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मनोहर श्याम जोशी और सोप ऑपेरा के आखिरी दिन!

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आज यानी 30 मार्च को हिंदी में अपने ढंग के अकेले लेखक मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि है. देखते देखते उनके गए 16 साल हो गए. आइए पढ़ते हैं उनके सोप ओपेरा लेखन के दिनों को लेकर एक छोटा सा संस्मरण- प्रभात रंजन

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1995 की वह जनवरी मुझे कई कारणों से याद है.

पहले मैं उनसे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में मिल चुका था. जिसमें चलते समय उन्होंने कहा था- फोन कर लेना!

यह तो याद नहीं कब- मैंने उनको फोन किया. उनसे मिला तो था पीएचडी के सिलसिले में ही लेकिन उनके बार बार कहने से यह तो समझ ही गया था कि बात पीएचडी की नहीं कुछ और थी. मन में तरह तरह के ख़याल आ रहे थे. लग रहा था जैसे मेरी बातचीत से प्रभावित होकर, मेरी प्रतिभा को पहचानकर जरूर वे मुझे टीवी धारावाहिक लेखन का कोई काम दिलवाना चाहते थे. खामाखायाली तो किसी को भी हो सकती है.

लगने लगा था पीएचडी के गुमनामी के दिन जाने वाले थे. लेखन के शोहरत के दिन आने वाले थे. आज का तो पता नहीं लेकिन उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभागों में अधिकतर शोध अनमने भाव से किये जाते थे. हम कम्पीटीशन की तैयारियां करते हुए, होस्टलों में रहकर तैयारी करने के लिए पीएचडी में दाखिला लेते थे. जब कुछ नहीं हो पाता था तब शोध हो जाता था. हम कुछ और कुछ और की तलाश में भटकते रहते थे.

मेरा कुछ और तब लेखन था. जबकि सच्चाई यह थी कि उससे पहले मैंने कभी ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था कि अपने आपको लेखक भी कह पाता. लेकिन मन ही मन यही सोचता था बस एक बार लेखन शुरू करने की देर है लेखन की दुनिया ही बदल दूंगा. यही सोच सोच कर लेखन का काम मुल्तवी करता जाता था. हाँ, मुल्तवी करते जाने का मतलब यह नहीं था कि मैं अपने आपको किसी से कमतर लेखक समझता था.

मैंने इसी उम्मीद से जोशी जी को फोन किया कि शायद उनको धारावाहिक लिखने के लिए सहायक की जरुरत हो इसलिए मुझे बार बार कह रहे हों फोन करने के लिए. मैंने कई लेखकों से सुन रखा था कि वे एक समय में इतने धारावाहिक लिखते थे कि उनको कई कई सहायक रखने पड़ते थे. जो उनके लिए घोस्ट राइटिंग किया करते थे. वे सबको खूब पैसे देते थे. जिन दिनों उनका लिखा और रमेश सिप्पी का निर्देशित धारावाहिक ‘बुनियाद’ प्रसारित हो रहा था तब मैं सीतामढ़ी में रहता था और तब मैंने एक अखबार के गॉसिप कॉलम में बाकायदा यह प्रकाशित देखा था कि मनोहर श्याम जोशी को एक एपिसोड लिखने के दसहजार मिलते थे जिनमें से वे अपने लिए लिखने वाले लेखकों को पांच हजार देते थे. उनके पास इतने प्रोजेक्ट्स होते थे कि लेखकों की एक पूरी टीम उनके लिए काम करती थी. वगैरह-वगैरह…

वे हमारे लिए मिथक पुरुष थे. हिंदी के ज्यादातर लेखक एक-सा जीवन जीते थे. उनका जीवन अलग था, उनका काम अलग था.

6961728- मैंने नंबर डायल किया. फोन उन्होंने खुद उठाया. पहले आवाज पहचानने में दिक्कत हुई. मेरे ख़याल से हर उस आदमी को होती होगी जो उनके व्यक्तित्व से आकर्षित होकर उनको फोन करता होगा. इतना भारी-भरकम व्यक्तित्व और ऐसी बारीक आवाज. उनकी आवाज में कभी गुरु गंभीरता नहीं एक बालसुलभ कौतूहल झलकता था.

