दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह पुरा नायक की तरह रहे हैं, जितनी उपलब्धियाँ उतने ही क़िस्से। अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज के लिए भी उन्होंने योगदान किया था और वहाँ उन्होंने एक व्याख्यान भी दिया था, जिसके बारे में कम ही लोगों को पता होगा। प्रोफ़ेसर पंकज पराशर ने उनके बारे में सुंदर परिचयात्माक टिप्पणी के साथ उस भाषण का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। आप भी पढ़िए। एक सहेजने लायक़ प्रस्तुति-
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इतिहास को लेकर एक महत्वपूर्ण स्थापना देते हुए ई.एच. कार ने लिखा है, “इतिहास अतीत तथा वर्तमान के बीच निरंतर चलने वाला संवाद है. इतिहास का कर्तव्य न तो अतीत से प्रेम करना है और न ही अतीत से स्वयं को मुक्त कर लेना, लेकिन इस पर आधिकारिक समझ प्राप्त करके इसे (अतीत को) वर्तमान को जानने की कुँजी समझना चाहिए. जब इतिहासकार की अतीत के विषय में कल्पना वर्तमान की समस्याओं को सूक्ष्म दृष्टि से आलोकित करती हैं, तो महान इतिहास का लेखन होता है. इतिहास से सीखना हमेशा इकतरफा प्रक्रिया नहीं होती, वर्तमान को अतीत की रोशनी में देखने का अर्थ यह भी है कि अतीत को वर्तमान की रोशनी में देखा जाए. इतिहास का कार्य वर्तमान और अतीत के अंतःसंबंधों के द्वारा जानकारी में सदैव वृद्धि करना है.” (व्हाट इज हिस्ट्री, पृ.69-70)
रियासत दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह (सिंह उपनाम के कारण अनेक लोग उन्हें ‘राजपूत/ठाकुर/क्षत्रिय’ समझने की भूल करते हैं, जबकि वे श्रोत्रिय श्रेणी के मैथिल ब्राह्मण थे) का जब 16 जनवरी, 1860 में जन्म हुआ, तो इसके साथ ही उनकी क़िस्मत में पिता महेश्वर सिंह का निधन और रियासत का ‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स’ के अधीन हो जाना भी जुड़ गया. उनके बड़े भाई लक्ष्मीश्वर सिंह भी चूँकि तब महज दो ही साल के थे, इसलिए दरभंगा रियासत सन् 1860 से 1879 तक ‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स’ के अधीन रही. दोनों भाइयों की शिक्षा-दीक्षा के लिए अँगरेजी हुकूमत ने मिस्टर चार्ल्स मैकनाघ्टेन (Macnaghten), मिस्टर जे. एलेग्जेंडर और कैप्टेन एवंस गॉर्डोन का बंदोबस्त किया, जिन लोगों ने दोनों भाइयों को अँगरेजी ढंग से तालीम दी. रियासत दरभंगा के शासकों में वे दोनों भाई पहले ऐसे पहले शासक हुए, जिन्हें अँगरेजी ढंग से तालीम दी गयी. हालाँकि अपने दोनों पुत्रों को अँगरेजी ढंग की तालीम दिये जाने पर राजमाता ने कड़ा ऐतराज जताया और दोनों राजकुमारों का स्थानीय अभिभावक अपने एक देवर यानी लक्ष्मीश्वर सिंह-रामेश्वर सिंह के एक चाचा को बनाया, जिन्होंने भारतीय हिंदू संस्कृति के अनुरूप संस्कृत के प्रमुख विद्वानों से भी दोनों राजकुमारों को शिक्षा देने की अलग से व्यवस्था की. बाद में रामेश्वर सिंह ने बनारस स्थित क्वींस कॉलेज (जिसे अब संपूर्णानंद संस्कृति वि.वि. के नाम से जाना जाता है) से पढ़ाई की. जिसके फलस्वरूप संस्कृत एवं हिंदू संस्कृति के तरफ स्वाभाविक रूप से रामेश्वर सिंह आकर्षित हुए. इसके अलावा रामेश्वर सिंह उर्दू और फारसी ज़बान पर भी अच्छी पकड़ रखते थे. सन् 1878 में रामेश्वर सिंह ‘इंडियन सिविल सर्विस’ यानी आई.सी.एस. में भर्ती हुए और क्रमशः दरभंगा, छपरा तथा भागलपुर में सहायक मजिस्ट्रेट के पद पर रहे. लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की कार्यकारी परिषद में नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे.
