भगवंत अनमोल का उपन्यास ‘ज़िंदगी 50-50’ इस साल का सरप्राइज़ उपन्यास बनता जा रहा है। हर तरह के पाठकों में अपनी जगह बनाता जा रहा है। इसका पहला संस्करण समाप्त हो गया है। आज इस उपन्यास की समीक्षा लिखी है कवयित्री स्मिता सिन्हा ने- मॉडरेटर
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एक ही समाज में विचारों के कितने विरोधाभास । आप एक तरफ़ तो प्रगतिशील होने का दावा करते हैं , वहीं दूसरी तरफ़ जकड़े रहना चाहते हैं उन्हीं सदियों पुरानी दकियानूसी और रूढ़िवादी मान्यताओं में । एक ओर आप बंदिशों से मुक्ति की बात करते हैं , वहीं इसी समाज में व्याप्त अश्लील चित्रवृत की भांति एक वर्ग अभिशप्त है गुमनामी के अँधेरे में रहने को । हम so called liberal होने की बात लाख कर लें , लेकिन जब बात थर्ड जेंडर , ट्रांस जेंडर , होमोसेक्सुअल जैसी मुद्दों पर आती है तो हम चुप्पी साध लेते हैं । हमारी थोथी बुद्दिजीविता का पता तब लगता है जब हम इसे एक वर्जित विषय मानकर आसानी से इसे हाशिये पर लाकर छोड़ देते हैं । जब जब इन मुद्दों को जायज विमर्श का केंद्र बनाया जाता है, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय फलकों तक पर उथल पुथल होने लगती है ।
भगवंत अनमोल के नॉवेल ” ज़िन्दगी 50-50 ” में इसी दिशा में पहल की गयी है कि किन्नर भी समाज की मुख्यधारा में शामिल एक सामान्य इंसान समझे जायें । इन्हें भी इनके मौलिक अधिकार दिये जायें । पूरी कहानी के दौरान अनमोल इस बात की पुष्टि करते दिखते हैं कि लिंग त्रुटि या बर्थ मार्क कोई शारीरिक विकलांगता नहीं । हार्मोनल डिसऑर्डर या क्रोमोज़ोम डिसीज़ को अछूत रोगों की श्रेणी में नहीं रख सकते । अनमोल की वास्तविक जीवन पर आधारित यह कहानी समाज में सबसे उपेक्षित और वंचित किन्नर वर्ग की कहानी है । ” ज़िन्दगी 50-50 “ताना बाना है उन जिंदगियों का जिनके अंदर कई कई जिंदगियाँ बनती मिटती रही हैं । एक ऐसे वर्ग की कहानी , जिन्हें हम पहचानते तो हैं , पर जिनके बारे में जानते नहीं , न ही जानना चाहते हैं । अपने घर और बाहर हर रोज़ संघर्षरत उन इंसानों की कहानी , जिनके लिये महज इंसान होने की ख़्वाहिश रखना भी एक गुनाह है ।
अनमोल की ज़िंदगी में तीन कहानियाँ समानांतर चलती हैं । एक वर्तमान में और दो फ्लैशबैक में । पहली , उनके बेटे ‘ सूर्या ‘ के रुप में और दूसरी उनके छोटे भाई ‘ हर्षा ‘ के रुप में । और तीसरी उनकी प्रेमिका ‘ अनाया ‘ के रुप में । नियति ने जहाँ सूर्या और हर्षा को किन्नर बनाया है , वहीं अनाया को अपने चेहरे पर मिले बर्थ मार्क की वजह से उपेक्षित किया जाता रहा है ।
हर्षा, एक पुरुष शरीर में स्त्री मन और वैसी ही जरूरतें । भयावह और कठिन परिस्थितयों में ज़िंदगी जीने की जद्दोज़हद करता हुआ हर्षा । अपने भीतर जिंदा बचे हिस्से को बचा ले जाने की कवायद करता हर्षा । बेफ़िक्र होने वाली उम्र में ख़ौफ़ के साये में जीवन जीता हर्षा , जिसके लिये अनमोल ही वह झरोखा था जहाँ से उसके जीवन को हवा और रौशनी मिलती थी । हर्षा से हर्षिता होता हुआ और फ़िर पिता की खुशी के लिये उसी हर्षिता को रात के अंधेरे में धीरे धीरे खोता हुआ हर्षा ।