‘हाँ, प्रभात रंजन. ये लो नंबर नोट करो…. मिस्टर रश्मिकांत से बात कर लेना. वे कुछ शोध के बारे में बात करेंगे. अगर शोध कार्य से समय मिले, करने की इच्छा हो तो कर लेना. हाँ, बताना फिर क्या बात हुई. अच्छा चलो, अभी कुछ जरूरी लिखना है…’

कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने हाँ-हूँ भी किया था या नहीं यह याद नहीं है लेकिन उनकी यह बात याद है. बाद में यह समझ में आया था कि वे बहुत देर तक बहुत औपचारिक नहीं रह पाते थे. एक बड़े लेखक जैसा गुरु-गंभीर भाव उनमें नहीं था. उनकी छवि, उनके काम की वजह से बहुत कम लोग उनसे मिल पाते थे, उनके अपने एकांत में प्रवेश कर पाते थे लेकिन जो कर पाते थे वे उनकी बेतकल्लुफी के कायल हो जाते थे.

हिंदी में आम तौर पर उस लेखक को बड़ा नहीं माना जाता है जो बहुत गुरु गंभीर दिखता हो, लिखता भले न हो. अब प्रसंग आया है तो इनता और सुनाता चलता हूँ कि सन 2000 के आसपास से जब मैं महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में काम करता था. तब विश्वविद्यालय के कुलपति अशोक वाजपेयी थे. उन दिनों में दिल्ली में उस विश्वविद्यालय के कार्यक्रम बहुत आयोजित होते थे. अशोक जी की आदत थी- वे हर कार्यक्रम के वक्ताओं की सूची बनाते समय हम जैसे कुछ लोगों से राय लिया करते थे, वक्ताओं की सूची उसके बाद फाइनल करते थे. मैंने कई बार रचना पाठ या उपन्यास से जुड़े विषयों पर बोलने के लिए मनोहर श्याम जोशी का नाम प्रस्तावित किया. मुझे अच्छी तरह याद है जब मैंने आखिरी बार मनोहर श्याम जोशी का नाम लिया था तो अशोक जी ने लगभग झल्लाते हुए कहा था, वे गंभीरता से नहीं बोलते हैं.

यह अजीब विरोधाभास है न! गंभीरता की धूल झाड़ने वाली अपनी जिस शैली के कारण मनोहर श्याम जोशी पाठकों के प्रिय बने लेखकों में उसी वजह से लेखक समाज में वे ‘आउट ऑफ़ कोर्स’ बने रहे.

बहरहाल, मैंने मिस्टर रश्मिकांत को फोन किया. उन्होंने बड़े प्यार और आदर के साथ ग्रेटर कैलाश के अपने दफ्तर में बुलाया. वह ज़ूम कम्युनिकेशन के मालिक थे. 90 के दशक में भारत में टेलिविजन की दुनिया में क्रांति घटित हो रही थी. टेलिविजन प्रसारण की दुनिया में क्रांति घटित हो रही थी. दूरदर्शन का एकाधिकार टूट रहा था. नए नए चैनल लांच हो रहा था. नए नए तरह के धारावाहिक, सोप ऑपेरा बनाए जाने लगे थे.

नई नई प्रोडक्शन कम्पनियाँ खड़ी हो रही थी. दिल्ली टेलिविजन का केंद्र बनता जा रहा था. कहा जाने लगा था कि सिनेमा का केंद्र मुंबई रहेगा लेकिन टीवी का केंद्र तो दिल्ली बन जायेगा. टेलिविजन समाचार भी शुरू हो चुके थे लेकिन तब टीवी समाचारों से जुड़ना अच्छा कैरियर नहीं माना जाता था. फिक्शन यानी धारावाहिकों से जुड़ना ग्लैमरस होता था, माना जाता था. मनोहर श्याम जोशी दिल्ली के अपने ग्लैमरस लेखक थे, कुछ ही दिनों पहले उनको टीवी लेखन के लिए ओनिडा पिनैकल लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड मिल चुका था. जोशी जी के बारे में दिल्ली में टीवी की दुनिया से जुड़े लोग यही कहते थे कि अगर कोई धारावाहिक बनाने के बारे में सोचता भी था तो उसके दिमाग में सबसे पहले मनोहर श्याम जोशी का ही नाम आता था. वह सबसे पहले उनसे मिलने का टाइम लेता था.