रामेश्वर सिंह की प्रशासनिक उपलब्धियों और पदों-पदवियों की लंबी फेहरिस्त देखकर हैरानी होती है! वे ‘बिहार लैंडहोल्डर एसोसिएशन’ के अध्यक्ष, ‘ऑल इंडिया लैंडहोल्डर एसोसिएशन’ के अध्यक्ष, ‘भारत धर्म महामंडल’ के अध्यक्ष, ‘स्टेट कौंसिल’ के सदस्य, कलकत्ता स्थित ‘विक्टोरिया मेमोरियल’ के ट्रस्टी, ‘हिंदू यूनिवर्सिटी सोसायटी’ के अध्यक्ष, एम.ई.सी. बिहार और उड़ीसा के सदस्य और सन् 1902 से 1903 तक ‘भारतीय पुलिस आयोग’ के सदस्य रहे. सन् 1900 में उन्हें में ‘कैसर-ए-हिंद’ के ख़िताब से नवाज़ा गया था. 26 जून 1902 को रामेश्वर सिंह को ‘नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एंपायर’ (KCIE) और सन् 1915 की बर्थडे ऑनर्स लिस्ट में ‘ग्रैंड कमांडर ऑफ इंडियन एंपायर’ (GCIE) में पदोन्नत किया गया. उसके बाद उन्हें ‘नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर का नाइट कमांडर’ नियुक्त किया गया. भारतीय पुलिस आयोग के वे एकमात्र सदस्य थे, जिन्होंने पुलिस सेवा के लिए ज़रूरी चीज़ों को लेकर अपनी रिपोर्ट में असंतोष ज़ाहिर किया औऱ तत्कालीन बरतानवी हुकूमत को यह मश्वरा दिया कि भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती एक ही परीक्षा के माध्यम से होनी चाहिए. उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि इस सेवा में उम्मीदवारों की भर्ती उसके रंग या उसकी राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं होनी चाहिए. ख़ैर, यह तो हुई उनकी व्यक्तिगत और दुनियावी उपलब्धियों की बातें. महत्वपूर्ण यह है कि उनके भाई महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह और उनके असामयिक निधन के बाद रियासत की बागडोर थामने वाले रामेश्वर सिंह ने देश और समाज के लिए क्या किया?
1857 के गदर के विद्रोह को तीन साल ही बीते थे, लेकिन उसकी अनुगूँज कई दशकों तक हिंदुस्तान में सुनाई देती रही. आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र के बड़े बेटे दारा बख़्त 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे, लेकिन गदर के विद्रोह के बाद सारा मंज़र बदल गया. उनके पाँच बेटों को अँगरेज़ों ने दिल्ली के ख़ूनी दरवाज़े के पास बड़ी बेरहमी से क़त्ल कर दिया और सिर काटकर बहादुरशाह जफ़र के सामने पेश किया गया. बहादुरशाह जफर अपने सबसे बड़े पोते जुबैरउद्दीन गोरगन के नाम का ऐलान बतौर शहज़ादा करना चाहते थे, लेकिन उससे पहले ही मुग़लिया सल्तनत का ख़ात्मा हो गया. सिपाही विद्रोह के बाद अँगरेज़ों ने मुग़लिया सल्तनत के इस उत्तराधिकारी को दिल्ली से निकाल दिया और फ़रमान ज़ारी किया कि हिंदुस्तान में वे कहीं भी तीन साल से ज़्यादा वक़्त तक नहीं रह सकते. दारा बख़्त के बड़े बेटे जुबैरउद्दीन गोरगन को बनारस में रहते हुए तीन साल पूरे हो रहे थे. इसी दौरान उनकी मुलाकात रियासत दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह से हुई. ज़ुबैरउद्दीन गोरगन ने जब उन्हें अपना परिचय दिया, तो वे उनके सम्मान में उठकर खड़े हो गये! लक्ष्मीश्वर सिंह ने उनसे अपनी रियासत दरभंगा चलने का आग्रह किया. 