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‘पॉपुलर की हवा’और ‘साहित्यिक कहलाए जाने की ज़िद’के बीच हिंदी लेखन

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राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम निस्सन्देह इस समय हिंदी के ऐसे चुनिंदा संपादक हैं जो हिंदी के नए और पुराने दोनों तरह के लेखकों-पाठकों के महत्व को समझते हैं और हिंदी में अनेक नए तरह के नए बदलावों के अगुआ रहे हैं। पढ़िए उनसे समकालीन लेखन और हिंदी के बाज़ार को लेकर जानकी पुल की एक छोटी सी बातचीत- मॉडरेटर

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प्रश्न- इस समय हिंदी में संख्या के हिसाब से पाठकों की क्या स्थिति है? पिछले सालोजन में संख्या के हिसाब से इसमें आपने क्या फ़र्क़ देखा है?

हिंदी किताबों की रीडरशिप पिछले एक दशक में धीरे-धीरे बढ़ी है.खासकर, पिछले 5 सालों में ज्यादा तेजी से. लेकिन ऐसा पेपरबैक संस्करण के साथ हुआ है. हार्डबैक एडिशन के पाठकों की संख्या में कोई बड़ा बदलाव नहीं है. अगर मैं राजकमल प्रकाशन समूह के आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए बताऊँ तो अब ऐसी कई किताबें हैं जो अपने छपने के साल भर के भीतर ही पेपरबैक एडिशन में 5000 कॉपी बिक गईं. साहित्यिक किताबों के साथ हिंदी में ऐसा पहले नहीं था. पहले आम तौर पर किताबों के पेपरबैक संस्करण 800 प्रतियों के होते थे. जिनमें से अधिकतर साल भर में नहीं समाप्त होती थीं. अब 1100 प्रतियों का पहला संस्करण सामान्य बात है.

प्रश्न- इस समय किन हिंदी लेखकों की किताबें अधिक बिक रही हैं?

हिंदी पाठकों में आजकल रवीश कुमार, नीलोत्पल मृणाल, सत्य व्यास, गौरव सोलंकी, शशिकांत मिश्र, अनुराधा बेनीवाल, अशोक कुमार पाण्डेय, अनिल कुमार यादव, अजय सोडानी, पुष्यमित्र जैसे नए लेखकों ने अपनी खास जगह बनाई है. इनकी किताबें तेजी से बिक रही हैं. स्थापित लेखकों में काशीनाथ सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, मैत्रेयी पुष्पा, शाज़ी ज़माँ, प्रभात रंजन की किताबों की इधर मांग बढ़ी है. सुरेन्द्र मोहन पाठक बाजार में अपनी लोकप्रियता और मांग बरकरार रखे हुए हैं. क्लासिक्स के पाठक पहले की तुलना में कुछ बढ़े ही हैं.

प्रश्न- किस तरह की किताबों की बिक्री अधिक है- अपराध कथाएँ या लोकप्रिय साहित्य?

अगर बदलते ट्रेंड की बात करें तो हिंदी में नॉन फ़िक्शन, नैरेटिव नॉन फ़िक्शन की मांग पहले से बढ़ी है. जैसे कि ट्रेवलॉग, मेमायर, ऑटोबायोग्राफी, हिस्ट्री, हिस्टोरिकल फ़िक्शन, कन्टेम्परेरी डिबेट्स पर बेस्ड बुक्स. पल्प या क्राइम फिक्शन के पाठक  कम हुए हैं. पहले उनकी जितनी बिक्री होती थी, अब वैसी बात नहीं है.

प्रश्न- अनुवाद की क्या स्थिति है? क्या हिंदी से होने वाले अनुवादों की संख्या में वृद्धि हुई है? क्या अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद होने वाली किताबों की संख्या में वृद्धि हुई है?

हिंदी में दूसरी भाषाओँ से अच्छी या पोपुलर किताबों के अनुवाद हमेशा से खूब होते रहे हैं. लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि दूसरी भाषाओँ में हिंदी से किताबें अनूदित कम होती हैं. हिंदी में विदेशी भाषाओँ से अनूदित किताबें भारतीय भाषाओँ से अनूदित किताबों की तुलना में कम बिकती रही हैं. हाल के दौर में भारतीय अंग्रेजी लेखन के अनुवाद का बाजार बढ़ा है और उन किताबों की बिक्री भी बढ़ी है.

प्रश्न- हिंदी में ऐसी कौन सी लोकप्रिय कृतियाँ हैं जिनके अनुवाद अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं में होते रहे हैं?

हिंदी में ऐसे कई लेखक हैं, जिनकी किताबें अंग्रेजी और दूसरी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. अभी भी हो रही हैं. प्रेमचन्द से लेकर यशपाल, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, श्रीलाल शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, उदय प्रकाश, गीतांजली श्री आदि कई नाम हैं.

प्रश्न- नए पाठकों के साथ जुड़े रहने के लिए हिंदी के प्रकाशक क्या कर रहे हैं जिससे कि वे अपने पुराने पाठकों से भी जुड़े रह सकें?

