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बच्चों को न सुनाने लायक एक बालकथा:  मृणाल पाण्डे

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जानी-मानी लेखिका मृणाल पांडे पारम्परिक कथा-साँचों में आधुनिक प्रयोग करती रही हैं। इस बार उन्होंने एक पारम्परिक बाल कथा को नए बोध के साथ लिखा है और महामारी, समकालीन राजनीति पर चुभती हुई व्यंग्य कथा बन गई है। एक पाठक के तौर पर यही कह सकता हूँ कि महामारी काल में फ़िलहाल इससे अच्छी कथा नहीं पढ़ी। परम्परा कथा को साझा करने की रही है तो आपको पढ़ने के लिए साजा कर रहा हूँ- जानकी पुल।

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एक गाँव में एक गरीब विधवा बुढिया और उसका इकलौता बेटा रहते थे। बुढिया कुछ घरों में कूटना पीसना करती, बेटा खेतों में मजूरी करता था। किसी तरह चल रहा था। फिर अचानक गांव में महामारी फैल गई और लोग तिलचट्टों की तरह मरने लगे। यह देख कर बुढिया ने रातों रात घर में जितना आटा, तेल और गुड़ था उससे सात पुए बनाये। फिर एक पुराना लोटा-डोर और पुओं की थैली बेटे को दे कर उससे कहा, ‘तू रात के रात बाहर गांव कहीं चला जा। बीमारी से बच जायेगा। मेरी फिकर मत करना, मेरे तो दिन अब वैसे भी कट ही गये हैं। महामारी मिटने तक कुछ कमा धमा कर वापिस लौटा, तो फिर मिलेंगे वरना तेरा राम राखा।’

बेटा थैली लेकर पूरब की तरफ निकल गया। रात भर चलते चलते सुबह हुई तो उसने सामने एक साफ सुथरा गांव देखा। गांव के बाहर काँटों की बाड़ थी और एक तख्ती पर लिखा था, ’किरपया भित्तर ना आयें। यह महामारीमुक्त क्षेत्र है। यहाँ खुले में शौच जाना या थूकना मना है। बहुक्म ग्राम मुखिया।’

गांव बाहिर फारिग हो कर भूखा प्यासा लडका जब बाड़ के पास फिर पहुंचा तो क्या देखता है कि मुंह पर गमछा बाँधे कुछ लाठीधारी बाहर आते हैं। ऊंची आवाज़ में उनका मुखिया बोला,‘तू हो न हो, किसी महामारी वाले गांव से भाग के इधर आया है। हम अब तक महामारी से बचे हुए हैं, सो हम किसी भी बाहरिये को अपने गांव में घुसने नहीं देंगे, ये जानियो।’

लडके का मुंह लटक गया। लोटा डोर दिखा के बोला, ‘कम से कम लोटा भर पानी ही अपने कुएं से भर लेने दो भले लोगो। पल दो पल बाहर ही खा-सुस्ता कर कहीं और को निकल जाऊंगा।‘

‘नहीं’, लाठीवालों ने कहा, ‘हम अपने कुएं में तुम्हारी छूत नहीं लगने देंगे। उधर गांव से बाहर दाहिनी तरफ दस बीस कदम पर तुमको एक भुतहा कुआं दिखेगा उससे पानी वानी ले लो या डूब मरो, पर यहाँ से चलते बनो, बस।’

लड़का मुंह लटकाये चला। कुछ ही कदम चलने पर उसको एक उजाड़ इलाके में एक कुआं दिखा। उसने लोटा भर पानी खींचा और कुएं की जगत पर बैठ कर थैली में हाथ डाल कर खुद से बुदबुदाने लगा: ‘इतनी जोर की भूख लगी है, पर ये तो सात ही हैं। एक दो खाऊं कि चार पांच? कि सबको एक साथ खा जाऊं?’

अब अचानक कुएं से सात मीठी जनानी आवाज़ें आईं , ‘ऐ लड़के हमको मती खाइयो, तुम जो माँगोगे हम तुमको दे देंगी।’

लड़का चक्कर में, कि भैया ये क्या माया हैगी? पर चतुर था। अपनी घबराहट छिपा कर नरमाई से बोला, ‘अरी मैं तो बस एक भूखा प्यासा महामारी से पनाह खोजता इंसान हूं। तुम जनी हो कौन?’