17 मार्च, 1881 को मुग़ल खानदान के अंतिम वारिस जुबैरुद्दीन गोरगन परिवार सहित दरभंगा आ गए. दरभंगा में लक्ष्मीश्वर सिंह ने उन्हें राज्य अतिथि का दर्ज़ा दिया. उनके लिए भत्ते और नौकर-चाकर की व्यवस्था की. जिससे कुपित होकर अँगरेजों ने उन्हें इसका अंज़ाम भुगतने और उन्हें अँगरेज सरकार द्वारा दी गई उपाधियाँ वापस लेने की धमकियाँ दीं. लेकिन लक्ष्मीश्वर सिंह ने अँगरेज हाकिमों की किसी धमकी की परवाह नहीं की और कहा, ‘जिसने हमें यह सूबेदारी दी, अगर वही नहीं बचेगा तो राज किस काम का?’ उसके बाद अपनी चतुराई और कूटनीति से उन्होंने अँगरेजों द्वारा जुबैरउद्दीन गोरगन पर लगे हुए एक जगह तीन साल से अधिक नहीं रहने का आदेश ही रद्द करवा दिया.
महाराज दरभंगा ने शहर के काज़ी मोहल्ला में जुबैरउद्दीन गोरगन के लिए एक बेहतरीन घर और इबादत के लिए एक सुंदर-सी मस्ज़िद बनवा दी. दरभंगा की आब-ओ-हवा शायद उनके बच्चों को रास नहीं आ रही थी. दरभंगा के आने के महज दो साल के बाद ही शहर में फैले हैजे की वज़ह से सन् 1883 में उनके इकलौते बेटे का इंतकाल हो गया और अगले ही साल उनकी बेगम मेहरून्निसा भी अल्लाह को प्यारी हो गईं. इन सदमों की वज़ह से जुबैरउद्दीन का दरभंगा से जी उचट गया. वे कहीं और जाना चाहते थे, लेकिन महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने उन्हें दिलासा दिया और अंततः उन्हें दरभंगा में ही रहने के लिए मना लिया. दरभंगा में तन्हा रहते हुए ज़ुबैरउद्दीन का सन् 1905 में निधन हो गया, जिनके पीछे कोई वारिस हयात न रहा. उन्हें दरभंगा शहर के दिग्घी झील के किनारे सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. रियासत दरभंगा की तरफ़ से उस जगह पर एक मज़ार बनवाया गया, जिसकी हालत अब बेहद ख़स्ता है. मजार का देख-रेख करने वाले उस्मान को इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं कि ये मज़ार आख़िरी मुग़ल बादशाह मिर्ज़ा अबू ज़फ़र सिराजउद्दीन मोहम्मद बहादुरशाह ज़फ़र के वारिस की है. विलियम डेलरिम्पल अपनी किताब में दारा बख़्त का ज़िक्र तो बारहा करते हैं, मग़र जुबैरुद्दीन पर वे मौन हैं. शायद तारीख़ भी बदनसीबों के हक़ में चुप्पी को बेहतर समझता है. दरभंगा में रहकर ज़ुबैरउद्दीन गोरगन ने तीन किताबें लिखीं-‘चमनिस्तान-ए-सुखन’, ‘मसनबी दुर-ए-सहसबार’ और ‘मौज़-ए-सुलतानी’. ‘मौज़-ए-सुलतानी’ में हिंदुस्तान के अलग-अलग रियासतों की शासन व्यवस्था का जिक्र है. ख़ास तौर पर ‘मसनबी दुर-ए-सहसबार’ में रियासत दरभंगा और मिथिला के तहज़ीब के तमाम पहलुओं को तफ़सील से बयान किया गया है. 16 नवंबर, 1898 में अचानक जब महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह का असामयिक निधन हो गया, तो उनके मरणोपरांत उनके अनुज महाराज रामेश्वर सिंह ने जुबैरुद्दीन की आतिथ्य परंपरा को जारी रखा.
