सरताज लोकप्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का दूसरा खंड ‘हम नहीं चंगे… बुरा न कोय’ का एक अंश पढ़िए,पुस्तक का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से हुआ है। कल इस पुस्तक का लोकार्पण दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में है। समय हो तो अवश्य आइएगा- मॉडरेटर
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फिर विमल सीरीज का चौथा उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ वजूद में आया। प्रकाशक ने अपनी अप्रसन्नता जताई। मेरी बाबत उसको मालूम पड़ा था कि मेरी सुनील सीरीज सबसे ज्यादा चलती थी। उसने जिद की कि मैं उसे सुनील सीरीज का नावल दूँ। मैंने कहा कि अब खड़े पैर ये मुमकिन नहीं था, वो अब तो इसी को छापे, आगे मैं उसके लिए सुनील सीरीज का नावल लिखने की कोशिश करूँगा।
भारी अनिच्छा के हवाले उसने मई 1977 में ‘पैंसठ लाख की डकैती’ छापा। उपन्यास मार्केट में आया तो मुझे मालूम पड़ा अपना एक करतब—गलत, नाजायज—उसने फिर भी कर दिखाया था। उपन्यास के टाइटल पर जहाँ ‘विमल सीरीज’ छपा होना चाहिए था, वहाँ ‘सुनील सीरीज’ छपा था।
मैंने एतराज किया तो प्रकाशक याकूब भाई ने जैसे कान से मक्खी उड़ाई। लेकिन उस विसंगति को पाठकों ने इस वजह से नजरअन्दाज कर दिया कि पाठकों को उपन्यास बेतहाशा पसन्द आया, सबने कहा कि हिन्दी में ऐसा, इस मिजाज का उपन्यास उन्होंने पहले कभी नहीं पढ़ा था। उपन्यास की वाहवाही प्रकाशक से भी न छुपी रही, उसने खास तौर से फोन करके मुझे कहा कि सुनील का उपन्यास मैं अभी मुल्तवी रखूँ और उनके लिए फिर विमल का ही उपन्यास लिखूँ।
तब मैंने विमल सीरीज का पाँचवाँ उपन्यास लिखा जिसका नाम मैंने ‘गैंगवार’ रखा लेकिन जो अक्टूबर में छपकर मार्केट में आया तो मालूम पड़ा कि मुझे बिना बताए प्रकाशक ने उपन्यास का नाम बदल दिया था और अपनी मनमानी से उपन्यास का नाम ‘आज कत्ल होकर रहेगा’ रख दिया जो कि मेरी नजर में वाहियात, बेमानी नाम था। लेकिन क्या किया जाता! स्ट्रगलिंग राइटर्स के साथ पॉकेट बुक्स के प्रकाशक ऐसी ज्यादतियाँ करते ही रहते थे। मैं ये सोचकर खामोश रहा कि दूध देने वाली गाय की लात भी सहनी पड़ती थी।
विमल के उस नए कारनामे की भी पाठकों में खूब सराहना हुई, कुछ ने तो कहा कि वो ‘पैंसठ लाख की डकैती’ से भी बेहतर था। मुझे खुशी थी कि मेरे जिस सीरियल हीरो को पाठकों ने बुरी तरह से रिजेक्ट किया था, वो अब उनके मिजाज में आने लगा था। गाइड पॉकेट बुक्स में कुल जमा मेरे पाँच उपन्यास छपे जिनमें सुनील सीरीज का एक भी नहीं था—दो उपन्यास विमल के थे और तीन थ्रिलर थे।