देखता क्या है उसके सामने हाथ जोडे सात सतरंगी परियां एक एक कर कुंए से बाहर निकल रही हैं। उसको देख कर परियाँ पहले एक आंख से हंसीं, फिर दूसरी से रोईं। पूछने पर उनकी मुखिया लाल परी कहने लगी कि हम हम यह देख कर हंसीं कि महामारी के बीच भी कुछ इंसान बचे हुए हैं। रोईं इसलिये कि बाहर बाहर से साफ सुथरा ये गांव ज़ालिम डकैतों का बासा है। घर परिवार और खेती के हज़ार झंझटों को निबटाने को यहां के लोग बस फसल कटाई के समय आते जाते गरीब परदेसियों से जम कर बेगारी लेते हैं, और काम निबटा नहीं, कि झोली भर अनाज देकर उनको बिदा कर देते हैं। बसने नहीं देते। अमीरों को आते देखा, तो उनको बातों में बरगला कर लूट लेते हैं, फिर उनकी देही गन्नों के खेत में। इस महामारी के ज़माने में तो वे किसी परदेसी को घुसने नहीं देंगे। ये लोग खूब पैसेवाले हैं ज़रूर, और लठैती में भी अव्वल हैं, लेकिन सब अपने अपने बच्चों और अक्सर कड़वा बोलनेवाली घर की औरतों से परेशान हैं और जब तब उनको भी पीट देते हैं। हम परियाँ आज़ाद हैं। हवा हमारा घर है, अंबर हमारा बिछौना। मनभाया अच्छा पहिरती ओढती हैं, मन न हो तो किसी के हाथ नहीं आतीं। इसलिये हम किसीको फूटी आंखों नहीं भातीं। अपने सर के बहुत ऊपर उजले खुले आकाश में हमें डैने फैलाये उड़ता देख कर इस गांव के मरदुए खूब चिल्ला चिल्ला कर हमारी तरफ ताने फेंकते हैं। अभी हमसे बहुत उड़ी-उड़ी फिरती हो, पर हम भी मरद बच्चे हैं, जिस दिन नीचे उतरीं तुमको…’, फिर वे हाथ से इशारे करते हैं। घरों दालानों में चावल या जुएं बीनती, या खेतों में निराई गुड़ाई करती इनकी औरतें भी अपने मरदों को वाही तबाही बोलते सुन कर मुंह बिचका कर आपस में हमको कुटनी, मर्दखोर और जाने क्या कुछ नहीं कहने लगतीं। यहाँ तक कि इनके बच्चे भी ताली पीट कर हमको बाँझ निरबंसिया जादूगरनियाँ कह कर हमारे नीचे दूर तक भागते आते हैं।’

हरी परी ने बताया कि परियों के कुंए में छुपे रहने का राज़ ये था कि हर सौ बरसों में उनके पुराने पंख झड़ जाते और उनकी जगह नयेवाले निकल आते थे। उनके दोबारा उगने के इंतज़ार में वे इस कुएं में छुपा करती थीं। उनको पता था इधर गांव के लाठीवाले लोग भी भुतहा कुएं से डरते हैं।

यह सब सुन कर लडका हंस पडा। बोला,‘चलो जो हुआ सो हुआ। लो मेरी मां के पकाये पुए खाओ और मुझे कुछ ऐसा हुनर बताओ कि इस गाँव में बसना मिल जाये ताकि मेरी गरीबी मिटे और महामारी का असर मुझ पर ना होवे।’

