अमृतांशु नामक इस युवा को उसके इस गद्य के पढ़ने से पहले मैं जानता भी नहीं था। अभी भी केवल इतना जानता हूँ कि कुछ अलग ढंग से लिखने की ललक है इनमें। आप भी पढ़कर बताइएगा- मॉडरेटर
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मैं प्रायः एक अंतहीन सवाल से जूझता रहता हूँ कि मेरा दोस्त राहुल कुमार नायक है या खलनायक? लम्बे खुले बालों और गोल फ्रेम वाले चश्मे को पहनकर वह किसी बम्बईया फिल्म के नायक जैसा इठलाता है, उसे थिएटर में भी बेहद दिलचस्पी है, उसके ‘नायकत्व’ में तमाम संशय होने के बाद भी मैं इस तथ्य को लेकर बेहद आशान्वित हूँ की वह अपने अवचेतन दिमाग में कोई नायक ही है. मनोविज्ञान संबंधी तमाम अवधारणाओं को पढ़ने-समझने के (अ)सफल प्रयासों के बाद मैं इस तथ्य से काफी संतुष्ट होता हूँ कि व्यक्ति की अवचेतना ही उसकी चेतना/सत्य का निर्माण करती है, वस्तुतः अपने अवचेतन मस्तिष्क में आत्म को नायक समझने वाला व्यक्ति ही भविष्य में नायकत्व की ओर बढ़ेगा.
राहुल के नायक या खलनायक होने की मेरी जिज्ञासाओं का संदर्भ-बिंदु किसी चल-चित्र, बम्बईया फिल्म इंडस्ट्री का नायक नही है बल्कि मेरे लिए वो मेहनतकश औसत भारतीय ग्रामीण व्यक्ति का एक प्रतिनिधि है जो अपने यथोचित सम्मान, भारत के ‘नायक वर्ग’ में अपनी हिस्सेदारी के लिए संपूर्ण निष्ठा के साथ कार्य कर रहा है. बिहार के बक्सर का भोजपुरीभाषी राहुल जिसे न मानक के अनुरूप ‘ढंग’ की हिंदी बोलनी आती है और न सामान्य भारतीय अंग्रेजी, जो अपनी संवाद शैली में अपूर्णता के लिए प्रायः अपने इंजीनियरिंग बैकग्राउंड को दोष देता रहता है, जिसने संवाद और भाषाई शैली में खोट होने के बाद भी ‘असाधारण’ रूप से मात्र दो साल के भीतर उत्तराखंड के सरकारी पाठशाला, मध्य प्रदेश के विद्युत उत्पादन में अग्रणी और सामाजिक विकास में अत्यंत पिछड़े सिंगरौली जिले के अंचलों में, मध्य प्रदेश के आदिवासी ग्रामीण क्षेत्रों, दिल्ली के तमाम सामाजिक संगठनों में काम किया है, जो भारत में प्रतिभा के मूल्यांकन के मानकों से इतना क्षुब्ध है कि वह बिहार के मुख्यमंत्री बनते ही अपने कार्यकाल के पहले दिन ही अंग्रेजी को बिहार के सभी लोगों के लिए अनिवार्य करने का स्वप्न देखता है और भारत में स्पर्धा के मूल्यांकन के प्लेटफॉर्म को सपाट बनाने के लिए जीना-मरना चाहता है. राहुल सबको अंग्रेज़ीदां बनाना चाहता है, महान आधुनिक भारतीय समझ के हिसाब से वह सभी को नायक बनाना चाहता है, राहुल के बाद सभी नायक होंगे इसलिए वही असली मायनों में बिहार का आखिरी नायक होगा.
