आज संगीतकार नौशाद साहब की जयंती है। उनकी जयंती पर पढ़ते हैं मनोहर नोतानी का लिखा यह लेख। लेखक, अनुवादक मनोहर नोतानी। इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में स्नातक और इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग व उत्पादकता में स्नातकोत्तर अध्ययन व अध्यवसाय। फिलवक्त भोपाल में रहना।
25 दिसंबर को नौशाद साहब की 101वीं जयंती है। नौशाद साहब को हिंदुस्तानी फिल्म संगीत का सरताज-ए-मौसीक़ी कहा जा सकता है। शास्त्रीय संगीत से लेकर लोक गीत-संगीत और पश्चिमी स्वरलिपि पर उनकी समझ और पकड़ इतनी थी कि कोई बाईस बरस तक जिस शायर, गीतकार से वे अनन्य रूप से जुड़े रहे उन्हीं शकील बदायूंनी सरीखे उर्दू-रसज्ञ से उन्होंने बैजू बावरा की आवाज़ मोहम्मद रफी के लिए कथानक-भाषा में लिखवा लिया, और वह भी गीतों की काव्यात्मकता से कोई समझौता किये बग़ैर। नौशाद-शकील की जोड़ी ने हमें संगीत का ऐसा अद्भुत खज़ाना दिया है जिसे ‘आपके कानों के लिए ही’ के बतौर सहेजा जा सकता है। 1952 की ‘बैजू बावरा’ के नौशाद-शकील-रफी की त्रयी के भजन ओ दुनिया के रखवाले … और हरि ओम … इस देश की समन्वयी गंगा-जमुनी संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ नहीं तो श्रेष्ठ उदाहरण हैं (यह अलग बात है कि हमारी ही कुसंस्कृति के चलते गंगा और जमुना प्रदूषित हो चुकीं हैं)। मन तरपत हरि दर्शन को आज … के लिए पं. जसराज कहते हैं, “हम शास्त्रीय गायक तो राग मालकौंस गाते रहे हैं लेकिन जब मोहम्मद ने यह भजन गाया तो जन-जन ने जाना कि राग मालकौंस क्या होता है।” खुद लता जी के शब्दों में, “नौशाद का बैजू बावरा संगीत अद्भुत है। इसमें हर सिचुएशन पर एक राग है – मालकौंस, तोड़ी, देसी, पूरिया धनश्री, भैरवी, भैरव – और हर राग अपने आप में परिपूर्ण। नौशाद न केवल संगीत के उस्ताद थे बल्कि उन्हें संबंधित विषयों, यथा कथा, सेटिंग, संपादन, साउंड रिकॉर्डिंग, म्यूजि़क रिकॉर्डिंग और री-रिकॉर्डिंग का भी ज्ञान था। वे एक निपुण पिआनोवादक भी थे। वे पश्चिमी स्वरलिपि (नोटेशन) भी जानते थे। बांसुरी और क्लेरिनेट; सितार व मैंडोलिन की संगत पेश करने वाले वे सबसे पहले संगीतकार थे। यही नहीं, अकॉर्डिअन, बीन, डफ और जलतरंग वग़ैरह भी फिल्म संगीत में वे ही लाये थे।”
1940 में 40 रुपये मासिक की तनख़्वाह पर एक बजैये की तरह आये नौशाद 1950 आते-आते एक फिल्म के संगीत का मेहनताना एक लाख रुपये लेने लगे थे। निरक्षर महबूब खान नौशाद को हमेशा उनका सही मूल्य चुकाते रहे, जबकि पढ़े-लिखे, कला मर्मज्ञ ए.आर. कारदार (1904-1989) के लिए नौशाद को काफी पापड़ बेलने पड़े। 1942-49 के दौरान नौशाद ने ए.आर. कारदार के लिए इन 14 फिल्मों का संगीत दिया और हरेक के लिए उन्हें फेंकन ही मिली – शारदा, कानून, नमस्ते, संजोग, गीत, जीवन, पहले आप, सन्यासी, कीमत, शाहजहां, दर्द, नाटक, दुलारी और दिल्लगी ।