उन दिनों एक बड़ी घटना घटी जिसने चेज को लेकर पॉकेट बुक्स ट्रेड में इंकलाब ला दिया। गाइड की वार्निंग अब भी पत्रिकाओं में विज्ञापन के तौर पर गाहे-बगाहे छपती थी कि भारत में चेज को छापने के सर्वाधिकार उनके पास थे, कोई दूसरा चेज को छापने की हिम्मत न करे। फिर भी किसी दूसरे ने हिम्मत की। मेरठ से चेज का एक अनुवाद छपा और मार्केट में आया। वो चेज का पहला हिन्दी अनुवाद था जो गाइड के अलावा किसी दूसरी जगह से आया था। हर किसी ने कहा कि प्रकाशक को कोर्ट नोटिस बस आया कि आया। वस्तुत: कुछ भी न हुआ। उस प्रकाशक ने चेज का एक और अनुवाद छाप लिया। फिर भी कुछ न हुआ, गाइड की तरफ से कोई कोर्ट-कचहरी न हुई। फिर तो सब शेर हो गए और चेज के आनन-फानन तैयार किए अनुवादों की बाजार में एकाएक बाढ़ आ गई।
फिर दिल्ली के प्रकाशकों ने भी—खास तौर से साधना और डायमंड ने—चेज को छापना शुरू कर दिया, उसका एक-एक उपन्यास कई-कई जगहों से छपकर आने लगा। लेकिन ये मेरे किए अनुवाद का जहूरा था कि पाठकों की पहली पसन्द चेज के वही नावल थे जो गाइड से प्रकाशित होते थे।
बतौर चेज के अनुवादक मेरे नाम का मार्केट में ऐसा सिक्का जमा था कि मेरठ का एक नालायक प्रकाशक अपने छापे किसी और के कराए अनुवाद पर टाइटल पर तो नहीं लेकिन भीतर कहीं एक लाइन में बतौर अनुवादक मेरा नाम छाप देता था। लेकिन अपनी उस नाजायज हरकत का वांछित लाभ उसे न मिला। पाठक एक पेज पढ़ता था और कह देता था कि वो अनुवाद सुरेन्द्र मोहन पाठक का किया नहीं था।
चेज के इतने नावल दाएँ-बाएँ से मार्केट में आने लगे तो ये स्थापित हो गया कि गाइड का ये दावा कि भारत में चेज को छापने का सर्वाधिकार उनके पास था, झूठा था। लेकिन जब तक गाइड इस गेम में इकलौता खिलाड़ी रहा, उन्होंने भरपूर अर्थ और यश कमाया। चेज के कुल जमा 88 नावल प्रिंट में थे और उनमें से कितने ही ऐसे थे जो भारत में कहीं मिलते ही नहीं थे।
गाइड वालों के पास शायद सब थे।
ऐसा दूसरा शख्स मैं था।
गाइड के लिए चेज के अनुवाद मैं अब भी करता था लेकिन अब—बावजूद मोटी उजरत के—मुझे उस काम से किनारा करने की जरूरत महसूस होने लगी थी। अब पवन और शनु में मेरे नावल नियमित रूप से छप रहे थे और मुझे मालूम हुआ था कि साधना पॉकेट बुक्स वाले भी मेरे बारे में खुफिया तफ्तीश कर रहे थे कि मैं उनके छापने लायक लेखक था या नहीं।
शनु की वजह से बैंग्लो रोड पर मेरा जाना अक्सर होता था। वहाँ ब्रह्मप्रकाश त्यागी नाम का एक युवक मुझे मिला जो प्रकाश भारती के नाम से साधना के लिए चेज के अनुवाद करता था और उसने खुद बताया था कि इस काम के उसे वहाँ से चार सौ रुपए मिलते थे। वो काम के लिए शनु के चक्कर लगाता था, इस वजह से मेरा परिचय उससे हुआ था। एक बार मैं अच्छे मूड में था, मैंने उसे कह दिया—”हर प्रकाशक को चेज के ऐसे उपन्यास की तलाश है जिस का अनुवाद अभी तक कहीं से भी प्रकाशित न हुआ हो लेकिन तलाश नाकाम रहती है। मैं तेरे को चेज का ऐसा एक उपन्यास देता हूँ जिसकी बाबत तू साधना में जाके बोल कि वो उपन्यास किसी दूसरे प्रकाशन में दिखाई दे जाए तो तू अनुवाद फ्री में देगा लेकिन अगर न दिखाई दे तो फीस बारह सौ रुपए।‘