अगर मैं राहुल के बिहार के आखिरी नायक होने का विश्लेषण कर रहा हूँ तो सबसे पहले मुझे इस बात का विश्लेषण करना चाहिए की नायक कौन है? पहला नायक कौन था? क्या बिहार का पहला नायक भी बक्सर का ही था? बक्सर हमारे विश्लेषण का अहम हिस्सा है, वही बक्सर जो कभी बंगाल की आख़िरी चौकी था, आज भी वो गेटवे ऑफ़ बिहार है. इतिहास में पूरब का जो भी आदमी दिल्ली जीतना चाहता था वो अगर बक्सर को पार कर जाता था तो सीधे दिल्ली के तख़्त में अपनी हिस्सेदारी तय कर लेता था, सासाराम बिहार के एक सूर ने अफ़ग़ानी शहज़ादे बाबर के बेटे हुमायूँ के हुक्म को मानने से इंकार करके दिल्ली के नए नवेले मुग़ल तख़्त को सीधी चुनौती दी थी, बादशाह हुमायूँ उस गुस्ताख सूबेदार को सबक सिखाने पूरब किनारे निकले, जब जनाब हुमायूँ बक्सर से वापस आ रहे थे तो पूरे बादशाह ही नही बचे थे. सासाराम के सूबेदार शेरशाह ने बक्सर के चौसा में हुमायूँ को सीधी चुनौती दी थी, वहां मुग़ल बादशाह के पाँव उखड़ गए और उनके हाथ से दिल्ली छूट गया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल की दीवानी प्लासी के युद्ध में ही जीत ली थी लेकिन उसके हिंदुस्तान जीतने का सपना बक्सर के युद्ध से साकार हुआ, जब कुछ हज़ार की अंग्रेज़ी टुकड़ी ने मुग़ल बादशाह, अवध के नवाब और अपने ससुर को प्लासी में धोखा देकर शाही तख़्त में आसीन हुए बंगाल के नवाब की भारी भरकम सेना को आसानी से धूल चटा दिया, बक्सर का युद्ध जिसे भारत के ‘नायक’ हिंदुस्तान का वियना सीज लिखेंगे, वो वियना जिसे दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आक्रान्ताओं ने जीत लिया और ‘देशज’ लोगों की संस्कृति से ‘नायकों’ को पैदा करना शुरू कर दिया.
अंग्रेजों के ‘सर’ लार्ड मैकाले ने भारत से ‘नायकों’ के उत्पादन वाली फ़ैक्टरी विकसित करने की योजनाओं के संदर्भ में अपने पिता को एक पत्र में लिखा था की उसकी योजना बर्बर भारतीय समाज से ऐसे ‘नायकों’ को पैदा करेगी जो अपने रूप-रंग से तो हिन्दुस्तानी होंगे लेकिन अपने विचार और समझ से यूरोपीय होंगे, जो भारत के ‘अमानवीय’ संस्कृति को परिष्कृत करके इसे वैश्विक यूरोपीय संस्कृति के जैसी बना देगी, ये फारसी और संस्कृत जैसी कमजोर भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी को भारतीय भाषा के रूप में परिवर्तित कर देगी. ( यह बात अलग है कि संस्कृत भाषा में पणिनि द्वारा लिखे गये अष्टाध्यायी ने भाषा-विज्ञान एवं शब्दों के विज्ञान को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, स्विस भाषाविज्ञानी Ferdinand de Saussure द्वारा भाषा और शब्दों के विज्ञान से पश्चिम के दर्शन में हस्तक्षेप के बाद पणिनि का प्रभाव पुरातन विचारकों में सुकरात, प्लेटो, अरस्तू की तिकड़ी के बाद सबसे ज्यादा है, स्ट्रक्चरलिस्ट और पोस्ट-स्ट्रक्चरलिस्ट विषयों का असली पितामह कश्मीर का एक संस्कृत व्याकरण-शास्त्री है[1]) मैकाले अपने पिता को लिखे पत्र में बिलकुल सही थे, लार्ड मैकाले ने मरने के डेढ़ सौ सालों बाद इस देश से असंख्य ‘नायकों’ को उत्पन्न कर दिया है, जिन्हें राष्ट्र के दिमाग को मैकाले के विचार से द्वन्द करने के लिए, स्वतंत्र करने के लिए कार्य करना चाहिये था, अब नायक हो गये हैं. जो मैकाले के सपनों का नायक था वही आज भी भारत का नायक है, उन्हीं नायकों से भारत में ‘नायक वर्ग’ का मिथ्य गढ़ा गया है. मैकाले का स्वप्न ही भारत के नायक वर्ग की अपील है.
