‘प्रेम लहरी’ के लेखक त्रिलोक नाथ पाण्डेय वर्षों गुप्तचर अधिकारी के रूप में कश्मीर में रहे हैं. कोई आधी सदी पूर्व अपनी गुमशुदगी से एशिया के कई देशों में हिंसा भड़का देने वाली हजरतबल के पवित्र बाल की घटना के वे गंभीर अध्येता रहे हैं. हजरतबल में रखा पवित्र बाल जुमे के अलावा मुस्लिम त्यौहारों पर सार्वजनिक दर्शन के लिए उपलब्ध होता है. आज ईद-उल-जुहा (बकरीद) के मुबारक मौके पर श्रीनगर में विविध कार्यक्रमों में से एक कार्यक्रम है -हजरतबल में प्रार्थना और पवित्र बाल का सार्वजनिक दर्शन.
हजरतबल में रखे पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की दाढ़ी के बाल की कहानी कह रहे हैं श्री पाण्डेय अपने लेख ‘बाल की तलाश’ में. वह खोया हुआ पवित्र बाल कहाँ से, कैसे मिला यह बात भारत सरकार के खुफिया ब्यूरो के चीफ भोला नाथ मलिक ने चुपके से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को बतायी थी. उन्होंने क्या बताया यह आज तक रहस्य है. श्री पाण्डेय से आग्रह किया गया है कि इस रहस्य से पर्दा उठाने के लिए एक अनुसंधानात्मक लेख वह और लिखें जिसे जानकीपुल के ही किसी अंक में प्रकाशित किया जायेगा. – मॉडरेटर
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साल १९६३ की २७ दिसम्बर को जुमे का रोज था. प्रचंड ठण्ड की चालीस-दिवसीय चिले-कलां के सातवें दिन आते-आते कश्मीर घाटी ठण्ड से सिकुड़ने लगी थी क्योंकि तापमान बड़ी तेजी से शून्य की ओर लुढ़क रहा था. लेकिन, लोगों का पारा सातवें आसमान पर था. श्रीनगर में उस रोज सुबह-सुबह लोग बौखलाए-बौराए घर से बाहर दौड़ पड़े. किसी की कांगड़ी छूटी, तो कोई बिना फेरन डाले ही बाहर आ गया और कोई-कोई तो बिना जूता-चप्पल के ही दौड़ पड़ा. सब-के सब उत्सुक, चिंतित और उद्वेलित – आखिर ऐसा कैसे हो गया, या अल्लाह!
जल्दी ही बात पूरी घाटी में फ़ैल गयी. चारों ओर लोग घरों से बाहर निकल चीखने-चिल्लाने लगे – “अल्लाह-हो-अकबर, या रसूल अल्लाह, मो-ए-रसूले-पाक को वापस करो, ऐ जालिमों!” बात क्या थी! क्यों इतने नाराज थे ये लोग !! आखिर, ये क्या मांग रहे थे!!!
बात यह थी कि श्रीनगर शहर के बाहरी इलाक़े में स्थित हज़रतबल (हज़रत मुहम्मद का स्थान) से मू-ए-मुकद्दस (पैगंबर मुहम्मद का बाल) चोरी हो गया था. स्थानीय पुलिस का अनुमान था कि २६-२७ दिसम्बर की रात लगभग दो बजे जब दरगाह के खादिम (सेवक) लोग सो रहे थे तो बाल चोरी हो गया होगा.
चोरी गए बाल का महत्व आप इसी बात से समझ लीजिये कि वह बाल इस्लाम के नबी – पैगम्बर मुहम्मद साहब – की दाढ़ी का एक बाल है और उससे मुसलमानों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है. कहते हैं कि पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज सय्यद अब्दुल्लाह सन् १६३५ में मदीना से भारत आये और बीजापुर में बस गए. वे अपने साथ मुहम्मद साहब के बाल को भी लेकर आये. सय्यद अब्दुल्लाह के इंतकाल के बाद उनके बेटे सय्यद हामिद को यह बाल विरासत में मिला. दुर्योग से एक वक्त ऐसा आया कि सय्यद हामिद के परिवार को ग़ुरबत ने आ घेरा और उन्हें मजबूरन वह पवित्र बाल नूरुद्दीन नाम के एक धनी कश्मीरी व्यापारी को बेचना पड़ा. यह बात मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब तक पहुँच गई. सम्राट ने पैगम्बर के पवित्र बाल को पैसे से खरीदने की जुर्रत करने के जुर्म में नूरुद्दीन को कैद कर लिया और बाल को जब्त कर लिया. जब्त बल मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह अजमेर भेज दिया गया.