1940 में शुरू हुए अपने कॅरिअर में 1970 तक बनीं तीन सबसे बड़ी फिल्मों में नौशाद के संगीत में पिरोये शकील के बोलों का होना उनके महान होने का प्रमाण है। ये तीन फिल्में हैं – मुग़ले आज़म, मदर इंडिया और गंगा जमुना। मौसीक़ार होने के बावजूद नौशाद खामोशी को बखूबी समझते थे और इसीलिए बैकग्राउंड म्यूजि़क के भी वे उस्ताद रहे आये। यह मौसीक़ार-ए-आज़म नौशाद का मेयार ही था कि बड़े ग़ुलाम अली खां साहब, अमीर खां साहब, और पंडित डीवी पलुस्कर जैसे दिग्गज शास्त्रीय गायक उनकी धुनों को अपने सुर देने को राज़ी हुए। 1950 के दशक में नौशाद का संगीत होना फिल्म की कमोबेश शर्तिया कामयाबी होता था।
नौशाद ने अपने संगीत से उर्दू को गीतों के दीवाने हिंदुस्तान की जनभाषा बना दिया। हिंदुस्तानी फिल्मों में लोक और शास्त्रीय संगीत के इस्तेमाल के पुरोधा माने जाने वाले नौशाद साहब ही भारतीय फिल्मों में वेस्टर्न ऑर्केस्ट्रेशन लाये थे। अपने पहले प्यार मौसिक़ी के लिए लखनऊ में जन्मे नौशाद अपना घर छोड़ उस वक़्त के बंबई चले गये थे। आगे चल कर नौशाद ने जब अपना एक स्तर हासिल किया तो उनके रूठे घर वालों ने उन्हें बुला भेजा कि उनकी शादी तय कर दी गयी है सो वे लखनऊ पधारें। लखनऊ पहुंचने पर जब उनने अपनी मां से पूछा कि लड़की वालों को क्या बताया है कि नौशाह (दूल्हा) बंबई में क्या काम करता है, मां ने जवाब दिया, “दर्ज़ी!” इसे कहते हैं सुयोग। अब मां को भला क्या पता था कि उसका यह बरायनाम ‘दर्ज़ी’ बेटा आगे चलकर के. आसिफ़ नाम के बड़े-बड़े ख़्वाबों वाले एक असल दर्ज़ी के साथ एक अमर शाहकार रचेगा – मु़ग़ले आज़म । और मज़े की बात यह है कि इस नौशाह की बारात में बैंड वाले उन्हीं नौशाद की ‘रतन’ धुनें बजा रहे थे।
1946 में ‘शाहजहां’ फिल्म में नौशाद साहब ने अमर गायक के.एल. सहगल की आवाज़ में एक-से-बढ़कर-एक अमर गीत दिये। सहगल साहब ने कहा, “तुम मुझे इतनी देर से क्यों मिले।” शाहजहां के एक गीत मेरे सपनों की रानी रूही रूही … के कोरस में नौशाद साहब ने एक नये गायक का परिचय हमसे कराया – मोहम्मद रफी। इसके बाद तो एक तरह से रफी नौशाद की धुनों की मेल वॉइस बन गये। जहां तक फीमेल वॉइस की बात है तो 1949 की फिल्म अंदाज़ से नौशाद के संगीत की फीमेल वॉइस बनीं लता। लता के तलफ्फुज़, अदायगी और आलाप की त्रयी को उन्होंने इतना मांजा कि वह निखर-निखर गयी। नौशाद के संगीत निर्देशन में 167 चिरंजीवी ‘लता’ गीत इस जोड़ी के 47 साला लंबे सफर की अनूठी स्वरलिपि हैं। इतनी अनूठी कि यह बहस और अचरज का विषय है कि एक ही फिल्म अमर (1954) की राग यमन में तराशीं दो शकील-नौशाद बंदिशों जाने वाले से मुलाकात ना होने पायी … और ना मिलता ग़म तो बर्बादी के अफसाने कहां जाते … में से श्रेष्ठ कौनसी है। अब शुद्धतावादियों को लड़ने दें कि यह राग, यमन कल्याण है या शुद्ध कल्याण; अपन तो गीतों का आनंद उठाएं। 1954 की फिल्म ‘शबाब’ में एक से बढ़ कर एक गाने हैं, पर लता का यह गीत अप्रतिम है – जो मैं जानती बिसरत है सैंया … फिल्म के दूसरे लता गाने भी कम नहीं हैं – दो-रंगी इस सुंदर गीत को सुनें जोगन बन जाऊंगी सैंया तोरे कारन … जोगन बन आयी हूं सैंया तोरे कारन … फिर लता-रफी का यह बेजोड़ जोड़ीदार गाना मन की बीन मतवारी बाजे … तिस पर मरना तेरी गली में … फिर लता का एक और रफी के दो सोलो क्रमश: मर गये हम जीते जी मालिक तेरे संसार में … यही अरमान लेकर … आये न बालम वादा करके … । मेरे ख़याल से फिल्म ‘शबाब’ में नौशाद का संगीत अपने उरूज़ पर है।
