ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी लेखक भालचन्द्र नेमाड़े के चांगदेव चतुष्ट्य (बिढार, हूल, जरीला, झूल) में से एक उपन्यास ‘झूल’ का एक अंश पढ़िए। उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है-
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पुराणिक कॉलेज का सबसे बड़ा संकट यानी माठूराम-मुरलीमोहन-ठोसर द्वारा ली जानेवाली स्टाफ़ मीटिंगें अब नियमित शुरू हो गई थीं। माठूराम हर मीटिंग में उपस्थित रहते ही थे, लेकिन संस्था के अन्य पदाधिकारी भी अपनी शाम गुज़ारने के लिए शौक़ से बारी-बारी से आ बैठते। माठूराम शाम को ही खा-पीकर आते और मीटिंग के ख़त्म होने की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे भूख से परेशान गृहस्थ प्राध्यापकों को सताते। कभी-कभी माठूराम और मुरलीमोहन के बीच ही घंटा-भर तू तू-मैं मैं के सुर में बचकानी-सी बौद्धिक बहस चलती रहती। किसी शब्द की व्याख्या पर भी ये दोनों झगड़ते रहते। प्राध्यापकों पर यह धौंस ज़माने के लिए कि हम शिक्षाशास्त्र के बड़े पंडित हैं, वे अंग्रेज़ी में ऊबाऊ चर्चा शुरू करते। नौ बजते-बजते सभी प्राध्यापक बोर हो जाते। लेकिन उठकर चले जाने की हिम्मत किसी की नहीं होती। फिर हमेशा प्राध्यापकों में से कोई—शायद चिपलूनकर ही जूते के फीते खोलकर पैर बाहर निकालता और उसके मोजों की भीषण उग्र दुर्गन्ध पूरे हॉल में फैल जाती। उधर अच्छा देशपांडे भी होंठ भींचकर धीरे से गाना गुनगुनाने लगता, लेकिन इस अन्दाज़़ में कि पता न चले कौन आवाज़ कर रहा है। पापय्या देसाई लगातार किसी भी बात पर ज़ोर से ठहाके लगाता।
इस मीटिंग में भल्ला पर सबसे कठिन उत्तरदायित्व होता था। एक ओर माठूराम की पागलपन से भरी बातों को प्राध्यापकों के गले उतारना और दूसरी ओर माठूराम-मुरलीमोहन दोनों को समझाना कि दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं। अपनी समझ में न आने वाली अंग्रेज़ी में भल्ला यह दायित्व बख़ूबी निभाता। लेकिन किसी भी मुद्दे पर अपनी राय कभी नहीं देता। मीटिंग समाप्त होने पर घंटा-डेढ़ घंटा वह माठूराम और मुरलीमोहन को मीटिंग की उपलब्धियाँ भी समझाता। किस प्राध्यापक ने क्या बात की, कौन आज्ञाकारी नहीं है, कौन मज़ाक़ उड़ाने के लहजे में बोला ये भी वह कुशलता से बताता।
इन मीटिंगों के कारण पन्द्रह दिनों में ही चांगदेव को बौद्धिक निराशा ने घेर लिया। एक तो तीन-चार प्राध्यापक ही वहाँ अपनी राय ईमानदारी से रखते थे, अन्य मँजे हुए लोग माठूराम-मुरलीमोहन की हाँ में हाँ मिलाते थे और भविष्य के अपने व्यक्तिगत लाभों को देखते हुए मामूली विरोध जताकर घोषित करते कि माठूराम का मुद्दा उनको जँच गया है। बाक़ी सभी प्राध्यापक वक़्त गुज़ारने के इस तरीक़े से उकता जाते। छोटी क़द-काठीवाले पीछे बैठे प्राध्यापक