आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ अखबार ने कृष्णा सोबती को श्रद्धांजलि स्वरुप सम्पादकीय लिखा है. आज अखबार में यही एक सम्पादकीय है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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जिस किसी ने 90 साल की उम्र में अस्वस्थता के बावजूद 1 नवंबर, 2015 को दिल्ली के मावलंकर सभागार के मंच तक व्हीलचेर पर आईं और व्यवस्था के प्रति अपना प्रतिरोध दर्ज कराती कृष्णा सोबती को देखा या सुना होगा, उसे कृष्णा सोबती के होने का मतलब बताने की जरूरत नहीं। उस दिन सोबती ने न सिर्फ मौजूदा हालात के खिलाफ विरोध का स्वर बुलंद किया था, बल्कि सत्ता से सीधे-सीधे कुछ सवाल भी पूछे थे। वह लेखकों-संस्कृतिकर्मियों पर चारों ओर से हो रहे हमलों से क्षुब्ध थीं और आक्रोश भरे स्वर में कहा था, ‘जिन लोगों का साहित्य से कोई परिचय ही नहीं है, जिन्हें भारतीयता का कोई बोध ही नहीं है, वे लेखकों को भारतीयता सिखाएं और उनके विरोध को ‘मन्युफैक्चर्ड’ बताएं, हमारे समय की इससे बड़ी कोई दूसरी विडंबना नहीं हो सकती’। कृष्णा सोबती का यही गुस्सा तब भी दिखा था, जब 2010 में उन्होंने पद्म भूषण सम्मान देने की भारत सरकार की पेशकश यह कहकर ठुकरा दी थी कि ‘एक लेखक के तौर पर मुझे सत्ता प्रतिष्ठान से दूरी बनाकर रखनी चाहिए।’ लेखक, लेखन, अभिव्यक्ति की आजादी और आम आदमी के पक्ष में मुखर रहने वाली यह आवाज अब हमारे बीच नहीं है।
आज के दौर में, जब शब्दों की अर्थवत्ता संकट में हो, सोबती ऐसी रचनाकार थीं, जिन्होंने शब्दों की शक्ति को न सिर्फ कमजोर होने से बचाया, वरन उन्हें नए सिरे से सशक्त किया। उनके लेखन के एक-एक शब्द के पीछे सच्चाई का जोर और साहस का आधार है, जो किसी के रोब में झुकना नहीं जानता। नामवर सिंह ने बिल्कुल सही कहा है कि सोबती शब्दों को अपनी जिंदगी की तरह जीती रहीं। उन्होंने हिंदी के मर्दवादी लेखन को एक नया मुहावरा दिया, जो स्त्रीवादी लेखन की प्रचलित परिपाटी और प्रचलित मुहावरे से कहीं अलग था, लेकिन उन्होंने खुद को कभी स्त्रीवादी लेखन के चौखटे में रखना मंजूर नहीं किया। उनके लिए लेखक का मतलब लेखक था, जिसे किसी तमगे की जरूरत नहीं।
एक बड़ी रचनाकार होने के साथ-साथ वह अपने समय-समाज से अलग न रहकर सीधे-सीधे जिस तरह हस्तक्षेप करती थीं, उसे और उनके समूचे रचनात्मक अवदान को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह हमारे हिंदी समाज के लिए आज के दौर में अंतरात्मा की आवाज थीं। वह बेजोड़ साहस की ऐसी प्रतीक थीं, जिसने अपने बौद्धिक बेलागपन और साहसपूर्ण हस्तक्षेप के साथ हिंदी समाज में पब्लिक इंटलेक्चुअल की भूमिका का भी निर्वाह किया। यह अनायास नहीं था कि 92 वर्ष की उम्र में 2017 में जब उन्हें साहित्य के क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ देने की घोषणा हुई, तो समूचे साहित्य समाज ने इसे देर से दिया गया सम्मान माना। उन्हें उनके उपन्यास जिंदगीनामा के लिए वर्ष 1980 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और 1996 में अकादेमी के ही उच्चतम सम्मान ‘साहित्य अकादेमी फेलोशिप’ से नवाजा गया। हाल ही में प्रकाशित बंटवारे की पृष्ठभूमि पर लिखा गया आत्मकथात्मक उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से, गुजरात हिन्दुस्तान विभाजन पर अब तक लिखे गए तमाम उपन्यायों में अलग से रेखांकित हुआ है। वह जिस मौलिक ऊर्जा और मौलिक मुहावरे के साथ हर बार वृहत्तर समाज के समक्ष उपस्थित होती रहीं, उनकी वह उपस्थिति और ऊर्जा उनके शब्दों के रूप में हमारे साथ बनी रहेगी।
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