आशुतोष भारद्वाज ने कई साल मध्य भारत के नक्सल प्रभावित इलाक़ों में पत्रकारिता की है. फ़र्ज़ी मुठभेड़, आदिवासी संघर्ष, माओवादी विद्रोह पर नियमित लिखा जिसके लिए उसे पत्रकारिता के तमाम पुरस्कार मिले, जिनमें चार बार प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी शामिल है. किताब मृत्यु-कथा के कुछ अंश—
ख़्वाब एक
पिछली सदी का सबसे विलक्षण रूसी तोहफा क्या था? साम्यवाद? लाल क्रांति? पिछले साठ सालों में इस ग्रह पर सर्वाधिक प्रयुक्त रूसी शब्द क्या रहा? लेनिन, स्टालिन, ट्रोट्स्की या ब्रोड्स्की? तारकोवस्की, टॉलस्टॉय या दोस्तोयवस्की? गोर्बाचेफ, ग्लासनोस्त? नहीं —- कलाश्निकोव उर्फअवतोमात कलाश्निकोव -47। सैंतालिस नहीं, फ़ॉर्टी सैवन।
यह बंदूक कमबख्त बड़ी कमीनी और करारी चीज हुई। बस्तर के जंगल में काली धातु चमकती है। स्कूल के एनसीसी दिनों में पाषाणकालीन थ्री-नॉट-थ्री को साधा था, आर्मी के शूटिंग ग्राउंड में निशाने का अभ्यास करने जाते थे. जमीन पर लेट कर, रायफल का बट कंधे पर फंसा दूर पुतले कोगोली से बींधते थे, मस्त झटका कंधे को लगता था — बेमिसाल रोमांच। गणतंत्र दिवस परेड के दौरान उस रायफल के बट की धमक आज भी स्मृति फोड़ती है। यह बन्दूक जिसे कायदे से अब तक सेवानिवृत हो जाना चाहिए था, आज भी उत्तर प्रदेश के सिपाहियों के पास और रेल में सुरक्षा गार्डके पास दिख जाती है.
लेकिन सुकमा में एसएलआर यानी सैल्फ़-लोडिंग राइफल और मानव इतिहास की सबसे मादक और मारक हमला बंदूक एके-47। भारतीय आजादी के साल किसी रूसी कारखाने में ईजाद और आजाद हुये इस हथियार के अब तक तकरीबनग्यारह करोड़ चेहरे सूरज ने देख लिये हैं। इसकीनिकटतम प्रतिद्वंद्वी अमरीकी एम-16 महज अस्सी लाख। एक बंदूक की कमान अपने चालीस-पचास वर्षीय जीवनकाल में दस-बारह इंसानों ने भी साधी तो लगभग सवा सौ करोड़। भारत की आबादी जितने होंठ इसे चूम चुके।
इसका जिस्म, जोर और जहर गर्म मक्खन में चाकू की माफिक दुश्मन की छाती चीरता है। ख्रुश्चेव की सेना ने 1956 का हंगरी विद्रोह इसी बंदूक से कुचला था। वियेतनाम युद्ध में इसने ही अमरीकी बंदूक एम-14 को ध्वस्त किया। झुँझलाएअमरीकी सिपाही अपने हथियार फैंक मृत वियेतनामीसिपाहियों की एके-47 उठा लिया करते थे। रूस से चलता यह हथियार समूचे सोवियत खेमे और गुटनिरपेक्ष देशों को निर्यात और तस्करी के जरिये पहुँचता था।
शीत युद्ध के दौरान नाटो सेना अपने समूचे तकनीकी ज़ोर के बावजूद इस बंदूक का तोड़ नहीं खोज पायी थी। पिछले साठ साल में दुनिया भर के सशस्त्र विद्रोह इसकी गोली की नोक पे ही लिखे गये। दक्षिण अमरीका या ईराक या सीरिया, पश्चिमीआधिपत्य के विरोध में खड़े प्रत्येक छापामारलड़ाके का हथियार।
दिलचस्प कि सोवियत सेना को आखिर उनके ही हथियार ने परास्त किया, सोवियत किले पर पहला और निर्णायक प्रहार इस बंदूक ने ही किया। 1979 में अफगान युद्ध के दौरान अमरीका ने दुनिया भर से एके-47 बटोर अफगानियों को बंटवायीं और लाल सेना अपनी ही निर्मिति का सामना नहींकर पायी। दस साल बाद जब सोवियत टैंक अफगानी पहाड़ियों से लौटे तो पस्त सिपाहियों की बंदूकों का जखीरा अफगानी लड़ाके छीन चुके थे.