धीरे-धीरे पीछे से ही नौ-दो ग्यारह हो जाते। बाद में संख्या इतनी कम हो जाती कि सभी का इस तरह भाग निकलना भी असम्भव हो जाता। मुरलीमोहन, माठूराम, ठोसर, सहस्रभोजने और ‘बड़ा मगज छोटा और छोटा मगज बड़ा’ लगनेवाला देशपांडे—जैसे ढलती उम्र के संस्था संचालकों को शाम के वक़्त घर पर कोई काम नहीं होता। इसलिए उन्हें उच्चशिक्षित प्राध्यापकों को इकट्ठा कर उनके सामने अपना अख़बारी उथला ज्ञान प्रकट करने में आनन्द आता था।
मसलन, एक शाम छह बजे बिहार के अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए मीटिंग बुलाई गई। माठूराम बेणीराम दीक्षित सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण शहर के बिहार अकाल निवारण कोष के अध्यक्ष थे। नोटिस पढ़कर सभी ने झल्लाकर ही हस्ताक्षर किए और ग़ुस्से से गाली-गलौज शुरू किया कि आज भी घर जाते-जाते रात के दस बजेंगे। कुछ प्राध्यापक चुपचाप बैठे रहे। जब तक तिकड़मी देशपांडे स्टाफ़रूम में था, कोई कुछ नहीं बोला। उसके बाहर जाते ही याज्ञिक विद्यासागर से बोले, “क्यों विद्यासागर, कितनी राशि दोगे कोष में?”
विद्यासागर क्षीरसागर से बोले, “आपके-हमारे तय करने से क्या होता है भाई? कल शाम को ही सब कुछ तय हुआ होगा! सुना है, एक दिन का वेतन माँग रहे हैं।”
क्षीरसागर ख़ुद पर हुए अन्याय को स्वर प्रदान करते हुए बोले, “हम चाहे पाँच रुपये दें या दस, नाम तो आख़िरकार माठूराम का ही होना है कि इस महान समाजसेवी ने अपनी संस्था से इतने रुपये अकेले इकट्ठा करके दिए! हम तो बस प्यादे हैं!”
शाम छह के बाद किसी से न मिलनेवाले याज्ञिक को ख़ुफ़िया ख़बर मिली थी कि इस साल भी उन्हें ऊपरी ग्रेड नहीं मिलेगी। इसलिए वे घृणा से बोले, “लेकिन ज़रा-सा कुछ हुआ नहीं कि इन्हें जहाँ-तहाँ अध्यक्ष बनने का शौक़ क्यों चर्राता है जी? अन्तर्भारती, हिन्दू-मुसलमान समन्वय समिति, अकाल निवारण समिति, समाजवादी मंडल, उर्दू-मराठी साहित्य सेवा मंडल—न जाने कितनी बातों के अध्यक्ष हैं ये?”
कुलनाम पूछकर जाति का सही-सही पता लगानेवाला नाटा कुलकर्णी बोला, “अजी पूरे गाँव के लोकप्रिय नेता हैं वे।”
विद्यासागर बोले, “लेकिन मामूली नगर निगम के चुनाव में पाँच सौ वोट तक उन्हें नहीं मिलते, सो कैसे? उनका डिपॉजिट हमेशा कुर्क होता है।”
जिसके पाँच रिसर्च पेपर फ़ॉरेन जर्नल में प्रकाशित हाे चुके थे वह देशपांडे बोला, “आख़िरकार लोग जाति पर ही जाते हैं। माठूराम जी जब से ब्राह्मण सर्कल में आए हैं, तब से उनका सारा पॉलिटिकल करियर बरबाद हो गया है। सत्ता के मोह से वे िज़न्दगी-भर दूर रहे हैं।”
याज्ञिक बोले, “लेकिन इस मामूली-सी बात के लिए हमेशा अध्यक्ष बनना और संस्था के लोगों को जहाँ-तहाँ जोत देना, इसका क्या मतलब? वे अनशन पर बैठते हैं तो भी इन्हें बीस-पच्चीस प्राध्यापक चाहिए होते हैं!”
