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सफ़र के साथ सफ़र की कहानियाँ होंगी/ हर एक मोड़ पे जादू-बयानियाँ होंगी

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हाल में ही जानी मानी लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ की यात्रा पुस्तक आई है ‘होना अतिथि कैलाश का’राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस किताब पर यह टिप्पणी लिखी है लेखिका-अनुवादिका रचना भोला यामिनी ने- मॉडरेटर

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होना अतिथि कैलाश का—

क्या कैलाश का अतिथि होना इतना सहज धरा है\ औघड़ बाबा ठहरे भोले भंडारी] न्यौता देने के बाद पलक पांवड़े बिछाए प्रतीक्षा नहीं करते अपितु पग&पग पर अपने भक्तों और जिज्ञासु जीवों की परीक्षा के ऐसे-ऐसे संयोग पैदा कर देते हैं कि कुछ कहते नहीं बनता। आतिथ्य निभाना तो दूर रहा] अतिथि को ही विशुद्ध तन] मन और आत्मा का अर्घ्य ले कर कैलाशपति के चरणों में रखना होता है। इस बाह्य यात्रा के साथ चेतना की आंतरिक यात्रा भी निरंतर गतिमान रहती है। अपनी ही बनाई धारणाओं] मान्यताओं] पूर्वाग्रहों] असुरक्षाओं और भय व तन और मन के अनेक रोग] शोक और कष्ट की प्राचीरें लांघ कर अतिथि पहुँचता है कैलाश के समक्ष।

सूक्ष्म से विराट के अनुभव की इस यात्रा में निश्चित रूप से लेखिका का मानसिक संबल ही पाथेय रहा होगा। उन्होंने शारीरिक] मानसिक और भावात्मक कष्टों व संताप को धैर्य पूर्वक सहन करते हुए] अपने अपूर्व जीवट] साहस और जीवंतता के बल पर दुर्गम कैलाश यात्रा के विवरण को नाना माध्यमों से सहेजा और फिर अपने अनूठे कौशल से हमारे लिए लिपिबद्ध किया। इतिहास लेखिका की इस क़िताब को एक दस्तावेज़ की तरह संभालेगा और आने वाली पीढ़ियाँ कैलाश से परिचित होंगी] फिर भले ही उनकी भावना रोमांच से जुड़ी हो या भक्ति-भाव से] प्रकृति के प्रति प्रेम या फिर केवल कौतूहल से] यह क़िताब हर दृष्टि से सार्थक होगी।

कैलाश परिक्रमा को निकली लेखिका कैलाश से जुड़ी अपनी बाल्यकाल की स्मृतियों को रेखांकित करती हैं- हम सबके मन में किसी जगह के लिए एक छवि बनी रहती है और हम जाने&अनजाने उसी छवि में रंग भरते चले जाते हैं। इस यात्रा के साथ लेखिका को अपने मन में बसी उस अमूर्त छवि में कल्पित रंग भरने के स्थान पर उसे यथार्थ के ठोस धरातल पर देखने का अवसर मिला।

कैलाश की पौराणिक संदर्भ यात्रा और भौगोलिक अवस्था का वर्णन करने के पश्चात] वे उससे जुड़ी धार्मिक मान्यताओं की जानकारी भी देती चलती हैं। यह जान कर आश्चर्य होता है कि तिब्बती बौद्ध परम आनंद के प्रतीक बुद्ध डेमचोक ¼धर्मपाल½ को कैलाश का अधिष्ठाता देव मानते हैं। इसके अतिरिक्त यह स्थल जैन धर्म] सिक्ख धर्म व ईसाई धर्म के लिए भी आदर व श्रद्धा का प्रतीक है।

