इतिहासकार सदन झा सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़, सूरत में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। राष्ट्रीय झंडे पर उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया है और उनके कई शोध लेख देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं।
सदन कभी-कभार कहानियाँ भी लिखते हैं और कुछ पत्रिकाओं में उनकी कुछ कहानियाँ पहले भी छप चुकी हैं। जानकीपुल पर हम इस बार उनकी कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ आपके लिए लाए हैं। यह उनके द्वारा लिखी गई एक शृंखला का हिस्सा है- अमृत रंजन
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I
राजधानी
1
2033 ई. राजस्थान में राष्ट्रीय राजमार्ग से बीस किलोमीटर दक्षिण रात के सवा दो बजे उन दोनों की सांसें बहुत तेज चल रही थीं। फिर, उस एसी टेंट में सन्नाटा पसर गया। दोनों ही को गहरी नींद ने अपनी आगोश में ले लिया।
यह सौ-सवा सौ किलोमीटर का टुकड़ा जो कभी निरापद और वीरान हुआ करता था, यहां रोड और हॉरर फिल्मों की प्लॉट तलाशते हुए हिंदी सिनेमा वाले कभी आया करते थे। यह जगह पिछले पांच सालों से ऐसे अनगिनत एसी तंबूओं और उनमें निढाल हुए इंजीनियरों, प्लानरों, ऑर्किटेक्ट, ब्यूरोक्रेट और खूबसूरत मर्दाने सेफ से अटा पड़ा है।
2
निशा अभी-अभी तो मसूरी से निकली है और सीधे पीएमओ से उसे यहां भेज दिया गया, स्पेशल असाइनमेंट पर। निशीथ अभी-अभी तो स्विट्जरलैंड से हॉटल मैनेजमेंट का कोर्स कर लौटा और लीला ग्रुप ने अपने सेटअप की जिम्मेदारी देते हुए यहां भेज दिया। दस सालों में कितना कुछ बदल जाता है। पिछली बार, शारदापुर में छोटकी पीसिया के बहिनोइत की शादी में एक क्षण देखा था। हाय-हेलो होकर रह गया था। नंबर और ईमेल एक्सचेंज भी नहीं कर पाया। कई दफे फेसबुक पेज पर जाकर भी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेज पाया। आखिर दूसरे तरफ से भी तो पहल हो सकती थी। पहल करने के मामले में निशी भी पुराने ख्याल की ही थी। कोल्ड फीट डेवलप कर लेती। और… उस भागम भाग माहौल में दोनों के पास यदि कुछ बचा रह गया तो महज एक जोड़ी नाम और दो जोड़ी आंखें। और आज वही नाम, वही आँखे एक दूसरे से मिल गयी। अब सब कुछ शांत।
टेंट में आईपैड पर बहुत हल्के वॉल्यूम में अमजद अली का सरोद बजता रहा। निशी की यह अजीब सी आदत जो ठहरी, जहां जाती उसके ठीक उलट संगीत ले जाती। पहाड़ों पर डेजर्ट साउंडस्केप के साथ घूमती और रेगिस्तान में कश्मीर को तलाशा करती। जल तरंग और सरोद।
3
टेंट कुछ ऊंचाई पर था। इंजीनियरों और आर्किटेक्टों से भी थोड़ा हटकर। सामने नीचे सौ-सवा सौ किलोमीटर का नजारा। नियॉन रोशनी में नहाई रात अब तनहा तो न थी। सामने जहाँ तक नजर जाती रोशनी ही रोशनी। दैत्याकार मशीन, सीमेंट, लोहे, प्रीफैब्रिकैटिड स्लैव, क्रेन, और असंख्य चीनी और बिहारी मजदूर। उधर, दूर इन मजदूरों की बस्ती से आती बिरहा की आवाज सरोद की धुन में मिल गयी थी।
4
एक सौ साल पहले कुछ ऐसा ही तो मंजर रहा होगा, जब दिल्ली की रायसीना की पहाड़ियां सज कर तैयार हुई होंगी।
समय बदला, लोग बदले, तकनीक बदली। वही दिल्ली रहने लायक न रही। हवा और पानी भला कहां जात-पांत, पैसा, ओहदा माने। पहले-पहले तो गरीब-गुरबे अस्पताल जाते मिले। नेता, अफसर और प्रोफेसर निश्चिंत सोते रहे।
पर, जब हवा ही जहरीली हो तो किसकी सुने?
