बिहार के पकड़उआ बियाह पर युक्रेनवासी हिंदी लेखक राकेश शंकर भारती की कहानी पढ़िए- मॉडरेटर
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मई महीने की चिलचिलाती हुई धूप में दिनेश बैजनाथपुर रेलवे स्टेशन से अपनी पुरानी जंग लगी हुई साइकिल पर बैठकर कुछ सोचते हुए घर की तरफ़ जा रहा था। धूप से बचने के लिए सिर पर गमछी से पगड़ी बनाकर ढँक लिया, जिसका पिछला हिस्सा मंद हवा के झोंके में धीमी गति से लहर रहा था। उसके दिमाग़ में बहुत सारी बातें चल रही थीं। मैट्रिक की परीक्षा में दो बार फ़ैल हो चुका था। नयी सरकार आ जाने के बाद तो वैसे भी मैट्रिक के इम्तहान में कामयाबी हासिल करना इतना आसान काम नहीं रहा है। परीक्षा में अब चोरी तो चलती नहीं है। चीटिंग बाज़ी का ज़माना तो कब का ख़त्म हो गया। पिछली बार तो दिनेश 10 अंकों से परीक्षा पास करते-करते अटक गया। लेकिन तीसरी बार तो उसे उम्मीद है कि वह हर हालत में परीक्षा पास कर जायेगा। सोचते-सोचते रेलवे स्टेशन से थोड़ा दूर बढ़ा ही था कि कुछ दूरी से किसी ने पुकारा। “दिनेश, कहाँ से आ रहे हो? मैं तीन दिनों से तुझे खोज रहा था। आ जाओ, बैठकर तारी पीते हैं।“
“अरे शंभू, कैसे हो? सहरसा गया था ममता दीदी को सन्देश पहुँचाने के लिए।“
“चल मेरे साथ। आज की शाम तारी के नाम हो जाये। जल्द ही शाम ढलने वाली है। शाम ढलते ही गर्मी से राहत मिल जायेगी।“
ये कहकर शंभू दिनेश के साथ अपना घर पर आया और उसने मचान के सहारे साइकिल खड़ी कर दी। दोनों आंगन में आ गये। माँ आँगन में बैठकर सब्ज़ी काट रही थी। “माँ, हम दोनों शाम के सात बजे तक घर आ जायेंगे। दिनेश के लिए भी खाना बना लेना। और बाबा को बोल देना कि आज वह ख़ुद से भैंस दुह ले।“
सिर हिलाते हुए माँ ने हाँ में हाँ मिलाया। शंभू एक बाल्टी लेकर दिनेश की साइकिल पर पीछे बैठ गया और दिनेश दोबारा से पटरी के किनारे-किनारे साइकिल भगाने लगा। आधा किलोमीटर आगे बढ़ने पर पटरी से कुछ दूर हटकर खेत में तार के आठ नौ गगनचुंबी दरख़्ते दिखायी देने लगे। थोड़ा हटकर आम का एक घना बागान था। पास में एक घास-फूस की झोंपड़ी खड़ी थी। झोंपड़ी में सुखन पासी की पत्नी तारी, मकई, चना और चूरे का भुजा बेच रही थी। पास में गाँव के तीन चार लोग तारी पी रहे थे।
शंभू ने उस महिला से पूछा, “सुखन कब तक आयेगा? उसने मेरे गाछ से तारी उतारी?”
