवेचना होनी बाकी है। मैं अपना यह स्मरण वीरेन जी की कविता ‘पितृपक्ष’ से समाप्त करूंगा, जिसमें वह अपने विरल अंदाज में कहते हैं –

मैं आके नहीं बैठूंगा कौवा बनकर

तुम्हारे छज्जे पर

पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्जी के लालच में

टेरूंगा नहीं

न कुत्ता बनकर आऊंगा तुम्हारे द्वार

रास्ते पर ठिठकी हुई गाय की तरह भी

तुम्हें नहीं ताकूंगा

वत्सल उम्मीद की ठुमक के साथ

मैं तो सतत रहूंगा तुम्हारे भीतर

नमी बनकर

जिसके स्पर्श मात्र से जाग उठा है जीवन

मिट्टी में

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