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ललन चतुर्वेदी की कविताएँ

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ललन चतुर्वेदी की यह कविताएँ स्त्रियों के संघर्ष के विभिन्न पहलुओं की ओर ध्यान ले जाती हैं। आइए, उनकी यह कविताएँ पढ़ते हैं- अनुरंजनी

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रोशनी ढोती औरतें *

उसने हजारों बार देखा है
बहारों को फूल बरसाते हुए
पर उसकी जिंदगी में कभी बहार नहीं आई
उसने हजारों बार पाँवों को थिरकते देखा है
जब किसी का पिया घर आया
पर उसके पाँव कभी थिरक नहीं पाए
उसने हजारों बार सुनी है
शहनाई की मादक-मधुर धुन
पर उसके लिए कभी बजी नहीं शहनाई
यहाँ तक कि उसके जन्म पर
किसी ने थाली नहीं बजाई
इस दुनिया में उसके आने का
कोई अर्थ नहीं था
दुनिया से उसके कूच कर जाने की
कहीं कोई चर्चा नहीं होगी
जब तक चलने भर की ताकत
बची रहेगी उसके पाँवों में
वह चलती रहेगी नंगे पाँव
अपने सिर पर रोशनियों का बोझ उठाए
और अपने अंतस में अंधकार छुपाए।

* बारात में बैंड बाजे के साथ सिर पर ट्यूबलाइट लेकर चलने वाली औरतों को देखकर.

2. रेशमा की माँ कहीं खो गई है

दरवाजे से जनवासा तक
दौड़ रहे हैं काले-सफेद घोड़े
दूल्हे राजा शाही रथ पर सवार हैं
गर्व से फ़ूलता जा रहा है
समधी साहब का सीना
रँगी हुई मूँछों पर
बार-बार दे रहे हैं ताव
अगल-बगल खड़े हैं
राइफलधारी अंगरक्षक
गोलियाँ दाग रहे हैं दनादन
शामियाना छलनी हो चुका है
टेंट वाले ने डर से
मुँह पर लगा लिया है ताला
आर्केस्ट्रा की कमसिन लड़कियाँ
(जिनमें कुछ माँ भी बन चुकी है)
नाचते-नाचते पसीने से हो रही है लथपथ
सब सुनना चाह रहे हैं रेशमा को
जिसकी दूधमुँही बच्ची
पिछवाड़े की टेंट में
चिल्ला रही है दूध की खातिर
इधर रेशमा थिरक रही है
(वास्तव में सिसक रही है)
मुन्नी बदनाम हुई की धुन  पर
ठाकुर साहब ने पेश किया है
हजार रुपए का नजराना
मानो चुका दिया हो मेहनताना
एकाएक हो जाती है वह मंच से गायब
होने लगा है भारी शोरगुल

मानो थिएटर की बत्ती हो गई हो गुल
दूधमुँही बच्ची को स्तनपान कराने के बाद
रेशमा फिर हाजिर हो गई है स्टेज पर
एक छोटे से ब्रेक के बाद
महफिल फिर से हो गई है गुलजार
लोग देख रहे हैं रेशमा में
चिकनी चमेली का नया अवतार
उधर टेंट में बच्ची सो गई है
महफिल में  रेशमा की माँ कहीं खो गई है।
       ****

3. मैं टंगी रहूँगी कैलेंडर की तरह !

खरीद कर तो नहीं लायी गई थी
पर टांगा गया मुझे कैलेंडर की तरह
हर तारीख को घेरा गया
कभी लाल,कभी काली स्याही से
पर कहीं कोई हरी स्याही नहीं थी
हाँ,ये जरूर है कि
मेरे चेहरे की इबारत कभी नहीं पढ़ी गई
मैं रोज के हिसाब-किताब की चीज हो गई
और सब कुछ का लेखा-जोखा
अर्थात पूरे घर की खाता-बही
मुझे मूक होकर समझना था
कुछ कही, कुछ अनकही
बावजूद इसके पूरी तत्परता से प्रस्तुत होना-
यह नारी-धर्म था
इतना कुछ जानने-समझने के बाद
सुनती रही जीवन भर-
औरत की बुद्धि घुटने में होती है
हाँ,सच ही तो कहा तुमने-
मैंने तो घुटने टेक दिये हैं
नहीं तो अपने घुटने में असह्य दर्द के रहते हुए भी
मैं तेरे पाँव दबा रही हूँ
तुम्हारे घुटने दुरुस्त रहने जरूरी हैं
तुम्हारे लिए तो रास्ते हैं, मंज़िलें हैं
मुझे कोई शौक नहीं है
तुमसे कदम से कदम मिला कर चलने का
मेरे लिए दीवार है
मैं सालों भर इसी पर टंगी रहूँगी कैलेण्डर की तरह!
          ****


4. पिछली रोटी

खुले आँगन में रोटी बेल रही है स्त्री
सर पर जेठ का धधकता सूरज है
पाँव के नीचे धरती तप रही है
तवे से उतारती हुई चालीसवीं रोटी
एड़ी-चोटी का पसीना एक हो चुका है
बेर के कंटीले जलावन को चूल्हा में झोंकती हुई
उसकी अंगुलियाँ हो ग‌ई हैं लहूलुहान
सिलवट पर मसाले पीसती हुई
ढर- ढर गिर रहे हैं उसके लोर
उधर से सास मचा रही है शोर-
खाना बनाने में क्यों कर रही हो अबेर
पति म‌उगा की तरह खड़ा है
सब कुछ देख रहा है दाँते निपोर
खाट पर बैठकर ठाठ से बाप- बेटे
खा रहे हैं गरम – गरम रोटी
खा- पीकर निश्चिंत हो चुका है पूरा परिवार
कुछ लोग ले रहे हैं दोपहर की नींद
कराही में खत्म हो चुकी है तरकारी
बचा है थोड़ा-बहुत रस
कठरा में  बची है आखिरी रोटी
स्त्री कठरे को उघार कर देखती है एक  बार
उसे आ रही है माँ की बात याद
– नहीं खानी चाहिए पिछली रोटी
वह एक साँस में पी चुकी है
एक लोटा पानी गटागट
सोच रही है थोड़ा पैर सीधा कर लूँ