महिला ने एक ग्राहक को चने का भुजा देते हुए जवाब दिया, “सपहा गाँव गया है तारी उतारने के लिए। आपके तार से अभी तक तारी नहीं उतारी है। वापस आता ही होगा, अभी रास्ते में होगा। आप दोनों बैठो।“
ये कहकर महिला ने उन दोनों की तरफ़ एक चटाई बढ़ा दी। वे दोनों बैठकर सुखन पासी की राह देखने लगे। दस मिनट बाद सुखन ने झोंपड़ी के पास दस्तक दी और साइकिल से एक ड्राम तारी निकालकर पत्नी के पास रख दी। उसके बाद शंभू और दिनेश की तरफ़ मुड़कर बोला, “भैया, क्या आज भी तारी पीयेंगे?” इस पर शंभू ने मुस्कुराकर हाँ में सर हिलाया। सुखन शंभू से एक सिगरेट माँगकर पीने लगा और दस मिनट आराम किया। फिर आलस्य के साथ जंभाई लेते हुए उठा और बोला, “चलिए, शंभू बाबू मेरे साथ। आपको ताज़ी तारी उतारकर देता हूँ।“
दोनों बाल्टी लेकर सुखन पासी के पीछे-पीछे चलने लगे। पश्चिम से सूरज अपना विशाल आकार में तार के पेड़ पर रौशनी की बौछार कर रहा था और धूप हर पल बड़ी तेज़ी कमज़ोर और धीमी होती जा रही थी। सुखन पांच मिनट के अंदर ही तार पर चढ़ चुका था और हर मटके से तारी निकालकर एक मटका में जमा कर रहा था। 10-15 मिनट के अंदर नीचे उतरा और शंभू के बाल्टी में ताज़ी तारी डाल दी। अब झोंपड़ी में वापस आकर दोबारा से चटाई पर बैठ गये और सुखन से शीशे के दो गिलास और चने का भुजा लेकर तारी पीने लगे। आधा घंटा बाद दिनेश के ऊपर गर्म तारी अपना करिश्मा दिखाने लगी। वह अब नशा की हल्की सुरूर में था। सुबह की तारी तो दूध की तरह निर्मल और लाभदायक होती है, उसमें नशा तो बिलकुल नहीं होता है, लेकिन शाम की तारी पूरा दिन तेज़ धूप में तपती है और उसे पीते ही झट से नशा सर पर सवार होने लगता है। दोनों दोस्त इधर उधर की बात करने लगे।
एक गिलास तारी घटकते हुए शंभू बोला, “दिनेश, तुम मेरे ससुराल मानसी चलो मेरे साथ। वहाँ तुझको बकरे और मुर्गे का मांस खिलाऊँगा। साथ में व्हिस्की का बोतल भी रहेगा। जमकर मेहमानी करेंगे। मेहमानों की तो मेरे ससुराल में जमकर ख़ातिरदारी होती है, ये तो तुम भी जानते हो। वे लोग मेहमान नाबाज़ी में हम लोगों से भी काफ़ी आगे हैं। असल गुआर (यादव) तो वही लोग हैं।“
इसे सुनकर दिनेश की बाछें खिल आयीं। बकरे का गोश्त और व्हिस्की का नाम सुनते ही उसके मुँह से पानी टपक पड़ा। शंभू के बाद उसने भी गिलास में बची हुई तारी की आख़िरी बूंद झटके से पीकर गिलास को ज़मीन पर रख दिया। आँखों को तिरछा करते हुए बोला, “पिछली बार जब मैं तुम्हारी बारात में गया था तो मज़ा आ गया। एक से एक टंच माल तुम्हारे ससुराल में हैं। मैंने वहाँ कुरूप लड़कियों के साथ-साथ कई सुंदर लड़कियाँ भी देखीं। तुझे याद है, मानसी स्टेशन पर ट्रेन की बोगी से उतरते ही लड़की के घर तक जमकर हंगामा बड़पाया था। तुम घोड़ा पर दूल्हा बनकर बैठा हुआ था और मैं नशे में मस्त होकर तुम्हारे आगे ढोल और नगाड़े की धुन पर नाच रहा था। फिर महफ़िल सजी और मैंने महफ़िल में बाराती पार्टी की तरफ़ से माइक उठाकर सबका अभिनंदन किया था। तूने मंडप में अपनी पत्नी के गले में माला डाली और उसने भी तेरे गले में माला डाली। तूने अपनी पत्नी के हाथ में हाथ डालकर मंडप के कई चक्कर लगाये और पूरी ज़िंदगी साथ-साथ जीने मरने के फेरे किये। मैं देर रात तक दोस्तों के साथ नाचता रहा। तीन बजे रात को सिंदूरदान हुआ था। तुम कितनी सुंदर सालियों से घिरा हुआ था। वाकई मज़ा आ गया, शंभू यार। अगला रोज़ चार बकरे काटे गये थे और दोस्तों के साथ जमकर शराब पीयी थी और पेट भरकर बकरे का मांस खाया था।“
इस पर शंभू हँसते हुए बोला, “तीन साल गुज़र गये। इस बार मेरे साथ चलोगे तो और ज़्यादा मज़ा आ जायेगा। जमकर रईसी करेंगे ससुराल में। जो लडकियाँ तीन साल पहले बच्ची थीं, वे अब जवान हो गयी हैं। ससुराल तो अय्याशी का अड्डा होता है। मेरे ससुराल का तो मज़ा ही कुछ और है। जी भरकर पीयेंगे और मांस खायेंगे। एक हफ़्ता तक मेहमानी करेंगे।“
इस पर दिनेश और शंभू दोबारा गिलास में तारी भरकर तेज़ी घटक गये। दिनेश गमछी से मुँह पोंछते हुए बोला, इस बार ज़रूर जाऊँगा तेरा ससुराल। लेकिन दिनेश एक बात मुझे बता यार। वह जो गौरी लड़की थी, जो तुम्हारी शादी में हमेशा मंडप में तुम्हारे पास खड़ी थी, हमेशा उसके चेहरे पर हलकी मुस्कान रेंगती रहती थी, वह बेहद ख़ूबसूरत लड़की है। उसकी नाक कितनी लंबा थी। बड़ी-बड़ी काली आँखें थीं। शक्लो सूरत काफ़ी अच्छी थी। मुँह का कट कितना अच्छा था। अब तो वह पूरी तरह से जवान हो गयी होगी। उसकी शादी हो गयी क्या?”