कुछ समय बाद, औरंगज़ेब का मन बदल गया. उसने नूरुद्दीन को कैद से आजाद करने और बाल उसे लौटा देने का निर्णय लिया, लेकिन इस बीच कैद में ही नूरुद्दीन की मौत हो गयी. यह वाकया सन् १७०० का है. नूरुद्दीन का शव कश्मीर ले जाया. साथ में, पवित्र बाल भी गया. कश्मीर में नूरुद्दीन की बेटी इनायत बेगम ने उस पवित्र बाल के लिये एक दरगाह बनवाई जिसका नाम हजरतबल पड़ा. इनायत बेगम का शादी श्रीनगर के बान्डे खानदान में हुई थी. तब से उस खानदान के वंशज उस पवित्र बाल के संरक्षक हुए.
अगले दिन 28 दिसंबर को पूरा कश्मीर सुलग उठा. जगह लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया. देखते ही देखते 50 हज़ार से अधिक संख्या में लोग दरगाह के पास इकठ्ठा हो गए. वे काले कपड़े व झंडे लेकर विरोध कर रहे थे.
उन दिनों राज्य में भारी राजनीतिक उठा-पटक चल रही थी. शेख अब्दुल्ला जेल में थे और उनकी पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, के बख्शी गुलाम मोहम्मद वजीरे आजम थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस में कश्मीर की आजादी के समर्थक गुट ने गुलाम मोहम्मद के खिलाफ आंदोलन छेड़ा हुआ था, जिसके चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. जाते-जाते उन्होंने अपने करीबी शम्सुद्दीन वजीरे आजम बनवा दिया. इससे विरोधी गुट और आक्रोशित हो गया. इसी बीच, पवित्र बाल के चोरी हो जाने की खबर ने आग में घी का काम किया. राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने लगीं; आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो गये. इससे जनाक्रोश और बढ़ गया. ऐसे वक्त में आवामी एक्शन कमेटी (एएसी) नाम का एक नया संगठन उत्पन्न हो गया जिसने जनांदोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली.
जा मुख्यमंत्री शमशुद्दीन को बाल के चोरी चले जाने की बात मालूम हुई उस वक्त वह जम्मू में थे. जब उन तक खबर पहुंची तो वे अपने काफिले के साथ रवाना हो गए. उनको रास्ते में काफी विरोध का सामना करना पड़ा. किसी तरह वह बड़ी मुश्किल से हज़रतबल और चोरों को पकड़वाने वाले को एक लाख रूपये का ईनाम व जिंदगी भर 500 रूपये मासिक पेंशन देने की घोषणा की.
29 दिसंबर को कश्मीरी नेताओं ने श्रीनगर के लाल चौक पर एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमे लगभग एक लाख लोग शरीक हुए. उसी सम्मेलन के भाषणों के बाद माहौल और ख़राब हो गया. उस मंच से कुछ नेताओं ने आग में घी डालने का काम किया. इसके बाद जगह-जगह तोड़ फोड़ शुरू हो गई. गाड़ियों को जलाया जाने लगा. सिनेमाघरों व पुलिस स्टेशनों को भी आग के हवाले कर दिया गया. बात बनने की जगह और ख़राब हो गई. श्रीनगर में कर्फ्यू लगा दिया गया और कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.
इस मसले को पाकिस्तानी मिडिया ने कुछ इस तरह कवर किया कि पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में भी अफरा तफरी का माहौल बरपा हो गया. इस चोरी ने हिन्दुस्तान के साथ ही पाकिस्तान को भी हिला कर रख दिया था. पाकिस्तान में भी कई हिंसक ख़बरें आने लगीं. जिन्ना की कब्र तक जुलूसों का एक बड़ा समूह पहुँच चुका था. वहां सैकड़ों लोग मारे जा चुके थे. कई लोगों को मजबूरन पलायन करना पड़ा था. वहां की मीडिया व राजनेताओं ने इसे कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ साजिश बताया. इससे हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहशत फ़ैल चुकी थी.
इस घटना से देश के बाकी हिस्सों में भी जबरदस्त सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो गया. बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में हिंसा भड़क उठी. तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा के लोकसभा में दिए एक वक्तव्य के अनुसार पूर्वी पाकिस्तान में भड़के दंगों में 29 लोग मारे गए. बंगाल में करीब 200 लोग मारे गए, जिनमें दोनों समुदाय के लोग थे. इसके अलावा 50 हजार से ज्यादा लोग बेघरबार हो गए. इस घटना से उपजे तनाव के बाद हिंदू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से बंगाल आने लगे और यहां से मुसलमानों का पलायन शुरू हो गया.
