इसमें कोई शक नहीं कि हाल के दिनों में सबसे अधिक व्याख्या-कुव्याख्या संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर हुई. बहरहाल, यह एक व्यावसायिक सिनेमा ही है और मनोरंजक भी है. इस फिल्म पर जेएनयू में कोरियन भाषा की शोधार्थी कुमारी रोहिणी की समीक्षा- मॉडरेटर
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बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की…
यह लड़ाई पद्मावती के लिए नहीं बल्कि पद्मावती से थी…
जी हाँ हम गए थे देखने फ़िल्म पद्मावती..ऊप्स पद्मावत. यही “ई” की कमी मुझे फ़िल्म के आधे से अंत तक खलती रही. फ़िल्म में राजपूताना शौर्य या ख़िलजी के आतंक दोनो में ही किसी भी तरह की कोई भी कमी दिखाई गई है. भंसाली ने पटकथा को बहुत ही अच्छे से पिरोते हुए परदे पर उतारा है. पिछले एक साल में राजपूताना शौर्य और उनसे जुड़े इतिहास का इस हद तक छिछालेदार हम सब ने मिलकर कर दिया है कि अब इस बारे में बात करना बिलकुल वैसा लगता है जैसा कि आप आठवीं में हो और हार रोज़ ऐल्जेब्रा के फ़ोर्मूले रट रहे हों.
ख़ैर जहाँ तक भंसाली निर्देशित पद्मावत की बात है नि:संदेह यह एक अच्छी फ़िल्म है बिलकुल हमारे उम्मीदों पर खरी उतरने वाली (जैसी उम्मीद हम भंसाली से करते हैं). किरदारों का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर किया गया है. रणवीर अपने करियर के उत्कृष्टम पर लगे मुझे वहीं दीपिका इस बार ठहराव वाली फ़ीलिंग दे रही हैं. दीपिका को अपने अभिनय में अब किसी नए प्रयोग की ज़रूरत है ऐसा मुझे महसूस हुआ क्योंकि वे पद्मावती के रूप में भी मुझे पद्मावती कम मस्तानी ज़्यादा लग रही थीं. रही बात शाहिद की तो सिनेमा में उनका रोल और अभिनय दोनो ही उतना हल्का है नहीं जितने हल्के में करणी सेना वालों ने और उनके विरोधियों ने उन्हें लिया था. जानदार राजा के रूप में शाहिद बहुत जंच रहे हैं और सच में एक राजपूर राजा के किरदार को परदे पर चित्रित कर पाने में सफल रहे हैं. इसके अलावा, जहाँ तक सेट और वेशभूषा का मामला है हर बार की भाँति इस बार भी भंसाली साहब ने तनिष्क के एंडोर्समेंट में कोई कमी नहीं छोड़ी है. ये सब तो आधारभूत जानकारियाँ है जो बिना सिनेमा देखे भी प्राप्त की जा सकती है या फिर भंसाली के पैटर्न को देखते हुए समझा जा सकता है.
मैं इस सिनेमा को देखने के बाद किसी और ही तरह की बहस में उलझी हुई हूँ. सोचा नहीं था कि कुछ लिखूँगी इस पर, क्यों? इसका कारण पहले ही बता दिया लेकिन तभी लौटकर आने के बाद रात में फ़ेसबुक पेज पर विदुषी अभिनेत्री स्वरा भास्कर जी की खुली चिट्ठी पढ़ने को मिल गई. उनकी यह चिट्ठी पढ़कर मन अजीब सा हुआ, पहली बार असहमत हूँ मैं उनके विचारों से. उन्होंने भंसाली को लिखी अपनी चिट्ठी में कहा है कि इस सिनेमा के लिए वह बहुत लड़ी हैं और भंसाली का साथ भी दिया है लेकिन अंत में उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि भंसाली ने हम औरतों को बस चलती फिरती योनि(vagina) ही समझा और दिखाया. मैं यहाँ उनके इस तर्क से असहमत हूँ. मुझे सिनेमा देखते हुए एक पल को भी नहीं लगा कि इसमें ऐसी कोई बात उभर कर अस्पष्ट रूप से आ रही है. मैं तो यहाँ तक कहूँगी कि बिटवीन द लाइंस भी देखने पर ऐसा कुछ नहीं लगा. इस पूरे सिनेमा को देखकर जो सबसे ज़्यादा बड़ी बात लगी वह यह कि यह लड़ाई राजा रतन सिंह और अल्लाउद्दीन ख़िलजी के बीच की नहीं बल्कि पद्मावती और अल्लाउद्दीन ख़िलजी के बीच की थी. कहीं भी ऐसा नहीं लगा है सिनेमा देखते हुए कि पद्मावती को बस एक रूपवती के रूप में भंसाली ने परदे के सामने खड़ा किया है. सिनेमा में दीपिका की एंट्री से लेकर अंतिम दृश्य में उसके जौहर तक एक एक पल पद्मावती मुझे एक कुशल योद्धा और राजनीतिक समझ और सूझबूझ वाली रानी ही लगी. कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि वह बस एक स्त्री होने की वजह से ख़िलजी या राजा रतन सिंह के सामने छोटी पड़ रही हैं, चाहे वह ख़िलजी के सामने अपना चेहरा दिखाने का निर्णय हो या राजा रतन सिंह को क़ैद से छुड़वाने के लिए दिल्ली जाने का फ़ैसला, हर जगह उन्होंने अपने को स्थापित राजनीतिज्ञ और कुशल योद्धा की तरह पेश किया है . और वह फ़ैसला भी भावना से ओतप्रोत होकर लिया हुआ फ़ैसला नहीं था बल्कि उसमें भी जो शर्तें पद्मावती ने रखी थी वह एक कुशल राजनीतिज्ञ ही रख सकता है जिसके पास राजनैतिक समझ के साथ साथ रणनीति तैयार करने की योग्यता भी हो. ये सारी घटनाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि पद्मावती तथाकथित अबला नारी नहीं थी जिसके लिए उसके पति को लड़ाई करनी पड़े या अपनी ईज्जत बचाने के लिए उसे ख़ुद ही आग में कूदना पड़ जाय. बल्कि परिस्थिति ऐसी थी कि हर बार पद्मावती ने ही राजा रतन सिंह को मुश्किलों से उबारा, यहाँ तक कि उन्हें ख़िलजी के क़ैद से वापस भी लेकर आईं.
