‘हिचकी’ फिल्म की एक अच्छी समीक्षा लिखी है दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरु कॉलेज में प्राध्यापक और लेखक मनोज मल्हार ने- मॉडरेटर
‘हिचकी’ ब्रैड कोहेन की पुस्तक ‘फ्रंट ऑफ़ द क्लास : हाउ टूरेट मेड मी द टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित और सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा द्वारा निर्देशित बॉलीवुड फिल्म है. इस पुस्तक पर हॉलीवुड भी 2008 में ‘फ्रंट ऑफ़ द क्लास’ नाम से फिल्म बना चुका है. इसमें केंद्रीय चरित्र पुरुष था. ‘हिचकी’ के पटकथा लेखकों की टीम ने भारतीय परिस्थितियों में इसे विश्वसनीय तरीके से ढाला है. पुस्तक को फिल्म के रूप में विकसित करने की यह प्रवृत्ति स्वागत योग्य है. यह बॉलीवुड के समृद्ध और सृजनात्मक होने की अच्छी कोशिश भी है.
फिल्म को टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित नैना मल्होत्रा के एक शिक्षक बनने के संघर्ष के रूप में प्रचारित किया है. रूपांतरकारों ने नैना मल्होत्रा के चरित्र के नायकत्व को उभारने के लिए दो बड़ी समस्याओं को आपस में जोड़ा है ; एक शिक्षक के पढ़ाने और विद्यार्थियों के साथ व्यवहार करने की शैली, और , सामजिक- आर्थिक भिन्नता की हकीकत. एक प्रतिष्ठित विद्यालय समृद्ध वर्ग से आने वालों बच्चों का विद्यालय है, जहां ‘शिक्षा का अधिकार’ के दवाब में 9 एफ सेक्शन बनाया जाता है. इनमें ऐसे बच्चे हैं जो झोपड़पट्टी में रहते हैं, साईकिल का पंक्चर ठीक करते है, सब्जी का ठेला लगते हैं , या इसी तरह के काम करते हैं. इन बच्चों को पूरे स्कूल में हिकारत और अवांछित रूप में देखा जाता है , जो स्कूल के नाम और ख़ूबसूरती और प्रतिष्ठा पर कलंक की तरह हैं. इन ‘इकोनोमिकली वीकर सेक्शन’ के विद्यार्थियों को स्कूल की कई सारी सुविधाएं प्रयोग की इज़ाज़त नहीं. निर्देशक ने इस पहलू को ख़ूबसूरती से दिखाया है. कैमरा स्कूल की चकाचौंध से निकल कर झोपड़पट्टी में जाता है , जहां पीने के पानी के इंतज़ार में पीपे और बर्तनों की बहुत लम्बी लाइन लगी है. जब पानी की सप्लाई शुरू होती है तो धक्कामुक्की और वहशियों की तरह दौड़ भाग का दृश्य. बस्ती में बिजली कभी भी कट जाती है . वहां की स्त्रियों की आँखों में नैना मल्होत्रा एक उम्मीद की तरह उभरती है.
अवसर मिलने पर नैना मल्होत्रा भिन्न अध्यापकीय पद्धति का प्रयोग करती है. वो न केवल क्लास रूम से बाहर निकल कर मैदान में पढ़ाती है , बल्कि गणित, भौतिकी आदि को विषयों को समझाने के लिए क्लास में सभी विद्यार्थियों के पास उबले अंडे भी उछाल सकती है. उसे अपनी अध्यापकीय पद्धति पर भरोसा है और वो साथी शिक्षक से शर्त भी लगाती है और प्रिंसिपल को भरोसा भी दिलाती है. उसके पास यह विश्वास इसलिए है क्योंकि पढ़ाना उसके लिए एक काम नहीं , अपितु पैशन है. वह विद्यार्थियों के साथ सुन्दर तालमेल बनाती है , क्योंकि वो यह मानती है कि बिना अच्छे आपसी परिचय के सीखने – सिखाने की स्थिति नहीं बन सकती. नैना मल्होत्रा की दिलचस्प थ्योरी है – असफल विद्यार्थी नहीं होते, बल्कि शिक्षक होते हैं. अच्छे शिक्षक केवल एक पाठ को ही नहीं आसान बनाकर समझाते हैं, वरन एक एक्टिविस्ट की तरह होते हैं. वे सुंदर और आत्मविश्वास से पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते हैं और विद्यार्थियों में ऊर्जा सृजित कर सकते है. रूपांतरकारों ने इस पहलू को गहराई से पकड़ा है और भाषण शैली में न दिखाकर कार्य के रूप में दिखाया है. नैना मल्होत्रा के चरित्र को इन दोनों तत्वों ने गहराई, स्वीकृति और नायकत्व प्रदान किया है.
टाइमिंग भी बहुत महत्वपूर्ण हैं फिल्म द्वारा प्रस्तुत इन मुद्दों पर बात करने के लिए. कॉर्पोरेट सेक्टर से निर्देशित शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्माता अब कक्षाहीन शिक्षा के मॉडल को प्रस्तुत करने लगे हैं. मेरे ख्याल से फिल्म इस विचार की भरपूर मुखालिफत करती है. विद्यार्थी और शिक्षक के आपसी संबंधों के अलावा वातावरण भी महत्वपूर्ण है. स्कूल कॉलेज के भवन, गलियारे, दीवारें, इतिहास के विशिष्ट व्यक्तियों की मूर्तियाँ, दीवार पर टंगे चित्र बिना कुछ कहे , निशब्द रहकर विद्यार्थियों को चुपके चुपके ही आदर्श, इतिहास,विचार बता देते हैं , और विद्यार्थी बिना प्रयत्न के ही उन्हें मानसिक रूप से ग्रहण कर लेते हैं. सरकारें जब ऑटोनोमी की शक्ल में फण्ड काटने और फीस बढाने की बात करती है, तो फिल्म का स्पष्ट पक्ष है कि समाज का कौन सा वर्ग प्रभावित होने वाला है, किसके हाथों से शिक्षा फिसल जाने वाली है.
चूंकि यह एक मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म है , अतः निर्देशक ने साहित्यिक तत्वों को बेहद कम कर किया है, हालांकि फिल्म एक साहित्यिक कृति पर आधारित है. समस्याओं की गहराई और विचारधारात्मक बहस में न उलझ कर प्रस्तुतीकरण को बॉलीवुड के लटके झटके के अनुसार ही रखा है. और इसमें कोई शक नहीं कि निर्देशक अपने उद्देश्य में सफल है – मनोरंजन के साथ समस्यायों को हलके फुल्के अंदाज़ में दर्शकों के साथ तादात्म्य स्थापित करने में. फिल्म के कुछ बिम्ब अपनी छाप छोड़ते हैं : जब 15 हथेलियाँ एक साथ ध्रुवतारे को मापने की कोशिश करते हैं , या फिर, एक साथ 10 या 12 कागज़ के जहाज़ उड़ाने भरते है. खूबसूरत दृश्य है. इन दृश्यों को देखते हुए शिक्षण पद्धति पर बनी मशहूर फिल्म ‘डेड पोएट सोसाइटी’ के दृश्यों की याद हो आती है. सिनेमैटोग्राफर को बधाई. बाकी रानी मुखर्जी की अच्छी वापसी तो है ही. साथ ही विद्यार्थी- शिक्षक के मध्य के दिलचस्प तकरारें, समूह की मानसिकता और व्यवहार भी दर्शायी गई है.
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मनोज मल्हार
कमला नेहरु कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय
8826882745
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