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बदलते हिंदुस्तान के ज़मीनी यथार्थ का चेहरा: कर्फ़्यू की रात

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आज पढ़िए युवा लेखक शहादत के कहानी संग्रह ‘कर्फ़्यू की रात’ की समीक्षा। लिखा है वैभव शर्मा ने। संग्रह का प्रकाशन लोकभारती प्रकाशन से हुआ है- मॉडरेटर

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युवा लेखक शहादत की कहानियों पर दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और वरिष्ठ हिंदी लेखिका प्रज्ञा रोहिणी का कहना है कि शहादत की कहानियां  हिंदुस्तान के ज़मीनी यथार्थ का वो चेहरा पेश करती हैं, जो निरंतर बदल रहा है। उनके इस कथन को सुनकर मुझे हैरानी के साथ-साथ बेयकीनी का अहसास भी हुआ। मगर यह अहसास शायद इसलिए था कि क्योंकि उस वक्त तक न तो मैं शहादत से मिला था और न ही मैंने उनकी कहानियां पढ़ी थीं।

     ख़ैर, शहादत से तो मैं अभी तक भी नहीं मिल पाया, लेकिन उनके नए कहानी संग्रह कर्फ़्यू की रात में शामिल कहानियों को पढ़ते हुए मुझे बार-बार प्रज्ञा रोहिणी की कही हुई बात याद आती रही है। इस संग्रह से गुज़रते हुए यक़ीनन पाठक को इस देश के निरंतर बदलते यथार्थ का चेहरा तो दिखाई देता है, साथ ही इस चेहरे के उस हिस्सा की विद्रूप और मार्मिक छवि भी हमारे सामने उभरकर आती है, जिसकी कहानियां लेखक ने अपने इंस संग्रह में संग्रहित की हैं।

     इस देश ने आज़ाद का स्वाद चखने के साथ-साथ विभाजन का जो दंश सहा है, उसे आज भी इस देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह अपने जिस्म पर महसूस कर रहा है। आज भी उसे इस देश में हर पल, हर लम्हा इस बात का अहसास कराया जाता है कि सदियों से यहां पर रहने और बसने के बावजूद, यह ज़मीन उसकी नहीं है। उससे बार-बार कहा जाता है कि वह अपनों में रहने के बावजूद पराया है। यह अजीब बात है। अपने ही देश में पराया कहा जाना, या परायेपन का अहसास कराया जाना, कितना दुखदायी होता है, इस तथ्य को संग्रह की कहानी किक्रेट और हम हिंदुस्तानी को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। शहादत की इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे न जाने क्यों बार-बार चेखव की कहानी एक क्लर्क की मौतभी याद आ रही। प्रभुत्ववादी, वे लोग जिनके हाथों में सत्ता है और जो अपने अधिकारों का नाजायज़ इस्तेमाल करने से ज़रा भी नहीं हिचकते, उनकी नज़रों में अपने मातहतों की क्या हैसियत होती है, वह भी यह कहानी बड़ी साफगोई से कह जाती है।

     शहादत युवा हैं, मुस्लिम समाज से आते हैं, इसलिए जिस साफ़गोई और स्पष्टता के  साथ वह अपनी बातों और अपने समाज की परेशानियों और रुढ़िवादिता को इन कहानियों में कह पाए है, वह यक़ीनन काबिल-ए-तारीफ़ है। मगर शायद इस युवापन के कारण ही उनकी लेखनी में एक प्रकार की अनावश्ययक बयानबाजी भी दिखाई देती है, जिसेसे बचा जा सकता था। फिर भी इन कहानियों में उस क़िस्म की निरंतर है कि अगर पाठक संग्रह की किसी भी कहानी को पढ़ना शुरू करे तो वह उसे ख़त्म किए बिना नहीं रह पाता।

     इन कहानियों की यह निरंतरता और इनकी भाषा वाकई कमाल की है। कई कहानियों के अंत तो पाठकों को न केवल चौंकाते हैं, बल्कि अंदर तक झकझोर कर रख देते हैं। इन कहानियों में  प्रेमिका,बांझपन,आख़िरी स्टेशनऔर बेदीन प्रमुख रूप से शामिल है। इन कहानियों से गुज़रते हुए पाठक को कईं बार उर्दू के अज़ीम अफ़ासाना-निगार मंटो की याद हो आती है। जिस तरह मंटो की कई कहानियां अपने पाठकों को चौंकाने के साथ-साथ उन्हें सोचने पर भी विवश कर देती है, उसी तरह शहादत की कहानियों भी अपने पाठकों को वह सोचने पर विवश कर देती है, जिन्हें वह सोचने के बाद भी उसे सोचना नहीं चाहता।

