अनामिका अनु को एक कवयित्री के रूप में हम सब पढ़ते आए हैं। उनको कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल चुका है। यह उनकी पहली कहानी है। आप भी पढ़ सकते हैं-
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मीनल सोलह साल की हो गयी है। अब वह माँ के तकिए रोज सबेरे धूप में डाल आती है और शाम को चादर के साथ तकिये का कवर बदलना नहीं भूलती। एक डायरी, कलम और कुछ नीले-पीले सफेद फूल सिरहाने में रख देती है।कभी-कभी वह सिरहाने में रख देती है गजरा जो वह मोल लाती है पद्मनाभास्वामी मंदिर के पास वाली दुकान से। उसकी गमक माँ की रात में गंध जोड़ती है और सपनों के नसीब में आता है एक ताबीज़ जो हर लेता था मन की सारी पीड़ाओं को। मध्य रात्रि में माँ की सब पीड़ाएँ परिजात के फूल बन बिखर जाती हैं माटी में !
न माँ पूछती है, न बेटी बताती है। जताती तो कुछ भी नहीं। चुप माँ की आँखों में शहर की सारी धूल और नींद होती है। शाम होते ही माँ की गदरायी आँखों में पीड़ा के पक्षी झुंड में आते हैं, मानो माँ की आँखें पीड़ाओं के घोंसले हों। माँ की रातों में अनंत परछाईयों का डेरा है, विचित्र आकृतियों का आना जाना और एक असह्य रिक्ति है। उसकी आँखें हमेशा कुछ टोहती रहती हैं , मीनल, पति, दीवार, ऑफ़िस की घड़ी और सड़क की पगडंडियों पर।
उसकी मुस्कान- काठ की नाव, उन पर शब्दों की कई रंग-बिरंगी गठरियाँ पड़ी रहती हैं, न माँ उन्हें खोलती है, न मीनल उनसे आग्रह करती है।
माँ की आँखों में प्रतीक्षा की टीस है क्योंकि वह बंद दरवाजों के पीछे का इंतज़ार है। हवा कई बार आयी, ठकठका कर गयी। बेचैन माँ ने उठकर नहीं खोला दरवाजा। कई बार मीठी धूप दरवाजे और दलान पर रंगोली बना कर चली गयी।
माँ क्वांटम फिजिक्स पढ़ाती है और फोटॉन गिनते-गिनते साँझ हो गयी। आजकल माँ क्वांटम मैकेनिक्स के बजाय मेथेमेटिकल फिजिक्स की किताबें पढ़ने लगी है। हैलिडे रस्निक बनाते देख मीनल से पूछती है “आसान है न?”मीनल भींगी मुस्कान के फुहारों से माँ का मन भीगाती है। मीनल पहले ऐसी नहीं थी। गुस्से से चीखती चिल्लाती, माँ की लापरवाही पर टोन कसते पिता के साथ मौन स्वीकृति में खड़ी।
माँ भी पहले इतनी चुप कहाँ थी? ये चुप्पी उम्र की इनायत थी। वह जब उस फूल वाले से बातें करती थी तो नीले-पीले सफेद कितने फूल माँ के आँखों में तैरने लगते थे। मुस्कान की नाव पर कितनी कविताएँ छिटक जाती थी। मुस्कान तब यूँ काठ-सी कहाँ थी? वह हरी थी और फूल से लदी भी।
वह न जाने कौन-सी बातें करता था, माँ खूब हँसती थी। कितनी किताबों के चर्चों से भरी बातें, नीलकंठी बातें। वह माँ के क्लेश अपने संवादों में सोख लेता था। माँ हल्की, मुस्कुराती खोयी-खोयी और हम सब से दूर अलग-सी दुनिया का झरना हो गयी थी।
सब देख रहे थें। न मीनल की पढ़ाई पर ध्यान था माँ का। न पापा के तन्हा पलों की जिम्मेदारी। पापा और मीनल मिलकर बाँट रहे थें उन बेस्वाद और उपेक्षित फलों की असह्य पीड़ाओं को।