बड़े जोश में उसने जाकर साधना में वो बड़ा बोल बोला।
हजार रुपए में फैसला हो गया।
उपन्यास छपा तो ये भी स्पष्ट हो गया कि वो और किसी प्रकाशन में उपलब्ध नहीं था। प्रकाशक-अनुवादक दोनों बाग-बाग। प्रकाशक की सेल बढ़िया हुई, अनुवादक को स्थापित फीस से ढाई गुणा अधिक पैसा मिला।
लेखक मेरे से यूँ उपकृत हुआ तो मैंने उसे राजदाँ बनाकर बताया कि मैं गाइड के लिए अनुवाद बन्द करना चाहता था लेकिन वो सिलसिला ऐसे चलता रह सकता था कि अनुवाद वो करता और मैं कहता कि मैंने किया था। गाइड से मुझे अनुवाद के पन्द्रह सौ रुपए मिलते थे जो कि मैं टाइपिंग की फीस काटकर उसके हवाले कर देता।
वो बाग-बाग हो गया। फौरन मान गया। गाइड से जो नाम आइन्दा अनुवाद के लिए भेजा जाता था, प्रकाश भारती को बताए बगैर उसका पहला चैप्टर मैं खुद अनुवाद करता था और बाकी का अनुवाद उसका जोड़कर स्क्रिप्ट टाइप करा लेता था। सस्ता वक्त था, डेढ़-दो सौ रुपयों में स्क्रिप्ट आराम से टाइप हो जाती थी।
चार- पाँच बार वो सिलसिला सुचारु रूप से चला।
गाइड से जो पन्द्रह सौ रुपए मिलते थे, उसमें से टाइप और पोस्टेज वगैरह के दो सौ रुपए काटकर तेरह सौ रुपए मैं प्रकाश भारती के हवाले कर देता था।
एक इतवार को वो मेरे घर आया और अपनी जुबानी अपनी करतूत उसने बयान की। बोला, उसने गाइड में चिट्ठी लिखी थी कि चेज के जो पिछले पाँच अनुवाद गाइड में छपे थे, वो वस्तुत: उसने तैयार किए थे इसलिए आइन्दा क्यों नहीं वो अनुवाद का काम सीधा उसे सौंपना शुरू कर देते थे!
कमबख्त ने खुद बताया कि जवाब में याकूब भाई की चिट्ठी आई थी कि उन्हें उसकी बात का कोई यकीन नहीं था, अनुवाद का उनका सिलसिला पाठक साहब के साथ ही चलेगा।
”क्यों किया ऐसा?’’ मैंने सवाल किया।
उसने जवाब न दिया लेकिन बाद में मुझे शनु वाले विपिन ने बताया—उसे साधना वालों ने बताया था—कि उसे कहीं से खबर लगी थी कि मुझे गाइड से अनुवाद के तीन हजार रुपए मिलते थे। यानी उससे काम कराकर आधी रकम मैं खुद रख लेता था।
मुझे जाती तौर पर मालूम था कि अनुवाद के मामले में गाइड वाले बहुत खता खाए हुए थे। मालिक अल्पशिक्षाप्राप्त व्यक्ति था, अनुवाद का खुद मूल्यांकन करने में असमर्थ था। दूसरे, कारोबार अहमदाबाद, गुजरात में था जहाँ ऐसे कामों की सुविधा हासिल ही नहीं थी। दिल्ली आकर अनुवादक तलाश करता था तो किसी व्यापारिक वाकिफ की साली कर सकती थी क्योंकि उसे हिन्दी आती थी, अंग्रेजी पढ़ लेती थी। किसी का भतीजा कर सकता था, किसी की बीवी कर सकती, किसी का दोस्त कर सकता था वगैरह।
ऐसे लोगों ने न सिर्फ कचरा अनुवाद किए, मोटी फीसें भी मँूड़ीं।
