
कुछ दिन पहले ही भाई शरद चंद्र श्रीवास्तव ने अपनी कुछ कविताएँ पढ़ने के लिए भेजी थीं। क्या पता था अब उनसे कभी संवाद नहीं हो पाएगा। उनकी इन कविताओं के साथ जानकी पुल की ओर से शरद जी को श्रद्धांजलि-
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1. “अपने अपने एकलव्य”
हर युग में देनी होती है परीक्षा
हर युग के होते हैं
अपने अपने एकलव्य,
एक द्रोणाचार्य,
किसी युग में होता भी नहीं,
आस्था हर युग में अंधी रही है,
वरना,
सियासत के तोरणद्वार,
यूँ ही नहीं करते
एकलव्य के अंगूठे की प्रतीक्षा,
उन्हें पता है,
आस्था सिर्फ,
धर्म की नहीं
जाति की ,
कुलीनता की नहीं,
नस्ली भी होती है,
वह हर बार मुखौटा बदल लेती है,
पर एक बात,
सबमें समान होती है,
वह हर बार लाती है
दिमागी सुन्नता,
इसीलिए,
हर युग के होते हैं,
अपने अपने एकलव्य,
ये अनायास नहीं है कि,
सबसे ऊंचे पायदान पर ,
जब अर्जुन गांडीव से गर्जना करते हैं,
तो शीर्ष तक जाने वाले पदसोपान
एकलव्य का आर्तनाद,
किसी वाद्ययंत्र की तरह गुनगुनाते हैं,
हर युग में,
गहन श्रद्धा के क्षण में,
गढ़ी गई प्रतिमाएं
नेह को करती हैं
नश्तर की तरह इस्तेमाल,
और,
इतिहास टांग देता है,
अपने पृष्ठों पर,
अपने अपने युग का एकलव्य
इसीलिए
हर युग के होते हैं
अपने अपने एकलव्य ।
—- शरद चन्द्र श्रीवास्तव
2. “बूढ़ा होना चाहता हूँ”
इन दिनों मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ
ताकि समझ सकूं ,
जवान बच्चों के आगे बूढ़ी हो गई बातों का राज़,
समझदार बहुओं के आगे नासमझी का सबब,
कैसे अनाम चिंता, अबूझ हताशा
जो हर बूढ़े जर्जर का स्थायी भाव बन जाती है,
समझूं-
एक बूढ़ा पिता,
एक बूढ़ी माँ,
एक पुराना आलीशान क़िला,
आने वाली पीढ़ियों के लिए इतना बेकार क्यूँ,
कैसे लोप हो जाता है,
सेवानिवृत्ति के बीच से ‘और’,
जिन्दगी से झर जाता है नेह ‘और’ शब्द के लोप से,
और-
आशंकाएं रीतेपन से समा जाती हैं आंखो में,
इन दिनों मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ,
ताकि मिल सके कविता की आखिरी पंक्ति का एहसास,
छिपी हुई पीड़ा का इतिहास।
—- शरद चन्द्र श्रीवास्तव
3. इतिहास गवाह है–
पुलों की वीरानगी आहिस्ता आहिस्ता ये पूछ रही है
कहीं कोई चुपचाप नीचे से निकल तो नहीं गया
वहीं भूस्खलन में ,
हाशिये पर खिसक आई नदियां दो बूँद आँसू में तब्दील हो गई हैं
और,
चाक़ सीने पर बोझा उठाये धरती, बेबस प्रश्नों के वर्तुल में उलझ गई है–
तुम्हारी यात्रा का अंत कहाँ होगा?
इस अंतहीन ढलान का छोर, भागता हुआ कहाँ जायेगा?
ये वही समय था,
जब दुनिया तुम्हारी मुट्ठी में आ चुकी थी,
नाप ली थी तुमने धरती की गति,
सत्य और तथ्य शूली पर टांगते हुए,
रच लिए थे अंधेरे के सौन्दर्य बोध के मादक गीत,
तुम जितनी बार करीने से सजाते रहे शहरों को,
वे उतनी ही बार उगल देते रहे भूख से धुंधुआये बदन,
और,
मधुमक्खियाँ भूल जाती रहीं अपने छत्तों का पता,
क्षितिज के आइने में
अंधेरे- उजाले की सरहद पर खड़ा सूरज,
लाल होता रहा शर्म से बार बार,
सच तो यह है कि-
खूंखार इतिहास के पन्ने गवाह हैं
हमने सभ्यताओं को रौंद कर ही,
संस्कृतियां गढ़ी हैं,
और अपने ही पैरों में बेड़ियां पहन लीं हैं ।
4. याद रखना
ये पलायन है
या विस्थापन,
तुम जा कहाँ रहे हो,
ये हवाएं
ये धरती पूछ रही है,
तनिक थम जाओ,
अभी-अभी तो,
गांव जवार छोड़ कर शहरों में आये थे,
क्या शहरों ने तुम्हें छोड़ दिया
या शहर तुमने छोड़ दिया ,
सुनो !
करोना की दहशत तो,
तुम्हारे गांव में ज्यादा होगी,
ये मीलों लम्बे रास्ते कोरोना की दहशत से अंटे पड़े हैं,
जानते हो!
ये विस्थापन की यात्रा तुम्हें वहां छोड़ आयेगी,
जहाँ भूख और प्यास के टापू पर
मुन्ने के पांव में छाले फटे पड़े हैं,
जब उल्टे पांव लौटना ही था
तो क्यों आये थे अनवरत जागते शहरों की ओर,
जो हिकारत से मुंह फेर लेता है,
शहरों में खर्च हुई तुम्हारी
बेशकीमती उम्र की ओर,
लाकडाऊन में बैठे शहरी,
तुम्हारी बदहवासी पर-
तुम्हारे गंवारपने पर-
सहमें हुए हैं,
तुम एक अदद इंसान नहीं,
उनके किये कराये पर पानी हो,
याद रखना
अबकी बार जब शहर जाना,
तो थोड़ा,
गांव आँखों में ले जाना,
जिससे कि,
शहर जब आँख मूंद लें,
तो गांव बचा रहे,
सस्ते में बेची गई उम्र
गांव के लिए बचा लेना,
मोल-भाव कर लेना,
जिससे,
भूख की दहशत
तुम पर भारी न हो।
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