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कहानी में प्रेम है, वासना है, अकेलापन है, दोस्ती है, पार्टियाँ हैं, समंदर है

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वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया के उपन्यास ‘बेघर’ पर यह टिप्पणी युवा लेखिका अंकिता जैन ने लिखी है- मॉडरेटर
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पिछले कुछ महीनों से किताबें पढ़ना थोड़ा कम हो गया था। पर अब फिर से ख़ूब सारा पढ़ लेना चाहती हूँ। पढ़ने के लिए जब ममता जी का लिखा यह उपन्यास ‘बेघर’ उठाया तो एक उत्सुकता यह भी थी जानने की कि कैसा होगा उनका लिखा पहला उपन्यास।
जब ममता जी से कहा कि ‘मैम आपकी किताब बेघर पढ़ रही हूँ तो वे हँसकर बोलीं, पढ़ो मेरा पहला अनाड़ी उपन्यास।’
ऐसा शायद उन्होंने इसलिए कहा होगा क्योंकि यह उनका लिखा पहला उपन्यास था। आज पचास वर्षों बाद साहित्य की साधना करते हुए वे साहित्य के जिस पायदान पर पहुँची हैं वहां से उन्हें अपने पहले उपन्यास में कुछ ख़ामियां नज़र आना लाज़मी हैं। लेकिन मेरी बात मानेंगे तो हम जैसे नवोदित लेखकों के लिए यह उपन्यास भी कई मायनों में छोटी-छोटी टिप्स दे जाता है।
यह भले ही ममता जी का पहला उपन्यास हो लेकिन उन्होंने इसमें किरदारों को बहुत सुंदर तरीके से उकेरा है। हर किरदार अपनी भाव-भंगिमा, अपने रहन-सहन, लिवास और माहौल में फिट बैठता है। साथ ही उन्होंने कई जगह चुटीले वन लाईनर और किसी सीरियस बहते पैरा में हास्य से भरपूर कोई पंक्ति डालकर इसे मज़ेदार भी बनाया है।
इसकी भाषा सरल है, ज़रूरत के हिसाब से अंग्रेजी शब्दों का भी ख़ूब इस्तेमाल है और जिस स्थान का वर्णन है वह पढ़ते हुए आँखों के सामने जीवंत हो उठता है। यही ख़ूबी क़िरदारों में भी है कि किताब के किरदार आपको आपके सामने जीवंत लगने लगते हैं। सोचती हूँ जिस लेखिका ने अपना पहला ही उपन्यास ऐसा लिखा है तो जीवन भर साहित्य साधना करके वह किस शिखर पर पहुँची होंगी और हमें कितना कुछ सीखने-पढ़ने के लिए उपलब्ध करा दिया।
नई हिंदी के रूप में सरल भाषा और भारतीय माहौल में पनपी प्रेम कहानी ढूँढते पाठकों के लिए भी यह उपन्यास पठनीय है।
यह किताब 1970 में लिखी गई इसलिए इसका कलेवर भी कुछ उसी दौर का लगता है। जैसे किरदारों के रहन-सहन या दिल्ली बम्बई की जिन जगहों का वर्णन है वो उस दौर की छवि बनाता है। लेकिन अगर कहानी को देखा जाए तो वह आज भी कई मायनों में फिट बैठती है।
यह एक पंजाबी लड़के की कहानी है जो पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में रहते हुए देसी ढर्रे के जीवन का अभ्यस्त है। और वह अचानक ही नौकरी लगने से बम्बई पहुँच जाता है। कैसे उसका जीवन बदलता है। कैसे उसका रहन-सहन बदलता है। कैसे उसकी मानसिकता नई चीजों को देखती है। लड़कियों को देखती है। बम्बई की लड़कियों की आज़ादी और फैशन को देखती है इस सबका सजीव वर्णन ममता जी ने किया है।
कहानी में प्रेम है, वासना है, अकेलापन है, दोस्ती है, पार्टियाँ हैं, समंदर है, बम्बई की लोकल और दिल्ली की पंजाबी लस्सी है।
इसमें मुख्य रूप से छः किरदार हैं, परमजीत, रमा, संजीवनी, वालिया, विजया और केकी।
परमजीत ही पूरी कहानी का केंद्र बिंदु है। जिसके चारों और बाकी के किरदार बुने गए हैं। ये सभी किरदार अपनी-अपनी भूमिका में फिट बैठते हैं और कई बार इतने सजीव लगते हैं कि लगता है वे अभी हमारे सामने ही उठ खड़े होंगे।
परमजीत एक देसी लड़का है। जो बम्बई पहुँचकर बाहर से मॉडर्न रूप तो धर लेता है लेकिन उसका मन देसी है। उसे प्रेम चाहिए लेकिन पाक। वह स्त्री चाहता है लेकिन कोरी। वह अक्सर ही एक सुंदर आदर्श पत्नी, दो बच्चे घर और कार के साथ सुव्यवस्थित जीवन के सपने देखता है। जिसमें वह कहीं भी पत्नी की छवि गृहस्थी से इतर नहीं देखता। लेकिन जब वैसी ही एक ढर्रे वाली कोरी पत्नी उसे मिल जाती है तो वह परेशान होने लगता है कि उसने ऐसा तो नहीं चाहा था।
संजीवनी, एक बहुत ही संजीदा सा किरदार है। एक सामान्य से रूप-रंग वाली लड़की में भी कितना आकर्षण हो सकता है, शालीनता भी किस हद तक एक पुरुष की भावनाओं को जगाकर उत्तेजित कर सकती है यह बख़ूबी इस किताब में चित्रित किया गया है।
