वरिष्ठ लेखक हृषीकेश सुलभ का दूसरा उपन्यास प्रकाशित हुआ है ‘दाता पीर’। बहुत लग परिवेश का यह उपन्यास नफ़रत के इस दौर में प्रेम के उस दौर की याद दिलाने वाला है जब समाज में प्रेम था, साहचर्य था। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास का एक अंश पढ़िए-
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अपने छोटे मामू को विदा कर साबिर राधे की दुकान पर पहुँचा। रसीदन भी वहीं थी। राधे उसे बता चुका था कि साबिर के मामू हैं, उससे मिलने आए हैं। उसके पहुँचते ही रसीदन और राधे ने प्रश्नाकुल आँखों से उसकी ओर देखा। उसके चेहरे पर ख़ुशी तरलता छाई थी। अब्बू की शहनाई की वह अकेली और दुर्लभ आवाज़ मिश्री की तरह उसके पूरे वजूद में घुल रही थी, हालाँकि बिना पत्तर की आवाज़ जैसी-तैसी ही निकली थी, पर यह आवाज़ उसके लिए सपने की तरह थी। उसके मन की ऋतु बदल रही थी। पेड़ की फुनगियों पर उग आए नवजात टूसों की तरह उसके मन के पोर-पोर पर उग आए उम्मीदों के टूसे किसलय बनने को उमग रहे थे। वह सपनों में खोया हुआ ही राधे की दुकान तक पहुँचा था।
“गए?” राधे ने पूछा।
“हूँ।” धीमी आवाज़ में एक हुँकारी भर कर बैठ गया साबिर।
“चलो अच्छा हुआ साबिर भाई कि छूटा हुआ ननिहाल मिल गया तुमको।… सब टाइम एक जैसा नहीं रहता। का बतिया रहे थे?” राधे पूछ रहा था, पर रसीदन चुप थी। उसे बिलकीस बानो याद आ रही थी कि कैसे परेशान हाल पहुँची थी इस साबिर को लिये! नाक बहाता साबिर कैसे उसके आँचल का छोर पकड़े दिन-रात उससे चिपका रहता था!
“शहनाई सीखने के बारे में पूछ रहे थे।” साबिर ने कहा। इसके सिवा उसके पास बताने के लिए कुछ था भी नहीं।
“बहुत बढ़िया है यार! सीख लो। सत्तार मियाँ के धंधे में खटने से तो सौ गुना बढ़िया है।…मजा मारोगे। ढंग के लोगों का साथ-संगत रहेगा।…देख साबिर मौका बार-बार नहीं मिलता।…का बुआ गलती बात बोल रहे हैं का?” राधे ने सलाह देते हुए रसीदन से पूछा।
“अब हम का बता सकते हैं बाबू। हम तो खाली कबर और मैयत जानते हैं।… बात तो तुम्हारी ठीक है कि संगत बदल जाएगी, पर फजलू के साथ दारू-गाँजा के लिए टाइम नहीं मिलेगा।” रसीदन ने धीरे से चोट की साबिर पर।
“दारू-गाँजा बुरी चीज है, पर ऐसी भी बुरी नहीं कि…। जाने दे बुआ, इतने बरस बाद ननिहाल से नेवता मिला है। अब तू उसके मन के उछाह पर पानी मत डाल।” राधे बोले जा रहा था और साबिर चुप था। वैसे भी उसने आज तक रसीदन की किसी बात का जवाब नहीं दिया था। उसके कलेजे में रसीदन के लिए बहुत मुहब्बत थी। ख़ाला बिलकीस बानो के रहते हुए या जाने के बाद रसीदन ने ही उसे सँभाला है। बिलकीस बानो को खो देने के बाद रसीदन ही उसका सहारा रही है।
“हम उछाह पर पानी नहीं डाल रहे बाबू।…हम तो आँख में अँगुली डाल कर साँच दिखा रहे हैं। देख लो फजलुआ की हालत। पहिले जैसी अब रह गई है उसकी देह? बोलो?…खाँखड़ हो गई है। पहिले एक दिन में तीन-तीन कबर खोद लेता था। और अब? हँफनी उपट जा रही है। आदमी रखना पड़ा हमको। उसको जो पैसा जाता है, सो अगर बचता तो किसके काम आता?” रसीदन की चिन्ता खीझ बन कर निकल रही थी। उसकी अपनी दुनिया थी और इस दुनिया के सुख-दुख थे। उसे क्या पता था कि साबिर के लिए शहनाई बजाने का मतलब क्या है! साबिर की आँखों में पलते सपनों से वह अनजान थी। उसके कलेजे में चौबीसों घंटे टीसते रहने वाले ज़ख़्म के बारे में कभी सोच न सकी थी रसीदन।
अपने दोनों घुटनों पर हथेलियाँ टिका कर कराहती हुई उठी रसीदन। अपने पाँवों की तकलीफ़ से आजिज़ आ चुकी थी वह। बोली, “लगता है लोथ बन कर जीना लिखा है नसीब में।…उठना-बैठना मुहाल हो गया है।” उसकी तलमलाती देह को थामने के लिए आगे बढ़ा साबिर। वह फिर बोली, “…बड़ी सगौती पका रही है। खा कर कहीं निकलना रे साबिर।”
” सबिरवा काम नहीं आएगा बुआ, जो इसको खस्सी खिला रही हो। हम ही काम आएँगे।…एक दिन हमको भी सगौती खिलाओ बुआ।” राधे ने चुटकी ली।
“खिला तो दें, पर तेरा धरम चला जावेगा। पतोहू घर में घुसने न देगी।” रसीदन क़ब्रिस्तान के फाटक की ओर बढ़ी। साबिर ने चैन की साँस ली। राधे से ननिहाल के बारे में बतियाता रहा। राधे उसके लिए चाय की नई खेप चूल्हे पर चढ़ा चुका था।
कुछ देर बाद साबिर और फजलू ने आँगन में बैठ कर साथ-साथ खाना खाया। अमीना खिला रही थी। बरामदे में बैठी चुन्नी मनोयोग से खाना परोसती और पूछ-पूछ कर दुहरावन देती अमीना को देख रही थी और कल्पना कर रही थी कि साबिर की जगह बबलू बैठा है और वह खिला रही है। उसे इस बात से जलन होती कि साबिर के लिए तो इस घर का दरवाज़ा खुला हुआ है और आँगन में जगह ही जगह है, पर बबलू के लिए पहरे लगे हैं।
साबिर अपने मामू के आने क़िस्सा बयान कर रहा था। एक-एक बात कि कैसे आए, क्या-क्या पूछा-कहा उन्होंने और उसने क्या जवाब दिया। उसने यह भी बताया कि आने वाले जुमा के दिन वह फिर सुल्तानगंज जा रहा है। वह सोच रहा है कि अगर सब कुछ ठीक-ठाक लगा और वहाँ का माहौल जँचा उसे, तो वह शहनाई बजाना सीखने की कोिशश करेगा। अमीना उसकी बातें ग़ौर से सुनती रही और फिर पूछा, “…और जो धंधा करने की सोच रहे थे उसका क्या करोगे?”
