इस पुस्तक मेले में जिस किताब का मुझे बेसब्री से इंतज़ार है वह अनामिका का उपन्यास ‘आईनासाज़’ है। राजकमल से शीघ्र प्रकाश्य यह उपन्यास अमीर खुसरो के जीवन पर आधारित है। दिल्ली के सात बादशाहों के दरबार में इतिहास लेखक के रूप में काम करने वाले अमीर खुसरो को हिंदी और उर्दू ज़ुबानों के आरम्भिक कवि के रूप में याद किया जाता है। फ़ारसी ज़ुबान के वे विद्वान थे। सबसे बढ़कर सूफ़ी संत थे। कहने का मतलब है अपने आप में इतिहास के एक बड़े किरदार थे। आइए उस उपन्यास का एक अंश पढ़कर देखते हैं कि शब्दों में उस किरदार का रंग कितना उभर कर आया है- मॉडरेटर
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क़लम की जंग: 1296
हमा गोचंद की अज़ ख़ूनरवारिश ख़ुल्की
मलिक मुहम्मद खि़लजी ने अपने ही चचा जलालुद्दीन पर ऐन नमाज के वक्त पीछे से वार कराया-गंगा-किनारे के तम्बू में, कड़ा (इलाहाबाद) के आस-पास, और सोने के सिक्कों से लोगों के मुँह बंद कर खुद सिंहासन पर जा बैठा! अलाउद्दीन रिश्ते में जलालुद्दीन का भतीजा और दामाद है! उस दिन मैंने आवाम के कुछ रसूकदार लोगों को चुपचाप ये कहते सुना कि सुलतान बनने के पहले इसने क्या-क्या करतब दिखाए! कड़ा से देहली तक सड़क के दोनों तरफ तोपों से दीनार और अशर्फियाँ बाँटता आया।… लोग अशर्फियों के लिए दामन फैलाए हुए लपके और धोखे और खून के धब्बे भूल गए!… मुंह खोलने का उपाय भी क्या था! मुंह खोलते ही गर्दन उड़ा दी जाती। मुझपर भी उसने इनायत बरसाई और मुझे दरबार मंे रखा।
उसी समय मैंने यह उपाय सोचा कि शायरी से इसका दिल बदलने की कोशिश करूंगा! जो उपदेश देना होगा, उसी में दूंगा। पद्मिनी वाले प्रसंग के बाद यह मुझसे थोड़ा दबता भी है ही। कल ही मैंने ‘खताइन-उल-फुतूह’ की रचना शुरू की और उसमें लिखा कि हे सुलतान, जब तुझे खुदा ने यह शाही ताकत बख्शी है तो तुझे भी जी खोलकर गरीबों और बेकसों की भलाई में जुट जाना चाहिए!… ज़मीन कितनी भी पथरीली हो, ‘शायरी’ को भलाई के बीज तो छिड़कते ही चािहए, कभी-न-कभी, कोई-न-कोई बीज सही मौसम परखकर चटक ही जाता है! एक बीज अलाउद्दीन में भी चटका-उसने लोककल्याण के हजारों काम किए!
पर बीच-बीच में उसकी नैसर्गिक क्रूरता फिर से हावी हो जाती-जैसे, चंगेज खाँ से युद्ध जीत लेने के बाद मंगोल बंदियों के साथ उसने जो किया, वह वहशीपन का नमूना था! भूले नहीं भूलती वह शाम जब सिपाही जीत की खबर लाया!
‘‘क्या ख़बर लाए हो?’’
‘‘हुज़ूर, फतह की!’’
‘‘वो तुमसे पहले पहुंच चुकी है! सच-सच बताओ, कितने मंगोल लश्करी मारे गये हैं?’’
‘‘हुजूर, बीस हज़ार से ज्यादा!’’
‘‘कितने गिरफ़्तार किए?’’
‘‘अभी गिना नहीं, लेकिन हज़ारों!’’
‘‘जो सिर झुकाए तौबा करें, उनके कानों मंे हलका टिकाओ! देहली शहर से दस कोस दूर एक बस्ती बसाकर रहने की इजाजत है इन नामुंदाओं को! बस्ती होगी मंगोलपुरी! पहरा चैकी! जिनसे सरकशी का अंदेशा हो, उनके सर उतारकर खोपड़ियों की मीनार बना दो! इनके बाप-दादों को मीनारें बनवाने का बड़ा शौक था! अब इनके सर उतारते जाओ, मीनार बनाते जाओ और इन्हें दिखाते जाओ! शहर की दीवार बनने में जो गारा लगेगा, उसमें पानी नहीं, इनका खून डालो! सुना मीरे तामीर, सुर्ख, गाढ़ा खून! शहर पनाह की सुर्ख दीवार! … दरबार बर्खास्त!’’