शंभू ने जेब से एक सिगरेट निकलकर सुलगा लिया और एक कश लेते हुए बोला, तुम सरिता की बात कर रहे हो। वह इंटर में अभी पढ़ रही है। उसकी शादी अभी तक नहीं हुई है।“
इसे सुनकर दिनेश के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ने लगी। उम्मीद की निगाह से शंभू की तरफ़ देखने लगा। इस बार दिनेश कुछ सोचते हुए गिलास में तारी उलेड़ने लगा। गाँव में घनघोर अँधेरा छा गया था। सहरसा से मधेपुरा की तरफ़ जाने वाली रेलगाड़ी की हॉर्न की आवाज़ दूर से सुनायी दे रही थी। झोंपड़ी में लालटेन टिमटिमा रहा था। झोपड़ी के दूसरे कोने में गाँव के तीन चार नौजवान तारी के नशे में ज़ोर-ज़ोर से ठहाके मारते हुए बात कर रहे थे और बीच-बीच में चिलम में गांजा भरकर कश लगा रहे थे। दिनेश तारी घटकते हुए बोला, “यार, मैं आज तक सरिता की ख़ूबसूरत शक्ल को नहीं भूल पाया। दोबारा उसको देखने की चाहत हो रही है। अब तो वह और ज़्यादा निखरकर सुंदर हो गयी होगी और गुलाब की तरह खिल रही होगी। दिल तो करता है कि अभी तुम्हारे ससुराल जाकर उसके होंठ चूमने लगूँ। उसे जी भरकर सहलाऊँ। जब मैं तुम्हारी बारात में गया था तो हर वक़्त मैं उससे ही बात करता रहता था। किसी न किसी बहाने से आँगन चला जाता था। दिनेश, भगवान ने तुझे निहायत ही ख़ूबसूरत साली दी है। तुम बहुत ख़ुशनसीब हो।“
शंभू चिलम में गांजा भरते हुए बोला, “ऐसा लगता है कि तुम एक बार फिर सचमुच में सरिता पर फ़िदा हो गये हो। ऐसी बात है तो मैं सरिता से दोबारा मुलाक़ात करवा दूँगा। 25 जुलाई को मैं ससुराल जा रहा हूँ। चलोगे मेरे साथ।“
दिनेश ने साँस अंदर खींचते हुए गांजा का लंबा कश लिया और शंभू की तरफ़ धुआं को धीरे-धीरे छोड़ते हुए बोला, “इस बार तो ज़रूर जाऊँगा। धीमे स्वर में बोलो। उस कोने वे तीनों गाँव के नारद मुनि बैठे हुए हैं। सुन लिया तो मेरे पिता जी को बतला देगा और मैं तुम्हारा ससुराल इस बार भी नहीं जा पाऊँगा।“
इस पर शंभू और दिनेश धीमे स्वर में बात करने लगे। रात के आठ बज गये थे। जब तारी और गांजा के नशे का मिलन होने लगा तो दोनों काफ़ी फ़िक्रमंद होने लगे। मुफ्फ़किर (विचारक) की तरह दुनियादारी की बातें सोचने लगे। फ़िज़ा में सन्नाटा और ख़ामोशी पहले ही दस्तक दे चुकी थी। इतना ज़्यादा अँधेरा था कि सामने की रेलवे पटरी बिलकुल दिखायी नहीं दे रही थी। शबनम की कोमल बूंदें घास को भिंगाने लगी थीं। दोनों बाहर नम घास पर लड़खड़ाते हुए लेट गये। और दोबारा से गांजा पीने लगे। बात करते-करते दोनों अब इस तरह से ख़ामोश हो गये, मानो कि नशे की आग़ोश में किसी तवील ख़यालात में गर्क़ हो गये हों। दिनेश की आत्मा नशे के ज़द में आकर शंभू के ससुराल के इर्दगिर्द मंडराने लगी। सोचने लगा कि मेरी आँखों के सामने तीन साल के अंदर ही सभी सुंदर लड़कियों की शादी हो चुकी है और बच्चों को जन्म दे चुकी हैं।
