
‘कविता शुक्रवार’ ने फ़िलहाल विराम लिया है। नए साल में दुबारा शुरू होगा। राकेश श्रीमाल उसकी तैयारी में लगे हैं। बीच बीच में विशेष प्रसंगों में कविताओं का प्रकाशन होता रहेगा। जैसे आज।
हमारे देश में चुनावों का रंग दुनिया से अलग होता है। इतना अलग कि दुनियाभर की नजर उस पर होती है। लोग बड़ी हैरत से इन्हें देखते हैं। इस अवसर पर भारतीय समाज की विशेषताएं और विकृतियां समान रूप से सामने आती हैं। भेड़ों की तरह हांका जानेवाला मतदाता अचानक महत्वपूर्ण हो उठता है। उसकी मिन्नतें होती हैं। उससे तमाम वायदे किए जाते हैं। उसे बहलाया-बहकाया जाता है। इस दौरान कई विद्रूपताएं सामने आती हैं। इन्हीं विद्रूपताओं को अपनी कविताओं के जरिए प्रस्तुत किया है चर्चित कवि हरि मृदुल ने:
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उसका वोट
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एक आदमी को कुुछ समझ में नहीं आ रहा था
कि किसे दे वोट
‘यह भी कोई बात’
सौ-सौ सयाने उसे एक साथ समझा रहे थे
एक आदमी ने इस बार ठान ली थी कि
वोट वह अपनी मर्जी के मुताबिक ही देगा
तब तक उसका वोट डाला जा चुका था
एक आदमी ने कहा अपने संबंधियों से
अब की वह मतदान की लंबी लाइन में खड़ा होगा
बड़े आश्चर्य से उसकी शक्ल देखने लगे थे सभी
एक आदमी मुट्ठियां भींचे हुए था –
‘वह जरूर बदल देगा सरकार’
उसे देखकर लोगों की हंसी नहीं थम रही थी
एक आदमी घर-घर घूमा कि
किसे देना है वोट और कैसे देना है
बड़ी गंभीर हालत में चुनाव के दिन वह
भर्ती किया गया अस्पताल में
एक आदमी पिछले कई वर्षों से
बेरोजगार था
चुनावों में हो गए थे उसके पास
किस्म-किस्म के रोजगार
‘चुनावोंं में इतना भारी खर्च’
एक आदमी जैसे विलाप करने लगा
उसे घूरने लग गए थे शहर भर में चिपके
पोस्टरों के चेहरे
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चुनावी बिल्ले
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चार-चार पार्टियों के चुनावी बिल्ले
बिल्लू की जेब के ऊपर लगे हुए हैं
अभी तो बिल्लू इनसे खेल रहा है
लेकिन एक दिन ये भी बिल्लू से
खेलेंगे जमकर
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दूर खड़ा इक और आदमी
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एक आदमी बहुत खुश कि
उसका मत बेकार नहीं गया
दूसरा आदमी दुखी बहुत कि
उसने जिसको वोट दिया
अब की वह तो हार गया
दूर खड़ा इक और आदमी
उन दोनों की इस हालत पर
दोनों को ही आंख मार गया
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हरा नहीं था वह तोता
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दो हाथ-दो पांव वाला
निश्चित रूप से पंख विहीन
हरा रंग तो कतई नहीं
फिर भी लगता था वह तोता
किसी चित्रकार की कल्पना नहीं
लेकिन अपने आप में एक नमूना
प्राइमरी स्कूल का छात्र भी नहीं
पर एकदम ही वह रट्टू था
झक सफेद सुंदर लिबास में
अंदर से था काला कौवा
हट्टा-कट्टा खूब तौंदियल
हंसता-हंसता हाथ जोड़ता
किसी पिंजरे में कैद नहीं था
न दिखा कभी ऊंची उड़ान पर
गरदन उठाए शुतुरमुर्ग सा
नेता उसे ही बनना था
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यह काली स्याही
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वोट देने के बाद पहचान के लिए
उंगली पर लगाई गई यह काली स्याही
जल्द से जल्द कैसे मिटे
इसकी तरकीब सोच रहा हूं
ठीक खाना खाते समय ही
नजर पड़ती है इस पर
मन अजीब से हो जाता है
ऐसे कैसे भला कोई गुंडा-गैंगस्टर भी
जीत जाता है!
इस स्याही से पचास गुना ज्यादा पुती होती थीं
उंगलियां एक उम्र में
तब बिना हाथ धोए ही
चुपके से खा जाते थे कितना तो खाना
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उसके ठप्पे से
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उस दिन एक सौ एक वर्ष की
वृद्धा ने भी वोट दिया था
कितने ही दैनिक अखबारों ने मय फोटो के
इस घटना को छाप लिया था
गांव के जन बाजे-गाजे संग वृद्धा को
उसके हक की खातिर लाये थे
शुक्र कि इस परदादी मां का
वोट सुरक्षित पाए थे
किस निशान पर बटन दबाना
यह थी पूरे गांव की मर्जी
फिर भी कुछ थे खुसुर-पुसुर में
गलत बात है, एकदम फर्जी
कंधों पर अम्मा गठरी जैसी
पर मन में बातों की आंधी
उसके ठप्पे से ही बनी थी
परधान मंतरी इंदिरा गांधी
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ये वे दिन हैं
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कुछ समय पहले खिंचाई
अपनी फोटो से
चेहरा मिला रहा हूं
बार-बार शीशा देखकर
ये वे दिन हैं कि
चंद रोज पहले ही चुनाव निबटे हैं
चंद रोज बाद ही दिवाली आने वाली है
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