इस बीच,उधर से आ रही है सास की कर्कश आवाज-
बेरा डुबने वाला है कनिया  !
चौखट से टिककर खड़ी स्त्री
एक नज़र देखती है डूबते हुए सूरज को
एक बार फिर अंचरा से पोंछ कर लोर
वह च‌उका लगाने में जुट जाती  है
सोचती है किस जनम में खायी होगी वह
पिछली रोटी!
   ****

5. नशा
इतना भी बुरा नहीं है
जितना लोग सोचते हैं
जिसे मौजूदा दौर ने बदनाम कर रखा है
हो सकता है कल समय उसे सर-आँखों पर बिठाए
चौराहे पर नित सायंकाल में सिगरेट पीती हुई
उस दुबली-पतली सुंदर लड़की को देखकर
मुझे मंटो का कथन याद आया-
सिगरेट पीने से छाती खराब होती है चरित्र नहीं
मैं उस लड़की के मुक्त व्यक्तित्व पर मुग्ध हूँ
और उस चुनाव अधिकारी का पान खाने का शौक तो देखिए
जो पान के बिना लगभग पगला गया है
चुनाव लड़ने वाले नेता की जीत के जुनून से कहीं कम नहीं है
उसके लिए पान का नशा
वह एक सीधे सपाट आदिवासी युवक से पान लाने की चिरौरी कर रहा है
जहाँ मीलों तक नहीं है कोई चाय-पान की दूकान
पान की गिलौरी दबाते ही उसका चेहरा
किसी विजयी प्रत्याशी की तरह  खिल उठा है
अब  कवि का नशा देखिए
वह गुमसुम बैठा रहता है कविता की प्रतीक्षा में
एक कविता लिखकर
वह उतना ही प्रफुल्लित  हो उठता है
जितना एक बच्चे को जन्म देकर  माँ
मेरे प्यारे दोस्त!
यदि नशा ज़िन्दगी का  नहीं  हो तो मौत बेहतर है।
         ****


6. स्त्री कहाँ कह पाती है मन की बात

पुरुषों ने अब तक कहाँ खोला है
अपने मन का दरवाजा
स्त्री कैसे दस्तक दे उनकी देहरी के द्वार पर
सौ- सौ नजरों के पहरे में जीती है स्त्री
पुरुषों की आँखें  सीसीटीवी हैं
स्त्री के लिए लगभग हर पुरुष है जेठ
देखा है स्त्रियों को उनसे संवाद करने से बचते हुए
वक्त-ज़रूरत में स्त्री की आँखें स्त्री को ही ढूँढ़ती हैं
पुरुष के सामने यदि स्त्री रख भी दे अपना हृदय खोल
दूसरे ही क्षण वह बजाने लगेगा ढोल
अक्सर बेटियाँ भी अपने पिताओं से
मुक्त हृदय से कहाँ कर पाती है संवाद
इतना ही नहीं पति के सामने भी
वह पूरी तरह नहीं रख पाती अपने मन की बात
पुरुष कब  सह पाया अपने पौरुष पर आघात
स्त्री का जो अनकहा है
कोई कब उसे वाणी देने में सफल रहा है?
सच है,स्त्रियाँ जीवन के दीप में सनेह डालती है
उनकी चुप्पी हमें बहुत सालती है।
         ****

7. गर्ल्स हॉस्टल

घर में बालकोनी का होना खुशनसीबी है
यह उतना ही जरूरी है जितनी ज़रूरी हैं खिड़कियां
यदि आप अपने को बंद रखने के पक्षपाती नहीं हैं
तो मेरी बात समझ सकते हैं और इस पर सोच सकते हैं गंभीरता से
खिलने के लिए खुलना ज़रूरी है यह मैंने फूलों से सीखा
दरवाजे बंद करना या खोल देना अलग – अलग ढंग की प्रभावी क्रियाएं हैं
जो अंदर और बाहर दोनों तरफ अनिवार्यतः करती हैं प्रतिक्रियाएं
देखना और ताकना दोनों में बुनियादी फर्क है
यह बालकोनी में बैठकर महसूस किया जा सकता है
प्रेम में डूबी हुई सड़कें इतनी सुन्दर लगती हैं
कि इन पर बिछ जाती हैं आंखें
यूं कहूं कि चिपक जाती हैं कोलतार की तरह
यह उमर का तकाजा है कि हर मौसम वासंती लगता है
अपनी आंखें पहन कर चलने के लिए किसी को मजबूर करना वैचारिक हिंसा है
फूल किसी भी मौसम में खिले सुंदर ही लगता है
यह कोई मज़ाक का विषय नहीं है
साधना – शिविर लगाने वाले शायद इसे नहीं समझ पायेंगे
जरूरी नहीं कि आंख मूंद कर ध्यान लगाने से विकसित होगी निर्मल दृष्टि
आंख मूंदने से ज्यादा जरूरी है कि खुली रखी जाएं आंखें
गर्ल्स हॉस्टल के पास निवास करते हुए
मैंने सिद्ध होते  देखा एक प्रमेय – सबसे बड़ी तपस्या है प्रेम।
               ****


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