दूर से किसी की डाँटने की आवाज़ आयी, “शंभू, साले, आज फिर से तू गांजा पीने के लिए यहाँ आ गया। गांजा से कब तुझे मुक्ति मिलेगी? बेटा, इतना बार समझाया कि गांजा पीना छोड़ दो, लेकिन इस हरामी के भेजा में मेरी बात घुसती ही नहीं है। मेरे घर में ये नशेरी पैदा लिया है। कुल-खानदान को कलंक का टीका लगा रहा है। साला, तारी पीने के बहाने यहाँ गांजा पीने आ जाता है। मैंने मन में ठान लिया है कि तारी का गाछ कटवा दूँगा। ना रहेगा बाँस, ना बाजेगी बांसुरी। गांजा पीने का कोई ना कोई बहाना ढूंढ़ ही लेता है। माँ ने कब का खाना बनाकर रख दिया है। खाना कब का ठंडा पड़ चुका है।“
हर बार शंभू के पिताजी तारी के इस लंबे पेड़ को कटवा देना चाहता है, किंतु जब उसे अपने दादा जी की याद आ जाती है तो वो अपने इरादे से पीछे हट जाते हैं। उसे इस तार के पेड़ से बेहद लगाव है, क्योंकि उसके दादा जी ने यह पेड़ रोपा था, आज से लगभग सौ साल पहले। दादा जी कब का स्वर्ग सिधार गये और एक निशानी छोड़कर चले गये। इसी मोह की वजह से शंभू के पिता जी इस बूढ़े तार को काटने में सक्षम नहीं है।
यह आवाज़ सुनकर दोनों झट से सतर्क हो गये। शंभू ने अंदर जेब में चिलम छुपा लिया। तब तक उसका बाप नज़दीक आ गया था। शंभू भयभीत होकर बोला, “बाबा जी, अंदर कोई गांजा पी रहा है। गांजा की बदबू यहाँ तक आ रही है। मैंने तो थोड़ी सी तारी पी ली और दिनेश से इधर उधर के गप्पें हांकने लगा।“
सही में अंदर से गांजा की ख़ुशबू आ रही थी। इसे देखकर पिता जी ने विश्वास कर लिया। वे दोनों पिता जी के साथ घर की तरफ़ निकाल पड़े। घर पर पहुँचकर उन्होंने साथ में खाना खाया और दिनेश भी शंभू के मचान पर ही बात करते-करते सो गया।
अभी मई का आख़िरी हफ़्ता चल रहा है। दिनेश बेसब्री से 25 जुलाई का इंतज़ार कर रहा है। उसके ज़ेहन में सरिता की सुंदर शक्ल, दिन के उजाले में ही चलते फिरते ख़्वाबों में उसकी लंबी-लंबी काली घुंघराली ज़ुल्फ़, बड़ी-बड़ी काली आँखों, उसके सफ़ेद रुख़सार को देखता रहता था। सरिता को एक बार चूमने की ख्व़ाहिश उसके दिल में अंगराई लेने लगती थी। इन सब बातों को सोचकर उसकी बेताबी और ज़्यादा बढ़ने लगती थी।
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देखते-देखते 25 जुलाई आ गया। दिनेश शंभू के साथ लोकल ट्रेन में बैठ गया और दोनों मानसी स्टेशन पर उतर गये। शंभू का साला मानसी स्टेशन पर उन दोनों का इंतज़ार कर रहा था। वे दोनों उसकी मोटर साइकिल पर पीछे बैठकर मानसी से कुछ ही दूरी पर स्थित गाँव की तरफ़ निकल पड़े। वे दोनों अब ससुराल में थे। दिनेश की वहाँ जमकर ख़ातिरदारी हुई। देशी मुर्गा का मांस तैयार किया गया और व्हिस्की ख़रीद कर लाया गया। दिनेश ने शंभू के साथ व्हिस्की पियी और बड़े चाव से मुर्गा का टाँग भी चबाया। आस पड़ोस की सभी