Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1525

समयोत्तर स्मृतियों की यात्रा-डायरी: प्रदीपिका सारस्वत

$
0
0

युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत की यह यात्रा डायरी प्रस्तुत है-

==============

उस पगडंडीनुमा सड़क पर चलते-चलते मैं अचानक नदी की तलहटी की ओर उतर गई थी. उतनी उत्साही नदी मैंने पहले नहीं देखी थी. दो दिन से मैं उसके साथ-साथ चल रही थी. जहाँ से देखती लगता कि पानी उसमें बह नहीं रहा है, उबल रहा है. नीचे ज़मीन शायद बहुत पथरीली थी और वेग बहुत ज़्यादा. और उसकी आवाज़, मैं किसी जादू में गिरफ्तार उसे देखती रहना चाहती, सुनती रहना चाहती. पर मुझे आगे बढ़ना पड़ता. गंतव्य लेकर निकलने का यही नुक़सान होता है. पूरी यात्रा में गंतव्य ही आपको संचालित करता है, किसी कंप्यूटर के लिए बनाए प्रोग्राम की तरह. लेकिन उस समय मौक़ा मिलते ही मैं उस प्रोग्राम से नज़र बचाकर नदी के पास गई थी.

शायद इसलिए भी ऐसा कर सकी कि नदी ने कुछ गुंजाइश छोड़ दी थी ऐसा होने देने की. वरना अब तक तो वह किनारों को पकड़कर बहती रही थी. कोई रास्ता ही न था उसके करीब जा सकने का. लेकिन इस अनोखी यात्रा के दूसरे दिन, ताक्सिंग पहुँचने से करीब चार घंटे पहले यह मोड़ मिला था जहाँ नदी ने किनारे को छोड़ दिया था और मैं छूटे हुए किनारे से नए किनारे के बीच उतर कर उसके समीप जा सकती थी. मैं यह सोचने लगी थी कि मेरे उसके समीप जाने की इच्छा ने ही उसे किनारा छोड़ कर मेरे लिए जगह बनाने की प्रेरणा दी होगी.

मैं उस वक्त तुम्हारे छूटे हुए किनारे और नए किनारे के बीच कहीं तुम्हारे समीप जाने की यात्रा में थी. न-न, वह यात्रा तब शुरू ही हुई थी और दो वर्षों के अंतराल के बाद अब भी अनवरत चलती जा रही है. तब नदी के उन किनारों के बीच उसके नज़दीक जाना मुझे तुम्हारे करीब जाने जैसा लगा था. मैं वहीं एक पत्थर पर बैठ गई थी, यह सोचते हुए कि तुम कभी तो इस मोड़ से गुज़रे ही होगे, कभी तो इस नदी की पीठ को तुमने अपनी उँगलियों से सहलाया होगा. तब मैंने यह नहीं सोचा था कि तुमने उस समय नदी को कैसे देखा होगा. यह भी नहीं कि तब तुमने मेरे बारे में क्या सोचा होगा. हाँ, तब हम दोनों एक-दूसरे से नहीं मिले थे. पर तब भी, क्या भविष्य की स्मृतियाँ हममें नहीं होतीं? जिस तरह भूत की स्मृतियाँ भविष्य के अंकुर लिए होती हैं उसी तरह इन भविष्य की स्मृतियों में बीते हुए की गंध होती है.नदी उस समय मुझे एक नन्हीं पहाड़ी बच्ची जैसी लगी थी.

पिता के जाने और माँ के आने के बीच के समय में खेलती हुई. हमारी बच्ची, जिसका नाम हम सुबंसिरी रख सकते थे. यही बात वहाँ बैठे हुए मैंने तुम्हें लिख भेजी थी. यह जानते हुए भी कि जबतक अगले कुछ दिनों में मैं वापस लौटकर कम से कम दपोरिजो नहीं पहुँच जाउंगी यह संदेश तुम तक नहीं पहुँचेगा. और उसके बाद भी तुम तक इस संदेश का पहुँचना तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता. हम दोनों के ही मानव चिन्हित दूर-संचार की परिधि से बाहर होने के बावजूद मैंने महसूस किया था कि तुम वहीं कहीं हो. मुझसे बाहर नहीं, मेरे भीतर ही. मानव जितना विज्ञान जानता है, उससे कहीं अधिक विज्ञान वह अनुभव कर सकता है. अनुभव के नियम होने का रास्ता बहुत से शोध और प्रयोगों से होकर जाता है. ये सारे प्रयोग और शोध उस एक के अनुभव को सार्वभौमिक अनुभव बना सकते हैं. तुम मेरे व्यक्तिगत अनुभव हो, इसे सार्वभौमिक बनाने की आवश्यकता ही कहाँ है. इसलिए मैं पूरी वैज्ञानिकता के साथ तुम्हें अनुभव करती हूँ.