बहरहाल, रश्मिकांत और उनकी कम्पनी का एक सीरियल उन दिनों होम टीवी नामक चैनल पर प्रसारित हो रहा था, जिसे सादिया देहलवी ने लिखा था और जिसमें अम्मा की भूमिका निभाई थी जोहरा सहगल ने. प्रसंगवश, इतना बताना जरूरी है कि होम टीवी तब दिल्ली में टीवी की दुनिया की सबसे बड़ी घटना थी. 1996 में लांच हुआ था. 1999 में बंद हो गया. बाद में दिल्ली न्यूज का गढ़ बनता गया और मुम्बई इंटरटेनमेंट का.

बात ज़ूम कम्युनिकेशन की हो रही थी. उनकी एक बहुत बड़ी योजना थी. अगले साल यानी 1997 में भारत की स्वाधीनता के 50 साल पूरे हो रहे थे. बड़ी-बड़ी योजनायें उसको लेकर बन रही थी. ज़ूम कम्युनिकेशन ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी. बीकानेर के एक व्यापारी थे अनिल गुप्त. रहते दिल्ली में थे, उर्मिला गुप्त के पति थे जो दूरदर्शन की बड़ी अधिकारी थी. हाल में ही उन्होंने दूरदर्शन की नौकरी छोड़कर स्टार टीवी में किसी बड़े पद पर ज्वाइन किया था.

स्टार टीवी की योजना यह थी कि 1997 में आजादी की अर्धशती के मौके पर हिंदी प्रसारण की शुरुआत की जाए. जिसके लिए अनिल गुप्ता और और रश्मिकांत के ज़ूम कम्युनिकेशन ने यह योजना बनाई थी कि मारवाड़ियों के उत्थान, उनके विस्तार को लेकर एक ऐसा धारावाहिक बनाया जाए जिसमें भव्यता, दिव्यता वैसी ही हो जैसी कि देश भर में मारवाड़ियों ने अपने व्यापार से पैदा की थी. जिसकी वजह से आजादी के पहले-बाद के दौर में यह कहावत मशहूर हुई थी- जहाँ न पहुंचे बैलगाड़ी वहां पहुंचे मारवाड़ी!

मनोहर श्याम जोशी मूल रूप से कुमाऊंनी ब्राह्मण थे मगर उनका जन्म अजमेर में हुआ था. राजस्थान की संस्कृति से उनका सहज लगाव था. खुद को वे राजस्थानी अधिक समझते थे. अनिल गुप्ता और रश्मिकांत ने मनोहर श्याम जोशी को इस धारावाहिक की योजना समझाई. सुनकर जोशी जी ने पहला सुझाव यह दिया कि इसके लिए एक रिसर्च टीम बनाई जाए जो कोलकाता, राजस्थान के अलग-अलग शहरों में जाकर मारवाड़ियों की व्यापार शैली के ऊपर रिसर्च करे. फिर उसके आधार पर वे कहानी लिखेंगे. दोनों निर्माता मान गए.

जी, मुझे बताया गया कि ‘मारवाड़ी’ नाम के उस प्रोजेक्ट के लिए मैं रिसर्च का काम शुरू करूँ. तब इस धारावाहिक की जो वर्किंग फ़ाइल तैयार की गई थी उसका नाम ‘मारवाड़ी’ ही रखा गया था. पहले ही दिन रश्मिकांत ने पीले रंग की एक फ़ाइल पकड़ा दी, जिसमें यह लिखा हुआ था कि उस धारावाहिक का मूल विचार क्या था, उसके लिए शोध में क्या-क्या करना है? उसके लिए मुझे कहाँ-कहाँ जाने की जरुरत होगी इसका एक ब्यौरा तैयार करने के लिए भी आदेश पत्र उसी फ़ाइल में रखा हुआ था.

इस बात की ख़ुशी भी हो रही थी कि मानसरोवर होस्टल में बैठे बैठे मुझे मेरे सपनों की दुनिया का प्रवेश द्वार मिल गया था. अब करना बस यह था कि अपने काम से उस दरवाजे के भीतर प्रवेश करूँ और कामयाबी की अनंत सीढियां चढ़ता चला जाऊं. तैयारी सारी हो चुकी थी मगर यह सोच सोच कर धीरे धीरे घबराहट होती जा रही थी कि काम आखिर होगा कैसे?