उस दिन एक हज़ार तनके पर उसके क़सीदे पढ़ते समय मेरा गला और सूखा! भीतर से तो कुछ उमड़ने का नाम नहीं लेता था, इसलिए उन दिनों की मेरी शायरी में जान नहीं थी, कसीदाकारी थी बस! लोग उसी पर निहाल हुए जाते, पर महरू खुश नहीं थी, न मेरा बड़ा बेटा खुश था, जो ख़ुद पाए का शायर बनकर इधर-उधर महफिलों में जाने लगा था! वह अम्मा का लाड़ला था, और मेरे उससे रिश्ते वैसे ही तनावपूर्ण थे जैसे ऐसी अम्माओं के बड़े बेटों से उनके वालिदों के होते हैं जिनके मन में कोई तंज छुपा हो! मैं उसे दबाना नहीं चाहता था पर यह भी नहीं चाहता था कि मेरे जैसा उसका जीवन हो! उसे मैंने ज्योतिष पढ़वाया था यह सोचकर कि ज्योतिषियों से बादशाह भी दबते हैं, कोई उनपर दबाव डालकर कुछ कहला नहीं सकता! वे सिपाहियों और शायरों की तरह मजबूर नहीं किए जा सकते!
दूसरा बेटा खुशी-खुशी व्यापारी बना! बाकी दोनों बेटों को मैंने समझा-बुझाकर व्यापार में लगा दिया, क्योंकि व्यापारियों को भी किसी से बेवजह दबना नहीं पड़ता और चाहें तो हमेशा मुल्क के बाहर रह सकते हैं-समंदर खुदा की चादर है-उस पर किसी का शासन नहीं है! दोनों बेटियों के लिए मेरा मन तो यही था कि वे नेक बीवियाँ और समझदार माँएँ बनें, उसके अलावा कुछ बनने में खतरे बहुत हैं… बाहर निकलेंगी तो कोई कभी भी उठालेगा…, जैसे पद्मिनी को…।
खैर, संग-साथ में असर होता है! जानना ही मानना है! बीस बरस के साथ में मैंने खिलजी की खूबियाँ भी जानीं-वह एक क़ाबिल प्रशासक निकला और वीर योद्धा। जब मेरा मन इस बात पर आश्वस्त हुआ तो मेरी कलम भी मजबूत हो गई और फिर से मेरी शायरी में ताकत आ गई! मैंने अपनी जिंदगी की मसनवियाँ तभी लिखीं जब चारों तरफ खुशहाली थी! सबसे बड़ी बात यह कि खि़लजी के प्रशासन में अनाज और मछलियाँ सस्ती हो गयी थीं। गरीब लोग गौरैयों जैसे चहचहा रहे थे-हर बाग से अपने हिस्से के दाने बटोरते हुए! एक समय था जब दिल्ली से लेकर खोरासन तक की धरती ललमुँहे चीनियों के खून से रँगी कालीन लगने लगी थी पर अब तो दूर-दूर तक कहीं मार-काट की जरूरत ही नहीं थी, ज्यादातर बलवे दबा दिए गये थे! जंगजू की कमानें जंग खा रही थीं। जहाँ-तहाँ मदरसे खुल रहे थे; काजियों की तरफ फरियादें भी कम ही पहुँचतीं और पहुँचतीं भी तो न्याय और करुणा के ठीक मेल से फैसले होते।
सड़कें औरतों की माँग-सी बेखौफ और सीधी बना दी गई थीं। डाकू अमीरों के अड्डों से दूर खदेड़ दिए गये थे जैसे जलेबियों से मक्खियाँ। मेरे भाई, खिज्र को जगह-जगह बाग लगवाने और पोखर खुदवाने का कार्य सौंपा गया था जिससे घर में मेरी पूछ थोड़ी-सी बढ़ गई थी! घाट पर टहलता हुआ मैं अक्सर देखता कि धोबियों के सामने पहली ही उतरन के, कम ही गंदे कपड़े ढेर के ढेर पड़े रहते हैं और कपड़ों की बुनावट भी एक-से-एक उम्दा-मलमल, रेशम, ऊनी कपड़ों के कई-कई तरह कई-कई तरह के रंगों और छापों के साथ! नावों से और बगल की सरायों से अक्सर ठहाकों की आवाजें आतीं। खातूनें भी घर की ओर मुँह किए आराम से चरखा चलाती हुई दीख पड़तीं।
फिलहाल हर ओर अमन-चैन था… पद्मिनी का जौहर खिलजी के लिए भी एक बड़ी घटना सिद्ध हुआ था। उसका मन उतना ही हदस गया था जितना मेरा! एक ही बड़ी घटना से हदसे हुए दो लोगों की आँखें मिलती हैं तो उनमें भाईचारा हो ही जाता है! शुरू-शुरू में तो खिलजी की वादाखिलाफी पर मुझको इतना गुस्सा आया कि नमकहलाली का ख्याल छोड़ उसे मार ही डालता… पद्मिनी जैसी हीरा-औरत मेरे भरोसे ही तो उसे आईने में अपनी एक झलक दिखाने को तैयार हुई थी!… और उसने उस भरोसे का मान न रहने दिया। उसे देखते ही उसका ईमान फिसल गया… सुध-बुध ही नहीं रही!