     वह सोचना नहीं चाहता कि इस देश में मुसलमानों की वास्तविकत स्थिति क्या है, वे किस दरिद्र हालत में जीवन जी रहे हैं, उनकी क्या परेशानियों हैं और वे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में किस तरह की मुश्किलों से दो-चार हो रहे हैं। ये बातें शायद ही हममें से कोई सोचना चाहता हो। जबकि ये सब हर रोज़ हमारी आंखों के सामने ही घटित हो रहा होता है। हर दंगा मुसलमानों के लिए किस तरह की तबाही लेकर आता है, पहले से ही मुश्किल में फंस इस समुदाय की ज़िंदगियों को और कितना मुश्किल बना देता है, इस बात पर कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है। फिर भी हममें से शायद ही कोई हो, जो इस बारे में सोचता हो। संग्रह की कम से कम पांच कहानियां इमरान भाई,कर्फ़्यू की रात,तलाश,आख़िरी स्टेशनऔर पहला मतदानदंगों में होने वाली मुस्लिम समाज की इसी दुर्दशा को बयान करती हैं। इन कहानियों में भी समाज के उस तबके की व्यथा को केंद्र में रखा गया हो, जो रोज़ कमाकर खाने वाला है, और जिसके लिए एक छोटा-सा हादसा भी ज़िंदगी के ख़त्म होने की निशानी बन जाता है।

     आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके बाद भी कहानियों के नायक उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते। तमाम मुश्किलों और परेशानियों के बाद भी वे कुल्हू में जुते बैल की तरह ज़िंदगी के पहिये को रवां-दवां रखते हैं। सभी ना-इंसाफियों और जुल्मों-सितम के बाद भी उनका यकीन इस देश और इसकी व्यवस्था पर बना रहता है। भले ही वे इसकी कितनी ही कटु आलोचना क्यों न करे। इस बारे में उनके मन में कितने ही वहम और वसवसे क्यों न हो। लोकतंत्र प्रणाली की तमाम खामियों के बाद भी वह लोकतंत्र को बुरा कहने के बजाय लोकतंत्र लागू करने वाली व्यवस्था और उस व्यवस्था को चलाने वाले नेताओं को ही कटघरे में खड़ा करते हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी कर्फ़्यू की रात में जब लोग मस्जिद के पीछे वाली गली में बैठे बात कर रहे होते हैं तो उनकी बातों में वर्तमान स्थिति के साथ-साथ चुनाव और लोकतंत्र जैसे मुद्दे भी आते हैं। कहानी का एक पात्र कहता है,

     चुनावों से चाहे किसी को कितना ही फायदा क्यों न हुआ हो, हमें तो इनसे कभी कुछ हासिल नहीं हुआ, सिवाय तबाही और बर्बादी के?’

     दूसरा पात्र इसका जवाब देते हुए कहा, तुम सही कहते हो, भारत में लोकतंत्र का उत्सव तो आया, मगर वह मुसलमानों के लिए मौत का पैगाम लाया।   

     यह वाक्य वर्तमान हिंदुस्तान में खोखली हो चुकी चुनाव-व्यवस्था के कथित लोकतंत्रवादी रवैय्यो को उसकी पूरी क्रूरता के साथ सामने ले आता है।

     इसके अलावा, संग्रह में मुस्लिम समाज की रुढ़िवादिता, महिलाओं की स्थिति और उनकी आज़ादी पाने की ललक पर भी कहानियां हैं। महिलाओं के अधिकारों पर संग्रह की सबसे पहली कहानी आज़ादी के लिए है। यह हिंदी साहित्य जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका वनमाली के युवा लेखन विशेषांक में भी शामिल रही है। इस कहानी को लेखक ने वाचक परंपरा के तहत लिखा है। कहानी में शामिल होने के बाद भी लेखक उस कहानी का पात्र नहीं बनता। वह इनसाइडर की तरह कहानी कहता है। कहानी की प्रमुख पात्र से वाचक की पहचान उसकी अम्मी द्वारा होती है, जो किसी समय में, शायद उनके बचपन में उनकी सहेली रही थी। अब वह उनके बेटे से मिलकर उसे अपनी कहानी सुनाना चाहती है। वह कहानी, जिसमें आज़ाद रहने और अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जीवन बिताने की इतनी तड़प है कि वह अपना घर-बार, दौलत-शोहरत और यहां तक कि अपना मज़हब तक छोड़ देती है। वाचक जब उससे इस सबका कारण पूछता है तो वह संक्षिप्त-सा जवाब देते हुए कहती है- आज़ादी के लिए।    

     हिंदी साहित्य में मुस्लिम समाज की कहानियों और उसके लेखकों की हमेशा से कमी रही है। मगर अब हमारे समय की नई पीढ़ी बड़ी तेज़ी से इस कमी को पूरा करने की कोशिश कर रही है। हिंदी के वरिष्ठ लेखक प्रियवंद ने भी एक इंटरव्यू में इस तथ्य का प्रमुख रूप से न केवल उल्लेख किया है, बल्कि इस पर खुशी भी ज़ाहिर की है। हिंदी साहित्य की इस नई पीढ़ी में शहादत का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। हर नई रचना के साथ उनकी कहानियों में प्रौढ़ता और सुगठिता भी आ रही है। हिंदी साहित्य और उसके पाठकों को इस नौजवान लेखक से अब बहुत उम्मीद हो गई हैं।

 

संग्रह का नाम- कर्फ़्यू की रात

लेखक- शहादत

प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज; 2024

मूल्यू- 250  

       


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