नवयुवतियाँ, सभी सालियाँ दिनेश के इर्दगिर्द मंडराने लगीं। कोई दिनेश की बाल खींच लेती। कोई लड़की दिनेश के गाल पर हाथ रख देती थी। कोई उसके कंधे को सहलाने लगती थी, कोई गोद में बैठ जाती थी, लेकिन इन लड़कियों में दिनेश की दिलचस्पी बिलकुल नहीं थी। जब ये लड़कियाँ दिनेश से सटती थीं तो दिनेश को इससे चीढ़ होने लगती थी। वह जिस लड़की का ख्व़ाब देखकर दोबारा यहाँ तक आया था, वह अभी तक कहीं दिखायी नहीं दी थी। अब दोपहर हो चुका था। पड़ोसी के दरवाज़े पर शादी का मंडप तैयार हो रहा था। शामियाना और तिरपाल बिछा दिये गये थे। रात के लिए जेनेरेटर भी दरवाज़े पर बैठा दिया गया। पड़ोसी के आँगन में हलवाई मिठाई और पकवान तैयार कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि पड़ोसी की लड़की की शादी है। पड़ोसी दिनेश से आकर बोला कि अच्छा हुआ कि आप दोनों मेरी बहन की शादी के शुभ अवसर पर यहाँ आ गये। दिनेश भी ख़ुश हुआ कि उसके दोस्त के ससुराल के लोग उसका काफी आदर सत्कार करते हैं।
सूरज अब ढलने लगा था। एक घंटा पहले जो हल्की बूंदा-बूंदी शुरू हुई थी, कब का रूक चुकी थी। दोबारा से आसमान साफ़ हो गया था। पुरवा हवा ने हल्की बारिश के बाद लोगों को शिद्दत की गर्मी से राहत दिला दी थी और द्वार पर बैठे सभी लोगों को सुख का एहसास करा रही थी। दिनेश शंभू के साथ दरवाज़े पर एक खाट पर बैठा हुआ था। पास में ही कुछ बुज़ुर्ग लोग बैठकर आपस में गाँव, राज्य और देश-विदेश की राजनीति पर चर्चा कर रहे थे। परंतु दिनेश सरिता के बारे में सोचकर बहुत परेशान हो रहा था। वह सरिता के एक दर्शन को तरस रहा था। जब सरिता के बारे में दूसरी लड़कियों से पूछा तो पता चला कि वह दूसरे टोले अपने सहेली से मिलने के लिए गयी है और शाम को पांच बजे तक आ पायेगी।
अब पाँच से ऊपर बज चुके थे, लेकिन सरिता कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी।
कुछ सोचते हुए जब दिनेश पिछवाड़े में गया तो घर की खिड़की से उसे सरिता दिखायी दी। वह पलंग पर बैठ हुई थी और बच्चा को स्तन से लगाकर दूध पीला रही थी। इसे देखकर वह ख़ुद के अंतर्विरोध में फँसता जा रहा था। दुविधा की एक लकीर माथे प्रगट होने लगी। उसने खिड़की के पास से सरिता को पुकारा। सरिता उसी अंदाज़ में मुस्कुरायी, जब आज से डेढ़ साल पहले दिनेश से आख़िरी बार मिली थी। दिनेश के आख़िरी चुंबन को वह आज तक नहीं भूल पायी थी। दिनेश भी उन दिनों की याद में खोकर जज़्बाती होता गया और सरिता की गोद में लेटा हुआ इस बच्चा को देखकर उसका दिल अंदर से टूटने लगा। उसने इशारा करके सरिता को बाहर बुलाया। सरिता फ़ौरन बच्चा को गोद में लेकर पिछवाड़े में आ गयी। वे दोनों अब इतने समय बाद एक बार फिर एकांत में आपस में गुफ़्तगू करने लगे। दिनेश ने सरिता से सवाल किया, “यह बच्चा तेरा है? कब और कैसे ये सब हो गये?”