औरत पर जमीन के टुकड़े की तरह ‘कब्जा’ कर लेने की वहशत जरा भी ठहर कर नहीं सोचती कि जमीन की तरह औरत बेजान नहीं होती, खुदा का नूर होती है। रोशनी को, धूप को, हवा को जेब में नहीं ठूँसा जा सकता! उसका बस एहसास ही किया जा सकता है: वह भी अना का, अहं का मटका उलटकर! मटका खाली होगा, तब तो भरेगा-रोशनी से, नूर से! पहले से उसमें कूड़ा भरा होगा तो कितना नूर जज्ब कर पाओगे! ख़ुदा की नेमत की तरह बाअदब होकर जो कुछ अभिभूत करने वाला अनुभव हो, सुख, दुख या सौन्दर्य, रोम-रोम से जज़्ब किया जाए तो बात बन जाती है, लूट-खसोट-जबर्दस्ती से सोना भी मिट्टी हो जाता है! इसके पहले कि खिलजी चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई कर उसे लूटने आता, पद्मिनी लपटों में समा गई और असकी राख आज तलक उड़-उड़कर पूछती है मुझसे-‘कैसे हैं, खुसरो?’
कभी-कभी कोई मधुमक्खी भुन-भुन करती हुई कानों के पास से गुजर जाती है तो ये लगता है, पद्मिनी मेरा दुख, मेरी मजबूरी समझ कर मुझे दिलासा दे रही है, समझा रही है कि जीवन ऐसा ही है, कई भरोसे टूटने के लिए ही खड़े होते हैं! हर हादसा एक पाठ है: कुछ लोग पाठ पढ़ाने के लिए जिं़दगी में आते हैं। जिं़दगी है तो मदरसा ही!
आज तक पद्मिनी याद आती है तो मैं पर्चा-पर्चा बिखर जाता हूँ! पूरा घटना-चक्र आँखों के आगे नाच-सा जाता है! वक्त से बड़ा हकीम कोई नहीं! जैसे कि पहले कहा, शुरू-शुरू में मैंने यों ही बेमन से खिलजी के कसीदे पढ़े, जैसे बुगरा खाँ के बेटे, कैक़बाद के ज़माने में पढ़ता था-तब की मसनवीं ‘क़रानुहस्बैद’ भी कायनात के और दिल्ली के जलवों से इस तरह भरी कि बादशाह के जलवे उसमें कम-से-कम आ पाएँ। मन ऊब जाने पर जैसे बच्चे हिसाब की काॅपी में फूल-पत्तियाँ बनाने लगते हैं, औरतें घी में चावल उड़ेलकर कच्चे-पक्के ही उतार लेती हैं, आलू बड़े-बड़े काट लेती हैं-कुछ-कुछ लिखकर मैंने पन्ने भरे और जहाँ बन पाया, सुल्तान की जब्र पर चुटकी भी ली पर इस महीन ढंग से कि कुंदमगज सुल्तान उसे पकड़ नहीं पाए, हाँ, आने वाली नस्लें पकड़ें यानी तुम सब जरूर पकड़ो! मसलन ये देखो, ‘किरानस सैदान’ का ये हिस्सा पढ़ो और देखो कि कलम बदले पर आए तो कैसी महीन मार कर सकती है, मंगोलों के बखान में भी मैंने सुल्तान अहमद की हार का बदला लिया:
’’तातारों के झुण्ड के झुण्ड इस तरह बाँधकर बादशाह के हुजूर मंे पेश किए जाते कि उनकी पीठें आपस मंे सटी रहें और ठुड्डियाँ गर्दन में धँसी… बाल पहले से ही मूड़ दिए जाते कि मन आगे आने वाली जहालत की खातिर तैयार हो ले… चट्टानों की दरार में फँसी चिनगारियों की तरह उन काइयाँ आँखों में पुतलियाँ दमकतीं… केतली के खोल की चमड़ी की तरह उनकी चमड़ी झुर्रीदार होती और उनका पूरा शरीर मुर्दों से बदतर महकता! उनके चैड़े नथुने उखड़ी हुई कब्र के पानी-सा बास मारते और नथुनों के बाल बेतरतीब मूँछों में शर्म से मुँह छुपाने की कोशिश करते हुए दीखते!