मैकाले ने भारत में नायकों के उत्पादन के लिए भले ही सबसे पहले एक व्यवस्थित प्रस्तावना लिखी हो लेकिन उसकी भारतीय नायकों की फ़ैक्टरी से कई साल पहले भारत को इसका एक नायक मिल गया था, वो नायक जिसने भारत के लोगों को अंग्रेजी अधिनायक के प्रवक्ताओं की तरह ही बर्बर, अमानवीय कहकर संबोधित किया. भारत का पहला नायक बंगाल की आखिरी चौकी बक्सर के एक मुसलमान नाई का बेटा था, उसके अब्बा कंपनी की सेना में अफ़सर थे और 7 वर्षों के युद्ध में कहीं कंपनी के लिए शहादत प्राप्त की थी. भारत के पहले ‘नायक’ के पिता जी द्वारा सेना के लिए किये गए ‘महत्वपूर्ण’ कार्य के बदले उसके परिवार को पटना में क्वार्टर दिया गया था उसने वहीं उसी क्वार्टर से उसने अपने नायक होने का सपना देखा, 12 वर्ष की उम्र से ही कंपनी के लिए काम करने वाला यह सिपाही मात्र 25 वर्ष की उम्र में हिंदुस्तान को हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया और बाद में भारत का पहला नायक बना. उसने ब्रिटेन में अपनी अच्छी पहचान बनाई, एक स्कॉट लड़की के परिवार वालों से भागकर शादी रचाई, भारत में प्रचलित ‘चम्पू’ को ‘शैम्पू’ कहकर यूरोप में बेंचा, आज हम जो अमेरिका, पेरिस, लंदन की बहु-राष्ट्रीय ब्रांडो का शैम्पू इस्तेमाल करते हैं ये बक्सर के एक नाई का यूरोप और दुनिया पर उपकार है.
भारत के पहले ‘नायक’ शेख दीन मोहम्मद ने भारत के अपने जीवन के अनुभवों पर इंग्लैंड के नायकों के लिए एक किताब लिखी, उससे पहले किसी एशियाई ने अंग्रेजी भाषा में कोई किताब नही लिखी थी, The Travels of Dean Mahomet, a Native of Patna in Bengal, Through Several Parts of India, While in the Service of the Honourable the East India Company. Written by Himself, in a Series of Letters to a Friend[2]. उसने इस किताब में अपने 35 पत्रों के माध्यम से 1770 से लेकर आने वाले 10 सालों में हिंदुस्तान के अपने जीवन का जिक्र किया है, कैसे 2 मील लम्बे अंग्रेजी सेना के काफ़िले को पटना से मुंगेर और भागलपुर होते हुए कोलकाता पहुँचने में लगभग 4-5 महीने लग गये, उसने जिक्र किया की रास्ते में दो जगह उसके काफ़िले के साथ ‘असभ्य’ क्षेत्रीय लोगों ने लूटपाट की, सेना ने उन ‘असभ्यों’ नाक-कान काटकर उनको घुमा कर सभी दूसरे ‘असभ्यों’ को एक सबक सिखाया, आश्चर्यजनक रूप से ब्रिटेन के नायकों को 1770 के हिंदुस्तान का जिक्र करते हुए बक्सर के पहले नायक ने उस साल पड़े बंगाल के सूखे का जिक्र नही किया, 1770 के भारत का सूखा इतिहास की सबसे बड़ी मानवजनित तबाहियों में से एक है, वह सूखा उस दौर की बंगाल प्रेसीडेंसी की एक तिहाई आबादी को लील ले गया था, युद्धों को छोड़ दें तो आधुनिक मानवजनित त्रासदियों से सबसे बड़ी कम्बोडिया के कम्युनिस्ट तानाशाह पोल पॉट की सत्ता ने कम्बोडिया के एक चौथाई लोगों को ही मारा था. भारत के पहले नायक ने सड़क पर कांपते पैरों के लाश हो जाने का जिक्र नही किया, उसकी कहानियों में हिंदुस्तान बर्बर लोगों का देश है जिसे अँग्रेज़ खुशहाल/आबाद कर रहे हैं. भारत के पहले नायक के पत्रों के संग्रह को पढ़ते हुए मुझे लग रहा था कि मानो वो मैकाले की भावी योजना की (देशीय) भूमिका लिख रहा है.