लाल परी लडके से बोली, हम परियाँ हैं। हम हवा खाती हैं और प्यार पर ज़िंदा रहती हैं।तुमसे चार मीठी बातें सुन के जी जुड़ा गया। सो चलो हम तुमको यह दो जुडवां शंख देती हैं। एक करामाती शंख है जो कि मालिक को मनचाही चीज़ें देता है। दूसरा ढपोरशंख है, जो बहुत लच्छेदार बोली बोलता है, बहुत देने का शोर मचाता है पर वादे कभी पूरा नहीं करता। तुम इनके बूते गाँव में घुसने का जुगाड़ कर लो। हाँ अभी भोले हो। सो यह बता दें कि देर सबेर इस गांव के लोग तुम्हारा करामाती शंख तुमसे छीनने की कोशिश ज़रूर करेंगे। इसलिये जब कभी सोओ या बाहर जाओ, तो करामाती शंख को तो छुपा के साथ रखना। बस ढपोरशंख को बाहर रख देना ताकि चोर लें तो उसी को ले भागें। उनके वास्ते यह रही जादुई रस्सी और डंडा। इनको हुकुम देते ही वे चोर को बाँध कर उसकी अच्छे से कुटम्मस कर तुम्हारा माल तुमको वापिस दिला देंगे।पर यह रस्सी डंडा एक ही बार कारगर होंगे।काम हो गया तो गायब हो जाएगी।’ हम तो कल भोर भये उड़ जायेंगी। तुम अपना खयाल रखना।’

इतना कह कर परियाँ गायब हो गईं।

लड़के ने पहले जम कर पुए खाये, पानी पिया फिर सोच विचार कर करामाती शंख से कहा, ‘यार मुझे किसी सन्यासी का बाना दिला दे।‘ उसका कहना था कि तुरत भगवा कपड़े, रुद्राक्ष की माला, रोली और भभूति का दोना हाज़िर। अब लडके ने क्या किया? उसने सन्यासी का भेस धरा, तिलक तिरपुंड लगाया, फिर झोले में सब सामान छिपा कर, ‘अलख निरंजन बम शंकर’ कहता हुआ गांव की तरफ वापिस चला। सन्यासी को आते देख कर लाठी लहराते मुंह पर गमछा बाँधे लोग फिर बाहर आये। पर बाबा जी को देखकर ठिठके फिर मुखिया जी से पूछा कि इसे आने दें कि नहीं? स्याणे कहते हैं ‘राजा जोगी अगिन जल इनकी टेढी रीत,’ उनको उकसाओ मती। क्या पता शाप ऊप न दे दें? आखिरकार हाथ जोड़ कर मुखिया बोला, ‘बाबा हम गरीब इंसान हैं। फिर भी आपको दच्छिना में खाय भरे को चावल नून तेल तो दे देंगे। पर आप उसे बाहर ही खा पका लीजिये। महामारी के डर से हमने गाँव का रास्ता जो है सो बंद कर रखा है।’

बाबा बने लड़के ने सोचा कुछ करामात दिखानी ही होगी ताकि गाँव में ठिकाना मिल जाये। उसने झोले में हाथ डाल कर करामाती शंख निकाला और उससे कहा, ‘ला रे एक बोरी चावल और सौ सोने के सिक्के।’

तुरत फुरत सब हाज़िर! गांव वालों की आंखें फटी की फटी!

मुस्कुरा कर बाबा बोले, ‘ मुखिया जी, ये रहा तुम्हारा किराया। रमता जोगी और बारिश का पानी तुम्हारे राजा के लंबरदार की तरह लगान वसूली नहीं करने नहीं आता।दान की एवज में भी कुछ देकर ही जाता है।’

अब कहो!

मोटा असामी देख कर मुखिया जी ने तुरत पैंतरा बदला और बाबा के चरण छू कर वे सिक्के तो सीधे अपनी ‘ग्राम परवाह गुल्लक’ के हवाले किये, फिर चावल की बोरी अपने साथियों को सारे गाँव में बांटने और बाबे की जयकार के नारे लगवाने का हुकुम देकर बडे आदर से बाबा को गांव के भीतर ले चले।