सरिता इत्मीनान से बोलने लगी, “पिछली बार जब तेरे पिताजी ने हम दोनों की शादी के बारे में बात आगे नहीं बढ़ने दी तो पांच महीने बाद ही मेरी शादी हो गयी।“
दिनेश निराश होकर बोला, “मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला। शंभू बोल रहा था कि तुम अभी भी कुंवारी हो। मैं तुम्हारे बारे में सोचते-सोचते तुम्हारे प्रेम जाल में फँसकर यहाँ तक आ गया और तुम मेरे से छुपकर घर में बैठी रही। मुझे इतनी जल्दी भूल गयी। मैं तेरे घर तक चलकर आया और तुम ख़ुद से मेरे पास मिलने तक नहीं आयी।“
इसे सुनकर सरिता के चेहरे पर क्रोध का भाव झलकने लगा। चेहरे पर नमूदार हो रहे गुस्से को दबाते हुए बोली, “तुम्हारे बाप को दहेज़ में चाहिए था सात लाख रूपये और ऊपर से एक मोटर साइकिल। मेरे बाप भीख माँगकर इतना पैसे इकट्ठा करते क्या? मेरे पापा सारी ज़मीन को बेचकर तुम्हारे बाप को रूपये दे देते तो मेरी दूसरी बहनों की शादी कैसे हो पाती। आज के समय में मैट्रिक फ़ैल लड़का को इतना दहेज़ कौन देगा? तुम्हारे बाप को 20 बीघा ज़मीन है तो क्या हो गया। ज़मीन को कोई चाटेगा क्या? इतने दहेज़ देने पर तो आजकल सरकारी नौकरी वाले लड़के आसानी से मिल जाते हैं। जितना मेरे पापा को सामर्थ्य था, उसके अनुसार लड़का ढूंढकर मेरी शादी करवा दी।“
इसे सुनकर माथे के बाल खुजलाते हुए दिनेश बोला, “पापा जी ही तो घर के मालिक हैं। मैंने तो अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की थी। तुम्हारी शादी से पहले तो मुझे कुछ पता भी नहीं चल सका। मैं जानता कि तुम्हारी शादी इतनी जल्दी हो जायेगी तो मैं पिताजी के ऊपर और ज़्यादा दबाव डलवाता।“
अपने बेटे को गोद में संभालती हुई सरिता बोलने लगी, “जो हो गया सो गया। अब मुझे भूल जाओ और अपने भविष्य के बारे में सोचो। तेरे पिताजी तेरे लिए मुझसे भी ख़ूबसूरत लड़की ढूंढते होंगे और वहाँ तुम्हें दहेज़ में मोटा माल मिल जायेगा। मेरे बाप फ़कीर थे, इसीलिए तेरे साथ मेरी शादी नहीं हो सकी।“
बात करते-करते आधा घंटा से ज़्यादा हो गया था। जितना ज़्यादा दिनेश मायूस हो रहा था, उतना ही ज़्यादा सरिता की शक्लो सूरत निखर रही थी। इसे देखकर वह हर लम्हा सरिता को एक बार स्पर्श करने लिए बेताब हो रहा था, लेकिन सरिता की गोद में जो बच्चा था, वह उसको अजीब सी दुविधा में डाल रहा था। दिनेश सोचने लगा, “कितनी जल्दी इंसान की ज़िंदगी में इतनी बड़ी तब्दीली आ जाती है। चंद लम्हे में क्या से क्या हो जाता है। डेढ़ साल ही पहले इसी पिछवाड़े के उस घने बगीचे में हम दोनों इस भीड़ से छुपकर एकांत में एक दूसरे की बाँहों में समाये हुए थे। वह हम दोनों की पहली इश्कबाज़ी थी। हम दोनों के लिए वह पहली मुहब्बत थी। मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार इतनी ख़ूबसूरत लड़की के मुलायम रुख़सार और लब (होंठ) को चूम रहा था, उसकी काली-काली लंबी ज़ुल्फ़ को बड़ी ही मासूमियत के साथ सहला रहा था। फिर सरिता शर्माने लगी, झेंपने लगी। तरह-तरह के बहाने करने लगी। मैंने एकाएक अपनी आग़ोश में उसे जकड़ लिया। उसके बाद तो वह गाय की तरह शांत हो गयी और मैं बड़ी ही इत्मीनान और तसल्ली के साथ उसे दुहने लगा। डेढ़ साल के अंदर ही उसी सरिता की गोद में दूसरे मर्द का जन्मा हुआ बच्चा है।“