जिस हिंदी के लिए भारत के संविधान में तरह-तरह के प्रावधान किये गये हैं, जिस हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए हर वर्ष तरह-तरह की बहुत-सी बातें होती हैं, उस हिंदी को महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने सन् 1880 में महज तीन की महीने की अवधि में रियासत दरभंगा में लागू करके दिखा दिया. वह भी तब, जब उनके कर्मचारी अँगरेज़ी, उर्दू और कैथी में कार्य करने के आदी थे और हिंदी में काम करने का उन्हें कोई इल्म न था. स्थानीय स्तर पर जनता मैथिली बोलती-समझती थी और इसी भाषा में अपना दैनिक काम-काज करती थी. 14 जुलाई, 1880 को उन्होंने आदेश ज़ारी किया, ‘रियासत के तमाम कर्मचारियों को मैं जुलाई से नवंबर तक तीन महीने का समय देता हूँ कि वे हिंदी सीख लें. दिसंबर 1880 से रियासत का सारा काम-काज हिंदी में होगा. जो लोग इस अवधि में हिंदी नहीं सीखेंगे, उन्हें विवश होकर मुझे नौकरी से निकालना पड़ेगा.’ …और लक्ष्मीश्वर सिंह की सख़्ती के बाद लगभग 6,200 किलोमीटर के दायरे में फैली दरभंगा रियासत में उन्होंने हिंदी को लागू करके दिखा दिया. इस रियासत के क्षेत्रफल का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव महाराज दरभंगा के शासन में थे. राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे. इतनी बड़ी रियासत में हिंदी को लागू करने का ख़ामियाजा लक्ष्मीश्वर सिंह को भुगतना पड़ा. मैथिली भाषियों ने उन्हें मैथिली विरोधी की तरह देखा और उनके इस कदम को गलत ठहराया. जबकि हिंदी हितैषियों ने भी उन्हें इस नेक काम के लिए उन्हें कभी याद नहीं किया!
बताते चलें कि ये वही महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह हैं, जो सन् 1885 में काँग्रेस की स्थापना के समय उसकी पहली बैठक में मौज़ूद थे. इसके बाद कलकत्ते में हुए काँग्रेस के द्वितीय अधिवेशन का पूरा खर्च (2500 रूपये) उन्होंने ही दिया था. सन् 1892 में अँगरेजी हुकूमत की जब भवें ज़रा टेढ़ी हो जाने के कारण काँग्रेस को इलाहाबाद में अधिवेशन करने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिल रही थी, तो लक्ष्मीश्वर सिंह ने एक अँगरेज हाकिम का पूरा ‘लोथर हाउस’ ही ख़रीद कर दे दिया था. इन्हीं महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के राजमहल लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस में सन् 1887 में जब ‘बड़ी मलका जान’ की साहिबज़ादी गौहर जान ने महज चौदह बरस की उम्र में गाना पेश किया था. राज दरभंगा के लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस में मौज़ूद तमाम लोग गौहर की गायकी के कायल हो गए. गौहर का जब गायन समाप्त हुआ, तो राजदबार से जुड़े तमाम गायक, वादक और संगीत के रसिया घंटों वाह-वाह करते रहे. गौहर जान को दरभंगा शहर इतना पसंद आया कि वह बाक़ायदा दरभंगा राज से जुड़ गईं. उसके बाद कुछ वर्षों तक वह इस शहर में रहीं. लक्ष्मीश्वर सिंह जब तक जीवित रहे, दरभंगा राज से गौहर जान सीधे तौर पर जुड़ी रहीं.
