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कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘दिलो दानिश’का एक अंश

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कृष्णा सोबती के उपन्यासों में दिलो-दानिश का अपना मुकाम है. पुरानी दिल्ली की मिली जुली संस्कृति पर ऐसा उपन्यास मेरे जानते कोई और उपन्यास नहीं है. उनके अनेक उपन्यासों की तरह यह उपन्यास भी अपने परिवेश और किरदार के लिए याद रह जाता है. उसी का एक अंश- मॉडरेटर

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 1

इस बार जो चिल्ला पड़ा तो शहर-भर को कँपकँपी लग गई। गहराता जाड़ा लाल किले की महराबों को फलाँग जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर पसर गया। रज़ाइयों, दुलाइयों और निहालियों के ढेर। हवा में झिलमिलाती पतली धूप। रंग-बिरंगी रज़ाइयों में पड़ते डोरे मानो दिल्ली के बाशिन्दों पर आड़ी-तिरछी खींचने लगे।
साटनी छींट की चार रज़ाइयाँ सिलवा-भरवा मुंशीजी हवेली पहुँचाने गए तो उन्हें देख वकीलनी ख़ुश हुईं।
-मुंशीजी, रज़ाइयों का छापा तो बड़ा सज़ा है।
सिर हिलाया मुंशीजी ने-वकील साहिब की पसन्द है, जनाब।
कुटुम्ब ने अस्तर पर हाथ फिराया-डोरे भी अच्छे डले हैं।

-जी साहिब, दो में लहरिया है और दो में टुकड़ी। नियाज़ के यहाँ काम अच्छा होता है। दो धूप-छाँह की और बन रही हैं। उनमें निगन्दा और भी अच्छा उभरेगा।
मुंशीजी की काँइयाँ बेमुरव्वती नज़र के सामने कुटुम्ब दिल-ही-दिल तमतमाईं। फिर अपने को सँभालकर पूछा-हिसाब तो बाकी नहीं ? पैसे देने हों तो कहिए।
-जी नहीं। कमरे में ही भुगतान हो जाएगा। हाँ, जो दो तैयार हो रही हैं उनकी लम्बान-चौड़ान ज़रा इनसे कम ही बैठेगी।
जाने कुटम्ब प्यारी समझीं कि नहीं।

-मुंशीजी, चार रज़ाइयाँ तो ये रहीं। दो पिछले जाड़ों में बनी थीं। जो दो और बन रही हैं, भला किस काम आएँगी ! गद्दों और दुलाइयों-रज़ाइयों के तो घर में ढेर लगे हैं।
मुंशीजी अपने चेहरे को घीया-कद्दू बनाए रहे, फिर चुप्पे सी गोट डाल दी-शायद फ़राशख़ानेवालों के लिए बनवाई गई हैं।
मुंशीजी को अन्देशा था, सुनते ही वकीलनी साहिबा फट पड़ेंगी, पर ऐसा कुछ न हुआ।
बन्दगी कर क़दम उठाया ही था कि पीछे से आवाज़ पड़ गई- मुंशीजी, याद आया। छोटी दोनों रज़ाइयाँ हमें पम्मो और दम्मो के लिए चाहिए होंगी। आप न उठवाइएगा। हम ही ले आएँगे। भला क्या-क्या रंग हैं उनके !
-साहिबा, एक तो लाल-नीली है, दूसरी हरी-उनाबी; और दोनों में संजाफ़ गुलाबी है।
-नियाज़ के यहाँ ही तो !