“मैंने अपने मित्र राहुल की कहानी में इतिहास को एक संदर्भ की तरह जोड़ दिया है, मेरे विचारों में एक विषय के रूप में इतिहास बेहद बोझिल है, इसमें विश्लेषण का महत्व तथ्यों से ज्यादा है. मैंने बक्सर की बात को एक तथ्य या तथ्य-बिंदु के रूप में प्रस्तुत किया है न की इतिहास के रूप में, आने वाले तथ्य-बिंदु भी ऐसे ही हैं, वो तारीख या तवारीख का विश्लेषण नही कर रहे हैं बल्कि कहानी के लिए तथ्य-बिंदु की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं.”
‘नायक’ की दुनिया में ‘देशीय’ लोगों का मतलब असभ्य, पिछड़े एवं गरीब लोगों से होता है, नायक असभ्य दुनिया को सभ्य बनाना चाहता है, वह इन सबको मुक्त करना चाहता है, नायक अपने आप को इस दुनिया का उद्धारक समझता है. मैकाले भी इस दुनिया का उद्धार करना चाहता था, आज का नायक भी इस दुनिया का उद्धार करना चाहता है. नायक अपने उद्धारक होने की छवि के आगे दूसरे के ‘आत्म’ को हमेशा लील जाता है, नायक परग्राही होता है, वो दूसरे की आत्मीय चेतना का ग्राह करता है, जो परग्राही है वो हिंसक है, नायक हिंसक है. आत्मबोध से स्वयं को नायक मानकर चलने वाले व्यक्ति की प्रवृत्ति में सबसे ज्यादा नायक का विपरीत होता है.
एक स्वतंत्र चिंतक की हैसियत से मैं नायक होने की तमाम मौजूद अवधारणाओं को संदेहास्पद दृष्टि से देखता हूँ, अपने दोस्त राहुल के ‘नायकवादी’ रूप को भी अस्वीकार्य मानता हूँ, उसके नायकत्व होने से असहमति होने के बावजूद भी मैं राहुल को खलनायक की दृष्टि से नही देखता हूँ, नायक का विपरीत खलनायक नही होता है, वास्तविक दुनिया में बम्बईया फिल्म उद्योग या साहित्यिक नायकवाद की तरह नायक का कोई ‘असाधारण’ महत्व नही है, दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यथार्थ या यथार्थवाद की दुनिया में भी नायक का एकक्षत्र राज है, नायक होने का अर्थ है यथार्थ के तमाम गौण प्रतिनिधियों को एक विषय (नायक के विषय, नायक के विश्लेषण का विषय) के रूप में बदल देना, नायक की दृष्टि से देखा गये व्यक्ति का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व/अस्तित्व नही है. अलग अलग दुनिया (साहित्यिक अथवा वास्तविक) के नायक अपने विचारों से दुनिया को मुक्त बनाना चाहते हैं, वह अपनी चेतना/अवचेतना के अनुभवों के आधार पर सभी व्यक्ति/इकाई को एक-रूप बनाकर, मूलतः अपने हितों को साधने के लिए नायक बन जाते हैं, नायक होना स्वयं में केंद्र हो जाना है, एकपक्षीय होना है, अलोकतान्त्रिक होना है. केंद्रीकृत होने का स्वभाव व्यक्ति में एक नायक को जन्म देता है, केंद्रीकृत होने का स्वभाव व्यक्ति को एकपक्षीय बनाता है, केंद्रीकृत होने का स्वभाव व्यक्ति को अलोकतांत्रिक बनाता है. केंद्र और नायक के सवालों का दायरा विस्तृत है, वह असंख्य सवालों को जन्म देता है, उनमें से एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या आज की केंद्रीकृत शासन प्रणाली नायकों के उत्पादन की प्रणाली है? क्या वह सबसे अलोकतांत्रिक है? क्या मैकाले हमारे अवचेतन मन से जोंक की तरह लिपटा हुआ है? क्या मैकाले का ‘नायक’ हमारी सबसे बड़ी और क्रूर सच्चाई है?