कई साल बाद अमरीका को भी इसका स्वाद अफगान में चखना पड़ा. तालिबानी छोकरे इसी कलाश्निकोव का घोड़ा चूमतेथे, इसकी नाल से जुड़े ग्रेनेड लांचर की गुलेल बना अमरीकी हेलीकाप्टर आसमान से तोड़ पहाड़ियों में गिरा लेते थे। इतना मारक और भरोसेमंद हथियार नहीं हुआ अभीतक। अफ्रीकी रेगिस्तान, साइबेरिया की बर्फ या दलदल — कीचड़ में दुबका दो, साल भर बाद निकालो, पहले निशाने पर झटाक। तमाम देशों की सेना इसके ही मूल स्वरूप को लाइसेंस या बिनालाइसेंस ढालती हैं। चीनी टाइप-56, इजरायल की गलिल या भारतीय इन्सास — सब इसकी ही आधी रात की अवैध संताने।
शायद अकेली बंदूक जिस पर पत्रकार और सेनापतियों ने किताबें लिखी। ‘द वैपन दैट चेंज्ड द फेस ऑफ़ वॉर’, ‘ द गन दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’। समूचे मानव इतिहास में किसी अकेले हथियार ने इतनी लाश नहीं गिराई। परमाणु बम होता होगासेनपतियों की कैद में, राजनैतिक-सामरिक वजहें होंगीउसके बटन में छुपी। तर्जनी की छुअन से थरथराता यह हथियार लेकिन कोई मर्यादा नहीं जानता। सच्चा साम्यवादी औजार यह — हसीन, सर्वसुलभ, अचूक।
समूची पृथ्वी पर सर्वाधिक तस्करी होती बंदूक। कई जगह मसलन सोमालिया में छटांक भर डॉलर दे आप इसे कंधे पर टांगशिकार को निकल सकते हैं। हफ्ते भर के तरकारी-झोले से भी हल्की और सस्ती। अकेली बन्दूक जो किसी देश के राष्ट्रीय ध्वज पर दर्ज है. मोजाम्बिक ने इसे उपनिवेशी राज के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष के बाद मिली अपनी मुक्ति के प्रतीक बतौर मान अपने ध्वज के मध्य में अंकित कर दिया.
नाल से उफनती चमकते पीतल की ज्वाला। झटके में पीली धातु का जाल हवा में बुन देगी। साठ सेंकिड उर्फ़ छः सौ गोली का आफताब। पिछली गोली का धुआँ अगली को खुद ही चेंबर में खटाक से अटका देगा। एक सेकंड उर्फ़ ढाई हजार फुट दौड़ मारेगी गोली। हथेली का झटका और दूसरीरसद पेटी उर्फ़ मैगजीन लोड। कैंची साइकिल चलाने या रोटी बेलने से कहींमासूम इसका घोड़ा। साइकिल डगमगायेगी, गिरायेगी, घुटने छील जायेगी, चकले पर आटे का लौंदा बेडौल होगा, आंच और आटे का सम सध नहीं पायेगा — यह चीता लेकिन बेफिक्र फूटेगा। फूटता रहेगा। कंधे परटंगा कमसिन करारा, तर्जनी पर टिका शोख़ शरारा। बित्ता भर नीचे रसद पेटी का बेइंतहा हसीन कोण। पृथ्वी पर कोई बंदूक नहीं जिसकी अंतड़ियाँ यूँमुड़ती जाएँ।
दुर्दम्य वासना यह. इसके सामने मानव जाति को हासिल सभी व्यसन बेहूदे और बेबस और बेमुरब्बत। अहिंसा के अनुयायी भले हों आप, इस हथियार का सत्संग करिये, यह संसर्ग को उकसायेगी, आपकी रूह कायांतरित कर जायेगी, किसी लायक नहीं छोड़ेगी। नवजात सिपाही का पहला स्वप्न।शातिर लड़ाके की अंतिम प्रेमिका। नक्सली गुरिल्ला लड़ाके की पुतलियाँ चमकेंगी ज्यों वह बतलायेगा आखिर क्यों यह हथियार कंधे से उतरता नहीं।
क्या इतना मादक हथियार क्रांति का वाहक हो सकता है? क्रांतिशस्त्र को विचार ही नहीं, तमीज और ईमान और जज्बात की भी लगाम जरूरी, जो कि लड़ाके बतलाते हैं इस हथियार संग असंभव। क्या उन्मादा पीला कारतूस ख्वाब देख सकता है? या गोली की नोक भविष्य का जन्माक्षर लिखसकती है, वह पंचाग जिसकी थाप पर थका वर्तमान पसर सके, आगामी पीढियां महफूज रहे?
