![]() युवा लेखक भगवंत अनमोल अपनी नयी किताब ‘ बाली उमर ‘ को लेकर इन दिनों खासे चर्चे में बने हुए हैं । हालांकि किताब का शीर्षक स्वतः स्पष्टीकरण दे रहा है कि लेखक ने बच्चों के जीवन से कुछ लम्हों को उठाकर एक रोमांचक सा कोलाज़ तैयार किया है । बावज़ूद बहुत सी बातें अनखुली सी रह गयीं हैं , जिसका खुलासा लेखक स्वयं करें तो बेहतर हो । ज़िंदगी 50 – 50 के बाद पाठकों की उम्मीद भगवंत से और बढ़ गयी हैं । बेहतर से बेहतरीन की माँग बढ़ी है । तो एक लेखक के तौर पर क्या भगवंत ने अपने किरदार से न्याय किया है ? ? लेखक से कवियित्री स्मिता सिन्हा की बातचीत-
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1 – आपकी हर किताब में आम विषयों से इतर गंभीर व संवेदनशील विमर्श केंद्र में होते हैं। लीक से हटकर लिखने के अपने जोख़िम होते हैं। एक लेखक लेखन के क्षेत्र में इस प्रयोग को किस नज़र से देखता है?
– मेरा मानना है जोखिम और आसान सब फ्रेम ऑफ़ माइंड है । दुनिया में एक ही नियम है कि दुनिया में कोई नियम नहीं है । जो कार्य किसी के लिए बहुत मेहनत का लगता हैं, वहीं दूसरा उसी कार्य को बड़ी आसानी से कर लेता है। जो काम किसी के लिए कतई रुचिकर नहीं होता, वहीं किसी अन्य को बहुत रुचिकर लगता है। ठीक उसी तरह मुझे गंभीर विषय को रोचक अंदाज में पेश करने में कतई जोखिम नज़र नहीं आता। बल्कि मुझे इसके फायदे मिलते हैं, सबसे बड़ा फायदा यह की पठनीय होने के कारण किताब आम लोगो के बीच पहुँचती है और संवेदनशील विषय होने के कारण समाज में जागरूकता फैलाती है। मैं चाहता हूँ कि आम पाठक जो सिर्फ मनोरंजन वाली किताबे पढ़ते हैं, उन पाठको को गंभीर किताबो की ओर ले जाने वाले ब्रिज की तरह काम करुँ । रही बात एक्सपेरिमेंट की तो मेरा मानना है समय के अनुसार एक्सपेरिमेंट होते रहना चाहिए । आज हम एक बेहतर समाज में रह रहे हैं, आज हमारे पास नयी नयी तकनीक है । आज हम कुछ ही घंटो में कई हज़ार किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं, हम विदेश में बैठे अपने मित्र को देख सकते हैं । यह सब इसलिए संभव हुआ , क्योंकि हमारे पूर्वजो ने नए नए प्रयोग किये हैं। बेशक सभी प्रयोग सफल नही होते पर हज़ारो प्रयोगों में से एक प्रयोग सफल होने पर हम समाज को बेहतर रूप दे कर जाते हैं । इसी तरह हम साहित्य में प्रयोगों से क्यों बचते हैं ! हम क्यों एक ही ढर्रे का साहित्य चाहते हैं ! जब प्रयोग होंगे तभी हमें कुछ बेहतर मिल सकेगा । मेरा मानना है, नए नए विषयों पर बात होनी चाहिए , उन विषयों को सामने आना चाहिए जिन पर लोग कम बात करते हैं , तभी साहित्य का उद्द्येश्य पूरा होगा । वर्ना बार बार वही पुरानी बातों का जिक्र करना सिर्फ सफ़ेद पन्ने पर काली स्याही भरना भर है ।
2 – आपकी कहानियों के किरदार हाशिये पर रहते हुए भी उन सामाजिक व गैर सामाजिक मुद्दों में हस्तक्षेप करते दिखते हैं, जो कभी तो दर्ज़ हो पाये, कभी नहीं। कभी उन्होंने स्थापित मान्यताएं तोड़ी तो कभी नयी राह की ओर संकेत किया। कल्पना और यथार्थ के बीच सामंजस्य बिठाते हुए किरदारों को रेखांकित करने में एक लेखक को किस प्रकार के द्वंद्व से गुजरना पड़ता है ?