ठोसर और ऋग्वेदी से प्रिंसिपल बनाने का वचन पानेवाले वाइस-प्रिंसिपल ऋषि पाठक बोले, “दिल से काम करनेवाले निःस्वार्थ लोग ही चाहिए ऐसी समितियों में। वरना जेड.पी. के क़दम और मोरे समिति में हों तो सारे पैसे यहीं के यहीं दफ़न हो जाएँगे! ह ह ह।”
सभी हँस दिए। कोने में बैठे डेमॉन्स्ट्रेटर गायकवाड़ ने अख़बार में चेहरा धँसा लिया।
फिर क्षीरसागर बोले, “क्या आपको यह लगता है कि बहुत लायक होने के कारण इन्हें अध्यक्ष बनाया जाता है? अजी, ऐसी फुटकल समितियों पर कांग्रेस के लोग आएँगे ही क्यों? किसके पास इतना फ़ालतू समय पड़ा है? बड़े-बड़े काम कुछ सूझने नहीं देते हैं सच्चे नेताओं को! क़दम उर्दू-मराठी मंडल का अध्यक्ष बनेगा? चार दिन भी गाँव में नहीं होते हैं ये लोग। आज मुम्बई, कल दिल्ली। ये फ़िज़ूल के धन्धे।”
याज्ञिक बोले, “मुझे तो परसाें शाहू कॉलेज के किसी ने कहा, किसी की तेरही हो या किसी के यहाँ बारही—आपके माठूराम तो अध्यक्ष बनने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। फिर भी बेचारे को वाइस-चांसलर नहीं बना रहा है कोई।”
हमेशा ‘प्रतिकूल परिस्थिति से लगातार जूझते रहने के कारण मेरी उन्नति देरी से हुई’ की टेप बजानेवाला कुलकर्णी बोला, “उनसे कहिए कि उनके छत्रपति लोगों की तरह गुंडागर्दी नहीं है हमारे लोगों में।”
किताब बन्द करके अच्छा देशपांडे बोला, “क्या फ़िज़ूल की बातें लगा रखी हैं आप लोगों ने? मीटिंग में मुँह खोलते समय तो नानी मर जाती है आपकी! और हाँ! माठूराम को उसकी ईमानदारी की वजह से अध्यक्ष नहीं बनाया जाता है। दरअसल वह निठल्ला है। ऊपर से पत्नी लात मारकर बाहर कर देती है उसे। और इसे अध्यक्ष बनाने से कॉलेज में ही इसे दफ़्तर के लिए बढ़िया जगह मिल जाती है, प्यून, टाइपिंग, मीटिंगों के लिए कमरे, लाइट, पूरा सेट तैयार होता है! ये बात है, समझे! चलिए पाटील सर, चाय पीकर आते हैं। फिर मीटिंग शुरू होने पर तो दिमाग़ भन्ना जाएगा।”
याज्ञिक और क्षीरसागर ने ख़ुश होकर अच्छा देशपांडे की बुद्धि की तारीफ़ की और फिर से माठूराम की बुराई करने लगे। याज्ञिक बोले, “हमारा हाॅस्टल शुरू हो रहा है अगस्त में। अब रेक्टर का ब्लॉक भी बढ़िया रंग-रोगन कर तैयार किया है। कौन बनेगा रेक्टर?”