यात्रा वृत्तांत के आरंभ में ही लेखिका स्पष्ट करती हैं कि उनके पति किसी भी दशा में ऐसी दुर्गम यात्रा पर उन्हें अकेले नहीं जाने देना चाहते थे और उन्होंने किसी तरह सारी व्यवस्था की कि वे दोनों एक साथ जा सकें। किताब जिस रोचकता के साथ आगे बढ़ती है] वहीं दांपत्य प्रेम के अनेक मधुर क्षणों के साक्षी बनते हैं पाठक। लेखिका के पति कहीं एक मित्र तो कहीं बड़े भाई की भूमिका में निरंतर अपना साथ देते दिखाई देते हैं। परिक्रमा के दौरान उनके पति और गाइड- शेरपा गौरी कुंड से जल लेने उतरे और वे अन्य तीर्थयात्रियों सहित आगे चल दीं। एक स्थान पर कुछ विचित्र सी आवाज़ें सुन कर अनुमान लगा रही लेखिका को एक अन्य तिब्बती गाइड ने किसी तरह उनकी जगह से धकेल कर भागने को विवश कर दिया और जब वे उस स्थान से हटीं तो कुछ ही क्षण में ठीक उसी जगह एक मोटी चट्टान आ गिरी] जहाँ वे खड़ी थीं। वे कुछ देर वहीं बैठ कर नाना विचारों में गुम रहीं और जब उठ कर चलने लगीं तो अचानक बेसुध हो कर गिर गईं। एक सज्जन ने उन्हें एनर्जी ड्रिंक दे कर सहारा दिया और आगे तक लाए] बाद में जब उन्होंने अपने पति से मिलने पर उक्त दुर्घटना का ज़िक्र किया तो उन्होंने उन्हें सीने से लगा कर कहा]

”इसलिए तो मैं तेरे साथ आया हूँ न! तुझे कुछ नहीं हो सकता।“

सच था] शिवांगी अपने शिव संग यात्रा पर निकली थीं] भला कोई कष्ट सामने टिकता भी कैसे।

प्रकृति की मानस पुत्री लेखिका का प्रकृति प्रेम किसी से छिपा नहीं है और इस पुस्तक में उनकी प्रकृति संबंधी जानकारी वास्तव में चकित करती है। वे कैलाश की धार्मिक और आध्यात्मिक छवि के अतिरिक्त न केवल उसकी विशद भौगोलिक जानकारी देती हैं अपितु कैलाश परिक्रमा के दौरान मिली वनस्पति और पशु-पक्षियों के बारे में भी पाठकों का ज्ञानवर्द्धन करती हैं।

लेखिका ने निरंतर अपनी पैनी निगाह से पर्यावरण के प्रति संकट बनने वाले मुद्दों पर आवाज़ उठाई है जैसे बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद और आस्था व धार्मिक मान्यताओं के नाम पर मानसरोवर जैसी पावन जलराशि को दूषित करना] परिक्रमा मार्ग में अस्थायी डेरों पर कचरा फैलाना] मल&मूत्र विसर्जन के उचित प्रबंध न होने की दशा में गंदगी फैलाना] मनाही होने पर भी मानसरोवर के तट पर हवन व स्नानादि करना। इससे एक पर्यावरणविद् की संवदेनशीलता का परिचय मिलता है जो केवल आँखें मूंद कर हर&हर महादेव का उद्घोष करने में विश्वास नहीं रखतीं बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए इस ग्रह की  सहज स्वाभाविक और बुनियादी चीज़ों को संजो लेना चाहती हैं। अगर शुद्ध वायु] जल और पर्यावरण नहीं रहा तो हम सब आने वाले समय के दोषी होंगे।

‘होना अतिथि कैलाश का* – यह पुस्तक इतिहास] संस्कृति] धर्म] पर्यावरण] विज्ञान] प्रकृति] मिथकों व पौराणिक संदर्भों से इतनी समृद्ध है कि हर रुचि के पाठक को इसमें अपने लिए कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा। लेखिका ने अपनी यात्रा का जो सिलसिलेवार ब्यौरा प्रस्तुत किया है] उसे पढ़ते हुए ऐसा जान पड़ता है मानो हम स्वयं उनके साथ यात्रा पर निकले हों। वे यात्रा से पूर्व की जाने वाली सारी तैयारियों के बाद किसी कुशल चितेरे की तरह एक&एक दृश्य रचते हुए विशाल चित्रपट बना देती हैं कि कुछ कहते नहीं बनता। पुस्तक के अंत में ऐसा ही लगता है कि अभी कोई वृत्तचित्र देख कर ख़त्म किया हो। एक क़िताब की इससे बड़ी खू़बसूरती और क्या होगी कि पाठक को यह भूल जाए कि वह कुछ पढ़ रहा है या वह कुछ देख रहा है।