थाली से नज़रें हटा कर जवाब दिया उसने, “धंधा तो हर हाल में करना ही है। हड़बड़ा कर नहीं, ख़ूब सोच-विचार कर ही करेंगे ताकि फिर पैर न खींचना पड़े।”
खाना ख़त्म कर दोनों बाहर निकले। कोठरी में गए। चिलम तैयार किया और दम लगा कर सो गए। फजलू की नाक घर्र-घर्र बज रही थी।
*
साबिर के आने बाद नूर मंज़िल की उदास सुबहों और शामों का रंग थोड़ा बदला था। ग़ुलामबख़्श के पीरमुहानी से लौटने के बाद उम्मीद के रंग इसमें भरने लगे थे। पश्चात्ताप की जो छाया मँडराती रहती थी कुछ सालों से, उस छाया का आकार भी सिमट रहा था। ग़ुलामबख़्श ने जब घर लौट कर सारा क़िस्सा बयान किया और साबिर की ज़िन्दगी के पन्ने खुले, सबकी आँखें नमनाक हो गईं। आपस में बातचीत के बाद यह तय पाया गया कि साबिर को पीरमुहानी छोड़ कर आने और यहीं नूर मंज़िल में रहने को कहा जाए। दूसरे तल्ले के कमरे और ग़ुस्लख़ाने को साफ़-सुथरा करवा कर रँगाई-पुताई करवा दी जाए। यहीं रख कर उसे शहनाई की तालीम दी जाए ताकि आने वाले वक़्त में उस्ताद नूरबख़्श का घराना ज़िन्दा रह सके और उन दोनों भाइयों की बुढ़ापे में देखरेख भी हो सके। दूसरे संगतकारों की तरह साबिर भी प्रोग्राम में अपनी शहनाई लेकर पीछे बैठें। इतनी जल्दी रागदारी तो होने से रही, पर सुर तो भर ही सकते हैं। आमदनी में जैसे औरों को हिस्सा मिलता है, उन्हें भी मिले। सबके साथ बाहर निकलेंगे तो धीरे-धीरे इस दुनिया का चलन भी सीख जाएँगे। न सही पढ़े-लिखे, पर समझदार लगते हैं, सो बहुत जल्दी सँभाल लेंगे, ऐसी उम्मीद सबको थी।
“मुन्ने, तुम कह दो कि जुम्मा को दिन में नहीं, शाम को आए या उसका जी करे तो दिन में ही आ जाए। उस दिन शाम को महफ़िल रख लेते हैं। ज़माना हुआ मिल कर बैठे। रियाज़ भी हो जाएगा। उसकी आँखें भी खुलेंगी कि वह अपनी ज़िन्दगी में किन चीज़ों से महरूम रहा! उसके मन में मौसीक़ी को लेकर मुहब्बत जागेगी।…और हाँ यह भी कह दो कि अपने अब्बू की शहनाई लेता आए। शहनाई ठीक हालत में थी?” बड़े फ़हीमबख़्श ने कहा।
“हाँ, ठीक ही थी। पत्तर नहीं थे। सुज्जा और चापिल बदलना होगा। लकड़ी वाला धारी का हिस्सा ठीक था। नाड़ी भी ठीक थी, पर बदल देना बेहतर होगा। धारी पर भी वार्निश होगी। प्याले को माँज कर चमकाना होगा।…बिना पत्तर के ही एक फूँक मारी थी हमने।” ग़ुलामबख़्श ने अलीबख़्श की भूली-बिसरी शहनाई का हुलिया बयान करते हुए कहा, “अब्बा ने हमसे ही मँगवा कर अलीबख़्श को दी थी। कलकत्ते की ब्रैगेन्ज़ा एंड कम्पनी से,…मारक्विज़ स्ट्रीट में ख़रीदी थी।”
“हम लोग बहुत जल्दबाज़ी तो नहीं कर रहे?” बड़ी जनी थीं।
“देखिए भाभी, जब अल्लाह ताला रास्ते खोल देते हैं, तो फिर क्या धीमी चाल और क्या जल्दबाज़ी! एक राह दिखी है। चल कर देखने में क्या हर्ज़? हम लोग किसी का बुरा करने तो जा नहीं रहे।…और न ही एहसान करने जा रहे हैं उस पर। उसका हक़ है, सो उसे दे रहे हैं।”
“लड़के ने ग़ुरबत देखी है, पर है तो हमारे ही ख़ानदान का हिस्सा। मुझे तो नरमदिल लगा। क़ब्रिस्तान से उठ कर मौसीक़ी की दुनिया में आ रहा है। समझदार होगा, तो ज़िन्दगी बदल जाएगी।” छोटी जनी ने बोल रही थीं।
फ़रहत बानो ने अब तक चुप्पी लगा रखी थी, पर सबको एकमत होते हुए देख कर उनके सब्र का बाँध टूट गया, “हमारी तो न इज़्ज़त रही इस घर में और न हमारा हक़ रहा, पर सब लोग कान खोल कर सुन लें कि इस फ़ैसले में हम शामिल नहीं हैं।…जिस लड़की की हरकत के चलते ख़ानदान की ऐसी-तैसी हुई और हमारी अम्मी गुज़र गईं, उसकी औलाद को चौबीसों घंटे नज़र के सामने देखना हमसे पार न लगेगा। अब्बा की क़ब्र पर अभी घास भी नहीं उगी थी कि घर छोड़ कर भाग गई।…बड़ी जल्दी मची थी हथेलियों पर मेहंदी रचाने की!”