अपने बारे में एक-डेढ़ घंटा लगातार बोल सकनेवाले जोशी बोले, “ह ह ह, ये भी कोई पूछने की बात है? हमारे—पुरुषोत्तम देशपांडे की पत्नी उधर तैयारी भी कर रही है, किराये का घर ख़ाली करने की। उसके घर के मालिक बता रहे थे कि 15 अगस्त को घर ख़ाली कर रहे हैं देशपांडे साहब। क्षीरसागर जी, सब कुछ पहले से तैयार होता है यहाँ।”
हमेशा ‘आइए फ़ुरसत से कभी घर’ कहनेवाला देशपांडे बोला, “कमाल हो गया! इस साल की नियुक्तियाँ, रेक्टरशिप, ग्रेड्स वग़ैरह के लिए अभी परसों मीटिंग होनी है बॉडी की, और इधर पहले से सब कुछ तय? फिर तो ग्रेड का भी निर्णय हो गया होगा कि किसे कौन-सी देनी है। क्या आपका हो रहा है ग्रेड का काम? हेड हैं न आप।”
अख़बार में चेहरा धँसाए और कान खड़े कर बग़ल में बैठे जोशी की ओर कनखियों से देखते हुए याज्ञिक बोले, “हम कभी ठोसर के मठ में जाते नहीं हैं न! हम तो बस बेवकूफ़ की तरह एक्स्ट्रा लेक्चर ले-लेकर और शाम को लैब के इंस्ट्रूमेंट्स साफ़ कर-करके मरते रहे तीनों साल! संस्था का एक डेमॉन्स्ट्रेटर बचा लिया मैंने सभी को ज़्यादा काम दे-देकर! इसीलिए तो अब हमारी हेडशिप भी जा रही है।”
इतने में एक जोशी नामक मोटा प्राध्यापक भीतर आया और सभी चुप हो गए। बैठे हुए प्राध्यापकों में से एक दूसरे जोशी ने उस मोटे प्राध्यापक की यजुर्वेदी-ऋग्वेदी टाँग-खिंचाई शुरू की।
चांगदेव अच्छा देशपांडे से बोला, “ये है कभी बिल न चुकानेवाला यजुर्वेदी! अब हम चाय के लिए निकलेंगे तो यह लट्ठभारती भी चिपक जाएगा हमेशा की तरह।”
अच्छा देशपांडे ताली देकर बोला, “ये बिल न चुकानेवाला यजुर्वेदी बड़ा उस्ताद आदमी है, हाँ! देखा न, कैसे चुप हो गए सब उसके आते ही। ये भी हमेशा बॉडीगार्ड की तरह ठोसर के साथ घूमता रहता है। पक्का चापलूस है ठोसर का। इसी को रेक्टर बनाने की कोशिश चल रही थी ठोसर ग्रुप की। लेकिन मुरलीमोहन ने यह मुद्दा उठाकर उन्हें नाकाम कर दिया कि इसे पढ़ाना नहीं आता है। कक्षा में जब छात्र इससे सँभाले नहीं जाते, तब हाॅस्टल को छात्रों पर कैसे काबू में रखेगा? तिकड़मी देशपांडे को भी पढ़ाना कहाँ आता है, लेकिन वह लड़कों को चाय-पानी वग़ैरह पिलाकर कक्षा को मैनेज कर लेता है। साथ ही दैनिक समाजवाद के कॉलम भरकर उधर ठोसर को भी ख़ुश रखता है, और इधर माठूराम के सामाजिक कार्य में मदद भी करता है। पहले दस साल ये माठूराम के दफ़्तर में क्लर्क हुआ करता था! जैसे ही कॉलेज खुला, इसे लेक्चरर बना दिया! जबकि बी.ए. में इसका विषय मराठी विषय था और एम.ए. में हिस्ट्री।”
“मतलब कहीं इन लोगों के लिए ही तो कॉलेज नहीं खोला गया? इसी बहाने बैठे-ठाले सरकारी ख़र्च पर अपने लोगों का प्रबन्ध!”
“लगभग ऐसा ही समझो। परसों बिल न चुकानेवाले यजुर्वेदी के बारे में मुरलीमोहन ने कहा कि ये हाॅस्टल के लड़कों पर काबू नहीं पा सकेंगे, तब ठोसर और अन्य बोले कि लड़कियों का हाॅस्टल बनाएँगे और वहाँ इसे रेक्टर बनाएँगे! भल्ला ने यू.जी.सी. को लेडीज़ हाॅस्टल का प्रस्ताव भी तुरन्त भेज दिया! इतने सूत्रबद्ध ढंग से चल रहा है, साला। बहुत भयानक लोग हैं ये। अभी तो एक साल बिताया है इनके साथ, लेकिन इनका चेहरा देखते ही तन-बदन में आग लग जाती है। अच्छा, चलो। अब ऐसे ही एक-एक कर बाहर निकलेंगे। उधर देसाई की लैब में चिपलूनकर भी होगा, मैं उसे लेकर आता हूँ। आप आगे बढ़िए। देखो, बिल न चुकानेवाले यजुर्वेदी का सारा ध्यान हमारी तरफ़ ही है। क्योंकि उसे पता है कि हम इसी वक़्त चाय पीने के लिए जाते हैं!