वह सरिता के साथ गुफ़्तगू के साथ-साथ विचित्र ख्यालात में खोया हुआ था। उसके चेहरे पर ईर्ष्या का भाव साफ़-साफ़ झलक रहा था। उसकी भावना दिल की गहराई में पिघल रही थी। उससे बिलकुल रहा नहीं जा रहा था। जब उसका नन्हा बेटा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा तो सरिता आँगन की तरफ़ जाने लगी। मुस्कुराती हुई बोली कि बाद में हम दोनों फिर मिलेंगे। इधर दिनेश को खोजते हुए शंभू और सरिता का भाई भी पिछवाड़े की तरफ़ आ गये। अब तीनों द्वार पर वापस आ गये। शंभू ने व्हिस्की का एक आधा बोतल खोलकर सामने रख दिया था। उसका साला मंटू भी अब पैक बनाने में साथ दे रहे थे और साथ में पी भी रहे थे। शंभू की दो सगी सालियाँ हैं। सरिता की तो शादी हो चुकी है, इसे आप भी जानते हैं। एक साली अभी आठवीं क्लास में है। उसकी कई चचेरी सालियाँ भी हैं। लेकिन सरिता के अलावा दिनेश को इन लड़कियों में एक भी लड़की पसंद नहीं है। कोई बहुत ज़्यादा काली है। किसी का चेहरा थोड़ा सा सही है तो क़द से नाटी है। कोई बहुत ज़्यादा मोटी है। इन लड़कियों में कुछ न कुछ कमी है, कुछ न कुछ खोट है। इसीलिए दिनेश इन लड़कियों को एक बार भी छूना तक पसंद नहीं करता है। जब ये लड़कियाँ दिनेश को स्पर्श करती हैं तो दिनेश चिढ़ने लगता है। उसमें चिरचिरापन सा पैदा हो जाता है। जब से उसने सरिता की गोद में बच्चा को देखा है, तब से शंभू के ससुराल में एक पल के लिए ठहरना नहीं चाहता है। आसपास के हर लोगों से उसको नफ़रत होने लगी। अपने दोस्त शंभू पर गुस्से में आकर बरस चुका था। दोस्त की झूठी बात से वह नाराज़ हो रहा था। यहाँ तक कि दोस्त को भी देखना नहीं चाहता है।
शंभू और उसका साला दिनेश के इस तेवर को भाँप चुके थे। अतः वे दिनेश के लिए भारी पैक बना रहे थे और अपने लिए हल्का पैक बना रहे थे। द्वार पर बैठे-बैठे घंटे गुज़र चुके थे। दिनेश अब नशे की आग़ोश में अपने आपको समेटता जा रहा था। चेहरे पर नशे की उमंग दौड़ने लगी। उसके चेहरे प्रफ्फुलित होने लगे। सामने दूसरे द्वार पर ढोल नगारे बजने शुरू हो गये थे। माहौल ख़ुशगवार होने लगा था। महफ़िल सज़ने लगी थी। पड़ोसी के आँगन और द्वार पर मेहमान और गाँव के लोग जमा होने लगे थे। चारों तरफ़ उत्सव और गहमागहमी का वातावरण था। रात के ग्यारह बज चुके थे।
शंभू दिनेश से बोला, “अब हम लोग पड़ोसी की लड़की की शादी देखने चलें। शाम में पड़ोसी के यहाँ से दावत आयी था। वहाँ कई लड़कियाँ आयेंगी। हम दोनों सालियों के साथ मज़ाक करेंगे। सालियों के साथ समय बिताने में जो मज़ा आता है, वह मज़ा तो दुनिया के किसी भी चीज़ से नहीं मिल सकता है।“
इस पर दिनेश बोला, “अभी तक तो बारात नहीं आयी है। अभी जाकर क्या करेंगे?”
शंभू मज़ाकिया लहज़े में बोला, “ हम दोनों लड़कियों से मंडप के पास मज़ाक करेंगे, गप्पें हाँकेंगे। हम दोनों दरवाज़े पर बैठकर तो झक मार रहे हैं। जैसे ही हम दोनों वहाँ पहुँचेंगे, वैसे ही महफ़िल रंगीन हो जायेगी। बारात नज़दीक के गाँव से आयेगी। आने में देर नहीं लगेगी। वैसे भी तो शादी आधी रात के बाद ही तो होती है।“
दिनेश ने जंभाई लेते हुए कहा, “ठीक है। फिर चलते हैं। रात बाक़ी, बात बाक़ी।“
गिलास में थोड़ा सा पैक बचा हुआ था। तीनों पैक घटकते हुए पड़ोसी के आँगन की तरफ़ निकल पड़े। आँगन में नाटी क़द की एक साँवली लड़की बैठी हुई थी और कई सहेलियों और औरतों से घिरी हुई थी। लड़कियाँ उसको सँवार रही थीं। घूंघट पहना रही थीं। टांग में अलता लगा रही थी। कोई बाल को संवार रही थी। कोई उसके चेहरे के मेकअप कर रही थी। कोई ज़ेवर पहना रही थी। कई महिलाएँ मंडप के पास बैठकर शादी के गीत गा रही थीं। मंडप में एक पंडित जी अपने शास्त्र के साथ बैठा हुआ था। कुछ लड़के अभी भी मंडप में फूल लगा रहे थे। मंडप से कुछ दूर एक कोने में कुछ हलवाई मिठाई और पकवान बना रहे थे। गरम-गरम रसगुल्ला बड़ी से कढ़ाई में तैर रहा था और हलवाई उसे छांक-छांककर निकालकर एक तरफ़ बड़ा सा बर्तन में रख रहा था। इसे देखकर दिनेश के से जीभ से पानी टपक पड़ता था। इसे देखते-देखते साला मंटू से बात करते हुए मंडप की तरफ़ बढ़ रहा था। एकाएक दुल्हन की तरफ़ उसका ध्यान गया। वह दिनेश से बोला, “अबे दिनेश! यह काली लड़की वही सपना है?”