उस समय तक विश्वविद्यालय में शोध का रास्ता बड़ा सीधा होता था- विषय चुनिए पुस्तकालयों में बैठिये, अधिक से अधिक किताबों का चर्बा इकठ्ठा कीजिए, और आखिर में पन्ने भर दीजिए. बस हो गया, नाम के आगे डॉक्टर में जुड़ जाता.

लेकिन यह तो कुछ ऐसा शोध था जिसके आधार पर देश में मारवाड़ी समुदाय के उत्थान, उनकी कर्मठता, उनकी व्यवसाय बुद्धि से जुड़े किस्से इकठ्ठा करने थे. यह काम आसान नहीं था. मैंने जोशी जी से फोन किया और बताया. साथ में यह भी कहा कि शोध शुरू करने से पहले आपसे मिलना जरूरी है. उन्होंने अगले ही दिन सुबह मिलने के लिए बुलाया.

नियत समय पर जब मैं उनके घर पहुंचा तो उन्होंने एक बड़ी सीख दी. बोले कि देखो, एक चीज शुरू में ही सीख लो. यह जो इंडस्ट्री है इसमें ग्लैमर बहुत होता है, पैसा बहुत लगता है. जब कोई निर्माता किसी परियोजना को बार बार बड़ा बताए तो सबसे पहले यह बात समझनी चाहिए कि वह उस परियोजना में बहुत पैसा लगाना चाहता है. अब देखो, वह तुम्हारे शोध निर्देशक की तरह तो होता नहीं है कि वह तुम्हारे लिखे को पढ़े और बता दे कि तुमने काम किस स्तर का किया है. न भी बताये तो समझ जाए. इस इंडस्ट्री में निर्माता तभी खुश होता है जब उसे काम होता हुआ दिखे. अब यह काम अगर तुम सिर्फ पुस्तकालय में बैठकर करोगे तो निर्माता के मन में यह धारणा बन जाएगी कि तुम अपने काम में अच्छे नहीं हो. बस वह दूसरे शोधकर्ता की तलाश शुरू कर देगा.

अभी कहानी का बस मूल विचार है जो यह है कि राजस्थान से छपनिया अकाल के बाद विस्थापित हुए दो व्यावसायिक घरानों के माध्यम से कथा आगे-पीछे चलती रहेगी, इसमें मारवाड़ियों के कामकाज, उनकी पारिवारिकता, उनकी परम्पराओं की कहानी होगी. अब इसमें कहानी होगी तो वही कहानी तुमको मारवाड़ी परिवारों से निकाल कर लानी है. फिलहाल शोध के लिए थॉमस एस. टिम्बर्ग की किताब ‘द मारवाड़ीज: जगत सेठ टू द बिरलाज’ और घनश्याम दास बिरला की जीवनी पढ़ लो, हिंदी में मिल जाएगी. रामनिवास जाजू ने लिखी है. और हाँ, यात्राओं की योजना बनाओ. बीकानेर जाओ पहले. वहां यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ से मिलना. उसको बताना कि मैं उसको भी बतौर लेखक जोड़ना चाहता हूँ. वह मारवाड़ियों के इतिहास के बारे में खूब जानता है.

चलो अब आओ, मुझे एपिसोड पूरा करना है.

बाद में उनके सहायक शम्भूदत्त सती मुझे छोड़ने बाहर आये. दिल्ली के साकेत में उनके घर से बाहर निकलकर अनुपम सिनेमा हॉल के पास एक ठीये पर बैठकर चाय पीते हुए सती जी ने बताया कि जोशी जी उन दिनों ‘गाथा’ नामक एक धारावाहिक लिख रहे हैं, जिसका निर्देशन रमेश सिप्पी कर रहे हैं. उसकी शूटिंग शुरू होने वाली है. एक घंटे का एक एपिसोड है. जोशी जी सप्ताह में दो एपिसोड के रफ़्तार से लिख रहे हैं. उसका प्रसारण स्टार टीवी पर होगा. अगले साल आजादी की 50 वीं सालगिरह के मौके पर.

प्रसंगवश, बताता चलूँ कि ‘गाथा’ धारावाहिक का प्रसारण स्टार टीवी पर हुआ था जो एक तरह से उनका लिखा और प्रसारित अंतिम धारावाहिक साबित हुआ. इसमें एक हिन्दू और एक मुस्लिम परिवार के माध्यम से आजाद भारत की कहानी कहने की कोशिश थी. कहानी 1942 से शुरू होने वाली थी. ‘

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