बिहार की राजधानी पटना में संपन्न हुए ‘जागरण संवादी’ अनेक कारणों से वाद-विवाद में बना रहा. तमाम चीजों के बावजूद मैं यह कह सकता हूँ कि पहले ही साल बिहार में ‘जागरण संवादी’ ने खुद को एक ब्रांड के रूप में स्थापित कर लिया है. अगर मैथिली के प्रति आयोजकों ने अपमानजनक रवैया न अख्तियार और कार्यक्रम शुरू होने से एक दिन पहले कठुआ में बालिका के साथ हुए बलात्कार की एक असंवेदनशील रपट न छप गई होती तो यह कार्यक्रम इतना विवादित न हुआ होता. लेकिन मुझे लगता है कि संवादी को विवादी बनाना भी ‘दैनिक जागरण’ की रणनीति का एक हिस्सा थी. चलिए अब संवादी की एक विस्तृत रपट युवा लेखक सुशील कुमार भारद्वाज के शब्दों में- प्रभात रंजन
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पटना के तारामंडल सभागार में दैनिक जागरण के अभियान ‘हिंदी हैं हम’ के तहत आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम ‘बिहार संवादी’ अगले साल फिर मिलने के वादे के साथ समाप्त हो गया. जैसे तीन साल पहले 27-29 अप्रैल 2015 को इसी सभागार में अखिल भारतीय कथा समारोह भूकंप के झटकों के बीच संपन्न हुआ था वैसे ही ‘बिहार संवादी’ भी अनिश्चितताओं और बहिष्कार के हंगामें के बीच सफलतापूर्वक संपन्न हो गया. कथा–समारोह जहां माँ-बेटी, पति-पत्नी और पत्नी-पति के आरोपों से घिरी रही तो ‘बिहार संवादी’ मैथिली को बोली कहे जाने के आरोपों के बीच.
जब कार्यक्रम अपने नियत तिथि के करीब थी उसी समय ‘मैथिली’ को बोली कहे जाने से नाराज ‘विभूति आनंद’ ने खुद को कार्यक्रम से अलग होने की घोषणा कर दी. जबकि इन्हीं दिनों दैनिक जागरण के सहयोग से ही आयोजित कार्यक्रम ‘आखर’ में भोजपुरी वालों ने घोषणा कर दी कि- “चुनाव का मौसम है और ऐसी तैयारी करें कि यदि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया तो भोजपुरी समाज वोट नहीं देंगें.” इसी कार्यक्रम में मैथिली संस्कृति, भाषा और सिनेमा की तुलना भोजपुरी से की गई. जबकि पिछले दिनों ही उषाकिरण खान और विभूति आनंद समेत कई दिग्गज मैथिलीप्रेमी साहित्यकारों ने “मैथिली” को बिहार की राजभाषा का दर्जा दिलाने की मुहिम छेड़ी थी. और कहीं-न-कहीं संकेत मिल गया था कि श्रेष्ठता की लड़ाई कहीं-न-कहीं शुरू हो गई है. क्योंकि कुछ भोजपुरिया लोग अपनी भाषा को चांद और मंगल तक पहुंची भाषा बताने लगे. वे भोजपुरी को बोली के रूप में मानने से भी कतराने लगे.
इसी बीच कठुआ प्रसंग की एक खबर ने अखबार को विवादों में घसीट लिया. जिसकी वजह से विरोधियों को एक बेहतरीन मौका मिल गया. जहां एक ओर मैथिली अस्मिता के नाम पर विरोध शुरू हुआ वहीं कुछ को कठुआ के मामले में अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई. तीसरे किस्म के वे लोग थे जिन्हें मंच पर मौका नहीं मिला और कहने लगे –एक ही तरह के चेहरे हर कार्यक्रम में क्यों? दूसरे को मौका क्यों नहीं?
इन्हीं सब अनिश्चिताओं के बीच 20 अप्रैल 2018 को पटना के मौर्या होटल में सभी स्थानीय वक्ताओं को एक कार्यक्रम में बुलाया गया और अधिकांश उसमें शरीक भी हुए और देर रात वहीं जमे भी रहे. और मैथिली के लिए एक नए वक्ता को तलाश भी लिया गया. लेकिन 21 अप्रैल 2018 के सुबह नौ बजे के बाद कुछ वक्ताओं (अधिकांश कवियों) की अंतरात्मा जगने लगी और धीरे-धीरे कठुआ या मैथिली के नाम पर कार्यक्रम से अलग होने की घोषणा फेसबुक आदि से करने लगे. और एक बजे दिन तक में लगभग दस वक्ताओं ने अपने नाम की वापसी की घोषणा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कर दी. जबकि राज की बात है कि मैथिली स्टूडेंट यूनियन के बैनर तले कुछ उग्र युवा तारामंडल के मेनगेट पर साढ़े नौ बजे से ही तैनात हो गए थे और सबको लानत भेज रहे थे. विश्वस्त सूत्र से जानकारी मिली थी कि कार्यक्रम को असफल करने की हर संभव कोशिश वे लोग करेंगें और मैथिली के प्रतिनिधि प्रो० वीरेन्द्र झा को देखते ही पिटाई करते हुए दुर्गत कर देंगें. किसी भी हाल में वे सभागार में न पहुँच सकें.
