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ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘कंदील’

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ईशान त्रिवेदी फ़िल्मी जगत के जाने माने नाम हैं। उनका पहला उपन्यास ‘पीपलटोले के लौंडे’ राजकमल प्रकाशन समूह से आया है। उनकी क़िस्सागोई और कथाभूमि दोनों प्रभावित करते हैं। जैसे कि इस कहानी में- मॉडरेटर

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कंदील

मेरी दादी की सबसे अच्छी दोस्त टुइंयाँ दादी विधवा और बहुत गरीब थीं। उनका एक बेटा था। नाम मुझे याद नहीं। हमारे कस्बे में किसी ‘बहुत गरीब’ के घर को आप कई तरीकों से पहचान सकते हो। जिसकी दीवारों से ईंटें झांकती हों कोई ज़रूरी नहीं वो बहुत गरीब हो। जिसकी दीवारों से पीपल फूट आये हों कोई ज़रूरी नहीं वो बहुत गरीब हो। जिसके घर में सालाना इम्तिहान के लिए गाँव से आये लड़के किराये पे रहते हों कोई ज़रूरी नहीं वो बहुत गरीब हो। असली पहचान ठण्ड के दिनों में होती थी जब दोनों खाने के वख्त सिगड़ी या चूल्हों से निकला नीला धुआँ हरेक घर के ऊपर टंगा होता था। टुइंयाँ दादी के घर के ऊपर ये धुआं अक्सर गायब रहता था। टुइंयाँ दादी का बेटा छोटा था। चौदह पंद्रह का रहा होगा तब। स्कूल में फीस माफ़ थी तो पढता था। टुइंयाँ दादी की कमाई का बस एक ही जरिया था। जब रामलीला होती तो मथुरा से आये नौटंकी वालों को उनके घर में तिरपाल लगा के, पुआल बिछा के २०-२२ दिन रहने को कहा जाता। बाहर से आये लोगों के ठहरने के लिए हमारे कस्बे में एक पुरानी सराय छोड़ कर कोई इंतज़ाम नहीं था। वो सराय रामलीला वाले मैदान से थोड़ी दूर थी और जब मथुरा की नौटंकी में नाचने वलियाँ रिहर्सल या परफॉरमेंस के लिए वहां से निकलतीं तो कस्बे के छिछोरों का फ़िदाईं पना लंका कांड से भी ज्यादा नाटकीय हो उठता। टुइंयाँ दादी का घर इसलिए चुना जाता था क्योंकि वो रामलीला वाले मैदान से सटा हुआ था। आँगन की पछवाहां दीवार जगह जगह से टूटी हुई थी तो मैदान से घूम के आने के बजाय सभी दीवार से गुज़र के अंदर आ जाते।

