अशोक कुमार पांडेय को लेखक के रूप में मैं उनकी इस कहानी के लिए भी याद रखता हूँ, ‘इस देश में मिलिट्री शासन लगा देना चाहिए’, अपने कथ्य में ही नहीं अपनी कला में भी यह कहानी अपने कथ्य में ही नहीं अपनी कला में भी यह कहानी बहुत अच्छी है। कुछ समय पहले अशोक का कहानी संग्रह इसी नाम से राजपाल एंड संज से प्रकाशित हुआ था। उस संग्रह के कहानियों की समीक्षा लिखी है जाने माने आलोचक संजीव कुमार ने। आप भी पढ़िए-
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अब तो भूल भी गया कि मैंने यह समीक्षा कब लिखी थी। शायद डेढ़ साल पहले। म.ग.अ.हिं. वि.वि. की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ ने लिखवाया था। फिर पता चला कि वहाँ निज़ाम बदल गया और किताब के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय और समीक्षक इपन्ले, दोनों वहाँ की अघोषित काली सूची में पहुँचा दिए गए। कई महीने अटकाये रखने के बाद आखिरकार उनका मेल भी आ ही गया कि वे इसे छापने में असमर्थ हैं।
अब चर्चा सुन रहा हूँ कि अशोक की ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ छपकर आने ही वाली है। उसके बाद उनके कहानी-संग्रह पर लिखी इस समीक्षा को कौन छापेगा? तो अब फ़ेबु पर ही इसे सार्वजनिक किया जाना उचित है। कुल साढ़े अठारह सौ शब्द हैं- संजीव कुमार
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‘इस देश में मिलिट्री शासन लगा देना चाहिए’ अशोक कुमार पाण्डेय की दस कहानियों का संग्रह है. संग्रह को देखने-पढ़ने से पहले मुझे इस बात का कोई इल्म न था कि वे आला दर्जे के कहानीकार भी हैं. मैं उन्हें ‘कश्मीरनामा’ के लेखक के रूप में जानता था और सुनी-सुनाई के आधार पर कवि के रूप में भी. हालांकि उनकी कहानियां लम्बे अरसे से पत्रिकाओं में छपती रही हैं, मेरी ही सीमा थी कि उनके कहानीकार रूप से मैं अब तक अनभिज्ञ रहा आया. संग्रह उठाते हुए मन में कहीं-न-कहीं यह बात थी कि अशोक सब कुछ करते हुए कभी फुर्सत में कहानियां भी लिख लेते होंगे, इसलिए कहानियां अगर बहुत साधारण नहीं तो असाधारण भी नहीं होंगी. दस कहानियों का यह संग्रह, इसीलिए, मुझे लगभग चकित करने वाला साबित हुआ.
संग्रह को बहुत इत्मीनान से, और अधिकाँश कहानियों को दुबारा, पढ़ने के बाद मेरी सुचिंतित राय है कि पत्रिकाओं में हर महीने शाया होने वाली ढेरों कहानियों के मुकाबले ये बहुत अलग तरह की कहानियां हैं, अगरचे ‘अलग तरह की’ होने का कोई एक सूत्र स्थिर करना यहाँ मुश्किल है. ये कहानियां एक मिज़ाज की नहीं हैं, न तो विषय-वस्तु और न ही संरचना के स्तर पर. यहाँ अगर एक छोटे शहर की लाइब्रेरी के एक कर्मचारी की ऊबी हुई, लगभग निस्सार दिनचर्या है, तो राष्ट्र-राज्यों से निकलकर कॉरपोरेशंस में बंटी हुई सन 2130 की मानव-सभ्यता भी है; यहाँ अगर मध्य भारत के जंगलों में अवैध खनन का काम करते मजदूरों का नारकीय जीवन है, तो दिल्ली में पत्रकारिता करती एक स्त्री का जीवन-संघर्ष और परिणामी समझौता भी है; अगर उदारीकरण और प्रौद्योगिकी की लहर में एक क़स्बे की ऊपर से चमकती और अन्दर से बदहाल होती ज़िंदगी है, तो क्रांति के नाम पर सांचे में ढले आज्ञाकारी काडर गढ़ता मनुष्यविरोधी छद्म वाम-समूह भी है. विषय-वस्तु की इस विविधता में सरोकारों की एकता अवश्य रेखांकित की जा सकती है. अशोक अपने समय के शक्ति-समीकरणों की हर सतह पर पड़ताल करते हैं और ये कहानियां समवेत आपको इस बात का अहसास कराती हैं कि व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक और राजनीतिक धरातल तक, जीवन को कुरूप बनाने वाले शक्ति के खेल अनगिनत रूपों में चल रहे हैं. पर एक बार फिर यह कहना होगा कि सरोकारों की यह एकता शिल्प-संरचना और कथा-भाषा की एकरूपता में फलित नहीं हुई है. यह इनकी शक्ति भी है और सीमा भी. शक्ति इस रूप में कि यह कहानीकार के किसी एक ढब-ढर्रे में रूढ़ न होने का प्रमाण है, और सीमा इस रूप में कि इन कहानियों पर एक कहानीकार की निजी छाप न मिलने के कारण ये अलग से ‘उसकी’ कहानियों के रूप में पहचानी नहीं जा सकतीं. आप ‘इस देश में मिलिट्री शासन लगा देना चाहिए’ को पढ़कर अनुमान ही नहीं लगा सकते कि ‘और कितने यौवन चाहिए ययाति’ भी इसी कहानीकार ने लिखी होगी. या ‘जंगल’ को पढ़कर आपके लिए यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल होगा कि यह ‘उस तितली के रंग’ का ही कहानीकार है.
