स्टोरीटेल पर पिछले दो दिनों से श्रीकांत वर्मा की कविताएँ सुन रहा था। 2 घंटे आठ मिनट के इस ऑडियो बुक में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित श्रीकांत वर्मा की प्रतिनिधि कविताओं का पाठ मेरे दौर के ‘भारतभूषण’ कवि गिरिराज किराड़ू ने किया है। ‘भटका मेघ’ से लेकर ‘मगध’ तक श्रीकांत वर्मा की कविता यात्रा दो घंटे में समझ में आ गई। श्रीकांत वर्मा मेरे प्रिय कवि रहे हैं और इन कविताओं को एक साथ पढ़ते हुए वे दिल के कुछ और क़रीब आ गए। उनकी कविताओं को पढ़ने से स्टोरीटेल पर उनकी कविताओं का वाचन एक समकालीन कवि के मुँह से सुनना एक नया अनुभव था। वह अनुभव जिसमें श्रीकांत की कविता का विजन समझ में आ जाता है। साठ के दशक में विस्थापन की पीड़ा से लेकर उनकी कविताओं में अन्तर्राष्ट्रीय विडंबनाएं बहुत मुखर है, चेकोस्लोस्लोवाकिया से लेकर विएतनाम। रूस से लेकर अमेरिका, श्वेत अश्वेत कवि का विजन अन्तर्राष्ट्रीय है। उसको संयुक्त राष्ट्र के दफ़्तर की छत से भी अफ़्रीका के ग़रीब देश दिखाई देते हैं।
इस वाचन को सुनते हुए पहली बार यह बात भी समझ में आई कि मुक्तिबोध के बहुत निकट कोई कवि था तो वह श्रीकांत वर्मा थे, अपनी राजनीति में नहीं बल्कि काव्य कला में। ‘अंधेरे में’ कविता के संदर्भ में जिस फेंटेसी की चर्चा आलोचकगण करते रहे हैं वह सबसे अधिक श्रीकांत वर्मा में दिखाई देती है। सिर्फ़ फेंटेसी ही क्यों- संशय, किसी आसन्न दुर्घटना का भय- श्रीकांत वर्मा भी मुक्तिबोध की ही तरह शुभ के नहीं अशुभ के कवि हैं। ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ के इस पाठ को सुनते हुए यह बात सूझी तो तत्काल लिखने लगा। क्लास में भी जब प्रिय अध्यापक, जैसे दीपक सिन्हा, रामेश्वर राय, कृष्णदत्त पालीवाल जब कुछ कहते थे तो इसी तरह उनकी बातों से मन में उपजी बात को तत्काल दर्ज कर लेता था। हमने मुक्तिबोध की कविताओं की राजनीति को प्रमुख बना दिया उनकी काव्य कला पर कम बात की। अजीब बात है कि श्रीकांत वर्मा की कविताओं को सुनते हुए यह बात याद आई। श्रीकांत जी के साथ भी तो यही हुआ- उनकी राजनीति को हम हिंदी वाले याद करते रहे उनकी कविता-कला को समझ नहीं पाए।
श्रीकांत वर्मा की कविताओं की नाटकीय भंगिमा बहुत प्रभावित करती है। शुरू की कविताओं में भी और सबसे अधिक मगध की कविताओं में जब वे ऐसा लगता है कि अपनी कविताओं में राष्ट्र की अवधारणा को लेकर बहस कर रहे हों। गिरिराज ने उनकी कविताओं की नाटकीयता को बहुत अच्छी तरह अपने वाचन में पकड़ा है। मेरा आग्रह है कि स्टोरीटेल पर इन कविताओं को महज़ इसलिए नहीं सुनें कि ये श्रीकांत जी कविताएँ हैं बल्कि इसलिए भी कि इन कविताओं की भाव भंगिमाओं को पकड़ते हुए गिरिराज जी ने बहुत अच्छा वाचन किया है।
‘सीढ़ियाँ चढ़ रही है वसंतसेना
अभी तुम न समझोगी वसंतसेना
अभी तुम युवा हो
सीढ़ियाँ समाप्त नहीं होतीं
उन्नति की हों या अवनति की
आगमन की हों या प्रस्थान की
अथवा अवसान की
अथवा अभिमान की
अभी तुम न समझोगी वसंतसेना
न सीढ़ियाँ चढ़ना आसान है
न सीढ़ियाँ उतरना
जिन सीढ़ियों पर चढ़ते हैं हम
उन्हीं सीढ़ियों पर उतरते हैं हम
निर्लिप्त हैं सीढ़ियाँ
कौन चढ़ रहा है कौन उतर रहा है
चढ़ता उतर रहा है या उतरता चढ़ रहा है
कितनी चढ़ चुके कितनी उतरना है
सीढ़ियाँ न गिनती हैं न सुनती हैं
वसंतसेना!’
-प्रभात रंजन
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