पुराने पाठकों को जोड़े रखने के साथ नए पाठकों को बढ़ाने की दिशा में कई तरह की पहल हिंदी प्रकाशनों में हुआ है. पुरानी किताबों को नए कलेवर, ट्रेंडी लुक में पेश करने से लेकर, नए पाठकों के लिए नए तरह के कंटेंट को प्रकाशित करने तक के प्रयास हो रहे हैं. नए हिंदी पाठकों को जोड़ने में सबसे प्रभावी भूमिका हाल के वर्षों में जिस किताब ने अदा की, वह है, रवीश कुमार के लप्रेक की किताब—इश्क़ में शहर होना. केवल 3 माह में 10000 से ज्यादा और 4 साल में 25000 से ज्यादा कॉपी बिकने वाली यह किताब हिंदी किताबों की दुनिया में एकदम नए पाठक जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा रही है. अब यह अंग्रेजी में ट्रांसलेट हो चुकी है और इसके हिंदी पाठक न केवल हिन्दीभाषी राज्यों से बाहर, बल्कि भारत से बाहर भी पर्याप्त हैं.

प्रश्न- क्या किताबों की बिक्री में कमी आई है या इसका पुराना बाज़ार बरक़रार है?

हिंदी किताबों की बिक्री का बीच में एक खराब दौर आया था.जिसमें पुस्तकालयों पर निर्भरता बढ़ी थी. लेकिन अब उससे सब बाहर निकल रहे हैं. पाठकों का किताबों से लगाव भी बढ़ा है, नए पाठक भी आए हैं. लेकिन बीते 4-5 सालों में जिस तेजी से कागज की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है, वह चिंताजनक है. हिंदी किताबों का बाजार प्राइस सेंसिटिव है. पाठक पेपरबैक्स किताबें प्रेफर करते हैं. सस्ता होना उनकी पहली शर्त है. कागज की बढ़ती महंगाई का असर पेपरबैक किताबों पर भी पड़ रहा है. ऐसे में आने वाले समय की चिंता बढ़ रही है.

प्रश्न- क्या आपको पढ़ने के ढंग में कोई फ़र्क़ दिखाई दे रहा है, ख़ासकर स्मार्टफ़ोन के आगमन और डिजिटल माध्यम की लोकप्रियता के बाद?

 स्मार्टफोन के एडिक्शन के दौर में किताबों का महत्व दवा की तरह कायम होने वाला है. बहुत लोगों को नेट सर्फिंग से बुक रीडिंग की तरफ शिफ्ट होते हम अपने आसपास देख रहे हैं. पुरानी कहावत सच साबित होने वाली है—रोज 10-20 पन्ने किताब जरूर पढनी चाहिए. हिंदी में अभी डिजिटल/ई-रीडर जेनरेशन तैयार हुई नहीं है. पेपरलेस स्कूलों से निकले बच्चे ही असली डिजिटल या ई-रीडर साबित होंगे.

प्रश्न-समकालीन लेखन का क्या भविष्य देखते हैं?

समकालीन लेखन दो खेमे नहीं, बल्कि दो दुनिया में बंटी हुई दिख रही है। जो साहित्यिक लेखक हैं, उनमें से कई ‘बेस्टसेलर’ और ‘पॉपुलर’ की हवा में डगमग हो रहे हैं। जो पॉपुलर राइटिंग कर रहे हैं, उनमें से कई साहित्यिक कहलाए जाने की जिद में हैं। ऐसे में नुकसान ज्यादा क्लास राइटिंग का हो रहा है। जो किसी खास तरह से लोकप्रिय होने या किसी खास जैसे दिखने के लोभ से बचकर, अपनी कहानी अपने ढंग से, अपने मिजाज में लिखते रह सकता है, उसी का भविष्य है। वरना सब इस संक्रांति काल में दिशा भटक कर अपनी ऑर्गेनिक आइडेंटिटी खोएंगे। सोशल मीडिया की आभासी लोकप्रियता के दौर में विधा, कथ्य और स्वयं की तैयारी को लेकर भ्रम से बचना सबसे जरूरी है। अगर कोई सौ या हजार क्लासी या बहुत प्रबुद्ध रीडर की संतुष्टि का लेखक है तो उसे वही बने रहना चाहिए। उसका किसी होड़ में शामिल होने से बचना साहित्य के भविष्य को बचाएगा। लेकिन, उन्हें भी आत्म-मूल्यांकन की जरूरत है कि क्या वे वाकई अपने समय और समाज की वास्तविकता को देख परख पा रहे हैं या वे अपने ही किसी मुहावरे में फँस गए हैं। क्या वे वाकई भविष्य के पाठक को देख पा रहे हैं और उन्हें एड्रेस कर रहे हैं–ऐसा उन्हें भी सोचना चाहिए। लोकप्रिय लेखन करने वाले लेखकों को भी समझना पड़ेगा कि समाज से स्टारडम पा लेने भर के लिए मनोरंजनकारी लेखन करना तात्कालिक प्रसिद्धि की बात है। लम्बे समय बाद समाज में वही बचेगा जो समाज की सचाई को, उसकी जरूरत को, उसकी परेशानियों को समझ कर लिखेगा। आने वाले 5-7 सालों में हिंदी लेखन की एक नई पीढ़ी तैयार होने वाली है जो बीते दो दशकों के असमंजस से मुक्त होगी। अपने-अपने पाठक वर्ग को लेकर स्पष्ट होगी। जाहिर है कि यह स्पष्टता साहित्य और पाठकों के बीच आने वाले तमाम आलोचकों, समीक्षकों, अध्यापकों के बीच आने में अभी बहुत देर है।

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