फकत दो चीज अपन जानते हैं। पहली, अफगानियों को इस हथियार से खेलते देख उस रूसी सिपाही ने कहा था — अगर मुझे मालूम होता मेरे अविष्कार का ये हश्र होगा तो घास काटने की मशीन ईजाद करता।
दूसरी — जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो।
आखिर मिखाइल तिमोफीविच कलाश्निकोव बचपन में कवितायें लिखते थे, सेना में भरती होने के बावजूद कवितायें लिखते रहे थे।
इतिहास का सबसे संहारक हथियार भी क्या किसी असफल रूसी कवि को ही रचना था?
ख्वाब २
दीपावली। तेरह नवम्बर, दो हज़ार बारह। बीजापुर का राजस्थानी भोजनालय। दो-तीन दिन पहले बीजापुर पुलिस ने दो लड़कियों और एक वर्दीधारी कथित नक्सली को यहाँ की स्थानीय मीडिया के सामनेपेश किया था, यह कहकर कि एक बड़े रैकेट का पर्दाफ़ाश हुआ जो ‘नक्सलियों को कम उम्र की लड़कियाँ सप्लाई करता था’। यह “कुख्यात नक्सली” गुज्जा मुख्य सप्लायर था। मैं रायपुर में था, जब यह तस्वीरेंटीवी पर आ रहीं थीं। मुझे यह चेहरा पहचाना सा लगा. गुज्जा से कुछ महीने पहले इसी ज़िले के अंदरूनी इलाकों में भटकते वक्त फरसपल्ली गाँव में मुलाक़ात हुई थी. इसके पास छोटा सा धनुष था, लोहे की नोक वाले तीन बाण. उस वक्त मुझे वह नक्सलियों का मुखबिर लगा था. मुखबिर “लड़कियों का सप्लायर” क्यों और कैसे होगा?
महज दो दिन की तफ्तीश से मालूम चल गया कि पुलिस के इस दावे पर खुल कर हंसा जा सकता है. हंसा भी.
यह यात्रा लेकिन किसी और वजह से याद रहेगी. इस ख़बर की तलाश में एक मास्टरजी से मुलाकात हुई। नाम उनका सत्यनारायण. बीजापुर के रहने वाले नहीं थे, कहीं बाहर से यहाँ आ सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे थे.
वे माद्देड गाँव में अपने घर ले गए। उनके घर में एक बड़े मुँह वाला कुआँ है। जिसमें कई सारे कछुए अलसाते ऊँघते रहते हैं। वे दुखी थे कि इस कुएँ से कोई कुछ दिन पहले एक कछुआ चुरा कर ले गया। अचम्भितभी थे कि कोई कैसे उनके घर घुसा, कुएँ में उतरा, कछुआ चुरा ले गया। वह भी सिर्फ एक. कछुआ ख़ुद तो ऊपर उछल कर चोर के पास आ नहीं जाएगा। कुआँ ठीक-ठाक गहरा था, कई महाकाय कछुए नीचेअलसाये डुबडुबा रहे थे.
थे। मास्टरजी कछुए चोरी की रिपोर्ट पुलिस में भी लिखवाना चाहते थे, कछुए को सुरक्षित ले आने वाले के लिए इनाम की भी घोषणा करना चाहते थे लेकिन जब थाने गये तो सिपाही उन पर हँसने लगे।
अब वे चाहते थे कि मैं कछुए की चोरी पर अपने अख़बार में खबर करूँ. मैंने बताया कि मैं अभी अभी तफ्तीश वाली खबर लिख कर आ रहा हूँ. अमूमन इसी तरह की खबरनवीसी करता हूँ, तो बोले कि कछुए की चोरी भी तो तफ्तीश का मसला है. “पुलिस साथ नहीं दे रही है, आप तो दीजिये.”
मैंने फिर कहा कि मेरा तो दिल्ली का अख़बार है. यह अख़बार तो सिर्फ रायपुर में हवाई जहाज से आता है. बीजापुर भी नहीं पहुँच पाता, आपके गाँव तो बहुत दूर की बात है. किसी स्थानीय अख़बार में छपेगी कछुए चोरी की खबर तो शायद कुछ फर्क पड़ेगा.
“दिल्ली में बात फैलेगी तो अच्छा होगा न. यहाँ की पुलिस पर डंडा पड़ेगा.” वे अभी भी अड़े हुए थे, मुझसे जिद की कि मैं उनके कुएँ की तस्वीरें लूँ जिसमें बाकी कछुए तैर रहे थे.