चाय पीकर लौटने के बाद छह बजे तक वे स्टाफ़रूम में बुराई सुनते बैठे रहे। फिर मीटिंग। भल्ला की हमेशा की तरह शुरुआत : वी शुड नॉट लेट अवर बैटरी डाउन! वी शुड गो ऑन द राइट ट्रैक! रेकलेसनेस इज़ डेंजरस! वग़ैरह। फिर प्रत्येक व्यक्ति को कितने रुपये देने चाहिए ताकि हमारी संस्था का बड़प्पन दिखाई देगा वग़ैरह। दो-एक बोले भी कि बिहार राहत कोष में जो सहायता देनी है वो हम ख़ुद दे देंगे। फिर चर्चा। फिर माठूराम और मुरलीमोहन में ज़ोरदार बहस कि बुद्धि क्या है? भावना किसे कहते हैं? चैरिटी की डेफिनेशन क्या है, व्हॉट इज़ चैरिटी? व्हॉट इज़ फिलन्थ्रपी? वग़ैरह। अच्छे देशपांडे ने हमेशा की तरह ज़ोरदार भाषण कर इस तरह कलेक्टिवली कोष की सहायता करने की ज़रूरत ही क्या है वग़ैरह शुरू किया। तब भल्ला मज़ाक़ के लहजे में देशपांडे की लल्लो-चप्पो करने लगा। भल्ला बोला, “यू बॉय, देशपांडे, इतने टॉप गियर में मत बोलो यार। बैठिए, लोअर गियर में बात कीजिए, यू चिकन, बैठकर बोलिए।”
धीरे-धीरे और भी कुछ लोग कहने लगे कि कोष में एक साथ सभी की सहायता देने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन बीच में ही भोगीशयनम् उखड़कर कह गए कि दफ़्तर ने स्टाफ़ की ओर से पहले ही एक हज़ार रुपये कोष में परस्पर जमा भी कर दिए हैं, आनेवाले महीने की तनख़्वाह से हरेक के पैसे काटकर पेशीट तैयार किया गया है। तब बॉटनी के वृद्ध देशपांडे बोले, यदि यही करना था तो इतनी चर्चा किसलिए की आप लोगों ने? जाने दो अब। फिर सभी चुप हो गए। कोई ‘डेमोक्रेसी’ कहकर बस हँस दिया। लेकिन भोले, क्षीरसागर यह दर्ज करने का आग्रह करने लगे कि हमारी सहमति के बिना पैसे काटना अनुचित है। फिर भल्ला ने आधा घंटा किसी की भी समझ में न आनेवाली अपनी गोलमाल अंग्रेज़ी में शुरू किया—अवर ग्रेट इंस्टिट्यूशन—इट्स हाय रेप्युटेशन—कलेक्टिव रिस्पॉन्स एंड इंडिविजुअल गुडनेस—आफ़्टर ऑल व्हॉट इज़ मनी? मनी इज़ नथिंग—वग़ैरह। इस तरह मेस्मेरिज़्म की तरह ख़ूब बोर कर और फिर अपेक्षित परिणाम होने पर यानी सभी प्राध्यापकों के नर्म हो जाने पर और ख़ुद भी गोलमाल बोलने से पूरा थक जाने पर भल्ला बोला, “सो डियर लर्नेड कलीग्न! शैल आय टेक योर कंसेन्ट फॉर ग्रांटेड?”