गाँव की तरफ से मुखिया जी ने खुद अपने घर के एक कमरे में बाबा जी को रखा और उनको भरपेट भोजन के कराने और उनसे करामाती शंख के किस्से सुन कर वाह वाह करते हुए सब सोने चले गये। बाबा ने करामाती शंख तो झोले में छुपा दिया और ढपोरशंख को बगल में रख कर लेट गये। जैसी कि उनको उम्मीद थी, जल्द ही अंधेरे में उनको बगल की कोठरी से मुखिया और उसके बेटों की फुसफुसाहट सुनाई देने लगी। मुखिया के घरवाले उसके सोते हुए उसका वह करामाती शंख उड़ा  लेने का प्लान बना रहे थे। बाबा ने मुस्कुरा के चादर ओढ ली और ज़ोर ज़ोर से नकली खर्राटे निकालने लगे।

‘सो गया साला’ मुखिया ने बाबा को सोया जान कर कहा बेटों से कहा।’ महामारी के कारण सौदागरों का आना जाना ही नहीं बाहर गाँव जाकर  डाका डालना भी बंद है। पर हरामज़ादे राजा के कारिंदों ने फिर भी नाक में दम कर रखा है कि राजाजी की ‘स्वस्थ ग्राम योजना’ के नाम पर नया लगान दो। इसीलिये हम लोगों ने अपनी अलग ‘ग्राम परवाह गुल्लक’ बना ली है। बाबा को लूटने के बाद इसे हमलोग ठिकाने लगा देंगे। फिर महामारी के खतम होते ही जादुई शंख से भरपूर दान दहेज निकलवा कर सबसे पहले कोई भी बढिया लड़का मिले तो सबसे पहले तुम्हारी भेंगी बहन का ब्याह कर दूंगा, फिर आगे सोचेंगे। क्यों बहुरिया?’

‘राजा की सुंदर ज़िद्दी लडकी की तरह हमारी बेटी नांय है जो किसी पंडित दूल्हे के इंतज़ार में कुंआरी बैठी रहेगी।’ मुखिया की बीबी बोली। इसके कुछ देर बाद लडके बाबा के कमरे में चोर कदमों से घुसे। कुछ देर वे पास खड़े हो कर थाह लेते रहे कि बाबा सोया है कि जागता है। पर बाबा ने और ज़ोर से खर्राटे मारने चालू कर दिये तो वे उनके पास रखा ढपोरशंख लेकर चल दिये। उनका जाना था, कि बाबा जी ने करामाती रस्सी और डंडे को कहा, ‘लगा कुदक्का रस्सी डंडा, फोड़ दे इन सालों का मुंडा।’

फिर क्या था? मुखिया के सारे परिवार को रस्सी ने जा बाँधा और डंडा उनका भुरकुस बनाने लगा। ‘हाय हाय दुहाई’ मची तो बाबा बोले, ‘भला चाहते हो, तो चुपचाप मेरा शंख वापिस करो और अपनी ग्राम परवाह योजना का गुल्लक फोड कर पैसा सबको लौटा दो। वरना अभी तो मुंडा ही फोड़ा है अब राज दरबार जाके तुम सबका भांडा फोड़ देता हूं।’

मुखिया ने पगड़ी लड़के के पैर पर रखी और बेटों से कहा कि सब माल लौटा दें और गुल्लक भी फोड़ कर सबका दिया वापिस कर दें। भांडा फूट गया तो उनकी भेंगी बहन को कोई लड़का न देगा।

इस प्रकार शंख वापिस मिल गया तो अपनी रस्सी डंडा झोली समेट कर बाबा जी चलते बने। गांव के ओझल होते ही लडके ने इस बार करामाती शंख से ज्योतिषी पंडित का भेस माँगा और एक ठो बैलगाड़ी भी। दोनों हाज़िर! गाडी में बैठ कर बढिया धोती कुर्ता पहिने पगड़ी तिलक लगाये लड़का अब चला राजा के महलों को। दरबान ने लडके से परिचय पूछा तो उसने कहा हम बहुत ऊंची जात के पंडित हैं। हमारी क्वालिफिकेशन तो बस राजा साहेब और उनके दरबारी विद्वान ही समझ सकेंगे। हमको उधर ले चलो। भीतर से आज्ञा हुई कि पंडित है तो उसे भीतर भेज दिया जाये। राजदरबार में राजा सहित सब मुंह लटकाये बैठे थे तुनुक मिजाज़ राजकुमारी से शास्त्रार्थ में देश के सारे विद्वान हार चुके थे जो नये पंडित की परीक्षा लेने को राजा की गोद में बैठी हुई थी।