रमा एक शुद्ध देसी भारतीय गृहणी है जिसे जीवन से कुछ नहीं चाहिए सिवाय अपने पति पर काबू के, बेटों के और पूरी कमाई अपने हाथों में। वह इस बात की कतई परवाह नहीं करती कि उसके पति की उससे क्या अपेक्षाएँ हैं। या उसकी भी ख़ुद से कुछ अन्य अपेक्षाएँ हो सकती हैं। वह एक ढर्रे वाली उबाऊ महिला है।
केकी बम्बई में रहने वाली एक अकेली पारसी लड़की है जो अपनी उम्र से दोगुनी दिखती है। वह बेहद निराशावादी है और हर समय उसे लगता है कि वह मर जाएगी।
ये तीनों ही स्त्रियाँ किसी ना किसी रूप में परमजीत के बेहद करीब हैं। कैसे? ये आप किताब में पढ़िएगा।
इसके बाद हैं विजया और वालिया। जो असल मायनों में परमजीत को बम्बई की मॉडर्न लाइफ का रूप दिखाते हैं। उनके साथ रहते हुए कई बार परमजीत ख़ुश होता कई बार सकुचाता है, कई बार झेंपता है और कई बार दुःखी भी होता है।
इस किताब का असल मज़ा इस बात में है कि आप एक बार परमजीत से नफ़रत करेंगे और एक बार उस पर तरस खाएँगे, आपका मन करुणा से भर जाएगा।
किताब की कुछेक पंक्तियाँ जो मैंने हाइलाइट करके छोड़ दीं। जैसे यह पंक्ति जिसमें बिम्ब इतना सटीक है – “मोटे-मोटे गालों वाली गुड्डो जब गली में निकलती तो उसकी कलफ़ लगी सलवार मुरमुरे के थैले जैसे बजती”
यह पढ़ते हुए आप ना सिर्फ गुड्डो की सलवार के उस कपड़े का अंदाज़ लगा लेंगे बल्कि आप उस बजती सलवार की खड़-खड़ को भी सुन लेंगे।
अब इसे देखिए – “परमजीत ने अपनी माँ को कभी बाप के पास सोते नहीं देखा, न ही एक-दूसरे को छूते या छेड़ते। पर यह था कि इसका कोई समय था सही, क्योंकि उसकी माँ ज्यादातर गर्भवती ही रहती और बंसलोचन खाती रहती।”
इस किताब में लिखी ये पंक्तियाँ उस दौर के लगभग हर दंपत्ति की कहानी थी। जो अपने ही साथी से सार्वजनिक प्रेम के इज़हार से भी डरते थे या उसे उचित नहीं मानते थे। परमजीत के जैसे ढेर बच्चे इसी संशय में जिए होंगे कि जब उनके माता-पिता इतनी दूरी बनाकर रखते हैं तो उनके भाई-बहन कहाँ से आ जाते हैं।
यह बात पढ़ते हुए आप उन परिस्थितियों पर हँस भी लेंगे और भारतीय समाज का एक रूप भी देख लेंगे।
ऐसे ही कई सारी मज़ेदार बातों के बीच ही ममता जी ने कितनी सारी विमर्श की बातें कह डालीं। अपने मुख्य किरदार को पितृसत्ता में जकड़ा भी दिखाया और आगे चलकर उसे उसी पितृसत्ता की वजह से करुणा का पात्र भी।
यही इस उपन्यास की खूबी है।
जब मैंने ममता जी से पूछा कि इस उपन्यास से जुड़ी कोई बात या किस्सा बताइए, तो उन्होंने अपने मधुर अंदाज़ में इसके लिखे जाने की वजह बताई।
उन दिनों ममता जी के पति रवींद्र कालिया जी बम्बई से अपनी नौकरी छोड़कर इलाहाबाद चले गए थे। जहाँ उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस लेकर अपना काम शुरू किया। ममता जी यूनिवर्सिटी की वजह से बम्बई में ही थीं। लेकिन क्योंकि रवींद्र जी वहां नहीं थे अतः उनकी शामें सूनी बीत रही थीं। एक दिन उन्होंने रवींद्र जी से कहा कि आप तो मुझे यहाँ छोड़ गए हैं, मेरे हॉस्टल की सभी लड़कियाँ शाम होते ही अपने बॉयफ्रेंड के साथ तफ़रीह पर निकल जाती हैं मैं बोर होती हूँ। हॉस्टल सूना बिल्कुल नहीं सुहाता। मन नहीं लगता। तो कालिया जी ने कहा कि तुम झटपट कहानियाँ लिख लेती हो अब एक उपन्यास लिखो। यूँ ममता जी ने अपने आसपास के ही कुछ किरदारों को रोचक ढंग से इस उपन्यास में प्रस्तुत किया। ममता जी कहती हैं उनका जीवन रोचक किरदारों से भरा है। उनकी दोस्ती या मेल-मिलाप सीधे लोगों से होता ही नहीं। उनके आसपास ढेर सारे रोचक किरदार रहे और इन्हीं लोगों के साथ उनका जीवन यूँ हँसते-हँसाते बीता।
इस उपन्यास के बाद मैं उनके बाकी सारे उपन्यास भी जल्द पढ़ लेना चाहती हूँ। आप भी पढ़िए, समकालीन वरिष्ठ जनों को पढ़ने से आप किसी सुंदर किताब के रचयता को देख पाने का सुख भी भोग लेते हैं।
किताब : बेघर
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
कीमत : 150 रु

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