केंद्र सरकार को चिंता सता रही थी कि यदि मू-ए-मुकद्दस नहीं खोजा गया तो कश्मीर में हिंसा प्रबल हो जायेगी और पूरा देश सांप्रदायिक तनाव की चपेट में आ जायेगा. ३0 दिसम्बर को प्रधानमंत्री नेहरू ने इस मुद्दे पर राष्ट्र के नाम रेडियो पर संदेश प्रसारित किया और शान्ति की अपील की. बीतने वाला एक-एक दिन भारी पड़ रहा था. श्रीनगर में लाखों लोग सड़कों पर थे और तरह-तरह की अफ़वाहें फैल रही थीं. स्थानीय प्रशासन को इस मुद्दे को सुलझाने में असमर्थ देख कर प्रधानमंत्री ने इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर भोला नाथ मलिक को श्रीनगर भेजा.
मलिक ने न जाने क्या जासूसी करिश्मा किया कि ४ जनवरी १९६४ को बाल वापस मिल गया. उसी दिन दोपहर में रेडियो कश्मीर पर एक विशेष प्रसारण हुआ. राज्य के वजीरे आजम शमसुद्दीन ने आम जनता को संबोधित करते हुए कहा, “आज हमारे लिए ईद है. मैं आपको यह बताते हुए बहुत खुश हूं कि पवित्र अवशेष बरामद कर लिया गया है.” यह बरामदगी किसी दूसरी जगह से न हुई थी. मू-ए-मुकद्दस जहां से चोरी हुआ वहीं वापस रख दिया गया था. मलिक ने जब यह खबर नेहरु को दी तो उन्होंने बड़ी राहत की सांस ली. मलिक की प्रशंसा में उनके कृतज्ञता भरे बोल फूट पड़े, “आपने हिंदुस्तान के वास्ते कश्मीर बचा लिया.”
श्रीनगर शहर में तुरंत मिठाई बांटी जाने लगी. राज्य में उस दिन ईद जैसा माहौल बन गया. लोगों के लिए इससे बड़ी ख़ुशी और कुछ न थी कि उनके नबी का पवित्र बाल वापस मिल गया. इस ख़ुशी में लोगों को इस बात से कुछ वक्त के लिए इस बात से कोई मतलब न रहा कि बाल आखिर वापस कैसे आया!.
बाद में जब लोगों के जेहन में यह सवाल आया तो साथ ही यह सवाल भी उठा कि जिस मू-ए-मुकद्दस को खोजने लिए जाने का दावा किया जा रहा था क्या वह असली है? इसके साथ ही एक सवाल और उठ रहा था कि बाल की असलियत की जांच कैसे हो? एएसी की मांग थी कि सार्वजनिक रूप से इसकी शिनाख्त की जाए. ऐसा न होने पर उसने राज्य में विरोध प्रदर्शन जारी रखने की धमकी दी. सरकार इस विवाद को अब और आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. दोनों पक्षों के बीच तकरीबन एक महीने तक गतिरोध जारी रहा.
केंद्र सरकार की तरफ से इस विवाद को निपटाने जिम्मेदारी केन्द्रीय मंत्री लालबहादुर शास्त्री को सौंपी गई. उन्होंने इस मसले पर सभी पक्षों से बातचीत की जिसके बाद सरकार ने एएसी की मांग मान ली. छह फरवरी को जनता के सामने मू-ए-मुकद्दस के आम दीदार का कार्यक्रम आयोजित किया गया. उस दिन दरगाह के सामने सैकड़ों की संख्या में लोग जमा थे. सभी पक्षों की सहमति से जम्मू-कश्मीर के आध्यात्मिक नेता मिराक शाह कशानी को मू-ए-मुकद्दस की शिनाख्त के लिए चुना गया.
मिराक शाह भीड़ से निकल कर आगे आये और उन्होंने पवित्र बाल को तकरीबन एक मिनट तक अपनी आंखों के सामने रखा. शाह ने अपना सिर हिलाया, फिर धीमी आवाज में कहा कि यही मू–ए-मुकद्दस है. इसके साथ वहां जुटी जनता में खुशी की लहर दौड़ गई. कश्मीर का एक संकट सुलझ गया.
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