राजपंडित ने कहा कि पहले कुल गोत्र प्रवर बताओ। लड़का बोला वह सब तो मेरा शंख भी बता देगा। झोली से उसने ढपोरशंख को निकाल कर कहा: ‘बता दे इनको कि मैं कौन हूं।’ यह सुनना था कि उसका ढपोरशंख चालू हो गया। लड़के के संपूर्ण ज्ञान विज्ञान की मानद पदवी प्राप्त शास्त्रज्ञ होने की बाबत ऐसे ऐसे करामाती ब्योरे दिये उसने, कि राजा और राजकुमारी लहालोट। अहा, ज्ञानी हो तो ऐसा!

कुल? लड़के से पहले ढपोरशंख बोल पड़ा, ‘अहो इनका कुल तो उच्चतम पंडितों का है, जो सुदामा की तरह धन संपत्ति के लोभ से दूर रहे। माता पिता की अकाल मृत्यु के बाद इनो ही पुरखों की स्मृति में बनवाये प्याऊ में पथिकों को पानी पिलाने का काम दिया गया। इनकी बुद्धि तथा सेवाभाव से प्रभावित हो कर इनको बचपन में कुछ रमते जोगी हिमालय उठा ले गये और वहाँ केदारखंड में इनको नाना निगमागमों, शास्त्रों, मीमांसा सबकी शिक्षा दी। कुलीन तथा विनम्र होने के कारण अपने श्रीमुख से अपनी तारीफ नहीं करते हमारे श्रीमन्।’

बस फिर क्या था, शहनाइयाँ बजीं ब्याह हुआ और उसको गद्दी देकर महाराजा तथा रानी वन को चले गये। ढपोरशंख की महिमा से ही जब सब कुछ मिल गया तो लड़के ने, जो अब राजा था, अपने करामाती शंख को तो किसी ताख पर रख दिया और बस ढपोरशंख को सीने से लगा लिया। राजकाज चलाने के हज़ार टंटे। लोग बार बार फरियादी घंटा बजाने आ जाते। कहते डाकू बन कर आपके कारिंदे हमको लूट रहे हैं। कोई कहता उधर किसी दूर गाँव में खेती सूख रही है। सबको डपट कर या पुचकार कर ढपोरशंख हर बार सफाई से चुप करा देता। किसी बड़ी लड़ाई या चढाई की खबर आती तो बस ढपोरशंख से राजा कह देता, कि भरपूर प्रचार कर दुश्मनों के मुख पर कालिख मल दे! और ढपोरशंख ऐसी खूबी से यह कर देता कि दुश्मनों की हिम्मत टूट जाती और परजा उनके भेदियों को घुसने ही नहीं देती। दिन आनंद से कटने लगे। दो बेटे भी हो गये। ढपोरशंख को प्रधान खबरी और सभाप्रमुख घोषित कर दिया गया। राजा के बेटे उसको कहते ढपोरी चाचा।

पर होनी को कौन टाले? एक दिन खेलते खेलते पुराने महल जा पहुंचे राजा के बच्चों को ताख पर रखा करामाती शंख दिख गया। बच्चे तो बच्चे, बोले ये तो बिलकुल गोलमटोल ढपोरी चाचा की तरह दिखता है। फिर तुरत झगड़ पड़े कि यह वाला कौन लेगा। आख़िर दोनों भाई राजा के पास पहुंचे जो उस समय गाना वाना सुनने में लगे थे। कुछ पिनक में भी थे। उन्होंने इशारे से बच्चों को झगड़ा निपटाने ढपोरशंख के पास भेज दिया। यह किसी को पता न था कि ढपोरशंख को करामाती शंख से पुरानी जलन थी। उसने बच्चों से कहा, ये शंख बड़ा करामाती है। जो मांगोगे वह मिलेगा।’ बच्चे एक दूसरे का चेहरा ताकने लगे। राजकुंवर थे, उनको क्या कमी?’ उनको खामोश देख कर ढपोरी चाचा ने कहा, ‘तुम दोनों जिसका जितना भला या बुरा चाहो, यह कर देगा।’ यह सुनते ही शंख को हथियाने के लिये दोनो बच्चे एक साथ एक दूसरे से बोल पड़े ‘तू मर जा!’ करामाती शंख बोला तथास्तु। और दोनो राजकुंवर मर गये।

