आज पढ़िए पूर्वांशी की कुछ कविताएँ। पूर्वांशी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में प्रथम वर्ष की विद्यार्थी हैं और देखिए कितनी अच्छी कविताएँ लिखती हैं। इससे पहले इनकी कविताएँ ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित भी हो चुकी हैं-
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1
घर
इसे भरना था जब
तो क्यों ख़ाली पड़ गया है यह घर
तुम्हारे क़दम मुड़े थे जब इस ओर
तो चेहरा क्यूँ ताक रहा था दूसरी तरफ़
इस घर की कच्ची दीवारों का क्या,
जिनकी मरम्मत करनी है ठण्ड में हमें
खाट जिसमें अब नींद से ज़्यादा आवाज़ें पसरी हैं।
तुम्हारे नंगे पैरों के निशान जो भर रहे अब।
क्या नहीं देखना है इन स्मृतियों को धूल होने से पहले?
नहीं चखना इस मिट्टी को कीचड़ होने से पहले?
नहीं रहना यहाँ, इस घर के खण्डहर हो जाने से पहले?
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2
बिखराव
बिखरे पड़े हैं
मेरे शरीर के अंग
न जाने कितने कोनों में,
कितनी गहराईयों में।
तुम भी बिखरे पड़े हो इन चार दीवारों के बीच
लेकिन फ़र्क है
तुम्हारे और मेरे बिखरने में।
अंत में तुम्हारी साँसें तुम तक पहुँच जाती हैं
और मैं अपनी साँसों को तलाशते
अपने बिखरे अंगों के बीच भटकती हूँ
यह बिखराव,
जो फ़ैला रहता है तुम्हारी देह के आस पास।
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3
अनुपस्थिति का गीत
तुम हो यहाँ
या थे कभी यहाँ
ये एहसास खत्म हो चुका है
अब पत्ते भी नही हिलते हवा से
सब स्थिर है
कुछ भी नहीं बदला यहाँ
देखो, वैसे ही खड़ी हूँ मैं
बिल्कुल स्थिर
तुम्हारी अनुपस्थिति को निहारती
शायद थोड़ा बहुत कुछ बदला हो
पर तुम्हारे होने से ही बजबजाता है खून
मेरे शरीर में
अब मैं मिट्टी हो रही हूँ खड़े खड़े
यह देह हवा में घुल कर बह जाएगी
इससे पहले यह माँगती है तुम्हारा स्पर्श।
***
4
ख़त
ढूँढ रही हूँ वह घर
जिसमें कदम पड़े हैं शायद कभी
जिसके बिस्तर पर
बिखरी पड़ी रहती थी यह देह,
मेरे शब्द, सिमटे रहते थे एक कोने में
इस घर में अकेला छूटा एक ख़त है तुम्हारा
जिसे कभी पढ़ नहीं सकी मैं
घर में अंधेरा बहुत था
अब पढ़ सकती हूँ उसे
अब प्रकाश है मेरे पास
पर अब तुम नहीं रहते यहाँ
तुम्हारी चिट्ठी के शब्द बिखर गए हैं बिस्तर पर
और सिमटी है मेरी देह, एक कोने में।
***
5
नदी
एक तरफ तेज़ बहती नदी
दूसरी तरफ, शांत सी तुम्हारी आँखों में बहती, एक दूसरी, गहरी नदी
जिसके ठण्डे पानी में पाँव डाल कर बैठी हूँ
पर तुम बिल्कुल शाँत हो,
तुम्हारी आँख कैसे सँभालती हैं
इस तेज़ बहाव को
कैसे देह नहीं काँपती तुम्हारी
बिना सहारे सीधे कैसे खड़े रहते हो तुम?
मेरे पाँव को इस नदी में ही रहने दो
घुलने दो देह के एक एक कण को निस्पृह
इसके बहाव में
कि आख़िर में बच जाएँ बस नाख़ून
जिन्हें चूम कर रख सको अपनी गोद में।
***
6
थकान
ओस की चादर ओढ़ कर
रात भी कोहरे से खेल रही थी,
शायद कोहरे के बीच
दिखी नहीं आँसू की बूँदें
जो रोज छोड़ जाती हूँ
उसके आँचल में,
धूप में खिलखिलाने से पहले।
इस कोहरे को पार नहीं कर पातीं
अब यह बूँदें,
शायद थकान है उस लंबे सफर की
जिसके गंतव्य से वे खुद भी अज्ञात हैं
अब इस थकान को दूर करने को
सिमट गए हैं ये
उस कोने में जहाँ से निकलना मुश्किल है,
रात बुलाते रह जाती है
पर अब उनकी अनंत थकान नहीं ख़त्म होगी।
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7
मुस्कान
पत्ते पर होगा हमारा घर
चाँदनी से रोशन कर जिसे
तुम्हारे लिए,
निकल आऊँगी मैं बाहर
अपनी अंधेरी परछाई के साथ
डाल के किनारे बैठ
उसी रोशनी से छिप कर
काली नदी में
चाँद की परछाई देख
उसे तुम्हारी मुस्कान समझ लूँगी,
और मुस्कुरा उठूँगी मैं भी।
तुम करीब न आना मेरे
तुम्हारी रोशनी में
मुस्कान छिन जाएगी मेरी
दूर खड़े निहार लेना बस
अपनी अनमोल मुस्कान, मेरे चेहरे पर।
***
8
रंग
क्या रंग है तुम्हारा,
किसे सच मान
रंग दूँ अपनी देह।
हवा के साथ बहते हो,
या उल्टे हैं तुम्हारे रस्ते?
क्या तुम्हारे माथे पर हाथ फेरने पर
चाँद में बदल जाओगे तुम?
या अंधेरे को पीते हुए
जलते रहोगे यूँ ही?
क्या रिश्ता है तुम्हारा क्षितिज से?
तुम्हे भी वह दूर दिखाई पड़ता है
या नज़दीक?
मैं इतनी दूर हूँ तुमसे,
कि तुम्हारा रंग पहचान नहीं पाती।
कब तक पहुँचती है तुम्हारी चिट्ठी?
अगली बार रंग लिखना अपना, उन शब्दों में
कि रंग सकूँ मैं
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