माँ खुद में खोयी, घुली और संतृप्त। मीनल और उसके पापा प्यास से तड़प रहे थे। वह कलम, कविता और उस फूल वाले के संवादों से संपूर्ण। माँ का स्वार्थ और मीनल के पिता का एकाकीपन समांतर रेखाओं पर विचरण कर रहा था। समय की रेल चल रही थी। दोनों पटरियाँ थरथरा रही थी। पर अलग-अलग, समानांतर, दिशा एक पर अलगाव विलक्षण।
पिता की आँखों का दर्द, माँ की रूखाई और हर पल ‘नॉन इंटेलैक्चुअल’ के तानों से गूँज रहा था घर। मितभाषी पिता की आँखों से टपकता दर्द शहतूत सा मीनल के श्वेत मानस पटल पर कई दाग बनाता गया। कड़वी स्मृतियों से रंगे उसके मन पर पिता बिछ गये थे। प्रेम पहले भी पिता से ज्यादा था, माँ की डाँट ,गुस्से और अनुशासन की बातें पहले ही उसे माँ से दूर कर चुकी थी। पर इन दो सालों में जब माँ फूल वाले की खुमारी में थी तो मीनल पिता की धड़कन बन गयी थी। दोनों को बस एक ही डर सता रहा था कि माँ उनकी दुनिया से अलग न हो जाए। वह हाथ झटक रही थी और बाप-बेटी उसे कस कर अपनी ओर खींच रहे थे। इस अदृश्य रशाकस्सी में सबके हाथ छिल गये थें।
धीरे-धीरे पानी बह रहा था, मीनल और उसके पिता बाँध नहीं बना पा रहे थे। वे उसकी खुशी में खुश होना तो चाहते थे पर ये कैसी खुशी थी जो उन्हे दफ़न कर देती और वे अभी मौत मान ले, संभव ही नहीं हो पा रहा था।
माँ की कई कविताएँ, कई कहानियाँ, कुछ रेखाचित्र अधूरे पड़े थे, वह दर्द से कभी नहीं चीखी, पर उसकी आँखों की चीख पलकें कहाँ दबा पाती थीं। खाली पेट थॉयराईड की गोली फाँकती, सोफे से लगकर दीवार को आँखों से चबाती माँ अब न डरपोक रही, न निडर।
उसके बालमान का वह दर्द था या उसके भीतर का विद्रोही युवा दबा दिया गया था, परिवार की वैचारिक और व्यवहारिक उपेक्षा थी कि विश्वविद्यालय सहकर्मियों की जटिलता या फूल वाले की याद। कारण जो भी रहा हो। माँ को अवसाद ने थरथराते हाथों से छुआ था। मीनल और पति उसका सहारा थे, आँखें कहती थी पर जबान पर असह्य चुप्पी। परिवार की हर खुशी में शामिल। विश्वविद्यालय में सब कुछ सामान्य, घर के सब काम हो रहे थें। वह एक रोबोट सी, जितना अपनों, दूसरों के लिए जरूरी उतना ही जी रही थी, अपने लिए कहाँ जी पा रही थी?
अवसाद ने तलवे में चिकनाई लगा दी थी, माँ फिसल रही है। मीनल थाम रही है, माँ संभल रही है। अगल-बगल खाईयाँ हैं जो माँ के आँखों में धँस गयी है। माँ डर से आँखें मूँदे रहती है। वह किताबों से ढँक लेती है अपना चेहरा। उसके उलझे बालों में तेल लगाती मीनल कहाँ गाती है लोरियाँ? पर माँ बाल सुलझाने के क्रम में ही सोने लगती और लगता है मानो नींद की गोली सा उसका स्पर्श घुल गया है माँ के पानी जैसे तन में।
फोन बजता रहता, वह नहीं उठती। संबंधी, मित्र और सब संबधों से प्रस्तर विरक्ति।शब्दों को पढ़ती, गढ़ती,पीती-पचाती, लिखती पर बोलती नहीं। न टीवी, न मोबाइल, बस कलम, गजरा और रात के बासी भींगे तकिए की नमी में सूजे गाल और फूली आँखों के साथ गुजरते थे माँ के वे छटपटाते दिन।