जब रानी को खबर मिली तो वह रोती बिलखती आई और उसने ढपोरशंख से पूछा कि क्या हुआ? वह बोला ‘मैं क्या करता। मैं तो राजाजी का चाकर हूं। कुंवरों ने मुझसे कहा चाचा, झगडा सलटा दें, तो मैने करामाती से कहा भैये तू ही सलटा। सारा किया धरा इस करामाती का है मेरा नहीं।’ आगबबूला रानी ने करामाती शंख का चूरा चूरा करवा कर उसको नदी में बहवा दिया फिर राजाजी को जगाया गया। राजा बिगड़ खडे हुए। पर पहला सवाल था कि बच्चे जो मर चुके थे, उनको कैसे जिलायें? राजा जी ने पूछा तो ढपोरशंख बोला मैं तो हुज़ूर, बस ढपोरशंख हूं। मुझसे जितना लंबी चौड़ी लच्छेदार बातें बुलवाना चाहो बुलवा लो। बाकी काम धाम मुझसे नहीं होगा।

करामाती शंख तो पहले ही कूट पीट कर बहाया जा चुका था, राजा ने ढपोरशंख को भी चूरा चूरा कर के नाली में बहा दिया।रोती कलपती रानी से छुटकारा पाना आसान होता है। उसको, जैसा दस्तूर था, एक कौव्वा हंकनी बना कर जंगल भेज दिया गया।उसके बाद राजा अपने गाँव पहुंचा तो पता चला कि उसके जाने के बाद महामारी में उसकी माँ तो कब की मर खप गई थी। झोपड़ी का बस खंडहर बचा था। काफी दिन तक रोता हुआ राजा पैदल पैदल उस गाँव को खोजता फिरा, जहाँ गांव के बाहर भूतहा कुआँ होता था, जिसमें सात सतरंगी परियाँ रहती थीं। लोगों ने कहा महाराज कहाँ का गांव। वह गांव तो तभी का उजाड़ हो गया जब ढपोरशंख की मदद से राज काज चल रहा था। वे डकैत सब तभी आपकी सभा में सांसद बन गये और जाते जाते अपनी ग्राम सुरक्षा निधि से मुखिया जी सारे कुएँ भी पटवा गये।

राजा हताश। पर वापिस लौटता तब तक उसके भरोसे के गाड़ीवान ने खबर दी, कि अब तक दोनों शंखों के फेंक दिये जाने से निश्शंक हो कर डकैत उसकी गद्दी हथिया चुके थे। और मुखिया जी राजा बन बैठे थे। गाड़ीवान दयालु जनी था। उसने कहा हुज़ूर भला चाहते हैं तो यहीं से जंगल को कट लें। सुनते हैं मुखिया जी ने गद्दी पर बैठते ही आपको रस्सी से बाँध कर कोडों से पीटने का हुकुम जारी कर दिया है। हम उनसे जा के कह देंगे कि आपको जंगल में शिकार करते समय बाघ उठा ले गया। एक शोकसभा भी कर देंगे।बात खतम।

इसके बाद राजा को जंगल में अकेला छोड कर सब वापिस चले गये। वह बेचारा अधपगला हो कर फिरने लगा। जहाँ कोई कुआं देखा तो उसकी मुंडेर पर झुक कर सात परियों को पुकारता, ’अरी परियो, कहाँ हो?’ परियाँ तो परियाँ मन चाहे तभी मिलती हैं, ऐसे ही किसी राजा जी  की पुकार सुन कर थोड़ी भागी आती हैं, किसी रानी की तरह। सुनते हैं कि उनको पुकारता पुकारता राजा आखिरकार एक दिन खुद भी किसी गहरे गड्ढे में गिर कर मर गया। ढपोरशंख पर बहुत भरोसा करनेवालों की यही गति होती है।

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