… दाढ़ी तो उनकी होती ही नहीं… बर्फ पर झंखाड़ उगे भी तो कैसे! धँसे हुए गालों पर और छातियों पर जुएँ और चिल्लरों की फौज ऐसे मचलती जैसे ऊसर पर सरसों के दाने, धीरे-धीरे काले पड़ गये सरसों के दाने, पर सरसों से तेल निकाला जाता है, ये सरसों के दाने उनके शरीर का तेल निकालते होते-आपस मंे बँधी हुई पीठें भी लगातार की खुजली से घाविल हो जाती… हाँ, उनके माथे की चमड़ी इतनी मजबूत होतीं कि उनका जूते का तल्ला बन सकता था। अपने भद्दे दाँतों से नोच-नोचकर वे सुअर और कुत्तों के मांस खाया करते थे; और उनके बेडौल जबड़ों में अकलदाढ़ कभी उगती नहीं थी, उग ही नहीं पाती थी कि जवानी में ही वे मर जाते थे! फुक्का फाड़कर रोती औरतों की तरह रणभेरी सुनकर वे उन्मत्त नाचने लगते थे …प्यास लगने पर वे नाले और पौधों का भी पानी चूस जाते थे, और उनके बारे में ये कहानियाँ चलती थीं कि एक-दूसरे की कै खा खाकर वे अपनी एकता का उद्घोष करते थे-जिस तुर्की कबीले के वे थे, उसका नाम ही ‘कै’ था।… और उनका भोजन तो कै से भी ज्यादा बदबूदार होता। कुत्तों से उनके चेहरे कितने मिलते थे और बिल्लियों का शोरबा उन्हें पसन्द था!
ऊँट पर उन्हें गुच्छों में बँधा देख बादशाह बोले-’’इन्हें नर्क की आग से बनाया होगा अल्ला ने…।’’ एक से एक गालियाँ खाकर भी उनका भुस-भरा माथा तना रहता था और जब तक बस चलता-झंखाड़ की फौज-जैसी उनकी बर्छियाँ भी तनी रहतीं!
कृ बादशाह के हुक्म पर हुमचता हुआ हाथियों का दल उनकी ओर बढ़ता तो युद्ध के नगाड़े भी लगते गनगनाने… आपस में बँधे हुए, गड्ड-मड्ड करके वे धरती पर गिरने लगते-विशाल हाथी दांतों के बीच दबे हुए पहले तो वे छटपटाते, फिर पूरी ताकत से गजराज उनको आकाश तक उछालते और जब गड्ड-मड्ड करते हुए वे धरती पर गिर ही जाते, गजदंत उन्हें फाड़कर उनकी पर्चियाँ बिखेर देते…’ गर्दन में बँधी हुई रस्सियाँ भी दूर उछलकर गिरतीं… चूर-चूर हो जाती उनकी विशाल हड्डियाँ!
सारा दिन ये ‘तमाशा’ देखने से ‘संतुष्ट’ बादशाह शाम को शराब माँगते और हमसे ये उम्मीद करते कि हम उनकी विरुदावली गाएँ।
हमने भी निकल भागने के रस्ते ईजाद कर ही लिए थे-कभी दिल्ली के पुरनूर मौसमों का बखान, कभी उसके पशु-पक्षियों का, कभी दूसरे सादा इतिवृत्त… वो डाल-डाल, हम पात-पात। भरती का लेखन तो ऐसा ही होगा न-‘हम सब कहेंगे लेकिन वो न कहेंगे तुमको जिसका इंतज़ार है’ वाली तकनीक। पर ये चूहे-बिल्ली का खेल देखते हुए मन बेहद-बेहद थक जाता! थका-हारा एक दिन घर लौटा तो जो नजारा सामने आया उससे मेरी आँखें खुली की खुली रह गई!
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