नौशाद का संगीत तो अपनी जगह है ही, उनका कॅरीअर भी कम प्रेरणास्पद नहीं। उनकी शख्सियत और उनका जुनून उन लाखों, करोड़ों नौजवानों के लिए अपना कॅरीअर बनाने और संवारने की एक उम्दा मिसाल है। 1940 में ‘प्रेम नगर’ से 1970 के आसपास तक के तीसेक बरस में फैले अपने पेशेवर जीवन में एकबारगी हिंदुस्तानी फिल्म संगीत का न्यूमरो ऊनो की हैसियत पा लेने के बाद उस शिखर पर बने रहने के लिए वे ऊद बिलाव की मानिंद लगातार जुटे रहे। अपनी मौसीक़ी ही नहीं, अपनी जीवन-वृत्ति पर भी वे अपनी धुन में एकाग्र रहे आये। लेकिन शिखर पर बने रहने की अपनी लगन में भी उन्होंने करुणा और विनय का दामन न छोड़ा। भारतीय फिल्मों में शास्त्रीय संगीत का पुरजोश संरक्षक होने के बावजूद लचीलापन नौशाद के संगीत का स्थायी राग था। प्रयोग करने के लिए वे हर दम तैयार रहते और उनकी शानदार कामयाबी का राज़ उनका यही राग रहा। नौशाद साहब के संगीत का सुर इतना ऊंचा लगा कि मई 2008 में, उनकी दूसरी पुण्यतिथि पर, मुंबई के बांद्रा उपनगर में अरब सागर की पश्चिमी समुद्ररेखा के जिस कार्टर रोड पर नौशाद साहब अपने बंगले ‘आशियाना’ में रहते थे, उस सड़क का नाम संगीत सम्राट नौशाद अली मार्ग रखा गया। इसी आशियाने में नौशाद साहब का अपना एक संगीत कक्ष होता था जहां वे अपनी रागदारी बैठकें किया करते, जिनमें मोहम्मद रफी, शकील बदायूंनी, लता मंगेशकर और आशा भोसले जैसी सुरीली हस्तियां शिरकत और रिहर्सल करने आतीं थीं। उसी कक्ष के एक कोने में रखा पिआनो इस बात का गवाह था कि नौशाद मियां बतौर एक साजि़ंदे फिल्म जगत में शामिल हुए थे। उसी म्यूजि़क रूम में 1966 में नौशाद साहब ने लता जी से इस कदर रियाज़ करवायी कि राग मांड में बना दिल दिया दर्द लिया का वह क्लासिक गाना फिर तेरी कहानी याद आयी … फिल्म संगीत के इतिहास में अमर हो गया।
मुग़ले आज़म में मधुबाला पर फिल्माये गये गाने बेकस पे करम कीजिये बनाने की रचना प्रक्रिया को लेकर नौशाद साहब बताते हैं, “यह गीत राग केदार पर आधारित था। मैं बस इतना जानता था कि अगर मेरी धुन पर्दे पर दिख रही मधुबाला की पीड़ा व्यक्त करती है, तो देखने-सुनने वाले उसे ज़रूर कुबूलेंगे; फिर चाहे वे राग केदार जानते हों, न जानते हों। अव्वल तो, संगीत निर्देशक होने के नाते आपको हमारी शास्त्रीय परंपरा के ख़ज़ाने के पास जाना ही पड़ता है। लेकिन फिर आपको, हमेशा, अपना संगीत बद्ध करते समय समूचे कथानक के तानेबाने में, उस दृश्यावली को ध्यान में रखना होता है ताकि उस किरदार के मूड को ‘बांधा’ जा सके। मसलन, मुग़ले आज़म के दौरान हर कोई मुझसे पूछता कि क्या मैं मधुबाला पर भी वही असर ला सकता हूं जो सी. रामचंद्र अनारकली में ये जि़ंदगी उसी की है … के ज़रिये बीना राय पर ले आये थे। लेकिन मेरी ‘अनारकली’ सदा के लिए अपने ‘सलीम’ से दूर जा रही मधुबाला थी। एकबारगी जो ‘मधुबाला’ मेरे ज़ेह्न में बस गयी फिर उसे राग यमन का चोगा पहनाना मेरे लिए मुश्किल न हुआ – ख़ुदा निगहबान हो तुम्हारा । ऐसे में कोई अगर यह कहे कि राग यमन में मेरी यह बंदिश यहां बेमौज़ूं है तो वह हमारी शास्त्रीयता की कशिश को ही सिरे से नकार रहा होगा।”