गृहस्थी का बोझ ढोनेवाले, बहन के ब्याह के लिए दहेज इकट्ठा करनेवाले, छोटे भाइयों को पढ़ानेवाले और पहली तारीख़ की तनख़्वाह का बार-बार बजट बनानेवाले इन विचारक प्राध्यापकों का दल विरोध के लिए सकपका गया था। कोई नहीं बोल रहा था। हर कोई घड़ी के काँटों की ओर देखता हुआ घर पहुँचने की चिन्ता में अधीर हो गया था। बाहर बरसात भी बढ़ रही थी। उधर अच्छे देशपांडे इतनी देर से हम बेख़ुदी में तुमको पुकारेऽऽ चले गएऽऽ सागर में िज़न्दगी को उतारेऽ चले गएऽऽ गुनगुना रहा था। चिपलूनकर ने अपने पैर जूतों से बाहर निकाले थे और उसकी उग्र दुर्गन्ध पूरे हॉल में फैल गई थी। सभी लोग आपस में कानाफूसी करते-करते माठूराम और मुरलीमोहन को गालियाँ दे रहे थे। प्यून हरी भी इस चिन्ता में दरवाज़े के पास उदास खड़ा था कि कब यह ख़त्म होगा और कब मैं घर जाऊँगा। आख़िर में भल्ला ने पहले से टाइप की हुई नोटिस सबके बीच घुमाई, जिसमें लिखा था कि अपनी तनख़्वाह से बीस-बीस रुपये कटौती के लिए हमारी अनुमति है। ठोसर-माठूराम के कृपापात्र लोगों ने तुरन्त हस्ताक्षर कर नोटिस को आगे खिसका दिया। भोले, क्षीरसागर, गोपाल देशपांडे, चांगदेव, चिपलूनकर, देसाई, शेंडे आदि ने बिना हस्ताक्षर किए काग़ज़ को आगे सरका दिया। माठूराम का चेहरा ग़ुस्से से तमतमाया। भोले बोला, “हम अपने पैसे अलग से भरेंगे। हमारी तनख़्वाह से राशि न काटी जाए।”
चांगदेव अपने आप को बरसात की मार से बचाता हुआ यानी हमेशा की तरह पूरा भीगता हुआ एक होटल में घुसा और भकर-भकर निवाले निगलकर अँधेरे से साइकिल दौड़ाने लगा। बारिश को झेलते हुए उसे याद आया कि चौक में पुलिस खड़ी होती है। फिर उतरकर ज़रा देर पैदल चला। फिर सवार होकर हमेशा की तरह यह तय करते-करते पानी से तर-बतर हो पोफले के बँगले पर आया कि तनख़्वाह मिलते ही रेनकोट और साइकिल की लाइट तुरन्त ख़रीदनी है। हमेशा की तरह हड़बड़ाते हुए उसने ताला खोला और सारे कपड़े बाथरूम में फेंक दिए। सूखे कपड़े पहन लिए, चाय पी, रेडियो लगाया और बीड़ी सुलगाकर बिस्तर पर लेट गया। फिर पूरा ओढ़ावन ओढ़कर बोला, “सालों-साल इस तरह चलते रहना ठीक नहीं है। पुराने कॉलेज इससे कई गुना अच्छे थे। एक डाली टूटते ही बन्दर की तरह मैं दूसरी डाल पर छलाँग लगाता हूँ और उसे भी टूटता हुआ देखकर फिर और ऊपर चढ़ जाता हूँ। यह करते-करते यहाँ तक आया हूँ। लेकिन हाल यही है कि कभी-न-कभी डाली टूटकर मुझे ढह जाना ही है। मुश्किल है।
बाहर तेज़ बारिश की आवाज़ें आ रही थीं। उसे ऐसा पसीना छूटा कि लगा सारा बिस्तर भीग जाएगा। फिर दाईं ओर से थपेड़ों की दस्तक आने लगी। उसे तेज़ थकान महसूस हुई और सारा घर गरगर घूमने लगा।
पुस्तक – झूल
लेखक – भालचंद्र नेमाड़े
अनुवाद- गोरख थोरात
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन
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