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प्रवीण कुमार झा की कहानी ‘जामा मस्जिद सिंड्रोम’

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प्रवीण कुमार झा का लेखन कई बार हैरान कर जाता है। अनेक देशों, मेडिकल के पेशे के अनुभवों को जब वे कथा के शिल्प में ढालते हैं तो ऐसी कहानी निकल कर सामने आती है। कहानी के बारे में ज़्यादा नहीं बताऊँगा। स्वयं पढ़कर देखिए- मॉडरेटर

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गिरजाघर वाली गली के मुहाने पर एक दुकान है, जहाँ ताबूत बनते हैं। ऐसे डिज़ाइनदार ताबूत कि अभी मर कर लेटने का मन कर जाए। अव्वल तो यह कि ये एक सिख परिवार चलाता है। गोरे मरते हैं, उन्हें हिंदुस्तानी पैक कर जमीन के नीचे भेजता है। उसने कहा कि पहले पौधों की नर्सरी चलाता था। उम्र होने लगी तो ताबूत का काम उठा लिया। लेकिन लोग मरें, तब तो कमाई हो। सुना है तुर्की में धंधा बढ़िया है। ताबूत भी जमीन में लिटा कर नहीं गाड़े जाते, खड़े कर गाड़े जाते हैं कि जमीन कम लगे और आदमी मर कर भी खड़ा रह सके।

मस्तान सिंह की चार बेटियाँ और एक बीवी है। पाँचों लड़कियों में उम्र का जरा-जरा सा फर्क है। जो चारों बेटियों की माँ है, वह सबसे बड़ी है। नैचुरली! सुबह की टहल में उसी से बतियाने लगा, और एक पुरानी अधूरी बात पूरी करने लगा।

“बुड्ढा कोशिश तो पूरी करता है, पर अब होता नहीं उससे”

“वियाग्रा?”

“कहता है दिल की बीमारी है। नहीं ले सकता।”

“इंप्लांट?”

“क्या होता है वह? जैसे किडनी लगाते हैं, वैसा ही? किसी और का? कौन जवान आदमी देगा?”

“नहीं नहीं। लेना-देना नहीं। एक पंप फिट करते हैं बॉडी में। फिर इरेक्शन हो जाता है। मामूली ऑपरेशन है।”

“आप ही समझाओ कभी। मैं तो घुट रही हूँ। क्या उमर ही है मेरी?”

उसकी ज़बान पंजाबी थी, मैं मन ही मन अनुवाद कर रहा था। वह मेरी बातों का अनुवाद अपने मन में कर रही होगी। डॉक्टर हूँ तो लोग सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। शरमाते नहीं। जामा मस्जिद के पास जब इरविन अस्पताल में था, तब भी बुरके वाली स्त्रियाँ अस्पताल आकर मुक्त हो जाती थी। एक मनोरोग विशेषज्ञ ने इस पर पेपर ही छपवा दिया— जामा मस्जिद सिंड्रोम। बड़ी किरकिरी हुई। बच गया कि फ़तवे नहीं जारी हुए। लिखा कि घरों में बंद स्त्रियाँ अस्पताल आकर खुली हवा में साँस लेती है। कहती हैं— पेट में, हाथाँ में, पैराँ में, छाती में दर्द है। जाँच करो तो कुछ नहीं। एक दफ़े मैं फँस गया।

“अपर्णा! लुक्स लाइक जामा मस्जिद सिन्ड्रोम! तू देख ले”

“फिर तो तू ही देख। शी नीड्स अ मैन!”

“मज़ाक़ नहीं कर रहा। और भी पेशेंट्स है। वह समय जाया कर रही है बस।”

“मैं भी मज़ाक़ नहीं कर रही।”

क्या जामा मस्जिद, क्या यूरोप, क्या दक्षिण अमेरिका। जिधर देखो, बंद कमरे नजर आते हैं। गुरप्रीत ऐसे ही एक बंद कमरे में रहती है। वह खेम करण के एक बंद कमरे से नॉर्वे के एक बंद कमरे में शिफ़्ट हुई है। साल भर पहले। हट्टी-कट्टी माँसल काया, काले घने बाल, फूले ही गाल, गालों पर भर-भर कर मुहाँसे। जब भी शहर की पगडंडियों पर अपनी चोटी हिलाते, अपनी मस्तमौला चाल में चलती नजर आती है, न जाने क्यों लगता है कि अपने पति को खेतों में रोटी पहुँचाने जा रही हो। अंग्रेज़ी में ‘नेक्स्ट डोर गर्ल’ भी कहला सकती थी। पड़ोस की लड़की। गुरप्रीत पड़ोस के खेत की लड़की सी थी। नेक्स्ट फार्म गर्ल। यह बात उस दिन पक्की हो गयी जब उसे गिरजाघर के सामने चिलचिलाती धूप में बेतरतीब मर्दाना अंदाज़ में जाँघ खुजाते देखा।

“नाम सुना है खेम करण का?” उसने पूछा

“हाँ! हाँ! 1965 में अयूब ख़ान की पैटन टैंकों को वहीं उड़ाया था”

“अब ये कौन नया ख़ान आ गया?”

“पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। जनरल अयूब ख़ान।”

“अच्छा? होगा कोई। सुना तो हमने भी है कि ज़ंग जीती थी। पर ज्यादा नहीं मालूम।”

“तुम वहीं से हो?”

“पास के गाँव से ही। मैं तो शादी कर खेम करण आयी थी।”

“अच्छा। तुम्हारा पति खेम करण से है?”

“यह बुड्ढा नहीं। इसके पहले वाला।”

“वह भी बुड्ढा था?”

“ना ना! वह तो जवान था। हमने बड़ी मस्ती करी है। वह तो रात-रात भर सोने न दे।”

“फिर यहाँ?”

“उसे ड्रग्स की लत लग गयी। पूरे पिण्ड को ही लगी है। तीस-पैंतीस साल के जवान दो मिनट में खत्म। इरेक्शन भी नहीं होता। खा जाती है चिट्टा।”

“चिट्टा?”

“कमाल का नशा है। आपने नहीं ली?”

“तुमने ली है?”

“शादी की रात इंजेक्शन ठोक दी थी साले ने। बहोत मजा आया। फ़िल्मों में दूध-बादाम दिखाते हैं, एक बार चिट्टा लगवाओ। फिर देखो। आदमी जानवर न बन जाए तो!”

“हा हा हा! यह तो सोच के ही आदमी पागल हो जाए। नयी-नवेली दुल्हन। हाथों में मेंहदी। कलाई में चूड़ियाँ। और लगा रही है हीरोइन का इंजेक्शन!”

“क्यों? पान-सुपारी खिलाते हो? तो इसके भी मजे लो।”

“तुमने कहा, इरेक्शन ही नहीं होता।”

“आप तो सब जानते हो। दुनिया बदल जाती है। ये प्रॉब्लम तो बाद में आती है। हाथ कट गए छोरों के। नीले पड़ कर खत्म हो गए।”

“पाकिस्तान से आता है चिट्टा?”

“काबुल में उगता है। पाकिस्तान से पाइप में डाल कर भेज देते हैं। करोड़ों का खेल है।”

“तुम्हारे पास इतने पैसे थे?”

“पैसे तो सब खत्म हो गए। पता नहीं, कहाँ से लाता था। असली हीरोइन नहीं, सिंथेटिक मारता था साला। कुछ मिक्स करके।”

“और तुमने वह इंजेक्शन ले लिया?”

“शादी की रात तो जो मर्जी डाल दो। उसने कहा, मैंने ले ली। आप औरत होते तो आप भी यही करते।”

शायद ले ही लेता। अगर मैं औरत होता तो? जब गाँव का गाँव अपनी बाँहों में चिट्टा ठोक रहा हो, शादी की रात तो बनता है। यूँ भी उस रात की सुबह तो होती नहीं। दो अजनबी साथ लेटे हों, तो उनकी केमिस्ट्री बिना नशे के कहाँ मुमकिन है? नशे में अजनबियों की केमिस्ट्री ही जुदा होती है। ख़ास कर नशा जब मतिभ्रम उत्पन्न करता हो। जब हम गुलाबी रंग सुनने लगते हैं, उसकी आहों को देखने लगते हैं। नशे की मायावी दुनिया में यह सैर बिना किसी स्पीड-ब्रेकर के मुमकिन है। कोई पर्फॉर्मेंस का दबाव नहीं।

“और एक दिन तुमने उसे छोड़ दिया?”

“नशेड़ी के साथ कब तक रहती? यहाँ डील हो गयी।”

“कैसी डील?”

“बुड्ढा मेरी फ़ैमिली संभालेगा, मैं उसकी।”

“मतलब?”

“मेरे माँ-बाप, भाई-बहन की ज़िम्मेदारी। उनको पैसे भेजना। और क्या?”

“और बदले में तुम क्या करोगी?”