कोई गहने नहीं डालती, बाहर जाती तो कभी मोती पहन लेती। मोती उसे पसंद थें पर घर में उसे भी तन से नहीं लगाती। वजन कभी अचानक ही बढ़ जाता, कभी घट जाता। सूरज सा जलता उसका देह घटता-बढ़ता चाँद हो गया था और आँखें झरना जिससे रिक्ति बहती थी। मीनल तड़प उठती थी जब माँ उसे देख मुस्काती थी, वह दर्द से लबालब मुस्कान उसके कलेजे को विषपिपरी की तरह चिपक कर कुदेरती थी। माँ की आँखों के आसपास मीनल का दिल जोर-जोर से धड़कता था।
माँ नदी बन चुकी थी जिसके पेट में थी असंख्य मछलियाँ। तैरती मछलियों से सिहर उठता था उसका तन। माँ अपनी उँगलियाँ किसी को छूने नहीं देती थी, उसने उन थरथराती उँगलियों से एक दिन साँझ को छुआ था और साँझ छूते ही ढ़लकर रात हो गयी थी। ठंडी उस साँझ ने उसकी उँगलियों को बर्फ कर दिया था। उसके पास आज सबसे बेशकीमती कुछ है तो बस ये उँगलियाँ जिसने साँझ के गहरे नारंगी और राख रंग में डूबकर लिखी थी पहली नज़्म,पर उसके बगल में वह लिख नहीं पाती थी अपना नाम ।शायद इसलिए साँझ होते ही माँ सो जाती है और मध्यरात्रि से जागकर नज़्म गढ़ती पढ़ती ….
वह फूल वाला था, या पिता की जिद जो माँ के तलवे पर चिकनाई मल गया, इससे जरूरी प्रश्न ये था कि माँ डगमगा रही है और उसके पैर फिर से कैसे जमे मिट्टी पर?
वह उम्र के चौथे दशक में थी, एक रिक्ति है जो दीवारों से घिरती जाती थी अकेलापन भीतर की ओर ढहाता जाता है। उसकी आँखें प्लेटफार्म सी हो गयी थीं जो इंतज़ार में थी रेल के और उसे लगता था, उस रेल से आएगा, उसका फूलों वाला दोस्त।
मन में मित्र को बुनते रहना कितना श्रमसाध्य था उसके लिए। खाँचा बना कर हर मिली मूरत को उसमें समायोजित करने की कठिन जद्दोजहद। उसकी उम्मीद फाँसी के फँदे की तरह आ लटकती थी, चेहरे के ठीक सामने गले के बिल्कुल पास।
ज्यों-ज्यों रिक्त गहरा होता था और अँधेरा बढ़ता था, दीवारें पहले से ज्यादा अभेद्य हो जाती थी। ख़्वाबों में विपदाएँ पीछा करती हैं क़लम किताब से अलग खड़ी वह व्यक्ति ढूँढ़ती थी। कुछ सफेद नीले चेहरे, रंग पुते उसके सामने विचित्र मुद्राओं में खड़े हो जाते थें।
उसे फूल वाले जैसे मित्र की तलाश थी जो बैठे थामे हाथ सुने घंटों, तोड़े चुप्पी, साथ हँसे, साथ रोए जो निर्णय नहीं दे,सलाह भी नहीं पर समझ सकने का हुनर रखता हो। मीनल को वही फूल वाला दोस्त बनना चाहती थी माँ का। इससे पहले कि उन दीवारों के भीतर अवसाद की कंटीली झाड़ियाँ उग आएं, साँपों की नस्लें फुफकारें, विष के चढ़ने से ठीक पहले मीनल को ढहानी थी वे दीवारें, वे अभेद्य क़िले। उसे भरना होगा उस रिक्त को अपने प्यार, विश्वास, उनकी कविता और फूलों की खेती से।
माँ को भावात्मक और बौद्धिक संसर्ग की जरूरत थी। मीनल और पति उसकी जरूरतों को समझ पाने का साहस नहीं कर पाए। उनकी बेरुखी, लापरवाही और बिगड़ते तेवर ने माँ के पाँव जकड़ लिए। वह चीखी, चिल्लायी, सिर पटका। परिवार टस से मस नहीं हुए। वह हाथ जोड़ पाँव पकड़ गिरगिरायी, सब स्वार्थ के हैड फोन लगाकर सो गये। कोरियन बैंड में खोया परिवार जान नहीं पाया कि माँ अब भी कबीर के दोहे में अटकी है। आज जाने की जिद न करो, बजता रहा, वह जकड़ती गयी। शब्द की शून्यता, निर्वात