फिर, मीटिंग बुलायी गई।
5
रातों-रात अफसरों को जगाया गया। सबसे कंजरवेटिव अफसरों और सबसे रैडिकल प्लानरों को सुबह पौने सात बजे तक हॉल में आ जाना था। डिफेंस, रियल स्टेट, पर्यावरण साइंटिस्ट, मिट्टी के जानकार, पानी के एक्सपर्ट, मरीन बॉयोलोजिस्ट सभी को लाने का जिम्मा अलग-अलग सौंप दिया गया था।
उद्योगपतियों और मीडिया हॉउस के पॉइंट मेन को अपने दरवाजे पर पौने पाँच बजे तैयार खड़ा रहना था जहाँ से उन्हें सबसे नजदीकी सैन्य हवाई अड्डे तक रोड से या हेलीकॉप्टर से ले जाने का प्रबंध कर दिया गया था। यहाँ तक कि ट्रैफिक कमिश्नरों को इत्तला दे दी गयी थी कि अपने महकमे के सबसे चुस्त अधिकारियों के साथ वे ऐसे खास ऐडरेसेज और हेलीपैड या एयर बेस के बीच के यातायात पर खुद निगरानी रखें। पर, किसी और से इसका जिक्र न करने की सख्त हिदायत भी साथ ही दी गयी थी। पौने सात बजने से ढ़ाई मिनट पहले उस विशालकाय मीटिंग हॉल की सभी मेज पर हर कुर्सी भर चुकी थी। सभी के सामने एक और मात्र एक सफेद कागज का टुकड़ा और एक कलम रखा था। पीरियड।
लेकिन एक ही पेज क्यों, लेटर पैड क्यों नहीं? नजरें और चेहरे खाली कुर्सी पर टिकी थी जो उस हैक्सागोनल हॉल के किसी भी कोने से साफ दिखता था। और जिस कुर्सी से उस हॉल की हर कुर्सी पर बैठे आंखो की रंगत को पहचाना जा सकता था। यह एक अदभुत मीटिंग थी। आज देश की सबसे विकट समस्या का हल ढूंढ़ना था। हवा के बारे में बातें करनी थी, जो बिगड़ चुकी थी। आज राजधानी को बदलने की योजना तय होनी थी। आज निशा, निशीथ और उनके जैसे असंख्य की जिंदगी की दिशा तय होनी थी।
आज ही के मीटिंग में रेगिस्तान की जमीन पर सरोद का बिरहा से मिलन को तय होना था। आज ही तो तय होना था कि निशीथ की पीठ पर दायें से थोड़ा हटकर नाखून की एक इबारत हमेशा के लिए रह जाएगी।
एक खुरदरे टीस की तरह…
II
पौने पांच सीढ़ियों की धूप
दिसंबर महीने की नर्म मुलायम धूप पौने पांच सीढ़ियां चढ़ उसकी देह से अठखेलियां करने की जुगत में थी। मानो इजाज़त मांग रही हो।
सामने खाली सा मैदान पसरा था और उस पार फूस के बेतरतीब छप्पर वाला बेचारा सा अकेला घर। छप्पर के पीछे आँवले की लंबी साख जिनपर इस दफे भी भरपूर आँवले फले हुए थे। सुबह मार्निंग वॉक पर जाते गाहे-बगाहे लोग-बाग पेड़ को हिला देते, चटनी और मुरब्बे का इंतजाम हो जाता।
शहर की सीमा पर रहने का यह सुख तो है ही। गौरैयों का एक जोड़ा फूस की छप्पर से तिनका-तिनका जोड़ बगल के खाली फ्लैट की बॉलकनी में अपना बसेरा बना रही थी, बोगेनबेलिया की कुछ डालें इधर से सीमा लांघ उस बॉलकनी में आराम से छतर गयी थीं। उन्हीं के पीछे घोसले की तैयारी हो रही थी। उसकी नजर लौट आयी।
धूप का एक कतरा इरा के कमर तक पहुंच चुका था। मन हुआ हल्की उंगलियों से छू ले। “अच्छा इरा, यहाँ इस तरफ तुम्हारी बाँयी कमर पर जो तिल था, वह कहाँ गया?”