– देखिए स्मिता जी, लेखक का सबसे बड़ा हथियार होता है कल्पना । कल्पना के बिना सिर्फ यथार्थ लिखना तो मात्र घटनाएं लिखना भर है । जब तक यथार्थ में कल्पना का मिश्रण नही होगा तब तक घटनाएं कहानी नहीं बनेगी । वैसे भी अधिकतर पाया जाता है कि यथार्थ उतना रोचक नही होता जितना हम कल्पना कर लेते हैं । एक पाठक को पढ़ते हुए रोचकता चाहिए होती है । एक बोझिल यथार्थ , जब तक किसी को जरूरत न हो , तब तक कोई क्यों पढना चाहेगा ! हर व्यक्ति ऐसी कहानी पढना चाहता है जो कम से कम वह कल्पना में सोचते हों और जी न पायें हो या फिर जीना चाहते हो । उनके ही लहजे में अगर आप किसी सामाजिक विषय को परोस देंगे तो उन्हें वह किताब जरूर पसंद आएगी ।
जहाँ तक रही बात एक लेखक के तौर पर मैं अपने चरित्रों को रेखांकित करने में कल्पना और यथार्थ का प्रयोग कैसे करता हूँ तो बताना चाहूँगा कि मेरे किरदार मेरे आसपास के ही लोग होते हैं, बस कल्पना का मिश्रण घटनाओं को रोचक बनाने में करता हूँ । सीधी सपाट घटनाएं बोझिल हो जाती हैं, इसलिए वहां पर कल्पना मिलाकर उन्हें रोचक बनाते हूँ जिससे पाठक उन रोचक द्रश्यो को पढने में रूचि ले ।
दूसरी बात यह माना जाता है की गंभीर विषय पाठक नही पढ़ते । यह सरासर गलत बात है । पाठक को विषयवस्तु के गभीरता से कतई फर्क नही पड़ता ।उनसे बोझिल शैली और क्लिष्ट भाषा नहीं झेली जाती । ऐसा सिर्फ हिंदी में ही नही है , बल्कि यह अंग्रेजी में भी होता है । क्लिष्ट भाषा और बोझिल शैली वाले लेखको से आसान भाषा वाले लेखक अधिक पढ़े जाते हैं । मैं पाठकों की भाषा और उनकी शैली में गंभीर विषय परोसता हूँ ।
3 – आपकी नयी किताब ‘बाली उमर’ के पात्र बाल्यावस्था एवं कैशोर्य की वयःसंधि पर खड़े हैं। उनके मनोविज्ञान पर कहानी लिखने का विचार कैसे आया ? कथानक एवं उसकी रचना-प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताएं ।
– जब कहीं बच्चो के उपन्यास या फिर बच्चो की कहानी पढता हूँ तो उनमें नैतिक शिक्षा वाली बातें कूट कूट कर भरी होती हैं। लेकिन जब कभी मुझे अपना या फिर अपने आसपास का बचपन याद आता है तो पाता हूँ कि उस बाहरी नैतिक शिक्षा के भीतरी मन में कई तरह के वयस्क प्रश्न और ख्याल चल रहे होते थे , दुनिया को जानने की जिज्ञासा होती थी । खासकर उन चीजों की जानने की अधिक उत्सुकता रहती थी जो हमसे छिपाई जाती थी। ऐसा लगता था उनके सवालों के जवाबो में एक दूसरी दुनिया है जो हमसे छुपायी जा रही है। वह जिज्ञासा बाल उपन्यासों से सिर्फ नैतिक शिक्षा देने के नाम पर गायब मिलती है । ज़िन्दगी जीने की एक प्रक्रिया होती है, सभी ने लगभग वैसे ही मानसिक स्थिति का सामना किया होता है । परन्तु बचपन पर लिखते वक्त पता नही क्यों लोगो की कलम रुक जाती है ।