“घर की सफाई। खाना बनाना। और रात को बिस्तर गरम करना। जो बीवियाँ करती हैं।”

“यहाँ नहीं करती। यह नॉर्वे है।”

“सभी बुड्ढे करते तो हैं यहाँ। कोई थाइलैंड, कोई फ़िलीपींस से लेकर आता है। मैं पंजाब से आ गयी।”

“तुम्हारा क्या प्लान है?”

“मालूम नहीं। कहता है, बच्चा देगा।”

“कैसे?”

“डॉक्टर उसका कुछ निकाल कर मेरे अंदर डाल देंगे।”

“ओके। हाँ। मुमकिन है।”

“मुझे तो लगा कि कोई नौजवान लाकर देगा। बच्चा पैदा करने के लिए।”

“लेकिन, वह उसका बच्चा तो तो नहीं होगा। उस नौजवान का होगा।”

“हरामी है वह।”

“अजीब तो है, लेकिन तुमने चुना है। पैसे लूटो और ऐश करो।”

“एक पैसा मेरे हाथ में नहीं देता बुड्ढा। बेटियाँ ऐश करती है।”

“तुम भी तो काम करती हो। दुकान में बैठे देखा है।”

“थोड़ी-बहुत। उससे कुछ नहीं होता। वह तो एक कपड़ा खरीद कर नहीं देता। अपने बेटियों के पुराने कपड़े पहनाता है।”

“सरकार से शिकायत कर दो”

“और सरकार मुझे उससे मुक्त कर वापस भारत भेज दे? फिर यह डील ही क्यों की?”

यह बूढ़ों का देश है। जिधर देखो, उधर जवान-जवान बूढ़े। अमीर देशों में आदमी की उमर तो बढ़ ही जाती है। नब्बे साल का बूढ़ा अपने लिंग में इम्प्लांट लगाए घूम रहा है, और बीस-बाइस बरस की पत्नी ला रहा है। जैसे वह कोई जापानी खिलौना हो। उसने यूँ बटन दबाया, और जवान हो गया। ‘क्लैप-स्विच’ देखा है? ताली बजाने से बल्ब जल पड़ता है। हर घर के लॉन में युगल जोड़ियाँ नग्न सन-बाथ ले रही है। उनके मध्य यही कोई चालीस-पचास बरस उम्र का फासला है। धनवर्षा हो रही है और विज्ञान अपने स्वांग रच रहा है।

“चिट्टा आखिर पंजाब में आता कैसे है?”

“जैसे मैं आयी। पाइप में बैठ कर।”

“तुम पाइप में बैठ कर आयी?”

“हवाई जहाज भी तो पाइप ही है। उतरने वाले को भी नहीं पता कि वह कहाँ उतरने वाला है।”

“एक अंधेरी दुनिया से दूसरी अंधेरी दुनिया”

“और वह भी अंधेरे में”

“सच बताऊँ तो बुड्ढे के साथ खुश भी हूँ। पैसे बहुत हैं। आज नहीं तो कल, मिल ही जाएँगे।”

“वक्त भी तो है। जवान तो कोल्हू के बैल बने पड़े हैं।”

“वक्त ही वक्त है। एक दिन देखना इस दुनिया में ऐसी ही शादियाँ होगी। सुंदर-सुंदर युवतियाँ घर संभाल रही होगी।”

“और नौजवान क्या करेंगे?”

“मालूम नहीं।”

“शायद वही करेंगे। किसी बूढ़ी महिला से शादी। करते ही हैं।”

“जब बुड्ढा मेरे ऊपर होता है, मेरी तो हँसी छूट जाती है। अब तो मैं भी दो पैग मार कर लेटती हूँ।”

गुरप्रीत की बात जैसे सौ साल पीछे ले गयी। एक ‘ब्लैक ऐन्ड वाइट’ तस्वीर देख रहा हूँ। श्यामल युवतियाँ हाथों में बड़े-बड़े कड़े पहने घर के बाहर खड़ी हैं। ऊँगलियों में गांजे की चुरट फँसी है। पति उसके पिता की उम्र का है, लेकिन वे खिलखिला रही हैं। यह पहेली मुझसे सुलझ नहीं रही था। आज जाकर सुलझी। उन युवतियों की कामोत्तेजना के समक्ष एक निर्बल पौरुष सिकुड़ा पड़ा है। यह उसी विसंगति का अट्टहास है। जैसे उसकी आँखों के सामने एक मरा हुआ पुरुष खड़ा है।

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