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‘चौपड़ की चुड़ैलें’की कहानियां पंकज कौरव की समीक्षा

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पंकज सुबीर के कहानी संग्रह ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ की कहानियों की पंकज कौरव ने बड़ी अच्छी समीक्षा की है. कई जरूरी मुद्दे उठाये हैं- मॉडरेटर

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वैचारिकी रचनाओं की नींव भर होती है. बड़े-बड़े बेमेल पत्थर भी नींव में ऐसे समा जाते हैं कि उनमें एकरूपता का अभाव पता ही नहीं चलता. नींव की यही वैचारिकी बड़ी से बड़ी इमारत को साध कर भी रखती है. हालांकि नींव की मजबूती अपनी जगह है और इमारत की ख़ूबसूरती अपनी जगह. पंकज सुबीर को पढ़ते हुए सबसे सुखद बात यही है कि उनके रचना संसार में नींव अपनी जगह है इमारत अपनी जगह.

वे अपनी किस्सागोई को हिन्दी कथाजगत के उस वीराने से निकालने में कामयाब नज़र आते हैं जहां नींव के पत्थर देखते ही देखते नींव से उपर उठकर दीवारों तक फैल जाते हैं और कंगूरे से लेकर मीनारों तक में उनकी छाप साफ नज़र आने लग जाती है. जैसे कोई रचना महज एक रचना न होकर एक प्राचीर हो और किसी भाषा का समग्र रचना संसार वैचारिकता का कोई अभेद किला. कहने में बात बुरी भी लग सकती है लेकिन है ऐसा ही कि कुछ पुराने प्राचीन किले हैं, जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व है लेकिन उनके बरक्स कुछ नए किले भी बनते जा रहे हैं, जिनका फिलहाल कोई इतिहास नहीं लेकिन हां इनमें भी नींव के पत्थरों का वैचारिक गठजोड़ विस्तारित होकर पूरी इमारत को अपने कब्जे में ले लेता है. मानो ख़ूबसूरत होना ही बाजारू हो जाना है. लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? हर ख़ूबसूरत दिखने वाली चीज़ नीलाम होने खड़ी हो ये ज़रूरी तो नहीं.

हालांकि बचने की लाख कोशिशों के बावजूद बाज़ार अपनी तरह से घुसपैठ करता है और घुसपैठ के वे मौके हिन्दी की अपनी विषमताओं की वजह से ही पैदा होते रहे हैं. इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ को ही ले लीजिए, संभव है यह संग्रह की शीर्षक कहानी शायद इसी बिनाह पर बन पायी हो कि ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान’ प्राप्त कहानी है. अपने कथ्य, शिल्प और किस्सागोई के निराले अंदाज़ की वजह से संग्रह की बाकी कहानियों के मुकाबले ज्यादा चर्चित भी रही है. लेकिन इस सबके बावजूद संग्रह में कुछ दूसरी कहानियां अपने प्रभाव में ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ से काफी आगे निकल जाती हैं. मसलन, ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’

खैर ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’ के अद्वितीय प्रभाव की बात आगे होगी, पहले अनुक्रम वाले क्रम से सिलसिलेवार सारी कहानियों की बात हो जाए. शुरूआत संग्रह की पहली ही कहानी ‘जनाब सलीम लंगड़े और श्रीमति शीला देवी की जवानी’ से. कहानी का शीर्षक देखते ही स्मृति में 1989 की रिलीज़ ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ तैर जाती है. हालांकि सईद अख्तर मिर्ज़ा की राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार प्राप्त उस फिल्म से पंकज सुबीर की कहानी का कोई लेना देना नहीं है, और न ही इस कहानी के लिखे जाने की प्रक्रिया में कैटरीना कैफ़ के शीला की जवानी वाले आइटम डांस का ही कोई प्रभाव रहा होगा लेकिन यथार्थ कहानियों में ऐसे ही घटित होता है जैसे पंकज सुबीर की इस कहानी में घटित हुआ है. कहानी का शीर्षक और पात्रों के नामों के चुनाव को छोड़कर शायद ही कहीं पंकज सुबीर उन दोनों फिल्मी घटनाक्रमों के प्रभाव में नज़र आते हैं. और आगे चलकर यह कहानी धर्म के आधार पर समाज में हो रहे जिस ध्रुवीकरण के यथार्थ पर पुहंचती है वह स्तब्ध कर देने वाला है. वह रत्ती भर भी फिल्मी नहीं है बल्कि फिल्मों के पिछलग्गू हो चले साहित्य के लिए एक नज़ीर है. यह कहानी पढ़कर जाना जा सकता है कि साहित्य में वह माद्दा आखिर कैसे है जिसके ज़रिए वह अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों में सुपरसीड कर आगे बढ़ जाता है.