इससे पहले मैंने आर के नारायण के मालगुडी डेज के विडियो देखे थे । फिर डेढ़ से दो साल पहले मुझे रस्किन बांड की एक किताब अनुवाद करने को मिली। उसे अनुवाद करते हुए मुझे लगा कि रस्किन ने भी बच्चों पर लिखते हुए अपनी कलम रोक ली है । वह उनके उस मनोभाव तक नही पहुच पाए , जिनके बारे में मैं बात करना चाहता था । वहां से मुझे लगा कि बचपन पर एक मुकम्मल उपन्यास जो हर तरह के पाठकों के पढ़ने के लिए हो , वह नहीं लिखा गया है। यहीं से इस उपन्यास को लिखने की शुरुआत हुई ।
जहाँ तक रही बात कथावस्तु की तो देखिए मैं बहुत पिछड़ा हुआ लेखक हूँ । जहाँ से युवा लेखकों की सोच शुरू होती हैं, वहां मेरी सोच ख़त्म हो जाती है। युवा लेखक टीनऐज की कहानियां लिखते हैं और मेरी यह किताब टीनऐज शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती है। यह छः से 13 वर्ष के पांच बच्चो की कहानी है । जब मैंने बच्चों का उपन्यास लिखना शुरू किया तो मेरे पास एक ही प्रश्न था नोस्टाल्जिया के सिवाय मैं अपने पाठको को क्या दे सकता हूँ ! मेरी किताबे सिर्फ एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट के लिए नहीं हो सकती । मेरी किताब में आपको एंटरटेनमेंट, सोशल इशू और मोटिवेशन मिलेगा ।
इस उपन्यास में बच्चों का मनोविज्ञान तो है ही , साथ ही साथ एक ऐसे लड़के की कहानी है जो कर्नाटक प्रान्त से आकर उत्तर भारत के नवाबगंज गाँव में फंस गया है । वह कैसी यातनाएं सहता है, उसे क्या कष्ट सहने पड़ते हैं ! उसके जीवन और मरण की लडाई में कौन जीतता है ! आखिर वह इस अजनबी गाँव में कैसे खुद को संभाल पाता है ! यह एक बचपन की यादो की पठनीय शैली में लपेटी हुई भाषाई नासममझ या भेदभाव पर लिखी हुई किताब है । आजकल भी तो ठीक वैसा ही हो रहा है । कहीं रंग के नाम पर, कहीं भाषा के नाम पर, कहीं धर्म और कहीं प्रदेश के नाम पर भेदभाव बढ़ता ही जा रहा है । मुझे लगता है कि भाषा की वजह से हुए भेदभाव पर हिंदी में यह पहला उपन्यास है ।
4 – जिस उम्र एवं अवस्था को आप पार कर चुके हैं, उस उम्र की बदमाशियां, नादानियां और मासूमियत को लिखना बड़े हुनर का काम है। फ़िर जैसा कि आप कहते हैं, यह कोई नॉस्टेल्जिया भी नहीं। भगवंत अनमोल को क्या हम इस किताब में कहीं पायेंगे या यहाँ भी लेखक ने किरदारों से जरुरी दूरी बना कर रखी है।
– देखिये मुझे लगता है कि ग्राम्य जीवन में जो मैनेजमेंट और जीवन जीने की कला सीखने को मिलती थी , वह आज शहरी जीवन और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स आने की वजह से बच्चो को नही मिल पा रही है। बेशक आजकल के बच्चे पढाई में अच्छे हो रहे हैं , पर जीवन जीने की कला नदारद है। कई पढ़े लिखे कॉलेज के बच्चे या फिर बड़ी कंपनियों में जॉब करने वाले लोग इसी कारण आत्महत्या कर लेते हैं , क्योंकि उन्हें हारने पर खुद को संभालना नहीं आता । इसमें उनकी गलती नहीं है, करियर के चक्कर में जीवन जीने की कला सीखने को ही नही मिली । इस पुस्तक में बच्चो का जीवन है , वह जीवन जो हमें उनकी शरारते, जिज्ञासाएं, कभी हार न मानने की जिद , एकजुट रहने और सीखते रहने की प्रेरणा देता है । यह सब छोटी छोटी चीज़े हमने गाँव में ही सीख ली थी ।