राहुल कोई खलनायक नही है, वह अपने चेतन व अवचेतन अनुभवों के आधार पर अपने दर्द को अपने समूह के असंख्य लोगों के दर्द की तरह देखता है, वह अपने जैसे सभी लोगों को मुक्त करना चाहता है. मुक्ति का स्वप्न कभी किसी को नायक या खलनायक नही बता सकता है, मुक्ति का असल स्वरूप (व्यक्ति के समूहों में) इतना उलझा हुआ है कि वह किसी नायक द्वारा नही किया जा सकता है या किसी खलनायक द्वारा नही रोका जा सकता है. खलनायक संबंधी अवधारणा का यदि स्वतंत्र रूप से विश्लेषण किया जाए तो नायकवादी दुनिया में जो नायक के अधिपत्य को अस्वीकार करता है वह खलनायक है, विश्लेषण का अगला चरण दिखाता है कि नायक अथवा खलनायक का भेद नायक की सत्ता को मजबूत दिखाने का उपकरण है, धर्म या धर्म के शिल्पकारों ने संभवतः जब नायक या नायक के बहाने अपनी सत्ता को स्थापित करना चाहा होगा तो उन्होंने खलनायक को कल्पित किया होगा, हम नायक और खलनायक के भेद के बाद नायक को सर्व मान लेते हैं और खलनायक को निषिद्ध कर देते हैं, महिषासुर को खलनायक बता कर हजारों वर्ष तक सत्ता ने उसको निषिद्ध किया है, आज की धार्मिक चर्चाओं में एक धारा उसी खलनायक महिषासुर को नायक मानती है. नायक और खलनायक का भेद अतार्किक है, यह ‘नायक’ की सत्ता को मजबूत करने का एक उपकरण है, किसी भी स्वतंत्र चेतना का विश्लेषण नायक अथवा खलनायक के प्रश्न से मुक्त होकर होना चाहिए. नायक लोगों को व्यक्ति से विषय बना देता है और खलनायक का विचार उस प्रक्रिया में उसका सबसे बड़ा उपकरण है.