क़िताब में पाठक लेखिका के साथ कदम-कदम दर चलता] उनके मार्ग में आने वाली प्रत्येक बाधा और कष्ट का साक्षी बनता है। कहीं भू-स्खलन राह रोक लेते हैं] तो कहीं आंधी और बारिश भयाक्रांत करते हैं] कहीं धूसर पहाड़ों का मटमैलापन मन को उदास करता है तो कहीं शाकाहारी लेखिका लौ पर भुनते पक्षी को देख कातर हो उठती है] कहीं हाड कंपकंपाती सर्दी हिम्मत तोड़ती है तो कहीं बर्फ़ से ढके पहाड़ों और मैदानों में पैदल चलने की क़वायद प्राण लेने पर उतारु हो जाती है] परिक्रमा में घोड़ों की बजाए पैदल जाने का हठ साधे लेखिका] इस दुर्गम यात्रा में मृत्यु से साक्षात्कार करती हैं] तिब्बत की नष्ट होती जैव-विविधता और तिब्बितयों संग चीनियों के सौतेले बर्ताव को देख व्यथित होती हैं — लेखिका के पास पाठक को अपने ही प्रवाह में बहा ले जाने का एक हुनर है जो ऐसी अंगुलियों से साधा जा सकता है जिन्होंने बरसों-बरस माँ वाग्देवी की आराधना की हो- मन-मानस में उपजे भावों को शब्दों का जामा पहना कर उन्हें माँ के चरणों में अर्पित किया हो।

पुस्तक में एक स्थान पर लेखिका अकस्मात मानसरोवर पर सूर्योदय की अनंतिम आभा का दर्शन कर गदगद हो उठती हैं। उनके ही शब्दों में पढ़ें] ‘हम दोनों शॉल ओढ़े दो तरुण भिक्षु लग रहे थे। जो बोझिल वैराग्य से थक कर] खिलखिला कर हँस रहे हों। लौटते हुए हमारी हँसी से मानसर से बादलों का सैलाब हटा —एक लालिमायुक्त रोशनी थोड़े से हिस्से पर पड़ी जैसे मंच पर स्पॉट लाइट पड़ती है —यह धरती पर स्वर्ग था] ग्लेशियर से निकला तृषातोषक अमृत सरोवर — सुबह के समय मानसरोवर के जल पर पड़ने वाली सूर्य-रश्मियाँ परावर्तित होती हैं तो जल के भीतर से कितनी मणियों का खजाना फूट पड़ता है—।

और वे उस अभूतपूर्व दृश्य के स्वर्गिक आनंद के अतिरेक में नागार्जुन की पंक्तियाँ दोहराने लगीं —

अमल धवल गिरि के शिखरों पर

बादल को घिरते देखा है

छोटे-छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है

लेखिका कैलाश परिक्रमा के दौरान कैलाश के विविध रूपों को देखते हुए अनिवर्चनीय आनंद से भर उठती हैं। मौसम अनुकूल न होने के कारण कई बार कैलाश के दर्शन न हो पाते किंतु जब भी यह संयोग जुटता तो वे जैसे सृष्टि की इस अनूठी महाकाय प्रतिमा को देख अभिभूत हो उठतीं। वे कैलाश के उत्तरी पश्चिमी मुख को देखने के बाद कह उठती हैं] ‘तुषार-शिखर की इस भंगिमा को देख कौन न रह जाता अवाक्] उनके नील चक्षु स्पष्ट दिख रहे थे। अंशु ने प्रणाम किया और मैंने भी अवाक् हथेलियाँ जोड़ीं और फिर बाँहें ही फैला दीं- वह विशाल हथेलियों में कहाँ आने वाला था] न ही मात्र प्रणाम से मेरा मन भरता।’

कैलाश परिक्रमा में आगे बढ़ते-बढ़ते मनुष्य सत्यं] शिवं और सुंदरं के आदि रहस्य के अर्थ को जानने लगता है। भौतिकता का अंश मात्र जैसे कहीं तिरोहित कर] मनुष्य अप्रतिम आध्यात्मिक भाव में लीन हो जाता है। यात्री भीतर और बाहर से पूरी तरह से रिक्त हो कर स्वयं ही द्रष्टा और स्वयं ही दृश्य हो जाता है।

चांदनी रात में] लगभग तीन बजे कैलाश से बादल हटे और वह साक्षात उनके सामने था- उस समय उनकी भावदशा निराली थी। उन्हीं के शब्दों में एक बानगी लें] ßमुझे अति प्रसन्न होना था। उत्साह में भर कर नतमस्तक होना था — किंतु मेरे भीतर इतना भीषण वैराग्य जगा कि मेरे और कैलाश के बीच उस क्षण केवल एक महाशून्य था —!