भारत में बनी संस्थाएँ और शिक्षण संस्थान इस बात की गवाही देते हैं कि यहाँ जो भी राष्ट्रीय महत्व के संस्थान निर्मित हुए हैं, उसके नाम में भले स्पष्ट रूप से ‘हिंदू’ लगा हो या ‘मुस्लिम’, उसके निर्माण, संचालन और शीर्ष तक पहुँचाने में योगदान देने वाले लोग, जिन्होंने सच्चे अर्थों में नेकी करके दरिया में डाल दिया, वे केवल एक ही समुदाय के नहीं रहे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में तत्कालीन भारत में हिंदुओं के सबसे बड़े ‘नेता’ दरभंगा के राजा रामेश्वर सिंह का सबसे बड़ा योगदान था, वहीं हैदराबाद के निज़ाम ने भी बीएचयू की स्थापना में अच्छा-खासा आर्थिक योगदान दिया. उसी तरह ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’, अलीगढ़ की स्थापना में मुसलमानों के अलावा हिंदुओं, जैनियों और अन्य धर्मों के लोगों ने भी न केवल नैतिक और राजनीतिक समर्थन दिया, बल्कि आर्थिक योगदान दिया है। पंजाब के पटियाला के राजा ने ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को 58000 रुपये, गवर्नर जनरल और वायसराय नार्थब्रुक ने 10000, विजयनगरम और बनारस के राजा ने भी आर्थिक योगदान दिया है! लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ में आर्थिक रूप से योगदान देने वालों को लेकर जब कोई चर्चा होती है, तो उस कथित चर्चा को महज मुरसान के राजा महेंद्र प्रताप तक लाकर सीमित कर दिया जाता है! जबकि ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ में योगदान देने वाले हिंदू दानदाताओं की फेहरिस्त देखें, तो उन लोगों के योगदान के सामने राजा महेंद्र प्रताप का योगदान कुछ ख़ास नहीं लगेगा!
रियासत दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह जब 9 जून, 1912 को ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ (अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) आए थे, तो इस विश्वविद्यालय के ‘स्ट्रैची हॉल’ (जो आज भी मौज़ूद है) में उन्होंने बहुत नफ़ीस अँगरेज़ी में उपस्थित जनसमहू के बीच एक भाषण दिया था और उसी अवसर पर उन्होंने ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को बीस हजार रूपये दान दिया था। तब हिंदुस्तान में 18 रूपये, 93 पैसे में एक तोला सोना मिलता था. इस हिसाब से उन्होंने करीब 1053 तोले सोने की कीमत के बराबर रूपये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को दान दिया था। 1053 ग्राम सोने की क़ीमत आज तकरीबन 52,650,300 (पाँच करोड़, छब्बीस लाख, पचास हजार, तीन सौ रूपये) है। दरभंगा नरेश महाराज रामेश्वर सिंह द्वारा दिया गया यह दान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को किसी ग़ैर मुस्लिम द्वारा दिये गये दानों में सबसे बड़ा और सर्वोच्च स्थान रखता है! महाराज रामेश्वर सिंह ने 09 जून, 1912 को अलीगढ़ के ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज’ के ‘स्ट्रैची हॉल’ में अँगरेज़ी में जो तकरीर की थी, वह तकरीर अलीगढ़ आंदोलन को लेकर काम करने वाले शोधार्थियों से लेकर उन तमाम लोगों के लिए बहुत काम का साबित होगा, जो आधुनिक भारत के इतिहास को सच्चे तथ्यों के आधार पर जानना-समझना चाहते हैं. यहाँ इतना और जोड़ दें कि ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को विश्वविद्यालय का दर्ज़ा दिलवाने में भी महाराज रामेश्वर सिंह की एक सकारात्मक भूमिका रही है. जब देश में हिंदू-मुसलमान के बीच सियासतदाँ दूरी बढ़ा रहे थे, तो रामेश्वर सिंह ने हिंदी और उर्दू एक पोस्टर जारी किया था, जिसे देखकर उनकी सोच और आपसी सामंजस्य को बढ़ावा देने वाले वास्तविक ‘राजधर्म’ का पता चलता है.
