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प्रिंट बनाम/सह डिजिटल: ‘पहल’के बंद होने के संदर्भ में

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पिछले दिनों ज्ञानरंजन जी की पत्रिका ‘पहल’ के बंद होने की खबार आई तो फ़ेसबुक पर काफ़ी लोगों ने लिखा। युवा कवि-लेखक देवेश पथ सारिया ने इस बहाने प्रिंट बनाम डिजिटल की बहस पर लिखा है। एक ऐसा लेख जिसके ऊपर बहस होनी चाहिए-

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वरिष्ठ कथाकार ज्ञान रंजन जी ने पहल को बंद करने की घोषणा कर दी। मैं याद करता हूं कि पिछले वर्ष कादंबिनी के बंद होने पर भी हमें झटका लगा था। जब मैं धर्मयुग और सारिका के स्वर्ण युग का ज़िक्र सुनता था तब अपने नौसिखियापन के कारण इस बारे में कभी ध्यान ही नहीं गया कि इन पत्रिकाओं के बंद होने का उस समय के साहित्यिक समाज पर कितना गहरा असर पड़ा होगा। उस युग में जो लेखक धर्मयुग में छपे, उनमें से कई आज भी अपनी प्रकाशन सूची में सबसे पहले उसी पत्रिका का उल्लेख करते हैं। ठीक उसी तरह जब मैं कादंबिनी और शुक्रवार साहित्यिक वार्षिकी का नाम अपनी प्रकाशन सूची में गर्व से दर्ज करता हूं, तब मुझे भविष्य को लेकर संदेह होता है कि आज से कुछ वर्षों बाद के लेखक/पाठक समझ भी पाएंगे कि उन पत्रिकाओं का क्या महत्व था?

पहल का अंतिम अंक प्रकाशित होना शेष है, किंतु वह होगा तो अंतिम ही।  एक महत्वपूर्ण पत्रिका की पारी ख़त्म होने पर सोशल मीडिया पर मिली-जुली प्रतिक्रिया रही। अधिकांश साहित्यकारों ने पहल के बंद होने पर दुख व्यक्त किया।‌ कुछ युवाओं ने कहा कि वे पहल में छपना चाहते थे और अब वह सपना कभी साकार नहीं हो पाएगा। दूसरी तरफ कुछ साहित्यकार ऐसे भी थे जो इस मातमपुर्सी पर असहमति के साथ सामने आए। कुछ ने अपनी बात को पॉलिटिकली करेक्ट साबित करने के लिए समाजवाद का तंतु टटोला।

कुछ संपादकों के साथ मेरा बातचीत का अनुभव अति कटु रहा, किसी ने मेरे ‘अजीब’ सरनेम की वजह से मुझे अपने हिसाब से किसी जाति विशेष का माना, किसी ने ताइवान में रहने की वजह से नस्लवादी टिप्पणी कर दी। फ़िर भी मुझे लगता है कि किसी पत्रिका के बंद होने पर प्रतिक्रिया देते समय व्यक्तिगत समीकरण देखने की अपेक्षा साहित्य के व्यापक हित में देखना चाहिए। मैं मानता हूं कि पहल का बंद होना प्रिंट पत्रिकाओं के लिए बड़ी क्षति है।

हिंदी साहित्य में सत्तर या अस्सी प्रतिशत प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने पर मान लिया जाता है कि अमुक लेखक लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। सभी अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि कहीं संपादक की पसंद या विचारधारा भिन्न होगी और कहीं आपने ही हड़बड़ी में कमज़ोर लिखकर भेज दिया होगा। अब तक की अपनी साहित्यिक यात्रा में मैं लगभग 70 संपादकों से स्वीकृति पा चुका हूं और 100 संपादकों से तो मेरी बात हुई ही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि वे 30 मेरे लिए बुरे हो गए जिन्होंने मुझे अस्वीकृत किया। मुझे अस्वीकृति हमेशा सुख देती है क्योंकि वह अपने भीतर झांकने का अवसर देती हैं, रुककर सोचने का। मेरे लिए स्वीकृति/ अस्वीकृति नहीं बल्कि सिर्फ़ एक बात मायने रखती है कि सामने वाला व्यवहार कैसा करता है।  मुझे विनम्रता से अस्वीकृत होना पसंद है, न कि किसी के घमंड को झेलते हुए स्वीकृत होना। और कहना न होगा कि निर्णय रचना के आधार पर होना चाहिए।

