युवा शायर सीरीज में आज पेश है महेंद्र कुमार ‘सानी’ की ग़ज़लें। पढ़िए और लुत्फ़-अंदोज़ होइए – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
काम कुछ भी नहीं था करने को
हम को भेजा गया है मरने को..
तुम जो सिमटे हुए से रहते हो
यानी बेताब हो बिखरने को..
आइना देखते नहीं अपना
और आ जाते हैं सँवरने को..
जिस को दरिया में मौज आने लागे
वो कहाँ चाहे पार उतरने को..
हम ने भी इश्क़ यूँ क़ुबूल किया
एक इल्ज़ाम सर पे धरने को..
न वो इज़्ने-सफ़र ही देता है
न मुझे कहता है ठहरने को
मेरी सोचों में शेर की बाबत
शक्ल सी है कोई उभरने को
ग़ज़ल-2
किसकी मौजूदगी है कमरे में
इक नयी रौशनी है कमरे में..
इस क़दर ख़ामुशी है कमरे में
एक आवाज़ सी है कमरे में..
कोई गोशा नहीं मिरी ख़ातिर
क्या मिरी ज़िन्दगी है कमरे में..
रंग दी हैं लहू से दीवारें
आ कि तेरी कमी है कमरे में..
कोई रस्ता नहीं रिहाई का
वो अजब गुम रही है कमरे में..
तू नहीं है तो तेरी यादों की
धुन्द फैली हुई है कमरे में..
देखिये, और देखिये ख़ुद को
एक खिड़की खुली है कमरे में.
एक बाहर की ज़िंदगी है मिरी
और इक ज़िन्दगी है कमरे में..
ग़ज़ल-3
नींद में इक गुफा बना रहा हूँ
ख़्वाब का रास्ता बना रहा हूँ..
ये जो कोशिश है उस से मिलने की
ख़ुद से इक राब्ता बना रहा हूँ..
मैं जो मन्ज़र में अब कहीं भी नहीं
ख़ुद को इक हाशिया बना रहा हूँ..
टूटे फूटे से अपने लफ़्ज़ों से
एक प्यारी दुआ बना रहा हूँ..
शाइरी हो रही है यूँ मुझ में
ख़ामुशी को सदा बना रहा हूँ..
लफ़्ज़ का अक्स देखने के लिये
हर्फ़ को आइना बना रहा हूँ..
तेरी उरियां तनी के सदक़े मैं
ख़ुद को तेरी क़बा बना रहा हूँ..
ध्यान में हूँ मैं एक मुद्दत से
जाने क्या सिलसिला बना रहा हूँ..
सब तो पहले से ही बना हुआ है
मैं किसे और क्या बना रहा हूँ ?
ग़ज़ल-4
अपनी सब उम्र लगा ख़ुद को कमाते हुए हम..
और लम्हों में कमाई को गँवाते हुए हम..
इक अजब नींद के आलम में गुज़रती हुई उम्र
ख़ुद को आवाज़ पे आवाज़ लगाते हुए हम…
रोकने से भी तो रुकता नहीं दरया-ए-हयात
सो इसी धारे में अब ख़ुद को बहाते हुए हम..
आदमीययत से बहुत दूर निकल आये हैं
ज़िन्दगी तेरी रवायात निभाते हुए हम..
क़ब्र और शह्र में कुछ फ़र्क़ नहीं है ‘सानी’
बस यही, रोज़ कहीं सुब्ह को जाते हुए हम..
ग़ज़ल-5
मिरा एक शख़्स से राब्ता नहीं हो रहा
मिरा ख़ुद से कोई मुकालमा नहीं हो रहा
तुझे रौशनी से जुदा करूँ किसी शाम मैं
तुझे इतनी ताब में देखना नहीं हो रहा..
तिरी शक्ल मुझ में ज़रा नमू नहीं पा रही
मिरा आइना मिरा आइना नहीं हो रहा..
बड़ी तेज़ तेज़ मैं दौड़ता हूँ तिरी तरफ़
किसी तरह कम प’ ये फ़ासिला नहीं हो रहा..
मिरे हिज्र तूने बदन किया मुझे इस तरह
मिरी रूह से तिरा हक़ अदा नहीं हो रहा..
तिरी क़ुर्बतों में गुज़र रहे हैं हमारे दिन
हमें क्यूँ मगर तिरा तज्रिबा नहीं हो रहा..
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