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पल्लवी पद्मा उदय की कविताएँ

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पल्लवी पद्मा-उदय द्विभाषी लेखक, पत्रकार और कवि हैं। यूनाइटेड किंगडम की क्वींस यूनिवर्सिटी में बिजनेस हिस्ट्री के अध्ययन के साथ-साथ उनका पहला अंग्रेजी कविता संग्रह २०२२ में प्रकाशित हो रहा है। इसके पहले पल्लवी लंदन में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पोस्टग्रेजुएट अध्ययन कर रही थीं।
आयरलैंड आर्ट्स काउंसिल के आर्टिस्ट ग्रांट के साथ वह अपने दूसरे कविता संग्रह पर भी काम कर रही हैं। पल्लवी से आप उनके वेबसाइट www.econhistorienne.com पर संपर्क कर सकते हैं। ट्विटर पर @econhistorienne पर आप उन्हें ट्वीट कर सकते हैं।
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1. तुम जेल में हो
 
अपने ही घर में क़ैद कर दिए जाओ
वैसी ज़िन्दगी कैसी लगती है?
रोज़मर्रा का दायरा तुम्हारा
जब कुछ नारों में सिमट जाए
जब मन के भाव गले में आकर फँस जाएं
जब दिल जल रहा हो अंदर से
पर आंसू सूख जाएँ
जब अभिव्यक्ति के अधिकार
पुलिस के डंडों से मसल दिए जाएँ
तुम बोलों दोस्त, वो जो बोलते हुए
चुप करा दिए गए
और जो बोल ही न सके,
तुम्हें आज जेल के सराखों की
ज़रुरत ही क्या है
क्या है ज़रुरत, जेल देखने की,
जेल जाने जैसा कुछ करने की
कुछ उनका बचाने की, कुछ अपना गंवाने की
जेल की हवा खाने की,
कानून के लिए कानून बनाने की
सब भस्म हुआ जाता है,
क्या है जिसे ज़रुरत है बनाने की
आंखें खोलो, आवाज़ निकल नहीं रही तुम्हारी
लाल होती शाम में सांस लेने का वैभव
सब कालिख हुआ जाता है
अब तुम्हें जेल जाने की ज़रुरत नहीं है
तुम जेल में हो.
 
 
2. तुम्हारा शहर
 
तुम्हारे शहर में आना
जैसे अनजान भीड़ में खो जाना
यार सभी आए हुए हैं
मेरे हल्के सामान का
उदासीन बोझ उठाने
पर सुबह गाड़ी में बैठते हुए
सिर्फ तुम्हारे बारे में ही सोचा था –
जैसे तुम्हें अचंभा होगा
और कितना हम रोएंगे
अब यहां की गलियों में
सड़कों और यादों के बीच
खो से गए हैं
तुम अगर लेने आ जाते
तो कितना अच्छा होता।
 
 
3. आमंत्रण
 
वो बुलाता है मुझे
आओ पल्लो, वो बुलाता है
उसकी आवाज़ समंदर चीर के
दिल के कल तक आती है
मैं नदिया सा उमड़ती हूँ, थोड़ा हिचकती हूँ
वो फिर बुलाता है – आओ पल्लो
आओ, संम्भल के आना, इस दौर की गलियों में मुड़ो
तो ज़रा देख के मुड़ना
कीचड़ जैसे अपमान हैं, फिसल न जाना
वो कह देंगे तुम्हें बेअकल,
तुम डर मत जाना.
तुम धीमा चलना, ज़माने की रफ़्तार तेज़ है
वो भागते हैं आंधी सा, पर बंध जाते हैं अतीत में
तुम आगे देखना, देखो सर ऊंचा रखना
इस अन्धकार में देखना ज़रूरी है
ज़रूरी है आशा भी, तुम दीपक लेकर आना
पाँव तले धरती है, तुम ओस की बूँद सा बरसना
थोड़ा थोड़ा देना जीवन, थोड़ा थोड़ा सपने देखना
बड़ी क्रांति किसे चाहिए, थोड़े थोड़े से घड़ा भरता है,
पल्लो, जब तुम्हारे सपने धरती से बड़े हो जाएँ
तो डरना, बहुत डरना पर अभी आओ,
धरती पे आसमान जैसा धीरज रखकर
आ जाओ.
वो बहुत इलज़ाम लगते हैं पर तुमने किसका लहू पिया है
क्रांति के नाम पे लहू सामान धरती मिलेगी सफर में,
सदियों से उनके दाग उन्हें डरा नहीं सके
पर तुम डरना, बेशक डरना
ये भविष्य की अतीत पर जीत है –
तुम्हारा आना, डूबते हुए सूरज जैसा उनकी मतधारा को
नए भारत का ह्रदय दिखाना।
कई बार लगता है बदल चुका है सब कुछ
कई बार विचलित हो जाता हूँ
पर रंग लाल से गेरू होते, कुछ चुप होते,
कुछ बहुत बोलते इस दलदल में
ये देख सबसे भयभीत हो जाता हूँ
तुम चलते रहो, इसीलिए राह बना रहा हूँ
पुरानी पीढ़ी के आंदोलन पर नए भारत का पुल
एक ईंट तुम्हारी भी है, आओ –
बचाने के लिए नहीं, बनाने के लिए.
 
 
4. सामर्थ्य
 
बारिश नहीं हो रही है
तो क्या रहने दें
रेगिस्तान से गांव
मरे हुए सपनों से पूछो
क्या होता है
ज़िंदा होने का सुख
सब फूल झड़ जायेंगे
फिर भी पौधों को
लगी रहेगी बसंत की आस
पहली बार नहीं हुआ यह
कि डर जाएं पक्षी
आंधियों से
प्रलय होगा तो फिर से
सृष्टि संवारने
मनुज ही आएंगे
अंधेरी रात है पर
इंतज़ार मत कर सवेरे का
मशाल जला, कुछ शोर मचा
 
5. कीचड़
कीचड़ में गिरे तुम क्या ख़ूब मैले निकले
जब मौक़ा मिला धवल नेह का
तो चीख़ उठा तुम्हारा प्यार –
आह मुझे सौंदर्य का वरदान ना दो,
मैं तो माटी के दलदल का वो गहरा गूढ़ हूँ
कि तुम जब पुकार लेते हो
मीलों नीचे गड़ जाता हूँ
और कहता हूँ – इस कायर को
अब ऊँचाइयों का अभिमान ना दो,
इस गिरे को देखो भी मत –
हवा चंचल और रसिक जल थल का
सूखे मरुथल को संज्ञान ना दो ।
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