नायक संबंधी प्रश्नों से भी ज्यादा जटिल प्रश्न है की राहुल को व्यक्ति से नायक बना देने की मुख्यवृति क्या है? जैसे मैकाले के नायक बनाने की मुख्य वृति भाषा है, वह भाषा को नायकत्व प्राप्त करने का हथियार मानता है वैसे ही राहुल भाषा के आधार पर नायक बने कुछ मानस के एकाधिकार को तोड़ना चाहता है, वह सबको नायक बनाना चाहता है. राहुल स्वयं नायक बनने की दिशा मे है, भविष्य में वह सबको इस दिशा में ला देगा. बेहद अस्पष्ट तौर से ही सही लेकिन मैं इस बात को कह सकता हूँ कि राहुल की अवचेतना से उसके आत्म/सत्य को मिटाया गया है, वह अब सबके अवचेतन से उनके वर्तमान/आत्म को मिटाना चाहता है. वर्तमान युग ने यातना देने के माध्यमों में अप्रत्याशित उन्नति कर ली है, वर्तमान युग के सदके लोगों को सदैव शारीरिक रूप से नही प्रताणित करते हैं, वह उनके कान में सीसा डालने की बात नही करते हैं, वह उनकी अवचेतना को मारते हैं, उनके सपने देखने की दृष्टि पर प्रहार करते हैं, अवचेतना पर प्रहार करके वो सोचने की शक्ति पर सीधा प्रहार करते हैं, ये क्रूर सदके मुक्तिकामी व्यक्तियों को भी एक समय बाद विषय में बदलने में कामयाब हो जाते हैं, एक व्यक्ति के विषय में परिवर्तित होने के बाद ही उसमें नायक का जन्म होता है. भाषा व्यक्ति को एक विषय एवं नायक बनाने की सबसे महत्वपूर्ण वृत्तियों में से एक है, भाषा एक उपकरण की तरह काम करती है, वह अधिनायकवाद की मुख्य संरचना है, वह मैकाले की दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण हथियार है. मेरा दोस्त व्यक्ति से विषय बनता जा रहा है, जिस दिन वह स्वतंत्र व्यक्ति के हैसियत से भारत के नायकों का विश्लेषण करेगा तो वह उन नायकों को एक विषय के रूप में पाएगा, उन नायकों के पास आत्म के रूप में कुछ नही है, न आत्म के तौर पर कोई समझ है और न ही किसी प्रकार की मौलिक मौलिकता. वह नायक बनने की प्रक्रिया में ही मैकाले संजाल में फंसे हुए हैं, उन्होंने उपनिवेशवाद के विचारों को आत्मसात कर लिया है, वह पश्चिम के आधिपत्यवादी विचारों के विषय हैं.
मेरा दोस्त राहुल अपने यथोचित सम्मान के लिए ही सही लेकिन मैकाले की दृष्टि में काम कर रहा है, अवचेतन में ही सही इस राष्ट्र के सभी ‘नायक’ मैकाले के संदेशवाहक हैं, इस देश के सामान्य लोगों ने अपने नायकों में मैकाले के अंश पर मौलिक होकर सवाल उठाना नही शुरू किया है, मैकाले की वृति देश के अवचेतना/सपनों को मार रही है और मैकाले के संदेशवाहकों ने इस देश में स्वयं को ‘नायक वर्ग’ में परिवर्तित कर रखा है, एक अधिनायक देश के लोग खुद को विषय बनाने से इंकार कर देंगे, तब नायक बनने के झूठ का पर्दाफ़ाश हो जायेगा, इस देश में ‘नायक वर्ग’ का तिलिस्म भी टूट जायेगा और मेरे दोस्त राहुल जैसे मेहनतकश औसत भारतीय ग्रामीण व्यक्ति को भी उसकी मेहनत का यथोचित सम्मान मिल जायेगा.
मुझे लगता है कि (निबंधनुमा लेख) में लेख के शिल्पकार द्वारा लिखे किसी उप-संहार/निष्कर्ष/conclusion का कोई महत्व नही रहता है, तथ्यों के आधार पर पाठक निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र होता है, पढ़ने वाला अपने महत्व, समझ या पूर्वाग्रह के अनुसार किसी सार तक पहुँच सकता है. निष्कर्ष के नाम पर बहुधा लेखक/शिल्पकार तथ्यों के बहाने पाठक पर अपनी समझ थोप देता है. यदि मैं शिल्पकार के नाम किसी अंतिम बिंदु/निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए बाध्य हूँ तो मैं कहूँगा कि राहुल नायक भी है, राहुल खलनायक भी है, राहुल न नायक है, राहुल न खलनायक है.
[1]. स्वतंत्र विश्लेषण, विचाराधीन
[2] Dean Mahomet (Author), Michael Fisher (Editor), कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा 1997 में प्रकाशित
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