लेकिन कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया और दैनिक जागरण बेस्टसेलर की चौथी तिमाही सूची की घोषणा की गई. और पहले सत्र, ‘साहित्य का सत्ता विमर्श’, में रंगकर्मी अनीस अंकुर ने विधान पार्षद प्रो रामबचन राय और रेवती रमण से बातचीत शुरू की. हालांकि अनीस अंकुर ने मंच से ही विरोधी स्वर को हवा दी. दूसरे सत्र में हृदयनारायण दीक्षित और एस एन चौधरी ने ‘नया समाज और राष्ट्रवाद’ पर अपना विचार रखा. तीसरे सत्र में राणा यशवंत ने ‘बिहार: मीडिया की चुनौतियां’ पर खुलकर बोले. चौथे सत्र में ‘नए पुराने के फेर में लेखन’ पर शशिकांत मिश्र, क्षितिज रॉय, प्रवीण कुमार ने अवधेश प्रीत के विभिन्न सवालों के जबाब दिए. जबकि पांचवे सत्र में उदय शंकर से वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने बेहतरीन बातचीत की. छठे सत्र में अनिल विभाकर, रमेश ऋतम्भर और अरुण नारायण ने ‘जाति के जंजाल में साहित्य’ विषय पर अनंत विजय के सवालों पर अपनी राय रखी. जबकि पहले दिन का समापन राजशेखर के मजनूं के टीला से हुआ.
मैथिली समर्थक पहले दिन सुबह से कड़ी धूप में गेट के बाहर बैठे रहे और शाम चार बजे के लगभग पुलिस की पहल पर वहां से हटाए गए. जबकि दूसरे दिन क्रांतिकारी मैथिली समर्थक अपने नए और उग्र तेवर के साथ दरवाजे पर फिर से बैठ गए. जबकि राउंड टेबल टॉक में प्रो० जितेन्द्र वत्स और डॉ विनय चौधरी ‘विश्विद्यालयों में हिंदी’ के बहाने अंदरखाने में भरे सड़ांध पर बेबाक बोल रहे थे. तो ऋषिकेश सुलभ, रामधारी सिंह दिवाकर, शिवदयाल ‘बिहार की कथाभूमि’ पर अपने विचार प्रेम भारद्वाज के सवालों के जबाबों में दे रहे थे. तो माहौल को मोहब्बत के रंग में रंग दिया गीताश्री, रत्नेश्वर,गिरीन्द्रनाथ झा और भावना शेखर ने. तब तीसरे सत्र में अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, अनिल विभाकर, और अनु सिंह चौधरी ने रचनात्मकता का समकाल विषय पर अपनी बात रखी.
चौथे सत्र की शुरूआत होती उससे पहले ही अधिकांश क्रांतिकारी मैथिली समर्थकों ने सभागार में अपनी जगह बना ली. और ज्योंहि अनंत विजय ने ‘बिन बोली भाषा सुन?’ विषय पर बात करने के लिए मंच पर उपस्थित प्रो० वीरेन्द्र झा, अनिरुद्ध सिन्हा, नरेन, निराला तिवारी का परिचय दे कुछ कहना शुरू किया ही कि एक मैथिल ने अपने सीट से उठकर मैथिली के सन्दर्भ में आपत्ति की और अनंतजी कुछ जबाब देते उससे पहले ही सारे मैथिल हंगामा करने लगे. कुर्सियों पर चढ़कर मुर्दाबाद-जिंदाबाद करने लगे. आयोजकों की कोई बात सुने बगैर वे मंच के करीब होते हुए मंच पर चढ़ गए और धक्कामुक्की करने लगे. मंच पर जूते-चप्पल उछलने लगे. इसी बीच कुछ लड़कों ने मिलकर वीरेन्द्र झा के मुंह में स्याही पोत दी. जिसके छींटे अन्य उपस्थित लोगों पर भी पड़े. अंत में कोतवाली थाना के सिपाही आए और हंगामा करनेवालों को दबोचकर ले गए. तब तक सभागार से सामान्य दर्शक/ श्रोता बाहर आ चुके थे.
हंगामे के बाद फिर वहीं से सत्र की शुरूआत की गई. जिसमें हर वक्ता ने तुलनात्मक रूप से मैथिली, मगही, भोजपुरी, और अंगिका को सर्वश्रेठ भाषा माना. किसी ने खुद को बोली के रूप में स्वीकार नहीं किया. और इस तीखी नोकझोंक ने सभागार के माहौल को खुशनुमा बना दिया. दर्शकों ने तालियां पिटी.
पांचवे सत्र में प्रो तरुण कुमार और आशा प्रभात ने ‘सीता के कितने मिथ’ पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए. तो छठे सत्र में महुआ माझी, डॉ सुनीता गुप्ता और सुशील कुमार भारद्वाज ने ‘परिधि से केंद्र की दस्तक (हाशिए का साहित्य)’ विषय पर शहंशाह आलम के सवालों के यथोचित जबाब दिए. सातवें सत्र में ‘धर्म और साहित्य’ विषय पर नरेन्द्र कोहली से एसपी सिंह ने बात की. और अंतिम सत्र में विनोद अनुपम ने पंकज त्रिपाठी से ‘सिनेमा में बिहारी’ विषय पर बात की.
इस तरीके से यह दो-दिवसीय कार्यक्रम समाप्त हो गया. और दो दिन के इन सत्रों में दर्शक सभागार में जिस तरीके से जमे रहे वह पिछले कथा-समारोह में आए लोगों से कतई कम नहीं थे. हां, ये अलग बात है कि दिन की तुलना में शाम में भीड़ अधिक रही. और इस आयोजन ने कई लोगों को भावनात्मक रूप से तोड़ भी दिया. राजनीति के तर्ज पर देखें तो शायद आने वाले दिनों में साहित्य में कुछ नए समीकरण पटना की धरती पर बनते-बिगड़ते नज़र आए.
संपर्क :- sushilkumarbhardwaj8@gmail.com
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