सुनीता, जो रामलीला के बीच में ‘सीसी भरी गुलाब की …’ और ‘मार दिया जाय या छोड़ दिया जाय …’ जैसे गानों पर धुआँधार नाचती थी और जिसके एक एक नाच पे कसबे के कदरदानों से सौ सौ रुपैये इक्कठ्ठे हो जाते थे, उसे ऊपर की अटारी में ठहराया जाता। लोग कहते थे क़ि रामलीला कमेटी का अग्गरवाल काँडा अक्सर उस अटारी में जाया करता था। मथुरा की नौटंकी वाले लगभग १५ लोग होते थे। राम, लक्ष्मण, सीता के अलावा हनुमान, दशरथ, विभीषण जैसे अहम किरदार ये ही लोग निभाते। रावण का रोल हमारे कसबे के ही पंडित जगदम्बा प्रसाद करते थे और चूंकि वो बहुत पॉपुलर थे इसलिए हर साल ये रोल उन्हें ही दिया जाता था। पंडित जगदम्बा प्रसाद काशीपुर की चुंगी पे बैठते थे और मुझे याद है की उनके पास हर्र की गोलियां और जासूसी दुनिया की लेटेस्ट किताब मिलती थीं। दोनों ही इतनी स्वादिष्ट होती थीं की उनके पास मेरा आना जाना लगा रहता था। रामलीला में बंदरों और राक्षसों की फ़ौज़ की ज़रुरत पड़ती थी। कसबे के सभी बच्चे कुछ ना कुछ बनना चाहते थे। एक तो हुड़दंगा और ऊपर से कभी कभी लस्सी पीने को मिलती थी। मुझे राक्षस बनने का शौक था। उसकी वजह थी सुनीता क्योंकि वो स्टार थी और सिर्फ रावण के दरबार में ही नाचती थी। किन्हीं भी दो सीन्स के बाद रावण का कोई भी दरबारी अट्टहास लगाते हुए नाच देखने की फरमाइश कर सकता था। जैसे लंका दहन के सीन में – “हा हा हाहाहा हा हा हा!!! बहुत हुआ इस वानर का नाटक महाराज! अब किसी नाचने वाली को बुलाया जाय। ” ऐसा सुनते ही पूरे कसबे की धड़कनें रुक सी जातीं। रस्तोगी टेंट हाउस वाला रिकॉर्ड प्लेयर पे गाना चलाता – ‘बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे …’ और स्टेज के आगे रखी पतीला लाइट्स से लाल नीली पीली गुलाबी सेलोफीन अपने रंग बिखराने लगतीं। सुनीता मीठी बयार सी आती और तूफ़ान होके चली जाती। इसके बीच में पूरा क़स्बा किसी सूखे पत्ते जैसा थरथराता। सबके खाने का इंतज़ाम भी टूइंया दादी पे ही था। सुबह के नाश्ते में हर रोज़ आलू की सुर्री और पूरियां छनती। पिछले जाड़ों में डाला कटहल का अचार सावन में ही तैयार हो चुका होता। दोपहर के खाने में बूंदी का रायता होता, भिंडी, गोभी जैसी कोई सब्ज़ी होती, पूरियां दाल समेट के कचौरी हो जातीं। दिन भर हवा से फड़फड़ाते तिरपाल के नीचे हारमोनियम पे चौपाइयाँ जमतीं और तबले की ठोंक पे डायलाग ठोंके जाते। टुइयां दादी का बेटा बहुत खुश बहुत भरा भरा सा रहता। छठवीं में ‘रेगिस्तान का जहाज’ नाम के निबंध में ये पढ़ा था क़ि ऊँट लम्बी यात्रा पे निकलने से पहले ज़रुरत से ज्यादा इसलिए खाता है कि अगले महीने दो महीने कुछ न भी मिला तो उसे भूख नहीं लगती। पता नहीं क्यों पर ये पढ़ते हुए मुझे टुइंया दादी के बेटे की याद आ गयी थी  फिर जब मैंने सोचना शुरू किया तो मुझे लगा की हाँ वो भी कुछ ऐसे चलता है जैसे उसे कूबड़ हो। और सबसे कमाल की बात तो ये कि निबंध में बने ऊँट की आँखों जैसी ही आँखें थी उसकी। हंस देने को तैयार लेकिन फिलहाल उदास। मथुरा की नौटंकी चली जाती तो सब खर्चा निकाल के कुछ दो सौ रुपैये बचते टुइयां दादी के पास। बाकी का साल इसी पे निकलना था। दशहरे के बीस दिन बाद लंका जीत कर लौटे राम अयोध्या वापिस आते। हमारे कसबे के लोग भी उनका स्वागत करते। दिए जलाकर। अपने अपने घरों के ऊपर लम्बे लम्बे बांसों में कंदील टांग कर। गुलाबी जाड़े की कोमल मिट्टी से कुम्हार नए फैशन के बरतन बनाते। भड़भूजे खील-बताशे और बूरे के जानवर बनाते। शेर हिरन कुत्ता बिल्ली चिड़िया। जगह जगह बच्चे बारूद के पटाखे फोड़ते घूमते। वो उदास आँखें हंसने हंसने को हो जातीं जब कोई आँख के सामने रस्सी बम फोड़ देता। उसे पता था कि उसके साथी दर्जियों के पास जाके नयी पैंट नयी शर्ट की माप दे आये हैं। उसे पता था कि महीप और कमल थैला भर के पटाखे लाये हैं। गिरधर के यहां तो बारह फांकों वाला कंदील टँगने वाला है। उसने हर साल की तरह इस बार भी कुछ नहीं माँगा। बस इतना कहा माँ से – हम कंदील नहीं लाएंगे ना। ये सवाल नहीं था इसलिए कोई जवाब भी नहीं मिला। दीवाली की शाम कांसे की थाली में चार बताशे और एक दिया रख के जब टुइयां दादी ने लक्ष्मी जी की पूजा की तो वो उनके साथ नहीं था। पूजा ख़तम कर के दादी उसे ढूंढने लगीं। आँगन में आके आवाज़ लगाई। फिर ढूंढते हुए ऊपर छत पे चढ़ गयीं – “कहाँ गया तू!?” ऊपर से उसका जवाब आया – “यहाँ कंदील बना खड़ा हूँ माँ …” टुइयां दादी ने ऊपर देखा। वो दोनों हथेलियों पे दिये लिए अटारी पे खड़ा था। कंदील बना हुआ।

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