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कोरोना काल में मध्यवर्गीय खिड़की और बालकनी

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सदन झा इतिहासकार हैं, संवेदनशील लेखक हैं। अपने तरह के अनूठे गद्यकार हैं। कोरोना काल के अनुभवों को उन्होंने रचनात्मक तरीक़े से लिखा है-

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कोरोना काल में मध्यवर्गीय खिड़की और बालकनी के रास्ते नजर बाहर जाती है। सुनसान पड़ी सड़कें उन्हे बिना देर किए लौटा देती है। यह मन को तब और भी खाली कर जाता है जब उसे पता हो कि सड़कें हर जगह तो अब भी वीरान नहीं है। कल ही कोई कह रहा था, मजदूरों के जत्थे फिर से पैदल ही घर लौट रहे हैं। सिर झुकाए। पीठ पर एक स्कूल बैग में जीवन की कमाई मेहनत और लाचारगी उठाए चुपचाप चला जा रहा है मनुष्य। बैरंग मन सोचता है हम कितना कुछ खोते जा रहे हैं बस बचा रह जाता है तो एक रिक्त अहसास। सड़क ने जिस नजर को वापस कर दिया वह किताबों की आल्मारी ने कैद कर लिया।

मेरे पास एक रंग बिरंगी डायरी है। डायरी क्या अलग अलग रंगों के पन्नो को जैसे एक साथ नथ दिया गया हो। रिसायकल मोटे मोटे नजर को ठहरा ले ऐसे कागज। एक बेहद आत्मीय मित्र की दी हुई सौगात। उन्होने यह देते हुए कहा था कि यह प्रिंटरों के काम आता है। किताबों और अन्य उत्पादों के कवर पृष्ठ का सैंपल पेपर है। जिन्होंने मुझे यह दिया वे लेखन और प्रकाशन की दुनिया के भांति भांति के लोगों से मिला करते थे। एक से एक खबर लाते। ऐसी खबरें जो विश्वास और सत्य के परीचित मानकों को चुनौती दे और आप उनकी बात से बंध जाएं। कुछ तो उनमें झूठ बोलने का स्वभाविक गुण था और कुछ तो दुनिया की सच्चाई की विचित्रता का अहसास मुझे था कि मैं‌ सच झूठ तौलने के झमेले में नहीं पड़ा करता।

वे वात्सल्य भाव बाले थे। साहित्य के सड़क-बाजार की बातें कहते। कुछ सीखा ही जाते। आप ज्ञान को कई तरीके से पाते हैं। किताब से, ड्राईंग रुम से और‌ सड़क बाजार से। कहीं से भी। मैं किसी भी रुप को अच्छा या कम अच्छा नहीं मानता हूं। कोई एक दूसरे से असंपृक्त भी नहीं हुआ करता है। हां आपको फिल्टर करना आता हो। यदि फिल्टर न भी करे तो भी भटकने का अपना आनंद तो है ही। यदि भटके नहीं तो दुनिया क्या खाक जिया। और, वे भटकते रहते। भटकते हुए उनकी थाती जुड़ती जाती। कुछ कुछ प्रॉस्त और बॉलजॉक के डांडी की तरह। लेकिन उन दिनो डांडी की अभिजात्यता से अधिक वे ‌वॉल्टर वेंयामिन के फ्लेनियर और ऐसे ब्रिकोलियर अधिक लगते थे जिसकी अहमियत पर लेवी स्ट्रास ने बहुत कुछ लिखा है। मेरे प्रिय मित्र भी इक्ट्ठा किया करते थे। और, झूठ बोलने एवं भटकने की‌ स्वभाविकता ही के साथ उनका इकट्ठा करने का गुण उनकी प्रकृति का ही हिस्सा था। कुछ भी आरोपित या क्षणिक नहीं। मानो इन तीन गुणों में से एक को भी पृथक कर दें तो उनका अस्तित्व ही तितर बितर हो जाय।‌

एक बार तो मैं अपनी रौ में कुछ बके जा रहा था। कि देखता हूं वे कैंटीन से कागज का टुकड़ा मांग लाए और मेरी कही बातों को लिख लिया। मुझे एक ही साथ अपने गुरु गंभीरता और झेंप का अहसास हुआ। लेकिन, वे सामान्य ही थे।‌ बहुत बाद में हाईडेगर को भाषा पर पढ़ा और जाना कि संग्रह की क्रिया सुनने और भाषा का वह‌ उत्स है जिसे भाषा के इतिहास ने लील लिया। कुछ ऐसे ही संग्रह और सुनने दोनो ही की अहमियत को हम भूल बैठे। मुझे तो इस बात का भी पूरा विश्वास था कि‌ इकट्ठा करने की सहज प्रवृति का कारण उनका क्लेप्टोमेनियाक होना था। वे जन्मजात क्लेप्टो थे या जीवन के किसी मोड़ पर उनका स्वभाव ऐसा हो गया यह कहना मुश्किल है। क्लेपटो होने के कारण उनमें संग्रह करने का गुण आया या संग्रह करने के‌स्वभाव ने उन्हें क्लेप्टो बना दिया, यह तय करना भी असंभव है। लेकिन, वे कभी संग्रह कर खुद तक नहीं रखते। एक जगह से उठाते और दूसरी जगह पहुंचा देते। विचार, किताब और अनेक ऐसी ही बातें अपना जगह और अर्थ बदल दिया करते इस प्रक्रिया में। वे महज जरिया हुआ करते। एक ऐसा माध्यम जिनके बगैर दुनिया में प्रवाह ही थम जाय। और,मेरी नजर अतीत से घूम कर फिर से इस अनोखे डायरी के रंग बिरंगी पन्नों की तरफ लौट आती है। मैंने जिंदगी में बहुत कुछ खोया है। समय समय पर‌ लोग और‌ उनका प्यार और‌ स्नेह छूटता रहा है। अपनी ही रौ के कारण अपने अपनो को दुखी करता रहा हूं। लेकिन, इस छूटने में भी कहीं कुछ बचा रह जाता है। जैसे यह डायरी और उसमें बचा हुआ स्नेह।

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