अपने पाँव पटकती,…काँसे के फूटे बरतन की तरह बेसुरी आवाज़ में झनकती फ़रहत बानो उठ कर चल दीं। हाथों में चाय की प्यालियों से भरा ट्रेलिये कमरे के भीतर आती रुक्न बी उनसे टकराते-टकराते बचीं। बोलीं, “हाय अल्लाह! अब इन्हें क्या हुआ?…किस ततैया ने काट लिया?”
सब लोग चुप थे। कुछ ऐसा ही घटित होगा, सबको इसकी उम्मीद थी। चाय की प्यालियाँ रख कर रुक्न बी जाने लगीं, तो बड़े फ़हीमबख़्श बोले, “उनकी चाय लेती जाओ। उनके कमरे में ही पहुँचा दो।”
“जिन्दा चबा जाएँगी हमको।…मैं न रही तो सुबु का नाश्ता कौन पकाएगा?” बड़बड़ करती,…बिना चाय की प्याली लिये रुक्न बी कमरे से बाहर निकल गईं। चारों लोग एक-दूसरे का चेहरा निहार रहे थे।
“तो ?” ग़ुलाबख़्श ने सवालिया निगाहों से सबको देखा।
“तो क्या,…अब जो होगा देखा जाएगा। इन्हें जो करना है, करें।…तुम कल साबिर को फ़ोन कर लेना।…सारी ज़िन्दगी इनका ख़याल रखते गुज़र गई फिर भी इनका पेट नहीं भरा।…अलीबख़्श वाली शहनाई जल्दी ठीक करवाओ। जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी। फ़िलहाल तो मुरादपुर जाकर दास एंड कम्पनी से एक नई ले आओ। हम साबिर को जुमा के दिन गंडा बाँधेंगे।” बोलते हुए फ़हीमबख़्श उठ खड़े हुए।
नूर मंज़िल में साबिर के स्वागत की तैयारियाँ शुरू हुईं।
*
साबिर जब जुमा के दिन नूर मंज़िल पहुँचा तो वहाँ का माहौल बदला हुआ था। भीतर वाले बैठकख़ाने की साफ़-सफ़ाई चल रही थी। बीच की मेज़ें हटा कर बैठने के लिए फ़र्शी इन्तज़ाम चल रहा था। इन सब कामों के लिए रुक्न बी के बेटे को बुलाया गया था। बाहर के बरामदे की तरतीब भी बदली हुई थी। फाटक और बरामदे के बीच जो छोटा-सा सहन था, उसकी सफ़ाई भी चल रही थी। सहन में बेतरतीब उग आई लतरों की काट-छाँट करके उन्हें तरतीब दी जा रही थी। भीतर जनानख़ाने में सबसे ज़्यादा भागदौड़ में रुक्न बी लगी थीं। बावर्चीख़ाना उनके ज़िम्मे था। दोपहर का खाना पका कर उन्हें रात के खाने के लिए लगना था। शामी कबाब की तैयारी करनी थी। गोश्त पकाना था। कई तरह के मसाले कूटने थे। मीठे में फ़िरनी और ज़र्दा पुलाव दोनों की माँग थी। रात के खाने पर घर के लोगों के अलावा संगतकारों को भी शामिल होना था। इनके अलावा दोनों भाइयों के कुछ ख़ास दोस्तों को भी दावत दी गई थी। यह रोज़मर्रा वाली रियाज़ की महफ़िल तो थी नहीं! आज उस्ताद नूरबख़्श के नवासे साबिर अलीबख़्श को गंडा बाँधा जाने वाला था। उस्ताद और शागिर्द दोनों के लिए यह ख़ास मौक़ा था। ग़ुलामबख़्श अपने साथ साबिर को लेकर नाज़ स्टोर गए और उसके लिए चिकन के काम वाला सफ़ेद लखनउवा कुर्ता और पाजामा ले आए। साबिर ‘ना-नुकर’ करता रहा, पर वे माने नहीं।
जुमा की नमाज़ के बाद दोनों भाई साबिर के साथ दस्तरख़ान पर बैठे। साथ बैठते हुए साबिर का जी घबरा रहा था। वह अपनी ज़िन्दगी में पहली बार दस्तरख़ान पर बैठ कर खा रहा था। इसके पहले तो उसने दस्तरख़ान का नाम भी नहीं सुना था। यह कौन-सी बला है, जानता भी नहीं था। खाना लज़ीज़ था, भूख भी थी, पर उसके कौर नहीं उठ रहे थे। सब कुछ सामने रहते हुए भी वह पेट भर खा नहीं सका।
शाम हुई।
सबसे पहले तबला वादक पंडित रामसिंगार महाराज पहुँचे। उनके बाद डुग्गी वादक पुत्तन लाल, साथ में शहनाई पर सुर भरने वाले मौजूद हुसैन और सफ़ीर ख़ान की आमद हुई। दोनों भाइयों के कुछ दोस्त पहुँचे। सफ़ेद कुर्ता-पाजामा में सजे-धजे साबिर अलीबख़्श को बीच में बिठाया गया। एक दुपलिया टोपी भी उनके सिर पर थी। पंडित रामसिंगार महाराज ने एक तश्तरी मँगवा कर उसमें रक्षा-सूत्र, रोली और अक्षत रखा। वह उस्ताद फ़हीमबख़्श के कहने पर अपने घर से ही ये सामान लेकर आए थे। उस्ताद बीच में आए। रक्षा-सूत्र साबिर के हाथों में बाँधा। रोली का टीका लगाया। दुआ पढ़ कर पहले अक्षत को अभिमंत्रित किया और साबिर के सिर पर डाला। सामने रखी हुई साबिर के अब्बू की शहनाई मुस्कुरा रही थी। उसके हाथ में नई शहनाई देकर उस्ताद फ़हीमबख़्श ने आँखें मूँद लीं और दोनों हथेलियों को सामने करते हुए फिर दुआ पढ़ी। सबने उसको को दुआएँ दीं और मुबारक कहा।