पिछले एक-दो वर्षों में फ़ेसबुक पर कविताओं की बाढ़ सी आ गयी है। कुछ वर्ष पहले तक फ़ेसबुक पर पाठक चुनकर सिर्फ़ अच्छे लेखन को तवज्जो देते थे। ढूंढकर देश विदेश के अन्य अच्छे लेखकों की रचनाएं साझा करते थे। बीते वर्षो में सिर्फ़ फेसबुक से शुरुआत कर कवियों-लेखकों ने साहित्य में सशक्त पहचान बनाई। तब हिंदी समाज में हल्ला सा था कि फ़ेसबुक पत्रिकाओं का महत्त्व ख़त्म कर देगा। एक प्रकाशक ने मुझसे कहा कि ऐसा हो भी रहा है। प्रश्न यह है कि क्या इससे साहित्य का लाभ हो रहा है? अब सब लेखक हैं और सबको वाहवाही चाहिए। सब ‘अपनी डफली, अपना राग’ गाने में लगे हैं।  राग जो वे साध नहीं पा रहे क्योंकि उनके पास ज़रूरी रियाज़ नहीं है। अच्छी रचनाएँ, बुरी या औसत रचनाओं की भीड़ में नज़रअंदाज़ हो रही हैं। जब मैं कहता हूं कि कविताओं के अतिरेक ने फेसबुक पर अच्छे नए कवियों का नुकसान करना शुरू कर दिया है, तो ग़लत नहीं कहता। ताबड़तोड़ लाइक करने की श्रंखला के पालन में उत्कृष्ट लेखन पर नज़र ही नहीं पड़ रही। अब तो आलम यह है कि नये तो क्या, पुराने और अच्छे लेखकों को भी पहले से कम पाठक मिलते हैं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि साहित्य का प्लेटफार्म डिजिटल होने की तरफ शिफ्ट हो रहा है। कोरोनाकाल ने इस प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया है।  यदि डिजिटल माध्यम की बात है, तो यहां डिजिटल का पर्याय फेसबुक मात्र नहीं होना चाहिए। फ़ेसबुक पर व्याप्त इस प्रमुख कमी को दूर करना होगा कि बदले में प्रशंसा पाने के लालच में किसी के कमज़ोर लेखन की वाहवाही करनी बंद हो। यदि किसी के औसत लेखन की प्रशंसा करनी भी है तो वह सिर्फ़ तभी वाजिब है, जब वह किसी नए लेखक का मनोबल बढ़ाने के लिए की जा रही हो, साथ में सलाह भी इसमें शामिल हो।

यदि उन वेबसाइटों को परे हटा दें, जहां संपादक की सूझबूझ नजर नहीं आती और ‘कुछ भी’ प्रकाशित हो जाता है, तब वर्तमान में मुझे मुख्यतया दो तरह की वेबसाइट नज़र आती हैं: पहली वे जिनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा है और जिन्हें लेखन में सक्रिय व्यक्ति पढ़ते हैं। चूंकि वहां संपादक गुणवत्ता से समझौता नहीं करते, इसलिए वहां लाइक कम‌ आते हैं। दूसरी वेबसाइट वे जो प्रयास कर रही हैं कि रचनाएं अच्छी छापें।‌ आकर्षक कलेवर और फेसबुक पर विज्ञापन चलाने जैसे तरीकों से पाठक वर्ग भी उनका विस्तृत हो रहा है। ऐसे में वहां अच्छी रचनाओं पर पाठकों से लाइक भी अच्छे मिल जाते हैं, पर अब भी गंभीर लेखकों का एक बड़ा वर्ग उन वेबसाइटों से दूरी बनाए हुए हैं। यदि  साहित्य का ‘पैराडाइम शिफ्ट’ होना तय है, तो पहली तरह की ऑनलाइन पत्रिकाओं को चाहिए कि वे थोड़े और सामान्य पाठकों तक पहुंच पाएं। उन वेबसाइटों के प्रशंसक वहां प्रकाशित रचनाओं (सिर्फ़ अपनी नहीं) के लिंक अपने साहित्य प्रेमी मित्रों के साथ साझा करें। दूसरी तरह की वेबसाइटों तक हमें अपने पूर्वाग्रह त्याग कर पहुंचना होगा। रही बात प्रिंट की, तो धीरे-धीरे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं को भी अब समांतर रूप से ऑनलाइन आ जाना चाहिए। यहां मैं पत्रिकाओं के पीडीएफ उपलब्ध करा देने की बात नहीं कर रहा। एक स्क्रीन पर पढ़ते समय पत्रिका का छपा हुआ फाॅन्ट बहुत सुविधाजनक नहीं होता। जिस नये पाठक वर्ग को किंडल की सहूलियत की आदत हो, उसे इस तरह पढ़ना अखरेगा। इसलिए पीडीएफ  उपलब्ध कराना कारगर उपाय नहीं है।‌ जो साहित्य प्रेमी कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का कौशल रखते हैं, वे पत्रिकाओं को समांतर रूप से डिजिटल करने में मदद कर सकते हैं।

इस विषय पर अपनी अंतिम टिप्पणी में मैं यही कहूंगा कि यदि प्रिंट पत्रिकाएं बंद होती रहेंगी और कुशल संपादकत्त्व युक्त सशक्त ऑनलाइन माध्यम अधिक संख्या में नहीं उभरेंगे तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि सिर्फ अच्छा ही आगे जाए? और जब तक यह ढांचा तैयार होगा, इस बीच रचे गए उपेक्षित अच्छे साहित्य का क्या होगा?‌ मेरी चिंता सबके लिए है।

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