यहाँ पेश है 9 जून, 1912 को ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’, अलीगढ़ में रियासत दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह का वह भाषण जो अब तक विलुप्तप्राय था, जिसे आज के माहौल में बारहा देखने-पढ़ने की जरूरत है.
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रियासत दरभंगा के महाराज सर रामेश्वर सिंह का मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज, अलीगढ़ में दिया गया भाषण
मैं बहुत कृतज्ञ हूँ कि आप लोगों ने मुझे याद किया और इसके लिए मैं विशेष रूप से अपने दोस्त आफ़ताब अहमद खाँ साहब के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने बहुत स्नेह और सम्मान से मुझे यहाँ बुलाया। इस संस्थान का दौरा करना मेरे लिए बहुत गौरव की बात है। हज़रत मुहम्मद साहब के दामाद और उनके अनुयायियों में सबसे श्रेष्ठ हज़रत अली के नाम पर बसे इस ऐतिहासिक शहर अलीगढ़ का महत्व अब इसलिए भी बढ़ गया है कि मुसलमानों के महान् नेता, विचारक और दार्शनिक सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898) ने इस शहर को मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक व वैचारिक गतिविधियों का केंद्र बनाया।
मैं मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज को आपकी कुर्बानियों और इस्लाम के प्रति आपकी सत्यनिष्ठा के एक प्रतीक के रूप में देखता हूँ। मुझे विश्वास है कि आपके द्वारा देखे गए स्वप्न के पूर्ण होने का वह दिन अब दूर नहीं, जब इस शहर में एक मुहम्मडन यूनिवर्सिटी की स्थापना होगी और सर सैयद जैसे महान् नेता का ख़्वाब पूरा होगा। वे भले ही भौतिक रूप से अब हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, लेकिन अपने संदेश और विचारों से वे मुसलमानों को शिक्षा और प्रगति हेतु सदैव मार्गदर्शन देते रहेंगे। इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों पर चलने वाले समुदाय की हैसियत से आप लोगों ने जिस दिलचस्पी के साथ दिवंगत सर सैयद के सपनों को धरातल पर साकार किया है, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। सचमुच आपके लिए यह गर्व की बात है कि आपने सर सैयद के गुज़र जाने के बाद भी देश के प्रतिष्ठित लोगों को इस आंदोलन से जोड़कर रखा। जिनमें न्यायमूर्ति सैयद महमूद (1850-1907) और नवाब मोहसिन-उल-मुल्क (1837-1907) जैसे व्यक्तित्व ने सर सैयद की कमी को पूरा करने की भरपूर कोशिश की है। इसके अलावा नवाब वक़ार-उल-मुल्क (1841-1917) ने आपके नये सचिव के रूप में इस संस्थान को उच्च शिखर तक ले जाने में अद्वितीय योगदान दिया। उधर इंग्लैंड में सर आगा खाँ (1877-1957) और श्री अमीर अली (1849-1928) ने आपके समुदाय के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए जिस लगन से लगे हुए हैं, उसका कोई दूसरा उदाहरण हिंदुस्तान के किसी अन्य समुदाय में शायद ही दिखाई देता है। इस संस्थान का दौरा करने वाला शख्स, जैसा कि मेरे मित्र जनाब आफताब अहमद खाँ (1867-1930) साहब ने यहाँ की इमारतें, लंबे-चौड़े परिसर और हिंदुस्तान के कोने-कोने से आए छात्रों, जिनमें बुख़ारा से लेकर सुदूर दक्षिण भारत से बड़ी संख्या में यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आए छात्रों के बारे बताया-उनसे प्रभावित हुए बिना कोई कैसे रह सकता है! मैं कॉलेज के उन काबिल सचिवों और ट्रस्ट से जुड़े महानुभावों को शुभकामनाएँ देता हूँ, जिन्होंने इस महान् भारत इतिहास में इस कॉलेज को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में अपना अमूल्य योगदान दिया है।
मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज के सभी शुभचिंतकों के लिए यह गहरे संतोष की बात है कि इस कॉलेज की स्थापना के समय से ही कई धनाढ्य और प्रतिष्ठित हिंदुओं ने भी सर सैयद की भरपूर आर्थिक सहायता की। सर सैयद अहमद खाँ हिंदुओं और मुसलमानों को अपनी दो आँखें मानते थे और दोनों धर्मों के बीच एकता के महत्व को स्पष्ट करने के लिए कहते थे कि उन्हें अपनी दोनों आँखों में फ़र्क करने की जगह एक आँख वाला होकर रहना ज्यादा मुनासिब लगता है। यही वह भाव है जिसके तहत हिंदुओं और मुसलमानों को इस देश की उन्नति और समृद्धि के लिए साथ मिलकर का करना चाहिए। इसी की बदौलत हमें दुनिया भर में सम्मान और प्रतिष्ठा मिलेगी और इसी से अंगरेजी हुकूमत के कामों में भी आसानी पैदा होगी। इन्हीं भावों के साथ हम हिंदूजन एक मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना का स्वागत करते हैं। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि आपके दिल में भी बनारस में एक हिंदू यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए वही आदर और सद्भाव जो हमारे दिल में है। आइये, हम सब ईश्वर पर पूर्ण आस्था रखते हुए अपने अपूर्ण संस्थानों को अंतिम रूप देने के लिए काम करें।
यह हमारे युग के लिए खुशी की बात है कि हिंदू और मुसलमान दोनों ने यह तय किया है कि आने वाली नौजवान पीढ़ियों के लिए पश्चिमी शिक्षा, विचार और दर्शन के साथ ही उनकी अपनी मान्यताओं और सिद्धांतों के शिक्षा की भी व्यवस्था की गई है। मेरे ख़्याल से जिसके लिए धार्मिक विशिष्टताओं पर आधारित विश्वविद्यालयों की स्थापना जरूरी है। आवासीय महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों की योजना पर आधारित हिंदू और मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे यही उद्देश्य है। ये विश्वविद्यालय छात्रों के लिए न सिर्फ बौद्धिक खुराक प्रदान करेंगे, बल्कि उनकी बौद्धिक और नैतिक विकास के लिए इससे संबद्ध चीजों को उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा। हमें चाहिए कि पश्चिमी संस्कृति (पाश्चात्य दर्शन/साहित्य) की हर अच्छी बातों को ग्रहण करें, लेकिन इसके साथ ही अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को भी न भूलें, जिनके कारण हमारी संस्कृति का दुनिया भर में एक विशिष्ट स्थान है।
कहा जा रहा है कि धार्मिक विशिष्टता पर आधारित विश्वविद्यालयों की स्थापना से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई पैदा होगी और उनके संबंधों में तल्खियाँ पैदा होगी, लेकिन मुझे भरोसा है कि ऐसा नहीं होगा। हम दोनों के उद्देश्य और लक्ष्य एक हैं-यानी ईश्वर की प्रार्थना, उस परम सत्ता का आज्ञा-पालन। शिक्षा का उद्देश्य देश की भौतिक, आर्थिक और बौद्धिक विकास जिनमें कई अन्य समुदाय भी शामिल हैं और जहाँ सब लोग सदियों से एक साथ मिलकर रहते आए हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस समुदाय ने ईश्वर की उपासना के रास्ते को छोड़ा, उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी और दुनिया के भिन्न-भिन्न समुदायों के बीच श्रेष्ठतम स्थानों से वंचित होना पड़ा। एकेश्वरवाद की स्थापना पद्धति से ही लोगों के बीच परस्पर एकता बनी रहेगी। हम अपने ईश्वर की आज्ञा का पालन इसी प्रकार कर सकते हैं कि हम अपने बीच सद्भावना और समझदारी के भाव के साथ आगे बढ़ें और ऐसी तमाम बातों को नज़रअंदाज़ कर दें, जिनसे हमारी साझी संस्कृति में कोई समस्या पैदा हो।
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संपर्कः 9634282886, ईमेल- dr.ppamu@gmail.com
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