उस कुएँ को कैमरे की आंख से देखते हुए मुझे याद आया इस बरसात में, अगस्त या जुलाई में शायद, एक मेढक मेरे रायपुर के घर से भी इसी तरह ग़ायब हो गया था। वह घर के अंदर न जाने कैसे घुस आया था।मेरे घर की देहरी ठीक-ठाक ऊँची है इसलिए उसके लिए कूदकर घर के अंदर आ जाना इतना आसान नहीं रहा होगा। घर में बड़ा सा लॉन भी है। मेढक के लिए वहीं रहना, मिट्टी और केंचुओं और कीड़ों के बीच, ज़्यादा मज़ेदार रहा होता। अंदर आने की मेहनत क्यों करेगा आख़िर?
एक शाम घर पहुँच ताला खोला तो वह हॉल के बीच में बैठा टकटका रहा था. हॉल में रखे टीवी की स्क्रीन पर उसका प्रतिबिम्ब टुमक रहा था. हम दोनों एक दूसरे को स्क्रीन पर देर तक देखते, परखते रहे. मुझे लगा मैं पहली बार किसी मेढक को देख रहा हूँ, वह भी मेढक की निगाह से.
मेरे घर में तीन कमरे थे, तीनों ख़ाली। कुर्सी मेज और बुक शेल्फ के अलावा कोई फ़र्नीचर नहीं। मैं एक कमरे में ज़मीन पर गद्दा बिछा सोता था। मैंने दूसरा कमरा इस नए मेहमान को दे दिया। कभी ब्रेड के टुकड़ेउसे डाल देता, कभी एक थाली में लॉन की मिट्टी उसके लिए रख देता कि शायद वह इसमें कीड़े खोज लेगा। एक कटोरी में पानी रख दिया। जब घर से बाहर जाता तो उसका कमरा बंद करके जाता कि महाशयफुदक कर भाग न जाएँ। मैंने उसे एक नाम भी दे दिया —- टूटू।
टूटूजी से दोस्ती भी हो गयी. मैं देर तक उनके गले के नीचे लटकते गिलगिले मांस को हिलता हुआ देखता रहता.
बचपन में पढ़ी मेंढक और राजकुमारी की कहानी याद आती. यह भी दुख होता कि कभी स्कूल में बायोलॉजी क्लास में टूटूजी के किसी पुरखे को बाकायदा मेज पर लिटाकर उसकी हत्या की थी.
कुछ दिन बाद लेकिन टूटूजी ग़ायब हो गए। एक दिन लौट कर मैंने दरवाज़ा खोला तो वह नहीं थे। क्या खिड़की से बाहर कूद गए? लेकिन खिड़की तो बंद थी, वैसे भी ज़मीन से बहुत ऊँची थी। इतना ऊपर तो वहकूद ही नहीं सकेंगे। बिल्ली भी अंदर नहीं आ सकती। दरवाज़ा एकदम ज़मीन से छूता हुआ था, दरवाज़े के नीचे से निकल भागना सम्भव नहीं था। लेकिन क्या टूटूजी ने अपने शरीर को इस क़दर सिकोड़ लियाहोगा कि वे चौथाई सेंटीमीटर बराबर दरवाज़े के नीचे की जगह से निकल लिए होंगे? अगर ऐसा ही करना था तो वे पहले ही दिन कर सकते थे।
टूटूजी की गुमशुदगी अभी तलक रहस्य बनी हुई है।
कुंए की फोटो खींचने के बाद, टूटूजी को याद करते हुए, मैंने मास्टरजी से कहा कि हो सकता है उनका कछुआ खुद ही चला गया हो, किसी ने चुराया न हो. ‘कैसी बात कर रहे हैं आप. इतना गहरा कुआँ है, बाहर कैसे कूदेगा?…आप इस पर खबर करिए न.”
उनके घर से लौटने के बाद मैं अरसे तक यह कल्पना करता रहा कि बस्तर के किसी गाँव में एक घरेलू कुँए के भीतर से कछुए की गुमशुदगी की खबर को किस तरह से राष्ट्रीय आयाम दिया जा सकता है, दिल्ली के लायक बनाया जा सकता है. करीब हफ्ते भर बाद मुझे सपना भी आया कि मास्टरजी के कछुए पर मेरी खबर पहले पन्ने पर छपी है, उसी तस्वीर के साथ जो मैंने खींची थी. मुझे फोटो क्रेडिट भी दिया गया है.
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