इस क़िताब को पढ़ते हुए लेखिका का तिब्बत प्रेम अनायास ही उभर कर सामने आता है और वे अपने ज्ञान के पिटारे से ऐसी-ऐसी जानकारियों  का भंडार प्रस्तुत करती हैं कि पाठक मंत्रमुग्ध हो उठता है।

यात्रा वृत्तांत प्रायः पाठकों की संपूर्ण जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाते क्योंकि लेखक अक्सर अपनी अभिरुचि के मापदंड पर ही अपने कथानक को प्रस्तुत करता है। इस तरह कोई यात्रा वृत्तांत दर्शन की ओर झुकता दिखाई देता है तो कोई केवल कोरी जानकारी देने का माध्यम बन कर बोझिल हो उठता है। किसी क़िताब में संदर्भों से जुड़ी पाद&टिप्पिणयाँ पढ़ने का आनंद किरकिरा करती हैं तो कहीं केवल इतिहास और वर्तमान के बीच झूलती पंक्तियाँ क़िताब को किसी एक ठौर टिकने नहीं देतीं। यहाँ लेखिका बधाई की पात्र हैं] वे एक सुंदर संतुलन स्थापित करने में सक्षम रही हैं और मेरे जैसे यायावर पाठक को न केवल साहित्यिक आनंद मिला बल्कि परिक्रमा से जुड़ी आवश्यक जानकारी और अपेक्षित सावधानियों की भी पूरी जानकारी मिल गई।

इस क़िताब ने एक पारंपरिक यात्रा वृत्तांत शैली के सभी आवश्यक गुणों को समाहित करते हुए भी अपनी ओर से पाठकों को ऐसा बहुत सा पाठ्य दिया है जिसका हिंदी की कित़ाबों में अभी बहुत अधिक वर्णन नहीं मिलता। प्रायः यात्राओं के दौरान महिला यात्रियों को व्यावहारिक तौर पर आने वाली कठिनाईयों को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया जाता है। दुर्गम यात्राएँ पर्यटन की श्रेणी में नहीं आतीं जिनमें पर्यटक सभी सुख&सुविधाओं से लैस स्थानों पर रहते हुए] मौज-मस्ती में दो दिन बिता कर लौट आते हैं। इन यात्राओं में यायावर अपने कंफ़र्ट ज़ोन से निकल कर अपने ही तन और मन की सीमाओं को लांघ कर प्रकृति से तादातम्य स्थापित करते हैं।

लेखिका स्वयं जिन समस्याओं से दो-चार हुईं] उन्होंने पूरी परिपक्वता से] अनावश्यक संकोच से परे] उन समस्याओं के हल भी प्रस्तुत किए हैं। जैसे यात्रा के दौरान नेचर्स कॉल पूरी करने के लिए उन्हें बार&बार बस से उतरना पड़ता था और वे लिखती हैं] ßमूत्रवर्धक दवा डायमॉक्स और लगातार जल सेवन से हम हर घंटे में बस रोकते] उन सपाट मैदानों में कहीं कोई चट्टान और पेड़ नहीं था। मैं जींस पहनने वाली] मुझे बहुत स्पोर्ट रहा डिस्पोज़ेबल ^पी- फ़नल* का। इसके अतिरिक्त उन्होंने यात्रा में आवश्यक सामान की सूची में भी महिला यात्रियों को ऑनलाइन उपलब्ध ^फीमेल यूरीनेशन डिवाइस* रखने को कहा है। पैंटीज़ बार-बार बदलने की बजाए पैंटी लाइनर इस्तेमाल करने और पीरियड होने की दशा में मेंस्ट्रुअल कप रखने की सलाह दी है क्योंकि इन यात्राओं में सब बदलने के लिए जगह और सुविधा दोनों ही नहीं होते और गर्म ऊनी कपड़ों व जैकेटों से लदे होने की वजह से भी यह संभव नहीं हो पाता। उनके अनुसार इन यात्राओं में वेट टिश्यू नैपकिन और हैंड सेनेटाइज़र भी महिलाओं के अच्छे दोस्त होते हैं।

‘होना अतिथि कैलाश का’पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद वास्तव में ऐसा ही लगता है कि लेखिका न केवल कैलाश की अतिथि हुईं बल्कि अपने सहज स्वभाव और संवेदनशील तरल-सरल मन के साथ ऐसी पाहुन हुईं कि उन्हें विदा देते हुए पर्वतों के विशाल मन भी तनिक उदास और रुआँसे  हो उठे होंगे।

सफ़र के साथ सफ़र की कहानियाँ होंगी

हर एक मोड़ पे जादू-बयानियाँ होंगी

                           -खलील तनवीर

वाकई उनकी जादुई बयानियों से गुज़र कर लिखा है मैंने क़िताब के बारे में…

                           -रचना भोला ‘यामिनी’

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