…उस्ताद के अब्बा उस्ताद नूरबख़्श ने इसी तरह उनकी और ग़ुलामबख़्श की गंडा-बँधाई की रस्म की थी। रस्म पूरा करने के बाद उस्ताद ने कहा, “उस्ताद की आबरू शागिर्द के हाथ में होती है। अब हमारी आबरू तुम्हारे हाथ है। उस्ताद के बोल-वचन,…उस्ताद का हुकुम आख़िरी होता है। इसे टालनेवाले या न मानने वाले हुनर से महरूम रह जाते हैं। मौसीक़ी आबे-क़ौसर है। आबे-क़ौसर यानी जन्नत में बहने वाली नदी का पानी। इससे मीठा इस दुनिया में कुछ भी नहीं।”
इसके बाद महफ़िल शुरू हुई। उस्ताद फ़हीमबख़्श ने राग पूरिया शुरू किया। ग़ुलामबख़्श साथ दे रहे थे। मारवा थाट के इस राग के सुरों के अवरोह, सानि धप मग रेसा के साथ नूर मंज़िल में साँझ उतर रही थी। पूरिया के बाद पूरिया धनाश्री में उस्ताद फ़हीमबख़्श ने ठुमरी शुरू की। शहनाई पर पूरब अंग की ठुमरी के ‘बोलबनाव’ में उन्हें महारत हासिल थी। अपनी शहनाई लिये सबसे पीछे बैठा साबिर चकित भाव से इस नई दुनिया को ताके जा रहा था। वह जिस दुनिया से आकर यहाँ बैठा था, वह दुनिया उसे खींच रही थी। उसे लग रहा था कि पता नहीं वह यह सब कर पाएगा भी या नहीं! यह सब तो पीछे छूट गई उसकी ज़िन्दगी कब का निगल चुकी थी। अब क्या वह इस लायक़ रह भी गया है?…वह सोचता और उदास होता। सामने संगीत का जादू था, नई ज़िन्दगी के दरवाज़े से आती रोशनी थी, तो पीछे थी सत्तार मियाँ के गोदाम से आती खाल की बू और क़ब्रिस्तान के फाटक पर बनी फजलू की कोठरी में फैले गाँजा के धुएँ की उमगती हुई महक। साबिर के मन में चिलम की हुड़क उठी। लगा, उसका दम घुट रहा है। उसका जी कर रहा था कि सब कुछ फेंक कर भाग जाए। कहीं से भी चिलम पा जाए और दम लगा ले।…उसने सोचा, अगली बार वह भोज साह के बेटे की तरह सिगरेट में भर कर ले आएगा और लोगों की नज़रें बचा कर पी लिया करेगा।
साबिर चिलम के बारे में सोच रहा था और नूर मंज़िल में शहनाई गूँज रही थी।
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साबिर पीरमुहानी लौटा।
सुल्तानगंज से लौटते हुए देर हो गई थी। राधे की दुकान बन्द हो चुकी थी। फजलू की कोठरी का उठँगा हुआ पल्ला धकेल कर वह अन्दर घुसा। कोठरी में गाँजे की गंध भरी थी। फजलू गहरी नींद सोया था। क़ब्रिस्तान के भीतर आँगन से भी कोई आहट नहीं मिल रही थी। सब सो चुके थे। वह फजलू के सिरहाने हाथ लगा कर गाँजे की पुड़िया निकालने कोिशश कर रहा था कि उसकी नींद टूट गई। गहरी नींद से औचक जाग कर उठा फजलू। पूछा, “कब आए तुम?”
“बस आ ही रहे हैं।…लाओ, माल दो। साली जान निकल गई। दिन से रात हो गई और सूँघ भी नहीं सके हैं।” चिलम लहकाने के लिए आतुर हो रहा था साबिर।
फजलू ने पुड़िया पकड़ाते हुए उसे ग़ौर से देखा। नया कुर्ता-पाजामा पहने देख कर पूछा, “आज फिर नया कुर्ता मिला क्या ननिहाल से?…अबे, तुम्हारा तो नसीब खुल गया! एक हमारा नसीब देखो कि अल्लाह ने हमें मामू ही नहीं दिया। जो रिश्ते के थे, उनसे न कोई जान-पहचान और न कोई लेना-देना। अम्मी के मामू थे, तो वह अपनी बहन को यहीं दफ़न करके अपने निकल लिए सब्ज़ीबाग़ और फिर कभी मुड़ के न देखा।”
“वो भी तो यहीं आए दफ़न होने।” चिलम पर बोझने के लिए गाँजा मलते हुए साबिर ने कहा।
“हाँ दफ़न होने ही आए, हाल-समाचार पूछने नहीं। हमारे अब्बू ने ही उनकी कबर खोदी थी।” फजलू ने सुतली की गाँठ बना कर साबिर को दी।
चिलम सुलगा कर दोनों दम मारने लगे। साबिर ने साफी लपेट कर दम लगाया, लपक उठी और लहक उठी चिलम। फजलू बोला, “वाह उस्ताद! आज तो रंग में हो।”
“गए तब से तड़प रहे थे भाई।…वहाँ कोई जुगाड़ ही नहीं सूझ रहा था।… कल इन्तजाम के साथ जाना होगा।”
“कल फिर जाना है?”