मुंशीजी ने सिर हिला हामी भरी और हवेली के बाहर हो गए। डाह। औरत को भला लशाना भी क्या मुश्किल !
मुंशीजी सीधे नियाज़ के यहाँ पहुँचे। रज़ाइयाँ झल्ली में रखवाईं और नियाज़ के कान में हँसकर कुछ फुसफुसा दिया।
-मुंशीजी, वकील साहिब के घर से आन ही पहुँचीं तो हम भी क्या सफ़ाई देंगे !
मुंशीजी मकर से मुस्कुराए-इसी रंग के दो टुकड़े सिलाई में और रखवा दीजिएगा। वैसे आने से रहीं। एहतियातन आपको बता दिया है।
नियाज़ के बड़े भाई फ़ैयाज़ हँसे।
-मुंशीजी, आपके वकील साहिब का भी जवाब नहीं। मुक़द्दमे के बहाने लाखों का कीमती हीरा मार लिया।
अनसुना-सा कर मुंशीजी ने कदम भरा और लपककर झल्ली वाले के साथ हो लिये। नुक्कड़ पर पहुँचते-न-पहुँचते तेज़ हवाएँ चल निकलीं। दूकानों के बाहर लटकते रंग-बिरंगे चमकीले सूती-रेशमी-ऊनी कपड़े उड़-उड़ लहराने लगे। जितने में दूकानों से निकले हाथ उन्हें झपटकर समेंटें, बड़ी-बड़ी पनीली बूँदों की बरखा होने लगी। पटरियों पर तेज़-तेज़ भागने की होड़-सी लग गई। बौछार से बचने के लिए छज्जों तले अधगीलों की टोलियाँ पानी थमने का इन्तज़ार करने लगीं।

सामने से टनटनाती ट्रैम सड़क के बीचोबीच सरकती आई तो भीड़ से खचाखच भरी थी। रुकी और रुकते ही सरक गई।
मुंशीजी ने झल्ली पर तिरपाल डलवाई। सवारी का ताँगा रोका और झल्लीवाले के समेत घोड़े की सरपट चाल पर फ़राशख़ाने की ओर निकल चले। सड़कों पर फैली रोशनियों की लम्बी-गीली परछाइयाँ अपने में न जाने कैसे-कैसे रंग-रूप उभारने लगी थीं।
मुंशीजी ने हस्बेमामूल कनखियों से चावड़ी के जगमग छज्जों की ओर देखा और दिल में सेंक महसूस कर दिल-ही-दिल मखमली बिछौने और तोशक की सुनहरी झालरों का नज़ारा बाधँने लगे। कभी मौक़ा लग गया तो हम भी देख लेंगे।
ज़ीने के नीचे सिकुड़कर बैठे बब्बन मियाँ फ़तुही में भी ठिठुर रहे थे।
मुंशीजी को देखा तो देखते ही हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए।
-ऐसी बारिश में कैसा आना हुआ, मुंशीजी ! यह झल्ली में क्या रखवा लाए ?

-बब्बन मियाँ, ऊपर जाकर इत्तला करिए, वहीं खुलेगा यह राज़। आवाज़ सुनकर बदरू ने सीढ़ियों से झाँका।
-अजी मुंशीजी, इस मूसलाधार बारिश में ! भला झल्ली में क्या है ? गजरेला तो हो नहीं सकता ! न तिल के लड्डू, न गज़क और न रेवड़ियाँ। गरमाई मेवे भी नहीं। उसे तो आप थैले में ही डाल जाते।
मासूमा भाई के साथ आन खड़ी हुई।
-हम बताएँ, मुंशीजी बड़शाह बूले की नानखताई लाए होंगे।    बदरू बहन के सीधेपन पर हँसे-झल्ली और नानखताई ! क्या मुंशीजी हमसे खोमचा लगवाएँगे !
बदरू मुंशीजी की ख़ुशामद करने लगे-अब देर न कीजिए, मुंशीजी ! दिखा डालिए ! कहीं जामा मस्जिद से हमारे लिए तीतर-बटेर तो नहीं ले आए ?
मासूमा बोली-मैना होगी। बुलबुल होगी।
मुंशीजी ने आँख के इशारे से त्रिफला उठवा दी तो भाई-बहन ख़ुशी से रीझ-रीझ गए।