मैं तुम्हें बाहर नहीं देख सकती थी, बिलकुल उसी तरह जैसे मैं खुद को अपने बाहर नहीं देख सकती. जब मैं यह सोच रही थी तब आसमान पर हलके बादल घिर आए थे, और उस पगडंडीनुमा सड़क से गुज़रती एक बूढ़ी औरत ने अपनी तागीन ज़ुबान में मुझसे कहा था कि मैं वहाँ नदी के पास न बैठूँ. मुझे लगा था कि वो एक विदेशी लड़की को अपनी नदी से दूर रखना चाहती थी, जैसे किसी बाहरी आदमी को हम अपने बच्चे से दूर रखना चाहते हैं. मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगा था कि नदी मेरे लिए ख़तरा भी हो सकती थी, कि उसमें पानी कभी भी बढ़ सकता था और इसीलिए वो बूढ़ी तागीन औरत मुझे वहाँ से चले आने को कह रही थी.

मैं अपने भीतर चल रहे घटनाक्रम के लिए इतनी समर्पित हो जाती हूँ कि बाहर का सबकुछ मुझे उसी के सापेक्ष दीखता है. भीतर और बाहर के ये कल्चरल डिफरेंसेज कई बार इतने अधिक गहरे हो जाते हैं कि बाहर जो देखती हूँ भीतर उसका अर्थ मैं बहुत विपरीत लगा बैठती हूँ. और जब इसका आभास होता है तो मैं उलझन में पड़ जाती हूँ कि वास्तविकता आखिर है क्या, वह जो भीतर है या फिर वह जो बाहर है, या फिर दोनों में से कुछ भी वास्तविक नहीं है. या कि शायद वास्तविकता भी एक सापेक्षिक बिंब है.

जैसे तुम. तुम मेरे भीतर बहुत हो. पर बाहर दूर-दूर तक कहीं नहीं. उतने भी नहीं कि कोई बूढ़ी स्त्री आकर मुझसे कह सके कि मैं तुमसे दूर हो जाऊँ. उस समय उस वृद्धा के बुलाने के बाद मैं नदी से दूर हटकर वापस फिर रास्ते पर आ गई थी. आगे का रास्ता थोड़ा बेहतर था, इतना कि सेना की गाड़ियाँ उसपर चल सकें. तुम जब वहाँ थे तब यह रास्ता नहीं बना था. लेकिन तब भी उस रास्ते पर मैं तुम्हारे पदचिन्हों के साथ चल रही थी. उसी तरह जैसे नदी के पास से उठकर चले आते वक्त मैं नदी को अपने साथ ले कर चल पड़ी थी. हम तीनों एक साथ थे, एक आदर्श परिवार की तरह. मैं यदि बिंब खींचूँ तो ताक्सिंग की ओर जाती, हरी टीशर्ट, नीले ट्रैवल पैंट्स पहने और ज़ैतूनी रंग का बस्ता पीठ पर उठाए किसी लड़की का बिंब नहीं खींच सकुँगी. क्योंकि मैं अपने आपको बाहर से नहीं देख रही थी. मैं उसी सुखी परिवार का बिंब खींचूँगी जिसे मैं देख पा रही थी, अब भी देख रही हूँ. ऊँची, बलिष्ठ देहयष्टि वाला एक पुरुष है, जिसने तुम्हारे जैसे कपड़े पहने हैं. वैसे, जैसे तुम दफ्तर जाते समय पहनते हो. हलकी पीली धारियों वाली ऑफ व्हाइट शर्ट, काले ट्राउज़सर्स, काले चमकते जूते, तुम पर खूब फबते हैं. महिला ने लाल धोती पहनी है, हलकी पीली बुँदकियों वाली, पाँवों में चमड़े की बंद चप्पलें हैं और उस नन्हीं शरारती बच्ची ने वैसी ही लाल फ्रॉक और चप्पलें पहनी हैं, अपनी माँ जैसी. उसके सिर पर छोटी सी चोटी में पीला रिबन है.