“हूँ।” एक छोटी-सी हुँकारी भर कर चुप लगा गया साबिर। कुछ देर सोचता रहा। फिर उसने सुल्तानगंज का सारा क़िस्सा बयान किया।
फजलू सुनता रहा। फिर बहुत धीमी आवाज़ में बोला, “अच्छा है यार। जिन्दगानी बदल जाएगी तेरी।”
“पर हमको कभी-कभी भीतर से डर लगता है। टिक सकेंगे या नहीं! सब लोग अच्छे हैं, पर एक बात समझ में नहीं आ रही कि इतने अच्छे हैं, फिर हमारी अम्मा के साथ ऐसा काहे किया लोगों ने!” साबिर की आवाज़ में टूटन थी।
“देखो साबिर, अब तुम चूतियापा बन्द करो। आलतू-फालतू सोचना बन्द करो और जो हो रहा है, उसमें मन लगाओ या भाग लो। नहीं तो तुम्हारा हाल आधा तीतर, आधा बटेर वाला हो जाएगा। अबे, सत्तार मियाँ का आँड़ चाटने से तो बढ़िया है न शहनाई फूँकना।”
“सो तो है!” साबिर ने कहा।
दोनों तख़्त पर साथ ही पसर गए। साबिर को सुल्तानगंज जाने के लिए सुबह उठना था।
रात भर सबिर की नींद उचटती रही। आँखें लगतीं। नींद का झोंका आता और कुछ ही देर बात उसकी नींद उचट जाती। उसे लगता कि जैसे सुबह हो गई हो और दिन निकल आया हो। दिन चढ़े तक बेफ़िक्री के साथ सोए रहने वाले साबिर ने अपना चैन खो दिया था।
सुबह हुई।
वसन्त की खुनक भरी हवा झिरझिर बह रही थी। साबिर उठा और अपनी कोठरी की ओर भागा। बुढ़िया दादी जगी हुई थी। हर बार की तरह उसने साबिर को कोसते हुए फाटक का ताला खोल दिया।
आनन-फ़ानन नहा-धोकर तैयार हुआ साबिर। बाहर निकला। राधे की दुकान खुल चुकी थी। दुकान पर उन औरतों की भीड़ जुटने लगी थी, जो सुबह-सबेरे पीरमुहानी की गलियों से निकल कर दूसरे मोहल्लों के घरों में काम करने जाती थीं। राधे एक चूल्हे पर दूध उबाल रहा था और दूसरे पर चाय खौल रही थी। उसकी दुकान का यह सबसे व्यस्त समय होता था। सबको काम पर भागने की जल्दी पड़ी रहती थी। साबिर ने राधे को आँखों से इशारा किया कि उसे भी निकलना है। जल्दी-जल्दी चाय सुड़क कर वह चला। सामने क़ब्रिस्तान के फाटक पर अमीना थी। अमीना को देख वह उसके पास आया। पूछा, “चाय ला दें?”
“किसके लिए?”
“तुम्हारे लिए।…और किसके लिए?”
“हमको नहीं चाहिए चाह तुम्हारी।”
“अब भोरे-भोरे टिहुको मत। हम जल्दी में हैं अभी। एक जगह निकलना है। लौट कर बताते हैं सब तुमको।”
“हमको का पड़ी है कि टिहुकेंगे? हम तुमसे पूछ तो नहीं रहे हैं कि तुमको कहँवा जाना है! न पूछे हैं कि कल दिन भर तुम काहे नहीं दिखे!”
“मामू के पास गए थे। लौटने में देर हो गई। वहीं जा रहे हैं। लौटते हैं तो…।”
“लौटो या वहीं बस जाओ,…जैसी तुम्हारी मरजी।…अब मामू-ममानी मिल गए तो दूसरों की कौन जरूरत?”
“बात समझो। पगलेट की तरह मत बतियाओ। आते हैं, तब तुमको सारा किस्सा बतावेंगे।”
“जाओ।”
“जाएँ?” किसी अबोध बालक की तरह पूछा साबिर ने।
हल्की मुस्कान ऐसे तैर उठी अमीना के होंठों पर, मानो हौले से वसन्त आकर बैठ गया हो। बोली, “हूँऊऊऊ…जाओ।”
…और कमान से छूटे तीर की तरह भागा साबिर। आज से उसका रियाज़ शुरू होने वाला था। मामू ने बुलाया था। सुल्तानगंज पास तो था नहीं। पहुँचने में समय लगना था। यहाँ से दलदली गली होते हुए गाँधी मैदान और फिर वहाँ से ऑटो रिक्शा लेकर सुल्तानगंज पहुँचना होता था। पहले ही दिन वह अपने मामू की नज़र में ग़ैर ज़िम्मेदार नहीं होना चाहता था।…दलदली गली में थोड़ी देर चलने के बाद बाद उसे लगा कि वह कुछ भूल गया है।…जल्दबाज़ी में वह फजलू से माल लेना भूल गया था। सिगरेट तो मिल जाएगी, पर सुल्तानगंज में गाँजा कहाँ मिलेगा! सोचा उसने,…मिलता ही होगा। जब रोज़-रोज़ आना-जाना करना है, तो वहीं पता करना होगा।
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साबिर सुल्तानगंज से लौट रहा था।
सुबह जब वह नूर मंज़िल पहुँचा, उसके उस्ताद और बड़े मामू फ़हीमबख़्श उसका इन्तज़ार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने उसे शहनाई के बारे में बताया। शहनाई के हरेक हिस्से का नाम और उसका काम बताया। फिर उसे हाथों में पकड़ने और अपने मुँह तक ले जाकर फूँक मारने का तरीक़ा बताया। फूँक मारते हुए कई बार उसकी छाती घरघराई और उसका दम उखड़ा। उन्होंने पूछा भी, “सिगरेट पीते हो?”
