
देश के जाने माने मनोचिकित्सक विनय कुमार को हम हिंदी वाले कवि-लेखक के रूप में जानते हैं। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी किताब ‘यक्षिणी’ दीदारगंज की यक्षिणी की प्रतिमा को केंद्र में रखकर लिखी गई एक लम्बी सीरीज़ है। आज उसी संकलन से दो कविताएँ- मॉडरेटर
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1
जिस जगह तुम पाई गई
वह दीदारगंज है
अलकापुरी नहीं
ढूँढो तो भारत के नक़्शे पर
अलकापुरी कहीं नहीं है
न वो प्रजाति जिसे कहते हैं यक्ष
अब तो वो शिल्पी भी नहीं न वो कला
यह सूचना भी नहीं चिरयौवने
कि मगध के किस ग्राम में मायका तुम्हारा
और दो हज़ार साल से पहले का समय
तो समय का सर्जक भी नहीं ला सकता
मगर तुम हो
जैसे दीदारगंज है
जैसे चुनार है उसके सैकत पत्थर हैं
और मेरी आँखें हैं तुझे निहारती
और मेरी भाषा का पानी
जिसमें तुम्हारी परछाइयाँ हैं!
2
माना कि तुम पत्थर की हो
मगर पत्थर नहीं
तुम्हारे मुख से फूटती प्रसन्नता पत्थर नहीं
न वह छाया ही
जो शिल्पी के मानस से नसों तक आई
और पत्थर पर प्रकाश की लिपि में बस गई
और मैं भी पत्थर नहीं
मेरी जीवित आँखें मेरा मोद विहवल मन
और तुम्हारी चेतन कौंध
और शिल्पी की मनस्तरंगें सब एक हैं
आज यहाँ अभी!
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