इस संग्रह की दूसरी कहानी  ‘अप्रेल की एक उदास रात’ डॉ शुचि भार्गव के जीवन का ऐसा सच है जिसमें अपनी उम्र से दो-ढाई गुने बड़े डॉ भार्गव से शादी और अपने बेटे क्षितिज के जन्म से जुड़ी मार्मिक सच्चाई है. जिसका थोड़ा बहुत अंदाज़ा डॉ शुचि की सबसे प्रिय सहेली नंदा को भी है लेकिन वह अपना पूरा सच नंदा की बेटी पल्लवी से बांटती है. वही पल्लवी जो निकट भविष्य में उसके बेटे क्षितिज की पत्नी भी बनने वाली है. एक हतप्रभ कर देने वाले अंत पर खत्म हुई यह कहानी हमारे सामाजिक ढ़ांचे का ऐसा यथार्थ है जिसमें एक कामकाजी महिला के जीवन की स्वतंत्रता बाधित करने वाले सारे आयाम लक्षित होते हैं. प्रेम, फिर उस प्रेम में धोखा और बिना बाप का नाम दिए संतान पैदा करने का सारा जोखिम और त्रास यहां बिना किसी तरह का एकांगी दृष्टिकोण लिए, बखूबी प्रकट हुआ है.

तीसरी कहानी है ‘सुबह अब होती है… अब होती है… अब होती है…’. यह इस संग्रह की अपेक्षाकृत धीमी लेकिन बेहद प्रभावशाली कहानी है. कहानी एक तरह से यह एक सेवानिवृत्त बुजुर्ग की असमान्य मृत्यु की पड़ताल है. इस कहानी में पुलिसकर्मी समीर जब भी शक की बिनाह पर उस बुजुर्ग के घर सबूत जुटाने जाता है तो वहां उसे एक महिला, जो उस बुजुर्ग की पत्नी है और कपड़े में बंधे भगवान की पोटली मिलती है. समीर का संदेह गाढ़ा होता जाता है कि बुजुर्ग की मौत सामान्य नहीं बल्कि उसकी हत्या की गई है. देखने में जासूसी सी लगने वाली यह कहानी दरअसल एक महिला का मार्मिक वृत्तांत है. जिसने अपना सारा जीवन पितृसत्तात्मक ढांचे की काली छांव में गुज़ारा. पंकज सुबीर अपनी इस कहानी में भी किस्सागोई का ऐसा अद्भुत तानाबाना रचते हैं कि उस बुजुर्ग की मौत के बाद पोटली में कैद भगवान देखते ही देखते उस स्त्री की स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाते हैं. यही एक किस्सागो के तौर पर पंकज सुबीर की सबसे बड़ी कामयाबी है. उनके अबाध रोचकता वाले किस्सों में रूपक भी ऐसे गुप-चुप आते हैं कि वे कहानी के प्रवाह में किसी तरह का कोई खलल नहीं डालते.

अब बात संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ की. एक खंडहर वीरान हवेली की बावली के लिए कहानी में चौपड़ा शब्द प्रयुक्त हुआ है. उसका वर्णन निर्जन जगहों का ऐसा सजीव वर्णन प्रस्तुत करता है कि पढ़ते हुए सिरहन महसूस होती है. लगता है चौपड़े की नागझिरी से न जाने कब नाग निकल पड़ेंगे और अपने फंदे में जकड़ लेंगे. गांव के कुछ किशोर अक्सर दोपहर के वक्त उस चौपड़े में जाकर मटरगश्ती करते हैं, शापित चौपड़े के पानी में मज़े लेकर नहाते हैं. उन्हें नागझिरी से निकलकर डसने वाले नागों के किस्सों का कोई डर नहीं, जबकि हवेली की दो किशोरियों के चौपड़े में अंतिम स्नान की डरावनी कहानी पूरे गांव में बच्चा बच्चा जानता है. यही किशोरावस्था पर कर रही उम्र का वह रोमांच है जो इस कहानी को यथार्थ के बेहद निकट ले आता है. पंकज सुबीर की जादुई किस्सागोई इस कहानी में अपने चरम पर दिखाई देती है लेकिन इसीबीच एक चूक हो जाती है. कहानी जहां पूरी हो जानी चाहिए वहां से कुछ आगे निकल जाती है. कहानी का वह अतिरिक्त विस्तार ही इस कहानी का सबसे बड़ा झोल है. दरअसल किशोरों के संदर्भ में सेक्स को लेकर जिज्ञासा आज भी फॉर्बिडन फ्रूट है, एक वर्जित फल. इसलिए जहां हवेली का सच उजागर होता है, और वे किशोर अपने पहले वाली पीढ़ी को हवेली में वही वर्जित फल चखते हुए देखते हैं दरअसल यह कहानी वहीं पूरी हो जाती है. पितृसत्ता हो या राज सत्ता या फिर कोई और दूसरी सत्ताएं जिनका बहुत प्रभावशाली वर्चस्व समाज पर रहा उन सबने कई मिथ गढ़े हैं, उस मिथ का टूटना ही इस कहानी का लक्ष्य रहना चाहिए था जो कि कहानी के उत्तरार्ध के बिना पूरा भी हो जाता है. फिर यह अतिरिक्त विस्तार क्यों? खैर इसका बेहतर जवाब पंकज सुबीर ही दे सकते हैं.