“नहीं।” बेदाग़ झूठ बोल गया वह। कैसे बताता कि गाँजे की चिलम पर दम लगाए बिना उसकी न सुबह होती है और न ही उसे रात की नींद आती है!
“धुएँ वाले नशे से जितना बचोगे, उतनी ही लम्बी फूँक मार सकते हो। फेफड़े का काम है। ख़्याल रखना मेरी बात का।” उस्ताद फ़हीमबख़्श बहुत मीठा बोलते थे।
साबिर का कलेजा काँपा। पहले दिन ही उस्ताद को शक हुआ और उसने ना कह कर झूठ से शुरुआत की थी। उस्ताद उसकी फूँक ठीक करवाते रहे। अपनी शहनाई से सुर देकर सुर की पहचान करवाते रहे। बीच-बीच में वह उसके अब्बू अलीबख़्श के बारे में बातें करने लगते। कभी उसके अब्बू का कोई क़िस्सा सुनाने लगते, तो कभी अपने उस्ताद यानी उसके नाना के बारे में बताने लगते। इसके बाद छोटे मामू आए। ममानियाँ आईं। रुक्न बी नाश्ता ले आईं। मामू ने अपनी मीठी आवाज़ में प्यार के साथ कहा, “साबिर मियाँ, तुम शहनाईनवाज़ उस्ताद नूरबख़्श के नवासे हो। अब हाथ में अपना साज़ ले लिया है तुमने।…यह अच्छा नहीं लगता कि तुम क़ब्रिस्तान में पड़े रहो और नूर मंज़िल के कमरे ख़ाली पड़े रहें,…और चौखट तुम्हारे आने की राह निहारती रहे।…इतनी दूर से रियाज़ के लिए रोज़-रोज़ आना मुमकिन नहीं। हम लोगों को नहीं मालूम क़ब्रिस्तान वाली उस नेक औरत से बिलकीस का कौन-सा रिश्ता था! यह भी नहीं मालूम कि तुम्हारा उन लोगों से कैसा और कितना गहरा रिश्ता है! हम लोग यह नहीं चाहते कि तुम उन लोगों को छोड़ कर हमारे हो जाओ, पर इतना ज़रूर चाहते हैं कि तुम्हारा जो छूट गया है, वो तुम्हें हासिल हो।…हम लोग चाहते हैं कि तुम नूर मंज़िल आ जाओ। यहीं रहो, हम सबके साथ। यहाँ तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होगी, न मुहब्बत की और न ही रोटी की। ज़िन्दगी को एक सिलसिला मिलेगा। पहले ही बहुत देर हो चुकी है सीखने-सिखाने में। सब कुछ भूल कर बहुत समय देना होगा। दस-बारह घंटे रोज़। मौसीक़ी की दुनिया जुनून भरा मुहब्बत खोजती है।…ऊपर वाला कमरा देख लो। ग़ुस्लख़ाना भी अलग है। सारा इन्तज़ाम अपनी पसन्द से कर-करवा लो। हफ़्ता दिन में सब हो जाएगा। यहाँ रहोगे तो हम लोगों की देख-रेख भी हो जाएगी और तुम्हारी तालीम भी चलती रहेगी। रही बात तुम्हारी आमदनी कि तो हम लोगों ने अपने सब संगतकारों के लिए महीना बाँध रखा है। इसके अलावा हर प्रोग्राम पर सबको एक रकम भी देते हैं। यह सब तुम्हें भी मिलेगा।…और इसके अलावा भी ज़रूरत पड़ेगी तो तुम्हें किसी के सामने मुँह नहीं खोलना पड़ेगा। तुम्हारी बड़ी ममानी देखेंगी। हमारी जेब में भी यही दो-चार पैसे डाल देती हैं।…अब यह घर तुम्हारा भी है। हमने अपनी बात कह दी। तुम कुछ कहना चाहो तो कहो। अब यह तय करना तुम्हारे ऊपर है।”
साबिर उनकी बातें सुनता रहा। चुप रहा। वह तुरन्त हाँ या ना कहने की स्थिति में नहीं था। फिर छोटे मामू ने ऊपर ले जाकर कमरा दिखाया। छोटी ममानी साथ थीं। पहली बार वह बैठकख़ाने से भीतर घुसा। एक आँगन था। तीन ओर कमरे और बरामदे बने थे। दायीं ओर बड़े मामू का कमरा था। उसके बाद एक और छोटा कमरा, जिसमें कई तरह के साज़-सामान रखे हुए थे। एक बड़े आकार का ग़ुस्लख़ाना था। इसके बाद था फ़रहत बानो का कमरा। बायीं ओर ऊपर जाने के लिए ज़ीना था और इससे सटा रुक्न बी के लिए एक छोटा कमरा और बाबर्चीख़ाना था। सामने चौथी ओर ऊँची दीवार थी। इससे सटा एक नल लगा था। छोटे मामू ने बताया कि पहले यहाँ एक कुआँ हुआ करता था। उसकी अम्मा मदीहा बानो छोटी थी और एक बार उसमें गिरते-गिरते बची थी, सो उसे पाट दिया गया था। ऊपर पहले तल्ले पर था छोटे मामू का कमरा, ग़ुस्लख़ाना, दूसरे तल्ले पर जाने का ज़ीना और बड़ा-सा टैरेस, जिस पर फूलों के गमले थे। दूसरे तल्ले पर था वह कमरा जिसे साबिर की रिहाइश के लिए तैयार किया जाना था। बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला हवादार कमरा। कमरे में एक पलंग और मेज़ पड़ी हुई थी। पास ही था ग़ुस्लख़ाना।