फेसबुक पर से नजर हटाए बिना ही इमली की इतराहत घोलती आवाज में इरा ने जवाब दिया: “ ओह, अच्छा अभी तो यहीं था। कहीं तुम्हीं ने चुरा तो नहीं ली, मेरे कमर का तिल? अब समझ में आया कि यही फिसल कर तुम्हारे कांधे का तिल बन गया है।”
धूप का कतरा अब भी वहीं था। पर मन कहीं और ही रेंगने लगा था।
III
रीगल, दरभंगा
नजारथ (Nazareth) या नसरथ उत्तरी इस्राइल का सबसे बड़ा शहर है, जिसे इस्राइल की अरब राजधानी भी मानी जाती है। न्यू टेस्टामेंट के अनुसार इसी शहर में जीसस क्राइस्ट का बचपन गुजरा। इसे मैरी का घर और ईसा मसीह का जन्म-स्थल भी माना गया है। यह संभव है कि इन पवित्र कारणों से बाद की सदियों में नजारथ एक पवित्र टाइटल में बदल गया हो। आखिर पुरानी अरबी और कबीलाई परंपरा में स्थान और क्षेत्रीयता का नाम से सीधा रिश्ता तो बनता ही था और ईसा मसीह को जिसे आफ नजारथ के नाम से भी जाना जाता है। यह भी संभव है कि यहाँ से माइग्रेट करने वाले परिवारों ने नजारथ को एक टाइटल के रूप में अपने साथ रख लिया हो।
जॉन नजारथ एक ऐसा ही नाम है। गोवा के जॉन नजारथ के हाथों में जादू था। जो भी इनके हाथ का बना एक बार चख लेता, इनका दीवाना हो जाता। बिहार के मुख्यमंत्री सच्चिदानंद सिन्हा इस सूची में शामिल थे। जॉन इनके यहाँ प्रधान कुक हो गए। सच्चिदा बाबू के यहाँ दरभंगा महाराज का आना-जाना रहता ही होगा और वहीं डिनर टेबिल पर किसी रात महाराज ने जॉन के खाने की तारीफ भी की हो, और सच्चिदा बाबू से जॉन को दरभंगा के लिये माँग भी लिया हो। आखिर आलीशान यूरोपीयन गेस्ट हॉउस के लिए उन्हें एक योग्य कुक की तलाश भी तो थी ही। और जॉन नजारथ महाराज के साथ दरभंगा आ गए, यूरोपीयन गेस्ट हाउस।
समय गुजरा, महाराज भी गुजर गए। यूरोपीयन गेस्ट की हालत बदली और समय क्रम में अन्य धरोहरों के साथ यह गेस्ट हाउस भी यूनिवर्सिटी का हिस्सा हो गया। जो हुनरमंद थे उन्होंने बदलते समय और शहर का रुख किया। जो स्वाद महज महाराज, मुख्यमंत्री और यूरोपीय मेहमानों तक सीमित था अब शहर का हिस्सा हुआ। जॉन ने उत्तर भारत के पहले लाइसेंसी पब की शुरुआत टावर चौक से सटे लालबाग में की। यहाँ उम्दा ड्रिंक के साथ लज़ीज खाना और छोटा सा बेकरी भी रखा। जिसे जॉन और उनकी मेहनती एवं जुझारु पत्नी चलाया करते। नाम रखा ‘रीगल’। इसके चिमनी से निकलने वाली खुश्बू को फैलते देर न लगी। लोग चोरी छुपे वहाँ ड्रिंक्स लेने जाते, नव मध्य वर्ग अपने दोस्तों या नवविवाहिता के साथ बहुत हिम्मत दिखाते हुए रीगल के कटलेट्स और मुर्गा या अंडा करी का लुत्फ उठाने जाते। प्रगतिशील परिवार जो बाहर डिनर लेने की हद तक रैडिकल नहीं हो पाए थे, उन हमारे जैसे घरों में रीगल नर्म और ताजे पाँव रोटी तथा मिट्टी की हाँडियों में आने वाले अंडा करी और लज़ीज मुर्गा के लिए जाना जाता।
IV
ब्रिटिश लाइब्रेरी
देखो तुम्हारा नाम नताशा, जूलिया, जेन, लूसी, मार्ग्रेट या फिर ऐसा ही कोई ब्रिटिश नाम होना चाहिए। प्रॉपर ब्रिटिश। नहीं, मुझे गलत नहीं समझो। मुझे तुम्हारा नाम बहुत अच्छा लगता है। पर शायद मैं जो कहना चाह रहा हूँ, वह यह कि तुम्हें देख कर फिर तुम्हारा नाम जानकर दोनों से एक ही छवि नहीं बन पाती। किसी बहुत प्लेज़ेंट सरप्राइज़ सा लगता है तुम्हारा नाम सुनना। जूनी।