-हाय अल्लाह ! कितनी खूबसूरत ! अम्मी देखिए तो, नए लिहाफ हैं !
मुंशीजी ने बन्दगी की तो बेगम साहिबा ने एक नज़र भर देखा और भीगी बयार की तरह हँसकर कहा-मुंशीजी इन्हें इतना तो समझाइए कि सवालों का इतनी भरमार क्यों। कुछ नज़र से भी तो देखा-समझा जाता होगा।
मुंशीजी ने एक झुकी-झुकी चिराग़ नज़र बेगम साहिबा पर ड़ाली और बच्चों को रिझाने के लिए कहा-अपनी-अपनी पसंद कीजिए। दोनों सदाबहार हैं। देखिए तो, हज़ूर ने क्या-क्या उम्दा रंग मिलाए है।
तशतरी में गज़क रख कर महक बानो ने मुंशीजी के आगे की-लीजिए, मुँह तो मीठा कीजिए। आप तो बच्चों के लिए जाड़े की बरकत ले आए हैं।
-हाँ अम्मी, अब तो कोहरा छोड़, दिल्ली में बर्फ़ पड़ती रहे !
बदरू के साँवले शोख चेहरे पर नटखटपन फैल गया।
मासूमा बोली-दिल्ली में बर्फ़ पड़ ही नहीं सकती।

-हूँ ! यह तो ठीक कह रही हैं आपा ! पहाड़ यहाँ से बहुत दूर हैं। हम जुगराफ़िया में पढ़ चुके हैं।…मलाई की बर्फ़ ऊनी कपड़े में जमती है न, लकड़ी की पेटी में। मुंशीजी, क्या मज़ा आए अगर रंज़ाई ओढ़कर बस बर्फ़ की चुस्की चूसते रहें, रात भर।
मासूमा ने टोका-ठंड में बदन अकड़ जाएगा।
-रज़ाई ओढे होंगे तो कैसे अकड़ेगा ! चुस्की ज़बान में घुलती रहेगी। बदन लिहाफ़ में लिपटा रहेगा।
-बच्चू आपकी ख़ुद की कुल्फ़ी बन जाएगी।
बदरू मुंशीजी के कन्धे पर झूल गए।
-हमारी कुल्फ़ी तो बन ही नहीं सकती। आपा गोरी-चिट्टी हैं, इन्हीं की बर्फ़ जमेगी।
मासूमा चिढ़ गई-ऐसी महीन चुटकी काटूँगी कि…
महक ने आँखों से तरेरा।
-बच्चो, मुंशीजी जाने को खड़े हैं। नई रज़ाइयों के लिए शुक्रिया, मगर अम्मी लिहाफ़ का क्या हुआ ? बनेगा न ?
इन कानाफूसी में महक के पल्ले कुछ न पड़ा।
-मुंशीजी, यह शैतान लड़का क्या कहे जा रहा है आपको ?

मुंशीजी ने बड़ी संजीदगी से सिर हिलाया-माफ़ कीजिए, यह हम दोनों की आपसदारी की बात है। इसे हमारे बीच ही रहने दीजिए।
मासूमा बोली-हमें मालूम है अम्मी, मुंशीजी से लाल-नीली पैंसिल की फ़रमाइश कर रहे होंगे।
अम्मी ने टोका-लाल-नीली पैंसिल तो उस्ताद रखा करते हैं। आपको क्या ज़रूरत आन पड़ी ?
बदरू चहकने लगे।
-मुंशीजी, एक बार मौक़ा तो लगने दीजिए। उस्तादों को भी हम इसी पैंसिल से नम्बर देंगे। ऐसे कि एक-एक का चेहरा लटक जाए। जैसे वह लडकों को सताते हैं, वैसे ही हम भी उन्हें सताएँगे।
महक ने बेटे को डाँट दिया।
-उस्तादों के बारे में यूँ कहा जाता होगा ! कान पकड़कर नसीहत निकालिए, नहीं तो इल्म आपसे दूर रह जाएगा।
मासूमा खीझकर बोली-अम्मी, बदरू बेकार की बघारा करते हैं।
अम्मी के माथे पर तेवर चढ़े देखे तो बदरू को अचानक कुछ सूझ गया :