संग्रह की शीर्षक कहानी में, जैसा कि मैंने पहले कहा, एक छोटे शहर की लाइब्रेरी के कर्मचारी की ऊबी हुई, लगभग निस्सार दिनचर्या है, और एक विरोधाभास की तरह, उसकी ऊब के बीच आपको कहानीकार के बहुत मज़ेदार प्रेक्षण मिलते चलते हैं. ये प्रेक्षण अलग-अलग स्थितियों के बीच ऐसे सम्बन्ध-सूत्र बिठाते हैं कि कहानी की प्रकट अर्थहीनता से आपको कोई समस्या नहीं रह जाती. अर्थहीनता को ही आप अर्थ के रूप में अर्जित कर लेते हैं. इस अर्थ को आप कथार्थ कहें या यथार्थ, आपकी मर्जी! कहानी में एक लड़की है जो लाइब्रेरी से किताब लेने आती है और कहानी के वाचक यानी ‘मैं’ से आम तौर पर कोई बात नहीं करती. एक दिन वह ‘दिव्या’ इशू कराती है. वाचक पूछता है कि क्या उसे यशपाल पसंद हैं? लड़की कहती है, ‘नहीं, मेरा नाम भी दिव्या है.’ इसके बाद कई प्रसंग आते हैं. फिर एक दिन लड़की का आना होता है और वह ‘सुनीता’ इशू कराती है. वाचक पूछता है, ‘क्या आपकी बहन का नाम सुनीता है?’ लड़की कुछ नहीं कहती. बहुत बाद में जाकर वह बताती है कि सुनीता उसकी सहेली का नाम है. ये मजेदार बातें अगर एक जगह इकट्ठा कर दी जातीं तो चुटकुले की तरह लगतीं, पर कहानी के अलग-अलग हिस्सों में बिखर कर ये अनायास जान पड़ती हैं और जीवन में हम जिस तरह चीज़ों के बीच सूत्र बिठाते हैं, उसकी बानगी बन जाती हैं. इसी तरह, चूँकि वाचक की पत्नी उसे तलाक देकर जाते हुए कह गयी है कि अगर उनके बच्चा होता तो शायद तलाक न होता, लिहाज़ा वह जिस भी आदमी के बारे में सुनता है कि उसके बच्चे हैं, उसके बारे में मुख्य कार्यसूची पर जो मुद्दा होता है, उससे अलग हटकर वह पहली बात यही सोचता है कि उसका तलाक नहीं होगा. “मैं पहुंचा तो ठेका बंद होने वाला था. ठेके के मैनेजर की बीवी एक ट्रकवाले से हंस-हंसकर बात कर रही थी. मैंने सोचा उसके चार बच्चे हैं. उनका कतई तलाक़ नहीं होगा.” इसी तरह, जब थाने का सिपाही वाचक को बताता है कि उसकी पत्नी यह शिकायत करके दूसरे कमरे में सोने चली गयी कि उसके बदन से टायर की बदबू आती है, वाचक कहता है, ‘लेकिन तुम्हारे बच्चे हैं ना तो कोई बात नहीं.’ टायर की बदबू का किस्सा भी मज़ेदार है. वाचक जब पहली बार थाने गया था, तब ठण्ड भगाने के लिए सिपाही वहाँ जब्ती की मोटरसायकिलों के टायर जलाकर ताप रहा था. एक बार उसकी लाइब्रेरी के चपरासी ने कहा कि अलाव जला लेते हैं, तो वाचक ने बताया कि इस साल तो किताबों के लिए भी बजट नहीं आया है, लकड़ियों के लिए अलग से क्या आयेगा! चपरासी ने कहा, ‘लेकिन लकडियाँ तो ज़रूरी हैं ना.’ “फिर जिस तरह उसने किताबों से भरी आलमारियों को देखा, मुझे अचानक थाने के बाहर पड़ी उन मोटरसायकिलों की याद आयी.” थाने में खड़ी मोटरसायकिलों (जिनमें टायर हैं) और लाइब्रेरी में रखी आलमारियों (जिनमें किताबें हैं) के बीच जो यह साधर्म्य बना है, उसी का नतीजा है कि बाद के एक प्रसंग में जब सिपाही वाचक से कहता है कि उसकी देह से किताबों की गंध आती है, तो वाचक सिपाही से कहता है कि उसके देह से टायरों की गंध आती है. ऐसे बारीक खेल पूरी कहानी में हैं जिनसे हमारे सोच में चीज़ों के साहचर्य निर्मित होने की एक नामालूम प्रक्रिया चिन्हित होती चलती है.
विनोद-कुमार-शुक्लीय-शैली में ‘एब्सर्ड’ का यह प्रयोग जितना मज़ेदार है, उतना ही गहरा| जिस तरह बेमानी हरकतों और बेमानी संवादों के बीच अचानक पात्र बोल उठते हैं कि ‘इस देश में मिलिट्री शासन लगा देना चाहिए’, वह ग़ज़ब की युक्ति है—इस वाक्य को किसी आशय और संजीदगी के बल से रिक्त कर देने की युक्ति| हर पात्र अपनी-अपनी ही कह रहा है, कुछ-कुछ ऐसे कि संवाद अपने ‘रूप’ में संवाद किन्तु ‘वस्तु’ में एकालाप रह जाता है, पर अपने से बाहर निकलकर कुछ कहना संवाद की शर्त है जिसे पूरा करने के लिए बीच-बीच में टपक पड़ता है यह वाक्य, ‘इस देश में मिलिट्री शासन लगा देना चाहिए|’ इसे कहकर गोया हर पात्र अपनी चिंताओं के निजी/सीमित दायरे से बाहर निकलता है| इस वाक्य के पास कोई अर्थ नहीं है, सिर्फ एक भूमिका है| वह ‘एकालाप जैसे संवाद’ को किसी हद तक ‘संवाद जैसा संवाद’ बनाने की भूमिका भी निभाता है और टुच्चे रोज़मर्रापन के बीच देशचिंता का मुग़ालता पैदा करने की भी| आम आदमी जिस तरह अपनी ऊब के बीच इस ख़तरनाक वाक्य को दुहराता है, और इसे दुहराते हुए अनचाहे/ग़ैर-इरादतन एक भयावह चीज़ के ‘नॉर्मलाइजेशन’ में शामिल हो जाता है, उसकी कमाल की बानगी है यह कहानी|
संग्रह की उम्दा कहानियों में से एक है, ‘जंगल’. भ्रष्टाचार, शोषण और खनन माफ़िया के आतंक की एक सुपरिचित, लगभग पत्रकारीय कथावस्तु किस तरह कहानीकार के कौशल से एक नायाब कहानी में ढल सकती है, इसका नमूना देखने के लिए यह कहानी पढ़ी जानी चाहिए. कहानी की शुरुआत और अंत सर्वज्ञ वाचक करता है, जबकि बीच के सभी हिस्से किसी पात्र विशेष के फ़ोकलाइज़ेशन में चलते हैं और इस परोक्ष विधि से बंधुआ मजदूरों के शोषण तथा ईमानदार सरकारी कर्मचारी के सफाये की भयावह कथा हमारे सामने खुलती जाती है.