इस बाबत जब याकूब भाई ने पहली बार मेरे से बात की तो मैंने उसे काबिल अनुवादक ढूँढ़कर देने का आश्वासन दिया और अनुवाद के लिए आगे मोटी फीस का प्रलोभन देकर भूपेंद्र कुमार स्नेही से बात की। फीस से आकर्षित हुआ वो झट तैयार हो गया।
अनुवाद तो उसने ठीक किया लेकिन और तरीके से डंडी मारी।
अनुवाद करने की प्रक्रिया में मूल टैक्स्ट को अक्षरश: अनुवाद करने की जगह उसने उसे आधा कर दिया ताकि जल्दी काम खत्म होता और जल्दी उसे उजरत हासिल होती।
ऐसे और इतनी बार खता खाए प्रकाशक के लिए आखिर मैंने तगड़ी फीस की एवज में अनुवाद करने की हामी भरी।
वो अनुवाद मेरे लेखकीय जीवन का मेरा सबसे आसान काम साबित हुआ। चेज के सारे उपन्यास मैंने पहले से पढ़े हुए थे इसलिए जब गाइड की तरफ से अनुवाद करने के लिए उपन्यास का नाम आता था तो उससे वाकिफहोने के लिए मुझे उसे पहले पढ़ना नहीं पड़ता था। मैं फौरन अनुवाद शुरू कर देता था और वो तीन-चौथाई से ज्यादा काम मैंने आईटीआई के आफिस में बैठ के किया और किए गए अनुवाद को कभी दोबारा पढ़ने की कोशिश न की।
प्रकाशक अनुवादकों से खता खाया हुआ था इसलिए मेरे सिवाय उसे कोई दूसरा—प्रकाश भारती या काला चोर, वैसे तो वो खुद भी काला चोर ही था—अनुवादक कबूल नहीं था। मेरे अनुवाद से वो इतना सन्तुष्ट था कि उसने वो उपन्यास भी नए सिरे से मेरे से अनुवाद कराए जिनकी अन्य अनुवादकों ने पहले जड़ मारी थी और जिनके अनुवाद की वो फीस भर चुका था।
बहरहाल आइन्दा चेज के अनुवाद से बड़ी कमाई प्रकाश भारती के लिए सपना बन गया। साधना वालों ने उसकी फीस चार सौ से पाँच सौ कर दी। मेरठ ट्राई करता था तो इतने भी नहीं मिलते थे। बैंग्लो रोड मेरे को मिलता था तो पूछता था—”आपके पास अभी भी चेज का कोई ऐसा उपन्यास है जो हिन्दी में कहीं न छपा हो?’’’
”हाँ, है।‘’ मैं इत्मीनान से जवाब देता—”कई हैं।‘’
”मेरे को दो न! अब तो वो खुद ही ऐसे उपन्यास की हजार से ज्यादा की आफर कर रहे हैं।‘’
”सॉरी! किसी और को दे दिए।‘’
”किसको!’’
”जब अनुवाद बाजार में आएँगे तो नाम पढ़ना।‘’
इसे चेज का करिश्मा ही कहा जा सकता है कि अस्सी और नब्बे के दशक में उसके लिखे सारे उपन्यास कई-कई बार कितने ही प्रकाशकों ने छापकर उनको पूरी तरह से निचोड़ लिया था फिर भी आज भी कहीं-कहीं चेज का अनुवादित उपन्यास छपता है—इस फर्क के साथ कि फेसबुकिए मूल लेखक का नहीं, अनुवादक का प्रशस्तिगान करते हैं।
जैसे मूल लेखक तो निमित्त था अनुवादक के करतब कर दिखाने में।
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पुस्तक अंश – हम नहीं चंगे बुरा न कोय
लेखक – सुरेन्द्र मोहन पाठक
विधा – आत्मकथा
प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन
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