शंभू बोला, “हाँ, बिलकुल सही बोल रहे हो। आज सपना की ही तो शादी है। सरिता की चचेरी बहन है।“
दिनेश अब अहंकार के भाव में बोलता है, “इस लड़की को दूल्हा कहाँ से मिल गया? देखो, सूरत भी नहीं है। कितनी नाटी है। कितनी काली है। मुझे इसके दूल्हा को देखने की तीव्र इच्छा है। आज की रात देखूँगा कि कैसा है सपना का दूल्हा।“
इस पर शंभू बोलता है, “बिलकुल सही बोल रहे हो? मैं भी दूल्हा की शक्लो सूरत को देखने के लिए उत्सुक हूँ।“
इतना बोलकर दोनों मंडप के पास कुर्सी पर बैठ गये। कई लड़कियों ने चारों एतराफ़ से शंभू और दिनेश को घेर लिया व जीजा जी और उसके दोस्त से मज़ाक करने लगे। अब तक कई बुज़ुर्ग लोग भी मंडप के पास आकर बैठ चुके थे। कुछ महिलाएँ मंडप के पास बैठकर विवाह के पारंपरिक लोकगीत गाने लगीं। कैमरामैन भी अब शादी के विडियो बना रहे थे। पंडित जी, जिसकी उम्र 50 साल के क़रीब होगी, आवाज़ लगायी कि मंडप में लड़की को बुलाने की कृपा करें।
अब लड़की सहेलियों के साथ दबे पाँव मंडप में प्रवेश कर रही थी। जब वह मंडप में पंडित जी के सामने बैठ गयी तो पंडित जी ने फिर से आग्रह किया कि अब विवाह के रीति-रिवाज शुरू होंगे। लड़का को जल्दी तैयार करने का कष्ट करें। इस पर तीन हट्ठे कट्ठे लड़कों ने दो लड़कियों के साथ दिनेश को खींचकर बाहर लाया और जल्दी-जल्दी उसको धोती-कुर्ता पहनाने लगे। एक लड़की उसे अलता और मेहँदी लगाने लगी। वह समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहे हैं। तीनों लड़कों ने मंडप पर दुल्हन के पास उसे लाकर बैठा दिया। यह देखकर दिनेश के शरीर से पसीना छूटने लगता है। वह हकलाकर बोलता है, “यह कैसा मज़ाक है?”
तीनों लड़के तल्ख भरे स्वर में बोलते हैं, “अभी तेरा विवाह होने जा रहा है। शांत होकर बैठो, उसी में तेरा भला है।“
दिनेश झट से उठ खड़ा होता है और चिल्लाने लगता है, “शंभू चूतिया, तूने कहाँ मुझे फंसा दिया है? कहाँ भाग गया भौंसरी के? मैं तो इस लड़की से हरगिज़ शादी नहीं करूँगा। मर भी जाऊँगा तो हाथ-पकड़वा विवाह (force marriage) स्वीकार नहीं करूँगा।“
इतना बोलकर वह मंडप से तिलमिलाकर भागने लगता है। इस पर तीनों लड़के उसको दबोच लेते हैं और दोबारा मंडप में लड़की के पास बैठा देते हैं। वह फिर ज़बरदस्ती उठकर खड़ा हो जाता है और पूरी ताक़त से प्रतिरोध करने लगता है। इस पर एक लड़का कान पर जोड़ से तीन चार चमाटे जड़ देते हैं। इसके बाद तो उसके होश ठिकाने आ जाते हैं और नशे एक झटके में उतर जाते हैं। वह बड़बड़ाने लगता है कि कृपया मुझे छोड़ दीजिये, मैं किसी भी हालात में इस लड़की को सिंदूर नहीं दूँगा।
दूसरा लड़का जेब से देशी पिस्तौल निकालकर दिनेश के कान में सटा देता है। और बोलता है कि चुपचाप शांत मिजाज़ से लड़की को सिंदूरदान नहीं करोगे तो सारी गोलियाँ खोपड़ी के आरपार दूँगा और उसके बाद गंडक में फेंक दूँगा। तेरे घर के कोई भी लोग जान तक नहीं पायेंगे। किसी को तेरी मौत की भनक तक नहीं लगेगी।
इसे सुनकर दिनेश खोफ़ से थरथराने लगता है और काँपते हुए हाथ से सपना के माँग में सिंदूर घस देता है।
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राकेश शंकर भारती
द्नेप्रोपेत्रोव्स्क, यूक्रेन
तारीख़: 16 जुलाई 2017- 23 जुलाई 2017
Email- rsbharti.jnu@gmail.com
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