    ग़र मुझसे ख़फा हैं तो
उसे दीजिए निकाल
आप कौन रखनेवाले हैं
दिल में मलाल को।

    महक बानो मुंशीजी की ओर देखकर मुस्कुराई-जाने अपने स्कूल के कमाल-जमाल से क्या-क्या सीखते रहते हैं।
-अम्मीस हम तो उन जुड़वाँ भाइयों के पास तक नहीं फटकते। उनके तो मोंछ आ चुकी है।…मुंशीजी, दोनों भाई पिछले तीन साल से आठवें दर्जे में चिपके हुए हैं। स्कूल-भर उनसे डरता है।
कहवा पी मुंशीजी नीचे उतरे तो सोचा, ऊपरवाले के रंग हैं। कहाँ हवेलीवाली ऐसी गुस्साई रहती हैं और कहाँ यह सिदक का ऐसा पानी पिए हैं कि जो देखे सलीक़े पर क़ुर्बान हो-हो जाए।
उधर वकील साहिब हवेली पहुँचे तो छूटते ही पूछा-मुंशीजी, लिहाफ़ तो पहुँच गए न ! चिल्ला शुरू हो गया लगता है। आज तो कड़ाके की सरदी है।
वकील साहिब ने पलंग पर रज़ाइयाँ पड़ी देखीं तो उलट-पलटकर हाथ से छुआ और कुर्सी पर बैठते हुए कहा नियाज़ के यहाँ काम बढ़िया होता है। ज़रा निगन्दा तो देखिए ! कितना महीन है !
बीवी की ओर से जवाब न आया। रुखाई से कहा-चाय के लिए आवाज़ दीजिए। हमें घंटे-भर में बाहर जाना है। खाने का इन्तज़ार न कीजिएगा।

महाराज चाय की ट्रे मेज़ पर रख गए तो कुटुम्ब प्यारी ने चाय का प्याला बनाया, चीनी हिलाई और वकील साहिब की ओर सरका दिया।
आमने-सामने बैठे मेज़ पर कोई शोर न उभरा तो कृपानारायण बड़े रुआब से बोले-क्यों खैरियत तो है ? इस जाड़े में कोई ढंग का कपड़ा पहना होता। आपकी साड़ी देखकर तो दहलीज़ पर बुढापा खड़ा नजर आता है।
कुटुम्ब प्यारी तुनक गईं।
-क्या हरदम गोटे-किनारी के कपड़े पहनें रहें ? हमें घर-गृहस्थी के दस काम हैं। आप हैं कि वकालत के अलावा बस एक ही काम सूझा करता है।

कृपानारायण साहिब ने ख़ाली प्याला मेज़ पर रखते हुए बड़ी नरमी से कहा-महरी है, महाराज है, बर्तन भाड़े का लड़का है। कपड़ों के लिए धोबन है, घर चलाने में अब कौन सा काम बाकी है जो हमें आपकी मदद के लिए करना चाहिए।
इस अदालती ठस्से से कुटुम्ब प्यारी ख़फ़ा हो गईं-आप क्या करेंगे !
नौकर तो हमीं हुए। हजार दिन-रात हल्कान होते रहें पर हमें तो शिकायतों से ही नवाज़ा जाएगा।
वकील साहिब की ओर से न हाँ और न ना। कुछ देर आँखें मूँदे बैठे रहे, फिर उठे। हाथ-मुँह धो कपड़े ताज़ा किए। इत्र का फोहा लगाया और बिना कुछ कहे कमरे से बाहर हो गए।

कुटुम्ब के दिल में हड़कम्प-सा मचा और आँखों के रास्ते बहकर थिर हो गया। कपडों की अलमारी खोली और चुनने लगीं। वकील साहिबा ने ‘शाहजानपुरी’ से रोटी-गोश्त रखवाया, गजरैले का मटकैन बधँवाया और जाड़े की भरपूर गीली शाम में अपनी मंज़िल की ओर बढ़ चले।
बग्घी में बैठे-बैठे कभी बाजार को देखते, कभी पलटकर अपने दिल को। एक-दूसरे से सटी दूकानें क्या रोशनी टपका रही हैं ! भरी हुई। मालामाल। यह क्या ? खिलौनों की दूकान पर गुड़िया और गुड्डे लटक रहे हैं ! डोर बँधी है। रात को उठाकर अन्दर रख दिए जाएँगे। अगले दिन फिर इसी जगह। लेकिन यह सड़कों और पटरियों पर फैला हुजूम कहाँ जा रहा है ? अपने घरों की ही तो ! और हम ? कभी कुटुम्ब के किनारे और कभी महक के। क्या समझाएँ ! जिस्म को राहत चाहिए होती है। पर दिलो-दिमाग़ भी कुछ माँगते हैं। सारा खेल खाने-पीने-सोने और घर चलने का ही तो नहीं। अगर है ही तो उसकी अदायगी भी क्या हमीं को करनी होगी ! क्या सिलसिला है ! कुछ पाबन्दियाँ अपने साँचे में ढाल देती हैं और कुछ बिना साँचे के भी चल निकलती हैं। इतनी-सी बात हमारी बीवी की समझ में नहीं आती। चिड़िया बनी आईने में अक्स को कोंचे चली जाती हैं।

