फ़िल्म ‘प्यासा’ एक ऐसे शायर की कहानी है जो अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद में है। असल में, इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि यह फ़िल्म मूल रूप से उर्दू में लिखे गए एक उपन्यास ‘चोट’ पर बनी थी, जिसके लेखक थे दत्त भारती। हालाँकि इसका क्रेडिट उनको नहीं मिला। 1970 में जब दिल्ली उच्च न्यायालय में दो जजों की खंडपीठ ने लेखक के पक्ष में यह फ़ैसला सुनाया कि फ़िल्म उनके उपन्यास पर बनी थी तो उस फ़ैसले का कोई मतलब नहीं रह गया था, ‘प्यासा’ फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त को गुजरे कई बरस बीत चुके थे। दत्त भारती ने अदालत में जीत के बाद गीता दत्त से सादे काग़ज़ पर ऑटोग्राफ़ लेकर उनको माफ़ कर दिया।
दत्त भारती का लेखकीय जीवन उतार चढ़ाव से भरा रहा। उनके पहले उपन्यास ‘चोट’ के तीन साल में 2-2 हज़ार के दस संस्करण प्रकाशित हुए। 1949 में प्रकाशित उनके इस उपन्यास ने उनके स्कूली जीवन के सहपाठी साहिर लुधियानवी की किताब ‘तल्खियाँ’ की तरह ही धूम मचाई, लेकिन उनको वह मक़बूलियत नहीं मिल पाई जो साहिर को मिली। इसका कारण यह रहा कि उन्होंने मुंबई का रास्ता नहीं चुना बल्कि दिल्ली में रहकर लेखक के रूप में पहचान बनाने का फ़ैसला किया।
1942 में दत्त भारती ने 17 साल की उम्र में सेंट्रल ओर्डिनेंस फ़ैक्टरी में नौकरी शुरू की लेकिन उसी साल भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण उनको नौकरी से निकाल दिया गया। जीवन में पाने से अधिक छोड़ने की आदत के लिए जाने जाने वाले दत्त भारती ने आज़ादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेने से भी इंकार कर दिया। वे व्यापार के लिए बर्मा गए, दिल्ली वापस आकर सीपी में होटल खोला लेकिन बाद में आसफ़ अली रोड पर दफ़्तर खोलकर लेखन करने वाले लेखक बन गए। जाने माने लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मुझे बताया था कि उस दौर के वे अकेले लेखक थे जो बाक़ायदा ऑफ़िस में बैठकर लेखन करते थे और इसके लिए उन्होंने आसफ़ अली रोड पर एक चेम्बर किराए पर ले रखा था।
दत्त भारती के क़िस्सों में एक क़िस्सा यह भी है दिल्ली के एक मशहूर प्रकाशक के चेम्बर से जब वे बाहर निकलते तो बाहर एक नौजवान बैठा मिलता, जब लगातार चार दिन तक यह सिलसिला चला तो दत्त भारती ने प्रकाशक के चेम्बर में वापस जाकर पूछा कि बाहर जो नौजवान बैठा रहता है वह कौन है और क्यों बैठा रहता है? प्रकाशक ने कहा कि नया लेखक है। इसने उपन्यास लिखा है। मैं इसको चार सौ दे रहा हूँ लेकिन यह सात सौ माँग रहा है। दत्त भारती ने कहा कि आपका यह व्यवसाय लेखन से ही तो चलता है। अगर आप इसको पैसे नहीं दे सकते तो आप मेरी रॉयल्टी में से काटकर इसको दे देना। ख़ैर, उस युवा लेखक का उपन्यास प्रकाशित हुआ और बाद में वह गुलशन नंदा के नाम से मशहूर हुआ। दत्त भारती के उपन्यासों की बेवफ़ा स्त्रियों के स्थान पर गुलशन नंदा ने मजबूर स्त्रियों का फ़ोर्मूला बनाया जो, रूमानी उपन्यासों का ही नहीं बल्कि हिंदी फ़िल्मों का भी बेजोड़ फ़ोर्मूला साबित हुआ। कहते हैं कि लाहौर में गुलशन नंदा जिस लड़की से प्यार करते थे वह अमीर परिवार की थी और गुलशन नंदा की ग़रीबी उनके प्यार को उनसे दूर ले गई। इस बात को लेखक के तौर पर वे कभी नहीं भूले।
ख़ैर, लेखक दत्त भारती ने हिंदी में सौ से अधिक उपन्यास लिखे और उर्दू में क़रीब 60। ‘प्यासा’ के बाद भी 1976 में विनोद खन्ना-नीतू सिंह की एक फ़िल्म आई थी ‘सेवक’, इसकी कहानी भी दत्त भारती के उपन्यास ‘तक़ाज़ा’ से उठाई गई थी। इस बार भी लेखक को मुक़दमा करना पड़ा लेकिन बाद में फ़िल्म के निर्माता ने उनके साथ आउट ऑफ़ द कोर्ट सेटलमेंट कर लिया। उनके एक उपन्यास ‘काली रातें’ पर जब एक निर्माता ने वास्तव में अधिकार लेकर फ़िल्म बनाने की शुरुआत की तो ‘साहिल से दूर’ नामक वह फ़िल्म या तो बनी नहीं या रिलीज़ नहीं हो पाई।
चलते चलते एक क़िस्सा और बीआर चोपड़ा की मशहूर फ़िल्म ‘गुमराह’ की कहानी भी बहुत हद तक दत्त भारती के उपन्यास ‘राख’ पर आधारित थी। जब एक बार अपने दोस्त साहिर लुधियानवी के कहने पर दत्त भारती बीआर चोपड़ा से मिलने गए तो उन्होंने चोपड़ा साहब से कहा कि मैं आपके ऊपर भी कहानी चुराने का मुक़दमा कर सकता था लेकिन मुक़दमा इसलिए नहीं किया क्योंकि तब मैं गुरुदत्त से फ़िल्म ‘प्यासा’ के लिए मुक़दमा लड़ रहा था और एक समय में दो मुक़दमे नहीं लड़ना चाहता था।
27 मई को इस लेखक की जयंती थी।
अब इनके उपन्यास नए सिरे से पेंगुइन हिंद पॉकेट बुक्स पेंगुइन से प्रकाशित हो रहे हैं।
(दत्त भारती के बेटे विजय भारती से बातचीत पर आधारित)
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