मैं उन तीनों को अपने सामने चलते हुए देखती हूँ, सिर्फ उनका पार्श्व. मैं उनके चेहरे नहीं देख सकती. वे चलते रहते हैं. मैं रुक जाती हूँ, तब भी वे चलते रहते हैं, हमेशा मेरी दृष्टि की परिधि में. यह दृश्य मेरी कल्पना हो सकता है, यह मेरी इच्छा का प्रतिबिंबन भी हो सकता है. यह भी हो सकता है कि यह दृश्य भविष्य की कोई स्मृति हो. मेरे बाहर तुम्हारे कहीं भी होने के उन सभी वास्तविक प्रमाणों, जिन्हें एक वृद्ध स्त्री देख सकती है, के न रहने के बाद भी इस दृश्य को देखते हुए मुझमें किसी तरह की कोई आकुलता नहीं होती. यह उतना ही सहज-ग्राह्य है जितना मेरी लिखने की मेज़ के सामने की खिड़की के बाहर दिखती हरियाली और दूर क्षितिज पर धूमिल होती पहाड़ी की छाया जैसी आकृति. मैं सोच रही हूँ कि छाया जैसी आकृति को छायाकृति कहा जा सकेगा कि नहीं. मैं कहती हूँ कि यह सपना नहीं हो सकता, यह इच्छा भी नहीं हो सकती. क्योंकि सपने में या फिर इच्छाओं से घिरे होने पर मैं अपने आप को व्याकुल पाती हूँ.

तुम्हारे और उस शिशु-नदी के मेरे समीप होने की यह सहज-ग्राह्यता मेरी अनेक व्याकुलताओं का समाधान है. व्याकुलताएं भीतर उठती हैं तो उनका समाधान भी भीतर ही हो सकता है. वह पुरुष, स्त्री और उन दोनों का हाथ पकड़े झूलती हुई सी चलती वह बच्ची ताक्सिंग की ओर बढ़ रहे हैं. रास्ते के दोनों ओर झाड़ियों पर स्ट्रॉबेरी की शक्ल का लाल फल उगा है. रुक कर वे तीनों उन नन्हें फलों को चुनने लगते हैं, एक दूसरे को खिलाते हैं, आगे बढ़ जाते हैं. मैं उन्हें देख सकती हूँ, पर मैं चल नहीं रही हूँ. नदी के पास जाने के बाद, उस वृद्धा की चेतावनी को सुनने के बाद, इस आदर्श परिवार को देखने के बाद मैं अब नहीं जान पा रही हूँ कि मैं कहाँ हूँ. मैं हूँ, पर नहीं हूँ. मेरे पाँव ज़मीन की स्थिरता अनुभव नहीं करते, न ही वे हवा की गतिशीलता का ही कोई भान पाते हैं. मेरी दृष्टि इन तीनों के पार्श्व को ही देख पाती है, और उसे, जिसे ये तीनों देख रहे हैं.

मेरे ताक्सिंग जाने की कथा अब इन तीनों के ताक्सिंग जाने की कथा में परिवर्तित हो गई है. ऐसा कहाँ होता है? कहीं तो होता है, क्योंकि मैं ऐसा होते हुए अनुभव कर रही हूँ. एक लेखक लिखते हुए शायद ऐसा ही अनुभव करता है. उसकी अपनी यात्रा एक स्थान के बाद उसके पात्रों की यात्रा में बदल जाती है. आह! ताक्सिंग की उस यात्रा से लौटकर मैं उस परिवार को अपने साथ ले आई. जबकि उस समय मैं नहीं जानती थी कि मेरे लौटने के बाद तुम एक लंबी अनिश्चित यात्रा पर चले जाओगे. ऐसी यात्रा पर, जहाँ तुमसे संपर्क करने के लिए मुझे पूरी तरह अपने निजी वैज्ञानिक दूर-संचार पर निर्भर रहना होगा. उस परिवार को साथ ले आने के पीछे भी शायद वही भविष्य की किसी स्मृति की प्रेरणा होगी. कि तुम्हारी इस अनुपस्थित उपस्थिति में, मैं व्याकुल न रहूँ. पर यह स्मृति आती-जाती रहती है. स्मृति यदि सदा ही साथ रहने लगे तो वह स्मृति न रहे.

पिछले दिनों जब मैं वास्तविक-अवास्तविक के भ्रमजाल से बाहर निकलने का प्रयत्न कर रही थी, तब यही स्मृति एक बार फिर उस बच्ची को मेरे पास लेकर आई. उसी तरह जैसे बीमार से मिलने कोई आता है. तब से मैं अब स्वस्थ हो रही हूँ. वास्तविक से अवास्तविक को दूर करने की मेरी व्याकुलता अब शांत पड़ गई है. खाली समय में मैं अब इस पथरीले विस्तार में बच्ची को खेलते देखने लगी हूँ, पिता के जाने और माँ के आने के बीच के समय के उसके बेफिक्र खेल. इसे देखने के लिए तो ईश्वर को भी पृथ्वी पर आना पड़ता है. फिर तुम तो यहीं हो

The post समयोत्तर स्मृतियों की यात्रा-डायरी: प्रदीपिका सारस्वत appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1525

Trending Articles