महक के ज़ीने तक पहुँचते-न-पहुँचते वकील साहिब ने कुटुम्ब को गृहस्थी के ख़ानदानी तख़त पर बिठा दिया और हल्के दिल सधी चाल में सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर जा पहुंचे।
छींट के जोड़े पर गोट लगी उनाबी ओढ़नी में महक बानो किंगरी-सी खिल रही थी।
-तशरीफ़ रखिए।
वकील साहिब ने बूँदों से गीली हुई शेरवानी उतारकर खूँटी पर टाँग दी। महक ने बाँह बढ़ा गरम चद्दर पकड़ा दी।
-जानम, पहले मटकैने में से पुए निकालिए। आज शीरा कुछ ज्यादा ही डला लगता है।
महक कमरे में कोयले की अँगीठी उठा लाई। रूमाली रोटी सेंक तश्तरी में डाली और मटकैने खोल आगे सरकाए-लीजिए।

वकील साहिब ने बुरकी बना महक की ओर बढ़ाई-जानम, चख़कर देखिए सभी पकवानों का मज़ा एक साथ।
महक ने गस्से का ज़ायका उठाया और मुस्कुराकर सिर हिलाया-मान गए साहिब !
अँगीठी के आमने-सामने बैठे वकील साहिब और महक। दोनों में से किसी को भी न कुछ अटपटा लगा, न नया ही। जाड़े की इस बारिश में दोनों जैसे हमेशा से इसी जगह बैठते आअ हों।
-बच्चे आज जल्दी सो गए ?
-देर तक नए लिहाफ़ों की ख़ुशी करते रहे। उनका बस चलता तो रात-भर न सोते, पर साहिब, नींद को तो आना ही था।
महक को बर्तन उठाते-समेटते देख कृपानारायण कुछ ऐसे मगन से हुए रहे कि बीते बरसों को इस एक शाम में जीते हों।
महक छिपे-छिपे वकील साहिब की ख़ामोशी पढ़ती रही। इस सम ताल के पार जाने क्या देखा जा रहा है ! कौन सी तान उठ खड़ी हो ! झूले या झकोले की !

महक के उभारों से लगी स्वेटर पर नज़र पड़ी तो कहा-आपके लिए शाल लाना चाहते रहे। घंटाघर पर हाकमतानी की दूकान पर रुके भी, पर तेज़ बारिश की वजह से इरादा बदल दिया। कल भिजवा देंगे।
महक बानो ने वकील साहिब की आवाज़ में जाने क्या पा लिया कि मगन होकर कहा-दुनिया में दो ही नेमते हैं साहिब, बेटा और बीवी। आपने हमें दोनों दिए।
सुनकर वकील साहिब का दिल भर आया।
-हमसे पूछो जानम, तो हम तुम्हारे लायक़ ख़ास कुछ भी नहीं कर सके।
महक बानो ने आज दुपहर ही सोचा था कि बच्चों के लिए वकील साहिब से कुछ कहेगी, पर यह सुनते ही रुख पलट लिया।

-नए लिहाफ़ों में ज़रा बच्चों को देखिए तो सही ! रंगों की दमक से घर खिल पड़ता है।
वकील साहिब से बेहतर भला और कौन जानता था कि बानो अपनी ही दिलजोइ कर रही है। कई पल बच्चों के कमरे में ठिठके रहे। खिड़की के काँच पर पड़ती बौछार ने उन्हें जाने ऐसा क्या सुझा दिया कि बाँह से घेर बानो को अपने साथ लगा लिया। बारी-बारी बच्चों को चूमा और महक को उसके कमरे की ओर लिवा लाए।

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