मेरा नज़रिया तो यह कहता है कि यह लड़ाई एक राजा की दूसरे राजा से नहीं बल्कि एक ज़िद्द की दूसरी ज़िद्द से थी. ऐसा नहीं था कि अल्लाउद्दीन को पद्मावती इसलिए चाहिए थी क्योंकि वह बहुत ही सुंदर थी या वह उसके प्रेम में पागल हो चुका था, बल्कि इसलिए चाहिए थी क्योंकि उसे दुनिया की सभी नायाब चीज़ों का शौक़ था, और हर सम्भव नायाब चीज़ चाहे वह दिल्ली का सल्तनत हो, उसकी बीवी हो या उसका ग़ुलाम मालिक काफ़ूर सभी उसके पास थी. एक तरफ़ जहाँ ख़िलजी को अपनी ज़िद्द पूरी करनी थी वहीं पद्मावती ने भी अपने राज्य का सम्मान और प्रजा के हित को ध्यान में रखते हुए हमेशा ही सही और तर्कपूर्ण निर्णय लिया. चाहे वह निर्णय सामूहिक जौहर का ही क्यों ना हो. हम में से कई लोग जौहर और सती में कन्फ़्यूज़ हो जा रहे हैं. ध्यान रखिए पद्मावती ने जौहर किया था वह सती नहीं हुई थी. इसे दूसरी तरफ़ से सोचें तो पद्मावती का जौहर करना बिलकुल ऐसा ही था जैसे कि चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेज़ों की गोली से मरने के बजाय स्वयं को गोली मारना ज़्यादा सम्मानजनक समझा था. पद्मावती का जौहर बस स्त्री सम्मान की रक्षा ही नहीं था बल्कि अपने दुश्मन को एक करारा जवाब भी था. (कम से कम मैं ऐसा ही सोचती हूँ). क्योंकि इतनी लड़ाई और इतनी मशक़्क़त के बाद भी ख़िलजी के हाथ जो आया वह निराशा ही थी, और एक योद्धा के लिए इससे बड़ी जीत और दूसरे योद्धा के लिए इससे बड़ी हार कुछ नहीं हो सकती कि वह अपना पूरा जीवन इस मलाल में बिता दे कि उस लड़ाई में वह कुछ ऐसा हार गया जो किसी भी दूसरी लड़ाई से हासिल नहीं किया जा सकता है और यही पद्मावती की जीत थी.
बात लम्बी हो रही है और शायद मैं भटक भी रही हूँ अपने विषय से. सभी बातों की एक बात जो मुझे लगी और जो मैंने सिनेमा देखते हुए महसूस किया वह यह कि पहली बार किसी कामर्शियल सिनेमा को देखकर ऐसा नहीं लगा कि इसमें नारी के अबलापन को बेचा गया है. देखने के सौ और सोचने के हज़ार तरीक़े हो सकते हैं और होते भी हैं. हो सकता है आपको भी सिनेमा देखकर ऐसा लगे कि स्वरा जी की बात ही सच है और भंसाली ने एक बार फिर स्त्री के अंग विशेष को अपने सिनेमा के माध्यम से बेचा है और हम स्त्रियों को कमतर किया है लेकिन मुझे सच में ऐसा नहीं लगा क्योंकि मैं सिनेमा देखते वक़्त यह नहीं देख रही थी कि इसका मुख्य किरदार एक औरत है. मुझ पर हर वक़्त पद्मावती का राजनैतिक कौशल ही हावी रहा उसकी योनि नहीं.
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