सूर्या, जिसके जीवन की जटिलताएँ इसलिए भी कम हो गयीं की उसके पिता पहले ही इन परिस्थियों को देख चुके थे । अनमोल जो कुछ अपने भाई के लिये नहीं कर पाये थे , वे अपनी संतान के लिये करना चाहते थे । सूर्या के जन्म लेते ही उन्होंने सोच लिया कि जिस दुर्व्यहार और जिल्लत का सामना हर्षा को करना पड़ा था , वो सब कुछ सूर्या के साथ नहीं होगा । वो सम्बल बनेंगे अपनी संतान की और खड़ा करेंगे उसे अपने पैरों पर यहीं इसी समाज के बीच रहकर ।
कहने और करने में सबसे बड़ा फर्क यही है कि जिन बातों को हम सोचना भी नहीं चाहते , अनमोल वो सबकुछ करके निकल गये । कहानी की भावनाओं के उतार चढ़ाव में आप डूबते उतरते चले जाते हैं । और जब रुकते हैं तो सबकुछ शाँत सुव्यवस्थित सा लगता है । क्रोध , क्षोभ , निराशा जब हमारे ऊपर हावी होने लगती है तो बिल्कुल ठंडी हवा के झोंके सी लगती है अनाया और अनमोल की प्रेम कहानी । बिना किसी उम्मीद , बिना किसी दायरे , बिना किसी शर्तो के पूरी ज़िंदगी निभता चला जाता अनाया का प्रेम ।
कहानी पढ़ते पढ़ते अनमोल मुझे larger than life लगने लगे । एक ऐसा हीरो जो हर किसी की ज़िंदगी में होना चाहिये , ताकि बेतरतीब सी पड़ी जिंदगियों को बड़े सलीके से सम्भाला जा सके । जब तक आप सामने वाले के दर्द को अपनी रूह तक महसूस नहीं कर सकते , कभी नहीं जी सकते ऐसी ज़िंदगी जैसी अनमोल ने जी है । उनके एक एक रिश्ते धड़कनों तक महसूस होते हैं । कितनी बेचैनी , कितनी विवशता , एक ही देह में बँटी जाने कितनी देह , हर देह का अपना एक दर्द , थोड़ा थोड़ा दुखता , थोड़ा थोड़ा रिसता हुआ सा ।
हालांकि ये अनमोल की तीसरी किताब है । फिक्शन के जॉनर में महज दूसरी । बावज़ूद एक गम्भीर , परिपक्व लेखक के तौर पर उन्होंने अपने आपको साबित कर दिया है । उन्हें बखूबी पता है की एक लेखक को अपने किरदारों को कितना स्पेस देना चाहिये । इस कहानी में न तो उन्होंने बेफ़िजूल की बयानबाजी की है , न ही किन्नरों के हक में आदर्शवाद झाड़ा है । जो है, जैसा है , आपके सामने है । आप देखिये, पढ़िये और समझिये कि हम कहाँ और कितने गलत जा रहे हैं । अनमोल ने न केवल किरदारों की सँवेदनाओं को ठोस धरातल दिया है , बल्कि विषय को भी भटकने से बचाया है ।
कहानी झकझोरती है , परेशान करती है , सवाल उठाती है मानवीय सँवेदनाओं और मूल्यों पर , लेकिन खुद को हम पर थोपती नहीं । सवाल उठाती है जाने ऐसे कितने अनुत्तरित सवालों पर जो आज भी अपने ज़वाब के लिये प्रतीक्षारत हैं । परिवेश के अनुसार भाषा का चयन हमें कथानक के प्रति सहज रखता है । वर्तमान के साथ फ्लैशबैक में चलती कहानियाँ कहीं भी भ्रमित नहीं करतीं। एक पाठक के तौर पर यदि मैंने इस किताब को महज एक सिटिंग में ख़त्म कर लिया तो इसका श्रेय अनमोल को ही जायेगा कि उन्होंने अपने सफ़र में मुझे हमसफ़र बना लिया । कहानी की स्वाभाविकता आपको बरबस बाँध लेती है और आप इससे छूटना भी नहीं चाहते । हर्षा की मौत आँखों को नम भी करती है और सूर्या की सफलता पर मुस्कुराते भी हैं । एक अफ़सोस भी होता है जब पता चलता है कि अनाया अपने और अनमोल के बेटे को अकेली पाल रही है । बहुत सारी बातें टीस बनकर चुभती हैं , पर चंद खुशियाँ इनसे बढ़कर लगती हैं ।
धीमे धीमे सधे क़दमों के साथ तमाम नकारात्मक परिस्थितयों से जूझते हुए अनमोल हमें वहाँ तक पहुँचाते हैं जहाँ आँखों में चमकती है एक उम्मीद ज़िंदगी की । बेहद उलझी सी ज़िन्दगी को धैर्यपूर्वक सुलझाती हुई एक समझदार कहानी ज़िन्दगी 50-50.