बढ़ता गया। अवसाद गहराता रहा, माँ सबकी अपेक्षाओं में ढ़लकर माटी से पीतल की हो गयी। अब वह सिर्फ सबकी थी, बस अपनी नहीं रही। बस आँखें थी जो न किसी की गुलामी कर पायी, उनकी भी नहीं । आँखें बोलती रही तब तक, जब तक मीनल सीख न पायी वह आँखों की भाषा और उसके वह मर्मस्पर्शी वर्ण। जब सीख गयी आँखों की बोली तो पढ़ा उन आँखों को और बिखर गयी उसके दर्द के भार से। समेटा खुद को और डट गयी माँ को समेटने में।
कभी उसे बीन कर लाती है बचपन की गलियों से, फटी-चिथडी़ होती है, पट्टी लगाती है, दवा भी। खड़ी देखती है माँ के ताव और तपकर गलने से ठीक पहले पकड़ कर ले आती है, युवावस्था की उस माँ को जो भिड़ गयी थी यूनिवर्सिटी हेड से जाति पूछने पर और जड़ दिया था एक चमाचा उस शिक्षा प्रणाली पर जो जाति और परिवार की हैसियत देख कर बनाती थी अपना नायक। मीनल माँ को बीन कर लायी पिता के धूप से चिलमिलाते आंगन से वह कुम्हलायी थी, सन स्क्रीन लगाया, जहाँ-जहाँ फटी थी, रफ्फू किया। माँ को उस हर जगह से बीनना, जोड़ना और सहेजना कितना जरूरी है यह समझने में जरा सी देर लगी उसे।
मैं मीनल माँ की चीं-चीं चिड़ैयां, मैं देखती हूं किताबों, फाइलों के बीच धूल धूसरित माँ का चेहरा जिस पर उग आयी हैं कई जालें । मैं हाथ पकड़ कर उसे निकाल रही हूँ।उसके हाथ थरथरा रहे हैं। कभी -कभी माँ आवाज़ सुनकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देती,निरूत्तर ऐसे बैठ जाती है मानो कोई बेचैन उदास प्रतिमा भोग की प्रतीक्षा में बैठी हो।कभी -कभी मुझे देखकर माँ का चेहरा जैतून के फूल सा दमक उठता है ।उसका दमकता चेहरा मेरे भीतर राहत सा घुल जाता है। मैं ठीक उसी क्षण एक रंग का नाम लिख देती हूँ अपनी उदास और बेरंग काॅपी पर।
भींगे तकिए रिक्त स्त्रियों के विलाप की नम गवाही हैं। अवसाद को धूप में लगाते हम बच्चे जानते हैं उम्र की रस्साकशी में घिसी अपनी माँओं का दर्द… उपटा दी जानी चाहिए जूट की हर वह खेती जो रस्सी बनाती है।
माँ आम का पेड़ हो गयी है उस पर अवसाद के फल लदे हैं, वह झुकी जा रही है। काश वह नीम बेहोशी से निकल पाती, कोई उसे प्यार से झकझोरता। दवा दुआ असर करती।
लदे फल टूट कर बिखर जाते।वह खुद को हल्का महसूस कर पाती। मैं चाहती हूँ वह हर चरमराती कुर्सी को निकाल फेंके घर से,वह चरमराहट को नज़रंदाज़ कर उस पर कभी नहीं बैठे।
आज छह महीने बाद मैं और माँ बालकोनी में बैठे हैं।कैनेडियन लीली की खूशबू के बीच उफ़ सी झमाझम बारिश मानो गर्म घी की धारें बह रही हो ,कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है।अचानक बारिश की धार तरल हुई और एक धूप चटक कर माँ के मुख पर फ़ैल गयी। एक हल्की सी नरम ,भीगी धूप ।टकाचोर की आवाज़ सुनकर आज माँ चौंकी भी नहीं बस मुस्कुरा कर रह गयी ।यह एक जादुई लम्हा है जो बड़ी दुआ और कोशिशों के बाद आज नसीब हुई है मुझे।वह बिल से निकली है और केंचुल भी ढीली पड़नी शुरू हो गयी हैं।दूर कोई निर्गुण क्यों गा रहा है ?
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