हम लोग उसी पुरानी जगह पर बैठे हैं। सेंट पैंक्रियास, ब्रिटिश लाइब्रेरी। मेजनाइन फ्लोर। बैंच पर। सामने चार्ल्स डिकेंस की रहस्यमय और अंधविश्वासों की दुनिया पर पिछले पखवाड़े से एक्जीविशन चल रही है। दोपहर के करीब दो या ढाई बज रहे होंगे। समय का अहसास ही कुंद सा हो गया है, जबसे जूनी से मुलाकात हुई। यहीं इसी जगह, इसी राहदरी में। इसी बैंच पर। यही एक्जीविशन को देखते हुए हम मिले थे। मिले क्या थे? हमारी बातचीत शुरू हुई थी। पहल, जाहिर सी बात है, उसी ने की थी। नहीं तो कहाँ हो पाता मुझसे बात करना! पर जब बातों का सिलसिला निकल पड़ा, तो कौन कहां रुकने वाला था। मैं तो सोचता कि मैथिल ब्राह्मण से गप्पबाजी में कौन टिक पाएगा। पर यह ब्रिटिश लड़की तो मुझे मात दे रही थी। या फिर, कह सकते हैं कि उसकी बातें सुनना, चुपचाप अपने कानों के सहारे रह जाना भाने लगा है।
खैर, उसकी प्रतिक्रिया स्वभाविक रुप से त्वरित आयी।
” ये प्रॉपर ब्रिटिश क्या होता है? मुझे नहीं लगता था कि तुम ऐसा शुद्धतावादी नजरिया रखते होगे। अभी भी मेरा वही विश्वास है तुम्हें लेकर। पर तुम मुझे ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से चौंका देते हो। और मैं तुम्हारी तरह प्लेज़ेंटली सरप्राइज्ड नहीं हूँ। यह निराशाजनित ही है। या फिर उसके सीमांत पर कहीं। और ॊफिर, तुम तो इतिहास के हो, प्रैक्टिशनर(वो हमेशा यही कहती, शोधकर्ता या छात्र कहना उसे नहीं सुहाता; हाँ जिस दिन चुहल के मूड में होती तो प्रोफेसर कहती और इठलाकर अपनी पोनी टेल संवारने लगती।”
” देखो जूनी, मेरा दिमाग हमेशा तर्क और ज्ञान की भाषा नहीं बोलता। पता नहीं क्यों मेरे जेहन में जूनी से साउथ ईस्ट एशियन छवि या फिर स्पैनिश लैटिन अमेरिकन अहसास होता है। इसकी कोई वजह भी नहीं है। कम से कम मुझे इसका इल्म नहीं है। पर ऐसा ही है मेरे साथ। फिर लंदन और ब्रिटिश समाज के बारे में जानता भी तो कुछ नहीं।”
“हुम्म! ये जो तर्क की अपूर्णता और जेहन की भाषा की बात जो कही तुमने वह बेहद ठहरी हुई बात है। ” ओठों के किनारे पर आती हुई बहुत सुकून भरी मुस्कुराहट को संयत करते उसने बात आगे बढ़ायी। ” एक राज की बात बताती हूँ, ब्रिटिश लड़की को अपने नाम पर चर्चा लंबी करने में बेहद गुदगुदी सा अहसास होता है। शायद तुम्हें पता है। पर छोड़ो अभी। हमलोग नाम पर फिर कभी जरूर लौट कर समय गुजारेंगे। अभी जो ये तुमने बात से बात निकाल दी तर्क की दुनिया.. ज्ञान और दैनिक व्यवहार के बीच के फासले …इसका सत्य?
अपनी आँखें सामने चार्ल्स डिकेंस के रहस्यमय संसार के एक एक्जीविट पर ही टिकाये उसने कहा:” जानते हो प्रोफेसर, सत्य को कहाँ टिका पाओगे? ”
जिस अंदाज में सवाल आया यह समझना मुश्किल हो गया कि उसका अभिप्राय मेरी बातों से है या फिर चार्ल्स डिकेंस की इस रहस्यमय दुनिया से जिसकी जमीन सामने चल रही एक्जीविशन तैयार कर रही दिखती है।
” सत्य…सत्य का तर्क से सीधा कोई नाता नहीं। यह तो विज्ञान ने अपनी सहूलियत के लिये तर्क की इमारत खड़ी कर रखी है।
जिस अनुभव पर आपका विश्वास हो और जिस पर आप दूसरों को विश्वास दिला पाएं वही सत्य है।”
” तो बात दरअसल विश्वास की है।” कहते हुए उसने एक गहरा नि:श्वास छोड़ा। पतले गले में बहुत हल्की सी रेशमी हलचल सी उठी हो मानो। दाएं कान पर आ गयी लटों को उंगलियों के पोरों से समेटते हुए पीछे लेते, चली गयी जूनी।
चित्र साभार – Sitting on History, 1995, Bill Woodrow, British Library, London
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