साबिर अपनी ज़िन्दगी के बदलते हुए रंगों को देख कर हैरत में था। आॅटो रिक्शा में बैठ कर सुल्तानगंज से लौटते हुए उसकी आँखों के सामने नूर मंज़िल के आँगन, कमरों, सीढ़ियों, छत और दूसरे तल्ले पर बने उस हवादार कमरे की तस्वीरें आ-जा रही थीं और बुढ़िया दादी की कोठरी सहित फजलू की कोठरी, रसीदन ख़ाला के आँगन और क़ब्रिस्तान के भीतर फैली क़ब्रों की छोटी-छोटी ढूहों के साथ मिल कर गड्डमड्ड हो रही थीं।
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पीरमुहानी पहुँच कर सबसे पहले वह अपनी कोठरी में गया। कोठरी की दीवारों को निहारता रहा। बिलकीस ख़ाला की पेटी को देखता रहा। सामने दीवार वाली रैक पर रखी अम्मा-अब्बू की तस्वीरों के सामने खड़ा होकर उनके चेहरों पर आँखें टिकाए रहा। उसकी आँखें नमनाक हुईं। फिर वह निकल गया।
साबिर के ऊपर अजीब-सी बेचैनी तारी थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह ख़ुश होने वाले हालात हैं या दुखी होने वाले। जो मिल रहा था वह दौलत थी या जो छूट रही थी वह! छाती के भीतर कुछ लगातार हौल रहा था। वह राधे की दुकान पर पहुँचा। उसने चाय पी और फजलू की कोठरी में गया। वह नहीं था। क़ब्रिस्तान के भीतर रसीदन ख़ाला के आँगन में गया। आँगन में बैठा फजलू खाना खा रहा था। रसीदन बोली, “बैठ जाओ तुम भी। गरम-गरम भात है। खा लो।”
“पेट भरा है। भूख नहीं अभी।” साबिर ने कहा।
“का खिला दिया ममानी ने कि पेट में जगह नहीं?” अमीना ने तंज़ करते हुए पूछा।
कोई जवाब नहीं दिया साबिर ने। आँगन में बिछी खाट पर मौन बैठा रहा। फजलू के खाना ख़त्म करने का इन्तज़ार करता रहा। खाना ख़त्म करके फजलू जब चलने लगा, उसने उसे रोका और अपने पास बैठने का इशारा किया। फिर रसीदन और अमीना को आवाज़ दी। दोनों आईं। बोला, “खाला, तुमसे कुछ बात है।”
“बोलो।” रसीदन पीढ़िया खींच कर सामने बैठ गई। अमीना पास खड़ी रही। चुन्नी घर में नहीं थी। कहीं बाहर निकली थी।…साबिर ने गहरी साँस भरी। बात शुरू करने के लिए हिम्मत बटोरी और फिर सारा क़िस्सा बयान किया।
साबिर बोलता रहा और उसे बिना टोके सब चुपचाप सुनते रहे।
अपनी बात ख़त्म करके साबिर ने सबसे पहले अमीना की ओर देखा। उसके चेहरे पर सियाही छा गई थी। फजलू के चेहरे पर कोई रंग नहीं था। उसके लिए यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं थी। जब से साबिर ने सुल्तानगंज जाना शुरू किया था, उसकी बातें सुन कर फजलू को लगने लगा था कि यह होने वाला है। वह चाहता भी था कि साबिर निकल जाए इस जहन्नुम से। रसीदन एकटक साबिर के चेहरे को निहार रही थी। उसके चेहरे को पढ़ कर वह जानना चाहती थी कि उसकी मंशा क्या है। वह उसके भीतर चलते तूफ़ान को महसूस कर रही थी। रसीदन बोली, “साबिर, सबकी जिन्दगानी में ऐसा दिन नहीं आता।…तेरा अच्छा समय आया है, इसे गँवाना मत। हम लोग तो यही चाहेंगे कि तेरा भला हो।…चला जा। का रखा है यहाँ पर? न बाप-महतारी और न घर-दुआर!…रही बात हम लोगों की, तो आते-जाते रहना। रिश्ता बनाए रखना तो अपने हाथ में है। बचपन से साथ रहे हो, सो सूना-सूना लगेगा, पर समय सब भर देता है। मन लगा कर सीखना। साल-दो साल में सीख लोगे तो चार पैसे लायक आदमी बन जाओगे।…हाँ एक बात आज पहली बार अपना मुँह खोल कर कह रहे हैं कि अमीना के बारे में जो भी सोचा हो बता देना।”
रसीदन की आख़िरी बात ने पल-छिन में माहौल बदल दिया। अमीना, जो अब तक पास खड़ी बातें सुन रही थी, जाकर बरामदे में धम्म से ऐसे बैठी, मानो कोई माटी की दीवार बरसात में गिर गई हो। उसने बमुश्किल अपने आँसू रोक रखे थे। फजलू भी उठा और अपनी बैसाखी के सहारे टाँग घसीटता हुआ आँगन से बाहर निकला। रसीदन बैठी रही। साबिर बोला, “नहीं जाना हमको। यहीं रहेंगे।”
“अपने मन को सँभाल कर,…सोच कर काम करना चाहिए।…आदमी अगर मन का सच्चा हो, तो कुछ भी नहीं छूटता। सब बना रहता है।” कहते हुए उठी रसीदन और वह भी बाहर निकली। साबिर आँगन में बैठा रहा। चुन्नी आई। बरामदे में अमीना को और आँगन में खाट पर साबिर को चुपचाप बैठे देख कर निहारा और भीतर वाली कोठरी में चली गई।