‘कूपन में स्मृति’ बाईसवीं सदी की कहानी है जब पूरी दुनिया पर छह कारपोरेशनों का शासन है और प्रेम, स्मृति, किताब और कविता जैसी चीज़ों से मनुष्य का वास्ता ख़त्म हो चुका / किया जा चुका है. ‘लोकतंत्र जैसी भयानक और मनुष्यविरोधी व्यवस्था को ख़त्म कर एक नयी दुनिया कायम’ की गयी है, जिसका नारा है – ‘मेहनत, अनुशासन और नियमों के प्रति प्रतिबद्धता.’ मनुष्य को बेकार के कम्पटीशन से, घृणित चुनावों के ज़रिये चुने जाने वाले भ्रष्ट नेताओं से, विचारों से और बहकाने वाली कविताओं और नारों से मुक्ति दिलाई जा चुकी है. ऐसे में कहानी के नायक के पास अपनी नानी की माँ की एक किताब बरामद होती है जिसमें छपी कविता का अर्थ तलाशते हुए उसने कारपोरेशन के सर्च इंजन पर ‘स्मृति और प्रेम’ सर्च किया था. उसे 36 की उम्र में ही इंजेक्शन देकर मौत की नींद सुला दिया जाता है जो कि काम के लायक न रह गए उम्रदराज़ लोगों के लिए निर्धारित व्यवस्था है. यह कहानी साइंस फिक्शन वाली आजमूदा विधा का नमूना है और इस विधा में ब्योरों को विश्वसनीय बनाने की जो चुनौती सामने होती है, उसे यह कहानी बखूबी संभालती है.
संग्रह में ‘उस तितली के रंग’, ‘कोई सौदा कोई जुनूं भी नहीं’ और ‘आय ऍम सॉरी नीलू’ जैसी कहानियां बहुत कोमल स्पर्श के साथ मर्दाना समाज के दंश झेलती स्त्रियों को सामने लाती हैं. ‘और कितने यौवन चाहिए ययाति’ में बहुत लम्बे-लम्बे संवाद कहानी की स्वाभाविकता को थोड़ा खंडित अवश्य करते हैं, पर कहानी क्रांतिकारी वाम से जुड़ी बहसों को जिस त्वरा और भावावेश के साथ उठाती है, वह इसकी बड़ी ताक़त है. यह एक ऐसे वाम समूह की कहानी है जिसमें प्रेम करना और कविताएँ लिखना क्रांति के लिए नुकसानदेह कमज़ोरी की निशानी है. “आखिर माओ ने कहा था कि क्रांति की लड़ाई में मोर्चे पर लड़नेवाले से लेकर घोड़े की लीद साफ़ करने वाले तक सभी का महत्व है…. फिर हम यह निष्कर्ष कैसे निकला सकते हैं कि तथाकथित कमज़ोर लोगों को एक ख़ास तरह के मोल्ड में ढालकर ही इस लड़ाई का हिस्सा बनाया जा सकता है? ऐसा कैसे हो गया कि प्रेम करने वाले और कविता लिखने वाले भी अब हमारे लिए बेकार के लोग हो गए?”
अशोक की सभी कहानियां, जिनमें कुछ औसत दर्जे की कहानियां भी शामिल हैं, कुछ ज़रूरी सवालों को उठाती हैं और सवालों को उठाने के लिए यथासंभव कहानी का स्वाभाविक रास्ता छोड़ने से अपना बचाव भी करती हैं. कहानी का स्वाभाविक रास्ता सवालों को कथा-स्थितियों में घुला देना है जिसमें वे बहुत दूर तक सफल रहते हैं. जहां उन्हें सीधे-सीधे भी सवाल उठाने की ज़रूरत महसूस होती है, जैसा कि ‘और कितने यौवन चाहिए ययाति’ में दिखता है, वहाँ भी कथा-स्थितियों का इतना दबाव होता है कि आप उसे स्वाभाविक रास्ते से कहानी का भटकाव नहीं मानते.
निश्चित रूप से, अशोक कुमार पाण्डेय के पास ऐसे सूक्ष्म प्रेक्षण और ऐसी समर्थ कथा-भाषा है कि उनकी कहानियों का इंतज़ार रहे. कहानियों पर ख़ास अपनी मुहर लगाने की चुनौती तो बहुत बड़ी है, वह न भी पूरी हो पाए तो कम-से-कम उनका विचारक-शोधार्थी उनकी कहानियों की सीमा बनने के बजाये इसी तरह शक्ति बना रहे, यही बड़ी बात होगी.
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[समीक्षित पुस्तक: ‘इस देश में मिलिट्री शासन लगा देना चाहिए’, 2019, राजपाल एंड संस, दिल्ली, मूल्य – रु. 235 (पेपरबैक), पृष्ठ – 158.]
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