अब बात इस संग्रह की सबसे अप्रतिम कहानी की, ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’.  धर्म के नाम पर स्लो-पाइजन जैसे ध्रुवीकरण की पड़ताल करने वाली समकालीन कहानियों में यह निश्चय ही एक बेहद महत्वपूर्ण कहानी है. भोपाल के क़ाज़ी कैंप मोहल्ले में ज़हीर हसन के घर की ओर जा रहा राहुल इस छोटी सी यात्रा में न जाने कितनी लंबी यात्राएं तय कर जाता है. इसमें उसका बचपन है, ज़हीर हसन जिन्हें वह भासा कहता है, उनके साथ, उनके परिवार के साथ बेहद आत्मीय स्मृतियों का सिलसिला देखते ही देखते किस्से में कई दूसरे किस्सों की परत खोलता जाता है. रूपक के तौर पर उनका सर्प-प्रेम इस कहानी में भी नज़र आया है, जिसका रोमांच आप उनकी यह कहानी पढ़ते हुए ही पूरी तरह महसूस कर पाएंगे. यहां सिर्फ यह बताना जरूरी है कि भासा और उनकी बेगम राहुल को बचपन से हर महीने एक तय दिन न्योता देकर भोजन करवाते आए हैं. यह सिलसिला भासा के रिटायर होने के बाद भोपाल में बसने पर ही टूटा. उसी भोज का कारण जानने की जिज्ञासा लेकर चली राहुल की यह कहानी इतने रोमांचक मोड़ लेगी इसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं. साथ ही अंत में भासा की वह हृदयविदारक स्वीकारोक्ति- ‘इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूं…’. मजहब को लेकर और भी गहराती जा रही नफ़रत की खाई के बीच ऐसी कहानियां सचमुच बेहतर समाज की उम्मीद के लिए एक बड़ी आश्वस्ति हैं.

संग्रह की बाकी चार और कहानियों में पंकज सुबीर अपनी उसी जादुई किस्सागोई के ज़रिए समाज के सबसे संवेदनशील और जीवन के सर्वाधिक तनाव भरे मुद्दों को बेहद सहज ढंग से पाठकों तक पहुंचा देते हैं जिन्हें उठाना भी कभी कभी अकल्पनीय लग सकता है. मौका पड़ने पर उनकी यह किस्सागोई बहुत मामूली बातों को गैर-मामूली भी बना सकती है. मसलन संग्रह में अगली कहानी ‘रेपिश्क़’. जैसा कि कहानी का शीर्षक ही इशारा कर रहा है कि अगर किसी महिला को उसपर रेप अटैम्प्ट करने वाले से ही इश्क हो जाए तो?

‘धकीकभोमेग’ में भी वे धर्म के नाम पर ठगकर चढावे से करोड़पति बन बैठे एक बाबा की ऐसी बैंड बजाते हैं जो दरअसल बड़ी आसानी से गली-चौपाल में बैठकर गपबाज़ी का हिस्सा हो सकता है, लेकिन ‘धकीकभोगेग’ का एक झेपक जोड़कर उन्होंने इस किस्से को जो विस्तार दिया है वह उन्हीं के बस में था. ‘औरतों की दुनिया’ और ‘चाबी’  इन सभी कहानियों में भी उनकी कहन ही उन्हें अकल्पनीय विस्तार दे जाती है. उनकी कहन अगर हटा दी जाए तो वे कथ्य और विषयवस्तु में संभवत: बहुत हद तक सीमाओं में बंधी हुई कहानियां हैं.

अगर कहानी में आप अबाध और रोचक किस्सागोई के शौकीन हैं तो आप निश्चय ही पंकज सुबीर की ये सभी कहानियों से खुशी-खुशी होकर गुज़र सकते हैं. यहां कहानियां समझने में आपको बिल्कुल भी लोड नहीं लेना पड़ेगा. हां कहानी समझ आने पर दिल कितना लोड ले बैठे इसकी ज़रा भी गारेंटी नहीं है…

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