मैंने ऐसा कहीं नही कहा कि इस पुस्तक में नोस्टाल्जिया नही है । मैंने कहा है कि इस पुस्तक में सिर्फ नोस्टाल्जिया नहीं है । बेशक आप इस कहानी को मुझसे जोड़ सकती हैं , पर इसमें पाठक स्वयं को भी पाएगा , क्योंकि यह बचपन का मनोविज्ञान सिर्फ भगवंत अनमोल के दिमाग में ही नही चलता रहा है । गाँव, कस्बो या फिर छोटे शहरों में रहने वाला हर व्यक्ति लगभग इसी तरह पला बढ़ा और सीखा है । हर पाठक को अपनीं ज़िन्दगी के उस बचपन के दिन याद आएंगे, जब वह नाक पोंछते थे । जब वह किसी भी नई चीज़ को पहली बार देखते थे । इसे नाबालिग बच्चों की बालिग़ दास्ताँ भी कह सकते हैं या फिर कच्चे मन के पके सपने भी ।
5 – आपका मानना है कि आज का लेखक विचारधारा से मुक्त होकर लिख रहा है… विमर्श भी रूढ़ होता चला गया है। फिर आप अपनी किताब से क्या संदेश देना चाहेंगे?
– स्मिता जी, मेरा विचारधारा से मुक्त होने का मतलब था राजनीतिक लोभ की विचारधारा । सरकार को खुश करके कोई पद या पुरस्कार प्राप्त करने की लालसा । इस बात के लिए तो युवा लेखको की तारीफ करूंगा कि वह किसी विशेष राजनीतिक दल या फिर किसी विशेष व्यक्ति को खुश करने के लिए नही लिख रहे हैं । वह पाठकों के लिए लिख रहे हैं । आप इस वक्त के युवा लेखन को सतही तो कह सकती हैं , पर इस बात से कतई इंकार नही करेंगी कि युवाओं के लेखन में नवीनता है ।
किताब के सन्देश पर अभी बात न की जाए तो बेहतर है , क्योंकि जब किताब लोगों के पास पहुंचेगी और कुछ नया पढ़ने एवं समझने को मिलेगा तो अधिक प्रभाव छोड़ेगा ।
6 – आपके साथ पूरी बातचीत से यह समझ में आया कि यह उपन्यास वयस्कों के लिए तो जरूर है पर क्या यह उपन्यास बच्चो के पढने के लिए भी है?
– मैं यह बात मानता हूँ कि यह किताब उस बाल उपन्यास की तरह नहीं है , जिसमें यह बताया जाए कि चोरी करना बुरी बात है या आनेस्टी इज द बेस्ट पालिसी । इसमें बच्चो की वयस्क जिज्ञासाओं का चित्रण है । किताब के सभी मुख्य पात्र बच्चे ही हैं । सारे शैतानियाँ बच्चे ही करते हैं । ऐसा नहीं है कि मैंने कोई ऐसी बात लिखी है जिसका यथार्थ से कोई लेना देना नही है । गाँव में जन्मे हर व्यक्ति ने बचपन में ऐसा जीवन जिया होगा । ऐसे ही सोचा होगा क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने की यही प्रक्रिया है । फिर भी अगर कोई यह कहता है कि यह किताब बच्चों के लिए नहीं है तो यह ठीक उसी तरह से हुआ जैसे बच्चे प्रैक्टिकल तो कर सकते हैं , पर उन्हें थ्योरी पढने की छूट नहीं है ।
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