साबिर उठा और उसने अपने पीछे-पीछे आने के लिए अमीना को इशारा किया। अमीना उठी और उसके पीछे चली। उसके पाँवों में जैसे किसी ने पत्थर बाँध दिए हों। वह पैर घसीटते हुए चल रही थी। उसकी कमर से लेकर पाँव की पिंडलियों तक में अजीब सी चिलकन भर गई थी और दर्द नसों में दौड़ रहा था।
दोनों क़ब्रिस्तान के भीतर थे। दाता पीर मनिहारी के हुज़ूर में खड़े थे। साबिर आगे और अमीना उसके पीछे। उन दोनों के इर्द-गिर्द लालसाओं के अन्धेप्रेत नाच रहे थे। फागुन की हवा जाने किस ठौर अपनी नशे की डिबिया गिरा आई थी और जेठ-बैसाख की हवा की मानिन्द उझंख होकर बह रही थी। क़ब्रों पर उगी दूब की लतरें झुलस उठीं। साबिर ने पीछे मुड़ कर अपनी पीठ के क़रीब खड़ी अमीना को देखा और अपनी दायीं बाँह बढ़ा कर उसे सहेज लिया। मस्जिद की पिछली दीवार और मज़ार के बीच की जगह पर ले आया। दोनों दीवार से अपनी-अपनी पीठें टिका कर बैठ गए।
क़ब्रिस्तान में धूल उड़ रही थी। हवा नई क़ब्रों की माटी उटकेरती और ऊपर उछाल देती। धूल नाचने लगती। क़ब्रिस्तान की पच्छिमी दीवार के पास के पेड़ ऐसे हिल-डुल रहे थे जैसे उन पर प्रेतों की सभा बैठी हो। करंज की झाड़ियों को हवा मरखहवे साँड की तरह रौंद रही थी। साबिर ने अमीना को एक बाँह से समेट कर अपनी गोद में छिपा लिया।
साबिर की गोद में अपना मुँह छिपाए अमीना हिचकियाँ बाँध कर रोती रही। उसकी आँखों से जल बहता रहा…बहता रहा। इतना जल बहा कि हवा की तपन सिरा गई। जल में घुल कर धूल धरती से जा लगी। क़ब्रों के ढूह डूब गए। सिर्फ़ दाता पीर मनिहारी का मज़ार बचा था। साबिर ने अपनी गोद में छिपी अमीना पर से अपना कसाव ढीला किया। निहारा उसे। उसके सघन केश चेहरे को ढके हुए थे। साबिर ने अपने हाथों से केशों को सहेज कर चेहरे से हटाया। रो-रो कर अमीना की आँखें दाड़िम के रक्तिम फूलों की तरह दिख रही थीं। उसकी इन आँखों में संशय नहीं था, पर सपनों की उदास, कातर और खंडित छायाएँ मँडरा रही थीं। नीचे झुका साबिर। नीचे,…कुछ और नीचे। अमीना की ज़ुल्फ़ें किसी सर्पिणी की तरह उमगती हुई ऊपर उठीं। उसके चेहरे को छूकर फिर नीचे आईं। उसके चेहरे ने अमीना के चेहरे को स्पर्श किया। साँसों के जाल में उलझ गए दोनों के चेहरे। आकाश से पृथ्वी पर ठोप भर मधु टपका। साबिर के होंठों ने अमीना के होंठों को हौले से छू लिया।
अमीना ने तुरन्त अपना चेहरा साबिर की गोद में गोत लिया। कुछ देर साबिर उसकी ज़ुल्फ़ों में अपनी उँगलियाँ फिराता रहा। अमीना उसकी गोद में सिर रखे लम्बी-गहरी साँसें भरती रही और साबिर की छाती की धड़कन सुनती रही। साबिर ने कहा, “हम कहीं नहीं जाएँगे।”
“नहीं। तुम जाओगे। हमारे माथे पर हाथ रख कर किरिया खाओ कि जाओगे और शहनाई सीख कर अपने अब्बू की तरह नाम कमाओगे। अल्लाह किरिया हमको तुम पर बहुते भरोसा है।” अमीना ने कहा।
मज़ार के पास उगे जटामासी के पौधों के पास गौरैयों का झुंड दाना चुग रहा था। रोज़ सुबह अमीना मुट्ठी भर अन्न के दाने डाल जाती थी। एक ढीठ गौरैया ने अमीना के पैर के पास आकर उसे छू लिया।
अमीना उठी। साबिर भी उठा। दोनों ने दाता पीर मनिहारी के सामने खड़े होकर दुआ पढ़ी। गौरैयों का झुंड उड़ कर इधर-उधर बिखर गया।
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हृषीकेश सुलभ
जन्म और आरम्भिक शिक्षा : 15 फ़रवरी 1955, सीवान जनपद के लहेजी नामक गाँव में।
प्रकाशित रचनाएँ रचनाए : अग्निलीक (उपन्यास), हलंत, वसंत के हत्यारे, तूती की आवाज़, प्रतिनिधि कहानियाँ और संकलित कहानियाँ (कथा-संग्रह) , अमली, बटोही, धरती आबा (नाटक), माटीगाड़ी (संस्कृत नाटक मृच्छकटिक की पुनर्रचना), मैला आँचल(रेणु के उपन्यास का नाट्यान्तर), दालिया (रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित नाटक।),रंगमंच का जनतंत्र, रंग-अरंग (नाट्य-चिन्तन)
सम्पर्क : पीरमुहानी, कदमकुआँ, पब्टना 800003 / 09973494477
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