1960 की मुग़ले आज़म के उस ऐतिहासिक दृश्य में जहां एक तरफ अकबर (पृथ्वीराज कपूर) विराजमान हैं और दूसरी तरफ सलीम (दिलीपकुमार) वहीं उनके बीच, यहां, वहां, रुपहले पर्दे पर बेल्जियमी कांच से बने शीश महल में हर कहीं, जब राग मेघ में पगे प्यार किया तो डरना क्या का तिलिस्म बुनती अनारकली ही अनारकली नज़र आती है तो हमें अनारकली के जमाल को उसके फलक तक उठाती नौशाद की उस्तादी भी ‘दिखायी’ देती है। इसी मुग़ले आज़म में मग़रिबी बुर्ज़ के उस अलौकिक दृश्य को याद कीजिये। इधर शहज़ादा सलीम अनारकली के गालों को मोरपंख से सहला रहा है, उधर राग-सम्राट तानसेन (अभिनेता सुरेंद्र) गा रहे हैं तभी अभिनय भावप्रवणता में मधुबाला के दिलीपकुमार के पासंग होने का इलहाम होते ही राग सोहनी में सजे बड़े ग़ुलाम अली खां साहेब की स्वरलहरी में प्रेम जोगन बनके बोलों के ज़रिये पस-मंज़र (पृष्ठभूमि) में चल रहा नौशाद साहब का जादू हमें छू जाता है।
नौशाद साहब ने दिलीपकुमार को पहली बार मुग़ले आज़म में गीत-रहित नहीं रखा, बल्कि उससे कोई छह साल पहले, मेहबूब की फिल्म अमर में भी उन्होंने दिलीपकुमार से पर्दे पर कोई गीत न गवाया था। हालांकि उस वक़्त नौशाद साहब ने अपने प्रिय गायक मोहम्मद रफी से अपने चहीते राग भैरवी में कोई साढ़े सात मिनट लंबा भजन इंसाफ का मंदिर है ये … दिलीपकुमार के ऊपर बैकग्राउंड में गवाकर उस भजन को ऑॅडियो-विज़ुअली ‘अमर’ बना दिया। मुग़ले आज़म के जन्माष्टमी गीत मोहे पनघट पे नंदलाल (राग गारा) में पन्नालाल घोष की बांसुरी की दिव्य तान हमें अदेर ही आलक्षित करती है।
नौशाद पहले ऐसे फिल्म संगीतकार थे जो न सिर्फ बहुगुणी ऑर्केस्ट्रेशन फिल्मों में लाये बल्कि गीतों में शामिल अपने तमाम वाद्यों का बेमिसाल इस्तेमाल करते हुए साज़ और आवाज़ के परस्पर-संचालन का एक नया आयाम भी उन्होंने स्थापित किया। मिसाल के लिए अगस्त 1952 की फिल्म आन के गीत आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई में लता और कोरस को वे इस मदमाते ढंग से सजाते-संवारते हैं कि शायद पहली बार हमारे सिने संगीत में ध्वनि-वियोजन का अभूतपूर्व रस उत्पन्न हुआ। अब तक हमारे रिकॉर्डिंग रूम में गायकी और ऑर्केस्ट्रा को परस्पर-अलगाने की कोई जुगत न होती थी। लेकिन अब नौशाद ने एक शत प्रतिशत वैज्ञानिक शैली विकसित कर ली थी जिसमें स्वरलिपि के विभिन्न घटकों की जुदा-जुदा रिकॉर्डिंग हो जाती थी। नतीजतन, नौशाद के संगीत का ‘साउंड इफेक्ट’ एकदम स्पष्ट सुनायी पड़ता था।
यही नहीं, नौशाद अपने संगीत की हर इकाई के नोटेशन बड़े करीने से रखने वाले पहले संगीतज्ञ बने। अपने इसी कौशल के बूते वे भारतीय सिनेमा में बैकग्राउंड म्यूजि़क के प्रवर्तक बने।
5 मई 2006 को नौशाद साहब इस फानी दुनिया को अलविदा कह गये पर उनकी सांगीतिक परछाईं कभी कमतर न हुई।
मनोहर नोतानी
9893864460
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