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उदय प्रकाश की कविताएँ उनकी एक प्रशंसिका की पसंद

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बरसों बाद उदय प्रकाश का कविता संग्रह आया है ‘अम्बर में अबाबील’। मैं उदय जी की नैरेटिव कविताई का क़ायल रहा हूँ। लेकिन वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उनके इस संग्रह की कुछ कविताएँ उनकी प्रशंसिका कुमारी रोहिणी ने अपनी पसंद से चुनी हैं। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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1.
जलावतनी
 
उन्होंने दबा दिये सारे बटन
जल गये सारे बल्ब
 
अनगिनत रंगों के अपार उजाले में
जगमगा उठा वह महा-शहर
 
‘कितना अँधेरा है यहाँ?’
मैंने धीरे से कहा
किसी रोशनी से सराबोर सड़क पर चलता हुआ
 
शहर से निकाला गया मुझे
इतना बड़ा झूठ बोलने के लिए
 
2.
नागरिक स्वतंत्रता
मैंने समुद्र की प्यास बुझाने के लिए
नहीं खोदा अपने घर के आँगन में कुआँ
अघाए लोगों के लिए नहीं पकाई
खिचड़ी
 
कवियों के लिए
नहीं लिखी कविताएँ
मैंने अँगीठे में झोंकने के लिए
नहीं जलाये रखी अपने भीतर
इतने वर्षों से आग
 
मैं जला ख़ुद ही
राख होने के लिए
 
मैं हँसा
क्योंकि हँसी आ रही थी मुझे
यह विश्वास करते हुए कि
हँसना नहीं है कोई अपराध
 
यह भरोसा करते हुए
कि हँसना गंभीरताओं के विरुद्ध
नहीं है कोई संविधानविरोधी हरक़त
 
गम्भीर रहें, आयें विद्वान
उसी में है दौलत और ताक़त
 
बस हँसने का दें मुझे
मूलभूत नागरिक अधिकार
 
महोदय लोगों,
नहीं हूँ किसी कोने से भी
मैं आतंकवादी!
 
3.
सिद्धार्थ, कहीं और चले जाओ
कितनी आग हाँ उनके भीतर
जो मरे हुए की देह को
राख होने तक आग में जलाते हैं
यही है उनकी परम्परा
यही है उनका अनुष्ठान
जीवन को और देह को आग में जलाना
 
जीवित लोगों द्वारा
सदियों पहले ठुकरा दी गयी एक मृत भाषा में
खाते कमाते
ठगते और जीते
उनका दावा है, वे जीवित हैं
और हैं वही समकालीन
 
वही हैं अतीत के स्वामी
भविष्य के कालजयी
 
वही लगातार लिखते हैं
वही लगातार बोलते हैं
अंधी और ठग हो चुकी एक बहुप्रसारित भाषा से उठाते हुए
हज़ारों मरे हुए शब्द
 
सिद्धार्थ
मत जाना इस बार कुशीनगर
मत जाना सारनाथ
वहाँ राख हो चुकी है प्राकृत
पालि मिटा दी गयी है
 
सुनो,
श्रावस्ती से होकर कहीं और चले जाओ
 
अब जो भाषा वहाँ चल रही है
उस भाषा में जितनी हिंसा और आग है
नहीं बचेगा उसमें
यह तुम्हारा जर्जर बूढ़ा शरीर
 
4
स्वेटर
एक थकी हुई किताब को बंद कर
उसे मेज़ पर छोड़ते हुए
मैं लौटता हूँ अपनी आत्मा में
 
और वहाँ तुम्हें पाता हूँ
अपनी उँगलियों के बीच फँसी सलाइयों से
किसी अज्ञात सृष्टि को
चुपचाप बनते हुए
 
इस बार की ठंड में
मैं गुनगुनी ऊन से बुनी गयी
कायनात का पुलोवर पहनूँगा.
 
5
स्वतंत्रता
स्वतंत्रता मैं नहीं देख सका था
मैं जन्मा था पाँच साल बाद
 
जन्म के बाद के जीवन को जीते रहने का विवरण बहुत लम्बा है
लगभग औसत-
पढ़ाई-लिखाई, प्रेम, नौकरियाँ, रोज़गार, बीमारी, मकान, शहर, किताबें, शादी-ब्याह, संतानें, सिनेमा, अकेलापन, जुलूस, नारे, थकान, बेरोज़गारियाँ, हताशाएँ, मान-अपमान, हर्ष-विषाद वग़ैरह
और अंत में तो ख़ैर
फ़ालतू और उबाऊ
 
इस वक़्त दीवार पर टँगे कैलेंडर में दिख रहा है इसी, ऐसे ही
जीवन का
आज का, अभी का वर्ष
 
अभी भी, आज भी, मैं देखना चाहता हूँ एक बार स्वतंत्रता
 
मेरी अंतिम इच्छा है यह लगभग भाग्यविधाता
जब ख़त्म हो अब तक का यह खेल जीते ही चले जाने का
तो न हो वह समाप्त अकस्मात् किसी स्वतंत्रता के पहले
 
पाँच साल बाद जन्मा था स्वतंत्रता के पहले
अब स्वतंत्रता के पाँच साल पहले नहीं चाहता जाना
 
अधिनायकों,
मेरी इच्छा है अंतिम
एक बार
फ़क़त अंतिम बार देख लेने की
 
–स्वतंत्रता!
 
6
भरोसा
कब झोला फट जाये
कब सिग्नल गिर जाये
कब बिजली चली जाये
 
कब किरायेदार मकान छोड़ चले जाये
पड़ोस की लड़की भाग जाये
कब स्टेट बैंक का बंदूक़धारी गार्ड
गनेस प्रताप सिंह मोहम्मद गियासुद्दीन बन जाये
कब दंगा हो जाये,
कब आत्मा मटके की तरह फूट जाये
कब नोट बदल जाये, कर्फ़्यू लग जाये
छर्रे से आँख फूट जाये
 
साधू ठग निकल आये, बैंक बंद हो जाये,
कतार में खड़ी खरे सर की अम्मा मर जाये
जहाज़ का मालिक विदेश भाग जाये
कब कोई रास्ता राह भटक जाये
 
कब गाज गिर जाये
ओला पड़ जाये
कब बुखार में कराहता कोई जेल चला जाये
 
कब कविता लिख जाये
कब कोई उसे पढ़ पाये
कब कर्फ़्यू लग जाये
 
कब सारी ज़िंदगी की हिंदी हो जाये
कब प्रधानमंत्री जोकर बन जाये
हर हाथ ताली बन जाये
 
कब सिग्नल गिर जाये
बिजली चली जाये
कब साँस छूट जाये
कब क्या हो जाये
 
किसी की बात का भला अब भरोसा क्या
 
7
न्याय
 
उन्होंने कहा हम न्याय करेंगे
हम न्याय के लिए जाँच करेंगे
 
मैं जानता था
वे क्या करेंगे
 
तो मैं हँसा
 
हँसना ऐसी अंधेरी रात में
अपराध है
 
मैं गिरफ़्तार कर लिया गया
 

 

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