Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

प्रदीपिका सारस्वत की कविताओं में कश्मीर

$
0
0

बहुत दिनों बाद कश्मीर पर कुछ अच्छी कविताएँ पढ़ी. कुछ कुछ अपने प्रिय कवि आगा शाहिद अली की याद आ गई. कवयित्री हैं प्रदीपिका सारस्वत. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

====================================================

1.

मेरे ख़्वाब में
चारों तरफ़ बिखरे पड़े हैं क़िस्से
दिल्ली की बेमौसम धुँध में
साँस-साँस घुटते
मैं देखती हूँ किसी कलहण को
एक और राजतरंगिनी लिखते
दर्ज करते हुए कुननपोशपोरा
और भटों की जलावतनी
दिल्ली की धुँध में
साफ़ देखती हूँ
नमाज़-ए-जनाजा पर जुटी भीड़
और वीरान पड़े
कुछ टूटी खिड़कियों वाले, अधजले घर
अभिशप्त वादी
रख के देख चुकी है
तमाम राजाओं के सर पर सजीले ताज
जेहलम में बह चुका है
कितने रंगों का लहू
मठ और मंदिर न जाने कितने
खो चुके हैं अपने ईश्वर

निज़ाम और ख़ुदा बदले हैं
चिनार के पत्तों की तरह
पर घाटी के बाशिंदे अब भी खड़े हैं
हाथों में ख़ून-रंगे फूल लिए
कि एक दिन उनका राजा
घाटी को जन्नत बना देगा
मैं बेचैनी में करवट बदलकर
छीन लेती हूँ कलहण के हाथ की क़लम
अब बस, एक और शब्द मत लिखो
इतिहास का गला घोंट, शायद
मैं वर्तमान को
बचा लेना चाहती हूँ

2.

हवाएँ नहीं जमतीं ठंड से
घुलती रहती हैं ख़ून में, चुपचाप
पर ख़ून का तापमान बढ़ने पर
उठ जाती हैं ऊपर
जिस सर पे ख़ून चढ़ा हो
वो ज़िंदा नहीं
मुर्दा साँसों में मरती हवाएँ
धुआँ हो जाती हैं
घाटी से कह दो
हवाओं के लिए बसंत न सही
सर्दियाँ बचाए रखे

3

घाटी के लिए
___________

एक बार, बस एक अंतिम बार
भीतर आने देना मुझे
मुझे ज्ञात है
कि तुम वो पुराना कमरा हो
जिसने देखा है इंसानी पागलपन
ऊपरी सीमा से उस बिंदु तक
जिस से नीचे नापे जाने, न जाने का कोई अर्थ नहीं
तुमने देखे हैं ईश्वर, बुत, पैग़म्बर और निंदित स्त्रियाँ
दूध, पानी, स्वेद और रक्त
समर्पण, दंभ, युद्ध और हताशा का प्रलाप
सब एक ही भाव से
मुझे नहीं लिखना अपना नाम
तुम्हारे दर, दीवार, फ़र्श या खिड़की पर
वरन हो जाना है विलीन
तुम्हारी सनातन आँखों के शून्य में
समय के उन तमाम प्रेतों की तरह
जिनका नाम मानव इतिहास में
कहीं अंकित नहीं

4.

मग़रिब की अज़ान
ले आती है अक्सर
शाम के साथ
गांव के शिवाले की घंटियां
मस्जिद से आती रौशनी में
नज़र आता है
घी का दिया
और अम्मा का आशीष
जैसे देखती हूँ अक्सर
झूमते चिनार में
ट्यूबवेल के सामने का पीपल
जेहलम के पानी में
राजघाट का गंगाजल
और हिजाबपोश लड़कियों में
माँ का चेहरा

5.

रात ढली नहीं आज
जागती हुई मस्जिद की खिड़की के पल्ले पर
बर्फ़ हुई ओस पे हँस,
उतर गई कांदरू के तंदूर में
और तमाम सौंधी रोटियों की शक्ल में
दिन बन कर उग आई
रात के पेड़ की काली जड़ें
छुपा कर रख दी गई कांगड़ियों में
मस्जिद किनारे बूढ़ा मौलवी
अज़ान के बाद
सुड़कते हुए पिछली पुश्तों का पसीना
तय नहीं कर पाया कि नरम लवास की रंगत में
दिन की ख़ुश्क तासीर है या रात का रूखापन
वैसे उम्र के इतने बरसों में
नहीं समझ पाई हैं उसकी झुर्रियाँ
रात और दिन का फ़र्क़


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1471

Trending Articles